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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-25)

बोधकथा-पच्चीसवीं 

मैं एक सभा में गया था। अछूतों की सभा थी। अछूत की कल्पना ही मेरे हृदय को आंसुओं से भर देती है। वहां पहुंच कर भी मैं बहुत दुखी और उदास था। मनुष्य ने मनुष्य के साथ यह क्या किया है? मनुष्य-मनुष्य के बीच अलंघ्य दीवारें खडी करने वाले लोग भी धार्मिक समझे जाते हैं! धर्म का इससे अधिक पतन और क्या हो सकता है? यदि यही धर्म है तो फिर अधर्म क्या है? ऐसा प्रतीत होता है कि अधर्म के अड्डों ने धर्म की पताकाएं चुरा ली हैं और शैतान के शास्त्र परमात्मा के शास्त्र बने हुए हैं।

धर्म भेद नहीं, अभेद है। धर्म द्वैत नहीं, अद्वैत है। धर्म तो दीवारें बनाने में नहीं, मिटाने में है। लेकिन तथाकथित धर्म भेद ही उपजाते रहे हैं और दीवारें ही बनाते रहे हैं। उनकी शक्ति मनुष्य को तोडने और विभाजित करने में ही सक्रिय रही है। निश्चय ही यह अकारण नहीं हुआ है। असल में मनुष्य को मनुष्य से अलग किए बिना न तो संगठन बन सकते हैं, और न शोषण ही हो सकता है। यदि मनुष्यता समान है और एक है, तो शोषण के मूलाधार ही नष्ट हो जाते हैं।

शोषण के लिए तो असमानता अनिवार्य है, वर्ग और वर्ण आवश्यक हैं। इसीलिए, धर्म अनेक रूपों में असमानता के, वर्गों और वर्णों के समर्थक रहे हैं। वर्ग-वर्णहीन समाज तो अनायास ही शोषण-विरोधी हो जाता है। मनुष्यता की समानता को स्वीकार करना शोषण को अस्वीकार करना है।
फिर मनुष्य-मनुष्य में भेद डाले बिना संगठन और संप्रदाय भी नहीं बन सकते हैं। भेद से भय आता है, द्वेष और घृणा आती है, और अंततः शत्रुता पैदा होती है। शत्रुता से संगठन जन्मते हैं। संगठन मित्रता से नहीं, शत्रुता से जन्मते हैं। प्रेम नहीं, घृणा ही उनकी आधारशिला है। शत्रुता के भय से संगठन पैदा होते हैं। संगठन शक्ति देते हैं। शक्ति शोषण का सामथ्र्य बनती है और अधिकार-लिप्सा की तृप्ति भी। वही फैल कर साम्राज्य-लिप्सा भी बन जाती है। धर्म ऐसे ही छिपे-छिपे राजनीति बन जाते हैं। धर्म आगे चलता है, राजनीति पीछे चलती है। धर्म आवरण ही रह जाता है और राजनीति प्राण बन जाती है। वस्तुतः जहां संगठन हैं, संप्रदाय हैं, वहां धर्म नहीं है, बस राजनीति ही है। धर्म तो साधना है। वह संगठन नहीं है। अनेक धर्म-संगठनों के नाम से भिन्न-भिन्न राजनीतियां ही अपनी चालें चलती रहती हैं। संगठन के अभाव में धर्म तो हो सकता है, लेकिन धर्म नहीं हो सकते हैं, और न ही हो सकते हैं पुजारी और पुरोहित और उनका व्यवसाय। परमात्मा को भी व्यवसाय बना लिया गया है। उसके साथ भी न्यस्तस्वार्थ संबंधित हो गए हैं। इससे ज्यादा अशोभन और अधार्मिक क्या हो सकता है? लेकिन प्रचार की महिमा अपार है और सतत प्रचार से निकट असत्य भी सत्य बन जाते हैं। फिर जो पुजारी, पुरोहित स्वयं शोषण में हैं, वे यदि शोषण-व्यवस्था के समर्थक हों तो आश्चर्य ही क्या है? धर्मों ने समाज की शोषण-व्यवस्था के लिए भी सुदृढ़ स्तंभों का काम किया है। काल्पनिक सिद्धांतों का जाल बुन कर उन्होंने शोषकों को पुण्यात्मा और शोषितों को पापी सिद्ध किया है। शोषितों को समझाया गया है कि यह उनके दुष्कर्मों का फल है। सच ही धर्मों ने लोगों को खूब अफीम खिलाई है।
एक अछूत वृद्ध ने सभा के अंत में मुझसे पूछा थाः ‘‘क्या मैं मंदिरों में आ सकता हूं? ’’ मैंने कहाः ‘‘मंदिरों में? लेकिन किसलिए? परमात्मा तो स्वयं ही पुरोहितों के मंदिरों में कभी नहीं जाता है।’’
प्रकृति के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई मंदिर नहीं है। शेष सब मंदिर और मस्जिद पुरोहितों की ईजाद हैं। परमात्मा से उन मंदिरों का दूर का भी संबंध नहीं। परमात्मा और पुरोहितों में कभी बोल-चाल ही नहीं रहा। मंदिर पुरोहितों की, और पुरोहित शैतान की सृष्टि हैं। वे शैतान के शिष्य हैं। इस कारण ही उनके शास्त्र और संप्रदाय मनुष्य को मनुष्य से लडाने के केंद्र रहे हैं। उन्होंने बातें तो प्रेम की की हैं, और जहर घृणा का फैलाया है। असल में जहर शक्कर-च.ढी गोलियों में देना ही आसान होता है। फिर भी मनुष्य पुरोहितों से सावधान नहीं है। जब भी उसे परमात्मा का स्मरण आता है, वह पुरोहितों के चक्कर में पड जाता है। मनुष्य के परमात्मा से संबंध क्षीण होने का आधारभूत कारण यही है। पुरोहित सदा से ही परमात्मा की हत्या करने में संलग्न रहे हैं। उनके अतिरिक्त परमात्मा का हत्यारा और कोई भी नहीं है। परमात्मा को चुनना है तो पुजारी को नहीं चुना जा सकता है। उन दोनों की पूजा एक ही साथ नहीं की जा सकती। पुजारी जैसे ही मंदिर में प्रवेश करता है, वैसे ही परमात्मा मंदिर से बाहर हो जाता है। परमात्मा से नाता जोडने के लिए पुरोहित से मुक्त होना आवश्यक है। भक्त और भगवान के बीच वही बाधा है। प्रेम किसी को भी बीच में पसंद नहीं करता है।
एक भोर की बात है। अभी अंधेरा ही था। जैसे ही मंदिर के द्वार खुले कि एक अछूत मंदिर की सी.िढयां चढ़ कर द्वार पर पहुंच गया। वह द्वार के भीतर पैर रखने को ही था कि पुजारी क्रोध से गरजाः ‘‘रुक, रुक, पामर! एक पग भी आगे ब.ढाया तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा। मूढ़! परमात्मा के मंदिर की पवित्र सी.िढयां तूने अपवित्र कर दी हैं।’’ सहमे हुए अछूत ने उठा हुआ पैर वापस ले लिया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। परमात्मा के लिए उसके प्यासे हृदय में जैसे किसी ने छुरी भोंक दी थी। वह रोता हुआ बोलाः ‘‘हे परमात्मा, मेरा ऐसा कौन सा पाप है, जिसके कारण तेरे दर्शन मुझे नहीं हो सकते हैं? ’’ परमात्मा की ओर से पुजारी ने कहाः ‘‘तू जन्म से अशुद्ध है, पाप-भंडार है।’’ उस अछूत ने प्रार्थना कीः ‘‘फिर मैं शुद्धि के लिए साधना करूंगा, लेकिन प्रभु-दर्शन के बिना नहीं मरना चाहता हूं।’’ और फिर वर्षों तक उस अछूत का कोई पता न चला। वह न मालूम कहां चला गया था। लोग उसे भूल ही गए थे और तब अचानक एक दिन वह गांव में आया। गांव के प्रवेश-द्वार पर ही वह देवालय था। पुजारी ने उसे देवालय के पास से जाते देखा। एक अपूर्व तेज उसके चेहरे पर था। एक अपूर्व शांति उसकी आंखों में थी। उसके आसपास भी जैसे प्रकाश का एक मंडल था। लेकिन उसने देवालय की ओर आंख भी उठा कर नहीं देखा। वह उस ओर से बिल्कुल निरपेक्ष और असंग दीख रहा था। लेकिन पुजारी से न रहा गया। उसने उसे पुकारा और पूछाः ‘‘क्यों रे! क्या शुद्धि की साधना पूरी कर ली? ’’ वह अछूत इस पर हंसा और उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। पुजारी ने पूछाः ‘‘फिर मंदिर में क्यों नहीं आता? ’’ वह अछूत बोलाः ‘‘महाराज, क्या करूं आकर? प्रभु ने दर्शन दिए तो कहाः मेरी खोज में मंदिर क्यों गया था? वहां कुछ भी नहीं है। मैं तो स्वयं ही कभी उन मंदिरों में नहीं गया हूं। और जाऊं भी तो क्या पुजारी मुझे वहां घुसने दे सकते हैं? ’’

ओशो

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