कुल पेज दृश्य

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

मैं विज्ञान की भाषा में बोल रहा हूं

एक मित्र ने पूछा हैः साधु, संन्यासी, योगी, वर्षों गुफाओं में बैठ कर ध्यान को उपलब्ध होते रहे हैं। और आप कहते हैं कि चालीस मिनट में भी ध्यान संभव है। क्या ध्यान इतना सरल है?
इस संबंध में दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो आज से दस हजार साल पहले आदमी पैदल चलता था। पांच हजार साल पहले बैलगाड़ी से चलना शुरू किया। अब वह जेट-यान से उड़ता है। जैसे हमने जमीन पर चलने में विकास किया है वैसे ही चेतना में जो गति है उसके साधन में भी विकास होना चाहिए। तो वह भी एक गति है। आज से पांच हजार साल पहले अगर किसी को ध्यान उपलब्ध करने में वर्षों श्रम उठाना पड़ता था, तो उसका कारण ध्यान की कठिनाई न थी। उसका कारण ध्यान तक पहुंचने वाले साधनों की--बैलगाड़ी चलने की या पैदल चलने की शक्ल थी। मनुष्य जिस दिन अंतरात्मा के संबंध में वैज्ञानिक हो उठेगा, उस दिन शायद क्षण भर में भी ज्ञान पाया जा सकता है। क्योंकि ध्यान को पाने का समय से कोई भी संबंध नहीं है। समय से संबंध हमेशा साधन का होता है, ध्यान का नहीं होता। आप जिस मंजिल पर पहुंचते हैं उस मंजिल पर पहुंचने का कोई संबंध समय से नहीं होता। संबंध होता है रास्ते पर किस साधन से आप यात्रा करते हों।

उसका अगर कोई कहे कि पहले हम दिल्ली वर्ष भर पैदल चल कर पहुंचते थे। उस वर्ष भर चलने से दिल्ली पहुंचने का कोई संबंध न था, आपके पैदल चलने से वर्ष भर का संबंध था। फिर बैलगाड़ी से आप तीन महीने में पहुंचने लगे, तब भी दिल्ली का संबंध तीन महीने से नहीं था। तीन महीने का संबंध आपकी बैलगाड़ी से है। और आप अगर अब आधा घंटे में पहुंच जाते हैं, तब भी दिल्ली पहुंचने का संबंध आपसे आधा घंटे का नहीं है। अब आप जिस यान का उपयोग कर रहे हैं वह आधा घंटे में पहुंच जाता है। कोई आश्चर्य नहीं कि कल हम आधा मिनट में भी पहुंच सकें । और कोई आश्चर्य नहीं कि आधा सेकेंड लगना भी किसी दिन ज्यादा समय मालूम होने लगे। कितनी तीव्रता से हम साधन का प्रयोग करते हैं इस पर सब कुछ निर्भर करता है। जिस भांति आदमी ने बाहर की जिंदगी में गति और स्पीड का विकास किया है उस भांति भीतर की जिंदगी में नहीं किया है। लेकिन भीतर की जिंदगी में भी किया जा सकता है।
 मैं जिस ध्यान के प्रयोग की बात कर रहा हूं, वह चालीस मिनट में ही परिणामकारी हो जाता है। सवाल चालीस मिनट का नहीं, सवाल आपका चालीस मिनट तक एक विशेष साधन प्रक्रिया को करने का है और अगर आपकी तीव्रता और भी ज्यादा हो तो वह बीस मिनट में भी हो सकता है। और अगर तीव्रता टोटल हो कि आप समग्रपन से एक क्षण भी कर पाए तो एक क्षण में भी हो सकता है। कितनी समग्रता से कितने इंटिग्रेटेड, कितना पूरे प्राण-पन से आप संकल्प में कूदे हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है, लेकिन हमारे पास जो योग के साधन हैं, वे उसी जमाने के हैं जब बैलगाड़ी चलने का वाहन था। इसलिए कुछ व्यक्ति आज भी गुफाओं में बैठ कर पांच हजार साल पहले की प्रक्रियाओं का प्रयोग कर रहे हैं, और मैं आप से कहना चाहता हूं कि जब तक हम विज्ञान के साथ धर्म को गति न देंगे, तब तक विज्ञान सदा जीतेगा और धर्म सदा हारेगा। विज्ञान के साथ धर्म की भी गति होनी चाहिए। हो सकती है, कोई कठिनाई नहीं है। इस के उदाहरण के लिए दो-चार बातें मैं आप से कहूं, तो आपको समझ में आएगा कि साधन में कैसे गति हो सकती है। एक आदमी अगर चालीस दिन उपवास करे, और फिर उसका मन शांत हो जाए तो आप क्या समझते हैं? चालीस दिन उपवास करने से शरीर में क्या होगा? चालीस दिन उपवास करने से शरीर की केमिकल, रासायनिक व्यवस्था ही बदलती है, चालीस दिन भूखा रहने से शरीर में कुछ तत्व बिलकुल नष्ट हो जाते हैं, और कुछ तत्व बोध मात्रा में हो जाते हैं। शरीर का जो रासायनिक संतुलन था वह रूपांतरित हो जाता है। यह बहुत पुरानी व्यवस्था थी, शरीर की केमिस्ट्री पर काम करने की।
लेकिन आज अगर हम विज्ञान का उपयोग कर सकें तो चालीस दिन उपवास से शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह एक इंजेक्शन से भी हो सकता है। आखिर रासायनिक परिवर्तन ही करना है। चालीस दिन भूखे मर कर भी तो आप रासायनिक परिवर्तन ही करते हैं। चालीस दिन खाना नहीं खाते, यह कोई आप आध्यात्मिक बात समझ रहे हैं? और अगर खाना न खाना आध्यात्मिक हो सकता है, तो इंजेक्शन लगाना क्यों आध्यात्मिक नहीं हो सकता है? जितना खाना भौतिक है, उतना ही इंजेक्शन भी भौतिक है। दोनों में कोई फर्क नहीं है। खाना न खाकर हम चालीस दिन में जो परिवर्तन कर पाते हैं वह परिवर्तन भी कैमिकल है। उस परिवर्तन में भी शरीर के कुछ रस समाप्त हो जाते हैं, शरीर के कुछ तत्व नष्ट हो जाते हैं, वे तत्व तो वैसे ही नष्ट किए जा सकते हैं। और उन तत्वों के नष्ट होने से कुछ दूसरे रासायनिक तत्व प्रभावी हो जाते हैं, इंजेक्शन द कर उन तत्वों को अभी प्रभावी किया जा सकता है। वही अनुपात पैदा किया जा सकता है जो चालीस दिन के उपवास से होता है। जिस दिन हम विज्ञान का उपयोग करेंगे उस दिन अगर कोई कहे कि महावीर की भांति बारह साल उपवास करना पड़ेगा तब ज्ञान उत्पन्न होगा तो मैं उसको कहूंगा कि वह बैलगाड़ी के जमाने की बात कर रहा है। महावीर की मजबूरी थी कि उन्हें बारह साल उपवास करना पड़ा। अगर महावीर आज होते तो इस तरह की नासमझी को न करते। उस समय कोई उपाय न था। उन्हें जो भी शरीर में रासायनिक परिवर्तन करने थे, उसके लिए सिवाय इसके, उसके पास कोई साधन न था।
 लेकिन आज साधन उपलब्ध हैं, अगर हम साधनों को इनकार करें तो हम सिर्फ धर्म की प्रगति को इनकार कर रहे हैं। अगर एक आदमी शीर्षासन करके कोई परिवर्तन लाता है तो परिवर्तन बिलकुल भौतिक है। उस परिवर्तन में कुछ अध्यात्म नहीं है। लेकिन वह भौतिक परिवर्तन आध्यात्मिक यात्रा में सहयोगी हो जाता है। अब शीर्षासन से जो होता है अब बिना शीर्षासन के हो सकता है। अब शीर्षासन में होगा क्या? सिर्फ सिर में खून की गति बढ़ जाएगी। तो सिर में खून की गति बढ़ाने के बहुत उपाय हो सकते हैं। सिर में खून की गति बढ़ाने के लिए बहुत तरह के प्रयोग हो सकते हैं, जो बिना शीर्षासन के संभव हो जाएं। जितनी हमारी समझ बढ़ेगी उतना हम पाऐंगे कि मनुष्य को धर्म के जगत में भी वैज्ञानिक प्रक्रियाओं का सहारा लेना चाहिए। अन्यथा विज्ञान बढ़ता चला जाएगा और आदमी सिकुड़ता चला जाएगा। विज्ञान बड़ा होता जाएगा, और धर्म छोटा होता जाएगा। धर्म यात्रा करेगा बैलगाड़ी में और विज्ञान यात्रा करेगा राकेट में। तो जीत की आशा आप धर्म के लिए न करें।
धर्म को वैज्ञानिक होना पड़ेगा। जिस ध्यान के प्रयोग की मैं बात कर रहा हंू, वह बहुत अर्थोें में वैज्ञानिक है। और चालीस मिनट बहुत सोच-विचार कर तय किए गए हैं। आपने देखा होगा कालेज में, स्कूल में, चालीस मिनट से बड़ा पीरियड नहीं होता, कभी आपने पूछा कि क्यों? मनुष्य के मन की क्षमता एक काम को चालीस मिनट से ज्यादा करने की साधारणतः नहीं होती। चालीस मिनट में आदमी को काम बदलना चाहिए। अन्यथा उदासी, ऊब और बोर्डम पैदा हो जाएगी। चालीस मिनट मनुष्य के मन की फैलने की क्षमता की सीमा है, इसलिए चालीस मिनट। और चालीस मिनट में जो मैंने चार, दस-दस मिनट के विभाजन किए हैं, उन्हें भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। दस मिनट तक भस्त्रिका का प्रयोग, भस्त्रिका का अर्थ है फेफड़ों को इस भांति चलाना जैसे कि लोहार अपनी धौंकनी को चलाता है। वह इतनी तेजी से श्वास को बाहर और भीतर फेंकना है, कि भीतर की सारी गंदी वायु बाहर फेंकी जा सके।
शायद आपको पता न हो कि हमारे फेफड़े में कोई छह हजार छिद्र होते हैं। साधारणतः जो हम श्वास लेते हैं, वह मुश्किल से हजार छिद्रों तक पहुंचती है, आम तौर से छह सौ छिद्रों तक पहुंचती है। अगर हम दौड़ते भी हैं और तेजी से भी श्वास लेते हैं, व्यायाम भी करते हैं तो भी श्वांस दो हजार छिद्रों से ज्यादा नहीं पहुंचती। इसका मतलब हुआ कि हमारे फेफड़ों के चार हजार छिद्र सदा ही कार्बन डाइआक्साइड की गंदगी से भरे रहते हैं। शायद आपको पता न हो कि हमारे फेफड़ों में जितनी ज्यादा कार्बन डाइआक्साइड होगी उतना ही तमस हमारे चित्त में होगा। इसलिए दिन को सोना मुश्किल होता है, रात को सोना आसान हो जाता है, क्योंकि रात सूरज के ढल जाने के बाद हवाओं में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, और आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। सुबह सारी दुनिया जाग जाती है, वृक्ष जागते हैं, पशु जागते हैं, पौधे जागते हैं। कोई अलार्म घड़ियां उनके पास नहीं हैं। कैसे जाग जाते हैं, सूरज के आने की घड़ी भर पहले। सारा जगत कैसे उठने लगता है, बात क्या है? यह नींद टूटने का क्या कारण है? जैसे ही वातावरण में आक्सीजन की मात्रा बढ़नी शुरू होती है, नींद टूटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि नींद के लिए कार्बन डाइआक्साइड का बहुत होना जरूरी है, वह जैसे ही कम हुआ कि नींद गई। नींद जितनी ज्यादा आपको चाहिए उतना कार्बन चाहिए।
अब ध्यान का जो प्रयोग है, वह नींद को तोड़ने का प्रयोग है। अंततः समक्ष मूच्र्छा टूट जाए इसलिए दस मिनट तक भस्त्रिका का प्रयोग करें। इतने जोर से श्वास फेंकनी है कि पूरे फेफड़े अपनी गंदगी को बाहर कर दें और नयी हवाओं से भर जाए। अगर पूरा फेफड़ा नयी हवाओं से भर जाए तो आपके भीतर शक्ति का नया जागरण शुरू हो जाएगा जो कि वर्षोें भी साधारण बैठ कर नहीं हो सकता है। मनुष्य के भीतर जैसे मनुष्य के जागने के नियम हैं, कि सुबह सूरज उगने पर हवाओं में आक्सीजन बढ़ने पर जागना शुरू होता है, ऐसी ही हमारी अंतर-चेतना भी, अगर फेफड़ों में आक्सीजन की मात्रा बढ़ा दी जाए तो जागना शुरू हो जाती है। अब जिस दिन विज्ञान और सफल हो सकेगा, और जिस दिन हम धर्म में विज्ञान का प्रयोग कर सकेंगे उस दिन मैं न चाहूंगा कि खुले मैंदान में एक प्रयोग हो। मैं चाहूंगा कि एक हाल के भीतर प्रयोग हो और इस हाल में आक्सीजन के बड़े-बड़े चेंबर रखे हों और इस हाल को बहुत ज्यादा आक्सीजन से भरा जा सके तो शायद दस मिनट का काम दो मिनट में भी हो सकता है।
असली सवाल यह है कि भीतर की कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा कैसे रूपांतरित हो? यह अगर रूपांतरित हो जाए तो भीतर भी चेतना को जगने में सहायता मिलती है, भीतर चेतना अटेंटिव, ध्यानपूर्ण होने के लिए सजग और सहज हो जाती है। इसलिए दस मिनट तक भस्त्रिका का प्रयोग करना है। मैं जो भी कह रहा हूं उसके वैज्ञानिक आधार हैं। और जब शरीर के भीतर आक्सीजन की मात्रा बढ़ती है तो शरीर के भीतर छिपी हुई जो विद्युत की शक्ति है, जो बाडी इलेक्ट्रिक है, वह भी सजग हो जाती है। शायद आपको पता न हो कि शरीर के भीतर कितनी विद्युत की शक्ति का कितना बड़ा वर्तुल है। हम सारे के सारे लोग उसी विद्युत से जीते हैं वही हमारी ऊर्जा, वही हमारी शक्ति है। कार में ही बैटरी नहीं लगी होती। हमारे भीतर भी विद्युत की बैटरियां हैं। हमारा शरीर भी विद्युत का एक वर्तुल है और कभी-कभी वर्तुल टूट जाता है, तो बड़ी कठिनाई होती है। अभी पीछे स्वीडन में एक महिला के शरीर के वर्तुल का टूटना हो गया। किसी चोट में, दुर्घटना में उसके शरीर के विद्युत की धारा टूट गई, फिर उस स्त्री को छूना मुश्किल हो गया। जो भी उसे स्पर्श करेगा उसे शॉक लगेगा। उस स्त्री से प्रेम करना बहुत मुश्किल बात हो गई। उसे प्रेमी मिलना मुश्किल हो गया। क्योंकि उसे छूना, और शॉक लगना। उसका इलाज करना पड़ा, और बहुत मुश्किल से उसके वर्तुल को फिर से स्थापित किया जा सका। एक आदमी ने जर्मनी में अपने शरीर की विद्युत के बहुत प्रयोग किए और पांच केंडल के बल्ब को सीधा हाथ में रख कर जला कर दिखाया। शरीर के भीतर विद्युत है। असल में तो बिना विद्युत के तो आप जी नहीं सकते। और शरीर के भीतर विद्युत का पूरा इंतजाम है। जब शरीर में आक्सीजन की मात्रा बढ़ती है, तब शरीर की विद्युत सक्रिय हो जाती है। उस सक्रियता की हालत में पूरे शरीर में विद्युत के कंपन इलेक्ट्रिफाइड होना शुरू हो जाते हैं। पूरा शरीर विद्युत से कंपने लगता है। इस विद्युत के ही संगृहीत परिणाम मनुष्य की रीढ़ पर होने शुरू होते हैं, क्योंकि रीढ़ हमारे इस स्नायु संस्थान का, हमारे नर्वस सिस्टम का, केंद्रीय तत्व है। जब सारे शरीर में विद्युत जगनी शुरू होती है तो उसकी धाराएं हमारे रीढ़ में संगृहीत हो जाती हैं, इकट्ठी हो जाती हैं और कुंडलिनी, जैसे योग ने कहा है कि वह रीढ़ में इकट्ठी हो गई विद्युत का प्रवाह है।
यह मैं विज्ञान की भाषा में बोल रहा हूं। कुंडलिनी धर्म की भाषा है, योग की भाषा है। वैज्ञानिक कहता है कि कुंडलिनी कहां है? और आप की पूरी की पूरी रीढ़ को भी काट डाला जाए तो कुंडलिनी कहीं मिलती नहीं। यह वैसे ही नासमझी की बात है कि जैसे ही कोई इस बल्ब को फोड़ दे और कहे कि विद्युत कहां है? बल्ब को फोड़ने से मिलती नहीं। कोई बिजली के तार को काट-काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दे और कहे कि विद्युत कहां है। क्योंकि विद्युत तार के टुकड़े-टुकड़े करने से मिलती नहीं। आज तक विद्युत किसी ने देखी नहीं है, सिर्फ विद्युत के परिणाम देखे हैं। कोई बड़े से बड़े वैज्ञानिक ने भी विद्युत को अब तक देखा नहीं है और भविष्य में भी कभी विद्युत देखी नहीं जा सकेगी। सिर्फ परिणाम देखे जाते हैं। जब आकाश में आप चमकते देखते हैं वह भी एक परिणाम है, एक इफेक्ट है। वह भी बिजली नहीं है, बिजली का प्रभाव है। और जब बल्ब में जलते देखते हैं तब भी बिजली नहीं है वह भी बिजली का प्रभाव है, और जब इस माइक से आवाज आप तक पहुंच रही है तब भी बिजली सीधी नहीं है। यह भी प्रभाव है। हम सिर्फ प्रभावों को जानते हैं वस्तुओं को नहीं जानते हैं। वस्तुओं का मूल अर्थ सदा ही अदृश्य रह जाता है। अब तक बिजली किसी ने नहीं देखी। बिजली छोड़ दें, आपने शायद कभी खयाल नहीं किया है कि आज तक प्रकाश, लाइट भी किसी ने नहीं देखा है। हम सिर्फ लाइटेड चीजें देखते हैं। हम सिर्फ प्रकाशित चीजें देखते हैं, प्रकाश नहीं। प्रकाश को दुनिया में कभी किसी ने भी नहीं देखा। प्रकाश में चमकती हुई कुर्सी दिखाई पड़ती है। प्रकाश में चमकती हुई दीवाल दिखाई पड़ती है। प्रकाश में आप मुझे दिखाई पड़ते हैं। और जब प्रकाश नहीं होता तो आप मुझे दिखाई नहीं पड़ते तो मैं कहता हूँ कि अंधेरा हो गया, प्रकाश को हमने कभी नहीं देखा है। हमने सिर्फ ऑब्जेक्टस, प्रकाश में प्रकाशित हो गई वस्तुओं को देखा है। प्रकाश को आज तक किसी ने भी नहीं देखा और आगे भी कोई कभी देख नहीं सकेगा।
वह जो कुंडलिनी है उसे कोई रीढ़ की हड्डियां काट कर नहीं देख सकता। लेकिन धर्म की पुरानी भाषा बहुत जगह जाकर पुरानी पड़ जाने के कारण बड़ी अर्थहीन हो जाती है। हमें भाषा को भी रोज नया निखार देना चाहिए। मत कहें कुंडलिनी उसे, कहें बॉडी इलेक्ट्रिसिटी, उसे कहें शरीर विद्युत। निश्चित ही शरीर की विद्युत अगर पैदा होगी तो उसके सबसे ज्यादा गहरे परिणाम और प्रभाव रीढ़ में देखे जायेंगे क्योंकि रीढ़ हमारे शरीर का मूल है, जिस पर सारा शरीर टंगा हुआ है। शरीर की सारी धाराएं वहां से आती हैं और वहां वापस लौटती हैं। और जब यह विद्युत रीढ़ में अनुभव होगी तो सांप की तरह उठती हुई अनुभव होगी। जैसे रीढ़ में कुछ उठ रहा हो, सर्प की तरह ऊपर सरक रहा हो। निश्चित ही पुराने आदमी के पास विद्युत की भाषा नहीं थी, विद्युत का प्रतीक नहीं था लेकिन फिर भी उसने जो प्रतीक चुना था वह बिलकुल ठीक है, सर्प। उन दिनों सरकने वाली इससे बढ़िया कोई चीज ज्ञात न थी। अब तो सर्प हमें बहुत कम ज्ञात है क्योंकि गांव में वह आता नहीं। सीमेंट की सड़कों पर वह चलता नहीं, बंधे हुए मकानों में घुसता नहीं। हमने सर्प को गांव के बाहर कर दिया। कभी-कभी नागपंचमी को कुछ धन्धे वाले लोग उसे बस्ती में ले आते हैं। वे भी कब तक लाएंगे, कहना मुश्किल है। वह दिखाई नहीं पड़ता। वह हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। लेकिन आज से तीन हजार, चार हजार साल पहले सांप जिंदगी का बड़ा अनिवार्य हिस्सा था। वह हर वक्त मौजूद था। उससे ज्यादा तेज चलने वाली चीज आदमी के अनुभव में न थी। इसलिए जब उसने अपनी रीढ़ में किसी चलती हुई चीज को देखा तो उसने कहा, यह सर्पाकार है। सर्प में ही पॉवर का खयाल उसे आना स्वाभाविक था। फिर उसे यह भी खयाल आया कि यह अब उठ गया, अभी तक कहां था? तो जब सर्प बैठा होता है तो कुंडली मार कर बैठा होता है। जमीन में कुंडली मार लेता है और छोटी सी जगह में सिकुड़ कर बैठ लेता है।
तो स्वभावतः उस आदमी को खयाल आया कि जब शक्ति नहीं उठी थी तब कहां थी? तो उसे खयाल आया जैसे सांप कुंडली मार कर नीचे बैठा रहता है ऐसे ही यह भी कुंडली मार कर बैठी होगी। इसलिए इस शक्ति का नाम कुंडलिनी हो गया। फिर जब सांप फंुकार कर उठता है तो पूरा का पूरा खड़ा हो जाता है। यह आपको पता है कि सांप का खड़ा होना एक मिरेकल है यह सांप के भीतर हड्डी नहीं होती। लेकिन जब सांप खड़ा होता है तो पूंछ जमीन को छूती है और फन आकाश में फैल जाता है। ठीक जब भीतर जब पूरी विद्युत ऊर्जा रीढ़ से पार होकर फैलती है तो मस्तिष्क में फन की तरह फैल जाती है। इसलिए आपने देखा होगा कि न मालूम कितने तीर्थंकरों के, अवतारों के ऊपर नाग का फन सिर के ऊपर फैलाए हुए बैठा होता है। आप यह मत सोचना कि किसी असली नाग का इससे कोई संबंध है। यह प्रतीक है उस भीतर की ऊर्जा का मस्तिष्क में पूरी तरह जाग कर फैल जाना। यह सांप का फन उसका प्रतीक है।
यह जो विद्युत है शरीर में इसको जगाने के लिए दस मिनट शरीर में आक्सीडाइजेशन होना जरूरी है। शरीर में जितने जोर से आक्सीजन पहुंच जाए, शरीर के खून की गति में अंतर हो जाता है, शरीर के परमाणु अंतरित हो जाते हैं, शरीर की सारी व्यवस्था बदल जाती है। और उस नई व्यवस्था में विद्युत का जागना संभव हो जाता है। यह विद्युत के जागरण के लिए दस मिनट पर्याप्त हैं, अगर आप करें तो। आप न करें, तो दस जन्म भी अपर्याप्त हैं। दूसरे दस मिनट में जब शरीर की विद्युत शक्ति जागती है, तो स्वभावतः शरीर में बहुत से हलन-चलन शुरू हों, क्योंकि शरीर में जब एक नई शक्ति जागेगी।
आपने छोटे बच्चे को देखा है जब उसमें जिंदगी की शक्ति जागनी शुरू होती है, तो आप उससे कितना भी कहें कि बिलकुल ठीक सिद्धासन लगा कर बैठो एक कोने में। वह एक कोने में बैठ जाए, तो भी डोलता रहेगा। उसके भीतर कोई चीज जाग रही है, जिंदा हो रही है। और जरा आंख बची आपकी कि वह भागा। वृक्षों पर चढेगा, जमीन पर लोटेगा, भागेगा, दौड़ेगा, कूदेगा। यह मत सोचिए कि आपको परेशान करने के लिए दौड़ रहा है। उसके भीतर कुछ जाग रहा है जो उसे गतिमान कर रहा है। जब भी नयी शक्ति जागती है तो शरीर गतिमान होगा। और जब यह विद्युत की ऊर्जा या कुंडलिनी जागती है, तो पूरा शरीर नयी गतियां करेगा। इन्हीं गतियों से आसन और मुद्राओं का विकास हुआ है। आसन और मुद्राओं से गतियां नहीं होतीं। गतियों से आसन और मुद्राओं का विकास हुआ है। जब जोर से शक्ति सिर की तरफ भागेगी तो अचानक मन होगा कि सिर जमीन पर लगा कर उलटे खड़े हो जाओ। उससे बड़ी राहत मिलेगी। शीर्षासन ऐसे ही जन्मा। जब जोर से शक्ति भीतर जाती है तो अचानक साधक को लगता है कि सिर जमीन पर कर ले और पैर ऊपर कर ले। इससे उसे बड़ी राहत मिलती है। यह राहत वैसे ही होती जैसे कि अगर आपको बिना तकिए के रात सोने को कहा जाए तो आपको मुश्किल होती है। तकिया रखने से आपको क्या राहत मिलती है, कभी खयाल किया है? तकिया हटा लिया जाए आपके सिर के नीचे से, तो आप कहते हैं कि नींद नहीं आती। तकिया क्या करता होगा? तकिया आपके शरीर में, आपके मस्तिष्क में खून की गति को बदलता है। जब सिर ऊंचा हो जाता है तो खून की गति सिर की तरफ बंद हो जाती है, और जब सिर नीचा हो जाता है तब खून की गति सिर की तरफ बढ़ जाती है। जब सिर की तरफ खून की गति बढ़ती है तो नींद असंभव हो जाती है। इसलिए जो लोग शीर्षासन करते हैं उनकी नींद कम हो जाएगी। अगर बहुत ज्यादा शीर्षासन करेंगे तो नींद बिलकुल समाप्त हो जाएगी।
इसलिए आप यह मत सोचना कि साधु बड़े खयालों से ऊपर उठ गया है, इसलिए उसको नींद नहीं आती। शीर्षासन का परिणाम स्वभावतः नींद को कम कर देना है। खून जितना मस्तिष्क में जाएगा उतनी नींद कम हो जाएगी। लेकिन शीर्षासन अगर आपने जबरदस्ती किया, तो नुकसान पहुंचा सकता है। क्योंकि अगर मस्तिष्क में बहुत ज्यादा खून जाए, तो मस्तिष्क में जो बहुत बारीक स्नायु हैं, वे टूट जाते हैं।
इसलिए साधारणतः शीर्षासन करने वाले लोगों में बुद्धि का पता नहीं चलेगा। उनमें जरा बुद्धि खोजना मुश्किल होगा। उसके कारण हैं। आदमी में जो बुद्धिमत्ता पैदा हुई वह दो पैर पर खड़े होने की वजह से पैदा हुई। दूसरे जानवरों में न पैदा होने की वही बायोलाजिकल वजह है। जिस दिन से आदमियों का कोई पूर्वज जमीन पर दो पैर से खड़ा हो गया, उसी दिन से आदमी की बुद्धि की क्षमता शुरू हुई। क्योंकि मस्तिष्क तक खून बहुत कम पहुंचने लगा। कम खून की वजह से मस्तिष्क की शिराएं पतली हो गईं। कम खून की वजह से मस्तिष्क में बारीक तंतु पैदा हो सके। वे तंतु बहुत बारीक, एक-एक मस्तिष्क में करोड़ों का जाल। और अगर हम उदाहरण से समझें, तो जितना हमारा बाल मोटा है, यह बहुत मोटा है। अगर हम मस्तिष्क के स्नायुओं को एक लाख एक के ऊपर एक रखें, तो वह एक बाल की मोटाई के बराबर हो पाता है। जब तक ज्यादा खून मस्तिष्क में जाता था तब तक ये पैदा नहीं हो सकते थे। जानवर हमसे बिछड़ गए। एक छोटी सी ट्रिक हमने कर ली, वे नहीं कर पाए। हम दो पैर से खड़े हो गए, वे बेचारे चार से अभी भी चल रहे हैं।
इसलिए अगर कोई बहुत शीर्षासन करेगा, कोशिश करके, तो मस्तिष्क को नुकसान पहुंचेगा। तो वह वापस पशुओं की दुनिया में लौट रहा है। इसलिए अगर आप जाएं कुंभ में, इत्यादि, मेलों में, जहां हिंदुस्तान भर के साधु-संन्यासी इकट्ठे होते हैं, तो सौ में से नब्बे के चेहरे पर आपको जड़ता दिखाई देगी। एकदम जड़ मालूम पड़ेंगे। जिनके भीतर से बुद्धि खो गई है। जिनके भीतर बुद्धि नाम मात्र भी नहीं है। उसके कारण हैं। उसके वैज्ञानिक कारण हैं।
इसलिए मैं शीर्षासन का पक्षपाती नहीं हूंू। लेकिन अनिवार्य क्षण में वह उपयोगी हो सकता है। जब शरीर की विद्युत जागी हो और अगर साधक को अपने आप शीर्षासन हो जाए, तो वह सही है। शरीर नाच सकता है। जब शरीर में विद्युत पैदा होती है तो उसके इतने जोर से स्पंदन होते हैं कि अगर आप नहीं नाचेंगे तो आपके भीतर बड़ी बेचैनी शुरू हो जाएगी। अगर आप नाचे तो वह बेचैनी निकल जाएगी और बिखर जाएगी।
इसलिए दूसरे चरण में शरीर को दस मिनट तक मुक्त भाव से छोड़ देने की बात है। उसे जो करना हो--रोना हो, हंसना हो, नाचना हो, जो करना हो उसे पूरी तरह छोड़ देने की जरूरत है। न केवल छोड़ देने की बल्कि पाजिटिव को-ऑपरेशन, विधायक सहयोग की भी जरूरत है। क्योंकि मनुष्य ने जो सभ्यता बनाई है, वह पूरी की पूरी सभ्यता सप्रेसिव है, दमनकारी है। न तो हम हंसते हैं खुल कर, न हम रोते हैं खुल कर, हम सब दबा लेते हैं। वह सब दबा हुआ नष्ट नहीं होता, ध्यान रहे। वह सब हमारे भीतर बैठ जाता है और प्रतीक्षा करता है कभी निकलने की। पुरुषों ने तो रोना बंद ही कर दिया है। पुरुष तो समझते हैं कि रोना स्त्रियों का काम है। खाना आप भी खाते हैं, खाना स्त्रियां भी खाती हैं। श्वास आप भी लेते हैं, श्वास स्त्रियां भी लेती हैं। प्रेम आप भी करते हैं, प्रेम स्त्रियां भी करती हैं। दुखी आप भी होते हैं, दुखी स्त्रियां भी होती हैं। क्रोध आप भी करते हैं, क्रोध स्त्रियां भी करती हैं। लेकिन रोना, रोना सिर्फ स्त्रियों का काम है, वह पुरुष नहीं करते। पुरुष ने रोने को बुरी तरह से दबाया है कि उसके प्राण के रोएं-रोएं में रोना समा गया है। और जब तक यह रोना निकल न जाए तब तक पुरुष हलका नहीं हो सकता है। इसलिए आपको पता होना चाहिए कि दुनिया में पुरुषों के पागल होने का अनुपात स्त्रियों से बहुत ज्यादा है। उसका कारण है। उसका कारण है कि पुरुष ऐसे तनाव लेता है जो अकारण व्यर्थ हैं। अब जैसे अगर कोई लड़का रोने लगे तो हम कहेंगे कि क्या लड़कियों जैसे रो रहे हो, जब कि रोना जिंदगी का एक हिस्सा है। उसका लड़कियों ने कोई ठेका नहीं लिया। और यह ठेका बहुत मंहगा पड़ता है लड़कों के लिए, बहुत मुश्किल हो गया है। स्त्रियां ज्यादा सुंदर मालूम पड़ती हैं, स्त्रियां ज्यादा हल्की मालूम पड़ती हैं, स्त्रियां ज्यादा ताजी मालूम पड़ती हैं, उसके कारण हैं। पुरुष ज्यादा दमन किए हुए है अपना, रोता भी नहीं है, जोर से हंसता भी नहीं है, नाचता भी नहीं है, गाता भी नहीं है, एकदम सख्त पत्थर की मूर्ति बना हुआ अपने पुरुषत्व को संभाले हुए घूमता है। जिंदा कम मरा हुआ ज्यादा।
जब ध्यान की दूसरी प्रक्रिया शुरू होगी तो रोना शुरू होगा, हंसना शुरू होगा, नाचना शुरू होगा। उस सबको निकल जाने देना जरूरी है। वह कैथार्सिस है, वह हमारा विरेचन है। वह जो हमारे भीतर दबा हुआ है उसे बाहर छोड़ देना चाहिए। कितनी बार, आपको पता है जब आप बाथरूम में होेते हैं तो क्या-क्या करते हैं, मैं पूछता नहीं क्योंकि आप बताएंगे नहीं। बाथरूम में बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी बच्चों के जैसे काम शुरू कर देता है। आईने के सामने मुंह बिचकाता है। क्यों? क्या बात है? अगर यह आदमी बैठकखाने में बैठा हो तो ऐसा न कर सकेगा। या अगर किसी के बाथरूम में की-होल में से कोई झांकने लगे तो फौरन संभल कर, अपनी टाई वगैरह ठीक करके खड़ा हो जाएगा। हम सब एक दूसरे से भयभीत हैं। हम सब एक दूसरे के दुश्मन हो गए हैं। हम एक दूसरे के मित्र नहीं हैं क्योंकि जिससे भयभीत होना पड़े वह दुश्मन है। घर में बाप बेटे से डर रहा है, बेटा बाप से डर रहा है, पत्नी पति से डर रही है, पति पत्नी से डर रहा है। सब सबसे डरे हुए हैं। मित्र, मित्र से डर रहे हैं। सब एक-दूसरे से डरे हुए जी रहे हैं। इस भयभीत जगत में अगर हमने अपने को बिलकुल दबा कर रख लिया है और वह जो हमारी स्पांटेनिटी है, वह जो हमारी निसर्गता है, वह जो हमारी सहजस्फूर्त व्यक्तित्व है उसको सब तरफ से द्वार बंद कर दिए हैं और हम अभिनय कर रहे हैं, जी नहीं रहे हैं। हम अभिनेता हैं। हम जीवित व्यक्ति नहीं हैं। हम जो भी कर रहे हैं वह एक अभिनय है। कभी आपने सोचा है जब आप अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुझसे सुंदर कोई भी स्त्री नहीं है, कभी आपने सोचा कि आप क्या कह रहे हैं? यह सच है? जब आप किसी से कहते हैं कि तेरे अलावा मैं किसी कोे भी कभी प्रेम नहीं करता हूं, तब आपने सोचा है कि यह सच है? नहीं, हम सब अभिनय कर रहे हैं और हम सब जान रहे हैं, और हम भलीभांति अभिनय किए चले जाते हैं। हमने यह जो जिंदगी बनाई है झूठी, अभिनय की, दबाई हुई, ध्यान में जाने के लिए सहयोगी नहीं। इसलिए दूसरे दस मिनट में मैं कहता हूं निसर्गमय हो जाओ। जो होना है उसको हो जाने दो। शायद आपको पता नहीं कि दस मिनट भी अगर आप अपने को खुला छोड़ दें तो आपके भीतर के कितने भूत-प्रेत मुक्त हो जाएं। दस मिनट। और ऐसे तो आप न छोड़ पाएंगे और अगर छोड़ेंगे तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। ध्यान के नाम से छोड़ना आसान हो जाता है। सरलता से छोड़ पाते हैं।
मैंने दूसरे हिस्से में दस मिनट के लिए अनिवार्य रूप से कैथार्सिस, विरेचन की जगह रखी है। जब तक हमारा विरेचन न हो जाए, जो गंदगी हमने इकट्ठी कर रखी है वह फिंक न जाए तब तक हम कभी शांत नहीं हो सकते, हम कभी हल्के नहीं हो सकते, हम कभी बच्चों जैसे सरल नहीं हो सकते। हम बंधे-बंधे गुलाम, जंजीरों में कसे-कसे हुए आदमी बने रहेंगे। बड़ी मुश्किल लगती है जंजीरें छोड़ने में। खुद की जंजीरें भी हम इतनी संभाल कर रखते हैं कि कोई दूसरा न छीन ले। पकड़ कर खड़े रहते हैं कि कहीं रोना न आ जाए। किसका भय है कि कहीं हम जोर से न हंस पड़ें। किसका भय है कि कहीं हम नाचने न लगें। यह हमारी कौम तो कुछ बातें बिलकुल ही भूल गई है। नाचना हम भूल ही गए। नाचना कोई अच्छे आदमी का लक्षण नहीं। जोर से चिल्ला कर हम गीत नहीं गा सकते, दौड़ नहीं सकते। हम कुछ भी नहीं कर सकते जो कि नैसर्गिक आदमी की जिंदगी का हिस्सा होना चाहिए। और नहीं कर सकते तो हम पंगु होते चले जाते हैं।
बट्र्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि जब वह पहली दफे एक आदिवासी कौम में रह कर लौट आए तो उसने आकर लंदन में अपने मित्रों को कहा कि मैं विचार में पड़ गया हूं कि जो हमने सभ्यता से पाया, वह सच में पाने योग्य है? और हमने जो सभ्यता पाकर खोया वह सच में क्या खोने योग्य है? उस आदमी ने कहा, क्या मतलब है आपका? बट्र्रेंड रसल ने कहा कि मैं ट्रेफ्लगर स्केवर पर खड़े होकर नाच नहीं सकता। ट्रेफिक का पुलिसवाला आदमी मुझे फौरन पकड़ कर ले जाएगा कि चलिए आप ट्रेफिक में बाधा डाल रहे हैं। और मेरी पत्नी समझेगी कि पागल हो गए हैं। मेरे बेटे समझेंगे कि हो गया वही जो कि फिलॉसफर को होना चाहिए। और तुम जल्दी से मुझे इलेक्ट्रिक शॉक लगवाने का इंतजाम करने लगो। लेकिन मैं जंगल में लोगों को नाचते देख कर आया हूं। आधी रात को चांद के नीचे उनका नाच, उनका मुक्त भाव से नाच, जिसमें कोई बहुत व्यवस्था नहीं थी। जिसमें कोई बहुत शास्त्रीय नियम नहीं है, जिसमें कोई क्लासिकल डांस, कत्थक और सबका हिसाब नहीं है, वे नाच रहे हैं, नाचना जैसे उनसे सहज में निकल रहा है, वह निकल रहा है। बहुत नियमबद्ध नहीं है। नाचना भी आनंद है। उसमें कोई क्रम और साइंस बनाने की जरूरत नहीं है। पर हम बड़े होशियार लोग हैं, हम नाचने तक को गोरखधंधा बना लेते हैं। हम उसमें भी इतना इंतजाम कर देते हैं, इतनी ट्रेनिंग, इतनी शिक्षा कि एक आदमी नाचना सीखते-सीखते नाचने का मन खो देता है। नाचना तो सीख जाता है लेकिन तब वह गुड्डी की तरह नाचता है। नाचने वाला मन खो जाता है इस प्रशिक्षण से। नाचना भी सीखना पड़ेगा। इसलिए मैं मानता हंू कि यूरोप और अमरीका में बच्चों ने जो बगावत की है वह बड़ी शुभ है। उन्होंने ऐसा नाच खोज लिया जिसके लिए सीखने की कोई जरूरत नहीं। अब वे नाच रहे हैं खुले मन से। बैंड बज रहा है और जैसे पैर पड़ रहे हैं वे पड़ रहे हैं। बैंड बजवा लें, नचा लें तो नाच लेंगे। उसमें तो न कोई व्यवस्था है, न कोई शास्त्रीयता है, न कोई प्रशिक्षण है, यह बहुत कीमती है घटना।
लेकिन हमारी कौम ने यह सब खो दिया है। और हमारी कौम में अगर लौट भी सकता है तो बिना ध्यान के और किसी रास्ते से नहीं लौट सकता, यह भी मैं जानता हूं। इसलिए दूसरे दस मिनट के समय को मैं कैथार्सिस के क्षण कहता हूं। और ज्यादा की जरूरत नहीं है, अगर आप करने को राजी हैं तो दस मिनट में आप इतने हलके हो जाएंगे कि जितने हलके आप जिंदगी में कभी भी न रहे। तीसरे दस मिनट एक इंक्वायरी एक जिज्ञासा सी है कि मैं कौन हूं। धर्म की मौलिक जिज्ञासा यही है। धर्म की मौलिक जिज्ञासा यह नहीं है कि परमात्मा है या नहीं। इसे जानने का उपाय नहीं है, जब तक हम यहे भी नहीं जानते कि मैं कौन हूं? धर्म का मूलभूत प्रश्न यह नहीं है कि सृष्टि कब बनी? अगर इसका पता भी चल जाए तो क्या फर्क पड़ता है? इससे हम धार्मिक न हो जाएंगे। अगर पक्की तारीख और तिथि और नए कलेंडर पर छपा हुआ ताम्रपत्र मिल जाए कि पृथ्वी इस दिन बनी और दुनिया इस दिन शुरू हुई तो फिर क्या करिएगा? उसको पूजिएगा? उससे आप धार्मिक न हो जाएंगे। वह होगी किसी ऐतिहासिज्ञ की खोज,वे करें। वह होगी किसी पुरातत्व के अन्वेषण करने वाले की इच्छा, वह करे। लेकिन धर्म का इससे कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का बुनियादी सवाल एक ही है कि मैं कौन हूं? यह जो मेरी जिंदगी है, यह जो मेरी श्वास है, यह जो मेरा मन है, यह जो मेरा विचार है, यह जो मेरा प्रेम है, मेरा क्रोध है, यह सब जो मैं इकट्ठा हूं, यह मैं कौन हूं? यह मैं क्या हूं? इसका कुछ परिचय, इसकी कुछ समझ, इसकी कोई पहचान, धर्म इस मौलिक प्रश्न से संबंधित है। धर्म मूलतः ईश्वर से नहीं मनुष्य से संबंधित है। और जिन लोगों ने धर्म को ईश्वर से संबंधित बनाया, उन्होंने मनुष्य का धर्म से संबंध तोड़ने का काम किया है और कुछ भी नहीं किया।
नहीं, आकाश में बैठे ईश्वर से धर्म का कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का लेना-देना आप से है, जमीन पर खड़े हुए आदमी से है। धर्म मनुष्य केंद्रित है। ईश्वर केंद्रित नहीं है। यद्यपि यह सच है कि जब आदमी अपने को जान लेता है तो उसे ईश्वर को जानने का द्वार खुल जाता है। वह द्वार है। अपना ही द्वार। जिस दिन मैं अपने को पहचान लेता हूं, उस दिन अचानक मैं पाता हूं कि मैं सिर्फ मैं ही नहीं हूं। मेरे भीतर मेरे होने का और भी बड़ा विस्तार है। ऐसे ही जैसे कोई कुआं पूछे कि मैं कौन हूं? और अगर खोज करे तो उसे नीचे जल के स्रोत दिखाई प.ड़ें और अगर जल स्रोतों में प्रवेश करता जाए कुआं और पता लगाए कि मूलतः मैं कौन हूं, तो सागर तक पहुंचना पड़ेगा। क्योंकि सागर से कम जल स्रोतों के अंतिम हिस्से का पता नहीं चलेगा। हमारी जड़ें भी, हमारे स्रोत भी इसी तरह परमात्मा तक फैले हुए हैं। लेकिन मैं पहली बात तो पूछूं कि मैं कौन हूंू? यह कुआं कौन है? और इस पहले प्रश्न से भीतर प्रवेश करूं तो सागर तक पहुंच जाऊंगा, पहुंचना ही पड़ेगा क्योंकि उसके पहले कोई पड़ाव नहीं है, उसके पहले कोई रुकाव नहीं है, उसके पहले कोई जिज्ञासा का अंत नहीं है। लेकिन जिज्ञासा शुरू होगी, मैं कौन हूं और जिज्ञासा पूर्ण होगी कि ईश्वर कौन है। शुरू होगा मैं से, अंत होगा ईश्वर से। धर्म का पहला चरण मैं, धर्म का अंतिम चरण तू। लेकिन तू उसका पहला चरण नहीं है। इसलिए तीसरे चरण को एक इनक्वायरी, एक जिज्ञासा का रूप दिया है कि मैं कौन हूं?
लेकिन यह धीरे-धीरे पूछने से नहीं चलेगा क्योंकि हम अपने जीवन के बरामदे में बैठे हुए ह।ैं हमें पता ही नहीं है कि भीतर भी कुछ है। हम बाहर ही बाहर ढूंढते हैं। हम भूल ही गए है कि हमारे भीतर के कक्ष भी हैं, इनर चेंबर्स भी हैं कोई जिंदगी के। हम तो बाहर जीते-जीते याद भी भूल गए हैं, वहीं जीते हैं वहीं रहते हैं, वहीं मर जाते हैं। बरामदे में जीते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, प्रेम करते हैं, दूसरों को पैदा करते हैं और बरामदे में मर कर वहीं कब्र बना लेते हैं। घर के भीतर प्रवेश ही नहीं हो पाता। घर के भीतर प्रवेश तभी हो सकता है जब यह मैं कौन हूं की जिज्ञासा सिर्फ प्रश्न में न रह जाए। यह मैं कौन हूं? सिर्फ इनक्वायरी न रहे, क्वेस्ट बन जाए। यह सिर्फ प्रश्न न रहे जिसका किसी से उत्तर लाना है, यह खोज बन जाए जिसका उत्तर खुद पाना है। इसलिए इसमें पूरे प्राणों को लगा देना जरूरी है। और पहले दो चरण के बाद पूरे प्राण लगा देना एकदम आसान है। शरीर की विद्युत पूरी जाग जाती है, शरीर की गंदगी और शरीर के रुके हुए ठहराव और शरीर के बंधन और शरीर की बीमारियां रेचन हो जाती हैं। मन हलका होता है तब हम भीतर प्रवेश कर करते हैं और पूछ सकते हैं कि मैं कौन हूं।
आज मुझे दोपहर में कोई पूछ रहा था तो कि हम किससे पूछें कि मैं कौन हूं? लगता है कि ठीक। तो मैंने उससे कहा कि कभी तुम्हारा कमरे में चश्मा गुम हो जाता है, और कोई भी नहीं है कमरे में, और तुम अपने से पूछते हो, मेरा चश्मा कहां है? किससे पूछते हो दीवालों से, चश्मे से, कुर्सी से, फर्नीचर से? कमरे में कोई भी नहीं, लेकिन आपके मुंह से निकल जाता है कि चश्मा कहां है? किससे पूछते हैं? नहीं, यह किसी के लिए एड्रेस नहीं है। इस लिफाफे में किसी का पता नहीं है। यह अपने से ही पूछते हैं। यह किसी और से नहीं पूछते। जब तक आप किसी और से पूछते हैं तब तक आपकी जिंदगी में साधना शुरू नहीं होगी। तब तक आप सिर्फ एक जिज्ञासु रहेंगे। जिज्ञासु कहना भी ठीक नहीं, कहना चाहिए कि सिर्फ एक कौतूहल प्रेमी रहेंगे, पूछते रहेंगे किसी से। लेकिन जिस दिन आप अपने से पूछेंगे उसी दिन जिज्ञासा वास्तविक मुमुक्षा बनती है। उसी दिन से यह यात्रा शुरू होती है और खोज शुरू होती है। कोई नहीं है जो उत्तर दे सके । जब आपको ही पता नहीं कि आप कौन हैं तो आपको कौन बताएगा कि आप कौन हो? जब मुझे ही पता नहीं कि मैं कौन हूं? तो मैं किससे जाकर पूछूं कि मैं कौन हूं? और जब मैं वह दूसरे से सीख लूंगा तो वह खतरनाक है। कोई बता देगा कि तुम आत्मा हो और मैं घर मजे से लौट आऊंगा, कि मैं तो आत्मा हूं। और कल यह आत्मा चोरी करती हुई पकड़ी जाएगी। कल यह कालाबाजारी करेगी। और जहां तक तो संभावना यह है कि गुरु के घर से चलते वक्त उनकी ही कोई चीज उठा लाऊं। मैं आत्मा हूं, यह कोई दूसरा बता सकेगा? कोई कह देगा कि तुम तो ब्रह्म हो। अहं-ब्रह्मास्मि। जाओ मजा करो, समझ लो कि तुम ब्रह्म हो। समझ लेने से कुछ होगा? तो बैठ कर अपने घर में लोग दोहरा रहे हैं कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। उनका दोहराना बताता है कि उन्हें अभी पता नहीं चला, नहीं तो दोहराने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अगर कोई पुरुष किसी कमरे के कोने में बैठ कर दोहराए कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं तो आस-पड़ोस के लोगों को भी शक हो जाएगा कि बात क्या है? यह कोई दोहराने की बात नही है। है, तो भी बात खत्म हो गई, नहीं है, तो दोहरा कर क्या होगा? लोग दोहरा रहे हैं कि मैं ब्रह्म हूं। बात कर रहे हैं सुबह, मैं ब्रह्म हंू। अहं-ब्रह्मास्मि। शास्त्र खोले बैठे हैं कि ठीक पढ़ा है? कहीं गलत तो नहीं हो गया? फिर देख रहे हैं, फिर देख रहे हैं। दोहरा रहे हैं, अहं-ब्रह्मास्मि। इनकी बकवास सुन कर ब्रह्म भी थक गया होगा। इस तरह दोहराने से कुछ भी न होगा। नहीं, सवाल यह नहीं है कि आप समझ लें पहले से कि मैं कौन हूं। पहली बात जानने की है कि मुझे पता नहीं है, मैं अज्ञानी हूं। कोई शास्त्र मेरा ज्ञान कैसे बनेगा? कोई सद्वचन मेरा ज्ञान कैसे बनेगा? किसी दूसरे का उत्तर मेरा उत्तर कैसे हो सकता है? जूठे उत्तरों से सावधान रहने की जरूरत है। बासे उत्तरों से सावधान रहने की जरूरत है। जूठा भोजन एक बार कर भी लेना बहुत हर्जा नहीं होता है। पीछे डिटाल से मुंह साफ किया जा सकता है। लेकिन जूठा ज्ञान भीतर मत ले जाना, उसे हटाने के लिए अभी तक कोई डिटाल नहीं बनाया जा सका है। उसकी सफाई बहुत मुश्किल है। वह बहुत संक्रामक है। उसके कीटाणु प्राणों में भीतर तक घुस जाते हैं।
इसलिए तीसरे चरण में पूछते हैं कि मैं कौन हूं? पूछते ही नहीं इसको एक तीर के भांति प्राणों में चुभाते हैं कि मैं कौन हूं? और कोई भी उत्तर जो बुद्धि दे तैयार, रेडीमेड उसको इनकार करना है। स्मृति यह कह रही है कि उपनिषद में पढ़ा था कि तू तो वही है। उसका कहना है कि तू शांत है। उपनिषद में पढ़ा हुआ काम नहीं पड़ेगा। वह कहे कि गीता में पढ़ा था कि मैं तो वही हूं जो न मरता, न जिसको बाण छेदते और न अग्नि जलाती, तो उससे कहना कि स्मृति तु चूप रह, मुझे ही खोज लेने दे। स्मृति आप के ज्ञान का अभिनय न करे तो ही आप भीतर प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए तीसरे में वैज्ञानिक आधार है। स्मृति को हटाओ और अपने से सीधा पूछो कि मैं कौन हूं? क्या होगा? जैसे-जैसे यह प्रश्न गहरा होगा, जैसे-जैसे इसकी हैमरिंग होगी, जैसे-जैसे हथौड़े की चोट पड़ेगी भीतर कि मैं कौन हूं, वैसे-वैसे बाहर के बरामदे से चेतना भीतर के कक्षों में प्रवेश करेगी और अंततः एक दिन आप उस जगह पहुंच जाते हैं, उस जगह नहीं जहां उत्तर मिल जाता हो बल्कि उस जगह जहां प्रश्न गिर जाता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना जरूरी है। उस जगह नहीं जहां उत्तर मिल जाता है, उस जगह जहां प्रश्न गिर जाता है। जहां आप अवाक, अपने को जान कर ठगे खड़े रह जाते हैं कि यह था मैं। कोई लिखा हुआ कागज, कोई पुर्जा नहीं मिल जाता है कि जिसमें लिखा है कि आप ब्रह्म हैं। न कोई तख्ती मिलती है भीतर के मकान पर लगी हुई कि आप ब्रह्म हैं। नहीं, कोई शब्द वहां नहीं मिलते, कोई उत्तर वहां नहीं मिलता लेकिन, वह मिल जाता है जो उत्तर है। उत्तर नहीं मिलता वही मिल जाता है जिसको हम पूछ रहे थे कौन? जिससे हम पूछ रहे थे कौन? जो पूछ रहा था कौन? वही मिल जाता है और जब वह द्वार पर ही मिल जाता है तब आप अवाक, मौन, और चुप हो जाते हैं। सब शांत हो जाता है। उस क्षण में आप जानते हैं तब कोई प्रश्न नहीं होता, न कोई उत्तर होता तब ज्ञान होता है जहां सब प्रश्न और उत्तर बंद हो जाते हैं।
अब ध्यान रहे, भीतर जाने की दो ही संभावनाएं हैं, या तो उत्तर को पकड़ कर भीतर जाएं या प्रश्न को पकड़ कर भीतर जाएं। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है क्योंकि मैं तीसरे चरण में किसी उत्तर का उपयोग नहीं करता, प्रश्न का उपयोग करता हूं। अगर आप उत्तर का उपयोग करेंगे तो हजारों साल लग जाएंगे और भीतर नहीं पहुंच सकते। क्यों? क्योंकि उत्तर बाहर से आता है और भीतर नहीं ले जाता। और उत्तर तृप्त करता है और तृप्ति सदा रुकावट बनती है। और उत्तर निशिं्चत कर देता है। निशिं्चत आदमी खोज पर नहीं निकलता। उत्तर समाप्त कर देता है जिज्ञासा को। उत्तर में वह क्वेश्चन मार्क, वह प्रश्न-चिह्न नहीं है जो कहे, आगे खोजो। उत्तर कहता है, मिल गया। अहं-ब्रह्मास्मि। अब बैठो, अब कहां जाते हो? अब पैरों को क्यों थकाते हो? अब आराम करोे। फिर आदमी वहीं बेसुरा एक ही सुर लेकर बैठ जाता है।
 मैंने एक संगीतज्ञ के संबंध में सुना है, पता नहीं आप उसको संगीतज्ञ मानेंगे या नहीं मानेंगे उसकी पत्नी, खैर, नहीं मानती थी। उसके पड़ोसी भी नहीं मानते थे। वह एक वाद्य बजाता था तारों का और एक ही तार को एक ही जगह पकड़ कर रगड़ता रहता था घंटों तक, और एक ही स्वर उठता था, और एक ही स्वर जब बार-बार उठे तो बेसुरा हो जाता है। उसकी पत्नी ने बहुत हाथ-पैर जोड़े कि तुम यह क्या कर रहे हो, मैंने औरों को भी वाद्य बजाते देखा लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा कि एक ही तार को एक ही जगह पकड़ कर घंटों तक रगड़े जा रहे हैं। इसमें तो प्राण भी कोई चरमराने लगते हैं। आस-पास के लोग पुलिस में रिपोेर्ट कर चुके हैं। कुछ लोग बंदूक खरीदने के लिए लाइसेंस खोज रहे हैं। इसको तुम बंद करो। लेकिन उस आदमी ने कहा कि पागल, तुझे पता नहीं। वे जो लोग तारों पर इधर-उधर हाथ चलाते हैं उनको अभी ठीक जगह मिली नहीं, मुझे ठीक जगह मिल गई है, मैं उसी को बजाता हूं। वह ठीक जगह खोज रहे हैं, जब मिल जाएगी तो रुक जाएंगे। हमें मिल गई है हम रुक गए हैं। जिनको उत्तर मिल गए हैं बाहर से वे ऐसे ही बेसुरा बजाते रहते हैं। अहं-ब्रह्मास्मि। अहं-ब्रह्मास्मि। अहं-ब्रह्मास्मि। उत्तर से कोई यात्रा नहीं होती। जिसको खयाल आ गया कि मिल गया, वह रुक जाता है। खोज वहां हैं जहां इस बात का पता है कि नहीं मिला है। खोज वहां है जहां इस बात का पता है कि अभी खोजना है। खोज वहां है जहां इस बात का पता है कि सवाल नहीं, कोई जवाब नहीं है इस सवाल का। सिर्फ सवाल है और जवाब मुझे, मुझे ही जानना है, खोदना है, इसलिए तीसरे चरण में उत्तर नहीं है। नहीं तो आपको कह सकता हूं कि तीसरे चरण में दोहराएं कि मैं ब्रह्म हूं, परमात्मा हूं, नहीं, तीसरे चरण में पूछना है कि मैं कौन हूं? इतनी तीव्रता से पूछना है कि आप पूछने वाले ही न रह जाएं। पूछना ही बन जाएं। इतनी त्वरा से पूछना है कि यह एक क्वेश्चन न रह जाए और आप अलग न रह जाएं, आप क्वेश्चन ही बन जाएं, आप प्रश्न ही हो जाएं। यह भी सवाल न रहे कि कौन पूछ रहा है, किससे पूछ रहा है सिर्फ पूछना ही शेष रह जाए।
तो इन तीस मिनट में वह घटना घट सकती है, जिस घटना को वर्षोें तक में घटाना बहुत मुश्किल है। और घटती है। और मैं यह सैकड़ों लोगों के अनुभव से कह रहा हंू कि घटना घटती है और मैं आपसे कहूंगा कि मेरी बात न मानें। घटना घटा कर देखें। बात मानने की कोई भी जरूरत नहीं। हाइपोथेटिकल मान लें कि यह आदमी कहता है शायद हो, करके देखें। लेकिन जो मैं कह रहा हंू उसे पूरा कर लें तभी आप निर्णय कर पाएंगे कि सच में घटना घटती है या नहीं घटती। मैं आपसे कहता हंू कि आएं मेरी खिड़की पर और देखें सूरज निकला है, मैं नहीं कहता कि आप विश्वास करके आएं। मैं कहता हूं कि सिर्फ खिड़की पर एक बार आएं। पूरे अविश्वास से भरे आएं लेकिन खिड़की पर तो आएं। खिड़की से आ कर देख लें और अगर सूरज दिखाई पड़ जाए तब क्या आप मुझसे कहेंगे कि पहले के ऋषि-मुनि तो हजारों साल बैलगाड़ी में यात्रा करते थे, तब सूरज के दर्शन होते थे। इतनी सरलता से कैसे हो सकता है? कर लें। फिर भी पूछेंगे कि कैसे हो सकता है? परमात्मा दूर नहीं है। हमारी शक्ति, हमारे साधन का सवाल है कि वह कैसा है? हम कैसी क्रिया से उस तक पहुंचते हैं?
मैंने सुना है, एक आदमी दिल्ली के पास जोर से भागा जा रहा था। रास्ते के किनारे बैठे एक ग्रामीण बूढ़े से उसने पूछा कि बाबा, दिल्ली कितनी दूर है? उसने कहा कि दो बातों पर निर्भर करता है। पहला तो यह कि मैं जान लूं कि तुम किस तरफ जा रहे हो? जिस तरफ जा रहे हो अगर उसी तरफ जाते हो तो दिल्ली उतनी दूर है जितनी कोई चीज दूर हो सकती है क्योंकि पूरी जमीन का चक्कर लगाओगे तब दिल्ली आएगी, क्योंकि दिल्ली पीछे की तरफ है आठ मील। लेकिन पीछे की तरफ। अब आप किस तरफ जा रहे हैं, यह उस पर निर्भर करता है। अगर आप ऐसी जाने की जिद्द किए हैं तो जाएं, सारी जमीन का चक्कर लगा कर आप आएंगे और ध्यान रखना, जरा भी चक्कर इधर-उधर टेढ़ा-मेढ़ा हुआ कि पक्का नहीं है कि दिल्ली आएगी कि नहीं आएगी। भटक भी सकते हैं। और उस बूढ़े ने कहा कि दूसरा, जरा चल कर बताइए कि चाल की गति कितनी है? तब जरा मैं अंदाज करके बताऊं कि दिल्ली कितनी दूर है क्योंकि दिल्ली की दूरी चलने वाले के चलने पर निर्भर होगी। दिल्ली की दूरी कोई फिक्सड चीज नहीं है, पैदल चलिएगा, बैलगाड़ी से चलिएगा, दौड़ के जाइएगा, सरकते हुए जाइएगा, बैठते हुए जाइएगा, इरादा क्या है? जरा चाल दिखाइए। उस आदमी ने कहा कि गजब के आदमी हो अब तक तो मैंने बहुत से लोगों से पूछा कि कौन सी चीज कितनी दूर है? लेकिन इतने सवाल मुझसे किसी ने नहीं पूछे थे। उस बूढ़े ने कहा कि मैं ठीक ही जवाब देना पसंद करता हूं अन्यथा पसंद ही नहीं करता। स्वभावतः दिल्ली की दूरी जैसी कोई निश्चित चीज नहीं है। बहुत सी चीजों पर निर्भर है कि दिल्ली कितनी दूर होगी। इस पर निर्भर है कि आप कितना चलते हैं, कैसा चलते हैं, चलते भी हैं कि नहीं चलते। अन्यथा दिल्ली अगर आठ मील दूर है और एक आदमी खड़ा ही रहे तो हो सकता है कि जो आदमी दिल्ली को सारी दुनिया का चक्कर लगा कर आया वह भी पहुंच जाए और यह खड़ा हुआ आदमी न पहुंच पाए। अगर आपकी चाल चींटी की चाल या कई लोग बड़ी उलटी चाल चलते हैं उनकी चाल का पता लगाना मुश्किल है कि वे कैसी चाल चलते हैं।
मैंने सुना है कि एक स्कूल में एक बच्चा बहुत देर से पहंुचा और उसके शिक्षक ने कहा कि इतनी लेट! तो उस बच्चे ने कहा कि आप देखते नहीं कि बाहर वर्षा हो रही है और सड़कों पर इतनी कीचड़ हो गई कि मैं एक कदम चलता था तो दो पैर पीछे खिसक जाता था, बहुत मुश्किल से आ पाया। उसके गुरु ने कहा कि चलो यह मैं समझ गया कि तुम एक कदम चलते थे तो दो कदम पीछे सरक जाते थे। फिर तुम पहुंचे कैसे? क्योंकि जो एक कदम चलेगा और दो कदम पीछे सरकेगा। तुम यहां पहुंचे कैसे? उस लड़के ने कहाः मैंने अपनी घर की तरफ चलना शुरू कर दिया और स्कूल की तरफ तेजी से आ गया। अब इस पर निर्भर करता है कि आप कैसे चलते हैं। और धार्मिक आदमियों की चाल बहुत आड़ी-तिरछी होती है। और धार्मिक आदमी अक्सर ऐसे चलते हैं कि एक कदम चलते हैं और दो कदम फिसलते हैं। अगर यही उनकी चाल का ढंग है तो वे परमात्मा तक वह कभी भी न पहुंच पाएंगे। किसी जन्म में पहुंचना नहीं हो पाएगा। सवाल है कैसे चलते हैं?
मैंने जो प्रक्रिया आपसे कही, वह प्रक्रिया बहुत वैज्ञानिक, बहुत संक्षिप्त, बहुत सीधी है। सिर्फ आप जरा थोड़े से सीधे हों तो काम हो सकता है। और तीन चरणों के बाद दस मिनट सिर्फ प्रतीक्षा है। हम और कुछ कर भी नहीं सकते। आदमी परमात्मा के लिए अपने को खुला छोड़ दे। प्रतीक्षा ही कर सकता है और क्या कर सकता है। उसे हम खींच कर ला सकते हैं? उसे हम खींच कर कैसे ला सकते हैं? उसे हम मुट्ठी में बांध सकते हैं? उसे हम मुट्ठी में कैसे बांध सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा निमंत्रण भेज सकते हैं कि आओ और प्रतीक्षा कर सकते हैं। दरवाजे के बाहर सूरज निकला है, हम अपना दरवाजा खुला छोड़ सकते हैं और सूरज से कह सकते हैं, इधर आओ, ला नहीं सकते। दरवाजा खुला होता है, तो सूरज आ जाता है। पर बड़े मजे की बात है, इसे खयाल में ले लेना। सूरज को हम भीतर तो नहीं ला सकते, लेकिन बाहर ही रोक जरूर सकते हैं। दरवाजा बंद कर दें। और दरवाजा बंद करना भी बहुत बड़ी बात है। एक बहुत छोटा, जेब में रखा हुआ दरवाजा हमारे पास है, हमारी आंखें। दरवाजा खुला हो, हम आंख बंद कर लें, सूरज क्या करेगा? ये छोटी सी दो पलकें बंद हो जाएं तो सूरज कुछ भी नहीं कर सकता। हम रोक सकते हैं, निगेटिव फोर्स हमारे पास बहुत है। नकारात्मक रूप से हम परमात्मा को रोक सकते हैं लेकिन विधायक रूप से बुला नहीं सकते। फिर क्या कर सकते हैं? एक ही काम कर सकते हैं। हमारी जो नकारात्मक व्यवस्था है उसको तोड़ दें। नग्न, शून्य, द्वार खुला रह जाए और हम प्रतीक्षा करें। प्रतीक्षा को मैं प्रार्थना कहता हूं। ऐसी प्रतीक्षा को जो अनंत काल तक बिना अंधेरे के राह देखने को तैयार है।
चैथा दस मिनट का जो चरण है वह सिर्फ प्रतीक्षा का, जस्ट अवेटिंग। नहीं, हमें पक्का पता नहीं है कि वह कौन है जो आएगा। मेहमान को हमने कभी देखा नहीं है। लेकिन फिर भी हम अपने द्वार पर बैठे हैं कि मेहमान आएगा। अपरिचित, अनजान, लेकिन उसके दूर पगों की ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। अगर तीन चरण पूरे किए तो उसकी पग ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। अगर तीन चरण पूरे किए तो उसकी रोशनी की किरणें आनी शुरू हो जाती हैं। अगर तीन चरण पूरे किए तो उसकी सुगंध उतरने लगती है, अगर तीन चरण पूरे किए तो उसके वाद्य बजने लगते हैं, उसकी खबर आने लगती है। हम प्रतीक्षा कर सकते हैं, द्वार खोल कर। और जो आदमी भी पूर्ण प्रतीक्षा से भर जाए...
पूर्ण प्रतीक्षा का मतलब यह होता है कि पूर्ण शून्य। पूर्ण प्रतीक्षा का मतलब होता हैः पूर्ण सन्नाटा। पूर्ण प्रतीक्षा का मतलब होता है कि मेरी प्रतीक्षा करने की इच्छा भी बीच में न आ जाए, अन्यथा वह भी बाधा डालेगी। पूर्ण प्रतीक्षा का मतलब हैः सर्वांग शून्यता, शीयर एंप्टीनेस। और उन दस मिनटों में अगर पूरी शून्यता में राह देख सकें तो जरूर वह आ जाता है जिसकी तलाश है, जरूर हमें उसका पता चल जाता है जिसकी खोज है। लेकिन अगर आपके रास्ते चलने के और हैं, आपके ढंग और हैं, आप एक कदम चलते हों,दो कदम पीछे फिसलते हैं और कहते हैं कि संसार में कीचड़ मची है, कर भी क्या सकते हैं? माया जाल फैला है। तो उन मित्र ने पूछा है कि गुफाओं में बैठ कर करते थे। जरूर करते थे गुफाओं में बैठ कर। गुफाओं में बैठने का कारण था। गुफाओं में बैठने का कारण सिर्फ इतना ही था कि जो साधन थे उनके पास वे ऐसे नहीं थे कि भीड़-भाड़ में बैठ कर करना आसान हो जाए। आज स्थिति बिलकुल बदल गई है। आज हम भीड़-भाड़ में बैठ कर भी कर सकते हैं। और गुफाओं में बैठ कर करते थे जरूर क्योंकि आज से दो हजार, तीन हजार, चार हजार साल पहले जो भी उपलब्ध था ज्ञान, वह सारा ज्ञान यह मानता था कि जब तक समाज छोड़ कर न भागा जाए तब तक परमात्मा नहीं पाया जा सकता। शायद जो लोग छोड़ कर भाग गए थे और उन्होंने पाया था, उनके प्रभाव में यह धारा बन गई। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि जो जहां है वहीं रह कर परमात्मा को पाया जा सकता है।
असल में कठिनाई क्या है? कठिनाई ऐसी है कि मैंने सुना है कि एक आदमी को अमरीका में एक बात सिद्ध करनी थी। उसे सिद्ध करना था कि तेरह नंबर, तेरह का आंकड़ा, तेरह की संख्या अपशगुन क्यों है? उस आदमी ने क्या किया? उस आदमी ने जाकर हस्पताल में पता लगाया कि तेरह तारीख को भर्ती होने वाले कितने मरीज मर जाते हैं। मिल गए बहुत मरीज। बारह तारीख को भी मिल जाते हैं। ग्यारह को भी मिल जाते हैं। अस्पताल में मरते ही रहते हैं। लेकिन उसनें तेरह तारीख को कितने मरीज मरते हैं वह हिसाब लगाया। उसने पुलिस के दफ्तर में जाकर पूछा कि तेरह तारीख को कितनी हत्याएं हुईं। उसने मनोवैज्ञानिकों से पूछा कि तेरह तारीख को कितने लोग आत्महत्या करने को उत्सुक रहते हैं। उसने जेलों में जाकर पता लगाया कि तेरह तारीख को कितने लोग जेल में आकर सजा काटना शुरू करते हैं। उसने अदालतों में पता लगाया कि तेरह तारीख को कितने लोगों को दंड होता है। उसने सड़कों पर म्यनिुसिपेलिटी से पूछा कि तेरह तारीख को कितने एक्सीडेंट होते हैं। उसने तेरह तारीख को जितना बुरा होता है, वह सारी दुनिया का इकट्ठा कर लिया। फिर उसने एक बड़ी किताब लिखी। वह किताब आप पढ़ेंगे तो फिर आप तेरह तारीख से नहीं बच सकते। फिर आप मरे। उस किताब को पढ़ कर अमरीका की बहुत सी होटलों ने तेरह नंबर के कमरे ड्राप कर दिए, तेरह नंबर का कमरा खत्म कर दिया। बाहर के बाद सीधा चैदह आ जाता है। तेरह नंबर की मंजिल खत्म कर दी, थर्टींथ फ्लोर खत्म हो गया। बारह फ्लोर के बाद सीधा चैदहवां फ्लोर। बारह फ्लोर के बाद सीधा तेरहवां फ्लोर पर कोई रहने को राजी नहीं। तेरहवें कमरे में जाने को कोई राजी नहीं। स्वभावतः अगर वह आदमी बारह तारीख के पक्ष में ऐसा काम करे तो यह भी हो जाए। जिंदगी बहुत बड़ी है। असल में हुआ क्या है कि आज से तीन-चार हजार वर्ष पहले जिन लोगों ने समाज छोड़ कर जो लोग भागे उन लोगों को ईश्वर का अनुभव हुआ। उन सारे लोगों ने समझा कि समाज छोड़ कर भागना ही ईश्वर के अनुभव के लिए जरूरी है। यह तेरह तारीख वाला मामला है क्योंकि यह भागे हुए लोग कह रहे हैं। लेकिन अब, अब इस बात को कहा जा सकता है कि जिंदगी में वैसे भी लोगों को ईश्वर का अनुभव हुआ है। और एक को हुआ है तो दूसरे को भी हो सकता है।
असल में ईश्वर के अनुभव का कोई संबंध, जंगल की गुफा और घर के कमरे से नहीं है। ईश्वर को अनुभव करने का संबंध मेरी मनोदशा से है। अब हो सकता है किसी की मनोदशा, वैसी मनो-दशा गुफा में उपलब्ध होती है, वह बड़े मजे से अपनी गुफा में जाएं। लेकिन हो सकता है किसी को वैसी मनोदशा गुफा में उपलब्ध हो ही न सके। वैसी मनो-दशा ठीक अपने घर में भी उपलब्ध हो सकती है। वह अपने घर में पाए। ईश्वर के लिए कोई भी अनिवार्य कंडीशन नहीं है। ईश्वर के लिए कोई भी अनिवार्य शर्तेें नहीं हैं। लेकिन अक्सर ऐसी भूल हो जाती है। अगर कोई आदमी सफेद कपड़े पहने हुए ईश्वर को पा ले, तो शायद उसे खयाल हो कि सफेद कपड़े पहनना ईश्वर को पाने की अनिवार्य शर्त है।
मैने सुना है कि अमरीका के एक छोटे से गांव में, एक पहाड़ी गांव में दो आदमियों का जन्म-दिन एक ही दिन पड़ा। दोनों ग्रामीण। गांव के लोगों ने कहा कि दोनों का जन्म-दिन एक ही दिन पड़ा, इन दोनों के स्वागत में हम कुछ इंतजाम करें। वे दोनों पचहत्तर वर्ष के हो गए थे। अब उनके विदा होने का क्षण भी था, उनके स्वागत में कुछ करना चाहिए। गांव वालों ने बहुत सिर लगाया। दो-चार दिन तक सोच-विचार चला, फिर जो सबसे बड़ी बात जो वे खोज पाए यह वह थी कि उन दिनों पहले-पहल रेलगाड़ी पहाड़ी के नीचे से निकली थी। तो गांव के लोगों ने कहाः गरीब सेे लोग थे, कि हम दो टिकटें खरीद लें और ये दोनों राजधानी तक ट्रेन में घूम आएं। इससे बढ़िया और क्या हो सकता था! ट्रेन में कोई गया भी नहीं था उस गांव में अब तक। यही पहले दो आदमी होंगे। गांव वालों ने पैसे इकट्ठे करके दो टिकटें उन्हें दे दीं। उन्हें जाकर स्टेशन पर ट्रेन में बिठाया। बड़ा स्वागत-समारोह से उनको गाड़ी में बिठाया गया। कुछ जेब खर्च के लिए पैसे भी दिए, आने-जाने के लिए, रास्ते में कुछ खाएंगे-पीएंगे, उसके लिए।
वे दोनों बूढ़े बिलकुल बूढ़े नहीं रह गए थे, इतने जवान, इतने प्रफुल्लित थे, इतने बच्चे जैसे थे उस दिन। ऐसी घटना घट रही थी! ट्रेन में बैठ कर उन्होंने चारों तरफ देखना शुरू किया कि क्या-क्या है? कोई कुछ बेचने आया, कोई कुछ बेचने आया, और तब एक सोडा पॉप, कोई सोडा बेचने आया। उन दोनों बूढ़ों ने एक-दूसरे के तरफ आंख मिचका कर देखा कि जरूर इसमें कुछ राज होना चाहिए। बोतल, उन्होंने सिर्फ शराब की बोतल ही जानी थी। फिर किसी आदमी ने सोडा लेकर पीआ। तो उन्होंने कहा कि एक सोडा हम भी लेकर पीएं। लेकिन कहीं ज्यादा नशा न आ जाए, तो एक ही लें; आधा मैं पीऊं और आधा तुम पी लो। पहले अनुभव भी कर लें, तो फिर ज्यादा जरूरत होगी तो ज्यादा पी लेंगे। सोडा उन्होंने लिया। आधा सोडा एक आदमी ने पीआ, जब वह आदमी पी ही पाया था तभी ट्रेन एक टनल में, एक बोगदे में प्रविष्ट हुई, एकदम घनघोर अंधेरा छा गया। दूसरे आदमी ने कहा कि जल्दी करो भाई, पूरा मत पी जाना। पहले बूढ़े ने कहा कि भूल कर भी इस चीज को मत छूना। आई हैव बीन स्ट्रक ब्लाइंड। भूल कर भी मत छूना इस चीज को, मैं अंधा हो गया हूं। अच्छा ही हुआ कि मैंने ही पीआ तूने नहीं पीआ। मेरा तो कोई आगे-पीछे नहीं है, लेकिन तेरे तो बच्चे हैं, पत्नी है, सब हैं।

ओशो

समाप्त 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें