कुल पेज दृश्य

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन--(सौंदर्य के अनंत आयाम

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि सौंदर्य को देखते ही उसे भोगने की इच्छा पैदा होती है। सौंदर्य को देखते ही उसके मालिक बनने की इच्छा पैदा होती है। उसे पजेस करने का मन होता है। ऐसी स्थिति में साधारण मनुष्य क्या करे? अब तक साधारण मनुष्य को जो संदेश दिया गया है, वह दमन करने का है कि वह अपने को दबाए, अपने को रोके, संयम करे, वहां से आंख मोड़ लें जहां सौंदर्य हो। वहां से भाग जाए जहां डर हो। अभी एक स्वामी जी महाराज लंदन होकर वापस लौटे, लाखों रुपया उनके ऊपर खर्च किए गए थे कि कोई स्त्री उन्हें दिखाई न पड़ जाए। इतना भय सौंदर्य का जिस मन में हो उस मन की कामुकता और सेक्सुअलिटी का हम अंदाज लगा सकते हैं। और जो पुरुष स्त्री से इतना भयभीत हो उस पुरुष के भीतर कैसी वास्तविक वृत्तियां हमला कर रही हों, इसका भी अनुमान लगा सकते हैं। सौंदर्य में भी अगर सेक्स दिखाई पड़े और परमात्मा न दिखाई पड़ सके उसके दमन की कहानी बहुत स्पष्ट है। लेकिन हजारों साल से आदमी को यही सिखाया गया है कि अपने को दबाओ, दबाने से कोई मुक्त नहीं होता। दबाने से जहर और बढ़ता है। दबाने से बीमारी और बढ़ती है। तो साधारणतया दिखाई पड़ता है कि दबाओ मत तुम भोगो हो। एक रास्ता तो यह है कि स्त्री दिखाई न पड़े, आंख ही फोड़ लो अपनी, सूरदास हो जाओ। दूसरा रास्ता यह है कि स्त्री दिखाई पड़े तो चंगेज खां हो जाओ, कि फौरन उसे अपने हरम में पहुुंचाओ।

जहां सौंदर्य दिखाई पड़े उसे फौरन अपने घर की चारदीवारी में बंद करो। ये दोनों रास्ते दो रास्ते नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये एक ही आदमी की दो शक्लें हैं। चंगीज खां में और स्वामी जी महाराज में बुनियादी फर्क नहीं है। जो आदमी स्त्री से इतना भयभीत है वह स्त्री पर हमला करने को उत्सुक है। वह अपने हमले से ही भयभीत है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाश्विक भोग की आकांक्षा और अमानवीय दमन की इच्छा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं इन दोनो में से किसी के समर्थन में नहीं हंू। इसलिए थोड़ी मेरी बात सहानुभूति से समझने की कोशिश करनी पड़ेगी।
पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हंू कि दमन के कारण ही सौंदर्य को तत्काल मालकियत में ले लेने की इच्छा पैदा होती है। सौंदर्य का भोग बहुत और बात है। जब रास्ते के किनारे से आप एक फूल के सौंदर्य को देखते हैं, तो यदि आपके मन में तत्काल उस फूल को तोड़ने की इच्छा पैदा होती है तो मैं आपसे कहंूगा कि आप फूल के सौंदर्य को जान ही नहीं पाए। क्योंकि तोड़ते ही फूल निर्जीव और मृत हो जाएगा। जो आदमी फूल को प्रेम करता है वह फूल को तोड़ ही नहीं सकता। उसका प्रेम ही उसे रोकने का कारण बनेगा। क्योंकि तोड़ने का अर्थ क्या होगा? तोड़ने का अर्थ है फूल को नष्ट कर देना। असल में हम जब भी किसी चीज को अपनी मुट्ठी में लेते हैं, तो उसे नष्ट कर देते हैं। असल में किसी चीज को मुट्ठी में लेना बहुत कुरूप चित्त का लक्षण है। सौंदर्य का जिसके पास बोध है उसके पास मालकियत होती ही नहीं। क्योंकि मालकियत का मतलब है गुलामी। मालकियत का मतलब है किसी को गुलाम बनाने की कोशिश, और जिसके मन में सौंदर्य का अनुभव हुआ है वह गुलामी की कुरूपता का भी अनुभव करेगा। नहीं, हमारे सौंदर्य का बोध ही बहुत क्षीण है। जिसको एस्थेटिक सेंस कहें, वह हममें है ही नहीं। वह विकसित ही नहीं हो पाया। हमारे भीतर तो तत्काल खा जाने को, हड़प जाने को, मालिक बन जाने को बैठा हुआ पशु है और इसे जितना हमने दबाया है वह उतना ही प्रबल होता गया है। जितना उसे दबाया है उतना ही वह जोर से मांग करता है।
 सौंदर्य का बोध यदि विकसित हो सके तो आदमी मालिक बनना नहीं चाहता है। और सौंदर्य का बोध अपने में ही इतना बड़ा भोग है कि और किसी भोग की आकांक्षा नहीं रह जाती। तो मैं चाहूंगा कि सौंदर्य का बोध विकसित होना चाहिए, उसका भी प्रशिक्षण है। हम साधारणतया सोचते हैं कि फूल को देख कर हम सभी को सौंदर्य दिखाई पड़ जाता है, तो हम गलती पर हैं। फूल का सौंदर्य सभी को दिखाई नहीं पड़ता। हमने कविताएं सुन लीं, हजारों साल से आती हुई बात सुन ली कि फूल सुंदर है इसलिए हम फूल को सुंदर कहे चले जाते हैं। लेकिन यह केवल एक परंपरा है इसका हमें कोई बोध नहीं है। कोई फूल हमें रोक नहीं पाता। न ही किसी फूल को देख कर हम किसी विभोर अवस्था में चले जाते हैं। न किसी फूल को देख कर हम नाचते हैं। न किसी फूल को देख कर दो क्षण हम उसके पास ठहर कर अपनी आंखों में उस फूल को पूरा प्रवेश कर जाने देते हैं। नहीं, फूल का हमें कुछ भी पता नहीं। हमने कविताएं पढ़ीं और हमने चित्र देखे हैं और हमने परंपराओं से बात सुनी है कि फूल सुंदर है। बस, हमने स्वीकार कर लिया है। हम मनुष्य के शरीर के सौंदर्य को भी नहीं जानते। हम आंखों के सौंदर्य को भी नहीं पहचानते। हमारी सौंदर्य को समझने की क्षमता न के बराबर है। हम सबने यह मान रखा है कि जन्म से ही हमें सौंदर्य का बोध है, यह वैसे ही है जैसे हम मान रखे हैं कि जन्म से ही सबको गणित का पता है, और गणित का कोई शिक्षण न हो।
अब दुनिया में हर आदमी समझे कि जन्म से ही हमें गणित का पता है, तो पक्का मानिए उस दुनिया में जो भी गणित होंगे सब गलत होंगे। अगर हम जन्म से ही मान लें कि भाषा का हमें पता है तो दुनिया में कोई भाषा न बोली जाएगी। हमने जन्म से जिन चीजों को मान लिया है वे सब कठिनाई में पड़ गई है। हमने मान लिया है कि सौंदर्य का हमें पता है। सौंदर्य का पता बहुत बड़ा प्रशिक्षण है। सौंदर्य का बोध बहुत बड़ी साधना है। और जब सौंदर्य का बोध होना शुरू होता है, तब हम मालिक नहीं बनना चाहते। क्योंकि मालिक बनना कुरूप चित्त का लक्षण है। असल में जो आदमी भी किसी स्त्री का पति बनना चाहता है, स्वामी बनना चाहता है वह आदमी उस स्त्री को प्रेम नहीं करता है। क्योंकि स्वामी बनने की आकांक्षा ही किसी को गुलाम बनाने की आकांक्षा है। और जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे हम गुलाम बनाना चाहेंगे। जिस दिन अच्छी दुनिया होगी उस दिन प्रेमी और प्रेयसी तो होंगे, पति और पत्नी बिलकुल नहीं हो सकते। इनसे ज्यादा अग्ली इनसे ज्यादा कुरूप संबंध को खोजना बहुत मुश्किल है। और स्त्रियां अपने पतियों को चिट्ठियों में लिख रही हैं कि आपकी दासी और पति बड़े प्रसन्न हो रहे हैं और पति का मतलब ही होता है स्वामी। लेकिन अब तक हमने जो मनुष्यों के संबंध बनाए हैं, उनके भीतर सौंदर्य का कोई संबंध नहीं।
