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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-17)

बोधकथा--सत्रहवी

धर्म, धर्म, धर्म। धर्म का कितना विचार चलता है, लेकिन परिणाम क्या है?
मैं जिसे सुनता हूं, वही शास्त्र- उद्धृत करता है, लेकिन परिणाम क्या है?
मनुष्य निरंतर दुख और पीडा में डूबता जा रहा है, और हम हैं कि अपने सीखे हुए सिद्धांत दुहराए जा रहे हैं।
जीवन प्रतिक्षण पशुता की ओर झुकता जा रहा है और हम हैं कि पत्थरों के पुराने मंदिरों में सदा की भांति सिर झुकाए चले जा रहे हैं।
शब्द--मृत शब्दों में हम इतने घिरे हैं कि शायद सत्य को देखने की क्षमता ही हमने खो दी है।

शास्त्रों से चित्त हमारा इतना आबद्ध है कि स्वयं अनुसंधान में जाने का सवाल ही नहीं उठता है।
और, शायद इसीलिए विचार और आचार के बीच अलंघ्य खाई खुद गई है। और, शायद इसीलिए जो हम कहते हैं कि हम चाहते हैं, ठीक उसके विपरीत ही हम जीए जाते हैं। और, आश्चर्य तो यह है कि यह विरोधाभास हमें दिखाई भी नहीं पडता है!


आंखें होते हुए भी क्या हम अंधे नहीं हो गए हैं?
मैं इस जीवन स्थिति पर सोचता हूं तो दिखाई पडता है कि जो सत्य स्वयं ही उपलब्ध न किए गए हों, वे ऐसी ही उलझन में ले जाते हैं।
सत्य स्वयं से आवे तो मुक्त करता है और स्वयं से न आवे तो और भी गहरे बंधनों में बांध देता है। सिखाए हुए सत्यों से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं होता है।
और, ऐसे उधार सत्य, जीवन में अत्यंत पीडादायी स्वविरोध पैदा करते हैं।
एक पहाडी सराय में एक पाला हुआ तोता था। उसके मालिक ने जो उसे सिखाया था, वह उसी को दिन-रात दुहराया करता था। वह कहा करता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ एक यात्री उस सराय में पहली बार ठहरा था। उस तोते की वेदना भरी वाणी उसके मर्म को छू लेती थी। वह भी अपने देश की स्वतंत्रता के युद्ध में अनेक बार कैद में रह चुका था। और तोता जब उस पहाडी के सन्नाटे को तोड कर कहताः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता,’’ तो उसके हृदय के तार झनझना उठते थे। उसे अपने कैद के दिनों की स्मृति हो आती और स्मरण हो आता कि ऐसे ही तो उसकी अंतरात्मा भी चिल्लाती थीः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ रात्रि हो गई तो वह यात्री उठा और उसने स्वतंत्रता के आकांक्षी उस तोते को उसकी कैद से मुक्त करना चाहा। यात्री तोते को उसके पिंजडे से बाहर खींचता था, लेकिन तोता निकलने को राजी नहीं होता था। इसके विपरीत अपने सींकचों को पकड कर वह चिल्लाता थाः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’ बडी मुश्किल से वह यात्री तोते को बाहर निकाल पाया। उसे आकाश में उडा कर वह निशिं्चत हो सो गया। लेकिन सुबह उठ कर ही उसने देखा कि तोता अपने पिंजडे में आनंद से बैठा है और चिल्ला रहा हैः ‘‘स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’’

ओशो

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