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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-12)

बोधकथा-बारहवी  

मनुष्य अकेला है, अंधकार में है, असहाय है, असुरक्षित और भयभीत है। यही उसकी चिंता है। इससे मुक्ति का उपाय ही धर्म है।
धर्म मूलतः अभय में प्रतिष्ठा का मार्ग है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो धर्म हैं, वे अभय से ही सर्वाधिक भयभीत रहते हैं। उनका स्वयं का आधार और प्राण ही मनुष्य-मन का भय है। भय ही उनका पोषण और जीवन है। अभय का तो अर्थ ही है, उनकी मृत्यु। मनुष्य के भय का बहुत शोषण हुआ है। इस शोषण में धर्म पीछे नहीं रहे हैं। शायद, वे ही अग्रणी हैं! भय के सहारे ही भूत-प्रेत जीते हैं, भय के सहारे ही धर्मों के भगवान भी। भय के सहारे खडे भूत-प्रेतों ने तो मनुष्य को डराया ही है।
फिर भी यह कार्य उनके मनोविनोद की क्रीडा से ज्यादा नहीं रहा। लेकिन भय के भगवानों ने तो मनुष्य को मार ही डाला है। उनकी लीला बहुत महंगी पडी है। जीवन भयों के जाल में फंस गया है, और जहां भय ही भय है, वहां आनंद कहां? प्रेम कहां? शांति कहां? सत्य कहां? आनंद तो अभय की स्फुरणा है। भय मृत्यु है। अभय अमृत है।
भय पर भूत-प्रेत जीएं, यह तो समझ में आता है, लेकिन भय पर ही भगवान का भी जीना बहुत अशोभन है।

और फिर जब भगवान ही भय पर जीएं, तब तो भय के भूत-प्रेतों से मुक्ति का कोई उपाय ही नहीं है!
मैं कहता हूंः भगवान का भय से कोई संबंध नहीं है। निश्चय ही भगवान की आड में इस भय का शोषण कोई और ही कर रहा है।
धर्म धार्मिकों के हाथ में नहीं है। कहते हैं कि जब भी सत्य का कोई आविष्कार होता है तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। धर्म का आविष्कार जिन आत्माओं में होता है, और धर्म का व्यवसाय जो करते हैं, उनमें भिन्नता ही नहीं, आधारभूत विरोध है। धर्म सदा से ही स्वयं के शत्रुओं के हाथ में है। यदि इस तथ्य को समय रहते नहीं समझा गया तो मनुष्य का भविष्य सुंदर और स्वागतयोग्य नहीं हो सकता है।
धर्म को अधार्मिकों से नहीं, तथाकथित धार्मिकों से ही बचाना है। और निश्चय ही यह कार्य ज्यादा कठिन और कष्टसाध्य है।
धर्म जब तक भय पर आधारित है, तब तक वह वस्तुतः धर्म नहीं बन सकता है। परमात्मा का आधार प्रेम है। भय के भगवान की नहीं, मनुष्य को प्रेम के परमात्मा की आवश्यकता है।
प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई पथ नहीं है। भय तो न केवल गलत है, बल्कि घातक है। क्योंकि जहां भय है, वहां घृणा है। जहां भय है, वहां प्रेम असंभव है।
धर्म ने भय पर ही जीना चाहा, इसलिए ही उसका मंदिर धीरे-धीरे खंडहर होता गया है। मंदिर तो प्रेम के होते हैं। भय के मंदिर तो असंभव हैं। भय के मंदिर नहीं, कारागृह ही होते हैं और हो सकते हैं।
मैं पूछता हूंः क्या धर्मों के मंदिर, मंदिर हैं या कारागृह?
धर्म यदि भय है तो मंदिर कारागृह होंगे ही। धर्म यदि भय है तो स्वयं परमात्मा भी कारागृहों के परमाधिकारी से ज्यादा कैसे हो सकता है?
धर्म क्या है? भय पाप का, दंड का, नरक का? या फिर प्रलोभन पुण्य का, पुरस्कार का, स्वर्ग का?
नहीं। न धर्म भय है, न प्रलोभन। प्रलोभन तो भय का ही विस्तार है।
धर्म है अभय।
धर्म है समस्त भयों से मुक्ति।
एक पुरानी घटना है। किसी नगरी में दो भाई रहते थे। उस नगरी में सर्वाधिक धन उन्हीं के पास था। शायद नगरी का नाम था, अंधेर नगरी! बडा भाई बडा धार्मिक था। रोज नियमित मंदिर जाता था। दान-पुण्य करता था। कथा-वार्ता सुनता था। साधु-संतों का सत्संग करता था। उसके कारण भवन में प्रतिदिन ही महात्माओं की भीड जुडी रहती थी। इस लोक में साधु-संतों की सेवा से वह परलोक में स्वर्ग का अधिकारी बन गया था। ऐसा वे साधु-संत उसे समझाते थे। शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है, क्योंकि वे शास्त्र भी उन्हीं साधु-संतों के गिरोह ने बनाए हैं। वह एक ओर धन का शोषण करता था और दूसरी ओर दान-पुण्य करता। दान-पुण्य के बिना स्वर्ग नहीं है। धन के बिना दान-पुण्य नहीं है। शोषण के बिना धन नहीं है। अधर्म से धन होता है और फिर धन से धर्म होता है! वह दूसरों का शोषण करता था। साधु-संत उसका शोषण करते थे और शोषकों-शोषकों में तो सदा से ही मैत्री रही है! लेकिन उसे अपने छोटे भाई पर सदा ही बहुत दया आती थी। वह धन जुटाने में कुशल नहीं था, और परिणामतः धर्म जुटाने में भी असफल हुआ जाता था। उसका प्रेम और सत्य का व्यवहार ही उसके और परमात्मा के आडे आ रहा था! फिर न वह मंदिर ही जाता था और न धर्म-शास्त्रों का क, ख, ग, ही जानता था। उसकी स्थिति निश्चित ही दयनीय थी और परलोक में उसका खाता खाली पडा था। साधु-संतों से भी वह ऐसे बचता था, जैसे लोग छुतही बीमारियों से बचते हैं। महात्मागण घर में एक द्वार से आते तो वह दूसरे द्वार से बाहर हो जाता था। उसका धार्मिक भाई अनेक महात्माओं से अपने अधार्मिक भाई के हृदय-परिवर्तन के लिए प्रार्थना करता था। लेकिन जब वह महात्माओं के सान्निध्य में रुके तभी तो परिवर्तन हो। वह तो रुकता ही नहीं था। लेकिन एक दिन एक पूरे और असली महात्मा आ पहुंचे। उन्होंने न मालूम कितने अधार्मिकों को धार्मिक बना दिया था। साम, दाम, दंड, भेद, सभी में वे कुशल थे। लोगों को धार्मिक बनाना ही उनका धंधा था। ऐसे ही महात्माओं पर तो धर्म की आधारशिलाएं टिकी हैं। नहीं तो धर्म तो कभी का ही मिट-मिटा गया होता। उनसे भी बडे भाई ने अपनी प्रार्थना दुहराई तो वे बोलेः ‘‘घबडाओ मत। उस मूर्ख की अब शामत आ गई है। मैं उससे प्रभु-स्मरण कराके ही रहूंगा। मैं जो कहता हूं, उसे सदा पूरा करता हूं।’’ यह कह कर उन्होंने अपना डंडा उठाया और बडे भाई के साथ हो लिए। पहले वे एक पहलवान थे। फिर महात्मागिरी को पहलवानी से भी अच्छा धंधा समझ महात्मा हो गए थे। उन्होंने आते ही छोटे भाई को पकड लिया। न केवल पकडा ही, बल्कि गिरा कर उसकी छाती पर सवार हो गए। वह युवक कुछ समझ ही न पाया। हैरानी से वह अवाक ही रह गया। फिर भी उसने कहाः ‘‘महानुभाव! यह क्या करते हैं? ’’ महात्मा ने कहाः ‘‘हृदय-परिवर्तन।’’ वह युवक हंसा और बोलाः ‘‘छोडिए। यह भी हृदय-परिवर्तन की कोई राह है? देखिए, कहीं आपकी देह को कुछ चोट न लग जाए!’’ महात्मा बोलेः ‘‘हम देह को माननेवाले नहीं। हम तो ब्रह्म को मानते हैं। ‘राम’ कहो, तभी छोडेंगे। नहीं तो हम से बुरा कोई भी नहीं है।’’ महात्मा बडे दयालु थे, सो उस युवक के हित के लिए मारने-पीटने को तैयार हो गए। उस युवक ने कहाः ‘‘भय से भगवान का क्या संबंध? और भगवान का क्या कोई नाम है? और, नाम भी हो तो प्रभुमय जीवन चाहिए या उसका स्मरण? ऐसे तो मैं ‘राम’ नहीं बोलूंगा। चाहे जीवन रहे या जाए।’’ और फिर उसने महात्मा को धक्का दे नीचे गिरा दिया। गिर कर महात्मा बोलेः ‘‘वाह, वाह! बोल दिया। ‘मैं राम नहीं बोलूंगा’, यह भी राम बोलना ही है।’’ उसका भाई महात्मा के गिराए जाने से छोटे भाई पर बहुत नाराज हुआ, लेकिन महात्मा से वह बहुत प्रसन्न था। नास्तिक भाई से उसने प्रभु-स्मरण जो करा दिया था! राम-नाम की महिमा तो अपार है। उसे तो एक बार भूल से बोलने से भी मनुष्य भवसागर से तर जाता है! उस दिन उसने नगर-भोज दिया। उसका छोटा भाई धार्मिक जो हो गया था!

ओशो

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