कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-46)

बोधकथा-छियालीसवी

एक मंदिर निर्मित हो रहा है। मैं उसके पास से निकलता हूं तो सोचता हूंः मंदिर तो बहुत हैं। शायद उनमें जानेवाले ही कम पडते जाते हैं। लेकिन फिर यह नया मंदिर क्यों बन रहा है? और यही अकेला भी तो नहीं है। और भी मंदिर बन रहे हैं। रोज ही नये मंदिर बन रहे हैं। मंदिर बनते जाते हैं और मंदिरों में जाने वाले घटते जाते हैं। इसका रहस्य क्या है? बहुत खोजता रहा, लेकिन राज हाथ नहीं आता था। फिर उस मंदिर को बनाने वाले एक वृद्ध कारीगर से पूछा। सोचा, शायद नये-नये मंदिरों के बनते जाने का रहस्य उसे ज्ञात हो, क्योंकि उसने तो बहुत से मंदिर बनाए हैं?
वह वृद्ध मेरा प्रश्न सुन हंसने लगा और फिर मुझे मंदिर के पीछे ले गया, जहां पत्थरों पर काम हो रहा था। वहां भगवान की मूर्तियां भी बन रही थीं। मैंने सोचा कि शायद वह कहेगा कि भगवान की इन मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है, लेकिन इससे तो मेरी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, क्योंकि तब प्रश्न होगा कि भगवान की ये मूर्तियां क्यों बन रही हैं? लेकिन नहीं, मैं भूल में था। उसने मूर्तियों की कोई बात ही नहीं उठाई।

वह तो उन्हें छोड आगे ही बढ़ता गया। सबसे अंत में, सबसे पीछे कुछ कारीगर एक पत्थर पर काम कर रहे थे। उस वृद्ध ने उस पत्थर को दिखा कर मुझे कहाः ‘‘इसके लिए मंदिर बन रहा है और इसके लिए ही सदा मंदिर बनते रहे हैं।’’ मैं तो अवाक ही रह गया और अपनी बुद्धिहीनता पर पछताने लगा। अरे! यह पहले ही मैं स्वयं क्यों न सोच सका? उस पत्थर पर मंदिर बनानेवाले का नाम खोदा जा रहा था।
यह सोचता हुआ घर लौटता था कि मार्ग में एक जुलूस मिला। किसी ने संसार छोड संन्यास ले लिया है। उसके स्वागत में जुलूस निकल रहा है। मैं भी राह के किनारे खडा हो देखने लगा। जिन्होंने संन्यास लिया है, उनके चेहरे को, उनकी आंखों को देखता हूं। उनकी आंखों में तो संन्यासी की शून्यता कहीं भी नहीं है। उनमें तो वही दर्प है, वही अस्मिता है, जो राजनेताओं की आंखों में होती है। लेकिन हो सकता है कि मैं भूल में होऊं या उस बू.ढे कारीगर की बात का असर ही काम कर रहा हो। लेकिन और संन्यासियों को भी तो मैं जानता हूं। अहंकार के जिस सूक्ष्म रूप के दर्शन उनमें होते हैं, वैसे दर्शन अन्यत्र तो दुर्लभ ही हैं। शायद मनुष्य के मन से जो भी क्रिया फलित होती है, वह अहंकार के ऊपर नहीं जा सकती है। मन से मुक्त हुए बिना अहंकार से भी मुक्ति नहीं है।
थोडे ही दिन हुए हैं, एक मित्र ने दस दिन के उपवास किए थे। उन उपवासों का ढिंढोरा पीटने में उनकी आकुल उत्सुकता देख मुझे हैरानी हुई थी। लेकिन नहीं, वह मेरी ही भूल थी। उस बू.ढे कारीगर ने तो आज मेरी जीवन भर की भूलें ही उघाड कर रख दी हैं। उपवासों के बाद उन मित्र का बडा स्वागत-सत्कार हुआ था। मैं भी उसमें उपस्थित था। वहां एक बंधु मेरे कान में बोले थेः ‘‘स्वागत-समारोह का सारा खर्च बेचारे ने स्वयं ही उठाया है!’’ उस दिन तो मैं चैंका था, लेकिन आज उस बू.ढे के कारण ज्यादा समझदार हूं और चैंकने का कोई भी कारण दिखाई नहीं पडता है। उल्टे एक विचार बार-बार मन में आता है कि जब संसार में विज्ञापन हितकर है, तो स्वर्ग में क्यों नहीं होगा? क्या स्वर्ग के नियम भी संसार-जैसे ही नहीं होंगे? आखिर संसार जिस चित्त से निर्मित है, स्वर्ग भी तो उसी की उत्पत्ति है? स्वर्ग की कामना, कल्पना क्या सांसारिक मन की ही वासना नहीं है? फिर यह परमात्मा क्या है? क्या मनुष्य-मन का आविष्कार ही नहीं है? वह भी तो अपमान से अपमानित और क्रोधित होता है और प्रतिशोध से शत्रुओं को नरकाग्नि में जलाता है। वह भी तो स्तुति से प्रसन्न होता है और भक्तों को कष्टों से बचाता है और उन पर सुखों की वर्षा करता है। यह सब क्या मनुष्य-मन का ही प्रतिफलन नहीं है? फिर उसके लोक में विज्ञापन क्यों कारगर नहीं हो सकता है? वह भी तो प्रसिद्धि को ही प्रमाण मानता होगा? आखिर उसके पास भी मनुष्य की माप का और क्या उपाय हो सकता है?
एक संन्यासी से मैंने यही कहा तो वे बहुत नाराज हुए और बोलेः ‘‘यह सब क्या आप सोचते रहते हैं? धर्म में विज्ञापन की क्या आवश्यकता? यह सब तो अहंकार का खेल है। यह सब उसी की माया है। अज्ञान में जीवन अहंकार में पडा रहता है।’’ उन्होंने जब यह कहा तो मैंने मान लिया। त्याग से ज्ञान मिलता है, और उन्होंने तो सभी कुछ त्याग दिया है। जरूर ही उन्हें ज्ञान मिल गया होगा। अब उनकी बात पर संदेह करना संभव ही कैसे था? लेकिन थोडे ही समय में उन्होंने दो-चार बार याद दिला दी कि वे लाखों रुपयों की संपत्ति पर लात मार कर संन्यासी हुए हैं, अर्थात वे कोई छोटे-मोटे संन्यासी नहीं हैं। त्याग का माप भी तो धन ही है! मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह लात आपने कब मारी? ’’ वे बोलेः ‘‘कोई 25-30 वर्ष हुए।’’ उस समय उनकी आंखों की चमक देखने ही योग्य थी। कहा भी है कि त्याग से आंखों में तेज आ जाता है। मैंने डरते-डरते उनसे निवेदन किया कि महाराज, लात शायद ठीक से लग नहीं पाई, नहीं तो 30 वर्ष बाद भी क्या उसकी स्मृति इतनी हरी हो सकती थी? जिस बात से डर था, आखिर वही हो गई। उनका क्रोध फूट पडा। लेकिन यह सोच मैंने मन में धीरज धरा कि यह तो ऋषि-मुनियों की पुरानी आदत है। किसी भांति का अभिशाप उन्होंने नहीं दिया, यही क्या कम दया है?
उनसे जाते-जाते मैंने एक कथा कही थी। वह आपसे भी कहता हूं। उस पर खूब सोचना। उसमें बहुत अर्थ है।
एक धनपति ने श्रीनाथजी को दस हजार स्वर्णमुद्राएं अर्पित कीं। लेकिन वह उन मुद्राओं को मूर्ति के समक्ष एक दिन गिन-गिन कर रखने लगा। वह जोर से थैलियों में से उन्हें निकालता और खूब खनखनाहट होती। खनखनाहट सुन मंदिर में भीड हो गई। वह और भी आवाज कर के मुद्राएं गिनने लगा। जैसे-जैसे भीड बढ़ती, उसके त्याग का आनंद भी बढ़ता जाता था। आखिर जब वह सारी मुद्राएं गिन चुका और उसने गौरव से वहां इकट्ठे लोगों की तरफ देखा तो पुजारी ने उससे कहाः ‘‘बंधु, ये मुद्राएं वापस ले जाओ। श्रीनाथ जी ऐसी भेंट स्वीकार नहीं करेंगे।’’ धनपति हैरान हुआ। उसने पूछाः ‘‘क्यों महाराज? ’’ पुजारी ने कहाः ‘‘प्रेम क्या व्यक्त किया जा सकता है? प्रार्थना क्या व्यक्त करने की वस्तु है? लेकिन तुम्हारे हृदय में तो विज्ञापन की वासना है। ऐसी वासना समर्पण में असमर्थ है। ऐसी वासना त्याग में असमर्थ है। ऐसी वासना प्रेम के लिए अपात्र है।’’

ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें