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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-11)

बोधकथा-ग्याहरवी 

एक बालक ने मुझसे पूछाः ‘‘मैं बुद्ध-जैसा बनना चाहता हूं। क्या आप मुझे मेरे आदर्श तक पहुंचने के लिए मार्ग-निर्देश कर सकेंगे? ’’ उस बालक की उम्र बहुत थी। वह कम से कम साठ बसंत तो देख ही चुका था! लेकिन जो दूसरों जैसा बनना चाहता है, वह अभी बालक ही है और उसका मस्तिष्क परिपक्व नहीं हुआ है।
क्या व्यक्ति की प्रौ.ढता का लक्षण यही नहीं है कि वह किसी और जैसा नहीं, वरन स्वयं जैसा ही बनना चाहे? और यदि कोई अन्य जैसा बनना भी चाहे तो क्या वह बन सकता है?

व्यक्ति बस स्वयं-जैसा ही हो सकता है। अन्य-जैसा होना असंभव है। मैं उस वृद्ध को बालक कह रहा हूं तो आप हंसते हैं। लेकिन यदि खोजेंगे तो हंसेंगे नहीं, रोएंगे, क्योंकि पाएंगे कि वह बाल-बुद्धि आप में भी मौजूद है। क्या आप भी किसी अन्य-जैसा नहीं होना चाहते हैं?

क्या स्वयं जैसा होने का साहस और प्रौ.ढता आपके भीतर है? यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रौ.ढ हो तो किसी के भी अनुगमन का सवाल नहीं है। क्या बाल-बुद्धि के कारण ही अनुगमन, अनुयायी, शिष्य और गुरु पैदा नहीं होते हैं? और स्मरण रहे कि अनुगमन करनेवाली बुद्धि अप्रौ.ढ तो होती ही है, अंधी भी होती है।
उस वृद्ध बालक को मैंने क्या कहा था?
मैंने कहा थाः ‘‘मित्र, जो किसी और जैसा बनना चाहता है, वह स्वयं को खो देता है। प्रत्येक बीज अपने वृक्ष को स्वयं में लिए हुए है, और ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति भी। स्वयं के अतिरिक्त और अन्यथा होने का मार्ग नहीं है। हां, अन्यथा होने की चेष्टा में यह जरूर हो सकता है कि व्यक्ति वह न हो पाए जो हो सकता था। उसे खोजो जो तुम हो, और उसी खोज में से उसका विकास होता है जो तुम हो सकते हो। इसके अतिरिक्त किसी के लिए कोई आदर्श नहीं है। आदर्शों के नाम पर व्यक्ति स्वयं के विकास-पथ से भटके हैं, कहीं पहुंचे नहीं। आदर्शों की आड में मुझे आत्महत्याएं दिखाई पडती हैं, और आत्महत्याएं ही तो होंगी। मैं जब भी किसी और जैसा होने में लगूंगा, तो क्या करूंगा? स्वयं को मारूंगा, स्वयं को दबाऊंगा, स्वयं से घृणा करूंगा। आत्म-हत्या होगी और होगा पाखंड। क्योंकि, जो मैं नहीं हूं, वह होने का, वह दीखने का, उसे प्रदर्शित करने का अभिनय होगा। व्यक्तित्व में दुई पैदा हुई कि पाखंड आया। जहां व्यक्तित्व में स्व-विरोधी आरोपण है, वहीं असत्य है, वहीं अधर्म है। यह स्वाभाविक है कि ऐसी अस्वाभाविक चेष्टा दुख लाए, चिंता और संताप लाए। इस भांति के तनावों की अति ही मनुष्य में नरक बन जाती है। स्वयं के सत्य और स्वयं की संभावनाओं के साक्षात से ही जो आदर्श जन्मता है, और उसकी छाया की भांति ही जो अनुशासन सहज आता है, उसके सिवाय सभी कुछ व्यक्ति को कुरूप और अपंग करता है। बाहर से आए आदर्श और अनुशासन के चैखटे आत्महिंसा लाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूंः स्वयं को खोजो और स्वयं को पाओ। परमात्मा के द्वार पर केवल उन्हीं का स्वागत है जो स्वयं जैसे हैं। उस द्वार से राम तो निकल सकते हैं, लेकिन रामलीला के राम का निकलना संभव नहीं है। और जब भी कोई बाह्य आदर्शों से अनुप्रेरित हो स्वयं को ढालता है, तो वह रामलीला का राम ही बन सकता है। यह दूसरी बात है कि कोई उसमें ज्यादा सफल हो जाता है, कोई कम! लेकिन अंततः जो जितना ज्यादा सफल है, वह स्वयं से उतनी ही दूर निकल जाता है। रामलीला के रामों की सफलता वस्तुतः स्वयं की विफलता ही है। राम को, बुद्ध को या महावीर को ऊपर से नहीं ओ.ढा जा सकता। जो ओ.ढ लेता है, उसके व्यक्तित्व में न संगीत होता है, न स्वतंत्रता, न सौंदर्य, न सत्य। परमात्मा उसके साथ वही व्यवहार करेगा, जो स्मार्टा के एक बादशाह ने उस व्यक्ति के साथ किया था जो बुलबुल-जैसी आवाजें निकालने में इतना कुशल हो गया था कि मनुष्य की बोली उसे भूल ही गई थी। उस व्यक्ति की बडी ख्याति थी और लोग, दूर-दूर से उसे देखने और सुनने जाते थे। वह अपने कौशल का प्रदर्शन बादशाह के सामने भी करना चाहता था। बडी कठिनाई से वह बादशाह के सामने उपस्थित होने की आज्ञा पा सका। उसने सोचा था कि बादशाह उसकी प्रशंसा करेंगे और पुरस्कारों से सम्मानित भी। अन्य लोगों द्वारा मिली प्रशंसा और पुरस्कारों के कारण उसकी यह आशा उचित ही थी। लेकिन बादशाह ने उससे क्या कहा? बादशाह ने कहाः महानुभाव, मैं बुलबुल को ही गीत गाते सुन चुका हूं, मैं आपसे बुलबुल के गीतों को सुनने की नहीं, वरन उस गीत को सुनने की आशा और अपेक्षा रखता हूं, जिसे गाने के लिए आप पैदा हुए हैं। बुलबुलों के गीतों के लिए बुलबुलें ही काफी हैं। आप जाएं और अपने गीत को तैयार करें और जब वह तैयार हो जाए तो आवें। मैं आपके स्वागत के लिए तैयार रहूंगा और आपके लिए पुरस्कार भी तैयार रहेंगे।’’
निश्चय ही जीवन दूसरों की नकल के लिए नहीं, वरन स्वयं के बीज में जो छिपा है, उसे ही वृक्ष बनाने के लिए है। जीवन अनुकृति नहीं, मौलिक सृष्टि है।

ओशो

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