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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-02)

बोधकथा-दूूसरी   

एक अंधेरी रात्रि में मैं आकाश के तारों को देख रहा था। सारा नगर सोया हुआ था। उन सोए हुए लोगों पर मुझे बहुत दया आ रही थी। वे बेचारे दिनभर की अधूरी वासनाओं के पूर्ण होने के स्वप्न ही देख रहे होंगे। स्वप्न में ही वे जागते हैं, और स्वप्न में ही सोते हैं। न वे सूर्य को देखते हैं, न चांद को, न तारों को। वस्तुतः जो आंखें स्वप्न देखती हैं, वे आंखें उसे नहीं देख पाती हैं। सत्य को देखने के लिए आंखों से स्वप्नों की धूल हट जाना अत्यंत आवश्यक है।
रात्रि जैसे-जैसे गहरी होती जाती थी, वैसे-वैसे आकाश में तारे ब.ढते जाते थे। धीरे-धीरे तो पूरा आकाश ही उनसे जगमग हो उठा था। और आकाश ही नहीं, उनके मौन सौंदर्य से मैं भी भर गया था। आकाश के तारों को देखते-देखते क्या आत्मा का आकाश भी तारों से ही नहीं भर जाता है? वस्तुतः मनुष्य जो देखता है, उसी से भर जाता है। क्षुद्र को देखने वाला क्षुद्र से भर जाता है, विराट को देखने वाला विराट से। आंखें आत्मा के द्वार हैं।

मैं एक वृक्ष से टिका आकाश में खोया ही था कि तभी किसी ने पीछे से आकर मेरे कंधे पर अपना ठंडा और मुर्दा हाथ रख दिया। उसकी पग-ध्वनियां भी मुझे सुनाई प.डी थीं। वे ऐसी नहीं थीं, जैसी किसी जीवित व्यक्ति की होनी चाहिए, और उसका हाथ तो इतना निर्जीव था कि अंधेरे में भी उसकी आंखों में भरे भावों को समझने में मुझे देर नहीं लगी। उसके शरीर का स्पर्श उसके मन की हवाओं को भी मुझ तक ले आया था। वह व्यक्ति तो जीवित था और युवा था, लेकिन जीवन कभी का उससे विदा ले चुका था, और यौवन तो संभवतः उसके मार्ग पर अभी आया ही नहीं था।
हम दोनों तारों के नीचे बैठ गए थे। उसके मुर्दा हाथों को मैंने अपने हाथों में ले लिया था, ताकि वे थोडे गर्म हो सकें, और मेरी जीवन-ऊष्मा भी उनमें प्रवाहित हो सके। संभवतः वह अकेला था और प्रेम उसे जिला सकता था।
निश्चय ही ऐसे समय बोलना तो उचित नहीं था और इसलिए मैं चुप ही रहा। हृदय मौन में ही कहीं ज्यादा निकटता पाता है। और शब्द जिन घावों को नहीं भर सकते, मौन उन्हें भी स्वस्थ करता है। शब्द और ध्वनियां तो पूर्ण संगीत में विघ्न और बाधाएं ही हैं।
रात्रि मौन थी, और मौन हो गई। उस शून्य संगीत ने हम दोनों को घेर लिया। वह अब मुझे अपरिचित नहीं था। उसमें भी मैं ही था। फिर उसकी पाषाण-जैसी जडता टूटी और उसके आंसुओं ने खबर दी कि वह पिघल रहा है। वह रो रहा था और उसका सारा शरीर कंपित हो रहा था। उसके हृदय में जो हो रहा था, उसकी तरंगें उसके शरीर तंतुओं तक आ रही थीं। वह रोता रहा...रोता रहा...रोता रहा और फिर बोलाः ‘‘मैं मरना चाहता हूं। मैं अत्यंत निर्धन और निराश हूं। मेरे पास कुछ भी तो नहीं है।’’
मैं थोडी देर और चुप रहा और फिर धीरे-धीरे मैंने उससे एक कहानी कही। मैंने कहाः मित्र! मुझे एक कथा स्मरण आती है। एक फकीर से किसी युवक ने जाकर कहा थाः ‘‘परमात्मा ने सब कुछ मुझसे छीन लिया है। मृत्यु के अतिरिक्त मेरे लिए अब कोई मार्ग नहीं है।’’
क्या वह युवक तुम ही तो नहीं हो?
उस फकीर ने युवक से कहा थाः ‘‘मैं तो तेरे पास छिपा हुआ एक बडा खजाना देख रहा हूं? क्या उसे बेचेगा? उसे बेच दे तो तेरा सब काम बन जाए और परमात्मा की बदनामी भी बचे? ’’
तुम वह युवक हो या नहीं, पता नहीं। लेकिन फकीर मैं वही हूं और लगता है कि कहानी फिर से दुहर रही है।
वह युवक हैरान हुआ था और शायद तुम भी हैरान हो रहे हो। उसने पूछा थाः ‘‘खजाना? मेरे पास तो फूटी कौडी भी नहीं है!’’
इस पर फकीर हंसने लगा था और बोला थाः ‘‘चलो, मेरे साथ बादशाह के पास चलो। बादशाह बडा समझदार है। छिपे खजानों पर उसकी सदा से ही गहरी नजर रही है। वह जरूर ही तुम्हारा खजाना खरीद लेगा। मैं पहले भी बहुत से छिपे खजानों के बेचने वालों को उसके पास ले गया हूं!’’
वह युवक कुछ भी नहीं समझ पा रहा था। उसके लिए तो फकीर की सारी बातचीत ही पहेली थी। लेकिन फिर भी वह उसके साथ बादशाह के महल की ओर चला। मार्ग में फकीर ने उससे कहाः ‘‘कुछ बातें पहले से तय कर लेना आवश्यक है, ताकि बादशाह के सामने कोई झंझट न हो। वह बादशाह ऐसा है कि जो चीज उसे पसंद हो, उसे फिर किसी भी मूल्य पर छोडता नहीं है। इसीलिए यह भी जान लेना जरूरी है कि तुम उस चीज को बेचने को राजी भी हो या नहीं? ’’
वह युवक बोलाः ‘‘कौन सा खजाना? कौन सी चीजें? ’’
फकीर ने कहाः ‘‘जैसे, तुम्हारी आंखें। इनका क्या मूल्य लोगे? मैं 50 हजार तक बादशाह से दिला सकता हूं। क्या यह रकम पर्याप्त नहीं है? या जैसे तुम्हारा हृदय या मस्तिष्क, इनके तो एक-एक लाख भी मिल सकते हैं!
वह युवक हैरान हुआ और अब समझा कि फकीर पागल है। बोलाः ‘‘क्या आप पागल हो गए हैं? आंखें? हृदय? मस्तिष्क? आप यह कह क्या रहे हैं? मैं इन्हें तो किसी भी मूल्य पर नहीं बेच सकता। और मैं ही क्यों, कोई भी नहीं बेच सकता है।’’
फकीर हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं पागल हूं या तू? जब तेरे पास इतनी बहुमूल्य चीजें हैं, जिन्हें तू लाखों में भी नहीं बेच सकता, तो झूठ-मूठ निर्धन क्यों बना हुआ है? इनका उपयोग कर। जो खजाना उपयोग में नहीं आता, वह भरा हुआ भी खाली है, और जो उपयोग में आता है, वह खाली भी हो तो भर जाता है। परमात्मा खजाने देता है--अकूत खजाने देता है, लेकिन उन्हें खोजना और खोदना स्वयं ही पडता है। जीवन से बडी कोई संपदा नहीं है। जो उसमें ही संपदा नहीं देखता, वह संपदा को और कहां पा सकता है? ’’
रात्रि आधी से ज्यादा बीत गई थी। मैं उठा और मैंने उस युवक से कहाः ‘‘जाओ और सो जाओ। सुबह एक दूसरे ही व्यक्ति की भांति उठो। जीवन वैसा ही है, जैसा हम उसे बनाते हैं। वह मनुष्य की अपनी सृष्टि है। उसे हम मृत्यु भी बना सकते हैं, और अमृत भी। सब कुछ स्वयं के अतिरिक्त और किसी पर निर्भर नहीं है। फिर मृत्यु तो अपने-आप आ जाएगी। उसे बुलावा देने की आवश्यकता नहीं है। बुलाओ अमृत को। पुकारो परम-जीवन को। वह तो श्रम से, शक्ति से, संकल्प से और साधना से ही मिल सकता है।’’
 ओशो

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