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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-15)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) 

पंद्रहवां-प्रवचन-ओशो

जो बाहर से आया वह ज्ञान नहीं है  

...सत्य जैसी कोई चीज नहीं है। सब सत्य वही है। मेरा, आपका...जैसे प्रेम जैसी चीज...आपका प्रेम, उनका प्रेम सार्थक है, अर्थ रखता है। प्रेम जैसी चीज खोजने से कहीं भी मिलने वाली नहीं है। और जब मैं प्रेम करता हूं, तो वैसा प्रेम दुनिया में कभी किसी ने नहीं किया। वह मैं ही करता हूं। क्योंकि मैं कभी दुनिया में नहीं हुआ। जब आप प्रेम करते हैं, तो वह प्रेम आप ही करते हैं। दुनिया में कभी न किसी ने किया, न कर सकता है, न कभी करेगा।
तो यद्यपि हम कहते हैं कि हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया, दस हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया। मैं प्रेम करता हूं, आप प्रेेम करते हैं। आने वाले बच्चे प्रेम करेंगे। लेकिन हर बार प्रेम जब भी फलित होगा, तो नया ही फलित होगा। पुराने प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती। जब मैं प्रेम करूंगा तो वह अनुभव एकदम ही नया है। वह अनुभव मुझे ही हो रहा है। वह अनुभव कभी किसी को नहीं हुआ।

तो मेरी जो दृष्टि हैः वह यह है कि प्रत्येक घटना, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक अनुभूति अपना व्यक्तित्व रखती है। और व्यक्तित्व हमेशा बेजोड़ है, अनकंपैरेबल है। उसकी कोई तुलना नहीं, कोई तौल नहीं। अगर यह बात हमें कठिन है, झगड़े की बेवकूफी खत्म हो जाती है। वह, वह इस बात पर खड़ी हुई है कि सत्य है--एक। और सत्य है व्यक्तियों से अलग कुछ। और महावीर कहते हैं, वह ऐसा है; बुद्ध कहते हैं, वह ऐसा है; क्राइस्ट कहते हैं, वह ऐसा है--तो ये तीनों सही नहीं हो सकते। यह इनमें से कोई एक सही हो सकता है, बाकी दो तो बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। वे सही नहीं हो सकते।
तो मेरी अपनी दृष्टि यह है कि ये सभी सही हो सकते हैं। क्योंकि यह, यह जो, यह जो झगड़ा दिखाई पड़ रहा है, यह झगड़ा एक व्यक्ति के कोने से देखी गई बात का है। तो मैं जब देख रहा हूं तो नया ही देख रहा हूं। और आप जब देखेंगे, तब नया ही देखेंगे। पुराना देखने का कोई उपाय नहीं है। पुराना दोहराने का उपाय है, देखने का उपाय नहीं है। आप महावीर की वाणी बिना जाने हुए दोहरा सकते हैं। लेकिन जिस दिन जानेंगे, उस दिन बात बिलकुल ही और हो गई है। उस दिन बात बिलकुल और हो गई है।
तो जानना तो हमेशा नया है। नाॅलेज ए.ज सच इ.ज न्यू। वह कभी पुरानी नहीं होती। वह कभी पुरानी नहीं हो सकती, न बासी हो सकती है। लेकिन किसी की जानी हुई बातों को हम दोहरा सकते हैं। तो हजारों साल तक दोहराई जा सकती हैं। लेकिन दोहराना जानना नहीं है। दोहराना हमेशा पुराना है। दोहराना हमेशा बासा है।

प्रश्नः लेकिन उस जानने में महाराज जी, समानता तो हो सकती है, जैसा दूसरे ने जाना, वैसा ही मैं जानूं। और समानता मुझे उपलब्ध हो जाए।

यह जो, अगर बहुत गौर से देखेंगेः यह समानता तभी हो सकती है जब कि जैसा दूसरा था, वैसा ही मैं हूं। अन्यथा यह कभी नहीं हो सकती। अगर इसके पूरे इंप्लीकेशंस को समझेंगे, तो जब मैं जान रहा हूं तो मेरा पूरा व्यक्तित्व, मेरा टोटल बीइंग जान रहा है। और मेरा पूरा व्यक्तित्व, और अगर ठीक आपका पूरा व्यक्तित्व बिलकुल वैसा हो, जैसा मेरा है; तो हम दोनों के जानने की घटना एक ही हो सकती है।
और व्यक्ति कभी दो एक जैसे नहीं हैं। व्यक्ति तो बहुत दूर की बात है, एक पत्थर उठा लें दिल्ली की सड़क का, तो सारी जमीन पर खोजने से ठीक वैसा दूसरा पत्थर हम नहीं खोज सकते। एक फूल एक बगिया में से चुन लें, और सारे जंगल छान डालें तो दूसरा फूल वैसा हम नहीं चुन सकते। यहां एक-एक चीज का अपना अनूठा होना है। और यह अनूठा होना ही उसकी आत्मा है। मेरे हिसाब में यह जो अनूठापन है, यह उसकी आत्मा है।
मशीन में आत्मा नहीं है, क्योंकि मशीन अनूठी नहीं है। जिस दिन हम अनूठी मशीन बना सकें, उस दिन मशीन में आत्मा शुरू हो गई। लेकिन अनूठी मशीन हम बना नहीं सकते। नकल ही होगी। उस जैसी हजार मशीन हो सकती हैं। मशीन एक ढांचे में ढलती है। और आत्मा एक ढांचा नहीं है। इसलिए मशीन एक परतंत्रता है, आत्मा एक स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता इसीलिए है कि--बेजोड़ है, अद्वितीय है, यूनीक है, अपने जैसी है। कोई दूसरे जैसी नहीं है। और अगर यह बात ठीक है कि एक-एक व्यक्ति का अपना अनूठापन है, तो फिर दूसरी बात इसकी कोरोलरी है--कि तो उसका अनुभव भी उसका ही है। और किसी जैसा नहीं है।
तो हम काम चलाने के लिए बात कर लेते हैं। क्योंकि काम चलाना मुश्किल हो जाए। अगर हम इस अनूठेपन की परिपूर्णता को स्वीकार कर लें तो, तो भाषा बनानी कठिन हो जाए। क्योंकि जब मैं एक शब्द का उपयोग करता हूं, तब वह शब्द मेरे वैयक्तिक अर्थ रखता है। और जब आपके पास जाता है तो उसके अर्थ बदल जाते हैं। इसीलिए तो दुनिया में इतनी मिसअंडरस्टैंडिंग होती है। जब मैं बोलता हूं, तो मैं कुछ और कह रहा हूं; जब आप समझते हैं, तब आप कुछ और समझते हैं। जब आप फिर बोलते हैं तो आप कुछ और कह रहे होते हैं, मैं कुछ और समझता हूं।
यह जो सारी दुनिया में एक-दूसरे को समझना मुश्किल होता है, दो आदमियों की तो बात अलग है। जिनसे हमारी बहुत इंटीमेसी है, जिन्हें हम बहुत प्रेम करते हैं, वे भी एक-दूसरे को नहीं समझते। एक-दूसरे की बात, एक-दूसरे के पास जाकर दूसरा रंग और रूप ले लेती है--तत्काल। क्योंकि दूसरे का पूरा व्यक्तित्व रिएक्ट करता है, उस एक शब्द पर, जो दूसरे व्यक्तित्व से आ रहा है। और इन दोनों में कहीं कोई मेल नहीं होगा। कामचलाऊ है मेल हमारा। सिमिलैरिटीज जितनी भी हैं, सब कामचलाऊ हैं। उनको अगर हम तोड़ दें तो जीना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए हम उनको बनाए हुए हैं, लेकिन वस्तुतः जगत में कोई दो अनुभव समान नहीं हैं, न हो सकते हैं। क्योंकि अनुभव करने वाली चेतना भिन्न है।
