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बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-33)

बोधकथा-तैतीसवी

एक मित्र साधु हो गए हैं। साधु होने के बाद आज पहली बार ही मिलने आए थे। उन्हें गैरिक वस्त्रों में देखा तो मैंने कहाः ‘‘मैं तो सोचता था कि सच ही तुम साधु हो गए हो! लेकिन यह क्या? ये वस्त्र क्यों रंग डाले हैं? ’’
मेरे अज्ञान पर मुस्कुराते हुए वे बोलेः ‘‘साधु का अपना वेश होता है।’’ यह सुन मैं सोच में पड गया तो उन्होंने कहाः ‘‘इसमें सोच की क्या बात है? ’’ मैंने कहाः ‘‘बहुत सोच की बात है। क्योंकि साधु का कोई वेश नहीं है और जहां वेश है, वहां साधु नहीं है।’’ शायद मेरी बात वे समझे नहीं और उन्होंने पूछाः ‘‘साधु कुछ तो पहनेगा ही, या आप चाहते हैं, साधु नग्न ही रहे? ’’ मैंने कहाः ‘‘पहनने की मनाही नहीं है, न पहनने की शर्त नहीं है। प्रश्न कुछ विशेष पहनने या कुछ भी न पहनने के आग्रह का है। मित्र, वेश वस्त्रों में नहीं, आग्रह में है।’’ वे बोलेः ‘‘वेश से स्मृति रहती है कि मैं साधु हूं।’’

अब हंसने की मेरी बारी थी। मैंने कहाः ‘‘मैं जो हूं, उसकी स्मृति रखनी ही नहीं होती है। मैं जो नहीं हूं, उसकी ही स्मृति को सम्हालना पडता है। और फिर जो साधुता वस्त्रों से याद रहे, क्या वह भी साधुता है? वस्त्र तो बहुत ऊपर हैं और उथले हैं। चमडी भी गहरी नहीं है।

मांस-मज्जा भी बहुत गहरी नहीं है। मन भी गहरा नहीं है। आत्मा के अतिरिक्त और कोई ऐसी गहराई नहीं है, जो साधुता का आवास बन सके। और स्मरण रहे कि ऊपर जिनकी दृष्टि है, वे भीतर से वंचित रह जाते हैं। वस्त्रों पर जिनका ध्यान है, वे उस ध्यान के कारण ही आत्मा के ध्यान में नहीं हो पाते हैं। संसार और क्या है? वस्त्रों पर केंद्रित चित्त ही तो संसार है। जो वस्त्रों से मुक्त हो जाता है, वही साधु है।’’
फिर उनसे मैंने एक कहानी कही। एक बहुरुपिए ने किसी सम्राट के द्वार पर जाकर कहाः ‘‘पांच रुपये दान में चाहिए।’’ सम्राट बोलाः ‘‘मैं कलाकार को पुरस्कार तो दे सकता हूं, लेकिन दान नहीं।’’ बहुरुपिया मुस्कुराया और वापस लौट गया। लेकिन जाते-जाते कह गयाः ‘‘महाराज, मैं भी दान ले सका तभी पुरस्कार लूंगा। कृपा कर इसे स्मरण रखिए।’’
बात आई और गई। कुछ दिनों के बाद राजधानी में एक अदभुत साधु के आगमन की खबर विद्युत की भांति फैली। नगर के बाहर एक युवा साधु समाधि-मुद्रा में बैठा था। न तो कुछ बोलता था, न आंखें ही खोलता था। और न हिलता-डुलता था। लोगों के झुंड के झुंड उसके दर्शन को पहुंच रहे थे। फूलों के, फलों के, मेवा-मिष्ठान के ढेर उसके पास लग गए थे, लेकिन वह तो समाधि में था और उसे कुछ भी पता नहीं था। एक दिन बीत गया। दूसरा दिन भी बीत गया। भीड रोज बढ़ती ही जाती थी। तीसरे दिन सुबह स्वयं सम्राट भी साधु के दर्शन को गए। उन्होंने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं साधु के चरण में रख आशीर्वाद की प्रार्थना की। किंतु साधु तो पर्वत की भांति अचल था। कोई भी प्रलोभन उसे डिगाने में असमर्थ था। सम्राट भी असफल होकर राजमहल लौट गए। साधु का चारों ओर जय-जयकार हो रहा था। लेकिन चैथे दिन लोगों ने देखा कि रात्रि में साधु विलीन हो गया था। उस दिन सम्राट के दरबार में वह बहुरुपिया उपस्थित हुआ और बोलाः ‘‘एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान तो आप मेरे सामने कर ही चुके हैं, अब मेरा पांच रुपये का पुरस्कार मुझे मिल जाए!’’
सम्राट तो हैरान हो गया। उसने बहुरुपिए से कहाः ‘‘पागल, तूने एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं क्यों छोडीं? और अब पांच रुपये मांग रहा है!’’ बहुरुपिए ने कहाः ‘‘महाराज, जब आपने दान नहीं दिया था, तो मैं भी दान कैसे स्वीकार करता? बस अपने श्रम का पुरस्कार ही पर्याप्त है। फिर तब मैं साधु था। झूठा ही सही, तो भी साधु था। और साधु के वेश की लाज रखनी आवश्यक थी!’’
इस कहानी पर विचार करने से बहुत सी बातें ख्याल में आती हैं। बहुरुपिए साधु हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि साधुओं के तथाकथित वेश में बहुरुपियों को सुविधा है। वेश जहां महत्वपूर्ण है, वहां सहज ही बहुरुपियों को सुविधा है। फिर वह बहुरुपिया तो साधु-चित्त था, इसलिए एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं छोड कर पांच रुपये लेने को राजी हुआ, लेकिन सभी बहुरुपियों से इतने साधु-चित्त होने की आशा करनी उचित नहीं है। सम्राट धोखे में पडा, वेश के कारण। वेश धोखा दे सकता है, इसीलिए धोखा देने वालों ने वेश को प्रधान बना लिया है। और जब व्यक्ति दूसरों को धोखा देने में सफल हो जाता है, तो फिर वह सफलता स्वयं को भी धोखा देने का सुदृढ़ आधार बन जाती है।
कहते हैंः ‘‘सत्यमेव जयते।’’ सत्य विजयी होता है। यह बडा खतरनाक मान-दंड है, क्योंकि इसके कारण जो जीत जाता है, उसे सत्य मान लेने का विचार पैदा हो जाता है। सत्य सफल होता है तो फिर जो सफल होता है वही सत्य है, इस निष्पत्ति तक पहुंचने में मन को देर नहीं लगती है। ऐसी साधुता सत्य नहीं है, जिसे बहुरुपिए भी साध सकते हों, क्योंकि फिर बहुरुपियों के लिए इससे सुगम साधना और कोई नहीं हो सकती है। बहुरुपिए साधु हो सकते हैं, तो साधु भी बहुरुपिए हो सकते हैं!
वस्तुतः साधु का कोई वेश नहीं है। वेश तो बहुरुपिए का ही हो सकता है। और जब साधु का वेश ही नहीं है, तो वेश की लाज का तो अस्तित्व ही कहां है? वह स्मृति भी साधु की नहीं, बहुरुपिए की ही है। लेकिन ऐसी स्मृति भी उस बहुरुपिए की ही होगी जो स्वयं को बहुरुपिया ही जानता है। जिन्होंने स्वयं को बाह्य वेश के आधार पर साधु ही मान लिया है, वे तो रामलीला के ऐसे राम हैं, जिन्होंने स्वयं को राम ही मान लिया है।
ऐसे एक राम को मैं जानता हूं। रामलीला में राम बनने के बाद उन्होंने फिर राम का वेश कभी उतारा ही नहीं! किंतु लोग उन्हें पागल कहते थे। बहुरुपिए साधु बन सकते हैं, किंतु जब वे स्वयं को साधु ही समझने भी लगते हैं, तब वे बहुरुपिए ही नहीं, विक्षिप्त भी हो जाते हैं।
 ओशो

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