कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-48)

बोधकथा-अड़तालीसवी 

मैं धर्म पर क्या कहूं? धर्म मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार है।
एक रात्रि मैं नाव पर था। बडी नाव थी और बहुत से मित्र साथ थे। मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह सरिता तेजी से भागी जा रही है। लेकिन कहां? ’’ किसी ने कहाः ‘‘सागर की ओर।’’ सच ही सरिताएं सागर की ओर भागी जाती हैं, लेकिन क्या सरिता का सागर की ओर जाना अपनी ही मृत्यु की ओर जाना नहीं? सरिता सागर में मिटेगी ही तो? शायद इसीलिए सरोवर सागर की ओर नहीं जाते हैं! अपनी ही मृत्यु की ओर कौन समझदार जाना पसंद करेगा? इसीलिए तथाकथित समझदार भी धर्म की ओर नहीं जाते हैं। सरिता के लिए जो सागर है, मनुष्य के लिए वही धर्म है। धर्म है, स्वयं को, सर्व में, समग्रीभूत रूप से खो देना। अहंता के लिए वह महामृत्यु है। इसीलिए जो स्वयं को बचाना चाहते हैं, वे अहंकार का सरोवर बन कर परमात्मा के सागर में मिलने से रुके रहते हैं। सागर में मिलने की अनिवार्य शर्त तो स्वयं को मिटाना है। लेकिन वह मृत्यु वस्तुतः मृत्यु नहीं है। क्योंकि उससे होकर जो जीवन पाया जाता है, उसके समक्ष जिसे हम जीवन कहते हैं, वही मृत्यु हो जाता है। मैं स्वयं मर कर ही यह कह रहा हूं।

सत्य-जीवन में प्रवेश के लिए असत्य-जीवन में मरना ही पडता है।
विराट में प्रतिष्ठा के लिए अणु को बिखेरना ही पडता है।
किंतु एक ओर जो मृत्यु है, वही दूसरी ओर जीवन बन जाती है।
अहंकार की मृत्यु आत्मा का जीवन है। वह मिटना नहीं है, वही होना है। जो इस सत्य को नहीं जान पाते हैं, वे जीवन से ही वंचित रह जाते हैं।
सरोवर सरिता का जीवन नहीं; मृत्यु ही है। यद्यपि उस भांति वह सुरक्षित मालूम होती है। और सागर सरिता की मृत्यु नहीं, जीवन है। यद्यपि उस भांति वह मिटी मालूम होती है।
एक दिन राधा ने कृष्ण से पूछा, ‘‘मेरे प्रभु! यह बांसुरी सदा ही तुम्हारे ओंठों पर है। इससे मुझे बडी ईष्र्या होती है। तुम्हारे मधुमय ओंठों का अमृतस्पर्श इस बांस की पोंगरी को इतना अधिक मिलता है कि मैं जलन से मरी जाती हूं। यह तुम्हारे इतने निकट क्यों है? यह तुम्हें इतनी प्यारी क्यों है? कई बार मैं सोचती हूंः काश मैं कृष्ण की बांसुरी ही होती! भावी जन्मों में मैं तुम्हारे ओठों पर रखी बांसुरी ही होना चाहती हूं!’’ यह सुन कृष्ण खूब हंसने लगे और बोलेः ‘‘प्रिय! बांसुरी होना बहुत कठिन है। शायद उससे अधिक कठिन और कुछ भी नहीं। जो स्वयं को बिल्कुल मिटा दे, वही बांसुरी हो सकता है। यह बांसुरी, बांस की पोंगरी ही नहीं, वस्तुतः प्रेमी का हृदय है। इसका स्वयं का कोई स्वर ही नहीं है। अपने प्रेमी के स्वरों को ही इसने अपना संगीत बना लिया है। मैं गाता हूं, तो वह गाती है। मैं मौन हूं, तो वह मौन है। और इससे ही मेरा जीवन उसका जीवन हो गया है।’’
मैं पास ही से निकला था और अनायास ही राधा-कृष्ण की यह बात सुन पडी थी! बांसुरी होने का रहस्य ही संगीत को पाने का रहस्य है। अस्मिता के अंत में ही आत्मा को पाने की कुंजी है।
धर्म क्या है? मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार ही धर्म है।

ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें