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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-47)

बोधकथा-सत्तालीसवी 

सत्य की खोज में पहला सत्य क्या है? व्यक्ति जो है, जैसा है उसे स्वयं को वैसा ही जानना पहला सत्य है। यह सीढी का पहला पाया है। किंतु अधिकांशतः सीढ़ियों में यह पहला पाया ही नहीं होता है और इसलिए वे केवल देखने मात्र के लिए सीढ़ियां रह जाती हैं। उनसे चढ़ना नहीं हो सकता है। कोई चाहे तो उन्हें कंधों पर ढो सकता है, लेकिन उनसे चढ़ना असंभव है।
मनुष्य औरों को धोखा देता है, स्वयं को धोखा देता है, और परमात्मा को भी धोखा देना चाहता है। फिर इस धोखे में वह स्वयं ही खो जाता है। जिस धुएं से उसकी आंखें अंधी हो जाती हैं, उसे वह स्वयं ही पैदा करता है।
क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति और धर्म ऐसे ही धोखों के सुंदर नाम नहीं हैं? क्या इन सब धुओं के भीतर हमने अपनी असभ्यता, असंस्कृति और अधर्म को ही छिपाने की असफल चेष्टा नहीं की है? और परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह है कि सभ्यता के कारण ही हम सभ्य नहीं हो पाते हैं, और धर्म के कारण ही धार्मिक नहीं हो पाते हैं।
क्योंकि असत्य कभी सत्य तक ले जानेवाला मार्ग नहीं बन सकता है। सत्य ही सत्य का द्वार है।
स्वयं के प्रति सारी वंचनाओं को छोडने से ही सत्य का मार्ग निष्कंटक और निर्विरोध हो सकता है। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि अंततः स्वयं को धोखा नहीं दिया जा सकता है। एक न एक दिन धोखे टूट ही जाते हैं और सत्य प्रकट होते हैं। इसीलिए आत्म-वंचना अंततः आत्मग्लानि में परिणत होती है। किंतु पूर्व-बोध जो कर सकता है, वह पश्चात्ताप नहीं कर सकता है।
मैं क्यों धोखा देना चाहता हूं?
क्या सब धोखों के पीछे भय ही नहीं है?
लेकिन क्या धोखों से भय की मूल जड नष्ट होती है? धोखे से उलटे वे जडें और दब जाती हैं, और गहरी हो जाती हैं। इस भांति वे मरती नहीं, और सप्राण और सशक्त होती हैं। इसीलिए फिर उन्हें ढांकने और छिपाने को और भी बडे धोखे आविष्कार करने होते हैं। और फिर धोखों का एक अंतहीन सिलसिला शुरू होता है, जिससे भीरुता बढ़ती ही चली जाती है और व्यक्ति दीनता और कायरता का पुंज मात्र रह जाता है। फिर तो वह स्वयं से भी भय खाने लगता है। वह भय नरक बन जाता है।
जीवन में भय के कारण वंचनाएं ओढ़ना उचित नहीं है। उचित है भय के मूल कारण को खोजना। भय को दबाना नहीं, उघाडना आवश्यक है। दबे हुए भय से मुक्ति असंभव है। भय को जानकर, उघाड कर ही उससे मुक्त हुआ जा सकता है।
इसलिए ही साहस को मैं सबसे बडा धार्मिक गुण मानता हूं। जीवन के मंदिर में पीछे से घुसने के लिए कोई द्वार नहीं है। परमात्मा केवल उसका ही स्वागत करता है जो साहसपूर्वक संघर्ष करता है।
इंग्लैंड के एक महानगर में शेक्सपियर का कोई नाटक चल रहा था। बहुत वर्षों पहले की बात है। तब सज्जनों के लिए नाटक देखना पाप समझा जाता था और धर्म-पुरोहितों के तो देखने का सवाल ही नहीं था। धर्म का तो ठेका ही उन्हीं का है। लेकिन एक पादरी नाटक देखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था। उसने वही विधि खोजी, जो हम सब जीवन में खोजते हैं। उसने थियेटर हाल के मैनेजर को लिख कर पूछाः ‘‘क्या आप नाटक के पिछले द्वार से मेरे प्रवेश का इंतजाम कर सकेंगे, ताकि कोई मुझे न देख सके? ’’ मैनेजर का जवाब आयाः ‘‘खेद है, यहां कोई ऐसा दरवाजा नहीं है, जो ईश्वर को नजर न आता हो!’’
मैं भी यही आपसे कहना चाहता हूं। सत्य के प्रवेश के लिए पीछे का कोई द्वार नहीं है। परमात्मा सब द्वारों पर खडा है।

ओशो

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