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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-13)

बोधकथा-तेेहरवां 

एक व्यक्ति ने कनफ्यूशियस से जाकर कहाः ‘‘मैं बहुत थक गया हूं। अब विश्रांति चाहता हूं। क्या कोई मार्ग है? ’’ कनफ्यूशियस ने उससे कहाः ‘‘जीवन और विश्रांति विरोधी शब्द हैं। जीवन चाहते हो तो विश्रांति मत चाहो। विश्रांति तो मृत्यु है।’’ उस व्यक्ति के माथे पर चिंता की रेखाएं सिमट आईं और उसने पूछाः ‘‘तो क्या मुझे विश्रांति कभी मिलेगी ही नहीं? ’’ कनफ्यूशियस ने कहाः ‘‘मिलेगी, अवश्य मिलेगी।’’ उसने सामने फैले कब्रगाह की ओर संकेत करके कहाः ‘‘इन कब्रों को देखो। इन्हीं में विश्रांति है। इन्हीं में शांति है।’’

मैं कनफ्यूशियस से सहमत नहीं हूं। जीवन और मृत्यु भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जो है, वे उसकी ही आती-जाती श्वासों की भांति हैं। जीवन न तो मात्र कर्म है, और न मृत्यु ही मात्र विश्रांति। वस्तुतः जो जीवन में ही विश्रांति में नहीं है, वह मृत्यु में भी शांति में नहीं हो सकता है। क्या दिवस की अशांति रात्रि की निद्रा को भी अशांत नहीं कर देती है? क्या जीवन भर की अशांति की प्रतिध्वनियां ही मृत्यु में भी पीडा नहीं देंगी? मृत्यु तो वैसी ही होगी, जैसा कि जीवन है। वह जीवन की विरोधी नहीं, वरन जीवन की ही पूर्णता है। जीवन में अकर्मण्यता न हो, यह तो ठीक है, क्योंकि वह तो जीते जी ही मुर्दा होना है। लेकिन जीवन मात्र कर्म ही हो, यह भी ठीक नहीं है। यह भी जीवन नहीं, जडता है--जड यांत्रिकता है। जीवन की परिधि पर कर्म हो और केंद्र में अकर्म, तभी जीवन की परिपूर्णता फलित होती है। बाहर कर्म, भीतर विश्रांति। बाहर गति, भीतर स्थिति। कर्मपूर्ण व्यक्तित्व जब शांत आत्मा से संयुक्त होता है तभी पूर्ण मनुष्य का जन्म होता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन तो शांत होता ही है, उसकी मृत्यु भी मोक्ष बन जाती है।

ओशो 

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