कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-39)

बोधकथा-उन्नतालिसवां 

मैं एक छोटे से गांव में अतिथि था। गांव तो छोटा था, लेकिन उसमें मंदिर भी था, मस्जिद भी थी। लोग बडे धार्मिक थे और सुबह होते ही अपने-अपने पूजागृहों में जाते थे। रात्रि में भी पूजागृह से लौट कर ही सोते थे। सदा धार्मिक उत्सव भी होते रहते थे। लेकिन, उस गांव का जीवन और गांवों जैसा ही था। धर्म और जीवन एक-दूसरे को छूते नहीं मालूम होते थे। जीवन का अपना रास्ता है और धर्म का अपना। दोनों समानांतर चलते हैं, इसलिए उनके कहीं मिलने का सवाल ही नहीं है। परिणाम में धर्म निष्प्राण हो जाता है और जीवन अधर्म। जो सारी पृथ्वी पर हुआ है, वही उस गांव में भी हुआ था। मैं एक-एक, दो-दो दिन गांव के सभी पूजागृहों में गया और परमात्मा के तथाकथित भक्तों और पुजारियों के हृदय में झांकने की चेष्टा की। उनकी आंखों में खोजा। उनकी प्रार्थनाओं में कुरेदा। उनसे बातें कीं। उनके जीवन में टटोला। उनका आना-जाना, उठना-बैठना देखा। उनमें से कुछ के घर भी गया। उनकी दुकानों पर भी बैठा। जागते में उन्हें समझा। निद्रा में भी उनकी बडबडाहट सुनी। उनके पडोसियों से उनके संबंध में पूछा। एक भगवान के भक्तों से दूसरे भगवान के भक्तों के संबंध में सुना।

