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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-29)

बोधकथा-उन्नतिसवी 

मैं सोकर उठा ही था कि खबर मिली कि पडोस में किसी की हत्या कर दी गई है। सभी उस चर्चा में व्यस्त हैं। वातावरण में सनसनी है और लोगों की सदा फीकी बनी रहनेवाली आंखों में भी चमक है। न तो किसी को दुख है, न सहानुभूति, बस एक रुग्ण और गर्हित रस ही दिखाई पडता है। मृत्यु और हत्या भी क्या सुख देती है? विनाश भी क्या सुख लाता है? लाता ही होगा, नहीं तो युद्धों में जन-मन का इतना उत्साह नहीं हो सकता था।
जीवन-ऊर्जा जब सृजन की राह पर गतिशील नहीं हो पाती है, तो वही अनायास ही विध्वंस में संलग्न हो जाती है। फिर उसकी अभिव्यक्ति के लिए विनाश ही विकल्प है। जो स्वयं को सृजनात्मक नहीं बनाता है, वह न चाहे तो भी उसकी जीवन-दिशा विनाशोन्मुख हो जाती है।

व्यक्ति में, समाज में, राष्ट्र में--सभी में विनाश के लिए आकुलता है। यह विनाशोन्मुखता अंततः आत्मघात भी बन जाती है। विनाश का रस पैदा हो तो अंततः वह स्वयं को ही नष्ट करके मानता है। हत्यारे में और आत्मघाती में बहुुत फासला नहीं है। हिंसा की चरम परिणति आत्म-हिंसा है।


उस व्यक्ति को मैं जानता था, रात जिसकी हत्या की गई है और उसे भी जिसने हत्या की है। दोनों पुराने शत्रु थे और वर्षों से एक दूसरे को समाप्त करने की टोह में थे। शायद इस महत कार्य के अतिरिक्त उनके जीवन का और कोई लक्ष्य ही नहीं था। शायद इसीलिए हत्यारे ने हत्या करने के बाद, स्वयं को स्वयं ही न्याय के हाथों में सौंप दिया है। उसे जीकर अब क्या करना है? जिसके लिए वह जीता था, वह समाप्त ही हो गया है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हममें से अधिक अपने शत्रुओं के लिए ही जीते हैं? मित्रों के लिए जीने और मरने वाले लोग तो बहुत कम हैं। अधिकतम लोग तो शत्रुओं के लिए ही जीते और मरते हैं। प्रेम नहीं, घृणा ही जीवन का आधार बन गई है। और तब स्वाभाविक ही है कि मृत्यु में एक गर्हित रस हो और विनाश के प्रति हमारे प्राण, एक विवश आकुलता और आकर्षण का अनुभव करें। व्यक्ति हिंसा में और राष्ट्र युद्धों में अकारण ही नहीं खिंच जाते हैं।
यह घृणा क्या है? क्या यह स्वयं के जीवन को आनंद के शिखरों तक न पहुंचा पाने का दूसरों से प्रतिशोध ही तो नहीं है? निश्चय ही जो हम उपलब्ध नहीं कर पाते हैं, उसके लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहरा कर आत्मग्लानि से बचने का सहज और सीधा मार्ग मिल जाता है।
और यह शत्रुता क्या है? क्या स्वयं के मित्र होने की असफलता की ही वह घोषणा नहीं है?
और क्या शत्रु को समाप्त करने से शत्रुता समाप्त हो सकती है?
शत्रुता से शत्रु उत्पन्न होता है, इसलिए शत्रु तो मिट सकता है, लेकिन शत्रुता शेष ही रह जाती है। मित्र के मरने से क्या मित्रता नष्ट होती है? नहीं। तो फिर शत्रु के मिटने से शत्रुता कैसे नष्ट हो सकती है? मित्र और शत्रु बाहर दिखाई पडते हैं, किंतु उनका उदगम स्वयं के ही भीतर है। जीवन की गंगा बाहर है, किंतु गंगोत्री सदा ही भीतर है। मैं तो प्रत्येक व्यक्ति में स्वयं की प्रतिध्वनि ही पाता हूं। जो मैं होता हूं, वही दूसरे में झलक आता है।
एक घटना स्मरण आती हैः
अमावस की अंधेरी रात्रि थी। एक व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए उसके घर में घुसा। चारों ओर कोई भी नहीं था, लेकिन उसके भीतर बहुत भय था। सब ओर सन्नाटा था, किंतु उसके भीतर बहुत कोलाहल और अशांति थी। भयभीत कांपते हाथों से उसने द्वार खोला। आश्चर्य कि द्वार भीतर से बंद नहीं था। बस अटका ही था। लेकिन यह क्या? द्वार खोलते ही उसने देखा कि एक मजबूत और खूंखार आदमी बंदूक लिए सामने खडा है। संभवतः पहरेदार था। लौटने का कोई उपाय नहीं। मृत्यु सामने थी। विचार का भी तो समय नहीं था। आत्मरक्षा के लिए उसने गोली दाग दी। एक क्षण में ही सब हो गया। गोली की आवाज से सारा भवन गूंज उठा और गोली से कोई चीज चूर-चूर होकर बिखर गई। यह क्या? गोली चलानेवाला व्यक्ति हैरान रह गया। सामने तो कोई भी नहीं था। गोली का धुआं था और चूर-चूर हो गया एक दर्पण था!
जीवन में भी यही दिखाई पडता है। आत्मरक्षा के ख्याल में हम दर्पणों से ही जूझ पडते हैं। भय भीतर है, इसलिए बाहर शत्रु दिखाई पडने लगते हैं। मृत्यु भीतर है, इसलिए बाहर मारनेवाला दिखाई पडने लगता है। लेकिन क्या दर्पणों के फोडने से शत्रु समाप्त हो सकते हैं?
शत्रु मित्रता में समाप्त होता है, मृत्यु में नहीं। प्रेम के अतिरिक्त और सब पराजय है।
शत्रु है स्वयं में, स्वयं की घृणा में, स्वयं के भय, द्वेष और ईष्र्या में। किंतु दिखाई पडता है वह बाहर। पांडुरोगी की आंखों में पीलापन होता है लेकिन उसे दिखाई पडता है कि सारा संसार ही पीला हो गया है। ऐसे रोग में क्या करना उचित है? क्या संसार से पीतवर्ण को मिटाने में लगना ठीक होगा या स्वयं की आंखों का उपचार? संसार तो वैसा ही है जैसी कि स्वयं की आंखें हैं। स्वयं की दृष्टि में ही शत्रु और मित्र के रंग छिपे हैं। शत्रु को तो कोई भी नहीं चाहता, लेकिन शत्रुता को हम प्रेम किए जाते हैं। शत्रु को मिटाने की आकांक्षा में भी तो यही प्रकट होता है कि हम शत्रु नहीं, मित्र चाहते हैं, लेकिन घृणा को हम अपने रक्त से सींचते रहते हैं। यह निपट मूढ़ता है। मित्र को जीवन देना चाहते हैं, लेकिन प्रेम को जन्म ही नहीं देते हैं। शत्रुओं की हत्या की जाती है, लेकिन वस्तुतः मित्रों की ही हत्या हो जाती है। बीज तो हम विष के बोते हैं और आकांक्षा अमृत के फलों की करते हैं! यह होना असंभव है।
मित्र और शत्रु-स्वयं की ही परछाइयां हैं।
मैं प्रेम हूं तो संसार भी मित्र है।
मैं घृणा हूं तो परमात्मा भी शत्रु है।

ओशो

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