कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-23)

बोधकथा-तैइसवी 

मैं एक दिन एक वन में था। वर्षा के दिन थे और वृक्षों से आनंद फूटा पडता था। जो साथ थे उनसे मैंने कहाः ‘‘देखते हो वृक्ष, कितने आनंदित हैं! क्यों? क्योंकि जो जो है, वह वही हो गया है। बीज हो कुछ, और वृक्ष कुछ और होना चाहे तो फिर वन में इतना आनंद न रहे। वृक्षों को आदर्शों का कुछ पता नहीं, इसीलिए उनकी प्रकृति ने जो चाहा है, वे वही हो गए हैं। और धन्यता वहीं है, जहां स्वरूप और स्वभाव के अनुकूल विकास है। मनुष्य पीडा में है, क्योंकि मनुष्य स्वयं के ही विरोध में है। वह अपनी जडों से ही लडता है और वह जो है, सदा उससे अन्य होने के संघर्ष में लगा रहता है। इस प्रकार वह स्वयं को तो खोता ही है, उस स्वर्ग को भी खो देता है जो सबका स्वरूपसिद्ध अधिकार है।’’

मित्र, क्या यह उचित नहीं है कि तुम वही होना चाहो जो तुम हो सकते हो? क्या यह उचित नहीं है कि तुम स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी होने के सारे प्रयत्न छोड दो? क्या उस वासना में ही सारे दुखों का मूलस्रोत नहीं है? स्वयं से अन्य होने की वासना से असंभव और अर्थहीन क्या कोई और चेष्टा है? प्रत्येक वही हो सकता है जो हो सकता है। बीज में ही वृक्ष का पूरा होना छिपा होता है, अन्यथा होने की आकांक्षा विफलता ही ला सकती है। विफलता इसीलिए क्योंकि जो पूर्व से ही स्वयं में छिपा नहीं है, वह प्रकट कैसे होगा?


 जीवन तो उसकी ही अभिव्यक्ति है जो जन्म में ढंका और अप्रकट होता है। विकास मात्र अनावरण है। और जहां अप्रकट प्रकट नहीं हो पाता, वहीं पीडा का आविर्भाव हो जाता है। जैसे कोई भी मां अपने बच्चे को जीवन भर गर्भ में ही लिए रहे तो असह्य और अवर्णनीय पीडा में पड जाएगी, वैसे ही वे लोग दुख में पड जाते हैं, जो वह नहीं हो पाते जो होना उनकी नियति था। लेकिन मैं तो प्रत्येक को ऐसी ही दौड में देखता हूं। सभी वह होना चाहते हैं जो वे नहीं हैं, और नहीं हो सकते हैं। अंततः परिणाम क्या होता है? परिणाम होता है कि वे जो हो सकते थे, वही नहीं हो पाते हैं। व्यक्ति जो नहीं हो सकता, वह तो नहीं हो सकता है, किंतु जो हो सकता था, उससे वंचित अवश्य रह जा सकता है।
आदिवासियों का एक राजा पहली बार किसी बडे शहर में गया था। वह अपना चित्र उतरवाना चाहता था। उसे एक स्टूडियो में ले जाया गया। उस फोटोग्राफर ने अपने द्वार पर एक तख्ती लगा रखी थी। उस पर लिखा हुआ थाः ‘‘मनपसंद चित्र उतरवाएं। जैसे आप हैं--10 रुपये; जैसे आप सोचते हैं कि आप हैं--15 रुपये; जैसे आप दूसरों को दिखाना चाहते हैं--20 रुपये; और जैसे आप सोचते हैं कि आप होते--25 रुपये।’’ वह सीधा-सादा राजा इससे बहुत हैरान हुआ और पूछने लगा कि क्या पहले चित्र के अतिरिक्त दूसरे चित्रों को उतरवाने वाले व्यक्ति भी यहां आते हैं? उसे बतलाया गया कि पहले चित्र को उतरवाने वाला व्यक्ति तो आज तक यहां नहीं आया है।
क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपने कौन सा चित्र उस फोटोग्राफर से उतरवाना पसंद किया होता? आपका मन क्या कहता है? क्या अंतिम चित्र की कामना को आप स्वयं में नहीं पकड पाते हैं? हां, पास में उतने पैसे न हों तो बात दूसरी है! मजबूरी की बात और है, अन्यथा पहले चित्र को उतरवाना कौन पसंद करेगा? लेकिन उस गंवार राजा ने पहला चित्र ही उतरवाया था और कहा थाः ‘‘मैं किसी और का नहीं, अपना ही चित्र उतरवाने यहां आया हूं।’’
जीवन के द्वार पर भी ऐसी ही तख्ती सदा से लगी हुई है। मनुष्य बनाने के बहुत पहले ही ईश्वर ने उसे वहां टांग दिया था।
संसार में जो भी पाखंड है, वह स्वयं से अन्य होने की रुग्ण वासना से ही पैदा होता है। जब स्वयं से अन्य होने में विफलता हाथ आती है तो व्यक्ति फिर स्वयं से अन्य दीखने में ही संलग्न हो जाता है। क्या यही पाखंड नहीं है? और यदि वह इसमें भी सफल न हो सका तो फिर विक्षिप्त हो जाता है। तब वह स्वयं को जो भी और जैसा भी मानना चाहता है, वैसा मानने को मुक्त होता है। लेकिन पाखंड हो या पागलपन--दोनों की उत्पत्ति स्वयं को अस्वीकार करने से ही होती है। स्वस्थ व्यक्ति का पहला लक्षण स्वयं की स्वीकृति है। जीवन में वह अपना ही चित्र उतरवाने आता है, किसी और का नहीं! अन्यों के ढांचों में स्वयं को ढालने के सब प्रयास अस्वस्थ चित्त की सूचनाएं हैं। मनुष्य को सिखाए गए तथाकथित आदर्श और दूसरों के अनुकरण के लिए दी गई प्रेरणाएं उसे स्वयं को स्वीकार ही नहीं करने देतीं और तब उसकी यात्रा प्रारंभ से ही गलत दिशा में गतिमान हो जाती है। इस भांति की सभ्यता ने मनुष्य को एक महारोग की भांति जकड लिया है। मनुष्य कितना कुरूप और अपंग हो गया है! उसमें कुछ भी स्वस्थ और सहज नहीं है। क्यों? क्योंकि संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा के नाम पर उसकी प्रकृति की निरंतर हत्या की गई है। इस षड्यंत्र से यदि मनुष्य सजग न हुआ तो वह आमूलतः ही नष्ट हो सकता है। संस्कृति प्रकृति की हत्या नहीं है। वह तो उसका ही विकास है। संस्कृति प्रकृति का विरोध नहीं, विकास है। मानव का भविष्य किसी बाह्य आदर्श से नहीं, वरन अंतरस्थ प्रकृति से ही निर्धारित हो सकता है। और तब एक ऐसे सहज और आंतरिक अनुशासन का जन्म होता है, जो स्वरूप को उस सीमा तक खोलता और उघाडता है, जहां सत्य का साक्षात हो सके। इसलिए मैं कहता हूंः स्वयं को चुनें। स्वयं को स्वीकारें। स्वयं को खोजें और विकसित करें। स्वयं के अतिरिक्त कोई अन्य न किसी का आदर्श है, न हो सकता है। अनुकरण आत्मघात है। और स्मरण रखें कि परतंत्रता में परमात्मा कभी भी नहीं पाया जा सकता है।

ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें