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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-26)

बोधकथा-छब्बीसवी 

मैं स्वयं को ब्रह्म में लीन करना चाहता हूं। अहंकार ही दुख है। मैं इस अहंकार को परमात्मा में समर्पित करना चाहता हूं। मैं क्या करूं? ’’ एक भक्त ने अत्यंत व्याकुलता से मुझ से पूछा था। उन्हें मैं जानता हूं। वर्षों से वे भगवान के मंदिर में ही बैठे रहते हैं। भगवान के चरणों में घंटों सिर रखे रोते रहते हैं। उनकी अभीप्सा तो तीव्र है, लेकिन दिशा भ्रांत है। क्योंकि जो व्यक्ति ‘मैं’ को स्वीकार कर लेता है, वह उस स्वीकृति के कारण ही ‘मैं’ बन जाता है। फिर इस ‘मैं’ से पीडा आती है तो वह इससे छूटना चाहता है और भगवान की शरण में समर्पित होना चाहता है, लेकिन इस खोज और समर्पण का केंद्र बिंदु भी वह ‘मैं’ ही होता है। क्योंकि, जो समर्पण करना चाहता है, वह कौन है? जो दुख से, पीडा से, छूटना चाहता है, वह कौन है? क्या वह ‘मैं’ ही नहीं है? परमात्मा के लिए, परमानंद के लिए, मोक्ष के लिए यह आतुरता-व्याकुलता किसकी है? वह कौन है जो संसार में दौडाता है और फिर मुक्ति के लिए भी उत्तप्त करता है? क्या वह ‘मैं’ ही नहीं है?

मैं पूछता हूं कि क्या यह संभव है कि मैं स्वयं को ही छोड सकूं--स्वयं का ही समर्पण कर सकूं? क्या मेरा छोडना भी ‘मेरा’ ही छोडना न होगा? क्या मेरा समर्पण भी ‘मेरा’ ही समर्पण नहीं है? और जो ‘मेरा’ है, उससे ही तो मेरा ‘मैं’ निर्मित होता है। मेरा धन, मेरा पद, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे ही ‘मैं’ को नहीं बनाते हैं; मेरा संन्यास, मेरा त्याग, मेरा समर्पण, मेरी सेवा, मेरा धर्म, मेरी आत्मा, मेरा मोक्ष भी ‘मैं’ को ही बनाते हैं। जहां तक कुछ भी ‘मेरा’ शेष है, वहां तक ‘मैं’ भी पूर्णरूपेण अक्षुण्ण है।
‘मैं’ की प्रत्येक क्रिया, पाप या पुण्य, भोग या त्याग, ‘मैं’ को ही पुष्ट करती है। साधना या समर्पण सभी से वह संगठित और सशक्त होता है।
क्या ‘मैं’ को छोडने का कोई उपाय नहीं है? क्या ‘मैं’ के त्याग की कोई विधि नहीं है? ‘मैं’ को छोडने, त्यागने या समर्पित करने का न कोई उपाय है, न विधि है, क्योंकि जो भी किया जा सकता है, वह सब अंततः ‘मैं’ के लिए ही प्राणप्रद सिद्ध होता है। कर्म के द्वारा, क्रिया के द्वारा, संकल्प के द्वारा, ‘मैं’ के बाहर न कोई कभी गया है और न जा सकता है, क्योंकि संकल्प स्वयं ही सूक्ष्म रूप में ‘मैं’ है। संकल्प ‘मैं’ का ही कच्चा रूप है। वही तो पक कर ‘मैं’ बनता है। ‘मैं’ संकल्प की ही तो घनीभूत दशा है। इसलिए, संकल्प से ‘मैं’ को कैसे छोडा जा सकता है? और हमारी साधनाएं क्या हैं? हमारे समर्पण क्या हैं? क्या वे सब संकल्प के ही विस्तार नहीं हैं?
‘मैं’ के ही द्वारा ‘मैं’ से मुक्ति के उपाय वैसे ही मूढ़तापूर्ण हैं, जैसे स्वयं के ही जूतों के फीतों को पकड कर स्वयं को ऊपर उठाने की चेष्टा हो सकती है। वस्तुतः ‘मैं’ को छोडा ही नहीं जा सकता है। क्योंकि यदि वह है तो और जो है, वह नहीं हो सकता है। और यदि वह नहीं है, तो नहीं है, और तब उसके नहीं होने का सवाल ही नहीं है। इसलिए उचित है कि ‘मैं’ को जाना जाए। मैं कहता हूंः समर्पण नहीं, ज्ञान। साधना नहीं, ज्ञान। त्याग नहीं, ज्ञान। और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यही है कि साधना से, समर्पण से जहां वह और समृद्ध होता है, वहां ज्ञान से वह पाया ही नहीं जाता है!
‘मैं’ को उसकी समग्रता में जान लेना ही उससे मुक्त हो जाना है।
‘मैं’ को छोडा नहीं जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः वह है नहीं। और जो नहीं है, उसे छोडने के लिए व्यर्थ ही और असत्य आविष्कृत करने पडते हैं।
‘मैं’ एक असत्य है। उसे त्यागने के लिए ‘समर्पण’ का एक दूसरा असत्य निर्मित करना होता है। फिर ‘समर्पण’ के असत्य के लिए एक ‘परमात्मा’ की कल्पना भी करनी होती है। लेकिन, ऐेसे असत्य से मुक्ति नहीं होती, उल्टे और बडे असत्यों का सृजन होता जाता है।
एक साधु था। उसे राह के किनारे पडा एक अनाथ बालक मिल गया। साधु ने उसे पाला-पोसा, बडा किया। साधु के झोपडे के पीछे ही मरघट था और वह बालक था अतिचंचल। वह दिन में, रात्रि में कभी भी मरघट पर चला जाता था। वह मरघट पर न जाए, इसलिए साधु ने उससे कहाः ‘‘अंधेरे में कभी वहां मत जाना, वहां भूत रहते हैं जो मनुष्य को खा जाते हैं।’’ स्वभावतः उस दिन से वह बालक मरघट से डरने और बचने लगा। फिर वह गुरुकुल गया। वहां भी वह एकांत और अंधेरे से भय खाता था। वर्षों बाद वह पुनः घर लौटा। अब वह युवा हो गया था, लेकिन उसके साथ ही साथ उसका भय भी युवा हो गया था। एक रात्रि साधु ने उसे मरघट पार कर गांव में किसी काम से जाने को कहा। लेकिन वह युवक रात्रि में मरघट पार करने के ख्याल से ही कांपने लगा और बोलाः ‘‘मैं अंधेरे में वहां कैसे जा सकता हूं? वहां तो भूत-प्रेत हैं न जो मनुष्य को खा जाते हैं? ’’ साधु हंसा और उसने उसकी भुजा पर एक ताबीज बांध कर कहाः ‘‘जा, अब भूत-प्रेत तेरा कुछ भी नहीं बिगाड सकते। इस ताबीज के कारण भगवान सदा तेरी रक्षा के लिए साथ रहेंगे। भगवान के कारण अब भूत तेरे सामने भी नहीं आ सकते हैं।’’ भगवान को साथ पा भूतों से क्या डर हो सकता था? वह युवक गया और मरघट में भूतों को न पाकर उसके समक्ष भगवान की शक्ति सहज ही प्रमाणित हो गई! इस भांति भूत तो गए, लेकिन भगवान आ गए। पर भूतों को भगवाने के लिए जो भगवान लाए गए थे वे स्वभावतः बडे भूत ही तो हो सकते थे! वह युवक अब भगवान के सहारे भूतों से तो बच कर निकल जाता था, लेकिन ताबीज को एक क्षण भी स्वयं से दूर नहीं कर सकता था! अब भूतों तक को डरानेवाले भगवान से उसका स्वयं का भयभीत होना भी अपरिहार्य था। वह डरता था कि कहीं भगवान उसके किसी दोष, पाप या अपराध के कारण उसका साथ न छोड दें, नहीं तो फिर भूत-प्रेत उससे भलीभांति बदला लेंगे। इससे वह भगवान की पूजा-प्रार्थना भी करता था। उनकी स्तुति तो करता ही, साथ ही पृथ्वी पर उनके प्रतिनिधियों और दलालों से भयभीत होना पडता था। साधु यह सब देख बहुत घबडाया। उसका इलाज तो और महारोग सिद्ध हुआ था। ऐसे भगवान से तो बेचारे भूत-प्रेत ही अच्छे थे। वे तो रात्रि के अंधेरे में मरघट में ही सताते थे, लेकिन ये भगवान तो दिन के उजाले में भी पीछा कर रहे थे। एक अमावस की रात्रि में साधु ने युवक की बांह से झटका देकर ताबीज तोड डाला और उसे सामने जल रही अंगीठी में फेंक दिया। युवक तो थर-थर कांपने लगा और उसका चेहरा एकदम पीला पड गया। वह तो मूच्र्छित ही हो जाता, लेकिन साधु ने उसे संभाला और भूतों के जन्म और फिर भगवान के आविष्कार की सारी कथा उसे बताई। वह थोडा आश्वस्त हुआ तो उसे लेकर साधु मरघट में गया। उन्होंने मरघट का कोना-कोना छान डाला। युवक हैरान हुआ, वहां तो कोई भूत-प्रेत थे ही नहीं। इस प्रकार भूत भी गए और भगवान भी गए। वह युवक स्वस्थ हुआ और भय-मुक्त हुआ। वस्तुतः भूत-प्रेतों और उनके आवास को ठीक से खोज लेना ही उनसे मुक्त हो जाना है।
‘मैं’ पीडा देता है, संताप लाता है, चिंता जन्माता है, मृत्यु की असुरक्षा और भय उपजाता है, इसलिए उससे बचने को भगवान के प्रति समर्पण आविष्कृत होता है। उसके भय से ही भगवान और भक्ति की उत्पत्ति होती है, जब कि ‘मैं’ है ही नहीं, जब तक उसे नहीं खोजा और नहीं जाना, तभी तक वह है। अज्ञान के अतिरिक्त उसकी और कोई सत्ता ही नहीं है। और जो है ही नहीं, उसका समर्पण कैसा? जब भूत हैं ही नहीं, तो बचाव किससे? भूत हैं, इसलिए भगवान की जरूरत है। ‘मैं’ है, इसलिए समर्पण की जरूरत है। ‘मैं’ के भूत को खोजो, उससे बचाव के लिए गंडे-ताबीजों को नहीं खोजो। जाओ स्वयं के भीतर और खोजो कि यह ‘मैं’ कहां है? जैसे ही खोजोगे, पाओगे कि वह नहीं है। मरघट भूतों से खाली है। स्वयं की सत्ता ‘मैं’ से शून्य है, वही परमात्मा है। और तब जो अनुभव में आता है, वही समर्पण है; और तब जिसकी उपस्थिति है, वही ब्रह्म है।

ओशो

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