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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-05)

बोधकथा-पांचवी 

मैं महत्वाकांक्षा की धुरी पर घूम रहे जीवन-वृत्त को ही नरक कहता हूं। महत्वाकांक्षाओं का ज्वर ही जीवन को विषाक्त करता है। मनुष्य जिन बडी से बडी रुग्णताओं और विक्षिप्तताओं से परिचित है, महत्वाकांक्षा से बडी बीमारी उनमें से कोई भी नहीं है। क्योंकि जो चित्त महत्वाकांक्षाओं की हवाओं से उद्वेलित है, शांति, संगीत और आनंद उसके भाग्य में नहीं हो सकता है। वह स्वयं में ही नहीं होता है। और शांति, संगीत और आनंद तो स्वयं में होने के ही फल हैं। जो स्वयं में नहीं है, वही अस्वस्थ है। स्वयं में होना ही तो स्वस्थ होना है।
एक युवती पूछती थीः ‘‘इस महत्वाकांक्षा का मूल क्या है? ’’

मैंने कहाः ‘‘हीनता का भाव। अभाव का बोध।’’
निश्चय ही हीनता का भाव और महत्वाकांक्षी-चेतना विरोधी दिखाई पडते हैं। लेकिन क्या वे वस्तुतः विरोधी हैं? नहीं, वे विरोधी नहीं हैं, वरन एक ही भावदशा के दो छोर हैं। एक छोर से जो हीनता है वही दूसरे छोर से महत्वाकांक्षा है। हीनता ही स्वयं से मुक्त होने के प्रयास में महत्वाकांक्षा बन जाती है। वह सुसज्जित हीनता ही है।

लेकिन बहुमूल्य से बहुमूल्य वस्त्रों के पहन लेने से भी न तो वह मिटती है और न नष्ट ही होती है। यह हो भी सकता है कि वह औरों की दृष्टि से छिप जाए, लेकिन स्वयं को तो निरंतर ही उसके दर्शन होते रहते हैं। वस्त्रों में छिप कर व्यक्ति अन्यों के लिए तो नग्न नहीं रह जाता है, लेकिन स्वयं के समक्ष तो उसकी नग्नता पूर्ववत ही होती है। यही तो कारण है कि दूसरों की आंखों में जिनकी महत्वाकांक्षा की सफलताएं चकाचैंध पैदा कर देती हैं, फिर भी वे स्वयं अपने भीतर और बडी सफलताओं की योजनाओं में ही चिंताग्रस्त बने रहते हैं। उनकी हीनता का आंतरिक भाव किसी भी सफलता से नष्ट नहीं होता है। हर नई सफलता उन्हें और आगे की सफलताओं की चुनौती बन कर ही आती है। इस भांति जिन सफलताओं को उन्होंने समाधान जाना था, वे और नई समस्याओं की जन्मदात्री-मात्र ही सिद्ध होती हैं। जब भी किसी जीवन-समस्या को गलत ढंग से पकडा जाता है, तो परिणाम यही होता है। समस्या के समाधान समस्या से भी बडी समस्याएं बनकर आते हैं।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि किसी भी रोग को ढांकने से कभी भी कोई छुटकारा नहीं है। इस भांति रोग मिटते नहीं, बल्कि और पुष्ट ही होते हैं। हीनभाव ग्रंथि से पीडित चित्त उसे ढांकने और भूलने के प्रयास में ही महत्वाकांक्षा से भर जाता है। महत्वाकांक्षा की त्वरा में स्वयं को विस्मरण करना आसान भी है। फिर चाहे यह महत्वाकंाक्षा संसार की हो, या मोक्ष की, इससे कोई भेद नहीं पडता है। महत्वाकांक्षा मादक है। उसका नशा गहरी आत्मविस्मृति लाता है। लेकिन व्यक्ति जिस नशे का या नशे की जिस मात्रा का आदी हो जाता है फिर उससे मादकता नहीं आती है। इसलिए चित्त को नशों की ज्यादा से ज्यादा मात्राएं चाहिए, और नये-नये नशे चाहिए। इसलिए महत्वाकांक्षाएं ब.ढती ही जाती हैं। उनका कोई अंत ही नहीं आता है। उनका अथ तो है, पर इति नहीं है। और जब सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से व्यक्ति ऊब जाता है या उसकी मौत निकट आने लगती है तो फिर तथाकथित धार्मिक महत्वाकांक्षाएं शुरू होती हैं। वे और भी इंद्रजालिक हैं। उनका नशा और भी गहरा है, क्योंकि प्रत्यक्ष में उनकी उपलब्धि न होने से उनके अंग-भंग होने का भय भी नहीं होता है।
व्यक्ति जब तक स्वयं की वास्तविकता से अन्य होना चाहता है, तब तक वह किसी न किसी रूप में महत्वाकांक्षा के ज्वर से ही ग्रस्त होता है। स्वयं से अन्य होने की आकांक्षा में वह स्वयं जैसा है, उसे ढांकता है और भूलता है। लेकिन क्या किसी तथ्य का ढंक जाना और उससे मुक्त हो जाना एक ही बात है? क्या किसी तथ्य की विस्मृति और उसका विसर्जन एक ही बात है? नहीं, हीनता की विस्मृति, हीनता से मुक्ति नहीं है। यह तो अत्यंत अबुद्धिपूर्ण प्रतिक्रिया है। इसीलिए तो ज्यों-ज्यों दवा की जाती है, त्यों-त्यों मर्ज ब.ढता ही जाता है। महत्वाकांक्षी चित्त की प्रत्येक सफलता आत्मघाती है, क्योंकि वह महत्वाकांक्षा की अग्नि में घृत का ही काम करती है। सफलता तो आ जाती है, लेकिन हीनता नहीं मिटती, इसीलिए और बडी सफलताएं आवश्यक और अपरिहार्य हो उठती हैं। मूलतः यह तो हीनता का ही ब.ढते जाना है।
मनुष्य का समग्र इतिहास ऐसे ही रुग्ण-चित्त अस्वस्थ लोगों से भरा पडा है। तैमूरलंग, सिकंदर या हिटलर और क्या हैं? कृपा करके उन बेचारों पर हंसे नहीं, क्योंकि बीमारों पर हंसना शिष्टता नहीं है। फिर इस कारण से भी हंसना अनुचित है, क्योंकि उनकी बीमारियों के कीटाणु हम सबके भी भीतर मौजूद हैं। हम भी उनके ही वसीयतदार हैं। व्यक्ति नहीं, पूरी मनुष्य-जाति ही महत्वाकांक्षा के रोग से ग्रसित है। और इसीलिए तो वह महारोग हमारी दृष्टि में भी नहीं आता है। मेरी दृष्टि में तो मानसिक स्वास्थ्य का अनिवार्य लक्षण महत्वाकांक्षा-मुक्त जीवन ही है। महत्वाकांक्षा रुग्णता है और इसीलिए वह विध्वंसात्मक है। रोग तो सदा ही मृत्यु के अनुचर हैं। महत्वाकांक्षा विध्वंस है, हिंसा है। वह रुग्णचित्त से निकली घृणा है, ईष्र्या है। मनुष्य-मनुष्य के बीच संघातिक संघर्ष वही तो है। युद्ध वही तो है। मोक्ष तक की महत्वाकांक्षा विध्वंसक होती है। वह आत्महिंसा बन जाती है। वह स्वयं से ही शत्रुता बन जाती है। सांसारिक महत्वाकांक्षा औरों के प्रति हिंसक है। मोक्ष की महत्वाकांक्षा स्वयं के प्रति ही हिंसक है। जहां महत्वाकांक्षा है, वहां हिंसा है। यह दूसरी बात है कि वह बहिर्गामी हो या अंतर्गामी, पर हिंसा सदा ही प्रत्येक स्थिति और रूप में विध्वंसक होती है। इसीलिए केवल वे चेतनाएं ही सृजनात्मक हो सकती हैं, जो महत्वाकांक्षा से मुक्त होती हैं। सृजनात्मकता केवल स्वस्थ और शांत चित्त से ही स्फूर्त हो सकती है। स्वस्थ चित्त स्वयं में स्थित होता है, कुछ और होने की दौ.ड उसमें नहीं होती है। कुछ और होने की दौड के धुएं में व्यक्ति उसे नहीं जान पाता है, जो वह है। और स्वयं को न जानना ही वह मूल और केंद्रीय अभाव है, जिससे सारी हीनताओं का आविर्भाव होता है।
आत्मज्ञान के अतिरिक्त अभाव से और कोई मुक्ति नहीं है। महत्वाकांक्षाएं नहीं, आत्मज्ञान ही अभाव से मुक्त करता है। और उसके लिए चित्त से महत्वाकांक्षाओं की विदाई अत्यंत आवश्यक है।
तैमूर और बैजद के बीच हुई एक चर्चा मुझे याद आ गई है।
सुलतान बैजद युद्ध में हार गया था और विजेता तैमूर के समक्ष बंदी बनाकर लाया गया था। उसे देख कर अनायास ही तैमूर जोर से हंसने लगा था। इस पर अपमानित बैजद ने बडे अभिमान से सर उठा कर कहा थाः ‘‘जंग में फतह पाकर इतना गर्व मत करो तैमूर, याद रखो कि दूसरे की शिकस्त पर हंसने वाला एक दिन खुद अपनी शिकस्त पर आंसू बहाता है!’’
सुलतान बैजद काना था और तैमूर लंगडा। काने बैजद की बात सुन कर लंगडा तैमूर और दुगनी तेजी से हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं इतना बेवकूफ नहीं कि इस छोटी सी जीत पर हंसूं! मुझे तो अपनी और तुम्हारी स्थिति पर हंसी आ रही है! देखो न, तुम काने और मैं लंगडा! मैं तो यह सोच कर हंसा कि खुदावंद हम-तुम जैसे लंगडों-कानों को क्यों बादशाहतें देता है? ’’
मैं कब्र में सोए तैमूर से कहना चाहता हूंः ‘‘यह दोष खुदावंद का नहीं है। वस्तुतः लंगडों-कानों के अतिरिक्त और कोई बादशाहतें पाने को उत्सुक ही नहीं होता है।’’
क्या यह सत्य नहीं है कि जिस दिन मनुष्य-चित्त स्वस्थ होगा, उस दिन बादशाहतें नहीं होंगी? क्या यह सत्य नहीं है कि जो स्वस्थ हुए हैं, उनसे बादशाहतें सदा ही छूटती रही हैं?
मनुष्य स्वयं में किसी भी भांति की हीनता पाकर उससे पलायन करने लगता है। वह ठीक उसकी विपरीत दिशा में दौडने लगता है। और यहीं भूल हो जाती है। सब हीनताएं बहुत गहरे में आंतरिक अभाव की सूचनाओं से ज्यादा नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति ही आंतरिक अभाव में है। एक रिक्तता प्रत्येक को ही अनुभव होती है। इस आंतरिक रिक्तता को ही बाह्य उपलब्धियों से भरने की चेष्टा चलती है। लेकिन आंतरिक रिक्तता के गड्ढे को बाह्य से भरना कैसे संभव है? क्योंकि जो बाह्य है, वह इसी कारण तो आंतरिक को भरने में असमर्थ है। और सभी-कुछ तो बाह्य हैः धन, पद, गुण, प्रभुता, धर्म, पुण्य, त्याग, ज्ञान, परमात्मा, मोक्ष। फिर आंतरिक क्या है? उस अभाव, उस रिक्तता और शून्यता को छोड कर और कुछ भी आंतरिक नहीं है। इससे उस शून्य से भागना स्वयं से ही भागना है। उससे पलायन स्वयं की सत्ता से ही पलायन है। उससे भागने में नहीं, वरन उसमें जीने और जागने में ही कल्याण है। जो व्यक्ति उसमें जीने और जागने का साहस करता है, उसके समक्ष वह शून्य ही पूर्ण बन जाता है। उसके लिए वह रिक्तता ही परम मुक्ति सिद्ध होती है। उस ना-कुछ में ही सब-कुछ है। उस शून्य में ही सत्ता है। वह सत्ता ही परमात्मा है।
ओशो

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