कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(प्रेम और अपरिग्रह

अगर किसी भवन में आग लगी हो और उसके भीतर बैठ कर हम विचार करते हों, तो विचार करने में जैसा संकोच होगा, वैसा आज के मनुष्य और आज की मनुष्यता के सामने कुछ विचार रखने में संकोच होना चाहिए। मनुष्य बहुत संकट में है। और शायद विचार करने की उतनी बात नहीं, जितनी कुछ करने की बात है। जैसे हम सारे लोग एक बड़े आग से लगे हुए भवन के बीच घिर गए हैं। और यदि कुछ बहुत शीघ्र नहीं किया जा सका, तो शायद मनुष्य के बचने की कोई संभावना नहीं रह जाएगी। यही कारण है कि जहां धर्म का सवाल उठता हो, तो मैं ईश्वर की, आत्मा की, स्वर्ग की और नरक की बातें करना अर्थहीन मानता हूं।

आज धर्म के लिए सर्वाधिक विचारणीय मनुष्य है। और मनुष्य के बाद कुछ और विचारणीय हो सकता है? न ईश्वर, न आत्मा, न मोक्ष, मनुष्य आज सर्वाधिक विचारणीय है। मनुष्य, इतना संकट और समस्या कभी भी नहीं बना था पूरे मनुष्य के इतिहास में। जैसी मनुष्य की स्थिति आज है, वैसी कभी न थी। और हममें से बहुत लोगों को शायद दिखाई न पड़ता हो, क्योंकि समस्याएं देखने के लिए भी आंखें चाहिए। समाधान तो अंधे भी याद कर लेते हैं, समस्याएं देखने के लिए बहुत आंख की जरूरत है।


और इस समय दुनिया में बहुत कम लोग हैं जिन्हें समस्याएं दिखाई पड़ती हों। ऐसे बहुत लोग हैं जो समाधान देने को तैयार हैं। समाधान सभी को स्मरण हो गए हैं। लेकिन यह भी स्मरण रहे कि बीते कल के समाधान आज के काम नहीं आते हैं। और यह भी स्मरण रहे कि समय जैसे बदलता है वैसे समाधान को नित-नूतन हो जाना पड़ता है। समाधान के प्राण चाहे कितने ही प्राचीन हों, लेकिन उसकी सब रूप-रेखाएं नवीन हो जाती हैं।
हमारी आज की दशा और संकट में बड़े से बड़ा दुख यह है कि समाधान पुराने हैं, समस्याएं नई हैं। और समाधान सभी लोगों को स्मरण हो गए हैं, और समस्याएं देखने की आंखे बहुत कम लोगों में हैं। क्या है समस्या आज मनुष्य के सामने, वह भी ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा है।
कुछ लोग समझते हैं समस्याएं राजनैतिक हैं, इसलिए कोई राजनैतिक हल खोज लेने से सारी दिक्कत समाप्त हो जाएगी। वे गलत सोचते हैं। मनुष्य की समस्याएं मूलतः राजनैतिक नहीं हैं। कुछ लोग सोचते हों आर्थिक समस्याएं हैं, वह हल हो जाएंगी, तो मनुष्य का जीवन शांति से भर जाएगा। वे भी भ्रांति में हैं। मात्र अर्थ की कितनी ही उपलब्धि, संपत्ति और संपदा की कितनी ही सुविधा मनुष्य के चित्त से दुख को और पीड़ा को और संताप को विसर्जित नहीं करती हैं।
मनुष्य की मूल समस्या कहीं न कहीं आध्यात्मिक है। कहीं बहुत गहरे में मनुष्य के आत्यंतिक अंतःस्तल से संबंधित है। और उसे देखने के लिए जैसी गहरी आंख चाहिए, वैसी गहरी आंख का अभाव है। हम बहुत छिछला और ऊपर देखते हैं और गहरे प्रवेश नहीं करते। शायद यही कारण हो कि हम गहरे देखना नहीं चाहते हैं। क्योंकि गहरा देखना साहस का काम है। और गहरे देखने के लिए साहस ही नहीं बल्कि यह संभावना भी स्वीकार कर लेनी चाहिए कि हो सकता है समस्या ऐसी हो कि उसका समाधान भी न हो सके। यह संभावना स्वीकार करके ही कोई व्यक्ति मनुष्य के भीतर गहरे देख सकता है।
छिछली बुद्धि तत्काल बिना समस्या को देखे समाधान को स्वीकार कर लेती है। क्योंकि न तो साहस होता है और न यह स्वीकार करने की हिम्मत होती है। कि हो सकता है समस्या ऐसी हो कि उसका कोई समाधान ही न हो। इस डर से कि कहीं ऐसी अबूझ स्थिति खड़ी न हो जाए। हम पुराने रटे हुए समाधानों को दोहराते चले जाते हैं। इससे मनुष्य की विवेक की शक्ति तो हमेशा अतीत से उधार ली हुई होती है और समस्याएं वर्तमान की होती हैं; जिनमें कोई मेल नहीं बैठ पाता। जो लोग अतीत के आधार पर चिंतन करते हैं, वे कभी वर्तमान के किसी उलझन को सुलझाने में समर्थ नहीं हो सकते।
अगर समस्याएं आज हैं, तो आज ही हमारा सध्यविवेक जाग्रत होना चाहिए। अगर मुसीबत इस समय खड़ी है तो इसी समय हमारे भीतर उस मुसीबत के मुकाबले के लिए विवेक का जागरण होना चाहिए। अतीत के विचार काम नहीं देंगे। और परंपरा से उपलब्ध हुए समाधान सहयोगी नहीं हो सकते हैं, यह प्राथमिक रूप से आपसे कहूं। क्योंकि आज सबसे ज्यादा उलझन और सबसे ज्यादा कठिनाई इसी बात में हो गई है।
आपसे कोई भी पूछे, आपको शास्त्र स्मरण हैं--आपको गीता, कुरान और बाइबिल याद हो गए हैं। और तत्क्षण आप उन याद की हुई बातों में से कुछ बातें समाधान के लिए सामने रख देते हैं, वे बातें काम नहीं देंगी।
जैसे प्रतिक्षण जीवन नया होता जाता है, वैसे प्रतिक्षण सत्य भी नये-नये रूपों में प्रकट होता है। वैसे ही सत्य भी अपने रूपांतर कर लेता है। और यह अगर नये सत्य का आविर्भाव आपके भीतर न हो सके, तो संकट मनुष्य का टाला नहीं जा सकेगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सत्य नया है या पुराना है। सत्य तो शाश्वत है और सनातन है। लेकिन प्रत्येक युग में सत्य की अभिव्यक्ति, उसका प्रकाशन, उस युग की मनोस्थिति में सदा नये रूप से होता है।
मैं यह कह रहा हूं कि जिस तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपना जीवन खुद पाना होता है, मां-बाप का जीवन, बीती हुई पीढ़ियों का जीवन किसी को नहीं मिलता, अपनी श्वास खुद लेनी पड़ती है, कोई दूसरा मनुष्य मेरे लिए श्वास नहीं ले सकता। वैसे ही मेरे सत्य का आविष्कार मुझे ही करना होगा। कोई दूसरा मनुष्य, महावीर या बुद्ध, या कृष्ण, या क्राइस्ट मेरे लिए श्वास नहीं ले सकते, मेरे लिए सत्य भी नहीं बन सकते हैं। जिस क्षण मैं आविष्कार करूंगा अपने सत्य को, यह निश्चित है कि वह सत्य वही होगा, जो कृष्ण का है, क्राइस्ट का है, बुद्ध का और महावीर का है। लेकिन उनसे मैं उसे उधार नहीं ले सकता। उसे आविर्भाव तो मुझे स्वयं में करना होगा। जब वह जागेगा और मैं जानूंगा, तो वह केवल मेरे सत्य के साक्षी और गवाह हो जाएंगे।
कृष्ण और क्राइस्ट केवल मेरे भीतर उठे हुए सत्य के गवाह हो सकते हैं, साक्षी हो सकते हैं; वह मुझे सत्य देने वाले नहीं हो सकते हैं। इस जगत में कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को न कभी सत्य दिया है, और न कभी दे सकेगा। और यह शुभ भी है। अगर कोई दूसरा सत्य को दे सके, तो दूसरा सत्य को छीन भी ले सकता है। दूसरे के दिए गए सत्यों का कोई मूल्य नहीं। सत्य को तो अपने ही प्राणों की ऊर्जा से, अपने ही निर्वाण से उपलब्ध करना होगा।
और इसलिए भी यह मैं आपसे कहूं कि सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है कि हमसे दूर हो, कि हम उसे पा लें, वह तो स्वयं का ही निखार और परिष्कार है। वह तो स्वयं के ही प्राणों की अंतिम परिष्कृति है।
अंतिम रूप से जब स्वयं के प्राण परिपूर्ण रूप से शुद्ध हो जाते हैं तो उस शुद्धतम प्राणों की दशा में जो अनुभूति होती है, उसका नाम सत्य है। सत्य कहीं कोई बाहर कोई उपलब्धि नहीं बन सकती। सत्य कोई अचीवमेंट नहीं है कि हम उसे बाहर कहीं पा लें। सत्य तो आत्म-परिष्कार है।
इसलिए मैं आपसे कहूं: युग की, मनुष्य की, आज की जो संकट की दशा है, उस संकट की दशा में सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बात यह है कि हमारे सत्य तो उधार लिए हुए हैं और समस्याएं हमारी हैं। सत्य तो कृष्ण, क्राइस्ट और महावीर के दिए हुए हों और समस्याएं हमारी हों; उन दोनों के बीच सामंजस्य नहीं होगा। औषधियां पुरानी हैं, और बीमारियां नई हैं। और उन दोनों के बीच कोई मेल नहीं बैठता।
इसलिए मनुष्य आज एक बड़ी आंतरिक अड़चन में पड़ गया है। इसका ही कारण है--इतने मंदिर हैं, इतने मस्जिद हैं, इतने पंथ हैं, इतने संप्रदाय हैं, इतनी चर्चा है धर्मों की, लेकिन जमीन पर धर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा। इतनी विचारणा है, इतना प्रकाशन है, इतना साहित्य है, इतने उपदेश हैं; लेकिन धर्म कहीं भी खोजे से नहीं मिलता। उसके पीछे कारण यही है, धर्म कभी उपदेश, विचार, ग्रंथों, शास्त्रों, मंदिरों-मस्जिदों में नहीं होता। वह तो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी सत्ता में आविष्कार करना होता है। और जब वहां पाया जाता है तो सब जगह दिखाई पड़ने लगता है।
एक ऐसे रास्ते पर जहां सूरज ही सूरज हों, लेकिन मेरे भीतर अंधेरा हो, मेरे लिए वह सारा रास्ता अंधेरा हो जाएगा। और एक ऐसे रास्ते पर जहां घनी अमावस हो और सब अंधकार हो, लेकिन मेरे भीतर एक दीया जलता हो, वह सारा रास्ता कितना ही लंबा हो, मेरे लिए प्रकाशित हो जाएगा। जगत में अंधकार होगा, अगर मनुष्य की निजी सत्ता में अंधकार हो; और जगत में प्रकाश होगा, अगर मनुष्य की निजी सत्ता में प्रकाश हो।
बहुत दिन हुए एक साधु अपने घर आए हुए एक मेहमान साधु को नदी पर नौका-विहार के लिए ले गया था। रात थी। वे दोनों नौका में बैठे। जैसे ही वे नौका में बैठे, उस साधु ने जिसका आश्रम था, और दूसरा साधु जिसका मेहमान था, पतवार अपने हाथ में ली। उस मेहमान ने कहाः क्षमा करें, कोई किसी दूसरे की पतवार अपने हाथ में नहीं ले सकता। मेरी पतवार मुझे दे दें।
यह एक घटना घटी, पतवार दे दी गई।
कुछ दिनों बाद जब वह दूसरा मेहमान विदा होता था, रात का अंधकार था, उसने कहाः रात अंधेरी है और मैं कैसे जाऊं? रास्ता अंधेरा है और सुनसान है, कोई साथ भी नहीं। उस मेजबान साधु ने कहाः मैं तुम्हें थोड़ी दूर तक पहुंचा दूंगा। और मैं तुम्हें दीया जला देता हूं, उस दीये को ले जाएं, रास्ता प्रकाशित हो जाएगा। दीया जला कर उसने विदा होते अतिथि के हाथ में दिया। सीढ़ियां भी वे आश्रम की उतर नहीं पाए थे कि जिसने दीया जला कर दिया था, उसी ने सीढ़ियां उतरने के पहले ही फूंक कर दीये को बुझा दिया। वह अतिथि बुझे हुए दीये को हाथ में रख कर बोलाः यह क्या करते हैं? उस साधु ने कहाः जब तुम्हारी नाव की पतवार कोई दूसरा नहीं चला सकता, तो तुम्हारे लिए प्रकाश का दीया कोई दूसरा कैसे जला सकता है? और जब नाव की पतवार तुम्हीं चलाओगे, तो इस अंधकार में तुम्हारा संगी और साथी कौन हो सकता है? वहां भी अकेले ही यात्रा करनी होगी।
सत्य की यात्रा निपट अकेली है। वहां न कोई संगी है, न कोई साथी है। जहां संग है और साथ है, उसी का नाम संसार है। और जहां कोई संग और साथ नहीं है, उसी का नाम धर्म है।
धर्म की यात्रा निपट अकेली है।
इस भ्रांति में कोई न रहे कि कोई भी वहां सहयोगी और साथी हो सकता है। उस जगत में कोई सहयोगी और साथी नहीं हो सकता। और इसलिए धर्म परम पुरुषार्थ है। क्योंकि जिनका परम पुरुषार्थ होगा, वे ही केवल अकेले जाने को राजी हो सकते हैं। अज्ञात-सत्य के लोक में, अज्ञात-आत्म के लोक में, केवल वे ही प्रवेश कर सकते हैं जिन्हें अकेले सागर पर निकल जाने की क्षमता हो। और एक ऐसे सागर पर जिसका कोई कूल-किनारा पता नहीं। एक ऐसे सागर पर जिसका कोई अंत पता नहीं। अकेली यात्रा, परम साहस, परम पुरुषार्थ को मांगती है।
सत्य की खोज में, धर्म की खोज में मनुष्य को कोई साथ और सहयोग नहीं मिल सकता। न शास्त्र का, न शास्ताओं का। लेकिन हम जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो भूल से हम धर्म में नहीं धर्मग्रंथों में उत्सुक हो जाते हैं। धर्म और धर्मग्रंथों में भेद है। और जब हम धर्म में उत्सुक होते हैं, तो धर्म में नहीं संप्रदायों मेें उत्सुक हो जाते हैं। जब कि धर्म में और संप्रदायों में भेद है। और जब हम धर्म में उत्सुक होते हैं, तो धर्म में नहीं धर्मगुरुओं में उत्सुक हो जाते हैं। जब कि धर्म में और धर्मगुरुओं में भेद है।
न तो धर्मशास्त्र धर्म है, न संप्रदाय धर्म है। और न शास्ता और गुरु धर्म है। धर्म तो निजी सत्ता में उपलब्ध होता है। शास्त्र भी बाहर है, संप्रदाय भी बाहर है, धर्मगुरु भी बाहर है। जो बाहर है, उनसे भीतर के जगत में किसी बात का आविष्कार नहीं हो सकता। जो बाहर हैं, उन्हें बाहर ही जानना होगा। और जो भीतर है, उसे भीतर जान कर उसमें प्रतिष्ठा करनी होगी, तब व्यक्ति को धर्म का बोध होता है। और वैसा बोध परम क्रांति है। वैसा बोध व्यक्ति के सारे व्यक्तित्व को, सारी जीवन दिशा को, सबको परिवर्तित कर देता है।
कैसे हम उस धर्म को अनुभव कर सकते हैं जिसकी मैं बात कर रहा हूं? जो शास्त्रों में, शास्ताओं में, संप्रदायों में नहीं मिलेगा, उस धर्म को हम कैसे उपलब्ध कर सकते हैं? उसके संबंध में थोड़ी सी बात आपसे मेरा कहने का मन है। और यह भी मैं आपको कह दूं, अगर वैसा बोध उपलब्ध हो जाए, तो मनुष्य का संकट टल सकता है। अगर थोड़े से लोगों को भी वैसा बोध उपलब्ध हो जाए, तो हमारे युग को दृष्टि और आंखें मिल सकती हैं। और शायद हम सारी मनुष्यता को बचाने में समर्थ हो सकते हैं।
मनुष्य ने उस तरह के धर्म से सारे संबंध छोड़ दिए। लोग आपसे कहेंगे कि इस संबंध छोड़ने के पीछे उन नास्तिकों, वैज्ञानिकों का हाथ है, जिन्होंने कहा कि ईश्वर नहीं है; जिन्होंने कहा, आत्मा नहीं है; जिन्होंने कहा, मोक्ष नहीं है। जिन्होंने सब इनकार कर दिया और कहा, केवल पदार्थ की, केवल मैटर की सत्ता है। धर्मगुरु, धर्म-पुरोहित, धर्म-उपदेशक आपसे कहेंगे, इन नास्तिकों ने, इन वैज्ञानिकों ने इन जड़वादी लोगों ने इस भौतिकवाद ने धर्म से मनुष्य को दूर हटा दिया है। यह बात बिलकुल ही गलत है।
यह बात वैसे ही गलत है जैसे मैं अपने घर में अंधकार देख कर कहूं कि मेरे घर में तो दीये जलते थे, लेकिन अंधकार आया और उसने दीये बुझा दिए। यह बात उतनी ही गलत है, जैसे मैं कहूं कि मेरे घर में तो दीये जलते थे, प्रकाश ही प्रकाश था, लेकिन अंधकार आया और उसने मेरे दीये बुझा दिए।
कोई अंधकार दीये नहीं बुझा सकता। और कोई भौतिकवाद, कोई जड़वाद धर्म को नहीं मिटा सकता। धर्म बड़ी प्रज्ज्वलित शिखा है, सनातन शिखा है। उसे बुझाना जड़वाद के सामथ्र्य के बाहर है। सच इससे बिलकुल विपरीत है। सच यह है जब दीये बुझ जाते हैं, तो अंधकार प्रवेश कर जाता है। सच यह है, जब धर्म शिथिल हो जाता है, तो जड़वाद प्रविष्ट हो जाता है।
जो लोग आपसे कहते हैं, भौतिकवाद के कारण धर्म शून्य हुआ है, वे गलत कहते हैं। सच यह है कि धर्म शून्य हुआ है इसलिए भौतिकवाद प्रबल हो सका है। बिलकुल ही विपरीत बात है। और यह मैं इसलिए आपसे कहता हूं कि जो यह कहते हैं कि जड़वाद के कारण धर्म शिथिल हुआ, वह जड़वाद की शक्ति को धर्म से बड़ा समझते हैं। और अगर जड़वाद के कारण धर्म शिथिल हुआ है, तो जड़वाद तो निरंतर विकसित हो रहा है, धर्म का आगे क्या होगा?
अगर यह सच है कि जड़वाद के कारण धर्म शिथिल हुआ है, तो आगे यह भी सच हो जाएगा कि जड़वाद के कारण धर्म विनष्ट ही हो जाए। क्योंकि वह तो निरंतर विकसित हो रहा है। जड़ के संबंध में हमारी खोज निरंतर बड़ी से बड़ी होती जाती है। बुद्धि हमारी ज्यादा वैज्ञानिक से वैज्ञानिक होती जाती है। सोचने के ढंग हमारे पदार्थ के विश्लेषण के आधार पर आधृत होते चले जाते हैं, तो फिर धर्म क्या होगा?
मैं ऐसा नहीं देखता। धर्म की शक्ति विधायक है। उस विधायक शक्ति को कोई नास्तिकता, कोई भौतिकता नष्ट नहीं करती। उलटा हुआ है। लेकिन तथाकथित धर्मों के अनुयायी और उनके उपदेष्टा इस आत्मग्लानि को छिपाने के लिए--उनके कारण धर्म पतित हुआ है--सारा दोष जड़वादियों पर और वैज्ञानिकों पर फेंक देते हैं। धर्म का संबंध मनुष्य से विच्छिन्न होने का कारण तथाकथित धार्मिक लोग हैं। धर्म के नाम पर जो भी चल रहा है। उस सबने धर्म के पतन के आधार रखे हैं। धर्म के नाम पर जो भी प्रचारित किया जा रहा है और विचारित किया जाता है, उसने धर्म की जड़ों को भूमि से अलग कर दिया है।
ऐसे धर्म को जो दिखाई पड़ रहा है चारों तरफ, कोई विवेकशील व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकेगा। ऐसे धर्म के नाम पर बहुत कलंक हैं। ऐसे धर्म के नाम पर सबसे बड़ा कलंक तो यह है कि जो धर्म मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने का दावा करता है, वह धर्म मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता है। और जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ता हो, वह मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने का सेतु नहीं बन सकता है।
क्योंकि परमात्मा कहां होगा? परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि कहीं आकाश में बैठा हो, परमात्मा तो समस्त में व्याप्त चैतन्य का नाम है। और जो धर्म एक चेतना को दूसरी चेतना के बीच दीवालें खड़ी करता हो, वह धर्म समग्रीभूत चेतना से एक नहीं कर सकता।
अभी मैं पीछे कल कलकत्ता था। किसी ने मुझसे वहां पूछा कि मैं किस धर्म का हूं? मैंने कहाः जब भी कोई कहता है, किस धर्म का, तभी वह धर्म की बात नहीं कर रहा है। और जो व्यक्ति धार्मिक है, वह केवल धार्मिक होगा। और किसी धर्म के होने का उसे कोई रास्ता, कोई उपाय नहीं है। धर्म और धर्म के बीच दीवाल नहीं हो सकती। असल में दो धर्म नहीं हो सकते। और जहां भी दो धर्म दिखाई पड़ते हों, वहां जरूर अधर्म किसी न किसी रूप में धर्म के नाम से खड़ा है। यह, यह माना जा सकता है, यह समझा जा सकता है।
सत्य के दो रूप नहीं हैं, सत्य के कोई, कोई पचास, पचास भेद और प्रकार नहीं हैं। सत्य तो एक है, धर्म भी एक है। लेकिन धर्म के नाम से यह जो अनेकता है, ये जो संप्रदाय हैं, उनके पीछे चलती हुई जो परंपरा है, उसकी स्थिति इतनी गलित, कुष्ठ की भांति हो गई है, वह इतनी सड़-गल गई है कि उसके कारण विवेकशील लोग, विचारशील लोग अगर धर्म के विपक्ष में खड़े हो जाएं तो इसमें कोई आश्चर्य मानने की बात नहीं है। इन धर्मों की तथाकथित रूप-रेखाओं ने, इनके पतन ने मनुष्य को धर्म से वियुक्त किया है। धर्म से वापस मनुष्य संयुक्त हो सके, तो उसके संकट का समाधान मिल जाएगा। उसके संकट का समाधान मिल सकता है।
जो भी मनुष्य धर्म से वियुक्त होगा, अनिवार्यरूपेण उसके जीवन में अशंाति और संताप घर कर जाएंगे। धर्म मनुष्य की आंतरिक स्वास्थ्य की व्यवस्था है। धर्म मनुष्य की कोई अंधविश्वास, कोई श्रद्धा नहीं, वरन मनुष्य की आंतरिक स्वास्थ्य की व्यवस्था है। जो मनुष्य जितना धर्म से संयुक्त होगा, उतना अंतस्तल में स्वस्थ होता है। और स्वस्थ होने का अर्थ है शांति। स्वस्थ होने का अर्थ है सौंदर्य। स्वस्थ होने का अर्थ है शिवत्व। स्वस्थ होने का अर्थ है आनंद।
और जब आनंद और शांति और स्वास्थ्य भीतर इकट्ठे होते हैं, तो उस समन्वय में ही, उस शांति की स्थिति में ही मनुष्य की आंखें जड़ के ऊपर परमात्मा को देखने में समर्थ हो पाती हैं।
अशांत जो है, वह पदार्थ से गहरे नहीं देख सकता। शांत जो है, उसकी आंखें पदार्थ से परमात्मा तक प्रविष्ट हो जाती हैं। जब मुझसे कोई पूछता है, ईश्वर है? जब मुझसे कोई पूछता है कि आत्मा है? उससे मैं यह नहीं कहता कि आत्मा है या ईश्वर है, उससे मैं यही कहता हूं, तुम्हारे पास परमात्मा को या आत्मा को देखने की आंख है? या आंख नहीं है? सवाल हमेशा आंख का है।
और जितना अशांत मनुष्य होगा, जितने उसके भीतर कंपन होंगे, जितने तनाव होंगे, जितना उसके चित्त के भीतर द्वंद्व और कांफ्लिक्ट होगी, उतनी ही उसकी आंखें धुंधली हो जाती हैं। द्वंद्व धुएं की भांति आंखों को ढांक लेता है। जितना भीतर द्वंद्व होगा, जितना तनाव, टेंशन होगा, जितनी अशांति होगी, उतनी ही आंखें धुएं से भर जाएंगी, और निकट देखना भी मुश्किल हो जाएगा। हम अपने निकट भी देखने में असमर्थ हो गए हैं। हम अपने भीतर इतने उलझे और व्यस्त हैं कि आंख खोलने का सवाल ही नहीं।
मैंने एक आदमी के बाबत सुना है, बात तो झूठ ही होगी। लेकिन जिसने कही है, बड़े सोच कर कही होगी। मैंने सुना है, एक आदमी मर गया, मरने के बाद उसे पता चला कि वह जीवित था। क्योंकि जीवन में जीवन को जानने की फुरसत उसे नहीं मिली। सुना है, एक आदमी मर गया, मरने के बाद उसे पता चला कि वह जीवित था। क्योंकि जीवन में उसे इस जीवन को जानने का अवकाश नहीं मिला। इतना व्यस्त था, इतना घिरा था कि यह स्मरण भी उसे नहीं आया कि मैं जीवित हूं। यह तो जब वह मर गया, और मरने की शांति ने सब तनाव विलीन कर दिए, उस अंधकार में, उस शांति में उसे पता चला कि यह क्या हुआ? इतने दिन मैं जीवित रहा और मुझे कुछ खयाल भी न था।
हममें से अधिक लोग नहीं जान पाते कि जीवित हैं। हममें से अधिक लोग नहीं जान पाते आस-पास क्या है? हम सबकी आंखें अपने आंतरिक कलह, वह जो इनर कांफ्लिक्ट है, वह जो निरंतर द्वंद्व है भीतर, उसके कारण बंद हैं। और उस बंद होने के कारण, पदार्थ के अतिरिक्त हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ सकता। पदार्थ स्थूलतम सत्ता है, इसलिए अंधे भी उससे टकरा जाते हैं तो उन्हें पता चल जाता है कि पदार्थ है। लेकिन जितनी सूक्ष्म सत्ता हो, उतनी ही सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। और जितने सूक्ष्म प्रवेश करना हो सत्ता में, उतना ही सूक्ष्म स्वयं हो जाना चाहिए, तभी उतने ही दूर तक गति हो सकती है। एक अंधा भी निकलेगा तो दीवाल से टकरा जाएगा। दीवाल को देखने के लिए आंखें नहीं चाहिए। टकरा जाना काफी है।
मैं आपको स्मरण दिलाऊं, दुनिया में पदार्थ मालूम होता है क्योंकि पदार्थ को जानने के लिए कोई अंतर्दृष्टि नहीं चाहिए, टकरा जाना काफी है। हम केवल उन चीजों को जान पाते हैं जिनसे हम टकराते हैं। शेष सारी सत्ता हमसे अनजान, अपरिचित रह जाती है। क्योंकि शेष सत्ता को जानने के लिए आंख चाहिए, टकराना काफी नहीं है।
पदार्थ का बोध होता है, क्योंकि पदार्थ का स्पर्श होता है। पदार्थ का बोध होता है, क्योंकि हमारी इंद्रियां उससे टकराती हैं। और उनकी टक्कर से हमें, हमें प्रतीत होता है कि कुछ है। लेकिन जहां टक्कर नहीं होती, वहां हमें लगता है कुछ भी नहीं है। जब कि सच यह है कि जहां हम नहीं टकरा रहे हैं वहीं वह है, जिसका होना अर्थपूर्ण है। और जहां हम टकरा रहे हैं वह कोई वास्तविक होना नहीं है।
लेकिन उतनी सूक्ष्म दृष्टि के लिए भीतर शांति और धुएं का हट जाना जरूरी है। क्या है धुआं? और क्या है अशांति? और कैसे वह हट सकती है? उसके तीन सूत्रों के संबंध में मैं आपसे बात करूं। उन तीन सूत्रों पर अगर जीवन, जीवन ढाला जाए तो मनुष्य को सूक्ष्म में प्रवेश की आंख मिल जाती है। धुआं हटता है, आंख खुलती है और कुछ बातें देखने में सामथ्र्य मिलती है जो हमें सहज दिखाई नहीं पड़ती।
परमात्मा या आत्मा किन्हीं मनुष्यों का कोई विचार नहीं है, कोई लाॅजिकल कनक्लूजन नहीं है कि कुछ लोगों ने सोचा और उन्होंने कहा ईश्वर है। जैसा कि लोग कहते हैं, ईश्वरवादियों से पूछिए, तथाकथित ईश्वरवादियों से पूछिए, तो वे इस तरह बात करेंगे जैसे ईश्वर कोई, कोई आग्र्युमेंट से, कोई तर्कों से पहुंची गई निष्पत्ति है। वह बताएंगे दुनिया है, इसलिए इसका बनाने वाला होना चाहिए। वह बनाने वाला ईश्वर है। इस तरह गणित के ढंग से वह ईश्वर को रखते हैं, जो लोग ईश्वर के होने के लिए तर्क देते हैं, समझ लेना उन्हें ईश्वर के होने का कोई भी पता नहीं।
ईश्वर के होने का प्रश्न, तर्क का प्रश्न नहीं है। ईश्वर के होने का प्रश्न किसी अनुभूति का प्रश्न है। अगर मनुष्य के भीतर कोई सूक्ष्म संवेदना का केंद्र सक्रिय हो जाए, कोई सेंसेटिविटी, कोई रिसेप्टिविटी, कोई ग्राहकता सूक्ष्म रूप से सक्रिय हो जाए, तो इस जगत में जहां अभी केवल स्थूल पदार्थ दिखाई पड़ता है वहीं सूक्ष्म शक्ति का संचरण अनुभव होने लगता है। सारे जगत में सूक्ष्म शक्ति के संचरण का जो अनुभव है, उस अनुभूति का नाम ईश्वर है। उस सूक्ष्म शक्ति के अनुभव के लिए जरूरी है कि आंख धुएं से मुक्त हो, द्वंद्व से मुक्त हो, संघर्ष से मुक्त हो; आंख तनाव से मुक्त हो। अगर भीतर परिपूर्ण शांति हो झील की भांति, जिस पर कोई लहरें नहीं हैं, तो इस सारे जगत के रहस्य खुल जाते हैं।
इसलिए प्रश्न जगत के रहस्यों का नहीं, प्रश्न व्यक्ति के भीतर, मनुष्य के भीतर परिपूर्ण शांति की ग्राहकता का है। वह जो साइलेंट रिसेप्टिविटी है, वह जो परिपूर्ण शांत ग्र्राहकता है उसका है। वह है तो जगत नया हो जाता है। वह है तो जीवन दूसरा हो जाता है। वह है तो एक क्रांति फलित होती है। वह शांत ग्राहकता, वह साइलेंट रिसेप्टिविटी कैसे पैदा हो, उसके छोटे से तीन सूत्रों पर आपसे मैं बात करना चाहता हूं। वे तीन सूत्र समस्त धर्मों के केंद्रीयभूत सार-सूत्र हैं।
पहला सूत्र हैः प्रेम।
जिन लोगों ने कभी भी जीवन को जाना है या कभी भी कोई जब जीवन को जानेगा, तो एक बहुत कीमती बहुमूल्य सूत्र उसे दिखाई पड़ेगा। और वह यह कि अगर मैं सारे जगत को प्रेम कर सकूं, तो जगत से मेरे सारे द्वंद्व, मेरे सारे संघर्ष विलीन हो जाएंगे। दूसरे व्यक्ति से मेरे संघर्ष की शुरुआत वहां है जहां दूसरे व्यक्ति से मेरा प्रेम कम पड़ जाता है। जब भी हम जगत से प्रेम के अलावा किसी दूसरी चीज से संबंधित होते हैं, तभी जगत एक उपद्रव, तभी जगत एक संघर्ष और कलह का रूप ले लेता है। जब भी मैं प्रेम के अतिरिक्त किसी और मार्ग से किसी भी व्यक्ति से संबंधित हो जाऊंगा, तभी मेरे भीतर वे संबंध अनेक प्रकार के द्वंद्व, अनेक प्रकार के उत्ताप, अनेक प्रकार की कलह को, अनेक प्रकार के मानसिक संघर्ष और तनाव को पैदा करेंगे। मनुष्य के भीतर घृणा से ज्यादा, हिंसा से ज्यादा, क्रोध से ज्यादा और कोई चीज द्वंद्व और धुएं को पैदा नहीं करती।
जिन लोगों को सत्य को जानना हो, जिन लोगों को निज सत्ता को अनुभव करना हो, या जिन्हें पदार्थ के पार के अदृश्य लोक की अनुभूति में प्रतिष्ठित होना हो, उनके लिए प्रेम के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।
प्रेम का अर्थ हैः जगत से शांति के, अकलह के संबंध से जुड़ जाना। केवल प्रेम है जो मुक्त करता है। साधारणतः हम सोचते हैं कि प्रेम बांधता है। जो बांधता है, वह प्रेम नहीं है। जो बांध दे, वह राग है। और मैं आपको कहूं, राग घृणा का ही रूप है। घृणा का विरोध नहीं है। और इसलिए अक्सर राग घृणा में परिणित हो सकता है।
जरा सी स्थितियां बदल जाएं, तो जिससे आपका राग था, जिसे आप प्रेम समझते थे, वही राग घृणा में परिणित हो सकता है। जरा सी परिस्थितियां बदल जाएं, तो जिसे आप समझते थे, मैं प्रेम करता हूं, उसी के प्राण लेने के ग्राहक हो सकते हैं। जो राग जरा सी विपरीत स्थिति में घृणा बन जाता है, जानना चाहिए, उस राग की पतली पर्त के नीचे सदा ही घृणा मौजूद रहती है। वह पतली पर्त फट जाए, तो घृणा प्रकट हो जाती है। राग घृणा का ही रूप है।
प्रेम बड़ी दूसरी बात है। प्रेम का अर्थ हैः ऐसा संबंध, समस्त जगत के प्रति ऐसा संबंध, या किसी के भी प्रति ऐसा संबंध, जिसके घृणा में परिणित होने की कोई संभावना न हो।
