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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(धर्म को वैज्ञानिकता देनी जरूरी है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक अमावस की रात्रि में एक अंधा मित्र अपने किसी मित्र के घर मेहमान था। आधी रात ही उसे वापस विदा होना था। जैसे ही वह घर से विदा होने लगा, उसके मित्रों ने कहा कि साथ में लालटेन लेते जाएं तो अच्छा होगा। रात बहुत अंधेरी है और आपके पास आंखें भी नहीं हैं। उस अंधे आदमी ने हंस कर कहा कि मेरे हाथ में प्रकाश का क्या अर्थ हो सकता है? मैं अंधा हूं, मुझे रात और दिन बराबर हैं। मुझे दिन का सूरज भी वैसा है, रात की अमावस भी वैसी है। मेरे हाथ में प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। लेकिन मित्र का परिवार मानने को राजी न हुआ। और उन्होंने कहा कि तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में प्रकाश देख कर दूसरे लोग अंधेरे में तुमसे टकराने से बच जाएंगे, इसलिए प्रकाश लेते जाओ। यह तर्क ठीक मालूम हुआ और वह अंधा आदमी हाथ में लालटेन लेकर विदा हुआ। लेकिन दो सौ कदम भी नहीं जा पाया था कि कोई उससे टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ, और हंसने लगा, और उसने कहा कि मैं समझता था कि वह तर्क गलत है, आखिर वह बात ठीक ही हो गई। दूसरी तरफ जो आदमी था, उससे कहा कि मेरे भाई, क्या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे हाथ में लालटेन है? तुम भी क्या अंधे हो? उस टकराने वाले आदमी ने कहाः मैं तो अंधा नहीं हूं, लेकिन आपके हाथ की लालटेन बुझ गई है।

अंधे आदमी के हाथ में लालटेन हो, तो यह पता चलना कठिन है कि वह कब बुझ गई है? लेकिन अंधे आदमी को भी एक बात पता चल जाती है कि कोई उससे टकरा गया है।

मनुष्यता मुझे इससे भी ज्यादा अंधी मालूम पड़ती है। हम रोज टकराते हैं, लेकिन हमें यह पता नहीं चलता कि हमारे हाथ का प्रकाश बुझ गया होगा। अंधे हम हैं, यह तो मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास कहेगा कि हमारे पास जैसे आंखें नहीं हैं। क्योंकि हम उन्हीं गड्ढों में रोज गिर जाते हैं जिनमें कल भी गिरे थे, और परसों भी, और पीछे भी, और पीछे भी। अंधा होना तो जैसे मनुष्य-जाति का लक्षण माना जा सकता है। लेकिन हमारे हाथ में कुछ लोग प्रकाश भी दे जाते हैं--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट। इस आशा में कि भला हम अंधे हों, लेकिन कोई हमसे न टकराएगा और प्रकाश दिखाई पड़ता रहेगा। लेकिन रोज हम टकराते हैं, फिर भी हमें यह खयाल पैदा नहीं होता कि हाथ का प्रकाश कहीं बुझ तो नहीं गया है?
इस कहानी से इसलिए मैं बात शुरू करना चाहता हूं कि मेेरे देखे आदमी के हाथ का प्रकाश बहुत दिन हुए बुझ गया है। और हम बुझे हुए दीये लेकर जीवन में चल रहे हैं। बुझे हुए दीये दीयों के न होने से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि बुझे दीये जिसके हाथ में होते हैं उसे यह खयाल होता है कि मेरे हाथ में प्रकाश है। जिसके हाथ में कोई प्रकाश नहीं है, कोई दीया नहीं है वह सम्हल कर चलता है; यह सोच कर कि मेरे हाथ में प्रकाश नहीं, रास्ता अंधेरा है और मैं अंधा हूं। लेकिन हमारे हाथ में बुझे हुए दीये हैं। और उन्हीं दीयों को हम अगर जलते हुए दीये समझ रहे हों, तो आदमी का भविष्य बहुत खतरनाक है।
