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बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-32)

बोधकथा-बत्तीसवी 

एक स्त्री ने पूछाः ‘‘मैं स्वयं को बदलना चाहती हूं। क्या करूं? ’’
मैंने कहाः ‘‘सबसे पहली बातः वस्त्रों को बदलने से बचना। क्योंकि जब भी किसी के जीवन में आत्मक्रांति की घडी आती है, तब उसका मन उसे वस्त्रों के बदलने में संलग्न कर देता है। मन के लिए यही सुविधापूर्ण है और इसमें ही उसकी सुरक्षा भी है। वस्त्रों के परिवर्तन से मन की मृत्यु तो होती नहीं, अपितु नये वस्त्रों में, जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों के बजाय, वह और भी दीर्घायु हो जाता है। वस्त्रों के परिवर्तन से आत्मक्रांति तो नहीं होती, उल्टे अहंतुष्टि हो जाती है। और अहंतुुष्टि आत्मघात ही है।
वह स्त्री पूछने लगीः ‘‘कौन से वस्त्र? ’’

मैंने कहाः ‘‘बहुत प्रकार के वस्त्र हैं। बहुत प्रकार के आवरण हैं। बहुत प्रकार की आत्मवंचनाएं हैं। जो भी ऊपर से ओ.ढा जा सके, उससे सावधान रहना। जो भी स्वयं के यथार्थ को ढांकता हो, उसे ही आत्मवंचना जानना। उसे ही मैं वस्त्रों का नाम दे रहा हूं। व्यक्ति पापी है तो वह पुण्य के वस्त्र पहन लेता है। व्यक्ति हिंसक है तो अहिंसा के वस्त्र धारण कर लेता है।

व्यक्ति अज्ञानी है तो वह शास्त्रों और शब्दों से स्वयं को भर कर ज्ञान को ओढ़ लेता है। धर्म से बचने के लिए धर्म के वस्त्रों को धारण कर लेना अधार्मिक चित्त की सनातन चाल है। क्या जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें चारों ओर दिखाई नहीं पडता है? ’’
फिर उसने कुछ सोचा और कहाः ‘‘मैं संन्यासिनी होना चाहती हूं।’’
मैंने कहाः ‘‘बस। तब जानो कि वस्त्रों को बदलने का प्रारंभ हो गया है। जब भी व्यक्ति कुछ होना चाहता है, तभी मन का षड्यंत्र शुरू हो जाता है। कुछ होने की महत्वाकांक्षा ही मन है। यह महत्वाकांक्षा ही उसे भुलाना चाहती है, जो है, और उसे ओढ़ना चाहती है, जो नहीं है। आदर्श ही सारे आवरणों और मुखौटों के जन्मदाता हैं। जिसे सत्य को जानना है, और सत्य को जाने बिना कोई मौलिक आत्मक्रांति संभव नहीं है, उसे जानना होगा जो वह वस्तुतः है। वह जो नहीं है, उसकी आकांक्षा में नहीं, वरन वह जो है उसके पूर्ण अनावरण में क्रांति फलित होती है। व्यक्ति जब स्वयं के सत्य को पूर्णतया जानता है तो यही ज्ञान क्रांति बन जाता है। ज्ञान की क्रांति में समय का अंतराल नहीं है। जहां समय का अंतराल है, वहां क्रांति नहीं आवरण-परिवर्तन की ही खोज है।’’
और फिर उससे मैंने एक घटना कहीः
एक दिन अबु हसन के पास एक व्यक्ति आया और बोलाः ‘‘ओ परमात्मा के प्यारे दरवेश! मैं अपने अपवित्र जीवन से भयाक्रांत हूं और स्वयं को बदलने के लिए कटिबद्ध हूं। मैं संन्यासी होना चाहता हूं। क्या आप मुझ पर अनुकंपा नहीं करेंगे? क्या आप अपने पहने हुए पवित्र वस्त्र मुझे नहीं दे सकते हैं? मैं भी उन्हें पहन कर पवित्र होना चाहता हूं।’’
उस व्यक्ति ने हसन के पैरों पर सिर रख दिया और उन्हें आंसुओं से गीला कर दिया। उसकी उत्कट आकांक्षा में संदेह का तो सवाल ही नहीं था। उसके आंसू ही क्या उसके लिए गवाह नहीं थे?
अबु हसन ने उसे उठाया और कहाः ‘‘मित्र! इसके पहले कि मैं तुम्हें अपने वस्त्रों को देने की भूल करूं, क्या तुम भी मेरे एक प्रश्न का उत्तर देने की कृपा कर सकते हो? क्या कोई स्त्री किसी पुरुष के वस्त्रों को पहन कर पुरुष हो सकती है? या कोई पुरुष किसी स्त्री के वस्त्र पहन कर स्त्री हो सकता है?
उस व्यक्ति ने अपने आंसू पोंछ लिए। संभवतः वह गलत जगह आ गया था। और कहाः ‘‘नहीं।’’
अबु हसन हंसने लगा और बोलाः ‘‘ये रहे मेरे वस्त्र! लेकिन यदि तुम मेरे शरीर को भी ओढ़ लो तो क्या होगा? संन्यासी के वस्त्र पहन कर क्या कभी कोई संन्यासी हुआ है? ’’
यदि मैं हसन की जगह होता तो कहताः ‘‘क्या कभी कोई संन्यासी होने की आकांक्षा से प्रेरित होकर भी संन्यासी हुआ है? संन्यास आता है। वह ज्ञान का फल है और जहां कुछ भी होने की आकांक्षा है, वहां ज्ञान नहीं है। क्योंकि, आकांक्षा से आंदोलित चित्त होता है अशांत, और अशांति में ज्ञान कहां? जहां कुछ भी होने की वासना है, वहां स्वयं से पलायन है। और जो स्वयं से ही भागता है, वह स्वयं को जान कैसे सकता है? इसलिए मैं कहता हूंः भागो नहीं, जागो। बदलो नहीं, देखो। क्योंकि जो जागता है और स्वयं को देखता है, धर्म स्वयं ही उसके द्वार पर आ जाता है।’’
एक धनपति ने किसी विशेष अवसर पर अपने मित्रों को भोज दिया था। उस राज्य का राजा भी भोज में उपस्थित था। इस कारण उस धनपति की खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन अतिथि भोजन करने बैठे ही थे कि उसकी खुशी क्रोध में बदल गई। उसके दास-दासियां सेवा में लगे थे, एक दास से उसके पैर पर गर्म भोजन से भरी थाली गिर पडी। उसका पैर जल गया और उसकी आंखों में क्रोध उबल पडा। निश्चय ही उस गुलाम के जीवित बचने की अब कोई संभावना नहीं थी। वह गुलाम भय से थर-थर कांप रहा था। लेकिन मरता क्या न करता? उसने आत्मरक्षा के लिए उस देश के पवित्र धर्म-ग्रंथ से एक उद्धृत कियाः ‘‘स्वर्ग उसका है जो अपने क्रोध पर संयम करता है।’’
उसके मालिक ने सुना। उसकी आंखों में तो क्रोध उबल रहा था, लेकिन फिर भी वह संयमित होकर बोलाः ‘‘मैं क्रोध में नहीं हूं।’’
इस पर स्वभावतः अतिथियों ने तालियां बजाईं और स्वयं राजा ने भी प्रशंसा की। उस धनपति की आंखों का क्रोध अभिमान बन गया। वह गौरवान्वित हुआ था।
लेकिन उस दास ने फिर कहाः ‘‘स्वर्ग उसका है जो क्षमा करता है।’’ उसके मालिक ने कहाः ‘‘मैंने तुम्हें क्षमा किया।’’
यद्यपि उन आंखों में क्षमा कहां जो अहंकार से भरी हों। लेकिन अहंकार क्षमा करके भी तो पुष्ट हो सकता है। अहंकार के मार्ग बहुत सूक्ष्म हैं।
वह धनपति अब तो अतिथियों को अत्यंत धार्मिक मालूम होने लगा था। उन्होंने तो सदा उसे एक क्रूर शोषक की भांति ही जाना था। उसके इस अभिनव रूप को देख कर तो वे चकित ही रह गए थे। सामने ही बैठे राजा ने भी उसे ऐसे देखा जैसे कोई अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति को देखता है। वह धनपति अब पृथ्वी पर नहीं था। उसका सिर आकाश छू रहा था।
अंततः उस दास ने धर्मग्रंथ का अधूरा पूरा किया, ‘‘क्योंकि, परमात्मा उन्हें प्रेम करता है, जो दयालु हैं।’’
उस धनपति ने चारों ओर देखा। लौकिक लोभ तो सदा ही उसकी आंखों में था। आज वही पारलौकिक बन गया था। उस गुलाम से उसने कहाः ‘‘जाओ, मैंने तुम्हें मुक्त किया। अब तुम मेरे गुलाम नहीं हो।’’ और साथ ही स्वर्ण-मुद्राओं से भरी एक थैली भी उसे भेंट दी। उसकी आंखों में क्रोध, अहंकार बना था। अब वही लोभ बन गया था। क्रोध, लोभ, घृणा, भय--क्या सभी किसी एक ही शक्ति की अभिव्यक्तियां नहीं हैं?
और जब धर्म इतना सस्ता हो तो कौन धनपति उसे न खरीदना चाहेगा?
धर्म भी क्या भय और लोभ के खंभों पर ही नहीं खडा हुआ है?
मैं पूछता हूं फिर अधर्म के खंभे कौन से हैं?
धर्म के मंदिर के शिखर पर भी क्या अहंकार ही नहीं है?
मैं पूछता हूं फिर अधर्म के मंदिर का शिखर कौन सा है?

ओशो

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