गौतम बुद्ध के ऊपर एक दिन सुबह एक व्यक्ति ने आकर थूक दिया। वह क्रोध में था, बुद्ध पर गुस्से में था। उनके विचार उसे प्रीतिकर नहीं लग रहे थे। और उनकी बड़ी क्रांति दृष्टि उसे बहुत बेचैन और परेशान कर रही थी। उसने गुस्से में आकर बुद्ध के ऊपर थूक दिया। बुद्ध ने उस थूक को अपनी चादर से पोंछा और उस व्यक्ति से कहाः तुम्हें कुछ और कहना है? वह व्यक्ति बोलाः क्या आप सोचते हैं मैंने थूक कर कुछ कहा है? बुद्ध ने कहाः निश्चित ही तुमने कुछ कहा है। शायद तुम इतने क्रोध में थे कि शब्द कहने में उस क्रोध को असमर्थ रहे होंगे, इसलिए तुमने थूक कर कहा है। लेकिन तुमने कुछ कहा, वह मैं समझ गया। और कुछ कहना है? वह व्यक्ति हतप्रभ हुआ होगा। उस दिन चुपचाप वापस लौट गया।
दूसरे दिन बुद्ध से क्षमा मांगने आया और उसने कहा कि मुझे क्षमा करें। बुद्ध ने कहाः क्यों क्षमा मांगते हो? उस व्यक्ति ने जो कहा, वह विचारणीय है। उस व्यक्ति ने कहाः इसलिए कि मुझे सदा आपका प्रेम उपलब्ध हुआ है। और कल जब मैं लौटा तो मुझे लगा, अब शायद आपसे मुझे प्रेम संभव नहीं रह जाएगा। आप मुझे अब प्रेम आगे नहीं दे सकेंगे। सदा जो प्रेम उपलब्ध रहा है, वह समाप्त कर लिया मैंने अपने हाथ से। बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने कहाः क्या तुम सोचते हो, मैं तुम्हें इसलिए प्रेम करता था कि तुम मेरे ऊपर नहीं थूकते थे? बुद्ध ने कहाः क्या तुम सोचते हो, मैं तुम्हें इसलिए प्रेम करता था कि तुम मेरे ऊपर नहीं थूकते थे? इसलिए प्रेम अगर करता होता, तो प्रेम टूट सकता था।
स्मरण रखें, जिस प्रेम में कारण है वह किसी भी दिन घृणा में परिणित हो सकता है। जिस प्रेम में शर्त है, वह प्रेम घृणा में किसी भी दिन परिवर्तित हो सकता है। जिस प्रेम के पीछे कारण हैं, वह प्रेम कभी होगा, कभी नहीं भी हो सकता है। इसलिए जिस प्रेम में कारण हैं, उसे मैं राग कहूंगा; जो प्रेम अकारण है, वही केवल प्रेम है; जिसके पीछे कोई शर्त, कोई कंडीशन, कोई कारण नहीं है।
तो बुद्ध ने उसे कहा कि मैं तुम्हें अब भी प्रेम करूंगा, क्योंकि मैं प्रेम करने को विवश हूं। मैं कुछ और कर ही नहीं सकता। यह मत सोचना कि तुम्हारे कारण तुम्हें प्रेम करता था। मैं अपने कारण ही प्रेम करता हूं। मैं प्रेम करने को विवश हूं, कुछ और करने का उपाय नहीं है। तुम्हारा कुछ भी करना, अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ, मेरे हित में या अहित में, मेरे प्रेम को परिवर्तित नहीं कर सकता। तुम मेरे प्रेम को बदलने में समर्थ नहीं हो सकते हो। क्यों? क्योंकि तुम्हारे किसी भी कारण से मैंने तुम्हें प्रेम नहीं किया।
प्रेम मुझसे वैसे ही है, जैसे दीये से प्रकाश गिरता है। दुश्मन निकलता है पास से या मित्र निकलता है, इससे भेद नहीं पड़ता। भला आदमी निकलता है या बुरा आदमी निकलता है, इससे भेद नहीं पड़ता। अपना निकलता है या पराया निकलता है, इससे भेद नहीं पड़ता। दीये का प्रकाश तो जो भी निकलता है, उस पर गिरता है। और अगर कोई भी न निकले और निर्जन कक्ष हो तो भी, तो भी दीये का प्रकाश गिरता है।
बुद्ध ने कहाः प्रेम मैं उसे कहता हूं, जो गिरे, बिना इस विचार के कि किस पर गिरता है। बिना इस विचार के कि किस कारण से गिरता है। बिना इस विचार के कि कोई मौजूद है या मौजूद नहीं है। समस्त जगत के प्रति मंगल की भावना प्रकाश की भांति गिरती रहे, वह उसका परिणाम होता है, उसका परिणाम होता है। ऐसा व्यक्ति इस जगत के प्रति द्वंद्व से मुक्त हो जाता है। और जो व्यक्ति जगत के प्रति द्वंद्व से मुक्त हो, उसके भीतर मन के सारे द्वंद्व क्षीण होने लगते हैं। वह जो धुआं पैदा होता है, वह विलीन होने लगता है।
दुनिया के जिन सतपुरुषों ने प्रेम या अहिंसा, या करुणा, या दया की बातें कही हैं, इस खयाल में न रहें कि वे कोई सामाजिक नैतिकता की बातें हैं। वह सब साधना के केंद्रीय अंग हैं। क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त कोई मनुष्य कभी शांत नहीं हो सकता। प्रेम के अतिरिक्त कोई मनुष्य भीतर उस स्थिति को पैदा नहीं कर सकता कि परमात्मा को जानने में समर्थ हो जाए।
इसलिए क्राइस्ट ने कहा है कि अगर कोई मुझसे जोर ही देकर पूछे कि परमात्मा की मैं क्या परिभाषा करूं? तो मैं कहूंगा, प्रेम परमात्मा है। लव इ.ज गाॅड। यह छोटा सा सूत्र बहुमूल्य है। अगर महावीर से कोई .जोर देकर पूछता है, कि क्या है, धर्म? तो महावीर कहते अहिंसा धर्म है। अहिंसा का कोई और अर्थ नहीं है। अगर बुद्ध से कोई पूछता, क्या है धर्म? तो बुद्ध कहते थे मैत्री धर्म है। यह मैत्री, अहिंसा या प्रेम, सब पर्यायवाची हैं। इनमें कोई भेद नहीं है।
जिस व्यक्ति को परमात्मा को अनुभव करना हो, उसे पहली सीढ़ी अपने भीतर प्रेम की चढ़नी होगी। परमात्मा तर्क से नहीं, प्रेम के इस विकास से अनुभव में आएगा। विचार से नहीं, प्रेम से अनुभव में आएगा। प्रेम को विकसित करना होगा।
तो पहला सूत्र हैः प्रेम का प्रसार।
अकारण, अहेतुक, बिना किसी शर्त के सारे जगत के प्रति प्रेम का संचरण। उठते-बैठते, सोते-जागते, किसी की मौजूदगी में, किसी की गैर मौजूदगी में, पक्षी हों या पौधे हों, वृक्ष हों या आकाश के तारे हों, सबकी तरफ दृष्टि से निरंतर प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी न फेंकना।
मैडम ब्लावट्स्की के बाबत मैंने सुना है। रूस के एक छोटे से गांव से वह निकलती थी। किसी ने उनसे एक बात पूछी। फिर बाद में वह तिब्बत के किसी गांव से निकलती थी, वहां किसी ने एक बात पूछी। फिर भारत में वह किसी गांव से निकलती थी, वहां किसी ने एक बात पूछी। तीनों बार एक ही बात पूछी गई और तीनों बार एक ही कारण से पूछी गई, और तीनों बार उन्होंने एक ही उत्तर दिया।
जब भी वह कहीं जाती, तो अपने साथ एक बड़ा झोला रखती। और उसमें फूलों के बहुत से, फूलों के बहुत से बीज रखती। गाड़ी में बैठ कर गाड़ी के किनारे उन बीजों को फेंकती जाती। लोग उनसे पूछतेः यह क्या है? और क्यों फेंक रही हैं? उन्होंने सदा कहाः इस रास्ते पर थोड़े से फूल के बीज फेंकती हूं, ताकि उनमें फूल आ जाएं। अभी वर्षा आएगी, बीज अंकुर बनेंगे और उनमें फूल आ जाएंगे। लोगों ने उनसे पूछाः लेकिन इस रास्ते पर आपके दुबारा निकलने की क्या कोई संभावना है? क्या आप उन फूलों को देख सकेंगी? तो ब्लावट्स्की ने कहाः मैं तो नहीं, लेकिन हजारों आंखों से मैं ही उन फूलों को देखूंगी। ब्लावट्स्की ने कहाः मैं तो नहीं, लेकिन हजारों आंखों से मैं ही उन फूलों को देखूंगी। और उनकी खुशी और उनका आनंद मेरा आनंद है।
मैं आपसे नहीं कहता कि आप फूलों के बीज लिए हुए सड़कों पर फेकें। लेकिन मैं आपसे यह कहता हूं कि दो ही तरह के लोग जगत में हैं। एक तो वे लोग हैं जो दूसरों के रास्ते पर फूल फेंक देते हैं। और एक वे लोग हैं जो दूसरों के रास्तों पर कांटे फेंक देते हैं। दो ही तरह के लोग हैं। और यह भी मैं आपको जल्दी से कह दूं कि भूल न जाएं कि जो लोग दूसरों के रास्तों पर फूल फेंकने को जीवन में स्वभाव नहीं बनाते हैं, वे जानें या न जानें, चाहें या न चाहें, उनसे दूसरों के रास्तों पर कांटे गिरना अनिवार्य है।
जब तक हम जीवित हैं, हम कुछ न कुछ फेकेंगे। जीवन का अर्थ हैः फेंकना। जब तक हम जीवित हैं, कुछ न कुछ उलीचेंगे। जीवन का अर्थ हैः उलीचना। जब तक हम जीवित हैं, हमारे चारों तरफ कोई न कोई चीज हमसे विकीर्ण होगी। जीवन का अर्थ हैः विकीर्ण होना।
तो जो फूल नहीं फेंक रहा है, वह स्मरण रखे कि जाने-अनजाने उससे कांटे फिंक रहे हैं। और जो प्रकाश नहीं फेंक रहा है, वह स्मरण रखे, जाने-अनजाने उससे अंधकार फिंका जा रहा है। और जो अपने भीतर से लोगों के प्रति मंगल के भाव नहीं विकीर्ण कर रहा है, वह स्मरण रखे, वह किसी न किसी रूप में लोगों की मृत्यु के, लोगों के दुख के, लोगों की पीड़ा के संदेश भेज रहा है। हर मनुष्य या तो आशीर्वाद दे रहा है या अभिशाप दे रहा है, इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। तीसरी तरह का कोई मनुष्य नहीं है। तीसरी तरह का मनुष्य जीवित नहीं रह सकता।
और यह प्रेम का जो प्रसार है दूसरों के रास्तों पर फूल गिरा देने का, यह बहुत महंगी बात नहीं है। और स्मरण रखें कि जो आप दूसरों के रास्तों पर गिराते हैं, यह न सोचें कि दूसरों को इससे हित होगा, गिराते क्षण ही आपका हित हो जाता है, दूसरों का जब होगा तब होगा।
जब कोई व्यक्ति हृदय से भर कर किसी के प्रति प्रेम फेंकता है, तो यह जरूरी नहीं है कि जिसके प्रति प्रेम फेंका उसे मिलेगा या नहीं मिलेगा। क्योंकि हो सकता है दूसरे के द्वार बंद हों। हो सकता है दूसरा अभागा हो और उसकी आंखें बंद हों, और उस तक खबर न पहुंचे। लेकिन जो व्यक्ति प्रेम फेंक रहा है, वह तत्क्षण अपने जीवन को ऊपर उठा रहा है। प्रेम के फेंकने में वह ऊपर उठ रहा है। क्योंकि जैसे ही वह प्रेम फेंकता है, भीतर शांति घनीभूत हो जाती है।
जब भीतर से बाहर प्रेम जाता है, तो भीतर शांति घनीभूत होती है। और जब भीतर से बाहर घृणा जाती है, तो भीतर अशांति घनीभूत होती है। घृणा अपनी छाया की तरह अशांति को छोड़ती है भीतर, और प्रेम अपनी छाया की तरह भीतर शांति को छोड़ता है। प्रेम की छाया शांति है, जो भीतर रह जाती है और प्रेम बाहर फैल जाता है। और घृणा की छाया अशांति है, घृणा बाहर फैल जाती है, अशांति भीतर रह जाती है।
जिस व्यक्ति को आंखों को निर्मल करना हो, उसे चारों तरफ प्रेम के प्रसार को समस्त जगत के प्रति, उठते-बैठते, सोते-जागते मंगल के भाव को, मैत्री के भाव को, अहिंसा की दृष्टि को विकसित करनी चाहिए। जितना प्रेम विस्तीर्ण होगा उतना ही वह व्यक्ति जगत से मुक्त हो जाएगा। प्रेम के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं है। घृणा बांधती है, प्रेम मुक्त करता है। और जो राग बांधता है वह राग घृणा के हिस्से में है, घृणा के साथ है। प्रेम मुक्ति है। जिसको मैं प्रेम करता हूं उससे ही मैं मुक्त हो जाता हूं। और अगर मैं समस्त जगत से प्रेम कर सकूं, तो मैं समस्त जगत से मुक्त हो जाऊंगा।
स्मरण रखें, जो मुक्त कर दे, वह प्रेम है। और जितना मुक्त कर दे, उतना प्रेम है। और परिपूर्ण मुक्त कर दे, तो पूर्ण प्रेम है। पूर्ण प्रेम का नाम ही अहिंसा है। यह पहला सूत्र है आपके भीतर निर्मलता उपलब्ध करने का, धुआं, धुआं दूर करने का। पहला सूत्र हुआः प्रेम का प्रसार।
दूसरा सूत्र हैः परिग्रह का संकोच।
यह भी अदभुत सत्य है कि जो व्यक्ति जितना ज्यादा परिग्रह को फैलाता है, वह व्यक्ति उतना ही छोटा होता चला जाता है। जो व्यक्ति जितने सामान को, जितनी चीजों को इकट्ठा करने में लग जाता है, वह व्यक्ति उतना ही, उतना ही नीचे गिरता चला जाता है। उतना ही भारी होता जाता है। सामान का बोझ उसके ऊपर भारी होता जाता है और वह नीचे बैठने लगता है।
एक भारतीय साधु भारत के बाहर था, एक भवन के सामने खड़ा था और भवन में आग लगी थी। और लपटें जल रही थीं और भवन से लोग सामान को बाहर निकालते थे। सारा सामान बाहर निकाल लिया गया था। भवन का मालिक करीब-करीब बेहोश सा, आंखों से आंसू बहाता हुआ खड़ा था। उसे स्मरण भी नहीं था कि क्या हो रहा है। और तभी लोगों ने आकर पूछा कि अब भवन पूरा जलने के करीब है, लपटें नीचे के कक्षों तक भी आ गई हैं, एक बार और हम भीतर जा सकते हैं, कुछ बचाने को हो तो बता दें? उसने कहाः मुझे कुछ याद नहीं आता, तुम एक दफा जाकर भीतर देख लो। हर बार वे लोग भीतर गए थे और हर बार हंसते हुए बाहर आए थे। क्योंकि कुछ न कुछ बहुमूल्य सामान बचा कर लाए थे। अंतिम बार वे सारे लोग रोते हुए वापस लौटे। अब की बार भी वे कुछ लाए थे, लेकिन रोते हुए लौटे। और लोगों ने भीड़ लगा ली, उन्होंने पूछाः रोते क्यों हो? उन्होंने कहाः भूल हो गई, हम सामान को बचाने में लग गए और मकान मालिक का इकलौता लड़का भीतर सोया था, वह मर गया। उन्होंने कहाः हम सामान को बचाने में लग गए और सामान का अकेला मालिक इसी बीच समाप्त हो गया।
वह जो भारतीय साधु उस भीड़ में खड़ा होकर इस घटना को देखता था, उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैंने उस दिन उस भवन में लगी हुई लपटों के बीच जो देखा, वह हर मनुष्य के जीवन में मुझे दिखाई पड़ता है। अधिकतम लोग सामान को बचाने में लग जाते हैं और सामान का मालिक धीरे-धीरे मरता चला जाता है। एक दिन आता है, सामान तो बच जाता है और मालिक मर जाता है।
सामान को बचाने में जो लगा है वह अधार्मिक है। और अधर्म का कोई अर्थ नहीं होता। जो मालिक को भूल कर सामग्री बचा रहा है, जो सामान को बचा रहा है स्वयं को भूल कर, वह अधार्मिक है।
और धार्मिक का एक ही अर्थ हैः दृष्टि परिवर्तित हो, सामग्री से स्वयं पर। स्वयं प्रथम हो और सामग्री गौण और द्वितीय हो जाए, तो व्यक्ति में धर्म की शुरुआत हो जाती है। जो जितना सामग्री को बचाने में लगेगा, उतना ही उसकी स्वयं की सत्ता क्रमशः मरती चली जाएगी। एक दिन वह करीब-करीब सामग्री का हिस्सा हो जाएगा। एक दिन करीब-करीब वह सामग्री का हिस्सा हो जाएगा। और सामग्री को यह जो फैलाने का भाव है, यह मनुष्य को क्रमशः भिखमंगे से भिखमंगा बनाता जाता है। जिन्हें हम सम्राटों की तरह देखते हैं, जिनके पास आंखें हैं वे उन्हें भिखमंगों की तरह देखते हैं। और जिन्हें हमने भिखमंगों की तरह देखा है, जिनके पास आंखें हैं, वे उन्हें सम्राट समझते हैं।
बुद्ध एक गांव से निकलने को थे। उस गांव के राजा ने सोचा, मैं उन्हें लेने जाऊं या न जाऊं? एक भिखमंगा गांव में आ रहा है, तो राजा लेने जाए या न जाए? उसने अपने मंत्रियों को पूछा कि क्या मेरा जाना उचित है? क्या एक राजा गांव के बाहर एक भिखारी को लेने जाए? उनमें एक वृद्ध मंत्री ने कहा कि क्षमा करें, अगर आपके पास आंखें होतीं, तो जो आ रहा है उसे आप बादशाह और अपने को भिखमंगा समझते। उस राजा ने कहाः यह क्या कहते हो? मैं कैसे भिखमंगा हूं? उस बूढ़े अमात्य ने कहाः जिसकी मांगें अनंत हैं, उसके भीतर अनंत भिखमंगापन है। और जिसकी कोई मांग शेष न रही, वह मालिक हो गया। जो कुछ भी नहीं मांगता, वही केवल सम्राट है। और जो कुछ भी मांगता है, मांग ही उसे भिखमंगा बनाती है।
एक और मुझे स्मरण आया। एक मुसलमान फकीर हुआ, फरीद। उसके गांव के लोगों ने फरीद से कहा कि तुम्हें अकबर बहुत मानता है। अकबर के पास जाओ और उससे कहना गांव में एक स्कूल खोल दे। फरीद गया। उसने कहाः मैंने कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। मैं तो भिखारी हूं, मैं कभी किसी से कुछ मांगता नहीं। उस फरीद ने कहाः मैं तो भिखारी हूं, मैं कभी किसी से कुछ मांगता नहीं। लेकिन अब तुम सारे लोग कहते हो, तो मैं जाता हूं। वह गया। उसने सोचा, सुबह-सुबह जाऊं, अकबर प्रार्थना करके, नमाज पढ़ कर निकलता होगा, वहीं कह दूंगा। वह मस्जिद में पहुंच गया। अकबर की नमाज पूरी होने को थी। नमाज पूरी हुई और अकबर ने हाथ उठा कर कहा कि हे परमात्मा, मुझे और धन दे, मुझे और दौलत दे, मेरे राज्य की सीमाओं को और बढ़ा, मुझे और यश दे, मुझे और कीर्ति दे, मेरी सीमाएं रोज दिन-दूनी बढ़ती चली जाएं। यह उसने प्रार्थना के अंत में कहा। अकबर जैसे ही उठा, उसने देखा, फरीद की पीठ उसे दिखाई पड़ी, फरीद मस्जिद की सीढ़ियों से वापस लौट रहा है। वह दौड़ कर पहुंचा और उसने कहा कि कैसे लौट चले, कैसे आए? फरीद ने कहाः इस तरह आए थे कि सोचा था तुम एक सम्राट हो, और इस तरह लौट चले कि देखा कि तुम भी एक भिखमंगे हो। देखा तुम भी मांगते हो। देखा तुम्हारी मांग का कोई अंत नहीं है। और भी ज्यादा मांगते हो।
तो जो जितना परिग्रह को मांगता है उतना भिखमंगा होता चला जाता है। और इस जगत में परमात्मा भिखमंगों को उपलब्ध नहीं होगा, मालिकों को उपलब्ध होता है, सम्राटों को उपलब्ध होता है। जो अपने मालिक नहीं हैं, वे इस जगत की अंतरसत्ता के, इस जगत के मालिक के दर्शन करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसलिए परिग्रह सबसे बड़ी बाधा है। अपरिग्रह सबसे बड़ा सहयोग है। सबसे बड़ा मार्ग है। सबसे बड़ा सेतु है।
तो जिसे स्वयं को पाना हो, उसे धीरे-धीरे परिग्रह को क्षीण और संकुचित करना होगा। उस सीमा तक कि जब वह बिलकुल निपट अकेला रह जाए। और उसके पास कुछ भी न हो।
कुछ भी न होने का मतलब क्या है? कुछ भी न होने का मतलब है कि कुछ भी उसके भीतर मांग न हो। कुछ भी उसके भीतर पाने की आकांक्षा न हो। जितनी आकांक्षाएं कम होती हैं, आत्मा उतनी विकसित होती चली जाती है। जितनी आकांक्षाएं ज्यादा होती हैं, आत्मा उतनी, उतनी पतित होती चली जाती है। आकांक्षा और आत्मा में विरोध है। आकांक्षा संसार का द्वार है और जो आकांक्षा से पीछे लौटता है, जो वापस लौटता है, वह आत्मा के द्वार को उपलब्ध हो जाता है।
यह मैंने कहा, प्रेम का प्रसार हो और परिग्रह का संकोच हो। प्रेम फैले और परिग्रह छोटा हो। और यह भी आप स्मरण रखें कि जितना प्रेम फैलेगा उतना ही परिग्रह छोटा होने में सहयोग मिलेगा। और जितना परिग्रह छोटा होगा, उतना प्रेम के फैलने में सहयोग मिलेगा। क्योंकि जिसका बहुत परिग्रह है, उसका प्रेम बहुत छोटा होता है। और जिसके पास जितना परिग्रह है, उसका प्रेम उतना ही संकीर्ण और छोटा होता चला जाता है।
अभागे हैं वे लोग जिनके पास परिग्रह तो बहुत हो जाता है और प्रेम शून्य हो जाता है। और धन्य हैं वे लोग जिनके पास परिग्रह तो शून्य हो जाता है और प्रेम पूर्ण हो जाता है। वे दोनों एक साथ बढ़ते हैं। प्रेम आगे बढ़ता है तो परिग्रह पीछे हटता है। परिग्रह पीछे हटता है तो प्रेम और आगे बढ़ता है। वे संबद्ध सूत्र हैंः प्रेम का प्रसार और परिग्रह का संकोच।
ये दो साधना के बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए मैंने कहे। बाहर के जगत में चेतना से संबंध पैदा होगा प्रेम से; और पदार्थ से संबंध क्षीण होगा परिग्रह के संकोच से। बाहर के जगत में जो परमात्मा व्याप्त है उससे प्रेम के द्वारा हमारा संबंध होगा; और जो पदार्थ व्याप्त है उससे परिग्रह के संकोच के द्वारा हमारा संबंध विच्छिन्न होगा।
बाहर के जगत के दो सूत्र हैंः प्रेम और अपरिग्रह।
भीतर के जगत में इन दो सूत्रों को जो व्यक्ति साधेगा, उसकी आंखों से धुआं क्रमशः क्षीण होने लगता है। उसके तनाव बंद होने लगते हैं। उसके द्वंद्व भीतर कम होने लगते हैं। जिसकी आकांक्षा परिग्रह पर कम हो जाती है, उसके भीतर कलह कम हो जाती है, उसके भीतर विरोध कम हो जाते हैं, उसके भीतर दौड़ें, तनाव कम हो जाते हैं। उसके भीतर बड़ी थिरता उत्पन्न होती है। और जिसका प्रेम बढ़ता है उसके भीतर बड़ी शांति उत्पन्न होती है। प्रेम शांति लाता है। अपरिग्रह.(अस्पष्ट)..। और तीसरा सूत्र हैः प्राणों के प्राण में प्रतिष्ठा।
पहला सूत्र हैः प्रेम का प्रसार।
दूसरा सूत्र हैः परिग्रह का संकोच।
तीसरा सूत्र हैः प्राणों के प्राण में प्रतिष्ठा।
जब इतनी शांति घनीभूत हो और इतनी थिरता मिले, प्रेम से शांति आए, अपरिग्रह से थिरता आए, तब मनुष्य को अपने भीतर पूछना चाहिए कि मेरे प्राणों का प्राण कौन है? मेरे प्राणों का प्राण क्या है? मैं कहां हूं अपनी आत्यंतिक सत्ता में, जिसके पीछे मैं न जा सकूं?
शरीर से पीछे हम जा सकते हैं। क्योंकि मैं देखता हूं यह मेरा शरीर है। जो देख रहा है शरीर को, वह शरीर से अलग है। जो शरीर का अनुभव कर रहा है, वह शरीर से अलग है। यह मेरा हाथ कट जाए, तो मुझे अनुभव होता है मेरा हाथ कटा। तो जो अनुभव कर रहा है कि मेरा हाथ कटा, हाथ उससे अलग है।
मैं और मेरा में भेद है। जो मेरा है, वह मेरा मैं नहीं है। दिखाई पड़ता है मेरी देह है, अनुभव में आता है मेरी देह है। मैं देह से पीछे हूं, देह मेरा प्राण नहीं हो सकती। और भीतर प्रवेश करें।
क्या श्वास मेरा प्राण हो सकती है? श्वास को भी मैं देखता हूं, श्वास आती है भीतर तो मैं देखता हूं, और श्वास बाहर जाती है तो मैं देखता हूं। श्वास को चाहूं तो मैं रोक लेता हूं। श्वास को चाहूं तो बाहर भी रोक देता हूं। श्वास आती है, जाती है, उसका मुझे अनुभव होता है। जिसे अनुभव होता है श्वास का, वह श्वासों से भी पीछे है। श्वास भी प्राण नहीं है। क्या विचार मेरे प्राण हैं?
मन को देखें, विचार के भी दर्शन होते हैं। क्रोध आता है तो पता चलता है, राग आता है तो पता चलता है, कोई विचार की शंृखला आती है तो पता चलता है। जिस चेतना को इन विचारों का बोध होता है, वह चेतना विचारों से भी पीछे है।
इस भांति क्रमशः अपने भीतर से भीतर प्रवेश, इस भांति क्रमशः उस शांति और थिरता में अपने भीतर की तरफ गमन बहुत आसान हो जाता है। देह अलग दिखाई पड़ती है, श्वास अलग दिखाई पड़ती है, विचार अलग दिखाई पड़ते हैं। और तब जहां कुछ भी नहीं रह जाता जिसको हम अलग कर सकें, जहां निपट चेतना रह जाती है, जो किसी के प्रति चेतन नहीं है।
क्योंकि जिसके प्रति चेतन है उस सबको हमने अलग किया, उस सबसे हमने अपने को तोड़ा, उस सबसे हमने अपने को भिन्न जाना। जब केवल मात्र चेतना रह जाती है, और जानने को कुछ नहीं रहता, केवल ज्ञान रह जाता है। और ज्ञेय कुछ भी नहीं रह जाता, केवल बोध रह जाता है। और बोध किसी के प्रति नहीं रह जाता, उस बोध की निपट निजता में, उस लोनलीनेस में, उस अकेलेपन में, उस एकाकी क्षण में, प्राणों के प्राण में व्यक्ति की प्रतिष्ठा होती है। वह प्रतिष्ठा सारे जगत के रहस्य को उठा देती है। उस प्रतिष्ठा में आंख खुलती है और दिखाई पड़ता है--जहां हमने पदार्थ जाना था, वहां परमात्मा है। और जहां हमने व्यक्ति जाने थे, वहां समग्रीभूत चेतना का सागर है। और जहां हमने देह जानी थी वहां आत्मा है।
स्वयं के भीतर आत्मा, समग्र के भीतर परमात्मा का अनुभव होता है। उस अनुभूति में सारे शास्त्र सत्य हो जाते हैं। उस अनुभूति में सारे सदगुरु सत्य हो जाते हैं। उस अनुभूति में वे सारे गवाही और साक्षी हो जाते हैं कि वह तुम्हारे भीतर भी घटित हुआ--जो महावीर के, बुद्ध के, कृष्ण के, क्राइस्ट के भीतर घटित हुआ है। जो अनंत-अनंत, करोड़-करोड़ जाग्रत चेतनाओं में घटित हुआ है, वह तुम्हारे भीतर भी घटित हुआ है।
इस बोध की गवाही, इस बोध के साक्षी सारे शास्त्र, सारे सदगुरु, सारे शास्ता हो जाते हैं। उसके पहले उनका कोई उपयोग नहीं। उसके पूर्व उनका कोई अर्थ नहीं। उसके पूर्व केवल शब्द-जाल है। वहां सत्य कुछ भी नहीं। और जब अनुभूति भीतर उपलब्ध होती है तो वे सारे शब्द विलीन हो जाते हैं और उनके भीतर सत्यों पर आंख पहुंच जाती है।
व्यक्ति स्वयं में सत्य के आविर्भाव को अनुभव करके इस सारे जगत में सत्य को अनुभव कर लेता है। स्वयं के भीतर आत्मा को जान कर सारे जगत में उसके ही आलोक को अनुभव कर लेता है। ऐसी प्रतीति उसके निज संकट को समाप्त कर देती है। ऐसी प्रतीति उसे बता देती है कि जन्म के पहले उसका होना था, मृत्यु के बाद उसका होना होगा। ऐसी प्रतीति उसे बता देती है कि न कभी उस चेतना को कोई दुख हुआ है, न कभी हो सकता है, न होने की कोई संभावना है। दुख के अतीत, आनंद में प्रतिष्ठित अंधकार के ऊपर, प्रकाश में आलोकित, उस चेतना का अनुभव उसकी सारी समस्याओं को जड़-मूल से नष्ट कर देता है।
अगर थोड़े से लोग भी आज के इस मनुष्य के जगत में वैसे आलोक को उपलब्ध हो जाएं, तो सारे जगत में एक नये प्रकार का प्रकाश अनुभव किया जा सकता है। एक नये प्रकार के आलोक को जन्म मिल सकता है। और उस आलोक में ही मनुष्यता का भविष्य संरक्षित होगा, उसके अतिरिक्त मनुष्य को बचाना कठिन है।
मनुष्य अपने हाथ से आत्मघात कर लेगा। मनुष्य अपनी घृणा से आत्मघात कर लेगा। मनुष्य अपने परिग्रह से आत्मघात कर लेगा। मनुष्य अपने प्राणों के प्राण से विच्छिन्न होने के कारण आत्मघात कर लेगा। मनुष्य को प्रेम में स्थापित करो, मनुष्य को अपरिग्रह में स्थापित करो, मनुष्य को उसके प्राणों के, प्राणों के केंद्र पर स्थापित करो--तो नये मनुष्य का जन्म हो सकता है। और उसके साथ ही एक नई मनुष्यता का और इस भांति धर्म के माध्यम से एक जीवन-क्रांति संभव हो सकती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। आशा कर सकता हूं कि शायद कोई बात कहीं आपके भीतर, आपके हृदय के किसी तार को छेड़ दे, शायद कोई बात आपके भीतर कोई हूक, कोई प्यास बन जाए, कोई असंतोष आपके भीतर घनीभूत हो जाए, कोई अभीप्सा पैदा हो जाए कि मैं भी स्वयं को जानूं, और सत्य को जानूं; और जो संकट प्रत्येक के जीवन के साथ पैदा होता है उसका अतिक्रमण कर जाऊं, तो मैं समझूंगा मेरी प्रार्थना सफल हुई। वह जो मैंने आपके भीतर इतनी देर तक प्रार्थना की है आपके हृदय से, वह सफल हुई। प्रभु करे ऐसी अभीप्सा और प्यास आपके भीतर पैदा हो। और उसे आप जानने में समर्थ हो सकें जिसे जाने बिना जीवन व्यर्थ है। और जिसे जान लेते ही जीवन एक धन्यता में परिणित हो जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें