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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-56)

बोधकथा-छप्पनवी 

एक दिन मैं सुबह-सुबह उठ कर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहाः ‘‘आप के संबंध में कुछ व्यक्ति बहुत आलोचना करते हैं। कोई कहता है आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर क्यों नहीं देते? ’’ मैंने कहाः ‘‘जो बात व्यर्थ है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहां है? क्या उत्तर देने योग्य मान कर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं? ’’ यह सुन कर उनमें से एक ने कहाः ‘‘लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी तो ठीक नहीं।’’ मैंने कहाः ‘‘ठीक कहते हैं। लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा ही करनी है, उन्हें रोकना कभी भी संभव नहीं हुआ है। वे बडे आविष्कारक होते हैं और सदा ही नये मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं।’’ और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूं।

पूर्णिमा की रात्रि थी। शुभ्र ज्योत्स्ना में सारी पृथ्वी डूबी हुई थी। शंकर और पार्वती अपने प्यारे नंदी पर सवार होकर भ्रमण को निकले थे। किंतु वे जैसे ही थोडे आगे गए थे कि कुछ लोग उन्हें मार्ग में मिले। उन्हें नंदी पर बैठे देख कर उन लोगों ने कहाः

‘‘देखो बेशर्मों को। बैल की जान में जान नहीं है और दो-दो उस पर चढ़ कर बैठे हैं!’’ उनकी यह बात सुनी तो पार्वती नीचे उतर गईं और पैदल चलने लगीं। किंतु थोडे ही दूर जाने पर फिर कुछ लोग मिले। वे बोलेः ‘‘अरे मजा तो देखो, सुकुमार अबला को पैदल चला कर यह कौन बैल पर बैठा चला जा रहा है भाई! बेशर्मी की भी हद है!’’ यह सुन कर शंकर नीचे उतर आए और पार्वती को नंदी पर बैठा दिया। लेकिन कुछ ही कदम गए होंगे कि फिर कुछ लोगों ने कहाः ‘‘कैसी बेहया औरत है; पति को पैदल चला कर खुद बैल पर बैठी है। मित्रो, कलियुग आ गया है।’’ ऐसी स्थिति देख आखिर दोनों ही नंदी के साथ पैदल चलने लगे। किंतु थोडी ही दूर न जा पाए होंगे कि कुछ लोगों ने कहाः ‘‘देखो, मूर्खों को। इतना तगडा बैल साथ में है और ये पैदल चल रहे हैं।’’ अब तो बडी कठिनाई हो गई। शंकर और पार्वती को कुछ भी करने को शेष न रहा। नंदी को एक वृक्ष के नीचे रोक वे विचार करने लगे। अब तक नंदी चुप था। अब वह हंसा और बोलाः ‘‘एक रास्ता मैं बताऊं? अब आप दोनों मुझे अपने सिरों पर उठा लीजिए।’’ यह सुनते ही शंकर और पार्वती को होश आया और दोनों फिर नंदी पर सवार हो गए। लोग फिर भी कुछ न कुछ कहते निकलते रहे। असल में लोग बिना कुछ कहे निकल भी कैसे सकते हैं? अब शंकर और पार्वती चांदनी की सैर का आनंद लूट रहे थे और भूल गए थे कि मार्ग पर कोई भी निकल रहा है।
जीवन में यदि कहीं पहुंचना हो तो राह में मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की बात पर ध्यान देना आत्मघातक है।
वस्तुतः जिस व्यक्ति की सलाह का कोई मूल्य है, वह कभी बिना मांगे सलाह देता ही नहीं है।
और यह भी स्मरण रहे कि जो स्वयं के विवेक से नहीं चलता है, उसकी गति हवा के झोंकों में उडते सूखे पत्तों की भांति हो जाती है।

ओशो

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