एक मंदिर के पुजारियों से दूसरे मंदिर के पुजारियों के बाबत में जानकारी ली। एक धर्म के पंडितों से दूसरे धर्म के पंडितों के संबंध में चर्चा की। ज्ञात हुआ कि धार्मिक दीखनेवाला वह गांव बिल्कुल ही अधार्मिक था। धर्म का आवरण था, अधर्म का जीवन था। अधर्म के जीवन के लिए ही धर्म के आवरण की जरूरत थी। क्या हत्यागृहों को छिपाने के लिए ही पूजागृह नहीं हैं? परमात्मा के पुजारियों को परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं था। परमात्मा को वे जरूर ही बचा कर रखना चाहते थे, क्योंकि परमात्मा पैसे लाता था। परमात्मा के भक्तों को भी परमात्मा से कोई प्रेम नहीं था। संसार की भय-भीतियों से वे परमात्मा में सुरक्षा खोज रहे थे, और संसार के प्रलोभनों में सहायक होने को वे उससे प्रार्थना कर रहे थे। जिनका यह जीवन बुझने को था, वे आगे के लिए उससे आश्वासन चाह रहे थे। सबका प्रेम सुख से था, भोग से था, संसार से था और इसलिए उनकी कोई भी प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं थी। अपनी प्रार्थनाओं में वे परमात्मा को छोड कर और सब-कुछ मांग रहे थे। वस्तुतः प्रार्थना में जब तक कोई मांग है, तब तक वह प्रार्थना परमात्मा के लिए है ही नहीं। प्रार्थना जब मांग से मुक्त होती है, तभी वह प्रार्थना बनती है। परमात्मा के लिए भी मांग हो, तो भी वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं रह जाती है। समस्त मांग से मुक्त होकर ही प्रार्थना परमात्मा से युक्त होती है। निश्चय ही ऐसी प्रार्थना स्तुति नहीं हो सकती है। स्तुति प्रार्थना नहीं, खुशामद है। स्तुति रिश्वत है। वह निम्न मन की अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही परमात्मा के प्रति धोखा भी है। और परमात्मा को धोखा देने से ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उस भांति मनुष्य स्वयं ही स्वयं के हाथों ठगा जाता है।
मित्र, प्रार्थना मांग नहीं है। वह प्रेम है। वह आत्मदान है।
प्रार्थना स्तुति नहीं है। वह तो कृतज्ञता की अत्यंत निगूढ़ भाव-दशा है। और जहां भाव की प्रगाढ़ता है, वहां शब्द कहां।
प्रार्थना वाणी नहीं, मौन है। वह शून्य में समर्पण है। वह शब्द नहीं, शून्य का संगीत है। ध्वनियां जहां समाप्त होती हैं, वहीं संगीत प्रारंभ होता है। प्रार्थना पूजा नहीं है, और न ही प्रार्थना के कोई पूजागृह हैं। उसका बाहर से कोई संबंध नहीं। पर से उसका कोई नाता ही नहीं। वह तो स्वयं का ही अंतरतम जागरण है।
प्रार्थना क्रिया नहीं, चेतना है। वह करना नहीं, होना है।
प्रार्थना के लिए तो बस प्रेम का आविर्भाव ही चाहिए। उसके लिए परमात्मा की कल्पना भी अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी है। जहां प्रार्थना है, वहां परमात्मा है। किंतु जहां परमात्मा की कल्पना है, वहां उस कल्पना के कारण ही परमात्मा उपस्थित होने में असमर्थ हो जाता है।
सत्य एक है। परमात्मा एक है। किंतु असत्य अनेक हैं, कल्पनाएं अनेक हैं, और इसलिए मंदिर अनेक हैं। इसीलिए तो मंदिर परमात्मा तक पहुंचने के लिए द्वार नहीं, दीवार ही बन जाते हैं।
प्रेम में ही जिसने परमात्मा का मंदिर नहीं पाया, उसे किसी भी मंदिर में परमात्मा नहीं मिल सकता है।
और प्रेम क्या है? क्या वह परमात्मा के प्रति आसक्ति है? आसक्ति प्रेम नहीं है। जहां आसक्ति है, वहां शोषण है। आसक्ति में दूसरा है साधन, साध्य है स्वयं। और प्रेम में तो वस्तुतः दूसरा है ही नहीं। किसी के प्रति का संबंध, अहं-संबंध है। और जहां अहंकार है, वहां परमात्मा कहां है? बस प्रेम है। वह किसी के प्रति नहीं है, वह तो बस है। प्रेम जहां किसी के प्रति है, वहां वह मोह है, आसक्ति है, वासना है। प्रेम जब बस है, तब वह वासना नहीं, प्रार्थना है। वासना सागर की ओर बहती नदियों की भांति है। प्रेम सागर की भांति है। वह किसी के प्रति बहाव नहीं है। वह तो स्वयं है। वह किसी के प्रति आकर्षण नहीं, वरन स्वयं में ही होना है, और सागर की भांति प्रेम ही प्रार्थना है। वासना बहाव है, खिंचाव है, तनाव है। प्रार्थना स्थिति है। प्रार्थना स्वयं में विश्रांति है।
प्रेम अपनी पूर्णता में अकारण, अलक्ष्य और अप्रेरित स्फुरण है।
मैं ऐसे ही प्रेम को प्रार्थना कहता हूं।
अन्यथा, हमारी सब प्रार्थनाएं असत्य हैं, आत्मवंचनाएं हैं।
एक कारागृह में फांसी की सजा हुए किसी बंदी का आगमन हुआ था। शीघ्र ही उसकी प्रभु-भक्ति से सारा बंदीगृह गूंज उठा था। भोर के पूर्व ही उसकी पूजा और प्रार्थना प्रारंभ हो जाती थी। प्रभु के प्रति उसका प्रेम असीम था। प्रार्थना के साथ ही साथ उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहती रहती थी। प्रभु-प्रेम से उपजे विरह की हार्दिकता तो उसके गीतों के शब्द-शब्द में थी। वह भगवान का भक्त था और बंदीजन उसके भक्त हो गए थे। कारागृह-अधिपति और अन्य अधिकारी भी उसका समादर करने लगे थे। उसके प्रभु-स्मरण का क्रम तो करीब-करीब अहर्निश ही चलता था। उठते-बैठते-चलते भी उसके ओंठ राम का नाम लेते रहते थे। हाथ में माला के गुरिए घूमते रहते थे। उसकी चादर पर भी राम ही राम लिखा हुआ था। कारागृह-अधिपति जब भी निरीक्षण को आते थे, तभी उसे साधना में लीन पाते थे। लेकिन एक दिन जब वे आए तो उन्होंने पाया कि काफी दिन चढ़ आया है और वह बंदी निशिं्चत सोया हुआ है। उसकी राम-नाम की चादर और माला भी उपेक्षित सी एक कोने में पडी है। अधिपति ने सोचा शायद स्वास्थ्य ठीक नहीं है। किंतु अन्य बंदियों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि स्वास्थ्य तो ठीक है, लेकिन प्रभु-स्मरण कल संध्या से ही न मालूम क्यों बंद है। अधिपति ने कैदी को उठाया और पूछाः ‘‘देर हुई, ब्रह्ममुहूर्त निकल गया है। क्या आज भोर की पूजा-प्रार्थना नहीं करनी है? ’’ वह बंदी बोलाः ‘‘पूजा-प्रार्थना? अब कैसी पूजा और कैसी प्रार्थना? घर से कल ही पत्र मिला है कि फांसी की सजा सात वर्ष के कारावास में परिणत हो गई है। भगवान से जो काम कराना चाहता था, वह पूरा हो गया है। उस बेचारे को अब व्यर्थ ही और तकलीफ देनी उचित नहीं है।’’

ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें