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रविवार, 28 अक्तूबर 2018

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

स्वयं की पहचान क्या?

मेरे प्रिय आत्मन!
एक छोटी सी कहानी से मैं तीन दिनों की इन चर्चाओं को शुरू करना चाहूंगा।
एक व्यक्ति बहुत विस्मरणशील था। छोटी-छोटी बातें भी भूल जाता था। बड़ी कठिनाई थी उसके जीवन में, कुछ भी स्मरण रखना उसे कठिन था। रात वह सोने को जाता तो अपने कपड़े उतारने में भी उसे कठिनाई होती, क्योंकि सुबह उसने टोपी कहां पहन रखी थी और चश्मा कहां लगा रखा था और कोट किस भांति पहन रखा था वह भी सुबह तक भूल जाता था। तो करीब-करीब कपड़े पहन कर ही सो जाता था ताकि सुबह फिर से स्मृति को कष्ट देने की जरूरत न पड़े। पास में ही एक चर्च था और चर्च के पुरोहित ने जब उसके विस्मरण की यह बात सुनी तो बहुत हैरान हुआ। और एक रविवार की सुबह जब वह आदमी चर्च आया तो उसे कहा कि एक किताब पर लिख रखो कि कौन सा कपड़ा कहां पहन रखा था, किस भांति पहन रखा था ताकि तुम रात में कपड़े उतार सको और सुबह उस किताब के आधार पर उन्हें वापस पहन सको। उस रात उसने कपड़े उतार दिए और किसी किताब पर सब लिख लिया।

सुबह उठा और सब तो ठीक था। टोपी सिर पर पहननी है यह भी लिखा था। कोट कहां पहनना है यह भी लिखा था। कौन सा मोजा किस पैर में पहनना है यह भी लिखा था, कौन सा जूता किस पैर में डालना है यह भी लिखा था। लेकिन वह यह लिखना भूल गया कि खुद कहां है और तब बहुत परेशान हुआ। सब चीजें तो ठीक थीं, और सब चीजें कहां पहननी हैं यह भी ज्ञात था लेकिन मैं कहां हूं, यह वह रात लिखना भूल गया था। वह सुबह मुंह अंधेरे ही पादरी के घर पहुंच गया। नग्न था बिलकुल, पादरी भी देख कर घबड़ा गया और पहचान न पाया। हमारी सारी पहचान तो वस्त्रों की है। नग्न व्यक्ति को देख कर शायद हम भी न पहचान पाएं कि वह कौन है।
पादरी बहुत हैरान हुआ, उसने पूछा, आप कौन हैं और कैसे आए? उस व्यक्ति ने कहाः यही तो पूछने मैं भी आया हंू कि मै कौन हंू और कहां हूं? क्योंकि बाकी सारे वस्त्र तो ठीक हैं लेकिन रात में यह लिखना भूल गया-अपने बाबत लिखना भूल गया। पता नहीं उस धर्म-पुरोहित ने क्या उसे कहा। उससे कोई संबंध भी नहीं। लेकिन इस कहानी से मैं इसलिए इन तीन दिनों की चर्चाओं को शुरू करना चाहता हंू, क्योंकि करीब-करीब इसी हालत में हम सारे लोग हैं। हमें ज्ञात हैं बहुत सी बातें, जीवन का सब कुछ ज्ञात है सिर्फ एक तथ्य को छोड़ कर कि हम कहां हैं और कौन हैं? मैं कौन हंू? इसका हमें कोई भी स्मरण नहीं है। और उस व्यक्ति के साथ बात तो ठीक भी थी, क्योंकि वह और सब बातें भी भूल जाता था इसलिए यह बहुत स्वाभाविक मालूम होता है कि अपने को भी भूल जाए। लेकिन हमारे साथ बड़ी मुश्किल है। हमें और सब बातें तो याद हैं, यह हमें याद नहीं कि हम कौन हैं और कहां है? इसलिए उस पर हंसना उतना उचित नहीं है जितना अपने पर हंसना उचित होगा। विस्मरण उसकी आदत थी। विस्मरण हमारी आदत नहीं है और सब कुछ हमें स्मरण है। सिर्फ एक बात स्मरण नहीं है। इसलिए हम कपड़े भी ठीक से पहन लेते हैं और जूते भी, और घर भी ठीक से बसा लेते हैं, लेकिन जीवन हमारा ठीक नहीं हो पाता है। जीवन हमारा ठीक होगा भी नहीं। जो केंद्रीय है जीवन में उसकी हमें कोई स्मृति नहीं। और मैने कहा कि नग्न जब वह धर्म-पुरोहित के द्वार पर खड़ा हो गया। तो धर्म पुरोहित भी पहचान नहीं पाया कि वह कौन है क्योंकि हम सभी एक दूसरे को वस्त्रों से ही पहचानते हैं। यहां हम इतने लोग आए हैं अगर निर्वस्त्र आ जाएं तो कोई किसी को पहचान भी नहीं सकेगा कि कौन कौन है? लेकिन यह तो ठीक भी है कि हम दूसरों को वस्त्रों से पहचानें। बड़े मजे और आश्चर्य की बात तो यह है कि हम अपने को भी अपने वस्त्रों से पहचानते हैं। अपनी आत्मा का तो हमें कोई स्मरण नहीं, अपने स्वरूप का तो हमें तो कोई बोध नहीं, तो अपने वस्त्रों और बहुत प्रकार के वस्त्र हैं। वस्त्र हम जो पहने हुए हैं वे धन के, पदवियों के, पदों के, सामाजिक प्रतिष्ठा के, अहंकार के, उपाधियों के, वे सारे वस्त्र हैं और उनसे ही हम अपने को भी पहचानते हैं? वस्त्रों से जो अपने को पहचानता है उसका जीवन यदि अंधकारपूर्ण हो जाए, यदि उसका जीवन दुख से भर जाए, पीड़ा और विपन्नता से, तो आश्चर्य नही है क्योंकि वस्त्र हमारे प्राण नहीं हैं, और वस्त्र हमारी आत्मा नहीं हैं। लेकिन हम अपने को अपने वस्त्रों से ही जानते हैं। उससे गहरी हमारी कोई पहुंच नहीं है।
इन तीन दिनों में इन वस्त्रों के बाहर जो हमारा होना है उस तरफ, उस दिशा में कुछ बातें आपसे कहंूगा और यह स्मरण दिलाना चाहूंगा कि जो वस्त्रों में खोया है वह अपने जीवन को गवां रहा है। और जो केवल वस्त्रों में अपने को पहचान रहा है, वह अपने को पहचान ही नहीं रहा है, वह अपने को पा भी नहीं सकेगा। और जो व्यक्ति अपने को ही ना पा सके उसके और कुछ भी पा लेने का कोई भी मूल्य नहीं है। अपने को खोकर अगर सारी दुनियां भी पाई जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
एक और छोटी कहानी मुझे स्मरण आई वह मैं कहूंू और फिर आज की सुबह इस आत्म-विस्मरण के संबंध में जो मुझे कहना है वह आपको कहंूगा। तीन मित्र यात्रा पर निकले। पहली ही रात एक जंगल में उन्हें विश्राम करना पड़ा। खतरनाक स्थान था जंगली जानवरों का डर था। डाकू और लूटेरों का भी भय था। अंधेरी रात थी तो उन तीनों ने तय किया कि एक-एक व्यक्ति जागता रहे, दो सोएं और एक जागा हुआ पहरा दे। एक तो उनमें गांव का पंडित था, एक उनमें गांव का लड़ाका बहादुर क्षत्रिय था, एक गांव का नाई था। नाई को ही सबसे पहले पासा फेंका गया और उसका ही सबसे पहले नाम पड़ा। वह रात पहरा देने के लिए पहले पहर बैठा। नींद उसे जल्दी आने लगी। दिन भर की थकान थी तो किसी भांति अपने को जगाए रखने के लिए उसने बगल में सोए हुए क्षत्रिय मित्र की हजामत बनानी शुरू कर दी। जागे रखने के लिए अपने को उसने अपने मित्र के सारे बाल काट डाले। उसका समय पूरा हुआ। तीसरा जो मित्र था वह था, रात्रि के अंतिम पहर में उस पंडित को पहरा देने को था। उसके तो बाल नहीं थे उसका तो सिर पहले से ही साफ था, उसके सारे बाल गिर गए थे। दूसरे मित्र का जैसे ही मौका आया उस नाई ने उसे उठाया और कहा कि मित्र उठो! तुम्हारा समय आ गया। अब मैं सोऊं। उस क्षत्रिय ने अपने सिर पर हाथ फेरा और देखा बाल बिलकुल भी नहीं हैं तो उसने कहा कि मालूम होता है कि तुमने मेरी जगह भूल से पंडितजी को उठा दिया है। उसने अपने सिर पर हाथ फेरा और कहा मालूम होता है कि भूल से मेरी जगह पंडितजी को उठा दिया था और वह वापस सो गया। हम अपने को इसी भांति पहचानते हैं। हमारी पहचान हमारे वस्त्रों तक है। अगर बहुत गहरी जाती है तो अपने शरीर तक जाती है। पर वह भी वस्त्र से ज्यादा गहरा नहीं है। और भी गहरी जाती हो तो मन तक जाती है।
मन भी वस्त्रों से ज्यादा गहरा नहीं है। लेकिन उससे गहरी हमारी कोई पहचान नहंीं जाती। जीवन में सारा दुख और सारा अंधकार इस आत्म-अज्ञान से पैदा होता है। केंद्र पर, अपने स्वयं के केंद्र पर अंधकार होता है और हम सारे रास्तों पर दीये जलाने की कोशिश करते हैं। वे सब दीये काम नहीं प.ड़ते। क्योंकि मेरे भीतर अंधकार होता है तो मैं जहां भी जाता हूं अपने साथ अंधकार ले जाता हंू। उन रास्तों पर भी जहां कि मैने प्रकाश के दीये जलाए हैं, मेरे पहुंचने से अंधकार हो जाता है क्योंकि मैं अंधकार हंू। जब तक मैं स्वयं को नही जानता तब तक मैं अंधकार हंू। मैं अपने अंधकार को लिए फिरता हूं जीवन में और सारे लोग अपने-अपने अंधकार को लिए फिरते हैं। हम सब जहां इकट्ठे हो जाते हैं वहाँ अंधकार बहुत घना हो जाता है। एक-एक व्यक्ति उतने अंधकार में है और जहां पूरी मनुष्य-जाति इकट्ठी हो वहां अंधकार बहुत घना हो जाता है। मनुष्य-जाति के पिछले तीन-चार हजार वर्षों का इतिहास इसी अंधकार का इतिहास है। फिर इस अंधकार से संघर्ष पैदा होता है, युद्ध पैदा होते हैं,हिंसा पैदा होती है। इस अंधकार से, ईष्र्या पैदा होती है, घृणा पैदा होती है, क्रोध पैदा होता है। इस अंधकार से विध्वंस पैदा होता है। हम खुद दुखी होते हैं औरों को दुखी करते हैं। ये कोई तीन-चार हजार वर्षों से चला है और अब तक हम सफल नहीं हो पाए हैं इस बात में कि एक ऐसा समाज निर्मित हो सके जिसका जीवन प्रकाश से आलोकित हो, प्रकाश से मंडित हो।
क्या आपको ज्ञात है कि तीन हजार वर्षों में कोई चैदह हजार छह सौ युद्ध हुए। केवल तीन हजार वर्षों में चैदह हजार छह सौ युद्ध, कोई पंद्रह हजार युद्ध। प्रति वर्ष पांच युद्ध। हम शायद लड़ते ही रहे हैं। हमने कुछ और नहीं किया। और ये तो बड़े-बड़े युद्धों की बात है। रोज हम जो छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ रहे हैं उनकी तो कोई गिनती नहीं है। जो हम रोज छोटी-छोटी हिंसा कर रहे हैं उसका तो कोई आकलन नहीं, कोई गणना नहीं है। अगर तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध हमें लड़ने पड़े हों तो क्या इससे यह सूचना नहीं मिलती है कि मनुष्य-जाति का मस्तिष्क किसी बहुत गहरे रोग से पीड़ित है? कोई इन तीन हजार वर्षों में मुश्किल से थोड़े से वर्ष हैं जब युद्ध न हुआ हो और उन वर्षों को भी हम शांति का समय नहीं कह सकते क्योंकि उन क्षणों में हमने नये युद्धों की तैयारियां की हैं। या तो हम लड़ते रहे हैं या हम लड़ने की तैयारियां करते रहे हैं। मनुष्य के पूरे इतिहास को दो खंडों में बांटा जा सकता है। युद्ध के खंड और युद्ध की तैयारियों के खंड। शांति हमने अब तक नहीं जानी। और व्यक्तिगत जीवन में भी हम देखें तो शांति का कहीं भी कोई, कहीं कोई पता नहीं मिलेगा। कोई आनंद की किरण उपलब्ध नहीं होगी। कोई प्रेम का संगीत नहीं सुनाई पड़ेगा। हम सारे लोग यहां इकट्ठेे हैं। कौन अपने भीतर प्रेम के संगीत को अनुभव करता है?
कौन अनुभव करता है अपने भीतर सुगंध को जीवन की, कौन अनुभव करता है जीवन की धन्यता को, कृतार्थता को? एक अर्थहीनता, एक मीनिंगलेसनेस हमें पकड़े है। लेकिन किसी भांति हम जीए जाते हैं कल की आशा में। शायद कल सब ठीक हो जाएगा। लेकिन जिसका आज गलत है उसका कल कैसे ठीक होगा? क्योंकि कल तो आज से ही निकलेगा, आज से ही पैदा होगा। अगर आज दुख से भरा है तो स्मरण रखें कल आनंद से भरा हुआ नहीं हो सकता है क्योंकि कल का जन्म तो आज से होगा। कल आने वाला जीवन आप पैदा करेंगे उसे आप प्रतिक्षण पैदा कर रहे हैं। तो यदि आज दुखी हैं तो जान लें कि कल भी दुखी रहेंगे। कल की आशा में, कल की सुख की आशा में आज के दुख को झेला तो जा सकता है। लेकिन कल के सुख को निर्मित नहीं किया जा सकता है। कल के आनंद की कल्पना में आज की पीड़ा को सहा जा सकता है लेकिन कल के आनंद को पैदा नहीं किया जा सकता है। इसलिए आनंद है केवल आशा और जीवन है दुख ऐसा हमारे सबके अनुभव में है। यह कोई सिद्धांत की बात नहीं है। जो भी अपने जीवन को थोड़ा सा खोल कर देखेगा उसे यह दिखाई पड़ेगा ये सीधे तथ्य हैं। जीवन के संबंध में पहला तथ्य यही है कि जिस भांति हम उसे जी रहे हैं उस भांति कहीं कोई, कहीं आनंद का फूल उसमें नहीं लगता है और ना लग सकता है। इसीलिए कल की आशा पर, कल ठीक हो जाएगा, कल आने वाले वर्ष या आने वाली जिंदगी में, परलोक में पुर्नजन्म में सब ठीक हो जाएगा ये सब कल की आशा का विस्तार है। कोई सोचता हो कि इस जन्म के बाद अगले जन्म में सब ठीक हो जाएगा। वह उसी तरह की भ्रांति में है जिस तरह की भ्रांति में जो सोचता है आज दुख है कल शांति, कल सुख हो जाएगा। कोई सोचता हो मोक्ष में सब ठीक हो जाएगा तो भ्रांति में है। क्योंकि कल मुझसे पैदा होगा। आने वाला जन्म भी, मोक्ष भी, जो भी होने वाला है वह मुझ से पैदा होगा। और अगर मेरा आज अंधकारपूर्ण है तो कल मेरा प्रकाशित नहीं हो सकता। फिर क्या हम निराश हो जाएं और कल की सारी आशा छोड़ दें? मैं आपसे कहता हंू कि निश्चित ही कल के प्रति कोई आशा रखने का कारण नहीं है।
लेकिन इससे निराश होने का भी कोई कारण नहीं है। आज के प्रति आशा से भरा जा सकता है। आज को परिवर्तित किया जा सकता है। मैं जो हंू उस होने में क्रांति लाई जा सकती है। मैं कल क्या होऊंगा इसके द्वारा नहीं बल्कि जो मैं अभी हंू उसके ज्ञान, उसके बोध उसके प्रति जागरण से, उसे जान लेने से। आत्म स्मृति से क्रांति उत्पन्न हो सकती है। यदि मैं जान सकूं स्वयं को तो वह दीया उपलब्ध हो जाएगा जो मेरे जीवन से अंधकार को नष्ट कर देगा और स्वयं को जाने बिना और न कोई दीया है और न कोई प्रकाश है, न कोई आशा है। पहली बात हम स्वयं को नहीं जानते हैं। ये जान लेना स्वयं को जानने के प्रति पहला चरण है। कोई सोचता हो कि मैं स्वयं को जानता हंू तो स्वयं को जानने के प्रति द्वार बंद हो जायेंगे और धर्म की बहुत सी शिक्षाओं ने, संस्कृति ने इधर हजारों वर्ष से दोहराए गए सिद्धांतों ने, आत्मा और परमात्मा की बातों ने हम में से बहुतों को यह भ्रम पैदा कर दिया है कि हम अपने को जानते हैं। इस भ्रम ने हमारे आत्म-अज्ञान को गहरा किया है। स्वयं को जानने के भ्रम से बड़ा, इन शब्दों और सिद्धांतों के आधार पर स्वयं को जानने के भ्रम से बड़ा, आत्म-ज्ञान में, और कोई दूसरा अटकाव कोई दूसरी दीवाल, कोई दूसरा अवरोध नहीं है। छोटे से बच्चे भी जानते हैं कि हम आत्मा हैं और बूढ़े भी दोहराते हैं कि हम आत्मा हैं। यह सत्य है, यह सत्ता का अनुभव हो तो जीवन बिलकुल दूसरा हो जाएगा। ये सिद्धान्त हैं, ये स्वयं की प्रतीति और साक्षात हो तो जीवन नया हो जाए और जीवन आनंद से भर जाए।
लेकिन इन शब्दों को हमने सहारों की भांति पकड़ा हुआ है। अज्ञान में इन शब्दों से पैदा हुए झूठे ज्ञान को हमने बहुत तीव्रता से पकड़ा है उसे छोड़ने में भी भय मालूम होता है। इसलिए जैसे-जैसे आदमी मृत्यु के करीब पहुंचता है वैसे-वैसे इन शब्दों को और जोर से पकड़ लेता है। वैसे-वैसे गीता, कुरान और बाइबिल उसके मस्तिष्क पर और जोर से बैठते जाते हैं। वैसे-वैसे वह मंदिरों के द्वार खटखटाने लगता है। और साधु-संन्यासियों के सत्संग में बैठने लगता है ताकि इन शब्दों को जोर से पकड़ ले, ताकि आती हुई मौत के विरोध में कोई सुरक्षा का उपाय बना ले। इसलिए जितने लोग मृत्यु से भयभीत होते हैं वे सभी आत्मा की अमरता में विश्वास कर लेते हैं। उनका यह विश्वास उनका ज्ञान नहीं है। कोई विश्वास कभी ज्ञान नहीं होता। सब विश्वास अज्ञान होते हैं। जीवन के प्रति जो भी हम माने हुए बैठे हैं वह सब हमारा अज्ञान है और उस मानने के कारण ज्ञान तक जाने का सारा द्वार बंद है। स्वयं की स्मृति में, स्वयं के संबंध में प्रचलित सिद्धांत सबसे बड़ी बाधाएं हैं। सिद्धांत तो क्या बाधा हैं हम उन पर विश्वास कर लेते हैं ये बाधा है। हमारे विश्वास बाधा हैं। और जो व्यक्ति जितने ज्यादा विश्वासों से ग्रसित हो जाता है उसके जीवन में विवेक के अवतरण का, विवेक के आगमन का, विवेक के उठने और जगने की संभावना का, उतना ही उसी मात्रा में ह्रास हो जाता है। असंभव हो जाती है यह बात कि हम स्वयं को जान सकें। क्योंकि स्वयं को जानने के सिद्धांत हमें यह भ्रम पैदा कर देते हैं कि हम जानते हैं और ये भ्रम बहुत तलों पर हैं।
एक संन्यासी एक राजा के घर मेहमान था। उस राजा ने सुबह ही आकर उस संन्यासी को पूछा, मैं सुनता हंू कि आप परमात्मा की बातें करते हैं। क्या मुझे परमात्मा से मिला दे सकेंगे? यह बात उस राजा ने अपने जीवन में और भी न मालूम कितने संन्यासियों से पूछी थी। इस संन्यासी से भी पूछी। और जो अपेक्षा थी और जो संन्यासियों ने बातें कही थीं सोचा वही बातें यह संन्यासी भी कहेगा। करीब-करीब संन्यासी एक ही जैसी बातें दोहराते हैं। सोचा यह भी वही कहेगा, कुछ उपनिषद, कुछ वेदों की, कुछ ग्रंथों की, कुछ उद्धरण देगा, कुछ गीता की, कुछ ज्ञान की बातें समझाएगा। लेकिन उस संन्यासी ने क्या पूछा? उस संन्यासी ने कहाः आप ईश्वर से मिलना चाहते हैं तो थोड़ी देर रुक सकते हैं या बिलकुल अभी मिलने की इच्छा है?
वह राजा थोड़ा हैरान हुआ। कोई भी हैरान होता। यह खयाल न था कि बात इस भांति पूछी जाएगी। सोचा शायद समझने में भूल हो गई हैै। उसने कहा कि शायद आप समझे नहीं मैं परमात्मा से, ऊपर जो परमात्मा है उससे मिलने की बात कर रहा हंू। उस संन्यासी ने कहा कि समझने में भूल का कोई कारण नहीं। मैं तो उस परमात्मा के सिवाय और किसी की बात करता ही नहीं। अभी मिलना चाहते हैं या थोड़ी देर ठहर सकते हैं? उस राजा ने कहा कि जब आप कहते ही हैं तो मैं अभी ही मिलना चाहंूगा। ऐसे उसकी कोई तैयारी नहीं थी इतने जल्दी परमात्मा से मिलने की। और किसी की भी इतने जल्दी कोई तैयारी नहीं होती। ईश्वर के खोजियों से पूछा जाए अभी मिलना चाहेंगे। तो वे भी कहेंगे कि हम थोड़ा सोच कर आते हैं विचार करके आते हैं। हम थोड़ा मित्रों से पूछ लें पति हो तो पत्नी से पूछ ले, पत्नी हो तो पति से पूछ ले, हम जरा अपने घर के लोगों से पूछ लें फिर हम लौट कर आते हैं। इसी वक्त तो ईश्वर से मिलने को कौन तैयार होगा। वह राजा भी तैयार नहीं था लेकिन जब बात ही मुसीबत ही आ पड़ी थी सिर पर तो उसने कहा कि ठीक है आप कहते हैं तो मैं अभी मिल लूंगा। संन्यासी ने कहा लेकिन इसके पहले मैं आपको परमात्मा से मिलाऊं यह छोटा सा कागज है इस पर अपना परिचय लिख दें और लिखा उसने जो उसका परिचय था। बड़े राज्य का राजा था, महल का पता, वह सब लिखा।
संन्यासी ने पूछा कि क्या मैं मान लूं कि यही आपका परिचय है? क्या मैं मान लूं कि कल आप भिखारी हो जाएं और राज्य छिन जाए तो बदल जाएंगे?
उस राजा ने कहा कि नहीं, राज्य छिन जाए तो भी मैं तो मैं ही रहंूगा। तो संन्यासी ने कहा कि फिर राजा होना आपका परिचय नहीं हो सकता, क्योंकि राज्य छिन जाने पर भी आप रहेंगे और आप ही रहेंगे व भिखारी होने पर भी आप ही रहेंगे। तो फिर राजा होना आपका परिचय नहीं हो सकता। और यह जो नाम लिखा है, मां-बाप दूसरा नाम भी दे सकते थे और आप भी चाहें तो दूसरा नाम रख ले सकते हैं, उससे भी बदल नहीं जाएंगे। उस राजा ने कहाः नाम से क्या फर्क पड़ता है, मैं तो मैं ही रहंूगा, नाम कोई भी हो। तो संन्यासी ने कहा कि इसका अर्थ हुआ कि आपका कोई नाम नहीं है। नाम केवल कामचलाऊ बात है। कोई भी नाम काम दे सकता है। इसलिए नाम भी आपका परिचय नहीं है। तो फिर क्या मैं मानंू कि आपको अपना परिचय पता नहीं है? क्योंकि दो ही बातें आपने लिखी हैं राजा होना और अपना नाम। उस राजा ने वह कागज वापस ले लिया और कहाः मुझे क्षमा करें। अगर मेरा नाम, मेरा धन, मेरा पद और मेरी प्रतिष्ठा मेरा परिचय नहीं है तो फिर मुझे पता नहीं कि मैं कौन हंू? उस संन्यासी ने कहा फिर परमात्मा से मिलाना बहुत कठिन है क्योंकि मैं किसको मिलाऊं, मैं किसकी खबर भेजूं, कौन मिलना चाहता है?
जाओ और खोजो कि कौन हो और जिस दिन खोज लोगे उस दिन मेरे पास नहीं आओगे कि परमात्मा से मिला दो क्योंकि तुम जिस दिन स्वयं को पा लोगे उस दिन उसे भी पा लोगे जो सबके भीतर है। क्योंकि जो मेरे भीतर है और जो किसी और के भीतर है और जो सबके भीतर है, वह बहुत गहरे में संयुक्त है, और एक है और समग्र है। लेकिन इस ‘मैं’ का तो हमें कोई भी पता नही है। तो या तो हम अपने नाम को, अपने घर को, अपने परिवार को समझते हैं कि यह मेरा होना है, अगर किसी भांति इससे हमारा छुटकारा हो जाए और ये हम जान सकें कि मेरा नाम, मेरा घर, मेरा वंश, मेरा राष्ट्र, मेरी जाति, मेरा धर्म यह मेरा होना नहीं है अगर किसी भांति यह बोध भी आ जाए तो फिर हम तोतों कि भांति उन शब्दों को दोहराने लगते हैं जो ग्रंथों में लिखे हैं और शास्त्रों में कहे हैं। तब हम दोहराने लगते हैं कि मैं आत्मा हंू, मैं परमात्मा हंू। अहं-ब्रह्मास्मि और-और न मालूम क्या-क्या हम दोहराने लगते हैं। मैं आपसे कहंू कि जिस भांति नाम आपको सिखाया गया है उसी भांति ये बातें भी आपको सिखाई गईं हैं इनमें भेद नहीं है। जिस भांति यह कहा गया है कि आप का यह नाम है और आपने पकड़ लिया है, उसी भांति यह भी कहा गया है कि आपके भीतर परमात्मा है और आपने यह भी पकड़ लिया है। इन दोनों बातों में कोई फर्क नहीं है। जब तक हम बाहर से आए हुए शब्दों को पकड़ते हैं तब तक हम स्वयं से परिचित नहीं हो सकेंगे वे शब्द चाहे पिता ने दिए हो, चाहे समाज ने, चाहे ऋषियों ने, मुनियों ने, साधु ने, संतों ने किन्हीं ने भी वे शब्द दिए हों, जब तक बाहर से आए हुए परिचय को हम पकड़ेंगे तब तक उस परिचय का जन्म नहीं हो सकेगा जो हमारा परिचय है। तब तक हम उसे नहीं जान सकेंगे। तब तक उसे जानने का कोई मार्ग नहीं है।
तो या तो हम जिसे सांसारिक कहते हैं उस तरह के परिचय को पकड़ लेते हैं या जिसे आध्यात्मिक कहते हैं उस तरह के परिचय को पकड़ लेते हैं। लेकिन दोनों परिचय पकड़े गए होते हैं। दोनों परिचय बाहर से मिलते हैं। जो परिचय बाहर से मिलता है वह आत्म-परिचय नहीं है। इसलिए यह बात जितनी झूठी है कि मेरा नाम मैं हंू उतनी ही यह बात भी झूठी होगी अगर मैं बाहर से सीखंू कि मैं आत्मा हंू, परमात्मा हंू, मैं अविनाशी हंू, मैं कुछ हंू मैं कुछ हंू ये सारी बातें मैं बाहर से सीखंू तो ये बातें उतनी ही झूठी होंगी। पहली बात झूठी है यह तो हमें समझ में आ जाती है क्योंकि ये बात हजारों वर्ष से दोहराई गई है, लेकिन दूसरी बात भी झूठी है इसे समझने में थोड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि तब हम एक अटल अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान में छूट जाते हैं।
क्योंकि अगर सांसारिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है और तथाकथित आध्यात्मिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है तो फिर हमारा परिचय क्या है? तब हम एक अज्ञान में और अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान से भय मालूम होता है। अज्ञान से डर मालूम होता है।
मैं अपने को नहीं जानता हंू इस बात के बोध से भयभीत होता है चित्त इसलिए हम कोई न कोई परिचय तो मान लेना चाहते हैं। गृहस्थ का एक परिचय है और संन्यासी का एक परिचय है ये दोनों परिचय झूठे हैं। इनमें से किसी एक को हम पकड़ कर तृप्ति कर लेना चाहते हैं तो गृहस्थी से कोई छूटता है तो संन्यासी हो जाता है और संन्यास में पकड़ जाता है। और एक तरह के वस्त्रों से छूटता है तो दूसरे तरह के वस्त्रों को स्वीकार कर लेता है और एक तरह के नाम से छूटता है तो दूसरा नाम ग्रहण कर लेता है।
संन्यासी का नाम बदल देते हैं हम दूसरा नाम दे देते हैं उसे। कपड़े बदल देते हैं, दूसरे वस्त्र दे देते हैं उसे। उसका ढंग बदल देते हैं दूसरा ढंग दे देते हैं उसे लेकिन उस रिक्त स्थान में छूटने को कोई राजी नहीं है जहां हमारा कोई परिचय नहीं है न सांसारिक और न आध्यात्मिक। उस खाली जगह में खड़े होने को कोई राजी नहीं है। जो उस खाली जगह में खड़े होने को राजी हो जाता है वही केवल स्वयं को जान पाता है। जो अपने सब परिचय छोड़ देता है और अपरिचय में खड़ा हो जाता है। जो अपने संबंध में सारे ज्ञान छोड़ देता है और अज्ञान में खड़ा हो जाता है उसी अज्ञान में, उसी नॉट नोइंग में, उसी न जानने में, जब मुझे कुछ भी पता नहीं अपने बावद। और जो भी पता है उसे मैं छोड़ देता हंू। उसी स्थिति में, उसी क्रांति के क्षण में, वह परिवर्तन घटित होता है जहां स्वयं के बोध का जन्म होता है। जब तक मैं किसी भी परिचय को पकड़ता हंू तब तक उस बोध के पैदा होने की भूमिका खड़ी नहीं होती। जब तक मैं कोई भी सहारा पकड़ता हंू तब तक उसके गिरने का कोई कारण पैदा नहीं होता जो मेरे भीतर सोया है। जब मैं सब सहारा छोड़ देता हंू।
एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है। बिलकुल काल्पनिक होगी। मैने सुना है कि कृष्ण एक दिन भोजन करते थे और बीच भोजन में उठे और द्वार की तरफ भागे। जो उन्हें भोजन कराते थे उन्होंने कहा क्या करते हैं? कहां भागते हैं बीच भोजन में उठते हैं। उन्होंने कहाः मेरा एक भक्त बहुत कष्ट में पड़ा हुआ है। दुष्ट उसे सता रहे हैं, उसे पत्थर मार रहे हैं। ये कहते वे भागे, द्वार के बाहर भी निकल गए लेकिन द्वार से फिर वापिस लौट आए, भोजन करने बैठ गए। तो जिन्होंने पहला प्रश्न पूछा था उन्होंने पूछा आप लौट आए बीच से। उन्होंने कहा उस भक्त ने खुद भी पत्थर अपने हाथ में उठा लिया है। अब मेरे जाने की वहां कोई जरूरत नहीं रही। अभी लोग उसे मार रहे थे वह निहत्था, असहाय खड़ा हुआ झेल रहा था, मेरी जरूरत थी। अब उसने पत्थर खुद भी उठा लिए हैं अब मेरी कोई भी जरूरत नहीं है। कहानी तो काल्पनिक ही होगी।
लेकिन मनुष्य के जीवन में जो भी सोया है चाहे उसे कोई नाम दें, सत्य कहें, आत्मा कहें, परमात्मा या कोई और नाम दें, कृष्ण कहें, क्राइस्ट कहें या कुछ और कहें। जो भी भीतर सोया है। जब तक आप बेसहारा नहीं हो जायेंगे तब तक उसके उठने और जगने का कोई कारण नहीं है। जब तक आप कुछ पकड़ लेंगे तब तक वह सोया रहेगा और जब आपकी कोई पकड़ नहीं होगी और हाथ खाली हो जाएंगे और आप बेसहारा खड़े हो जाएंगे। जब आपकी कोई सुरक्षा नहीं रह जाएगी, कोई सहारा नहीं रह जाएगा, कोई परिचय, कोई ज्ञान और आप निपट अज्ञान में और बेसहारा खड़े होने का साहस करेंगे, उसी क्षण, उसी क्षण केवल वह जागता है जो हमारे भीतर सोया है। उसी क्षण वहां स्फुरणा होती है। उसी क्षण वहां कोई बीज टूटता है और अंकुरित होता है। उसी क्षण वहां कोई अंधकार टूटता है कोई ज्योति जागती है उसके पहले नहीं। उसके पहले असंभव है। उसके पहले बिलकुल असंभव है क्योंकि उसके पहले हम कोई न कोई पूरक कोई न कोई सब्स्टीट्यूट खोज लेते हैं। हम खोज लेते हैं उसे जो सोया है उसे जागने का कोई कारण नहीं रह जाता। हम पत्थर उठा लेते हैं फिर कठिनाई हो जाएगी। और हम कोई न कोई परिचय पकड़ लेते हैं, कोई न कोई वस्त्र पकड़ लेते हैं, कोई न कोई रूप, कोई न कोई आकृति, कोई न कोई नाम, कोई न कोई शब्द, कोई न कोई सिद्धांत, पकड़ लेते हैं अज्ञान ढक जाता है और ज्ञान के जन्म का कोई कारण नहीं रह जाता। ज्ञान के आगमन के लिए पहला द्वार स्वयं के भीतर अपने समग्र अज्ञान की स्वीकृति है।
तो आज की सुबह मैं आपको कहना चाहंूगा, ज्ञानी न बनें अपने अज्ञानी होने को जानें। ज्ञानी बनना बहुत आसान है। अपने अज्ञान को जानना और स्वीकार कर लेना बहुत दुःसाहस की बात है। क्योंकि ज्ञानी बनने में अहंकार की सहज तृप्ति होती है अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार एकदम टूट कर दो टुकड़े हो जाता है, उसके खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती। ज्ञानी होने में अहंकार की खूब तृप्ति है। तो पंडित जितना अहंकारी हो जाता है उतना तो जगत में कोई अहंकारी नहीं होता। उपदेशक जितने अहंकार से भर जाते हैं उतना तो कोई अहंकारी नहीं होता। जितना ये ज्ञान की बातें करने वाले लोग अहंकार से पीड़ित हो जाते हैं उतना तो कोई और अहंकारी नहीं होता। यह जितना ज्यादा हमें यह खयाल पैदा होता है कि कुछ शब्दों को इकट्ठा करके कुछ विचारों को इकट्ठा करके हमने जान लिया, मैं जान गया हंू। जानते तो हम कुछ भी नहीं, हमारा ‘मैं’ जरूर मजबूत होता है और भर जाता है। और फिर जिस चीज से भरने लगता है उसको हम इकट्ठा करने लगते हैं। कोई धन इकट्ठा करने लगता है क्योंकि धन के इकट्ठे करने से अहंकार भरता हुआ मालूम पड़ता है। कोई बड़े महल बनाने लगता है, ताजमहल बनाने लगता है, कोई कुछ और करने लगता है क्योंकि उससे अहंकार भरता है। कोई त्याग करने लगता है क्योंकि उससे अहंकार भरता है और हमारा अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। वह निरंतर अपने को भरने की कोशिश करता है। अगर त्याग को प्रशंसा मिलती हो आदर मिलता हो तो हम त्याग कर सकते हैं, उपवास कर सकते हैं, धूप में खड़े रह सकते हैं, सिर के बल खड़े रह सकते हैं, शरीर को सुखा सकते हैं। अगर चारों तरफ जय जयकार होता हो तो हम मरने को राजी हो सकते हैं, नहीं तो कोई शहीद मरने को राजी होता। कोई मरने को राजी होता लेकिन अहंकार को अगर तृप्ति मिलती हो तो हम सूली पर भी लटकते वक्त मुस्कुरा सकते हैं और प्रसन्न हो सकते हैं।
एक फकीर था, नसरुद्दीन। फकीर हुआ उसके पहले एक राजा के घर वजीर था। राजा और नसरुद्दीन एक दफा शिकार करने गए एक जंगल में। रास्ता भटक गए और एक छोटे से गांव में सुबह-सुबह रास्ता खोजते हुए पहुंचे। भूख लगी थी। एक घर में गए और उन्होंने नाश्ते के लिए प्रार्थना की। उस गरीब आदमी के पास दो-चार अंडे थे। उसने कुछ बनाया अंडों से और उन्हें भेंट किया। चलते वक्त राजा ने कहा कि कितना पैसा हुआ? उस देश की मुद्रा में उस गरीब ने कहा पचास रुपया। राजा बहुत हैरान हुआ। दो-चार अंडों की कीमत तो दो-चार पैसे भी नहीं हैं, पचास रुपया। उसने वजीर नसरुद्दीन से पूछा, क्या बात है। आर ऐग्स सो रेयर इन दिस पार्ट ऑफ दि कंट्री? क्या इस हिस्से में अंडे इतने कम मिलते हैं? उस नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं। ऐग्स आर नॉट रेयर सर, बट किंग्स आर। अंडे नहीं, अंडे तो बहुत मिलते हैं, अंडे कम नहीं मिलते लेकिन इस हिस्से में राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं। वह राजा पचास रुपया देने की कल्पना भी नहीं करता था लेकिन जैसे ही उसे पता चला राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं उसने पचास रुपये दिया और पचास रुपया इनाम दिए नसरुद्दीन को कि तुमने बहुत अदभुत बात कही। पचास रुपये अंडे के भी चुकाए और पचास रुपये इनाम के भी, क्यों? बड़ी तृप्ति हुई। राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं।
यह जो हमारी अस्मिता है रोज-रोज इस बात की तृप्ति खोजती रहती है जिस चीज से आप न्यून होते जाते हैं वही चीज आपके अहंकार की तृप्ति करने लगती है। एक नगर में एक महल ऊपर उठने लगता है जब तक दूसरे मकानों के बराबर होता है तब तक कोई तृप्ति नहीं होती जब दूसरे मकानों से ऊपर उठने लगता है तब तृप्ति होनी शुरू हो जाती है। और जितना ऊपर उठने लगता है और जिस दिन अकेला रह जाता है उस गांव में एक ही रह जाता है ऊंचा मकान उस दिन खूब तृप्ति होने लगती है। तो अहंकार मांगता है न्यूनता। कोई त्याग करने लगता है, कोई धन इकट्ठा करने लगता है, कोई विचार का संग्रह करने लगता है ज्ञानी बनने लगता है और जिस दिन वह ज्ञानी बनता जाता है और अकेला और धीरे-धीरे लगता है वह अकेला ही रह गया मालिक उस ज्ञान का और कोई भी मालिक नहीं है उस दिन बड़ी गहन तृप्ति होने लगती है। लेकिन अहंकार जितना-जितना पुष्ट हो जाता है स्वयं को जानना उतना ही असंभव हो जाता है। जितनी अस्मिता गहरी हो जाती है। यह जो ईगो है, यह जो मैं हंू, यह जितना सख्त और ठोस हो जाता है उतना ही उसे जानना मुश्किल हो जाता है जो मैं हंू, जो मेरा वास्तविक होना है, क्यों? क्योंकि अस्मिता मेरे द्वारा निर्मित है। अहंकार मेरा निर्माण है और मैं, मैं मेरा निर्माण नहीं हंू। मेरा होना, मेरी आत्मा, मेरी वास्तविकता मेरा निर्माण नहीं है। अस्मिता, अहंकार मेरा निर्माण है, मेरा क्रिएशन है। एक ने बड़े मकान को बना कर अपने अहंकार को निर्मित किया है, एक ने धन इकट्ठा करके, एक ने राष्ट्रपति तक की यात्रा पूरी करके अपने अहंकार को इकट्ठा किया है, एक ने ज्ञान को इकट्ठा करके अपने अहंकार को इकट्ठा किया है। यह हमारा निर्माण है यह हमने बनाया है और ‘मैं’ मेरा निर्माण नहीं हंू। तो वह जो मेरे भीतर अनिर्मित है असृष्ट है जो मेरे भीतर, मेरे जानने, मेरे होने के पहले है, मेरे करने के पहले है, मेरे जन्म के पहले जो मेरे भीतर है उसे जानने के लिए जिस अहंकार को मैंने निर्मित किया है, यह बाधा बन जाएगा।
इसलिए न तो त्यागी जानता है और न ज्ञानी और न धनी, और न पदलोलुप और न महत्वाकांक्षी। कौन जानता है? जानने के द्वार पर पहली तो बात यही है कि वह जान पाता है जो सब भांति नहीं जानता हो, इसकी स्वीकृति को उपलब्ध होता है। इस स्वीकृति को जानते ही, पहचानते ही कि मैं नही जानता हंू और कोई पकड़ने का खयाल नहीं रह जाता, मैं खाली हाथ खड़ा रह जाता हंू। खाली हाथ खड़ा रहा जाता हंू। खाली मन... मैं आपसे पूछूं कि आपका नाम क्या है आप बहुत जल्दी उत्तर दे देते हैं कि मेरा नाम राम है, विष्णु है या कुछ और है, क्यों? इतने विश्वस्त हैं कि आपका यह नाम है। कभी सोचा कभी विचारा कि यह मैं क्या कह रहा हंू। एक जल्दी से नाम निकल आता है और हम उत्तर दे देते हैं। उत्तर दे देते हैं बात खत्म हो जाती है। कभी थो.ड़ी देर ठहर जाएं और सोचें,मेरा नाम है! कुछ तो शायद भीतर एक सन्नाटा हो जाए, एक साइलेंस हो जाए, एक मौन हो जाए,कोई नाम खोजे से न मिले तो एक मौन पैदा हो जाए।
हम किसी से कोई प्रश्न पूछते हैं, उसे मालूम होता है तो शीघ्र उत्तर दे देता है। मालूम होने का मतलब अगर उसकी स्मृति में कुछ होता है तो उत्तर दे देता है। मैं पूछूं-दो और दो कितने होते हैं आप कह देते हैं चार क्योंकि आपकी स्मृति ने सीख रखा है दो और दो चार होते हैं। पूछा, उत्तर दे दिया। मैं आपसे पूछूं: भीतर कौन है तो आप कह देगें -आत्मा। यह भी स्मृति ने सीख रखा है दो और दो चार वाला उत्तर है दे दिया गया। लेकिन स्मृति ज्ञान नहीं है। तो स्वयं की खोज में पूछते वक्त कि मैं कौन हंू उत्तर की अपेक्षा न करें क्योंकि जो भी उत्तर आएगा वह स्मृति से आएगा, झूठा होगा, सीखा हुआ होगा। सब सीखी हुई बातें झूठी होती हैं, ज्ञान नहीं बनती हैं। कुछ भी सीखा हुआ ज्ञान नहीं बनता है। जीवन में जो क्षुद्र है वह सीखा जा सकता है क्योंकि वह बाहर है। जीवन में जो विराट है वह सीखा नहीं जा सकता क्योंकि वह भीतर है। जो भीतर है उसे बाहर से नहीं सीखा जा सकता; उसे जाना जा सकता है; उसे उघाड़ा जा सकता है; उसे डिस्कवर किया जा सकता है; उसे पहचाना जा सकता है लेकिन सीखा नहीं जा सकता। उसे जाना जा सकता है लेकिन याद नहीं किया जा सकता। तो जब भी प्रश्न पूछें, पूछें कि मैं कौन हूं?
और वह मनुष्य कभी धार्मिक न हो पाएगा जिसने अपने से यह न पूछा हो कि मैं कौन हूं? और वह मनुष्य कभी सत्य को न जान पाएगा और कभी आनंद को भी उपलब्ध न हो पाएगा जिसने अपने प्राणों की सारी गहराई में न पूछा हो कि मैं कौन हूं? और अगर कोई भी उत्तर आता हो तो उत्तर को इनकार कर दें क्योंकि उत्तर सीखा हुआ होता है। स्मृति से आया हुआ होगा और स्मृति तो केवल वही जानती है जो सीख लिया गया है स्मृति उसे नहीं जानती जिसे हम नहीं जानते। जो अज्ञात है, अननोन है, जो अभी अपरिचित है उसे स्मृति नहीं जानती। स्मृति तो जो सीख लिया गया है उसका संग्रह है, स्मृति के उत्तर को इनकार करें। स्मृति कहे विष्णु हो, तो उसे जाने दें उसे पक.ड़ें न। स्मृति कहे कि आत्मा हो, तो उसे जाने दें उसे पक.ड़ें न। स्मृति कहे कि परमात्मा हो, स्मृति कहे कुछ भी नहीं केवल पदार्थ हो। अगर नास्तिक घर में पले तो स्मृति कहेगी की कुछ भी नही केवल शरीर हो। अगर धार्मिक घर में पले हैं तो स्मृति कहेगी आत्मा हो, अजर-अमर आत्मा हो। ये दोनों शिक्षाएं हैं इनको छोड़ दें। नास्तिक को, आस्तिक को जाने दें। ग्रंथों से आए हुए उत्तर को जाने दें। फिर क्या होगा जब कोई उत्तर न आएगा तो क्या होगा? जब किसी उत्तर की स्वीकृति न होगी तो क्या होगा? भीतर एक सन्नाटा हो जाएगा एक मौन खड़ा हो जाएगा, एक सायलेंस पैदा हो जाएगी। और उसी मौन से, उसी सन्नाटे से, उसी शून्य से उस चीज का अनुभव आना शुरू होता है जो स्वयं का होना है। पूछें, मैं कौन हूं? और कृपा करके किसी उत्तर को न पक.ड़ें। पूछें, मैं कौन हूं? और प्रश्न ही रह जाने दें, उत्तर नहीं। और प्रश्न को ही गूंजने दें। और प्रश्न को ही प्राणों में छाने दें, और प्रश्न को ही उतरने दें गहरा, और कोई उत्तर न पकड़े क्योंकि सभी उत्तर सीखे हुए होंगे। कोई उत्तर हिंदू का, मुसलमान का, जैन का न पकड़ें, सब उत्तर सीखे हुए होंगे। प्रश्न रह जाए मैं कौन हंू तीर की भांति प्राणों को छेदता हुआ। सिर्फ प्रश्न रह जाए मैं कौन हंू और कोई उत्तर न हो तो आप हैरान होंगेे उसी अंतराल में, उसी खाली जगह में, उसी मौन में, वह किरण उतरनी शुरू होगी स्वयं की, स्वयं को जानने का पहला साक्षात, स्वयं के अनुभव का पहला बोध, पहला प्रकाश उतरना शुरू होगा।
 तो आज की सुबह निवेदन करना चाहता हूं पूछें अपने से मैं कौन हंू और किसी उत्तर को स्वीकार न करें जो बाहर से आया हुआ हो। किसी उत्तर को स्वीकार न करें। चाहे वह किसी भगवान के अवतार का उत्तर हो, चाहे किसी तीर्थंकर का, चाहे किसी ईश्वर पुत्र का, चाहे किसी पैगंबर का, चाहे किसी बुद्धपुरुष का, किसी का भी उत्तर हो उसे स्वीकार न करें। परमात्मा की खोज के मार्ग पर, सत्य की खोज के मार्ग पर जो भी बीच में आ जाए उसे विदा कर दें। उससे कहो कि हट जाओ, चाहे वे तीर्थंकर हों, चाहे वह ईश्वर पुत्र हो, चाहे भगवान स्वयं हों। उनसे कहें कि रास्ता छोड़ दो। मैं जानना चाहता हंू तो मुझे किसी के भी उत्तर को स्वीकार करने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं देखना चाहता हंू तो मैं किसी की उधार आंख से नहीं देख सकता और मेरे प्राण स्पंदित होना चाहते है तो मेरा हृदय धड़केगा तो ही यह हो सकता है किसी और के हृदय की धड़कन से यह नहीं हो सकता। यह जो हमारा सीखा हुआ ज्ञान है, यह हमारे ज्ञान के जन्म में बाधा है अज्ञान नहीं झूठा ज्ञान, सीखा हुआ ज्ञान बाधा है। अज्ञान नहीं, ज्ञान, सीखा हुआ ज्ञान अवरोध है। वही रोक रहा है, वही दीवाल बन कर खड़ा है। अज्ञान तो अत्यंत निर्दोष स्थिति में खड़ा कर देगा। बहुत इनोसेंस में खड़ा कर देगा। बहुत सरलता में,बहुत निर-अहंकार स्थिति में खड़ा कर देगा। और जो इस बात को पूरा न कर सके वह आगे खोज नहीं कर सकेगा। जो अपने अज्ञान को स्वीकार न कर सके वह आगे खोज नहीं कर सकेगा। साक्रेटीज के समय में एक व्यक्ति को देवी आती थी, पता नहीं, और उस व्यक्ति से किसी ने पूछा जब वह आविष्ट था, देवी से पूछा कि यूनान में सबसे बड़ा ज्ञानी कौन है। उसने कहाः साक्रेटीज, सुकरात।
वह सुकरात के पास गया और सुकरात से पूछा कि यह घोषणा हुई है, दैवीय घोषणा है कि तुम यूनान के सबसे बड़े ज्ञानी हो। तो उसने कहा कि जाओ और देवी को कहना कि कुछ भूल हो गई है क्योंकि मैं तो जैसे-जैसे खोजता हंू, पाता हंू कि मुझसे बड़ा और कोई अज्ञानी नहीं है। जाओ, कहना कोई भूल हो गई है क्योंकि मैं तो जैसे-जैसे खोजता हंू पाता हंू मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं है। जब मैं बच्चा था तो मुझमें थोड़ा ज्ञान था। कई बातें मुझे लगती थीं कि मैं जानता हंू। जब मैं जवान हुआ तो मेरा ज्ञान और कम हो गया। मुझे कई बातें पता चलीं कि वह मेरा बचपना था मैं जानता नहीं था और अब जब मैं बूढ़ा हो गया हंू तो मैं पाता हंू कि जो भी मैं जानता था वह कुछ भी नहीं जानता था। अब तो एक अज्ञान मुझे घेर रहा है और मुझे लगता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता हंू। वह व्यक्ति वापस गया और उसने जाकर कहा कि सुकरात तो कहता है कि मैं परम अज्ञानी हंू और मैं कुछ भी नहीं जानता हंू। वह व्यक्ति जो आविष्ट था वह हंसा और उसने कहा, जाओ-जाओ और उससे कहो कि इसीलिए उसे कहा वह महाज्ञानी है। कहो इसीलिए कहा कि वह महाज्ञानी है क्योंकि ज्ञान के अवतरण की भूमिका है अपने अज्ञान को पूरी तरह जान लेना, स्वीकार कर लेना, पहचान लेना। जैसे ही हम अज्ञान को स्वीकार करते हैं, जैसे ही हम जानते हैं, कि नहीं जानते हैं वैसे ही एक परिवर्तन, एक क्रांति घटित हो जाती है। वैसे ही एक पर्दा गिर जाता है, अहंकार का, जानने का, और एक मौन, और एक शांति अवतरित हो जाती है।
अंतिम रूप से आज तो सिर्फ प्रश्न उठाता हंू, वह आपके भीतर गूंजे, मैं कौन हंू? लेकिन अगर वह प्रश्न मेरा है तो बेकार है उसका कोई उपयोग नहीं होगा क्योंकि जब मैं कहता हंू कि किसी दूसरे के उत्तर को स्वीकार न करना तो क्या मैं यह कहंूगा कि किसी दूसरे के प्रश्न को स्वीकार कर लेना। अगर वह प्रश्न मेरा है और आप उसे जाकर दोहराएं कि मैं कौन हंू, तो वह प्रश्न झूठा होगा, उसमें कोई बल न होगा, कोई शक्ति न होगी। वह प्रश्न आपका हो तो ही आपके प्राणों में स्पंदन ला सकता है। वह प्रश्न आपका हो तो ही आपके प्राणों में आंदोलन ला सकता है। वह प्रश्न आपका हो तो ही तीर की भांति आपके गहरे से गहरे अंतःस्थल तक पहुंच सकता है। क्या आपके भीतर प्रश्न है? क्या आपके भीतर अपना प्रश्न है? क्या जीवन आपके मन में प्रश्न नहीं उठाता है? क्या जीवन आपको जिज्ञासा से नहीं भरता है? क्या जीवन आपके सामने यह सवाल खड़ा नहीं करता है कि मैं कौन हंू यह क्या है? क्या आप एकदम बहरे और अंधे हैं? क्या आपके हृदय में कोई जिज्ञासा ही पैदा नहीं होती। अगर होती हो कोई जिज्ञासा, अगर होता हो कोई प्रश्न खड़ा, अगर होती हो कोई प्यास मन में जानने की, पहचानने की, जीवन के सत्य को पाने की, तो उसे इकट्ठा कर लें और उसे एक प्रश्न बन जाने दें? क्योंकि जो और चीजों के संबंध में पूछने जाता है वह दूर निकल गया उसने बुनियादी प्रश्न छोड़ दिया। बुनियादी प्रश्न तो स्वयं से शुरू होता है कि मैं कौन हंू और अगर भाग्य से, सौभाग्य से आपका प्रश्न खड़ा हो जाए और दूसरों के उत्तर आप विदा कर सकें तो कोई बाधा नहीं है स्वयं को जान लेने में। कोई बाधा नहीं है। कोई बाधा नहीं है, कोई दीवाल नहीं है। लेकिन बहुतों के मन में प्रश्न ही नहीं है, बहुतों के मन में जिज्ञासा नहीं है। क्यों? यह तो असंभव है कि प्रश्न कहीं नहीं हो। यह तो असंभव है भीतर प्रश्न कहीं न कहीं न हो। फिर भी जिज्ञासा नहीं बनती मालूम पड़ती। क्या होगा कारण? कारण है साहस की कमी है। क्यों? हम केवल वे ही प्रश्न पूछते हैं जिनके उत्तर हमें मालूम हैं।
हम केवल वे ही प्रश्न पूछते हैं जिनके उत्तर हमें मालूम हैं। मजे से प्रश्न भी पूछ लेते हैं और उत्तर भी दे देते हैं और जीवन में समाधान हो जाता है। हम वे प्रश्न पूछते ही नहीं जिनके उत्तर हमें मालूम नहीं। क्योंकि उन प्रश्नों का पूछना हमारे अज्ञान का उदघाटक होगा। इसलिए डरते हैं, इसलिए भयभीत रहते हैं। उन प्रश्नों से दूर रहते हैं उन प्रश्नों से बचते हैं जिनसे हमारे अज्ञान का उदघाटन हो जाए। साहस चाहिए प्रश्न पूछने को, हिम्मत चाहिए और हमारा तो उलटा है हिसाब। जब साहस के और हिम्मत के दिन होते हैं तब तो हम कहते हैं कि यह धर्म की उम्र ही नहीं। जब बुढ़ापा आ जाए, मौत करीब आने लगे तब फिर धर्म के दिन आते हैं। जितना साहस कम होता जाए और बल कम होता जाए और जितनी खोज की आकांक्षा कम होती जाए तो हम समझते हैं कि तब धर्म के दिन आते हैं। मंदिरों में और चर्चों में बूढ़े लोग इकट्ठे हैं, जो या तो मर चुके हैं या मरने वाले हैं। वे लोग वहां इकट्ठे हैं और धीरे-धीरे यह खयाल पैदा हो गया है कि वह इन्हीं लोगों का काम है। मैं आप से निवेदन करता हंू कि बूढ़ा मन तो कभी भी धर्म के सत्य को जान ही नहीं सकता। बूढ़ा आदमी नहीं कह रहा हंू, बूढ़ा मन। बूढ़ा मन तो कभी जान ही नहीं सकता। चाहिए युवा मन, चाहिए यंग माइंड, चाहिए बल से भरा हुआ मन साहस से, दूर की यात्रा करने का, अज्ञात की यात्रा करने का साहस हो तो प्रश्न खड़े हो जाएंगे और तब वे ही प्रश्न खड़े होंगे जिनके उत्तर नहीं मालूम है।
और जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं मालूम हैं अगर वे खड़े हो जाएं तो जीवन में एक नये प्रभात की शुरुआत होती है, एक नया मंगल प्रारंभ होता है। उसकी तरफ आंखें उठनी शुरू होती हैं जो सत्य है,सुंदर है, शिव है, उसकी तरफ, जो परमात्मा है। उसकी तरफ जो हमारा वास्तविक होना है। और उसे जान कर जीवन का सारा दुख वैसे ही विर्सजित हो जाता है जैसे किसी अंधकारपूर्ण गृह में कोई दीया जला दे। और सारा अंधकार विलीन हो जाए। कैसे यह दीया जल सकता है उसकी चर्चा आने वाली चर्चाओं में मैं करूंगा। जो प्रश्न आपके हों और प्रश्न होने चाहिएं, उनको संध्या उत्तर दूंगा-आने वाले दो दिनों में। लेकिन तभी आएं जब आपको यह खयाल स्पष्ट होने लगे कि आपका कोई प्रश्न भीतर जग रहा है। अन्यथा, अन्यथा आने की कोई जरूरत नहीं है, कोई कारण नहीं है।
अगर आपको लगे कि आपको यह एहसास होता है कि आप नहीं जानते हैं, तो आएं, तो कुछ खोज हो सकती है, तो हम मिल कर कुछ यात्रा तय कर करते हैं। तो कुछ मैं अपने हृदय की आपसे बातें कहंू। इसलिए नहीं कि आप उनको स्वीकार कर लें, इसलिए नहीं कि आप उन पर विश्वास कर लें, इसलिए नहीं कि आप उनको अपनी मान्यता बना लें, इसलिए नहीं कि मेरी बातें आपका ज्ञान बन जाएं। नहीं बन सकती हैं, और न उन्हें बनाने की जरूरत है। लेकिन इसलिए कि शायद यहां हम इकट्ठे हों और विचार करें और आपकी जिज्ञासा तीव्र हो जाए और आपकी प्यास गहरी हो जाए। और जिस प्यास से आप अपरिचित थे उसका बोध हो जाए। शायद एक खोज का प्रारंभ हो जाए। शायद एक बीज आपके भीतर टूट जाए और एक अंकुर बनने लगे। शायद एक नया जीवन और एक नई गति और एक नये मनुष्य होने की शुरुआत हो जाए। इसलिए तीन दिन थोड़ी सी बातें मैं आपसे करूंगा।
आज तो प्रश्न खड़ा करता हंू उस प्रश्न को साथ लिए जाएं। रात उसे साथ लिए सो जाएं और थोड़ा प्रयोग करके देखें। उत्तर जो भी आता हो उसे बाहर रख कर हटा दें, उत्तर जो भी आता हो उसे इनकार कर दें और प्रश्न को गहरा होने दें। जहां आपने उत्तर पकड़ा प्रश्न वहीं मर जाएगा। जहां आपने उत्तर पकड़ा प्रश्न वहीं समाप्त हो जाएगा। तो अगर प्रश्न को गहरे जाने देना है तो उत्तर मत पकड़ना। जब प्रश्न ही प्रश्न रह जाए और कोई उत्तर मन में न हो तब, तब कोई चीज जगनी शुरू होगी। तब कोई हमारे भीतर से दौड़ेगा हमारी सहायता को। तब कोई हमारे भीतर से उठेगा हमारी सहायता को। तब हमारे भीतर कोई जगेगा जो सोया है। और वही आत्म परिचय बन जाता है, वही आत्म-ज्ञान बन जाता है। मैं कौन हूं?
शॉपनहार एक सुबह कोई तीन बजे रात जल्दी उठ गया और एक बगीचे में गया। बगीचे में था अंधेरा और शॉपनहार था विचारक, एकांत पाकर जोर-जोर से खुद से बातें करने लगा। कोई था नहीं इसलिए कोई डर भी नहीं था। कोई होता है तो हम दूसरे से बातें करते हैं कोई नहीं होता है तो हम अपने से बातें करते हैं। वह भी अपने से बात करने लगा कोई भी नहीं था। माली की नींद खुली उसने सोचा रात तीन बजे कौन आ गया है यहां। और फिर बातें करते हुए घूम रहा है, और अकेला ही मालूम होता है। माली डरा, सोचा शायद कोई पागल है। उसने लालटेन उठाई, अपना भाला उठाया और गया और दूर से ही चिल्ला कर पूछा, डर के मारे, कौन हो? शॉपनहार हंसने लगा। हंसने से माली और घबड़ा गया। निश्चित ही पागल है सुबह-सुबह आ गया, अपने से बातें करता घूमता है। पूछा कौन हो उत्तर क्यों नहीं देते? शापनहार ने कहा: मेरे मित्र, काश उत्तर दे सकता। इधर तीस वर्षों से अपने से यही पूछ रहा हूं कौन हूं? खुद को ही पता नही चलता तुम्हें क्या उत्तर दूं। लेकिन मैं आपसे कहूं कि शॉपनहार को इसीलिए पता नहीं चला कि वह पूछता तो था कि मैं कौन हंू? लेकिन बहुत से उत्तर खोजता था, उपनिषद में, यहां-वहां,कांट में, हीगल में और न मालूम कहां-कहां उत्तर खोजता था इसलिए तीस साल खराब गए। और पता नहीं शॉपनहार को मरते वक्त भी पता चला कि नहीं चला। मैं नहीं समझता कि पता चला होगा, क्योंकि तब भी वह उत्तर खोज रहा था। उत्तर खोज रहा है, भीतर प्रश्न है, उत्तर बाहर खोजे जा रहे हैं। उत्तर नहीं मिलेंगे।
मैं आपसे कहता हूंः प्रश्न में ही उत्तर छिपा है। बाहर मत खोजें। और बाहर के किसी उत्तर को स्वीकार न करें। और प्रश्न को आने दें पूरे-पूरे वेग से कि वह सारे प्राणों के रंध्र-रंध्र को भर दे, श्वास-श्वास भर दे। हृदय की धड़कन-धड़कन उससे भर जाए। प्रश्न ही रह जाए और कुछ न हो। तब वहीं, बिलकुल वहीं प्रश्न के साथ ही उत्तर है। वह उत्तर बाहर से नहीं आता, वह उत्तर भीतर से उपलब्ध होता है।
परमात्मा करे कि वह उत्तर उपलब्ध हो लेकिन प्रश्न आपको पूछना पड़ेगा। मेरा प्रश्न नहीं हो सकता है। किसी और का प्रश्न नहीं हो सकता, तो कल अगर आपके मन में अपना प्रश्न हो तो आएं, यहां कोई व्याख्यान नहीं है, कोई उपदेश नहीं है। यहां कोई आपको कुछ समझाने का कोई रस नहीं है कोई आनंद नहीं है। वह प्रश्न उठता हो तो आएं तो फिर कुछ बात हो सकेगी तो फिर दो हृदय किसी तल पर मिल सकते हैं। और कोई बात हो सकती है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है। और ऐसी बातों को जो आपको ज्ञान नहीं देतीं बल्कि आपके अज्ञान के लिए आग्रह करती हैं। बड़ी कृपा है और दया है, इतने प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। परमात्मा करे आज जो अज्ञान है वह कल ज्ञान बन जाए, आज जो अंधकार है वह कल प्रकाश बन जाए, इस कामना के साथ आज की बात पूरी करता हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को मेरेे प्रणाम स्वीकार करें।

1 टिप्पणी:

  1. बात तो अच्छी हैं कुछ पूछना भी हैं पर किससे अपने आप में उतरना काफी डरता हैं जरूरी भी हैं बंधा हुआ हु अभी तो अपने जनम के साथ डाली हुई जंजीरो से पर उम्मीद भी हैं की कभी वो प्रकाश भी उतरेगा जीवन में सुक्रिया आप का

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