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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-09)

बोधकथा-नौवी  

मैं आप सबको जीवन के संबंध में सोच-विचार में पडे देख कर बहुत हैरान होता हूं। जीवन सोच-विचार से नहीं, वरन उसकी समग्रता में उसे जीने से ही जाना जाता है। सत्य से परिचित होने का और कोई मार्ग ही नहीं है। जागो और जीओ। जागो और चलो। सत्य कोई मृत वस्तु नहीं है कि उसे बैठे-बिठाए ही पाया जा सके। वह तो अत्यंत जीवंत प्रवाह है। जीवन के साथ ही साथ जो सब भांति मुक्त और निर्बंध हो बहता है, वही उसे पाता है। बहुत दूर के सोच-विचार में अक्सर ही निकट को खो दिया जाता है, जबकि निकट ही सत्य है और निकट में ही वह भी छिपा है जो दूर है। क्या दूर को पाने के लिए सर्वप्रथम निकट को ही पाना अनिवार्य नहीं है? क्या समस्त भविष्य वर्तमान के क्षण में ही उपस्थित नहीं है? क्या एक छोटे से कदम में ही बडी से बडी मंजिल का भी आवास नहीं होता है?

एक सीधा-सादा किसान, जीवन में पहली बार पहाडियों की यात्रा को जा रहा था। वे पहाडियां यद्यपि उसके गांव से बहुत ज्यादा दूर नहीं थीं, फिर भी वह कभी उन तक नहीं जा सका था। उनकी हरियाली से ढंकी चोटियां उसे अपने खेतों से ही दिखाई पडती थीं। बहुत बार उसके मन में उन्हें निकट से जाकर देखने की आकांक्षा अत्यंत बलवती भी हो जाती थी। लेकिन कभी एक, तो कभी दूसरे कारण से बात टलती चली गई थी, और वह वहां नहीं जा पाया था। पिछली बार तो वह इसलिए ही रुक गया था, क्योंकि उसके पास कंडील नहीं थी और पहाडियों पर जाने के लिए आधी रात के अंधेरे में ही निकल जाना आवश्यक था। सूर्य निकल आने पर तो पहाड की कठिन च.ढाई और भी कठिन हो जाती थी। एक दिन वह कंडील भी ले आया और पहाडों पर जाने की खुशी में रातभर सो भी नहीं सका। रात्रि दो बजे ही वह उठ गया और पहाडियों के लिए निकल पडा। लेकिन गांव के बाहर आकर ही वह ठिठक कर रुक गया। उसके मन में एक चिंता और दुविधा पैदा हो गई। उसने गांव के बाहर आते ही देखा कि अमावस की रात्रि का घुप्प अंधकार है। निश्चय ही उसके पास कंडील थी, लेकिन उसका प्रकाश तो दस कदमों से ज्यादा नहीं पडता था और च.ढाई थी दस मील की! वह सोचने लगा कि जाना है दस मील और रोशनी है केवल दस कदम पडने वाली, तो कैसे पूरा पडेगा? ऐसे घुप्प अंधकार में इतनी सी कंडील के प्रकाश को लेकर जाना क्या उचित है? यह तो सागर में जरा सी डोंगी लेकर उतरने जैसा ही है। वह गांव के बाहर ही बैठा रहा और सूर्य के निकलने की बाट जोहने लगा। तभी उसने देखा कि एक बू.ढा आदमी उसके पास से ही पहाडियों की तरफ जा रहा है और उसके हाथ में तो और भी छोटी कंडील है। उसने वृद्ध को रोक कर जब अपनी दुविधा बताई तो वृद्ध खूब हंसने लगा और बोलाः ‘‘पागल! तू पहले दस कदम तो चल। जितना दीखता है, उतना तो आगे ब.ढ। फिर इतना ही और आगे दीखने लगेगा। एक कदम दीखता हो तो उसके सहारे तो सारी भूमि की ही परिक्रमा की जा सकती है!’’ यह युवक समझा, उठा और चला और सूर्य निकलने के पूर्व ही वह पहाडियों पर था।
जीवन के मार्ग पर भी उस बू.ढे की सीख याद रखने योग्य है। मैं भी यही आपसे कहना चाहता हूं।
मित्रो! बैठे क्यों हो? उठो और चलो। जो सोचता है, वह नहीं; जो चलता है बस केवल वही पहुंचता है। स्मरण रहे कि इतना विवेक, इतना प्रकाश प्रत्येक के पास है कि उससे कम से कम दस कदम का फासला दिखाई पड सके और उतना ही पर्याप्त भी है। परमात्मा तक पहुंचने के लिए भी उतना ही पर्याप्त है।

ओशो

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