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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-03)

बोधकथा-तीसरी 

एक परमात्मा को मानने वालों ने दूसरे परमात्मा की मूर्तियां तोड दी हैं। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। सदा से ही ऐसा होता रहा है। मनुष्य ही एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, उनके परमात्मा भी हैं। असल में मनुष्य जिन परमात्माओं का सृजन करता है, वे स्वयं उससे बहुत भिन्न नहीं हो सकते हैं। एक मंदिर दूसरे मंदिर के विरोध में खडा है, क्योंकि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के विरोध में है। एक शास्त्र दूसरे शास्त्र का शत्रु है, क्योंकि मनुष्य मनुष्य का शत्रु है। मनुष्य जैसा होता है, वैसा ही उसका धर्म होता है। मनुष्य मैत्री लाने के बजाय शत्रुता के ग.ढ बन गए हैं और जगत को प्रेम से भरने के बजाय उन्होंने बैर-वैमनस्य के विष से भर दिया है।

मैं मूर्तियां टूटने की खबर सुन कर लौटा ही था कि जिनकी मूर्तियां तोडी गई थीं, उनमें से कुछ व्यक्ति मेरे पास आए। वे बडे सात्विक क्रोध से भरे हुए थे! हालांकि कोई क्रोध सात्विक नहीं होता है। फिर भी उन्होंने कहा कि उनका क्रोध सात्विक है! और वे जब तक विरोधियों के मंदिरों को नष्ट नहीं कर देंगे, तब तक चैन नहीं लेंगे! सवाल धर्म की रक्षा का है।


मैं हंसने लगा तो वे हैरान हुए। निश्चय ही यह समय हंसने का नहीं था। वे बहुत गंभीर थे और उनकी दृष्टि में इससे ज्यादा गंभीर क्या बात हो सकती थी कि धर्म पर खतरा था!
मैंने उन मित्रों से पूछाः ‘‘क्या आप शैतान की भाषा समझते हैं? ’’
एक ने पूछाः ‘‘यह कौन सी भाषा है? ’’
शास्त्रों की भाषा तो वे समझते थे, लेकिन शैतान की भाषा नहीं समझते थे। हालांकि शैतान की भाषा को समझे बिना स्वयं शास्त्र ही शैतान के शास्त्र बन जाते हैं!
मैंने उनसे एक कहानी कहीः
एक नाव दूर-देश जा रही थी। और यात्रियों के साथ उसमें एक दरिद्र फकीर भी था। कुछ शरारती व्यक्ति उस फकीर को सब भांति परेशान कर रहे थे। वह जब परमात्मा की रात्रिकालीन प्रार्थना में बैठा था तो यह सोचकर कि अब तो वह कुछ भी नहीं कर सकेगा, उन्होंने उसके सिर पर जूते लगाने शुरू कर दिए। वह तो प्रार्थना में था और उसकी आंखों से प्रेम के आंसू बह रहे थे। तभी आकाशवाणी हुईः ‘‘मेरे प्यारे! तू कहे तो नाव उलट दूं।’’ वे व्यक्ति घबडा गए। और यात्री भी घबडा गए। मनोविनोद तो महंगा पड रहा था। वे सब उस फकीर के पैरों पर गिर क्षमा मांगने लगे। फकीर की प्रार्थना पूरी हुई तो वह उठा और उन लोगों से बोलाः ‘‘घबडाओ मत।’’ फिर उसने आकाश की ओर मुंह उठाया और कहाः ‘‘मेरे प्यारे प्रभु! यह तू कैसी शैतान की भाषा में बोल रहा है? तू कुछ उलटने की ही लीला करना चाहता है, तो इनकी बुद्धि उलट दे। नाव उलटने से क्या होगा? ’’ फिर आकाश-घोषणा हुईः ‘‘मैं बहुत खुश हूं। तूने ठीक पहचाना। वह वाणी मेरी नहीं थी। जो शैतान की भाषा पहचान लेता है, वही फिर मेरी भाषा पहचान सकता है।’’
 ओशो

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