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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-27)

बोधकथा-सत्ताईसवी 

एक करोडपति के घर में ठहरा था। उनके पास क्या था, जो नहीं था? किंतु उनकी आंखें बहुत निर्धन थीं। उन्हें देख कर बडी दया आती थी। सुबह से सांझ तक वे धन बटोरते थे। सिक्कों के गिनने, सम्हालने और सुरक्षा करने में ही उनका जीवन बीता था। पर धनी वे नहीं थे। शायद रख वाले ही थे। दिन भर कमाते थे, रात्रि भर रख वाली करते थे। इसीलिए सो भी नहीं पाते थे! धन का कौन रख वाला कभी सो पाया है? निद्रा, स्वप्नशून्य निद्रा केवल उनकी ही संपत्ति बनती है, जो सब भांति की संपत्तियों की विक्षिप्तता से मुक्त हो जाते हैं--धन की, यश की, या धर्म की। जिसकी कोई भी दौड है, उसके दिवस-रात्रि सभी अशांत हो जाते हैं। अशांति, दौड रहे चित्त की छाया है। जहां चित्त ठहरता है, वहीं शांति है।

मैं जब रात्रि में अपने दरिद्र, लेकिन करोडपति आतिथेय से सोने के लिए विदा लेने लगा था तो उन्होंने कहा थाः ‘‘मैं भी सोना चाहता हूं, लेकिन नींद है कि मेरी और देखती ही नहीं। चिंताओं में ही रात्रि बीत जाती है। न मालूम कैसे अनर्गल विचार चलते रहते हैं, न मालूम कैसे-कैसे भय भयभीत करते हैं। स्वस्थ और शांत निद्रा के लिए मुझे कोई मार्ग बतावें। मैं क्या करूं? मैं तो पागल हुआ जाता हूं।’


क्या मार्ग मैं बताता? रोग तो मुझे ज्ञात था। धन ही उनका रोग था। वही दिन में उन्हें सताता था, वही रात्रि में। रात्रि तो दिन की ही प्रतिक्रिया और प्रतिफलन है। फिर रोग चाहे कुछ भी हो, मूलतः तो स्वयं के बाहर किसी भी भांति की सुरक्षा की खोज ही मूल रोग है। उससे सुरक्षा तो आती नहीं, वरन रोग ही और बढ़ता जाता है। सुरक्षा के सब उपायों को छोड जब तक व्यक्ति स्वयं पर ही नहीं लौट आता है, तब तक उसका पूरा जीवन ही एक लंबा दुखस्वप्न बना रहता है। वास्तविक सुरक्षा स्वयं के अतिरिक्त और कहीं नहीं है, लेकिन उसे पाने के लिए सब भांति असुरक्षित होने का साहस आवश्यक है।
मैंने उनसे एक कथा कही और कहाः ‘जाएं और सो जाएं।’ और आश्चर्य कि वे सो भी गए। दूसरे दिन उनकी आंखों में कृतज्ञता और खुशी के आंसू थे।
आज मैं सोचता हूं तो मुझे स्वयं ही विश्वास नहीं होता। कौन सा जादू उस कथा ने उन पर कर दिया था? शायद मन की किसी दशा-विशेष में कोई साधारण सी बात भी कभी असाधारण हो जाती है। जरूर ऐसा ही कुछ हुआ होगा। संभवतः तीर अनायास ही ठीक जगह लग गया था। उस रात्रि वे सो गए थे, यह तो ठीक ही है। उसके बाद उनके जीवन में भी दूसरे ही फूल खिलने लगे थे।
वह कथा क्या है? स्वभावतः ही उसे जानने की जिज्ञासा आपकी आंखों में गहरी हो उठी है।
एक महानगरी थी। उस नगरी में एक भिक्षु का आगमन हुआ। ऐसे तो भिक्षु आते ही रहते थे। लेकिन उस भिक्षु में जरूर ही कुछ अदभुत गुण था। हजारों लोगों का तांता उसकी झोपडी पर लगा था। और जो भी उसके निकट जाता, वह वैसी ही सुवास और ताजगी लेकर लौटता जैसी पहाडी झरनों, या वनों के सन्नाटे में, या आकाश के तारों में स्वयं को खो देने पर उपलब्ध होती है। उस भिक्षु का नाम भी अजीब थाः कोटिकर्ण श्रोण। संन्यास के पूर्व वह बहुत धनी था और कानों में एक करोड के मूल्य की बालियां पहनता था, इसीलिए कोटिकर्ण उसका नाम पड गया था। धन तो उसके पास था, लेकिन जब स्वयं की निर्धनता उसने अपनी मिटती नहीं देखी तो वह निर्धन होकर धनी हो गया था। यही वह औरों से कहता था और उसके श्वास से उठ रहा संगीत उसकी गवाही था। उसकी आंखों से झर रही शांति उसकी गवाही थी। उसके शब्दों से और उसके मौन से प्रकट हो रहा आनंद उसकी गवाही था। चित्त प्रौढ़ हो तो धन से, यश से, पद से, महत्वाकांक्षा से मुक्ति सहज ही हो जाती है। वे सब बालपन के खेल ही तो हैं।
भिक्षु श्रोण को देखने-सुनने हजारों व्यक्ति नगर के बाहर एकत्र हुए थे। उसकी बातें सुनने में उनका चित्त निर्वात स्थान में जलती दीपशिखा की भांति थिर था। उस समूह में एक श्राविका कातियानी भी बैठी थी। संध्या हो चली तो उसने अपनी दासी से कहा ‘‘तू जाकर घर में दीया जला दे। मैं तो यह अमृतोपम उपदेश छोड कर उठूंगी नहीं।’’ दासी घर पहुंची तो वहां सेंध लगी हुई थी। अंदर चोर सामान उठा रहे थे और बाहर उनका सरदार रख वाली कर रहा था। दासी उल्टे पांव वापस लौटी। चोरों के सरदार ने भी उसका पीछा किया। दासी ने कातियानी के पास जाकर घबडाए स्वर में कहाः ‘‘मालकिन, घर में चोर बैठे हैं।’’ किंतु कातियानी ने कुछ ध्यान न दिया। वह किसी और ही ध्यान में थी। वह तो जो सुनती थी, सो सुनती रही। जहां देखती थी, वहां देखती रही। वह तो जहां थी, वहीं बनी रही। वह किसी और ही लोक में थी। उसकी आंखों से आनंदाश्रु बहे जाते थे। दासी ने घबडा कर उसे झकझोराः ‘‘मां! मां! चोरों ने घर में सेंध लगाई है। वे समस्त स्वर्णाभूषण उठाए लिए जाते हैं।’’ कातियानी ने आंखें खोलीं और कहाः ‘‘पगली! चिंता न कर। जो उन्हें ले जाना है, ले जाने दे। वे स्वर्णाभूषण सब नकली हैं। मैं अज्ञान में थी, इसलिए वे असली थे। जिस दिन उनकी आंखें खुलेंगी, वे भी पाएंगे कि वे नकली हैं। आंखें खुलते ही वह स्वर्ण मिलता है, जो न चुराया जा सकता है, न छीना ही जा सकता है। मैं उस स्वर्ण को ही देख रही हूं। वह स्वर्ण स्वयं में ही है।’’ दासी तो कुछ भी न समझ सकी। वह तो हतप्रभ थी और अवाक थी। उसकी स्वामिनी को यह क्या हो गया था? लेकिन चोरों के सरदार का हृदय झंकृत हो उठा। उसके भीतर जैसे कोई बंद द्वार खुल गया। उसकी आत्मा में जैसे कोई अनजला दीप जल उठा। वह लौटा और अपने मित्रों से बोलाः ‘‘मित्रो! गठरियां यहीं छोड दो। ये स्वर्णाभूषण सब नकली हैं और आओ, हम भी उसी संपदा को खोजें जिसके कारण गृहस्वामिनी ने इन स्वर्णाभूषणों को नकली पाया है। मैं स्वयं भी उस स्वर्ण-राशि को देख रहा हूं। वह दूर नहीं, निकट ही है। वह स्वयं में ही है।’’

ओशो

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