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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-34)

बोधकथा-चौतीसवीं  

एक दोपहर की बात है। कुछ व्यक्ति आए और कहने लगेः ‘‘परमात्मा नहीं है। और धर्म धोखाधडी है।’’
मैं उनकी बात सुन हंसने लगा तो उन्होंने पूछाः ‘‘आप हंसते क्यों हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘क्योंकि अज्ञान मुखर है और ज्ञान मौन। क्या परमात्मा के होने या न होने के संबंध में कुछ भी कहना इतना आसान है? मनुष्य की क्षुद्र बुद्धि के सभी निर्णय क्या हंसने योग्य ही नहीं हैं? जो स्वयं की बुद्धि की सीमा को जानते हैं, वे निर्णय नहीं लेते, अपितु अवाक रह जाते हैं, और उस रहस्यपूर्ण क्षण में ही वे स्वयं की सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं। तब वे स्वयं को भी जानते हैं और सत्य को भी। क्योंकि सत्य स्वयं में है और सत्य में स्वयं की सत्ता है। क्या बूंद सागर में है और बूंद में सागर नहीं है? क्या यह उचित है कि बूंद स्वयं को जाने बिना सागर को जानने चले और जब न जान सके तो कहे कि सागर है ही नहीं। बूंद स्वयं को ही जान ले तो सागर को भी जान लेती है। परमात्मा का विचार व्यर्थ है। मैं आपसे पूछता हूं--क्या आप स्वयं को जानते हैं? क्या इस शर्त को पूरा किए बिना कोई भी परमात्मा के संबंध में होने या न होने का निर्णय लेने का अधिकारी है? ’’

‘‘क्या आप स्वयं को जानते हैं? ’’ यह प्रश्न सुन वे मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे थे। क्या आप भी यह प्रश्न सुन ऐसे ही एक दूसरे की ओर नहीं देखने लगेंगे? लेकिन स्मरण रखें कि स्वयं को जाने बिना जीवन में न कोई सार्थकता है, न धन्यता है। उन मित्रों को हजारों साल पूर्व यूनान में हुई एक वार्ता मैंने बताई थी।
एक वृद्ध ऋषि से किसी ने पूछाः ‘‘संसार की वस्तुओं में सबसे बडी वस्तु क्या है? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘आकाश। क्योंकि जो भी है, आकाश में है और स्वयं आकाश किसी में नहीं है।’’
उसने पूछाः ‘‘और श्रेष्ठतम? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘शील। क्योंकि शील पर सब कुछ न्यौछावर है, लेकिन शील किसी के लिए भी नहीं खोया जा सकता है।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे गतिवान? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘विचार।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे सरल? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘उपदेश।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे कठिन? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘आत्मज्ञान।’’
निश्चय ही स्वयं को जानना सर्वाधिक कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि उसे जानने के लिए शेष सब जानना छोडना पडता है। ज्ञान से शून्य हुए बिना स्वयं का ज्ञान नहीं हो सकता है।
अज्ञान आत्मज्ञान में बाधा है।
ज्ञान भी आत्मज्ञान में बाधा है।
लेकिन एक ऐसी अवस्था भी है, जब न ज्ञान है, न अज्ञान है। उस अंतराल में ही स्वयं का ज्ञान आविर्भूत होता है।
मैं उस अवस्था को ही समाधि कहता हूं।
 ओशो

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