 हम एक-दूसरे व्यक्ति को साधन की तरह उपयोग करना चाहते हैं। एक पति अपनी पत्नी का एक साधन की तरह उपयोग करना चाहता है, एक मशीन की तरह; जो उसके भीतर के कुछ उबलते हुए वेगों को निकालने में सहयोगी हो जाए। यह कोई संबंध नहीं है, और न कोई इसमें सौंदर्य का बोध। इससे ज्यादा कुरूप और कोई बात नहीं हो सकती। मनुष्य जाति के मन को हमने जिस भांति तैयार किया है उसमें हमने सौंदर्य की शिक्षा ही नहीं डाली। काश, हम सुंदर के प्रति जाग सकें तो वह हमें सिर्फ मनुष्यों में नही दिखाई पड़ेगा, चांद-तारों में भी दिखाई पड़ेगा, आकाश में भी दिखाई पड़ेगा, बादलों में भी दिखाई पड़ेगा, कंकड़-पत्थरों में भी दिखाई पड़ेगा, फूल-पत्तों में भी दिखाई पड़ेगा। वह हमें चारों तरफ दिखाई पड़ेगा। और उस चारों तरफ दिखाई पड़ते सौंदर्य का ही एक हिस्सा पुरुष को स्त्री में दिखाई पड़ेगा, स्त्री को पुरुष में दिखाई पड़ेगा। तब इस सौंदर्य का विशेष रूप से सेक्सुअल अर्थ खो जाएगा।
 एक पत्थर में जब सौंदर्य दिखता हो, एक फूल में जब सौंदर्य दिखता हो, एक पत्ते में दिखता हो, चांद-तारों में दिखता हो, हवा की झोकों में दिखता हो, पानी की लहरों में दिखता हो, रात के अंधेरे में दिखता हो, सुबह के सूरज में दिखता हो। जब सब तरफ सौंदर्य दिखता हो तब फिर पुरुष में जो सौंदर्य है, स्त्री में जो सौंदर्य है वह इस विराट सौंदर्य का एक हिस्सा मात्र हो जाता है। उसका कामुक अर्थ, उसका सेक्सुअल मीनिंग खो जाता है। लेकिन हमने सब जगह सौंदर्य नहीं देखा। हम सौंदर्य देखते ही नहीं, इसलिए जहां हमें कामुकता की तृप्ति की संभावना दिखाई पड़ती है वहीं बस हम सुंदरता की बातें करना शुरू कर देते हैं। यह सौंदर्य भी दो दिन में कुम्हला जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री पत्नी बनने के बाद सुंदर नहीं रह जाती। सुंदर से सुंदर पुरुष पति बन जाने पर सुंदर नहीं रह जाता। जैसे ही मिल जाता है, सौंदर्य खो जाता है। सौंदर्य नहीं था, आकांक्षा, भीतर कुछ और थी, इच्छा भीतर कुछ और थी। शरीर को भोगने की, कामवासना को तृप्त करने की इच्छा थी। सौंदर्य तो सिर्फ ऐसा ही था कि जैसे हम मछली को पकड़ते हैं, तो कांटे पर थोड़ा आटा लगा देते हैं। कोई मछली को आटा खिलाने के लिए नहीं। कांटे पर थोड़ा आटा लगा देते हैं क्योंकि मछली कांटा खाने को सीधी राजी नहीं होगी। आटा खाने को राजी होगी और कांटा उसके गले में अटक जाएगा। जिसे हम अभी सौंदर्य कह रहे हैं, वह हमारी कामोत्तेजना के कांटे पर लगाए हुए आटे से ज्यादा नहीं है।
 हमें सौंदर्य का कोई बोध नहीं। सौंदर्य का जब बोध होगा तो वह सौंदर्य हमें समस्त जीवन में दिखाई पड़ना शुरू होगा। तो मैं आपसे कहना चाहंूगा कि सौंदर्य के बोध को बढ़ाएं। जब तक स्त्री भी सुंदर दिखती है और पुरुष भी सुंदर दिखता है तब तक आप समझ लेना कि यह कामुकता के ऊपर लगाए गए आटों से ज्यादा बातें नहीं हैं। और फिर इनके दो ही परिणाम होंगे। या तो अपने हरम में सारी दुनिया की सुंदर स्त्रियों को बंद कर लो, और या फिर किसी स्वामी जी महाराज की तरह आंख बंद करके लाखों रुपये खर्च करो कि कोई स्त्री दिखाई न पड़ जाए। ये दोनों एक ही चित्त के लक्षण हैं। नहीं, सौंदर्य का बोध इतना विकसित हो कि हमें जीवन में जहां भी सौंदर्य हो वहीं दिखाई पड़ने लगे। तब वह नॉन-सेक्सुअल, काममुक्त हो जाता है, क्योंकि एक पत्ते के साथ सेक्स का क्या संबंध, एक फूल के साथ सेक्स का क्या संबंध? आकाश में भटकती हुई एक अकेली बदली के साथ काम का, भोग का क्या संबंध है? लेकिन जो आदमी सौंदर्य से डर जाएगा स्त्री के वह अनजाने फूल से भी डर जाएगा। क्योंकि बहुत गहरे में उसे डर लगेगा।
क्योंकि जहां भी सौंदर्य है वहीं आटा है, वहीं कांटा है। उसे घबड़ाहट पैदा हो जाएगी। इसलिए संन्यासी फूल से भी डरने लगेगा। रात की चांदनी से भी डरने लगेगा। सुंदर संगीत से भी डरने लगेगा, सुंदर चित्रों से भी भयभीत होने लगेगा। क्योंकि उसके मन में सौंदर्य अर्थात यौन। उसके मन में सौंदर्य का एक ही अर्थ है काम। वह अर्थ अनर्थ है, वह अर्थ उचित नहीं है।
 जिंदगी बहुत अर्थोें में सुंदर है। काम सुंदर भी हो सकता है लेकिन वह सिर्फ एक आयाम है सौंदर्य का, और जिनकी जिंदगी में सब तरफ से आयाम खुलते हैं, उनकी जिंदगी में काम का आयाम अपने आप उस विराट सौंदर्य के आयाम में तिरोहित हो जाता है। नहीं, मैं कहता हंू कि उनकी जिंदगी में काम नहीं रह जाएगा लेकिन एक बुनियादी फर्क होगा। अभी सिर्फ काम में ही सौंदर्य दिखाई पड़ता है, और जैसे ही काम तृप्त हुआ, सौंदर्य विदा हो जाता है। इसीलिए पजेसन की इच्छा होती क्योंकि जिसे हमें साधन की तरह उपयोग करना है, उस पर मालकियत पूरी होनी चाहिए। जिसे हमें एक साधन की तरह व्यवहार करना है, उस पर हमारी गुलामी पक्की होनी चाहिए, आौर जिसको हम साधन की तरह उपयोग करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि कोई और उसको साधन की तरह उपयोग न कर ले। ईष्र्या मन को पकड़ती है। जिसे सौंदर्य का बोध हो उसके मन में ईष्र्या का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि ईष्र्या बड़ी ही कुरूप बात है। अभी हम मालकियत चाहते हैं क्योंकि हम मालकियत के बिना योन के संबंधों की तृप्ति नहीं कर पाएंगे। यह मालकियत सौंदर्य की वजह से पैदा नहीं होती। सौंदर्य की पतली सी धारणा के पीछे छिपी हुई असलियत के लिए होती है। इसे अगर दबाएंगे तो असलियत और बढ़ती जाएगी। इसे अगर भोगेंगे अंधे की तरह तो भी छुटकारा नहीं। चाहिए सौंदर्य का विस्तीर्ण बोध। इतना विस्तीर्ण कि काम, यौन उसमें सिर्फ एक आयाम रह जाए।
 सौंदर्य के अनंत आयाम हैं। और ध्यान रहे, जब सौंदर्य अनंत आयामों से तृप्त करने लगता है तब, उसके कामुक अर्थ विलीन हो जाते हैं इसलिए स्वभावतया जो व्यक्ति प्रकृति में सौंदर्य देख पाता है, वह चाहे तो बड़ी सरलता से यौन से मुक्त हो सकता है। साधारणतया जो व्यक्ति काव्य में सौंदर्य देख पाता है, वह चाहे तो उसे ब्रह्मचर्य साधन के लिए उसे शीर्षासन नहीं करना होता। जो व्यक्ति विज्ञान की खोज में सौंदर्य देख पाता है, वह अक्सर भूल जाता है कि यौन की भी कोई दुनिया है। बड़ा वैज्ञानिक, बड़ा कवि, बड़ा दार्शनिक अपनी खोज में इतना व्यक्त हो जाता है, इतना लीन हो जाता है कि कोई दूसरा मार्ग उसे आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिए साधारणतः साधुओं की बजाय ज्यादा बड़े साधु उनमें मिल जाएंगे, जिनका जीवन किसी परम सौंदर्य की, परम सत्य की, परम स्वयं की खोज में चला गया है। लेकिन जिनके जिंदगी का एक ही लक्ष्य है, कि किसी तरह यौन से बचो वे यौन से न बच पाएंगे। क्योंकि जिससे हम बचना चाहते हैं हम उसी से घिर जाते हैं। जिससे हम भागते हैं वह हमारा पीछा करता है, और जिसे हम मन से निकालते हैं वह दुगुने वेग से भीतर आना शुरू हो जाता है। न तो मैं कहता हंू दमन करें, न मैं कहता हंू भोग में विक्षिप्त हो जाएं, मैं कहता हंू, सौंदर्य का विस्तृत बोध लाएं। यह अनंत जीवन भोगने योग्य है, और जब चांद-तारों की भोगने की क्षमता हो तो मुट्ठी में लेने की इच्छा कम हो जाएगी क्योंकि चांद-तारे मुट्ठी में नहीं लिए जा सकते। और जब फैले हुए विस्तृत सागर में सौंदर्य दिखता हो तो उसे घर लाकर अपने बाथरूम में बंद करने की इच्छा पैदा नहीं होगी और जब यह अनुभव होगा कि सौंदर्य भोगा जा सकता है, बिना मालकियत के, चांद पर मालकियत की क्या जरूरत है, तो हम जीवन के साधारण हिस्सों में भी, जीवन के साधारण संबंधों में भी सौंदर्य को भोग पा सकेंगे।
अभी मेरे एक मित्र इटली गए हुए थे। लौट कर मुझे बहुत घबड़ाहट से मुझे उन्होंने कहा कि वहां एक अनुभव उन्हें हुआ जो बहुत डराने वाला है। रास्ते से गुजर रहे थे, बहुत सुंदर व्यक्ति हैं। एक स्त्री उनके पास आई और वह आंख बंद करके उनके सामने खड़ी हो गई और कहा कि मुझे अपने चेहरे पर हाथ फेर लेने दें। मैंने इतने सुंदर फीचर, इतने सुंदर आकृति वाला पुरुष कभी नहीं देखा, वह तो बहुत घबड़ा गए। घबरा इतने भर गए कि मना भी न कर सकें। घबड़ा इतने भर गए कि भाग भी न सकें। तब तक उस स्त्री ने आंख बंद करके उनके चेहरे पर हाथ फेर लिया और उन्हें धन्यवाद देकर आगे बढ़ गई।
वे मुझसे कहने लगे कि बड़े कामुक लोग मालुम पड़ते हैं इटेलियन। मैंने कहाः कामुक तुम हो, वह स्त्री जो तुम्हारे चेहरे पर हाथ फेर कर धन्यवाद देकर आगे बढ गई, जिसने लौट कर भी पीछे नहीं देखा, उसे कामुक कहते हुए शर्म आनी चाहिए। वह कामुक नहीं है। उसने कोई मालकियत नहीं जतानी चाही। वह तुम्हें बिस्तर पर खींचने की कोई इच्छा नहीं रखती। उसने सिर्फ तुम्हारे चेहरे पर हाथ फेरा है, वह भी आंख बंद करके और तुम्हें धन्यवाद दिया है कि एक सुंदर व्यक्ति को देखा, दर्शन किए और आगे बढ़ गई है। यह अनुभव वैसा ही है जैसे चांद को देख कर कोई क्षण भर ठहर जाए। जैसे सागर में उठती लहरों को देख कर कोई आंखें बंद करले। आखिर सागर अगर भोगा जा सकता है, और चांद अगर देखा जा सकता है और दूसरे की बगिया में खिले हुए फूलों को सराहा जा सकता है, तो किसी सुंदर चेहरे को देख कर सराहने की मनाही क्या है? वे मित्र यही सोच रहे थे कि वह स्त्री कामुक है, और वे खुद बड़े निष्काम। लेकिन आप भी एक बार सोचना कि इन दोनो में कामुक कौन है? इन दोनों में मित्र ही कामुक हैं, इतने भय की कोई बात नहीं थी, इतने घबड़ाने की कोई बात नहीं थी। और यह जो सौंदर्य है चेहरे का यह भी परमात्मा का है इसकी भी मालकियत बताना कि मेरा चेहरा, मेरा सौंदर्य तो वह भी नासमझी है। फिर उस स्त्री ने धन्यवाद दिया है और लौट कर पीछे भी नहीं देखा है। उसने यह भी नहीं पूछा कि नाम ठीकाना क्या है? पता कहां है? कहां ठहरे हो? इससे कोई मतलब नहीं है।
जैसे एक अपरिचित रास्ते पर खिले हुए फूल को देख कर कोई क्षण भर रुक गया हो, और अज्ञात मालिक को धन्यवाद देकर आगे बढ़ गया हो। क्या कहेंगे उस आदमी को कि कामुक है। नहीं उस स्त्री को मैं कामुक नहीं कह पाऊंगा। मैं मानता हंू उसके जीवन में एक सौंदर्य का बोध जो मालकियत नहीं मानता है, और ऐसे सौंदर्य का बोध जितना विकसित हो चित्त उतना ही धीरे-धीरे अकाम होता चला जाता है। क्योंकि जितना आप सौंदर्य को पी पाएं, जितना आप सौंदर्य में विभोर हो जाएं, उतना ही शारीरिक तल पर मांग कम होती चली जाती है। कारण हैं उसके। क्योंकि जितनी ऊंची दिशा में हमें तृप्ति मिलती है उतनी नीची दिशाओं की मांग खत्म हो जाती है। जैसे किसी आदमी को,जो झोंपड़े में रहता हो और एक बड़ा महल रहने को मिल जाए। क्या आप सोचते हैं कि वह लौट-लौट कर झोंपड़े की तरफ वापस आएगा? किसी आदमी को जिसके हाथ में कंकड़-पत्थर, रंगीन कंकड़-पत्थर थे उसे अचानक हीरों की खदान मिल जाए, क्या आप सोचते हैं कि उसे उन कंकड़-पत्थरों का उसे त्याग करना पड़ेगा? वे गिर जाएंगे हाथ से, हीरे-जवाहरातों पर हाथ बढ़ जाएंगे।
 हमारे जीवन में भोग जितना ऊंचा होता चला जाता है, नीचे के तलों पर योग अनायास होता चला जाता है। जितने ऊपर के तल पर हम भोग पाते हैं, उतने नीचे के तल पर हम त्याग को अपने आप उपलब्ध हो जाते हैं। जिसने सौंदर्य को आत्मिक अर्थों में भोगना शुरू कर दिया है उसके जीवन में सौंदर्य के शारीरिक भोग अपने आप क्षीण हो जाते हैं, लेकिन जिसे आत्मिक अनुभूति नहीं हुई, जिसने सौंदर्य को परमात्मा के विस्तीर्ण सौंदर्य की तरह नहीं निहारा, उसके जीवन में काम का केंद्र ही एक मात्र केंद्र होता है। फिर चाहे तो वह हजार औरतों का हरम बना ले और या फिर चाहे तो आंख पर परदे डाल कर रास्तों से गुजर जाए। कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता है। वह आदमी कामुक है उसके भीतर आग जल रही है। वह आग को दबाए हुए है, और ऐसे सब आदमियों से सावधान रहना। लेकिन हम हजार औरतों वाले आदमी से तो सावधान हो गए हैं। अभी आंख पर परदा डालने वाले आदमी से सावधान नहीं हुए। और जब तक हम इससे सावधान न होंगे, यह हमारे जीवन में जहर घोलता चला जाएगा। यह हमारे जीवन को विकृत करता चला जाएगा। जीवन है ही भोगने के लिए। भोग रोज ऊंचा उठना चाहिए। भोग के अनंत आयाम हैं, शरीर से लेकर परमात्मा तक भोग की अनंत दिशाएं हैं। जितना ऊंचा भोग जीवन में आएगा, नीचे के तल पर योग अपने आप आ जाएगा लेकिन इससे उलटा नहीं होता, कि आप नीचे के तल पर योग ले आएं और भोग ऊपर के तल पर हो जाए। इससे उलटा नहीं होता। आप हाथ खाली कर दें, कंकड़-पत्थर से। इससे यह पक्का नहीं होता कि हीरे की खदान मिल जाएगी। लेकिन अगर हीरे की खदान आपको मिल जाए तो पक्का है हाथ कंकड-पत्थर से खाली हो जाएंगे। नीचे का छोड़ने से ऊपर का नहीं मिल जाता लेकिन ऊपर का मिलने से नीचे का जरूर छूट जाता है। इस बात को, इस बात के रहस्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
एक-दो मित्रों ने और सवाल पूछे हैं।
उन्होंने पूछा है कि महावीर और बुद्ध संयम और त्याग की बात करते हैं, तो इसमें खराबी क्या है?
 जैसा उन्होंने कहा है। अगर महावीर और बुद्ध त्याग की ही बात करते हों, तो खराबी निश्चित है। हालांकि मैं नहीं मानता कि वे त्याग की ही बात करते हैं। महावीर और बुद्ध भोग की ही बात करते हैं। हम नासमझ उसे त्याग की तरह समझते हैं। उसके कारण हैं। उसके कारण हैं कि जहां हमें लग रहा है कि रस है, महावीर और बुद्ध वहां से उठ गए मालुम पड़ते हैं, तो हमें लगता है कि उन्होंने छोड़ दिया है। उन्होंने छोड़ा नहीं है।
 इस जगत में कोई भी व्यक्ति कुछ छोड़ नहीं सकता। सिवाय नासमझों को छोड़ कर। कोई भी बुद्धिमान आदमी त्याग नहीं करता है सिर्फ अज्ञानियों को छोड़ कर। और अज्ञानी त्याग करके ऐसी मुसीबत में पड़ता है जिसका कोई हिसाब नहीं और बुद्धिमान कुछ पा लेता है, तब कुछ छूट जाता है। उसकी जिंदगी एक आनंद की जिंदगी होती है। महावीर की मूर्ति देखी? और जैन मुनियों की शक्लें देख लें तो फर्क मालूम पड़ जाएगा। महावीर की मूर्ति ऐसी मालूम पड़ती कि परम स्वस्थ व्यक्ति। लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले साधु को देखें। तो अगर उसमें खून थोड़ा-बहुत दिखाई पड़ जाए, तो शक होगा कि त्याग पूरा नहीं हुआ है। अगर उसकी जिंदगी में थोड़ा सा भी रस दिखाई पड़ जाए तो शक होगा कि आसक्ति शेष है, अगर उसकी जिंदगी में महावीर जैसा मौन दिखाई पड़ जाए तो हम संदिग्ध हो जाएंगे, भक्तगण भाग जाएंगे कि कुछ पीछे के दरवाजे से जिंदगी में रस आ रहा है। नहीं हम उसे बिलकुल मुर्दा करके पूजेंगे। वह बिलकुल रक्तहीन ब्लडलेस होना चाहिए। वह जितना पीला होता जाए उतना ही हम कहेंगे कि त्याग निखर रहा है। वह जितना मुर्दा होता जाएगा हम कहेंगे जिंदगी में उतना ही ऊंचा जा रहा है। वह जिंदगी से जितना भयभीत होकर एक कारागृह में जीने लगेगा, हम कहेंगे उतना ही ऊंचा इसका व्यक्तित्व हो गया है। महावीर, महावीर की बात और, महावीर ने कुछ भी त्यागा नहीं है, महावीर ने कुछ पाया है, और उस पाने के कारण निश्चित ही कुछ छोड़ना पड़ता है। अगर मैं घर में नया कुछ ले आऊं तो पुराने कचरे फर्नीचर को बाहर निकालना होगा। स्वभावतः महावीर के व्यक्तित्व में कुछ उतरा है और कुछ उन्हें बाहर फें क देना पड़ा है कचरे की भांति वह त्याग नहीं है। वह और बड़े भोग की तैयारी है। मैं उसे इसी भाषा में देखता हंू।
 बुद्ध के जीवन मंे कुछ उतरा है जो इतना अदभुत है कि जो व्यर्थ था उसको निकाल बाहर फेंक देना पड़ा। आपके खीसे में बहुत सिक्के पड़े हों और लाख की लाटरी मिल जाए तो आप उस खीसे को तत्काल खाली कर लेंगे। हो सकता है सड़क पर बैठा हुआ भिखारी समझे कि कितना त्यागी आदमी है। स्वभावतः उसे तो पता नहीं है कि लाख की लाटरी मिल गई है इस आदमी को। उसे तो इतनी दिखाई पड़ रहा है कि खींसे के एक-एक नये पैसे के सिक्के इसने रास्ते पर पटक दिए और घर की तरफ भागा है। अभी यह इतना बोझ नहीं ढो सकता है। उसे यह पता नहीं है कि यह कुछ और बड़ी उपलब्धि को पा गया है इसलिए एक पैसे के सिक्के का कोई अर्थ नहीं रह गया। भिखारी कहेगा कि महात्यागी हो तुम और उन पैसे के सिक्कों को इकट्ठा कर लेगा। और कभी सोचेगा कि वह दिन अपनी जिंदगी में भी आ जाए कि जब हम इन पैसे के सिक्कों को छोड़ दें। और कल अगर वह उस आदमी को रास्ते पर नाचते हुए, आनंद से गुजरते हुए देखे जिसे लाख की लाटरी मिल गई। तो वह भिखारी सोचेगा कि इस आदमी ने त्याग किया इसलिए बड़े आनंद को उपलब्ध हो गया है। कभी हम भी इन पैसों को त्याग देंगे तो आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। भूल होगी अगर उस भिखारी ने कभी वे पैसे फेंक दिए तो लाख की लाटरी नहीं मिल जाएगी। लाख की लाटरी मिलने से पैसे जरूर फ ेंके जा सकते हैं। हम जो भिखारियों की तरह हैं। हमने महावीर और बुद्ध को इतने आनंद में भरे देखा है, कि हमने सोचा है कि इन्हें यह आनंद कैसे मिला।
तो हमने देखा कि इन्होंने क्या-क्या छोड़ा। किसी ने महल छोड़ा, किसी ने पत्नी छोड़ी, किसी ने धन छोड़ा, हम सोचते हैं कभी हम भी छोड़ दें। हमें भी यह आनंद मिल जाएगा। यह तर्क गलत है। यह तर्क उलटा है, इन्हें कुछ मिल गया इसलिए ये कुछ छोड़ सके। और हम कुछ छोड़ कर कुछ पाने गए तो वही होगा जो दो-ढाई हजार साल से बुद्ध और महावीर के पीछे हो रहा है। सूखी हड्डियों वाले लोग, मुर्देे खड़े हैं, उनके पीछे, अस्थि-पंजर लिए। कुछ उन्हें मिला नहीं कुछ छोड़ उन्होंने जरूर दिया है। अब उनकी मुसीबत बड़ी है जो छोड़ दिया है, वही उनकी संपत्ति थी, वह भी छूट गई जो मिलना था आशा में अटके हैं, वह भी नहीं मिला। उनकी स्थिति त्रिशंकु की हो गई है। इसलिए उनका एक ही रस है कि जिनके पास है उनको भी समझाएं कि तुम भी छोड़ो। जिनकी दुम है, उसको भी कटवाने की कोशिश में वे लगे हैं। जितने लोगों की पूंछ कट जाए उतना ही अच्छा है। नहीं, मैं त्याग की बात नहीं करता हंू, और अगर कोई कोई करता हो तो कहता हंू कि गलत करता है। मैं बात करता हंू परम भोग की। उस परमभोग के आस-पास त्याग घटित होता है वह दूसरी बात है उसकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।
मैं बात करता हंू स्वास्थ्य की, बीमारी छूट जाए उसकी चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं बात करता हंू और ऊपर के आयाम को उपलब्ध करने की, नीचे के आयाम छूट जाएं, उसकी कोई बात करने की जरूरत नहीं है। मेरे सोचने का ढंग और-और पाने का ढंग है, और-और छोड़ने का ढंग नहीं। और मैं आपसे कहंूगा जिंदगी का रहस्य उपलब्धि में है, मृत्यु का रहस्य त्याग में। मरना हो तो त्याग रास्ता है, परम जीवन को पाना हो तो परम भोग रास्ता है। लेकिन मेरी बात से भूल हो जाती है, क्योंकि आप शायद सोचते होंगे जो आप भोग रहे हैं उसका मैं समर्थन कर रहा हंू। उसका मैं समर्थन नहीं कर रहा हंू। मैं इतना ही कह रहा हंू कि जो आप भोग रहे हैं उससे पता चलता है कि और बड़े भोग का आपको कोई पता नहीं है। मैं आपसे यह नहीं कह रहा हंू कि जो कंकड़-पत्थर आप पकड़े हुए बैठे हैं, वे बड़े कीमती हैं।
मैं यह कह रहा हंू कि उन कंकड़-पत्थरों को पकड़े बैठे होने की वजह से मुझे पता चलता है कि आपको हीरों की खदानों का अभी कोई पता नहीं चला। मैं नहीं कहता कि कंकड़-पत्थर छोड़ें क्योंकि जब तक हीरे नहीं मिले तब तक खेल-खिलौनों की तरह उनके साथ खेलते रहें, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। मैं कहता हंू कंकड़-पत्थरों से खेलते रहें, हीरों की खोज जारी रखें। जिस दिन हीरे मिलेंगे उस दिन कंकड़-पत्थर छोड़ कर आप ऐसे भाग जाएंगे कि आप लौट कर भी किसी से कहने न जाएंगे कि मैंने कंकड़-पत्थरों का त्याग कर दिया है। और अगर कोई आदमी कहने जाए कि मैंने कंकड़-पत्थरों का त्याग कर दिया है तो समझ लेना कि कंकर-पत्थर अभी उसे कंकर-पत्थर न हुए। अभी हीरे थे और अभी उसे हीरे नहीं मिले तभी कंकर-पत्थर हीरे हो सकते हैं।
 आपके भोग का मैं समर्थन नहीं कर रहा हंू बल्कि बहुत गहरे अर्थोें में मैं जितना भोग के विरोध में हंू उतना त्यागी आपके भोग के विरोध में नहीं है। त्यागी तो आपके भोग पर बड़ा भरोसा रखता है वह आपको कहता है कि यह भोग छोड़ दो तो परमात्मा मिल जाएगा। त्यागी तो आपके भोग को बहुत कीमत दे रहा है। इतनी कीमत दे रहा है, कि अगर इसे छोड़ने को राजी हो तो परमात्मा मिल सकता है। मूल्य बहुत दे रहा है वह कम मूल्य नहीं दे रहा। आपके भोगों को बहुत सिग्निफिकेंट कह रहा है वह। वह कह रहा है कि आपके हाथ में जो कंकड़-पत्थर हैं इनसे हीरे खरीदे जा सकते हैं। इनको छोड़ दो और हीरे ले लो। वह आपके भोग को बहुत कीमत दे रहा है। मैं आपके भोग को दो कौड़.ी की भी कीमत नहीं देता हंू। क्योंकि मैं आपसे कह रहा हंू कि इनको छोड़ने से कुछ भी न मिलेगा ये बिलकुल बेकार हैं। इनको छोड़ने से धर्म ना मिलेगा। इनको छोड़ने से स्वर्ग न मिलेगा। इनको छोड़ने से पुण्य न मिलेगा। इनको छोड़ने से परमात्मा न मिलेगा। त्यागी आपसे कह रहा है इनको छोड़ने से आपको कुछ मिलेगा। जिस चीज को छोड़ने से कुछ मिलता हो उसका मूल्य बहुत है। जिस चीज को छोड़ने से कुछ मिलता है और जिसको छोड़ने से परमात्मा मिलता है उसका छोटा मूल्य नहीं रहा। जो चीज परमात्मा को भी खरीद सकती हो उसका मूल्य बहुत। त्यागी आपके भोग को बहुत मूल्य देता है। और इसलिए आपभी त्यागी के त्याग को बहुत मूल्य देते हैं। आप दोनों भोगी हैं एक-दूसरे की तरफ पीठ किए हुए खड़े हैं और बड़ा मजा ले रहे हैं। वह त्यागी भी भोगी है। आप भी त्यागी हैं उसी अर्थोें में जिस अर्थोें में वह भोगी है। और आप दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ खड़े किए हो। एक म्युचुअल एप्रिसिएशन चल रहा है। वह आपकी प्रशंसा कर रहा है, आप उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। आप कह रहे हैं कि आप बड़े महान हैं, बड़ा त्याग किया है। वह कह रहा है कि आप भी बड़े महान हो सकते हैं जरा सा त्याग कर दो। चीजें तो आपके हाथ में हैं। छोड़ दो आप भी महान हो जाओगे। मैं आप दोनों को कोई कीमत नहीं देता हंू। क्योंकि जिस दिन मैं आपके भोग को कीमत दूं उसी दिन मैं त्याग के त्यागी को कीमत दे सकता हंू क्योंकि छोड़ा क्या है उसने जो आपके पास है वही छोड़ा है। और अगर आपके हाथ में कचरा है तो उसने भी कचरा छोड़ा है। कचरे से कहीं परमात्मा मिलता है? कचरे से कहीं मोक्ष मिल सकता है? महावीर और बुद्ध पर कृपा करें थोड़ी। उन्होंने कचरा छोड़ कर मोक्ष नहीं पाया, मोक्ष पाने की वजह से कचरा छूट गया है।
मैं संयम के पक्ष में नहीं हंू। क्योंकि मैं दमन के पक्ष में नहीं हंू लेकिन इसका मतलब यह मत समझ लेना कि मैं असंयम के पक्ष में हंू। इसका मतलब यह मत समझ लेना कि मैं भोग के पक्ष में हंू। हमारा दिमाग दो से ज्यादा सोच ही नहीं पाता। हम सोचते हैं या तो इस तरफ या उस तरफ और कोई रास्ता हमें दिखाई नहीं पड़ता है। यह हमारी बुद्धिमत्ता की बड़ी संकीर्ण व्यवस्था है।
हम कहते हैं कि या तो इस तरफ या तो उस तरफ। हम कहते हैं या तो रात या तो दिन सांझ का हमें कोई पता ही नहीं जब दिन भी नहीं होता और रात भी नहीं होती। सुबह का हमें कोई पता ही नहीं जब अंधेरा जा चुका होता है और सूरज नहीं निकला होता है। और भी वक्त हैं जिंदगी में और भी दिशाएं हैं। दो में ही सब कुछ तोड़ लेना उचित नहीं है। और सच्चाई तो यह है जहां दो हों वहां तीसरा हमेशा मौजूद होता है। और जहां दो हैं वहां तीसरा ही सदा रास्ता होता है। क्योंकि वह तीसरा दोनों से भिन्न और दोनों के ऊपर होता है। जब मैं ये सारी बातें कहता हंू तब मुझे निरंतर पता चलता है कि आप कुछ और ही समझ लेते हैं। आप वही समझ लेते हैं, जो आप समझ सकते हैं। जो मैं कह रहा हंू वह कई बार चूक जाता है। जैसे मैं भोग को विरोधी हंू लेकिन त्याग का समर्थक नहीं हंू। अब जरा कठिनाई होगी क्योंकि भोग का विरोधी त्याग का समर्थक होना ही चाहिए। मैं भोग का एक अर्थों में विरोधी हंू कि और बड़े भोग हैं। मैं त्याग का इसलिए समर्थक नहीं हंू कि त्यागने वाला और बड़े भोगों को उपलब्ध नहीं होता। लेकिन और गहरे झांकेंगे तो मुझसे बड़ा त्याग का समर्थक खोजना मुश्किल होगा, क्योंकि मैं जिस परम भोग की बात कह रहा हंू उसमें परम त्याग फलित होता है। उसमें अपने आप त्याग आता है। त्याग करना नहीं पड़ता उसका पता भी नहीं चलता वह हो जाता है।
 संयम शब्द से मुझे कोई बहुत लगाव नहीं है। संयम शब्द भी बहुत बेहूदा है। उसका मतलब है कि किसी चीज को रोक-टोक कर कंट्रोल किया गया है। जिस चीज को भी कंट्रोल किया गया है जिस चीज का संयम किया गया है वह भीतर मौजूद होगी। अगर कोई आदमी कहता है कि मैंने कामवासना का संयम कर लिया है। तो जरा उससे सरक कर बैठें, क्योंकि उसके भीतर कामवासना आपसे भी ज्यादा होगी जिन्होंने संयम नहीं किया है। आपका तो थोड़ा बहुत पानी बह जाता है, आपकी काम-वासना नदी की तरह है, उनकी काम-वासना तालाब हो गई। वह संयम करके बैठे हुए हैं। उनसे जरा दूर ही रहना। उनसे जरा संभल कर ही रहना। उनकी कामवासना कभी भी फूट सकती है। नदी से इतना खतरा नहीं होता, लेकिन जब तालाब फूटते हैं तो ज्यादा नुकसान होता है। क्योंकि तालाबों से हम अपेक्षा नहीं करते हैं कि फूटेंगे। जिसने रोक रखा है, उसके भीतर उफान आ रहे हैं, उसके भीतर भाप बन रही है, उसका विस्फोट हो सकता है। उसके विस्फोट की संभावना ज्यादा है।
संयम के मैं पक्ष में नहीं हंू क्योंकि संयम का बहुत ठीक-ठीक अर्थ दमन और सप्रेशन ही होता है। लेकिन इसका क्या मतलब है कि मैं असंयम के पक्ष में हंू। क्या मैं आपसे कह रहा हंू कि जाएं और असंयम की जिंदगी जीएं? नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हंू। मैं यह कह रहा हंू, कि अगर आपको सच में ही संयम की जिंंदगी उपलब्ध करनी हो तो संयम से ही शुरू मत करना। संयम बाई-प्रॉडक्ट है। जैसे कोई आदमी गेहंू बोता है तो गेहंू के साथ भूसा पैदा हो जाता है। भूसा बाई-प्रॉडक्ट है। आप भूसे को मत बो देना, नहीं तो गेहंू पैदा नहीं होगा। यह मत सोच लेना कि जब गेहंू के साथ इतने दिन से बेचारा भूसा पैदा हो रहा है। अब कुछ गेहंू को भी दया करनी चाहिए कि हम भूसा बोएं तो गेहंू पैदा होना चाहिए। जब भूसे ने अनंत जन्मों से साथ दिया है गेहंू का तो गेहंू इतनी दया करेगा ही कि हम भूसा बोएंगे एक दफे तो गेहंू भी उसके साथ पैदा होगा। गेहंू बिलकुल दया नहीं करेगा। भूसे के साथ गेहंू पैदा नहीं होगा। भूसे को बोएंगे तो पास का भूसा भी खराब हो जाएगा और कुछ भी नहीं होगा। हां, गेहंू को बोते वक्त भूसे का खयाल भी रखने की कोई जरूरत नहीं, भूसा आता ही, वह गेहंू के साथ आता है।
संयम जो है वह समझ का फल है। समझ गेहंू है, संयम भूसा है। आपके भीतर विवेक जगना चाहिए संयम नही और जब विवेक जगता है, तो आप अचानक पाते हैं कि असंयम समाप्त हो गया। क्योंकि असंयम विवेक की गैर-मौजूदगी है। असंयम का मतलब यह है कि आपके पास बुद्धि नहीं है, असंयम का मतलब यह है कि आपके पास समझ नाम की चीज नहीं है।
असंयम का मतलब यह कि आपके पास वह विवेक नहीं है जो देख पाए कि कहां दरवाजा है, कहां दीवाल है और आप बिना आंख की वजह से दीवाल से टकरा कर सिर फोड़ लेते हैं। आप कहते हैं कि अब मैं संयम रखूंगा, अब मैं दीवाल से न टकराऊंगा। आप संयम क्या खाक रखेंगे। दीवाल से कैसे टकराने से बचेंगे? आंखें होनी चाहिए। आंख बड़ी अलग बात है वह संयम नहीं है और जब आंख वाला आदमी कमरे के बाहर निकलता है तो क्या आप उसको बाहर कहेंगे कि तुम बड़े संयमी आदमी हो, दीवाल से बिलकुल नहीं टकराते सीधे दरवाजे से बाहर निकल आते हो। वह आदमी कहेगा मुझे पता नहीं कि टकराने की कोई जरूरत है। जहां दरवाजा है वहां से मैं निकल आता हंू। क्या आपने दरवाजे से निकलते वक्त सोचा है कि मैं दरवाजे से ही निकलूंगा, इसका कोई संकल्प किया है? कभी कोई संकल्प नहीं किया। किसी भगवान के सामने कसम खाई है कि मैं अब पक्का प्रण लेता हंू कि अब मैं दीवाल से न टकराऊंगा और दरवाजे से ही निकलूंगा। नहीं कोई कसम नहीं खाई। फिर भी आप दरवाजे से निकलते हो, दीवार से नहीं टकराते। बात क्या है? दरवाजा निकलने की जगह है यह आंखों को दिखाई पड़ता है, दीवाल निकलने की जगह नहीं है। विवेक जगना चाहिए, जब विवेक जगता है तो दिखाई पड़ता है कि कहां दरवाजा है, जो निकलने का है, कहां दीवाल है जो नहीं निकलने की है। तब क्रोध दीवाल की तरह दिखाई पड़ने लगता है। क्षमा दरवाजे की तरह दिखाई पड़ने लगती है। क्षमा निकलने का रास्ता बन जाती। क्रोध सिर टकराने, फोड़ने की जगह बन जाती है। जिनको विवेक उपलब्ध होता है वे क्रोध का त्याग नहीं करते। क्रोध का त्याग हो जाता है। अब लोग हैं जो महावीर को कहते हैं, महावीर महान क्षमावान थे, गलत कहते हैं। एकदम गलत कहते हैं। क्योंकि क्षमावान तो सिर्फ वही हो सकते हैं जो क्रोधवान हों। पहले क्रोध करना जरूरी है तभी आप क्षमा कर सकते हैं। जब हम कहते हैं कि महावीर महा क्षमावान थे तो हम मानते हैं कि वह क्रोध भी करते रहे होंगे। क्योंकि जिसने क्रोध ही न किया उसके क्षमा का क्या मतलब! मैं कहता हंूः महावीर क्षमावान नहीं थे, महावीर अक्रोधी थे। असल में क्रोध इतना मूर्खतापूर्ण है कि महावीर को करने जैसा नहीं लगता, इसलिए वह किसी पर क्षमा नहीं करते, सिर्फ अपने पर क्षमा करते थे। इसमें वह किसी पर दया नहीं कर रहें, खुद पर दया कर रहे हैं।
बुद्ध एक गांव के पास से गुजरते हैं और उस गांव के लोग उनको बहुत गालियां देते हैं। और जब उनकी गालियां पूरी होने के करीब में आती हैं तो बुद्ध उनसे कहते हैं कि मुझे दूसरे गांव जल्दी पहंुचना है। अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई हो तो अब मैं जाऊं। तो वे लोग कहते हैं कि यह बातचीत न थी, हमने सीधी-सीधी गालियां दी हैं, आपको समझ में न पड़ीं? बुद्ध ने कहाः अगर समझ में न पड़तीं तो मैं भी तुम्हें गाली देने को तैयार होता। मुझे समझ में पड़ गई, इसलिए मैं कहता हंू कि बातचीत पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं। मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। वे लोग बोले अगर समझ में पड़ गई है, तो हमारा उत्तर चाहिए। बुद्ध ने कहाः अगर उत्तर लेना था तो दस साल पहले आना था। तब मैं भी तुम्हारे जैसा ही मूढ़ था। तब तुम एक गाली देते तो मैं दो गाली देता। तुम्हारी गाली पूरी भी न हो पाती, तो मेरी गाली निकल जाती। तुम दे भी न पाते तो मैं तुम्हें उत्तर दे देता और दोगुने वजन का उत्तर देता। लेकिन अब जरा मुश्किल हो गई। अब तुम गलत आदमी के पास आ गए हो। अब गाली देना मुश्किल हो गया है, क्योंकि अब अपने आपको कष्ट में डालना मुश्किल हो गया है।
वे लोग कहने लगें कि हम गालियां दे रहे हैं। आप सच में ही कोई उत्तर न देंगे। बुद्ध ने कहाः पिछले गांव में कुछ लोग आए थे, वे मिठाइयां लेकर आए थे, मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा है फिर वे मिठाइयों का थाल वापस ले गए। यही मैं तुमसे कहता हंू कि गालियों से मेरा पेट भर चुका। अब कोई भूख शेष नहीं रही, अब तुम अपने थाल वापस ले जाओ। और बुद्ध ने कहा कि मुझे तुम पर बड़ी दया आ रही है। क्योंकि वे लोग जो पिछले गांव में मिठाइयां वापस ले गए उन्होंने तो मिठाइयां बांट दी होंगी, तुम क्या करोगे। इन गालियों का तुम क्या करोगे? क्योंकि मैं लेने से इनकार करता हंू ,देने के हकदार तुम हो। लेकिन कम से कम इतना हक तो मेरा है कि मैं लूं या न लूं। मैं तुम्हारी गालियां लेने से इनकार करता हंू। अब यह जो आदमी है कोई संयमी नहीं है। इसके ऊपर भीतर क्रोध उठ रहा है इसने संयम साध लिया। और इसने अपने दांत के जबड़े बांध लिए, मुट्ठियां कस लीं है, सोचा कि क्रोध को बाहर न निकलने दूंगा। अगर यह आदमी इस तरह का क्रोधी है तो इस आदमी को कोई समझ उपलब्ध नही हुई। संयमी के पास समझ हो यह जरूरी नहीं। लेकिन समझदार के पास संयम होता है यह जरूरी है। मेरा जोर संयम पर नहीं, मेरा जोर विवेक पर है। मेरा जोर आपके भीतर समझ जन्में और मैं आपसे कहना चाहता हंू अक्सर संयमी जो ऊपर से संयम थोपते हैं अपने विवेक को और भी नष्ट करने में भर सहयोगी होते हैं। और कुछ भी नहीं कर पाते। जो आदमी जबरदस्ती नियम ओढ़ लेता है। उसके भीतर समझ पैदा होने की संभावना कम हो जाती है। जो आदमी जबरदस्ती कसमे खा लेता है उसके भीतर समझ कम हो जाती है।
मैं एक जगह कलकत्ते में एक बूढ़े सज्जन के घर मेहमान था। उनकी उम्र होगी कोई सत्तर वर्ष अब तो वह चल भी बसे। जब उन्होंने मेरी बात सुनी तो उन्होंने मुझसे कहा कि हैरानी है, मैं जिस बात को सुनने के लिए जिंदगी भर से परेशान था वह आपने मुझसे कही। मैं तीन दफे ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुका हंू। मैंने पूछा तीन दफा ब्रह्मचर्य का व्रत? एक दफा काफी होना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मचर्य के व्रत का तीन दफे क्या मतलब होता है? मेरे साथ एक और नासमझ सज्जन मौजूद थे। उन्हें यह खयाल नही आया, वे बड़े प्रसन्न हुए कि आपने तीन बार व्रत लिया। बड़े त्यागी हैं। मैंने उनसे कहा कि तीन बार की तो फिकर छोड़ो मैं यह पूछता हंू कि चैथी बार क्यों नहीं लिया? वे बूढ़े आदमी बहुत भले थे। उन्होंने कहा कि चैथी बार इसीलिए नहीं लिया, इसलिए नहीं कि तीसरी बार का पूरा हुआ बल्कि इसलिए कि तीन बार कि असफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि अपने बस की बात नहीं है।
मैंने कहा कि आप गलत ही समझे। असफलता आपकी नहीं थी, असफलता संयम की व्यवस्था की थी। आपने समझा भी है कि काम क्या है, सेक्स क्या है? आपने समझे हैं काम के रहस्य, आप काम के भीतर गहराई को समझने की कोशिश किए हैं कि काम क्या है? उसका आकर्षण क्या है? आपने काम के, संभोग के क्षण में जाग कर देखा है कि क्या है जो पुकारता है, क्या है जो आकर्षित करता है? उन्होंने कहा कि नहीं यह तो कभी देखा नहीं। डर के मारे जबरदस्ती आंख बंद करके काम में गया, और पछताता रोता और कसम खाता, और मंत्र और नमोकार पढ़ते हुए वापस आया। फिर दस पांच दिन पश्चाताप के दिन रहे और दस-पांच दिन के बाद फिर हमला हुआ और फिर पश्चाताप से भरा हुआ मन लिए फिर वापस गया। संयमी आदमी समझने में असमर्थ हो जाता है, क्योंकि जिसके खिलाफ आपने कसम दे दी है उसके आप शत्रु हो गए, उसे आप समझेंगे कैसे? समझने के लिए सहानुभूति चाहिए।
बुराई को समझने के लिए भी बुराई से सहानुभूति चाहिए। बुराई को समझने के लिए भी मित्रतापूर्ण हाथ होना चाहिए। बुराई को समझने के लिए भी निरीक्षक की तटस्थ दृष्टि चाहिए। और जिसने संयम ले लिया वह पक्षपाती हो गया। वह तटस्थ नहीं हो सकता। उसने तो निर्णय पहले ले लिया। उसका कनक्लूजन तो ले चुका, निष्कर्ष तो ले चुका। काम बुरा है, हम दुश्मनी साधते हैं, हम संयम साधे हैं, अब यह आदमी काम को कभी नहीं समझ सकता है। यह सेक्स को कभी न समझ सकेगा। यह कसमों में घिरा हुआ जीएगा और कसमों में घिरे हुए आदमी पाखंडी होते हैं। नहीं, ेसमझ और बात है। समझ एक मुक्ति है। संयम एक बंधन है। समझ एक आनंद है। संयम एक पीड़ा है। समझ एक सहजता है, संयम एक असहज कृत्रिम आरोपण है, मैं संयम के पक्ष में नहीं हंू। लेकिन ध्यान रहे, मुझसे ज्यादा संयम के पक्ष में कोई भी नहीं। क्योंकि जो मैं कह रहा हंू उसका परिणाम संयम है।
एक और मित्र ने इस संबंध में पूछा है कि मन को बुराइयां घेरती हैं, तो उनसे छुटकारा कैसे हो?
तो दो बातें खयाल कर लेना। एक तो बुराई को अगर बुराई समझा, बिना समझे किसी और के कहने से बुराई समझा, तो छुटकारा कभी न होगा। बुराई को बुराई मान कर मत चलना। पहले तो इतना ही मान कर चलना कि यह अज्ञात तथ्य है जो मेरी जिंंदगी को घेरे हुए है-क्रोध। अब इसको बुराई मान लिया। बिना जाने बहुत कम लोग हैं जिन्होंने जिंदगी में आथेंटिकली क्रोध किया हो। जिन्होंने प्रामाणिक रूप से क्रोध किया हो। ऐसे बहुत कम लोग हैं। कोई भी आदमी एक बार प्रामाणिक रूप से क्रोध कर ले तो क्रोध से बाहर हो जाएगा। लेकिन जब क्रोध करते हैं, तो उसको भी पूरा नहीं करते। उसको भी हॉफ-हार्टेड, उसको भी दबाए रहते हैं, थोड़ा-थोड़ा निकलता है, थोड़ा दबा लेते हैं। वह कभी पूरा क्रोध करते भी नहीं। इसलिए पूरा क्रोध कभी आप देख भी नहीं पाते कि क्या है? अगर क्रोध को पूरा देख पाएं, तो उसके बाद क्रोध करना असंभव है। यह मैं नहीं कहता हंू कि क्रोध को शत्रु मान कर बुरा मान कर चलना शुरू करें। क्रोध भी सहयोगी है, क्रोध भी मित्र है। और परमात्मा ने दिया तो उसका भी प्रयोजन है। उसका भी परपज है। जिंदगी में कोई बहुत रहस्यपूर्ण उसका भी हाथ है। अगर बच्चे में क्रोध न हो, और बिना क्रोध के बच्चे जिस दिन हम पैदा करेंगे वे बच्चे बिना रीढ़ के बच्चे होंगे। उनमें कोई रीढ़ नहीं होगी। और हो सकता है कि रूस और चीन की हुकूमतें जल्दी ही इस बात की कोशिश करें। इस पर प्रयोग तो बहुत चलते हैं और बहुत से राज भी हाथ में आ गए हैं, क्योंकि क्रोध के पैदा होने के लिए शरीर में कोई रासायनिक व्यवस्था जरूरी है। कुछ रासायनिक तत्व शरीर में न हों तो क्रोध पैदा नहीं हो सकता। कुछ आश्चर्य नहीं है। यह तानाशाही मुल्क अपने बच्चों में उन रासायनिक तत्वों को बचपन से ही नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। जिस मुल्क में बच्चे क्रोध में नही आएंगे उस मुल्क में कभी कोई विद्रोह नहीं होगा। और जिस मुल्क के बच्चों में क्रोध नहीं होगा उस मुल्क के बच्चे भेड़-बकरी हो जाएंगे।
 क्रोध का भी अपना अर्थ है। असल में जहर का भी जिंदगी में अपना अर्थ है। और जहर हमेशा ही मारने वाला सिद्ध नहीं होता। कभी-कभी बचाने वाला सिद्ध होता है। एलोपैथ से पूछें। एलोपैथी की अधिकतम दवाइयां जहर हैं। रोज जहर ले रहे हैं दवा में आप। अगर कहीं कल कोई दुनिया में ऐसा इंतजाम करें कि जहर को दुनिया से खत्म कर दें, तो एलोपैथी खत्म हो जाएगी। जहर मारता ही नहीं, बचाता भी है। जहर के उपयोग की बात है। क्रोध जहर ही नहीं है, किसी क्षण में अमृत भी है। समझ चाहिए और तब हम क्रोध को भी साधन की तरह उपयोग कर पाएंगे। और समझ चाहिए तब क्रोध का जो अंतिम उपयोग है वह मैं आपको कहता हंू।
रास्ते पर आप गुजरते हैं, एक बड़ा पत्थर पड़ा हुआ है। आप चाहें तो सिर पीट कर वहीं बैठ जाएं कि अब आगे का रास्ता बंद। यह पत्थर पड़ा हुआ है, अब आगे कैसे जा सकते हैं। लेकिन आपको पता नहीं, अगर आप पत्थर पर चढ़ जाएं तो आगे का रास्ता फिर खुल जाता है और ऊंचे तल पर खुलता है। जितना आप पत्थर पर चढ़ सकते हैं, ऊंचे तल पर। लेकिन आप देखकर छाती पीट कर बैठ गए पत्थर के पास। पत्थर सीढ़ी भी बनता है, पत्थर अवरोध भी बन सकता है। आप क्या बनाते हैं, यह आप पर निर्भर है। क्रोध के बाबत अगर आपने समझ लिया कि बुराई तो फिर आप क्रोध पर चढ़ न पाएंगे। और जो क्रोध पर न चढ़ पाएगा वह अक्रोध को उपलब्ध न हो पाएगा। और जो क्रोध पर न चढ़ पाएगा उसकी जिंदगी का चलना बंद हो जाएगा। काम यौन भी जिंदगी पर चढ़ने का एक तल है। घृणा भी जिंदगी के चढ़ने का एक तल है। हिंसा भी जिंदगी के चढ़ने का एक तल है। जिंदगी में जो भी है उसका अपना उपयोग है। इसलिए बुराई मान कर मत चलें। शुरू से बुराई मत मान लें। पहले पहचानें, पहले खुदे पत्थर पर चढ़ कर देखें कि पत्थर रोकता है, और जब सब पूरी तरह आप देख लेंगे, तो मैं आपसे कहता हंू कि आप परमात्मा को इसके लिए भी धन्यवाद देंगें कि तुमने मुझे क्रोध दिया। अन्यथा मैं अक्रोध को उपलब्ध न हो सकता। तुमने मुझे काम दिया अन्यथा मैं ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न हो सकता। तुमने मुझे क्रूरता दी अन्यथा मैं करुणा को उपलब्ध न हो सकता। या बुराई मान कर मत चलें पहली बात। जिसने बुराई मान ली वह कभी बुराई से छुटकारा नहीं पा सकता।
दूसरी बात, छुटकारा पाना ही है, हम मान कर क्यों चलें। जिसने ऐसा मान लिया वह कभी छुटकारा न पा सकेगा। छुटकारा पाना ही है। इसका मतलब है कि तय हो गया कि यह बंधन है, गुलामी है। आप निर्णय से शुरू करते हैं। निष्पक्षता से शुरू करें। निर्णय तो अंतिम बात है जानने के बाद पता चलेगा। लेकिन हम सब अजीब हैं। हम उन स्कूल के चोर बच्चों की तरह हैं, जिनको गणित का सवाल दिया जाता है जो किताब उलटा कर के तो पहले उसका निर्णय ले लिया, पहले उसका कनक्लूजन ले लिया। पहले किताब उलटा कर तो देखते हैं कि इसका उत्तर क्या है। उत्तर पहले देख लेते हैं तो फिर विधि करने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। और दूसरों के उत्तर आपके उत्तर नहीं बन सकते। और स्कूल के चोर बच्चे तो माफ किए जा सकते हैं। लेकिन हमारा तो पूरा का पूरा समाज चोर है, हम दूसरों के निष्कर्ष अपनी जिंदगी में मान कर शुरू करते हैं, फिर विधि कभी नहीं हो पाती। महावीर ने जो गणित किया, बुद्ध ने जो गणित किया, कृष्ण ने जो गणित किया वह हम नहीं करना चाहते, हम किताब उलटा कर उत्तर देख लेते हैं कि छोड़ो। गीता में क्या लिखा है? उत्तर क्या है आखिरी? हम तो उत्तर से शुरू करेंगे। उत्तर से शुरू करने वाला आदमी कभी भी यात्रा नहीं कर पाता क्योंकि उत्तर का मतलब है कि यात्रा खत्म हो गई। आप कनक्लूजन से शुरू मत करें, मत कहें कि बुरा है, मत कहें कि छुटकारा चाहिए। कहें कि जो है उसे मैं जानना चाहता हंू और जो है उसे जान कर तय करूंगा कि वह छूटने योग्य है, या पकड़ने योग्य है, और मजे की बात यह है कि जानकर तय कभी भी नहीं करना पड़ता। जिस दिन आप जान लेते हैं जो छूटने योग्य है वह जानने के साथ ही छूट जाता है। उसे छोड़ने के लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता है। असल में जिस दिन आप जानते हैं कि यह छूटने योग्य है उस दिन आप उस जगह पहुंच जाते हैं जहां छूटने की क्षमता आपके भीतर आ गई होगी। उसके पहले आप यह जान भी नहीं पाते। ज्ञान ही, नालेज इ.ज वर्चु--सुकरात का वचन हैः जान लेना ही चरित्र है। लेकिन हम दूसरों के जानने को अपना जानना समझे हुए हैं। इसलिए हम मुश्किल में पड़े हैं।
एक मित्र ने पूछा कि अकेले जानने से क्या होगा? करना भी तो पड़ेगा।
मैं आपसे कहता हंू, करना सिर्फ उन्हीं को पड़ता है जिन्होंने नहीं जाना है। और ध्यान रहे, न जाना हो, तो न करना अच्छा है। कम से कम खतरा तो पैदा नहीं होगा। न जाने और करने से जितना नुकसान होता है उतना न करने से नहीं होता। अज्ञानी के हाथ में कर्म सदा ही खतरनाक सिद्ध होते हैं और दुनिया में अज्ञानी बड़े कर्मठ होते हैं। ज्ञान जानते ही करने की जरूरत नहीं रह जाती क्योंकि जो आप जान लेते हैं आप वह आपके प्राणों में समाहित हो जाता है। वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा होता है। अब आपने जान लिया कि आग में हाथ जलता है तो, क्या अब अलग से, आग में हाथ न जले इसके लिए कुछ करना पड़ता है? वह जानना करना बन जाता है। अब आप आग से बच कर चलते हैं तो बचने के लिए भी प्रयास नहीं करना पड़ता, आप आग से बच जाते हैं। यह आपका सहज हिस्सा हो जाता है कि जहां आग है वहां आप कदम नहीं बढ़ा सकते। लेकिन अगर कोई कहे कि मुझे यह तो पता है कि आग जलाती है, लेकिन अब मैं आग से जलना कैसे छोडूं, उसे हम क्या कहेंगे। उसे हम कहेंगे कि तुझे पता नहीं है यह किसी और को पता होगा। उससे तूने सुना है कि आग जलाती है, तू खुद आग का जला हुआ नहीं है अन्यथा दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। दूध तो पीता ही है फूंक कर, छाछ भी फंूक-फूंक कर पीने लगता है क्योंकि छाछ भी जरा दूध जैसी दिखाई पड़ती है। आग का जला आग से तो दूर रहता ही है। आग जैसी भी कोई चीज दिखाई पड़े तो भी कदम संभाल कर रखता है। अलग से कुछ करना नहीं पड़ता। ज्ञान जीवन बन जाता है। यह मैं आपसे न कहंूगा कि बुराई कैसे छोड़ें। मैं कहंूगा कि आप जानें कि बुराई क्या है? मैं आपसे न कहंूगा कि बुराई को छोड़ने की विधि क्या है। बुराई को छोड़ने की विधि बुराई को जानना है। और बुराई को जानने की विधि बुराई को बुराई न मानना है।
बुराई को एक तथ्य की तरह लें कि वह है। क्रोध है, और निर्णायक न बनें कि बुरा है कि अच्छा। पक्षपाती न बनें। मित्र, शत्रु न बनें। क्रोध एक तथ्य की भांति जीवन का हिस्सा है उसे जानें और उसे जानने के लिए जो भी करना हो वह करें। जानने के लिए, तो जब क्रोध आए, पत्नी पर क्रोध आ जाए, बेटे पर क्रोध आ जाए, तो बेटे को खबर कर दें कि आज मुझे पूरा क्रोध कर लेने दें ताकि मैं पूरी तरह जान लूं कि यह क्रोध क्या है? और जिस दिन आप कह कर क्रोध करेंगे घर में, उससे कोई उपद्रव पैदा नहीं होगा। बल्कि सारा घर आप पर हंसेगा और घर को भी बहुत फायदा होगा, कि आज पिताजी क्रोध कर रहे हैं। लेकिन पिताजी दिखलाते हैं कि हम क्रोध करते ही नहीं। और क्रोध करते है तब कोई फायदा नहीं होता। खुद को भी नहीं होता, दूसरे को भी नहीं होता। और अगर घर का एक भी सदस्य कह दे कि आज मैं क्रोध करूंगा और आज मुझे पूरा क्रोध करके देखना है, तो वह पूरा घर एक प्रयोग स्थल हो गया। उसके क्रोध के कोई दुष्परिणाम न होंगे। क्योंकि घर के लिए वह मजाक बन जाएगा। और खुद के लिए कोई दुष्परिणाम न होंगे। क्योंकि दमन न होगा फिर भी क्रियाएं तो होंगी और क्रोध जब पूरा निकलेगा तभी आप जान सकेंगे कि क्रोध क्या है?
गुरजिएफ एक फकीर था, जो कुछ दिन पहले मरा। उसके आश्रम में जो भी जाता वह उससे पहले इस तरह की चीजें करवाता। उससे कहता कि क्रोध करो, और जोर से करो पूरी तरह करो जब आ जाए। और जब कोई आदमी पूरे क्रोध में भर जाता है तो ऐसी सिचुएशन पैदा करता कि किसी को क्रोध आ जाए। और जब वह पूरी तरह क्रोध में भर जाता, जलने लगता और उसके हाथ-पैर आग बन जाते हैं और उसकी आंखों में लपटें निकलने लगतीं। उसके दांत भिंच जाते, उसके हाथ किसी की गर्दन दबाना चाहते। तब वह गुरजिएफ और उसके सब साथी चिल्ला कर कहते है कि जागो! बी अवेयर! अब देखो कि यह क्या हो रहा है भीतर। और उस क्षण में उस सिचुएशन में जब पूरा क्रोध आग की तरह मौजूद हो चारों तरफ, भीतर, अगर आप जाग जाएं और देख सकें कि यह क्या हो रहा है, दुबारा आप क्रोध में प्रवेश नहीं कर पाएंगे। तब आपको क्रोध पागलपन मालूम होगा। तब आपको क्रोध एक अस्थायी मैग्नेट मालूम होगा। तब आप और क्रोध दो हो जाएंगे। तब क्रोध एक आग की लपट मालूम होगी और आपकी चेतना अलग मालूम होगी। जिस दिन आप क्रोध को ऐसा देख लें उस दिन से आपको क्रोध कैसे छोड़ें, किस मंदिर में कसम खाएं? किस गुरु का ताबीज बांधें? कौन से शास्त्र को सिर पर लेकर घूमें? यह न पूछना पड़ेगा, उस दिन से आप क्रोध के बाहर हो जाएंगे। क्रोध की व्यर्थता, क्रोध की अग्नि, क्रोध का जहर, आपको पता हो जाएगा। और अगर इसके बाद कभी आपको क्रोध करने का मौका आए तो आप अब सिर्फ अभिनय कर सकेंगे। आप क्रोध न कर सकेंगे। क्रोध के अभिनय का उपयोग हो सकता है। जिंदगी में उसकी जरूरत हो सकती है।
हिंदुस्तान हजारों साल से सुन रहा है कि क्रोध बुरा है। इसलिए गुलामी के वक्त क्रोध का अभिनय भी नहीं कर पाया। क्रोध न करता तो वह ठीक था। अभिनय न कर पाया। काश, हम अभिनय भी कर सकते क्रोध का। अगर चालीस करोड़ लोग एक घंटे के लिए तय कर लेते कि पूरा मुल्क एक घंटे के लिए अंग्रेजों को क्रोध दिखा देगा। तो एक घंटे में गुलामी खत्म होती। एक घंटे से ज्यादा की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन हम अभिनय भी न कर सके। क्योंकि हम दबाए हुए लोग, हमें डर है कि अभिनय करेंगे तो असली न प्रकट हो जाए। वह भीतर दबा हुआ है। इसलिए अभिनय भी करने में भय है। अभिनय केवल वही कर सकता है क्रोध का जिसके भीतर क्रोध का कोई दमन नहीं। उसे कोई डर नहीं।
एक स्त्री के साथ आप अभिनय में नाच नहीं सकते अगर आपके भीतर काम का दमन हो। आपको डर है कि काम प्रकट न हो जाए। स्त्री के साथ कृष्ण जैसा कोई आदमी नाच सकता है। कोई दमन नहीं है। कोई भय भी नहीं। बुराई बुराई की तरह स्वीकार करके मत चलें, जानें, क्या है। छुटकारे की पहले से कामना न करें। जानें, जो छूटने योग्य है वह जानते ही छूट जाता है।
 कुछ और प्रश्न हैं, संध्या की चर्चा में आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, इसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरेे प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें