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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-43)

बोधकथा-तिरतालिसवी

मैं मन के आमूल परिवर्तन का आग्रह करता हूं। शरीर के तल पर किसी भी परिवर्तन का कोई गहरा मूल्य नहीं। मात्र आचरण की बदलाहट अपर्याप्त है, क्योंकि अंतस की क्रांति के अभाव में वह आत्मवंचना से ज्यादा नहीं है।
लेकिन जिनके चित्त में भी स्वयं को परिवर्तित करने का विचार उठता है, वे शीघ्र ही हृदय को बिना बदले ही वस्त्रों को बदलने में संलग्न हो जाते हैं। स्वयं को धोखा देने की यह अंतिम विधि है। इससे सावधान होना बहुत आवश्यक है। अन्यथा संन्यास भी बाह्य घटना मात्र रह जाता है। संसार तो बाह्य है, लेकिन संन्यास भी बाह्य ही हो तो जीवन बहुत ही अंधकारपूर्ण पथों पर भटक जाता है।
वासना का पथ तो अज्ञान है ही। किंतु यदि त्याग भी बाह्य हो, तो वह और भी अज्ञानपूर्ण मार्गों पर ले जाता है।
वस्तुतः चेतना का स्वयं से बाह्य होना ही अज्ञान और अंधकार है। फिर इससे कोई भेद नहीं पडता है, वह बाह्यता संसार को लेकर है, या संन्यास को।

चित्त बाह्यता से घिरा हो, तो भोग भी उसे बाहर रखता है और त्याग भी।

और चित्त बाह्य से मुक्त हो, तो सहज ही स्वयं में आ जाता है।
बाह्य की सार्थकता का आभास संसार है।
और बाह्य की व्यर्थता का बोध संन्यास।
एक कथा मैंने सुनी हैः
एक नगर में एक ही दिन दो मृत्यु हो गई थीं। बडी अजीब घटना हुई थी। एक योगी और एक वेश्या--दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे। दोनों का आवास भी आमने-सामने ही था। दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ। एक और गहरा आश्चर्य भी था। वह तो योगी और वेश्या को छोड और किसी को ज्ञात नहीं है। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या को लेकर स्वर्ग की ओर चले और योगी को लेकर नरक की ओर। योगी ने कहाः ‘‘मित्रो, निश्चय ही कुछ भूल हो गई है! वेश्या को स्वर्ग की ओर लिए जाते हो और मुझे नरक की ओर? यह कैसा अन्याय है--यह कैसा अंधेर है? ’’ उन दूतों ने कहाः ‘‘नहीं, महानुभाव, न भूल है, न अन्याय, न अंधेर। कृपा कर थोडा नीचे देखें।’’ योगी ने नीचे धरती की ओर देखा। वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जुलूस निकाला जा रहा था। हजारों-हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को श्मशान की ओर ले जा रहे थे। वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी, और दूसरी ओर सडक के किनारे वेश्या की लाश पडी थी। उसे कोई उठानेवाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड-फाड कर खा रहे थे।
यह देख वह योगी बोलाः ‘‘धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे हैं!’’
उन दूतों ने उत्तर दियाः ‘‘क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते हैं, जो बाहर था। शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं। किंतु असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है। शरीर से तुम संन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बडा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है। और उधर वह वेश्या थी। वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है! रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी। इधर संन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीडा से वह विनम्र होती जाती थी। तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान-बोध के कारण सरल। अंततः तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य। मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चित्त में अहंकार था, वासना थी। उसके चित्त में न अहंकार था, न वासना। उसका चित्त तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था।’’
जीवन का सत्य बाह्य आवरण में नहीं है। फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा?
सत्य है बहुत आंतरिक-आत्यंतिक रूप से आंतरिक। उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है। उस केंद्र को खोजो। खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है।
धर्म परिधि का परिवर्तन नहीं, अंतस की क्रांति है।
धर्म परिधि पर अभिनय नहीं, केंद्र पर श्रम है।
धर्म श्रम है, स्वयं पर। उस श्रम से ही स्व मिटता और सत्य उपलब्ध होता है।

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