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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-21)

बोधकथा-इक्कीसवां 

मित्रो! मैं क्या सिखाता हूं। एक छोटा सा राज मैं सिखाता हूं। संसार में सम्राट बनने का राज मैं सिखाता हूं।
और इस छोटे से राज से बडा राज और क्या हो सकता है?
लेकिन, शायद तुम कहो कि संसार में सभी सम्राट कैसे हो सकते हैं? मैं कहता हूंः ‘‘हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहां सभी सम्राट हो सकते हैं।’’
लेकिन, जिस संसार को हम जानते हैं, वहां तो सभी गुलाम हैं। वहां तो वे भी गुलाम हैं, जो स्वयं को सम्राट समझने के भम्र में हैं।

एक जगत मनुष्य के बाहर है। एक जगत मनुष्य के भीतर भी है। बाहर के जगत में कोई कभी सम्राट नहीं हो सका। हालांकि अधिकतम लोगों ने उसके लिए संघर्ष किया है।
शायद तुम भी उसी संघर्ष में हो। उसी प्रतियोगिता में। तुम्हारी दौड भी शायद उसी के लिए है।
लेकिन जिसे सम्राट होना हो, उसे संसार को नहीं, स्वयं को ही जीतना पडता है।


क्राइस्ट ने कहाः ‘‘परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर ही है।’’
क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जिन्होंने बाहर के राज्य को जीता है, उन्होंने स्वयं को खो दिया है? और जो स्वयं को ही खो दे, वह सम्राट कैसे होगा? सम्राट होने के लिए कम से कम स्वयं होना तो अनिवार्य ही है।
नहीं, नहीं। बाहर का द्वार और भी दरिद्रता में ले जाता है। उस जगत में जो सम्राट बने दीखते हैं, वे अपने गुलामों के भी गुलाम होते हैं।
और, वासनाएं, तृष्णाएं, कामनाएं मुक्त नहीं करतीं, वरन सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बंधनों में बांध देती हैं।
वासना की जंजीरों से सुदृ.ढ जंजीरें न तो अब तक बन सकी हैं और न आगे ही बन सकती हैं। असल में उतना मजबूत फौलाद कोई और होता ही नहीं। इन अदृश्य जंजीरों से बंधा व्यक्ति सम्राट कैसे हो सकता है?
एक सम्राट थाः प्रसिया का फ्रेड्रिक महान। एक संध्या राजधानी के बाहर एक बू.ढे आदमी से उसे धक्का लग गया। संकरी पगडंडी थी और सांझ का अंधेरा भी घिर रहा था। फ्रेड्रिक ने क्रोध से उस बू.ढे से पूछाः ‘‘आप कौन हैं? ’’ उस वृद्ध ने कहाः ‘‘एक सम्राट।’’ फ्रेड्रिक ने साश्चर्य कहाः ‘‘सम्राट? ’’ और फिर मजाक में पूछाः ‘‘किस देश पर आपका राज्य है? ’’ उस बू.ढे ने कहाः ‘‘स्वयं पर।’’
निश्चय ही जिनका स्वयं पर राज्य है, वे ही सम्राट हैं।

ओशो

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