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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-42)

बोधकथा-बयालीसवीं  

सुबह-सुबह ही एक मित्र आए। उनकी आंखों में क्रोध और घृणा की लपटें थीं। किसी के प्रति बहुत ही तीखे और विषाक्त अग्नि-उदगार प्रकट कर रहे थे। शांति से मैंने उनकी बातें सुनीं और उनसे कहाः ‘‘क्या आपने एक घटना सुनी है? ’’ वे तो कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बोलेः ‘‘कौन सी घटना? ’’ मैं हंसने लगा तो वे कुछ शिथिल हुए। फिर मैंने उनसे कहाः ‘‘एक मनोचिकित्सक प्र्रेम और घृणा पर शोध कर रहा था। उसने विश्वविद्यालय की एक कक्षा के 15 विद्यार्थियों से कहा कि वे शेष युवकों में से जिन्हें भी घृणित पाते हों, 30 सेकेंड में उनके नामों के प्रथमाक्षरों को लिख दें। एक युवक किसी का भी नाम नहीं लिख सका। कुछ ने कुछ नाम लिखे। एक ने अधिकतम अर्थात 13 नाम लिखे। इस प्रयोग से जो तथ्य सामने आया वह बहुत आश्चर्यजनक था। जिन युवकों ने अधिकतम व्यक्तियों को घृणित माना था, वे स्वयं भी अधिकतम व्यक्तियों द्वारा घृणित माने गए थे। और सबसे अदभुत और रहस्य की बात तो यह थी कि जिस युवक ने किसी का भी नाम नहीं लिखा था, उसका नाम भी किसी ने नहीं लिखा था।’’

जीवन-पथ पर मनुष्य जिनसे मिलता है, वे अक्सर दर्पण ही सिद्ध होते हैं। क्या हम स्वयं को ही अन्यों में नहीं झांक लेते हैं? स्वयं में घृणा हो तभी अन्यों में घृणित के दर्शन होते हैं। वह घृणा ही घृणित का निर्माण और आविष्कार करती है। यह निर्माण और आविष्कार भी निष्प्रयोजन नहीं है। इस भांति व्यक्ति स्वयं में जो घृणित है, उसके साक्षात की पीडा से बच जाता है। दूसरों में राई का पर्वत बना कर देखने से स्वयं में जो पर्वत की भांति है, वह राई जैसा प्रतीत होने लगता है। स्वयं के कानेपन की पीडा से बचने के दो ही मार्ग हैं--या तो अपनी ही एक आंख ठीक की जाए या दूसरों की दोनों ही आंखें फूटी मान ली जाएं। निश्चय ही दूसरा मार्ग ही सुगम मालूम होता है, क्योंकि उसमें कुछ करना नहीं है, बस मान लेना ही पर्याप्त है।
स्मरण रहे कि जब भी दूसरों से हम मिलें तो उन्हें दर्पण ही समझें और जो हमें उनमें दिखाई पडे, उसे सर्वप्रथम स्वयं में ही खोजें। इस भांति दैनंदिन संबंधों के दर्पण में ही व्यक्ति आत्मानुसंधान में संलग्न हो जाता है। संसार और उसके संबंधों को छोड कर भागना कायरता तो है ही, व्यर्थ भी है। उचित तो यही है कि उन संबंधों को हम स्वयं की खोज का अवसर बनावें। उनके अभाव में स्वयं को खोजना वैसे ही असंभव है, जैसे दर्पण के अभाव में स्वयं के ही दर्शन करना असंभव है। दूसरों के रूप में हम निरंतर स्वयं से ही मिलते रहते हैं। जो हृदय प्रेम से भर जाता है, वह सब में प्र्रेम के दर्शन करता है। अंततः इसी अनुभूति की पूर्णता परमात्मा का साक्षात बन जाती है। इसी पृथ्वी पर ऐसे लोग हैं जो नरक में हैं और ऐसे लोग भी हैं जो स्वर्ग में हैं। दुख और सुख, नरक और स्वर्ग का मूल स्रोत हमारे भीतर है, और जो भीतर है वही बाह्य के पर्दे पर प्रक्षेपित हो जाता है। मनुष्य की ही आंखें हैं, जो जगत में पदार्थ और मृृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखतीं और मनुष्य की ही आंखें हैं जो जगत में परमात्मा के अमित सौंदर्य और संगीत को भी अनुभव करती हैं। इसलिए जो बाहर प्रतीत होता है, वह नहीं, वरन जो भीतर उपस्थित है, वही जीवन में मौलिक और आधारभूत है। इस सत्य पर सतत जिनकी दृष्टि है, वे बाह्य से मुक्त हो अंतरस्थ में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। सुख और दुख में, घृणा और प्रेम में, मित्र और शत्रु में, जो इस मूलस्रोत पर ध्यान रखते हैं वे अंततः पाते हैं कि मेरे स्वयं के अतिरिक्त न कोई सुख है, न दुख; न कोई शत्रु है, न मित्र। मैं ही अपना शत्रु हूं और मैं ही अपना मित्र हूं।

ओशो

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