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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-22)

बोधकथा-बाईस्वी

धर्म के प्रति उपेक्षा क्यों है? और यह उपेक्षा रोज ही बढ़ती क्यों जाती है?
एक कथा मैंने सुनी हैः एक गांव था। बहुत भोले-भाले उसके निवासी थे। जो जैसा कहता, वैसी ही बात वे मान लेते थे। उनके गांव के बाहर भगवान की एक मूर्ति थी। एक महात्मा वहां आए। उन्होंने उन सबको एकत्र किया और कहाः ‘‘अनर्थ! अनर्थ! राम-राम! मूर्खो, तुम छाया में रहते हो और भगवान धूप में? भगवान के सिर पर छाया करो। देखते नहीं, भगवान कितने क्रुद्ध हो रहे हैं? ’’ गांव के लोग बहुत गरीब थे। किसी भांति अपने छप्परों को छोटा कर उन्होंने भगवान के लिए एक छप्पर बनाया। छप्पर डलवा कर महात्मा दूसरे गांव चले गए। उन्हें कोई एक ही गांव तो था नहीं। बहुत गांव थे। बहुत भगवान थे। और सबके लिए छप्पर डलवाने की जिम्मेदारी उन्हीं के ऊपर थी। फिर थोडे दिनों के बाद उस गांव में एक दूसरे महात्मा आए। भगवान के ऊपर छप्पर देखते ही दुखी हो गए। गांव वालों को इकट्ठा किया और उन पर बहुत नाराज हुए। बोले, ‘‘सीताराम, सीताराम, अनर्थ हो गया।

मूर्खो! भगवान के ऊपर छप्पर? क्या उन्हें तुम्हारे छप्पर की आवश्यकता है? कहीं आग लग जाए तो सब स्वाहा। अभी उतार कर फेंको!’’ गांव वाले हैरान हुए। लेकिन, अब करते भी तो क्या करते? महात्मा जो कहते हैं सो सदा ठीक ही कहते हैं। उनकी न मानो तो अभिशाप से जन्मों-जन्मों तक दुख दे सकते हैं और नरक में भी सडा सकते हैं। भगवान तो उन्हीं के हाथ में है, जैसा चाहे, वैसा करा लेते हैं। उन बेचारों को छप्पर उतार कर फेंक देना पडा। बहुत दिनों का श्रम, शक्ति और दरिद्रों का धन व्यर्थ ही बरबाद हुआ, सो हुआ, लेकिन भगवान पर छप्पर डालने के कलंक से बच जाना ही क्या कम सौभाग्य था! महात्मा छप्पर निकलवा कर दूसरे गांव चले गए। उन्हें कोई एक ही गांव तो था नहीं। बहुत गांव थे। बहुत भगवान थे। और उन सबको छप्परों से मुक्त करवाने की जिम्मेवारी उन्हीं की थी। लेकिन थोडे ही समय बाद फिर एक महात्मा का आगमन उस गांव में हुआ। पर इस बार गांव वाले सचेत थे और भूल कर भी भगवान की मूर्ति की ओर नहीं जाते थे। पता नहीं अब कौन सा बखेडा खडा हो जाए? उन्होंने उस मार्ग पर ही आना-जाना बंद कर दिया था।
मैं देखता हूं कि जो उस गांव में हुआ था, वही करीब-करीब पूरे संसार में हो गया है। महात्माओं ने धर्म के नाम पर ऐसी-ऐसी बेहूदी बातें करवाई हैं, और ऐसे-ऐसे भय लोक-मानस में बिठाए हैं, कि यदि लोगों ने भगवान के रास्ते पर ही आना बंद कर दिया है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
धर्म की उपेक्षा तथाकथित महात्माओं द्वारा फैलाए गए आतंकों और अंधविश्वासों की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा, धर्म की आड में चल रहे शोषण, पाखंड और जडता की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा धर्म के झूठे पूरक बने संप्रदायों और उनके द्वारा फैलाई गई घृणा, वैमनस्य और शत्रुता की उपेक्षा है।
धर्म की उपेक्षा धर्म की उपेक्षा नहीं, वस्तुतः उसकी उपेक्षा है जो धर्म नहीं है।

ओशो

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