मनुष्य के हाथ में धर्म के नाम पर संप्रदायों के बुझे, बुझे दीयों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर मनुष्य के हाथ में बुझी हुई किताबों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। धर्म के नाम पर परमात्मा तो बिलकुल नहीं है। लेकिन पुरोहित जरूर हैं, मंदिर हैं, प्रार्थनाएं हैं, और सब बुझी हुईं, सब राख, उनमें कोई रोशनी नहीं, कोई प्रकाश नहीं है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि अगर मंदिरों में प्रकाश होता और अगर हमारी प्रार्थनाएं जीवंत होतीं, और जली हुई होतीं, तो पृथ्वी की जैसी स्थिति बन गई है नरक जैसी, वैसी बननी असंभव थी। और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि पृथ्वी की इस नरक जैसी स्थिति बनाने में जिन्हें हम धर्म कहते हैं, उन्होंने ही सबसे अग्रणी हाथ बंटाया। वे ही प्रमुख हैं। हिंदुओं ने, मुसलमानों ने, ईसाईयों ने, जैनों ने, बौद्धों ने मनुष्य-जाति की जो स्थिति कर दी है, वह घबड़ाने वाली है। और हमें आशा थी इनसे प्रकाश पाने की और परिणाम उलटे हुए हैं।
आदमी को आदमी से लड़ाने में, धर्मों ने जो काम किया है, वह अधार्मिक और नास्तिक लोगों ने कभी भी नहीं किया। सोचा जा सकता था कि नास्तिक लोग, अधार्मिक लोग, भौतिकवादी, मैटीरियलिस्ट कह कर जिन्हें धार्मिक लोग गाली देते हैं, उन लोगों ने आदमी को विभाजित किया होता--क्षम्य थी यह बात। लेकिन जो लोग परमात्मा को, प्रेम को और प्रार्थना को दिन-रात स्मरण करते हैं, उन लोगों ने मनुष्य-जाति को खंडित-खंडित किया और विभाजित किया है। और उन्होंने मनुष्य-जाति के साथ इतना अनाचार फैलाया, इतना व्यभिचार, इतनी हत्याएं, इतना खून कि अगर हम सारे इतिहास को उठा कर देखेंगे, तो धर्म के नाम पर जो हुआ है, वह अगर धर्म समझा जाए तो फिर अधर्म किसे समझा जाए यह कहना कठिन हो जाएगा।
धर्म के संबंध में कुछ भी समझने के पहले, इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, यह कह देना जरूरी है कि धर्मों को मैं धर्म नहीं कहता हूं। रिलिजंस को मैं रिलीजन नहीं कहता हूं।
धर्मों ने धर्म की हत्या की है। और आज अगर धर्म नहीं है, और आदमी के हाथ में बुझा हुआ दीया है, तो इस दीये को बुझाने वाले लोग न तो राजनीतिज्ञ हैं, न नास्तिक हैं, न वैज्ञानिक हैं, न भौतिकवादी हैं। इस दीये को बुझाने वाले लोग तथाकथित धार्मिक लोग ही हैं। और इसीलिए यह दिखाई भी हमें नहीं पड़ता, क्योंकि जिनके हाथ में हमने समझा हो कि सुरक्षित होगा दीया, अगर वे ही बुझाने वाले सिद्ध हो जाएं तो पता लगाना बहुत कठिन हो जाता है। यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि किन्होंने मनुष्य के जीवन से प्रकाश को, आनंद को, बुद्धिमत्ता को, जीवन की ज्योति को, उद्देश्य को सब कुछ किसने छीन लिया।
जैसे ही धर्म संगठित होता है, वैसे ही घातक हो जाता है। जैसे ही धर्म संप्रदाय बनता है, वैसे ही अधार्मिक हो जाता है। असल में कोई भी संगठन धर्म का नहीं हो सकता, कोई आर्गनाइजेशन नहीं हो सकता। धर्म कोई संगठना नहीं है, धर्म साधना है। संगठन होता है भीड़ का, समूह का। और साधना होती है अकेले की, एकांत की।
धर्म मूलतः एकांत की घटना है। मनुष्य जो अपने एकांत में स्वयं के साथ करता है, वही भीड़ से, समूह से, दूसरे से धर्म का कोई संबंध नहीं। और जैसे ही धर्म संगठित होता है, वैसे ही धर्म राजनीति बन जाता है। इस्लाम और हिंदू, और जैन, और ईसाई सब राजनीतियों के नाम हैं, धर्म का इनसे कोई भी संबंध नहीं। लेकिन इन्हें जब तक हम धर्म कहते रहेंगे, तब तक जो धर्म है उसे खोजना कठिन हो जाता है। क्योंकि जब तक हमें यह खयाल है कि मनुष्य-जाति को तोड़ने वाले संगठन धर्म हो सकते हैं, तब तक हम वास्तविक धर्म की तरफ आंखें भी नहीं उठा सकते।
धर्म एक ही हो सकता है। सत्य एक ही हो सकता है। असत्य अनेक हो सकते हैं। बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य अनेक प्रकार का नहीं होता है। हम सब बीमार हो जाएं, तो अलग-अलग ढंग से बीमार हो जाएंगे। और हम सब स्वस्थ्य हो जाएं, तो स्वास्थ्य अलग-अलग प्रकार का नहीं होता, स्वास्थ्य एक ही है। एक ही जैसा है। असत्य अनेक हो सकते हैं। सत्य अनेक नहीं हो सकता। अधर्म अनेक हो सकते हैं, धर्म अनेक नहीं हो सकता है। और जब तक हमें खयाल है कि धर्म अनेक हैं, तब तक धर्म का जन्म असंभव है।
हम कभी सोच भी नहीं सकते कि हिंदुओं की केमिस्ट्री अलग और मुसलमानों की केमेस्ट्री अलग हो सकती है। हम सोच भी नहीं सकते कि पश्चिम की फिजिक्स अलग और पूरब की फिजिक्स अलग हो सकती है। हम सोच भी नहीं सकते कि गोरे लोगों की गणित अलग और काले लोगों की गणित अलग हो सकती है। अगर पदार्थ के नियम युनिवर्सल और सार्वभौम हैं और एक ही हैं, अगर विज्ञान एक ही है तो आत्मा के नियम भी अलग-अलग कैसे हो सकते हैं?
आत्मा का नियम भी सार्वभौम होगा और एक ही होगा।
लेकिन धर्मों के कारण उस एक धर्म का विकास मनुष्य नहीं कर पा रहा है। क्योंकि उस एक धर्म के विकास में, उस युनिवर्सल रिलीजन के विकास में, उस एक वैज्ञानिक धर्म के विकास में, प्रत्येक धर्म के नाम से खड़े हुए व्यवसायों के विनाश हो जाने की संभावना है। उनको विदा हो जाना पड़ेगा। और वे कोई भी विदा नहीं होना चाहते हैं।
मनुष्य का उन्होंने बहुत शोषण किया है। और उस शोषण से वह कोई भी अपने हाथ अलग नहीं खींच लेना चाहते हैं। धर्मों ने मिल कर इस भांति जगत में अधर्म को फैलने की सुविधा दे दी है, क्योंकि जो चीज मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देती हो, वह चीज मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने वाली नहीं हो सकती।
मैंने सुना है, एक रात एक काले आदमी ने एक चर्च के द्वार को खटखटाया। द्वार खुला और पुरोहित बाहर आया। उसे खयाल भी न था कि कोई काला आदमी होगा। क्योंकि वह चर्च श्वेत लोगों का चर्च था, सफेद लोगों का चर्च था।
मंदिर भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग हैं। इससे ज्यादा हंसने वाली बात भी शायद पृथ्वी पर कभी घटित नहीं हो सकती।
देखा, काला आदमी द्वार पर खड़ा है। पुराने दिन होते तो वह कहता, शूद्र हट यहां से, ये सीढ़ियां अपवित्र हो गईं तेरे होने से। और पुराने दिन होते तो शायद उसकी गर्दन काट दी जाती या उसके कानों में सीसा पिघला कर भर दिया जाता। लेकिन जमाने बदल गए हैं, लेकिन आदमी का दिल नहीं बदला। उस पुरोहित ने मन में सोचा, यह यहां कैसे आ गया? अपवित्र हो गईं सीढ़ियां। लेकिन आज इतने जोर से इस बात को नहीं कहा जा सकता, तो उसने धीरे से कहाः मेरे मित्र, कैसे आए हो? उस काले आदमी ने कहाः प्रभु के दर्शन करने हैं मुझे। मुझे भीतर आने दें, द्वार खोलें। मैं भगवान के दर्शन को प्यासा हो उठा हूं। द्वार खोलें और मुझे भीतर आने दें। उस पुरोहित ने दोनों हाथ रोक कर, वह द्वार पर खड़ा हो गया और उसने कहाः मेरे मित्र जरूर आने दूंगा, लेकिन जब तक मन पवित्र न हो जाए। और जब तक मन शांत न हो जाए। और जब तक मन परिपूर्ण रूप से पाप से मुक्त न हो जाए, तब तक परमात्मा के कोई दर्शन कैसे हो सकते हैं? तू पहले जा और मन को पाप से मुक्त कर और फिर आना। तो जरूर भगवान के दर्शन के लिए द्वार तेरे लिए खुले मिलेंगे।
