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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-37)

बोधकथा-सेैैतीसवी 

एक करोडपति ने महल बनवाया था। उसका जीवन बीतते-बीतते वह महल बन कर तैयार हुआ था। अक्सर ही ऐसा होता है। रहने के लिए जिसे बनाते हैं, उसे बनाने में ही रहने वाला चुक जाता है। निवास तैयार करते हैं और समाधि तैयार होती है। यही हुआ था। महल तो बन गया था लेकिन बनाने वाले के जाने के दिन आ गए थे। किंतु महल अद्वितीय बना था। अहंकार तो अद्वितीयता ही चाहता है। उसके लिए ही तो मनुष्य अपनी आत्मा भी खो देता है। ‘अहं’ जो है ही नहीं, सर्वप्रथम होकर ही तो स्वयं के होने का अनुभव कर पाता है। सौंदर्य में, शिल्प में, सुविधा में, सभी भांति वह भवन अद्वितीय था, और धनपति के पैर पृथ्वी पर नहीं पड रहे थे। राजधानी भर में उसकी ही चर्चा थी। जो भी देखता था मंत्रमुग्ध हो जाता था। अंततः स्वयं सम्राट भी उसे देखने आया। वह भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर सका। उसके अपने महल भी फीके पड गए थे। भीतर तो उसे ईष्र्या ही हुई पर ऊपर से उसने प्रशंसा ही की। धनपति ने तो इसकी ईष्र्या को ही वस्तुतः प्रशंसा माना। सम्राट की प्रशंसा का आभार मानते हुए उसने कहाः ‘‘सब परमात्मा की कृपा है।’’ लेकिन, हृदय में तो वह जानता था कि सब मेरा ही पुरुषार्थ है!

सम्राट को विदा देते समय द्वार पर उसने कहाः ‘‘एक ही द्वार मैंने महल में रखा है। ऐसे में चोरी असंभव है। कोई भीतर आवे या बाहर जावे, इसी द्वार से आना-जाना अनिवार्य है।’’ एक वृद्ध भी द्वार पर खडा था। भवन-पति की बात सुन कर वह जोर से हंस पडा। सम्राट ने उससे पूछाः ‘‘क्यों हंसते हो? ’’ वह बोलाः ‘‘कारण भवन-पति के कान में ही बता सकता हूं।’’ फिर वह भवन-पति के पास गया और कान में बोलाः ‘‘महल के द्वार की तारीफ सुन कर ही मुझे हंसी आ गई थी। इस पूरे महल में वही तो एक खराबी है। मृत्यु उसी द्वार से आएगी और आपको बाहर ले जाएगी। वह द्वार न होता तो सब ठीक था।’’
जीवन के जो भी भवन मनुष्य बनाता है, उन सभी में यह खराबी रहती है। इसीलिए तो कोई भी भवन आवास सिद्ध नहीं होता है। एक द्वार सभी में शेष रह जाता है, और वही मृत्यु का द्वार बन जाता है।
लेकिन क्या जीवन का ऐसा भवन संभव नहीं है, जिसमें मृत्यु के लिए कोई द्वार ही न हो?
हां, संभव है।
किंतु उस भवन में दीवारें नहीं होती हैं, बस द्वार ही द्वार होते हैं। द्वार ही द्वार होने से द्वार दिखाई नहीं पडते हैं।
और मृत्यु वहीं आ सकती है, जहां द्वार है। जहां द्वार ही द्वार हैं, वहां द्वार ही नहीं है।
अहंकार जीवन में दीवार बनाता है। फिर स्वयं में आने-जाने के लिए उसे कम से कम एक द्वार तो रखना ही होता है। यही द्वार मृत्यु का भी द्वार है।
अहंकार का भवन मृत्यु से नहीं बच सकता है। उसमें एक द्वार सदा ही शेष है। वह स्वयं ही वह द्वार है। यदि वह एक भी द्वार न छोडे तो भी मरेगा। वह आत्मघात है।
किंतु, अहंकार-शून्य जीवन भी है। वही अमृत-जीवन है। क्योंकि मृत्यु को आने के लिए उसमें कोई द्वार ही नहीं है और न मृत्यु को गिराने के लिए उस भवन में कोई दीवार ही है।
अहंकार जहां नहीं है, वहां आत्मा है।
आत्मा है आकाश जैसी असीम और अनंत। और जो असीम है, और अनंत है, वही अमृत है।

ओशो

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