वह काला आदमी वापस लौट गया। उस पुरोहित ने सोचा कि न होगी यह शर्त पूरी, न यह होगा पाप से मुक्त, न दुबारा यह मंदिर में आएगा, न इसके लिए द्वार खोलने की जरूरत पड़ेगी।
एक वर्ष बीत गया, वह आदमी आया भी नहीं। पुरोहित निश्चित हो गया। निश्चित हो गया कि शर्त काम कर गई है। वह आदमी अब आने का नहीं। लेकिन एक दिन सुबह-सुबह वह आता हुआ दिखाई पड़ा। पुरोहित डरा, लेकिन नहीं, वह भूल में था, वह आदमी चर्च के द्वार तक आया, लेकिन उसने चर्च की तरफ आंख भी न उठाई। और वह किसी दूसरे रास्ते पर ही आगे बढ़ गया। पुरोहित उसे देख रहा था डरा हुआ कि कहीं वह मंदिर में तो नहीं आता है। लेकिन गौर से देखने पर उसे दिखाई पड़ा कि वह आदमी तो प्रतीत होता है बदल गया। उसकी आंखों में कोई और ही शांति आ गई थी। उसके पैरों में कोई और ही धीरज दिखाई पड़ता था। उसके आस-पास कोई हवा ही बदली हुई मालूम होती थी। वह उठा और उस आदमी के पीछे दौड़ा और उसे रोका, और कहा कि मेरे मित्र, तुम आए नहीं?
वह काला आदमी हंसने लगा, उसने कहाः मैं तो आता था, और एक वर्ष तक मैंने यही प्रार्थना की, यही निरंतर भगवान से मांग की सुबह से सांझ मेरे आंसू बहते रहे और रात मैंने सपनों में भी वही किया और दिन भी वही, सारे मन को मैंने शांत करने की कोशिश की, और पाप से मुक्त होने की कोशिश की, और रोज-रोज मेरे कदम आगे बढ़ते गए। और मुझे लगता था, एक दिन वह सौभाग्य आ जाएगा कि मैं मंदिर प्रवेश का अधिकारी हो जाऊंगा। कल रात मुझे ऐसा लगा कि आ गई वह घड़ी, कल मन इतना शांत था, इतना पवित्र था, इतनी प्रार्थना से भरा था कि मैंने सोचा कल सुबह सूरज उगते ही मैं मंदिर के द्वार चला जाऊंगा। लेकिन रात सब गड़बड़ हो गया। रात नींद में मुझे भगवान दिखाई पड़े और उन्होंने कहाः तू किसलिए प्रार्थनाएं कर रहा है? और किसलिए तपश्चर्याएं कर रहा है? और किसलिए रो रहा है? और किसलिए इतना प्यासा है? क्या चाहता है? तो मैंने कहाः और कुछ भी नहीं, वह हमारे जो गांव का मंदिर है, वह जो चर्च है, उसमें प्रवेश चाहता हूं। तो वे भगवान उदास खड़े हो गए। और उन्होंने कहाः यह खयाल तू छोड़ दे। दस साल से मैं खुद ही उस मंदिर में जाने की कोशिश करता हूं, लेकिन वह पुरोहित मुझे भीतर प्रवेश नहीं करने देता। वह मुझे ही भीतर नहीं आने देता चर्च का पादरी, तो तुझे कैसे आने देगा? तू यह खयाल भूल जा। और कोई वरदान मांगना हो तो मांग ले, यह वरदान मेरे हाथ में नहीं है।
मंदिर पुरोहितों के हाथ में है, भगवान के हाथ में नहीं है।
और यह किसी एक मंदिर के बाबत बात होती तो ठीक भी था, यह सभी मंदिरों के बाबत बात है। और यह दस साल की ही बात होती, तो भी ठीक है, यह मनुष्य के दस हजार साल के पूरे के पूरे इतिहास की बात है कि भगवान किसी मंदिर में प्रवेश नहीं कर सका और कर भी नहीं सकेगा।
क्योंकि जो मंदिर सभी मनुष्यों के लिए ही मंदिर नहीं बन पाया अभी, वह परमात्मा के प्रवेश का स्थान नहीं हो सकता। जो मंदिर सीमाएं मानता है, वह मंदिर असीम के लिए द्वार नहीं हो सकता है। जो मंदिर व्यवसाय है, वह प्रेम और प्रार्थना का स्थल नहीं हो सकता है। जहां पुरोहित है, वहां परमात्मा की कोई भी संभावना नहीं रह जाती। क्योंकि दो के बीच प्रेम में तीसरे की कोई भी जगह नहीं है।
आदमी और परमात्मा के बीच में किसी एजेंसी की, किसी पुरोहित की कोई भी जगह नहीं है। दो के प्रेम के बीच में तीसरे के लिए कोई मौका नहीं है। प्रार्थना प्रेम की चरम उत्कृष्ट अवस्था है, वहां भी किसी के बीच में होने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन पुरोहित बीच में खड़ा है। संगठन बीच में खड़े हैं। शास्त्र बीच में खड़े हैं। शब्द और सिद्धांत बीच में खड़े हैं। और वह आदमी को उससे भी नहीं मिलने देते जिससे मिले बिना कोई भी आदमी के हाथ में कभी भी प्रकाश नहीं हो सकता है। और किसी भी आदमी के प्राणों में कभी प्रेम नहीं हो सकता है। और किसी आदमी की श्वासों में कभी आनंद नहीं हो सकता है।
धर्म के नाम पर धर्मों ने ही मनुष्य के साथ, मनुष्य के जीवन के साथ ऐसा खिलवाड़ किया है।
इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि जब तक हम मनुष्य-जाति को धर्मों से मुक्त नहीं कर लेते, तब तक हम मनुष्य को धार्मिक बनाने में भी समर्थ नहीं हो सकते। हिंदू को विदा हो जाना चाहिए, और मुसलमान को भी, और ईसाई को भी, ताकि आदमी धार्मिक हो सके। जब तक धर्मों की भीड़ है तब तक धार्मिक होने की कोई संभावना नहीं। क्या यह संभव हो सकता है?
यह आज तक संभव नहीं हो पाया है। क्योंकि कुछ बहुत तरकीबें, कुछ गहरे सूत्रों पर आज तक आदमी को बांधने की कोशिश की गई है। और कुछ ऐसे जाल को फैलाया गया है कि हमें दिखाई भी नहीं पड़ सकता कि ये चीजें विदा हो जानी चाहिए। और जब हमें अपनी जंजीरें ही, अपनी सुरक्षा मालूम पड़ने लगती हों, तो फिर उनसे मुक्त होना असंभव हो जाता है।
और जो बहुत होशियार गुलाम बनाने वाले लोग हैं, जो आदमी की आत्मा को गुलामी में ढालने वाले कारखाने हैं, उन्होंने हजारों वर्षों में बड़ी चालाकियां सीख ली हैं। वे एक सबसे बड़ी चालाकी यह सीख गए हैं कि वह जंजीरों को ही सुरक्षा बताना शुरू कर दिया है। जो चीज बांध लेती है, वही मुक्त करने वाली--यह समझाना शुरू कर दिया है। उन दो-तीन थोड़ी सी चीजों पर मैं बात जरूर करना चाहूंगा आपसे, जो जंजीरें हैं और जिनको आज तक मुक्ति का उपाय बताया गया है।
पहली जंजीर है, श्रद्धा की। हजारों साल से आदमी को यही समझाया गया है कि श्रद्धा करो, विश्वास करो, विश्वास लाओ, बिलीफ करो। और यह भी कहा गया है कि जो श्रद्धा नहीं करेगा वह भटक जाएगा। और यह भी कहा गया है, जो विश्वास नहीं करेगा उसके जीवन में धर्म हो ही नहीं सकता। विश्वास और धर्म को पर्यायवाची सिद्ध करने की कोशिश की गई है। जो कि सबसे बड़े असत्यों में से एक है, जो आदमी के लिए बोला गया और कहा गया।
धर्म का विश्वास से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है विवेक से। और विवेक और विश्वास से बड़ी शत्रुता किसी चीज में नहीं हो सकती। जो आदमी विश्वास कर लेता है वह आदमी विचार करने में असमर्थ हो जाता है। वह अपने ही पैरों पर अपने हाथ से कुल्हाड़ी मार रहा है। जो आदमी अंधा होकर कोई बात मान लेता है, वह आदमी जानने की यात्रा की तरफ उसके पैर बढ़ने बंद हो जाते हैं। लेकिन हमें सब...हिंदू जरूर कहता है, इस बात में विश्वास करो; मुसलमान कहता है कि उस बात में विश्वास करो; जैन कहते हैं किसी और बात में विश्वास करो, उन सबके आपस में झगड़े हैं कि किस बात में विश्वास करो!
लेकिन एक बात पर वे सभी सहमत हैं कि विश्वास करो! दुनिया भर के सारे संप्रदाय एक मामले में सहमत हैं कि विश्वास करो! इस मामले में झगड़े हो सकते हैं कि किस चीज में विश्वास करो। लेकिन विश्वास करने के मामले में उनके कोई झगड़े नहीं हैं। यह उन सबका सीक्रेट फार्मूला है।
यह आदमी के चित्त को बांध लेने की सबकी बुनियादी तरकीब है। क्योंकि जो आदमी विचार करेगा उस आदमी को गुलाम नहीं बनाया जा सकता और न ही उसका शोषण किया जा सकता है। क्योंकि विचार बुनियादी रूप से ही रिबेलियस है, बुनियादी रूप से ही विद्रोही है। विचार बुनियादी रूप से ही स्वतंत्रता की मांग है। विचार के गहरे से गहरे प्राणों में अंततम स्वतंत्रता की ही पुकार छिपी रहती है।
तो विचार और विवेक कभी भी दास नहीं बनाए जा सकते।
लेकिन आदमी की आंखों पर पट्टी बंाधी गई हैं कि तुम विश्वास करो, विचार मत करो। क्योंकि विचार करोगे तो भटक जाओगे। और हुआ यह है कि जितना हमने विश्वास किया उतने हम भटक गए हैं और जितना हमने कम विचार किया उतने ही हम भटकते जा रहे हैं। और जितना हम भटकते हैं उतने ही वे धर्मगुरु हमें समझाने की कोशिश करते हैं कि देखो विश्वास कम किया इसलिए तुम भटकते जा रहे हो। एक विसियस सर्किल पैदा हो गया है। हम विश्वास करते हैं और भटकते हैं। हम भटकते हैं और वे चिल्लाते हैं कि देखो भटक रहे हो, विश्वास कम करते हो, और विश्वास करो। हम और विश्वास करते हैं, और भटकते जाते हैं।
विश्वास भटकाएगा ही, क्योंकि विश्वास अंधे होने की सलाह है। वह इस बात की सलाह है कि तुम अपनी आंख से मत देखना, दूसरे की आंखों से देखना।
मैंने सुना है, एक छोटे से गांव में बंगाल का एक विचारक रहता था। वह एक दिन सुबह एक गांव के तेली की दुकान पर तेल खरीदने गया था। तेल खरीदता था, तब उसने देखा कि तेली की दुकान चलती है। तेली दुकान चलाता है और पीछे उसका कोल्हू चलता है, उसका बैल उसके तेल को पेर रहा है। वह देख कर हैरान हुआ, बैल को कोई भी नहीं चला रहा है, बैल अपने आप ही चलता जा रहा है और कोल्हू चला रहा है। उस विचारक ने उस तेली से पूछा कि मैं बड़ा हैरान हूं, यह बैल बड़ा धार्मिक, बड़ा रिलिजियस मालूम पड़ता है। इसको कोई चला भी नहीं रहा और यह चल भी रहा है, बड़ा विश्वासी मालूम पड़ता है। उस तेली ने कहाः आप देखते नहीं हैं, बैल धार्मिक नहीं है। बैल कोई आदमी नहीं है कि जल्दी से धार्मिक हो जाए, बैल बहुत चालाक और होशियार है; आदमी जैसा नासमझ और मूढ़ नहीं। लेकिन मैंने उसकी आंखों पर पट्टियां बांध दी हैं, आप देखते नहीं। आंख पर पट्टियां बंधी हुई हैं, उसे दिखाई नहीं पड़ता कि कोई चला रहा है कि नहीं चला रहा है। अगर उसको दिखाई पड़ जाए, तो वह आदमी जैसा नहीं है कि दिखाई भी पड़ जाए और फिर भी उलटा मानता चला जाए। वह फौरन खड़ा हो जाएगा, लेकिन उसको दिखाई नहीं पड़ रहा।
उस विचारक ने कहाः लेकिन बैल अगर इतना समझदार है, जैसा तुम कहते हो, तो बैल कभी खड़े होकर परीक्षा भी तो कर सकता है कि कोई पीछे है कि नहीं? उसने कहाः आप समझते नहीं हैं, मैंने बैल के गले में घंटी बांध रखी है, जैसे ही वह खड़ा होता है घंटी बजनी बंद हो जाती है, मैं पीछे चल कर जल्दी से उसको चला देता हूं। उसको खयाल नहीं पैदा हो पाता कि कोई पीछे मौजूद नहीं था। घंटी रुकी और मैं चला देता हूं। जब तक घंटी बजती रहती है मैं समझता हूं बैल चल रहा है। उस विचारक ने कहाः लेकिन मेरे भाई, बैल खड़े होकर भी तो सिर हिला सकता है कि घंटी बजती रहे? उस तेली ने कहाः क्षमा करिए, आप तेल कहीं और से खरीद लेना, अगर बैल ने आपकी बातें सुन लीं तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा। आप तेल और कहीं से खरीद लिया करें, ऐसे आदमियों का पास भी आना खतरनाक है।
आदमी की आंखों पर भी खूब पट्टियां बांधी गई हैं। और ऐसी बातों को भी पास में आने देने में खतरा समझा गया है, जिनसे कहीं आदमी को खयाल न आ जाए कि मेरे साथ क्या किया गया है। इसलिए न तो कहा गया है कि आदमी विचार करे, न कहा गया है कि सोचे। कहा गया है कि अंधा होकर शरण आ जाए और सब स्वीकार कर ले। जो कहा जाता है, उस पर जो संदेह करेगा, वह नरक जाएगा। अगर जीवन में स्वर्ग को, मोक्ष को, आनंद को उपलब्ध करना है तो विश्वास ही एकमात्र मार्ग रहा है। और इस झूठी बात ने सारी मनुष्य-जाति के साथ जो, जो अनाचार किया है, सारी मनुष्य-जाति के साथ जो महान पाप किया है, उसका कोई हिसाब नहीं है।
आज जो मनुष्य-जाति इतनी अंधी, मूढ़ और जड़ मालूम हो रही है उसके पीछे इस विश्वास का हाथ है। फिर इसी विश्वास का उपयोग जब दूसरे लोग करने लगे...धर्मगुरुओं ने जब तक किया, तब तक कोई अड़चन न थी। लेकिन जब स्टैलिन और हिटलर और मुसोलिनी करने लगे, तो अड़चन शुरू हो गई। और जब फिल्मी अभिनेता करने लगे तो मुसीबत शुरू हो गई। और जब राजनीतिज्ञ करने लगे तो मुसीबत शुरू हो गई। धीरे-धीरे सीक्रेट सभी को पता चल गया कि आदमी विश्वास करता है उसका कोई भी शोषण किया जा सकता है। उसका किसी भी भांति शोषण किया जा सकता है। जब सबको यह तरकीब पता चल गई, तो कठिनाई शुरू हो गई।
आज सारी दुनिया में विश्वास के आधार पर आदमी के विभिन्न रूप से शोषण किए जा रहे है--धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक, सब तरह के शोषण किए जा रहे हैं। यह जो दुनिया इतनी बदतर है, यह विश्वास की वजह से बदतर हो गई है। एक-एक आदमी के भीतर विचार की ऊर्जा और क्रांति जगनी चाहिए। धर्म को विश्वास से छुटकारा दिलाना चाहिए। और धर्म के आधार विचार पर, अत्यंत विचार पर निर्धारित किए जाने चाहिए।
जिस दिन भी विचार पर धर्म खड़ा होगा, उसी दिन दुनिया में बहुत धर्म रहने बंद हो जाएंगे। क्योंकि विचार की अनिवार्य चेष्टा, युनिवर्सल, सार्वभौम हो जाने की...विचार कभी भी लोकल नहीं रह सकता। विज्ञान इसीलिए सार्वभौम हो सका कि उसने विश्वास से छुटकारा पा लिया और विचार पर अपनी आधारशिलाएं रख दीं।
धर्म भी विज्ञान बन जाएगा और परम विज्ञान बन जाएगा, क्योंकि धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ और परम विज्ञान और कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन विश्वास से बंधा हुआ यह नहीं होगा। जब तक विश्वास से बंधी थी विज्ञान की परंपराएं, तब तक अल्केमी थी, केमिस्ट्री नहीं थी; तब तक ज्योतिष शास्त्र था, ज्योतिर्विज्ञान नहीं था। और जब तक धर्म भी बंधा है विश्वास से, तब तक धर्म शास्त्र होगा। जिस दिन विचार से धर्म का संबंध होगा, उसी दिन धर्म-विज्ञान का जन्म हो जाएगा। धर्म को लाना है जगत में तो धर्म को वैज्ञानिकता देनी जरूरी है।
और पहला सूत्र हैः विश्वास से मुक्ति और विचार में दीक्षा।
दूसरी एक और बात और फिर मैं अपनी बात पूरी करूंगा। दूसरी एक बात जो अत्यंत अनिवार्य है, वह यह कि अब तक धर्म ने जगत में व्यक्ति पैदा नहीं किए हैं, अनुयायी पैदा किए हैं, फाॅलोवर्स पैदा किए हैं। अनुयायी व्यक्ति नहीं होता, इंडिविजुअल नहीं होता। असल में जितना वह अनुयायी बनता है, उतनी ही उसकी इंडिविजुअलिटी खो जाती है, उतना ही उसका व्यक्तित्व खो जाता है, उतना ही वह दीन-हीन सपाट हो जाता है, वह एक भीड़ का हिस्सा हो जाता है। अनुयायी होता है एक भीड़, और मनुष्य की गरिमा उपलब्ध होती है व्यक्तित्व की उपलब्धि से, एक निजता, एक इंडिविजुअलिटी की उपलब्धि से।
तो आज तक धर्मों ने विश्वास सिखाया, और साथ में अनुषांगिक रूप से अनुगमन सिखाया कि तुम किसी के पीछे जाओ, तुम किसी के अनुयायी बनो, तुम किसी जैसे बनने की कोशिश करो--राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो।
यह शिक्षा इतनी विषाक्त, इतनी पाय.जनस है जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि जब भी कोई आदमी किसी दूसरे जैसा बनने की कोशिश करेगा, तो दो परिणाम होंगे। एक परिणाम तो यह होगा कि दूसरे जैसा कभी कोई आदमी बन ही नहीं सकता। यह बिलकुल अस्वाभाविक और असंभव है कि कोई आदमी किसी जैसा बन जाए। और दूसरी घटना यह घटेगी कि जब दूसरे जैसा बनने में सारी शक्ति लगा देगा; तो वह जो बनने को पैदा हुआ था, वह भी नहीं बन सकेगा।
अगर मैं फूलों की बगिया में चला जाऊं और चमेली से कहूं गुलाब हो जा, और गुलाब से कहूं कमल हो जाओ। तो पहली तो बात फूल मेरी बात नहीं सुनेंगे। फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं होते कि किसी की भी बात सुनने को इकट्ठे हो जाएं। लेकिन हो सकता है कुछ फूल आदमियों की सोहबत में रहते-रहते बिगड़ गए हों। आदमी की सोहबत में रहते-रहते जानवर भी बिगड़ जाते हैं, पौधे भी बिगड़ जाते हैं। हो सकता है फूल बिगड़ गए हों आदमी की बगिया में रहते-रहते और उपदेश सुनने लगे हों, और मेरी बात फूल मान लें, तो उस बगिया में एक भूकंप आ जाएगा, एक अराजकता आ जाएगी, एक केआॅस पैदा हो जाएगा। उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब कभी भी चमेली नहीं बन सकता, चमेली कभी गुलाब नहीं बन सकती। लेकिन अगर गुलाब ने चमेली बनने की कोशिश की, तो गुलाब में फिर गुलाब के फूल भी पैदा नहीं हो सकते। सारी शक्ति चमेली बनने में व्यय हो जाएगी और गुलाब होने की संभावना समाप्त हो जाएगी।
ठीक धर्म प्रत्येक मनुष्य को स्वयं होने की शिक्षा देगा। और यह स्वयं होने की शिक्षा को ही मैं आत्मा की शिक्षा कहता हूं। आज तक आत्मा की शिक्षा झूठी रही, क्योंकि वह अनुगमन की शिक्षा है। और जो आदमी अनुयायी बनता है, वह कभी किसी आत्मा को उपलब्ध नहीं हो सकता।
आत्मा के उपलब्ध होने का मतलब है: मैं उसको खोज लूं और पा लूं जो मेरे भीतर छिपा है। और जो आदमी किसी और जैसे होने की कोशिश में अपने को ढालना शुरू करता है, वह एक नकली आदमी बन जाता है। जो उसके भीतर छिपा है उसकी खोज तो दूर, वह एक अभिनेता...

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