इस पर मेरा बहुत जोर है कि एक-एक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है, इनडिविजुअलिटी है। और इसलिए हम सारे लोग एक फूल के करीब से निकलें, तो एक व्यक्ति हो सकता है फूल को देखे भी नहीं। उसे पता भी न चले कि गुलाब का फूल खिला था पास की झाड़ी में, वह निकल जाएगा। उसकी भी आंख पर गुलाब के फूल का रंग पड़ता है। उसकी नाक में भी गंध पड़ती है। सूरज की रोशनी में चमकता हुआ फूल उसके पास भी खड़ा हुआ है। वह निकल जाता है, उसे वह देखता भी नहीं। शायद फूल के लिए उसके व्यक्तित्व में कोई जगह नहीं है। या इस क्षण फूल के लिए उसके व्यक्तित्व के पास कोई पकड़ नहीं है--तो गुजर जाता है।
एक दूसरा आदमी उस फूल के पास से गुजर रहा है, वह एक वैज्ञानिक है। उसके व्यक्तित्व का अपना ढांचा है। एक तीसरा आदमी गुजर रहा है, वह एक कवि है। एक चैथा आदमी गुजरा, वह एक पेंटर है। उनके अपने ढांचे हैं। जब एक चित्रकार उस फूल को देखता है तो उसे रंगों का एक ऐसा अदभुत अनुभव गुजर जाता है जो वैज्ञानिक को कभी नहीं गुजरता। वैज्ञानिक जब उस फूल को देखता है तो हो सकता है सोचे कि किस स्पीसी का है? यह फूल किस जाति का है? इसमें कितने केमिकल्स होते हैं? किस तरह बनता है? किस देश में पैदा होता है? हो सकता है फूल का पूरा इतिहास गुजर जाए; फूल की पूरी केमिस्ट्री गुजर जाए, लेकिन फूल की पोएट्री से उसका कोई संबंध न हो पाएगा। क्योंकि फूल की केमिस्ट्री एक बात है, और फूल की पोएट्री बिलकुल दूसरी बात है। और एक कवि वहां से गुजरता है, उसे फूल की केमिस्ट्री का पता ही नहीं चलेगा। उससे कोई पूछे कि फूल में केमिकल होते हैं? तो अकबका कर खड़ा रह जाएगा, कि मैंने कभी जाना नहीं। फूल में कुछ और होता है। बाकी केमिकल्स होते हैं, इसका मुझे कोई पता नहीं।
ये जो लोग गुजर रहे हैं फूल के पास से, इनका अपना व्यक्तित्व और फूल का मिलन अनुभव बनता है। और वह अनुभव इसलिए हमेशा भिन्न होगा। इस सत्य को जिस दिन हम स्वीकार कर लेंगे, उस दिन दुनिया में संप्रदायों की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि संप्रदाय बिलकुल झूठे हैं। क्योंकि संप्रदाय इस बात को मान कर चलते हैं कि अनुभव भीड़ की इकट्ठी हो सकती है। एक भीड़ इकट्ठा अनुभव कर सकती है, यह बात ही फिजूल है।
संप्रदाय मिट सकते हैं, अगर हम एक-एक व्यक्ति की निजता को और इनडिविजुअलिटी को अंगीकार कर लें। साथ ही दुनिया में संप्रदायों का झगड़ा भी समाप्त हो जाता है। क्योंकि मेरे सत्य और आपके सत्य को समान होने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। मेरा सत्य अपनी हैसियत से खड़ा हो जाता है, आपका सत्य अपनी हैसियत से खड़ा हो जाता है। और हमारे ये दावे खत्म हो जाते हैं कि मेरा ही सत्य सबका सत्य होना चाहिए। इस, इस...जब हम एक बार यह सोचने लगते हैं कि सत्य समान होना चाहिए, तब धीरे-धीरे हम यह भी सोचने लगते हैं कि जो समान नहीं है, या तो फिर वह सत्य है तो फिर मेरा सत्य नहीं है। और या फिर मेरा सत्य है तो फिर वह सत्य नहीं है।
फिर यह, यह भाव पैदा होना शुरू होता है--कुरान सत्य है तो फिर गीता सत्य कैसे हो सकती है? और गीता सत्य है तो फिर बाइबिल कैसे सत्य होगी? और अगर महावीर की अहिंसा सत्य है तो मोहम्मद की तलवार कैसे सत्य होगी? और अगर महावीर का जीवन के समस्त संघर्ष से हट जाना सत्य है तो कृष्ण का संघर्ष में ले जाने का आह्वान कैसे सत्य होगा? यह तो फिर, यह तो विरोध पर खड़ी हो गई बातें हो गई हैं। तो मजबूरी हो गई।
अगर महावीर को सत्य मानते हैं तो कृष्ण को असत्य मान लेना अनिवार्यता होगी। और अगर कृष्ण को सत्य मान लेते हैं तो महावीर को असत्य मान लेना अनिवार्यता होगी। और मेरी अपनी समझ यह है कि यह अनिवार्यता नहीं है। यह एक फैलेसी, फैलेसी पर खड़ी हुई बात है कि हमने पहले यह मान रखा है कि सत्य जैसी चीज भी कोई होती है--व्यक्ति से अलग। कृष्ण का सत्य, कृष्ण का सत्य है; और महावीर का सत्य, महावीर का सत्य है; और आपका सत्य, आपका सत्य है।
तो मेरा कहना यह नहीं कि आप किसी के सत्य को मानें। मेरा कहना यह है कि आप अपने असत्य को छोड़ें, और अपने सत्य को उपलब्ध हो जाएं। मेरा कहना यह नहीं कि आप अपने को छोड़ें। क्योंकि जब आप महावीर के सत्य को मानेंगे तो आपको अपने को छोड़ना पड़ेगा। तो आप महावीर का सत्य मान सकते हैं। और जिस दिन आपने अपने को छोड़ा, आत्मघात शुरू हो गया। इसलिए अनुगमन को मैं आत्मघात कहता हूं। किसी का फाॅलोवर बनना सुसाइडल है।
किसी का अनुयायी बनने का मतलब यह है कि मैं अपने को छोड़ता हूं, तुमको स्वीकार करता हूं। मेरी दृष्टि में साधक का छोड़ना स्वयं का छोड़ना नहीं है--स्वयं के असत्य को छोड़ना है, स्वयं के दुख को छोड़ना है, स्वयं के अंधकार को छोड़ना है, स्वयं के अज्ञान को--लेकिन स्वयं के। ताकि स्वयं का सत्य उपलब्ध हो सके। स्वयं का ज्ञान उपलब्ध हो सके।
और जिस दिन, जिस दिन स्वयं के सत्य की पूरी अनुभूति प्रकट होती है, उस दिन सब के सत्य भिन्न-भिन्न होते हुए भी, सत्य हो जाते हैं। उस दिन महावीर असत्य नहीं होते आपके सत्य की अनुभूति में। उस दिन मोहम्मद भी असत्य नहीं होते। और एक मिरेकल घटित होता है कि मोहम्मद की तलवार, और महावीर की अहिंसा एक साथ सत्य हो जाती है।
यह वैसे ही होता है जैसे एक आदमी पहाड़ पर चढ़ रहा है, और जब वह पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाता है, तब उसे दिखाई पड़ता है कि हजार-हजार रास्ते हैं। जो दूर-दूर कोनों से अलग-अलग...(रिकार्डिंग रिक्त...)वे एक जगह ले आए। सारी प्रक्रिया जाने की भिन्न है। सारी प्रक्रिया अनुभव की भिन्न है... उसकी जरूरत भी नहीं। लेकिन एक क्षण आता है कि रास्ते भी खो जाते हैं...(रिकार्डिंग रिक्त...)वह साइलेंस इनडिविजुअल नहीं है। मौन व्यक्ति का नहीं है...(रिकार्डिंग रिक्त...) हम अनुभव करेंगे तो हमारे अनुभव अलग-अलग होंगे।...(रिकार्डिंग रिक्त...)कुछ भी न करें, और सब मौन हो जाएं। न कोई विचार, न कोई अनुभव तो हम अलग-अलग कैसे होंगे? मौन में हम अलग-अलग नहीं हो सकते। मैं जब तक बोल रहा हूं, आपसे अलग हूं। जब तक सोच रहा हूं, आपसे अलग हूं। लेकिन अगर मैं बिलकुल चुप हो गया हूंः न सोच रहा हूं; न बोल रहा हूं; न अनुभव कर रहा हूं--और आप भी इस हालत में हैं, तो हम दोनों में क्या भेद होगा?
साइलेंस भर अभेद है। मौन भर अभेद है। निःशब्द भर अभेद है। लेकिन वहां कोई अनुभव भी नहीं है। तो जहां तक अनुभव है--चाहे वह अनुभव संसार का हो, चाहे सौंदर्य का हो, चाहे सत्य का हो--वहां तक व्यक्ति का भेद है। जहां अनुभव ही नहीं, नो-एक्सपीरियंस का जगत जहां शुरू होता है, वहां फिर कोई भेद नहीं है। लेकिन वहां समानता भी नहीं है। क्योंकि समानता के लिए दूसरे का होना जरूरी है। समानता के लिए भी भेद होना जरूरी है। तो वहां कोई समानता भी नहीं, वहां कोई भेद भी नहीं।
वहां एक अंतिम सन्नाटा है। उस सन्नाटे में सारी चीजें एक हो गई हैं। उस सन्नाटे में प्रकट हुआ है कि सारी चीजें एक हैं। उस सन्नाटे में यह दिखाई पड़ा है कि भेद ऊपरी थे। उस सन्नाटे में दिखाई पड़ा है कि व्यक्तित्व भी ऊपरी घटना थी। भीतर अ-व्यक्ति, नो-इनडिविजुल बैठा हुआ है। उसी को हम ब्रह्म कहें, उसको हम मोक्ष कहें--जो नाम दें, वह दूसरी बात है। लेकिन जहां तक अनुभव है, जहां तक अनुभव को शब्द देने की चेष्टा है, वहां तक सब वैयक्तिक है।
और मैं इस पर जोर देना चाहता हूं कि व्यक्ति की गरिमा विकसित होनी चाहिए। क्योंकि उस घटना तक, अ-व्यक्ति तक पहुंचने के लिए व्यक्ति का मौजूद होना जरूरी है, नहीं तो आप कभी पहुंचेंगे नहीं--तभी पहुंचेंगे। अनुभव से शून्य होने के लिए अनुभव का होना जरूरी है। नहीं तो आप उस तक कभी पहुंचेंगे नहीं। और इसलिए मेरा संप्रदाय से विरोध है, तुलना से विरोध है। कंपेरीजन से विरोध है।

प्रश्नः लेकिन तब महाराज जी, जो सारा शास्त्र है, आगम है या प्रवचन है, या सत्संग है, इस सब का आपकी दृष्टि में क्या उपयोग है?

एक निगेटिव उपयोग है। एक नकारात्मक उपयोग है। पाॅजिटिव उपयोग नहीं है। यहां आप मेरे पास आए, यहां दो उपयोग हो सकते हैं। एक तो विधायक उपयोग हो सकता है कि आप मुझसे कुछ ज्ञान लेकर जाएं। आप जितना ज्ञान लेकर आए थे, उसमें कुछ एडिशन हो जाए। मैं कुछ जोड़ दूं। आप यहां से थोड़े ज्यादा ज्ञानी वापस लौटे। यह तो विधायक उपयोग हुआ। और नकारात्मक उपयोग यह है कि आप जितना ज्ञान लेकर आए थे, वह भी गड़बड़ हो जाए। आप खाली हाथ होकर लौटें। आपको लगे कि मैं यह भी नहीं जानता था जो मैं सोचता था कि मैं जानता हूं। यह निगेटिव उपयोग है। यह बहुत मूल्य का है। पाॅजिटिव उपयोग बहुत खतरनाक है। सारा सत्संग मूल्यवान है, अगर वहां हमारा अज्ञान प्रकट होता हो। सब शास्त्र मूल्यवान हैं, अगर उनको पढ़ कर आपको पता चलता हो कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
हालांकि पढ़ते हम इसलिए हैं ताकि हमको यह पता चले कि मैं कुछ जानने लगा। और पढ़ कर हमको यह लगता है कि हम जानने लगे हैं। खतरनाक हो गया है यह उपयोग। समस्त ज्ञानियों के निकट पहुंचने का एक ही मूल्य है कि आपको अपने अज्ञान का बोध, अवेयरनेस आॅफ इग्नोरेंस खयाल में आ जाए। तो अगर आपको अज्ञान का बोध ख्याल में आ जाए तो एक अदभुत प्रक्रिया आपके भीतर शुरू हो जाएगी। और अगर आपको यह पता चल जाए कि मैं कुछ जान लिया तो आपके भीतर जड़ता शुरू होती है, कोई प्रक्रिया शुरू नहीं होती।
ज्ञानी धीरे-धीरे जड़ हो जाता है। क्योंकि उसे खयाल पैदा हो जाता है, मैंने जान लिया। जिसको भी यह खयाल पैदा हो गया कि मैंने जान लिया, उसके जानने के दरवाजे बंद हो गए। अब वह नहीं जानेगा। लर्निंग गई, खोज गई, खोजना बंद हुआ। और जिस आदमी की खोज बंद हो गई, जिसने और जानने के द्वार खटखटाने बंद कर दिए, जो बैठ गया संतुष्ट होकर कि मैंने जान लिया। शास्त्र यह भ्रम पैदा कर सकते हैं। करते हैं, जरूरी नहीं है कि भ्रम पैदा करें। हम करवाते हैं। सत्संग से यह भ्रम पैदा होता है।
सत्संग में क्या मिलेगा आपको? कुछ शब्द मिल सकते हैं। शास्त्र में भी क्या मिलेगा? कुछ शब्द कुछ सिद्धांत, कुछ फार्मुलेशंस भी मिलेंगे। उनको सीख कर आप बैठ जाएंगे और सोचेंगे, मैंने जान लिया। यह जानना वैसे ही है जैसे एक आदमी प्रेम के संबंध में दस किताबें पढ़ ले। और, और प्रेम के संबंध में बात करने लगे। लिख भी सके, बोल भी सके, शास्त्र भी बना सके। लेकिन इसका जानना क्या है?
यह वैसे है जैसे एक आदमी तैरने के संबंध में जितनी किताबें लिखी गई हैं, पढ़ ले। और अगर प्रवचन देना हो तो तैरने के ऊपर प्रवचन दे सके। किताब लिख सके। और उस आदमी को हम पानी में धक्का दे दें, तो हमें पता चले कि उसका शास्त्र भी काम नहीं आया। उसका तैरने का ज्ञान भी काम नहीं आया। वह तो डूबने लगा, वह चिल्लाने लगा कि मुझे बचाओ। क्योंकि तैरने के संबंध में शब्द सीख लेने से तैरना सीखने का कोई वास्ता ही नहीं है, कोई संबंध ही नहीं है।
और यह इससे उलटा भी हो सकता है कि एक आदमी तैरना जानता है, और तैरने के संबंध में दो शब्द भी न बोल सके। वह यही कहे कि भई, मैं तैरना जानता हूं। और क्या कह सकता है? आप ज्यादा कहें तो मैं तैरना बता सकता हूं। और क्या कह सकता है? तो जानना और शब्द सीख लेना, दो अलग बातें हैं। तो सत्संग और शास्त्र से अगर शब्द सीख लेते हों... और इतना सरल है शब्द सीख लेना। अब हमारे सब शब्द हैं--आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म--यह हम, क्या हैं हमारे लिए? इनको सुन कर हमने क्या सीख लिया? हमने कुछ जान लिया है? यह शब्द रूढ़ हो गया। रोज-रोज सुनते-सुनते, सुनते-सुनते मन के भीतर बैठ गया। इतने गहरे बैठ गया कि हमें ऐसा लगता है कि मैं जानता हूं। अगर मैं आपसे पूछूंः ब्रह्म को आप जानते हैं? तो एक तरफ स्मृति कहती है--हां। क्योंकि मैंने उपनिषद पढ़े हैं, मैंने गीता पढ़ी है, मैंने शंकर प.ढ़े हैं, मैंने यह पढ़ा है। मैं जानता हूं कि ब्रह्म क्या है। लेकिन और थोड़ा गहरा झांकें तो पता चलेगा कि सिवाय शब्द के हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। शब्द के पीछे कंटेंट कुछ भी नहीं है। यह तो खतरा है।
तो मेरा उलटा ही खयाल है। मेरा खयाल यह है कि गुरु वह है जो आपका गुरु न बने। ज्ञान वहां है, जहां से आप अज्ञानी होकर वापस लौटें। शास्त्र वह है जो आपके शब्द छीन ले। अब यह, यह तो उलटा दिखाई पड़ता है न, क्योंकि हमारी आम धारणा यह है कि गुरु वह है जो आपको सिखाए। और मैं कहता हूंः गुरु वह है जो आपने सीखा है, उसको भी भुला दे। लर्निंग नहीं, अनलर्निंग करवा दे।
रमण महर्षि के पास एक जर्मन, आसबर्न उनके पास आकर रहा। और उनसे जाकर कहा कि मैं सीखने आया हूं ब्रह्मज्ञान। तो उन्होंने कहा कि तुम कहीं और जाओ। क्योंकि हम तो यहां भुलाते हैं, सिखाते नहीं हैं। स्कूल आॅफ अनलर्निंग है यह। यह स्कूल आॅफ लर्निंग नहीं है। सीखना है तो बहुत दुनिया, दुनिया पड़ी है, बहुत से स्कूल हैं, वहां तुम सीखो। यह तो स्कूल आॅफ अनलर्निंग है। यहां हम भुलाते हैं। यहां तुम जो सीख कर आए हो, हम बताएंगे कि वह सब फिजूल है। और हम चाहेंगे कि तुम उसको छोड़ दो। जिस दिन तुम कोरे कागज की तरह हो जाओगे और कह सकोगे कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं उस दिन हमारी पहली कक्षा पार हुए।
वह जो थ्रेशहोल्ड है, वह जो ज्ञान की, की दहलीज है, उसकी पहली शर्त तो यह है कि वहां ज्ञानी प्रवेश नहीं कर सकता। वहां वह प्रवेश कर सकता है जो इतना सरल है और कह सके कि मैं नहीं जानता। तो उपयोग है सत्संग का। लेकिन जो हम उपयोग समझते हैं वह नहीं। उपयोग है हर चीज का, लेकिन जो हम समझते हैं वह नहीं। उपयोग यह है कि वहां...
उपनिषद में कथा है कि श्वेतकेतु वापस लौटा, गुरु से ज्ञान लेकर, पढ़-लिख कर। अब वह चला आ रहा है अपने गांव में। वह, उसने वर्षों अध्ययन किया है। ज्ञान लिया है, परीक्षा उत्तीर्ण हुआ है। गुरु ने प्रशंसा की है। वह चला आ रहा है। उसका बाप उसे देखता है अपने दरवाजे में से। तो ज्ञानी की जो अकड़ होती है वह उसमें है। आ रहा है अपने घर की तरफ। लेकिन जो ज्ञानी में, जानने वाले को खयाल होता है कि मैं जानता हूं। तो उद्दालक अपनी पत्नी को कहता है कि इसका जाना तो मालूम होता है, फिजूल हुआ। वह तो अकड़ कर चला आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि इस खयाल में है कि मैं जानता हूं। तो श्वेतकेतु आ गया। तो उसके पिता ने पूछा कि तू क्या जान कर आया है? तो उसने सारे शास्त्रों के नाम, नाम गिनाए--कि मैं इतिहास पढ़ा, मैं व्याकरण पढ़ा, मैं दर्शन पढ़ा, मैं यह पढ़ा, मैं वह... तो अट्ठारह शास्त्र होते थे, तो सारे शास्त्र उसने गिनाए। सारी ब्रांचिज गिना दीं कि ये-ये मैं पढ़ कर आया हूं।
तो उसके पिता ने पूछाः तूने वह जाना कि नहीं जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है?
उसने कहाः ऐसी, ऐसी कोई चीज तो वहां कभी बात नहीं हुई कि जिसके जान लेने से सब जान लिया जाता है। हमने सब जानने की कोशिश की, लेकिन ऐसी कोई चीज नहीं थी कि जिसको जानने से सब जान लिया जाता है।
उसके पिता ने कहाः तूने उसको जाना है कि नहीं जिसको जान लेने से सब पा लिया जाता है? जिसको जान लेने से सब पा लिया जाता है, फिर पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता।
नहीं ऐसा तो कुछ नहीं।
पिता ने कहाः तू बेकार ही समय गंवा कर वापस आ गया है। तू फिर वापस जा। लेकिन ऐसा जाननाः जिसको जान लेने से सब जान लिया जाए, जिसे जान लेने से सब पा लिया जाए। वह साधारण जानना नहीं, जिसको हम स्कूल, काॅलेज और विश्वविद्यालयों में जानना कहते हैं।
तो एक सत्संग तो स्कूल का है, कालेज का है, विश्वविद्यालय का है। एक शास्त्र वे हैं जो हमें चीजें सिखाते हैं, इनफर्मेेशन देते हैं। सूचनाओं से भर देते हैं हमारे मन को। और एक जानना वह है जो सारी सूचनाएं छीन लेता है। सब जाने हुए को पोंछ डालता है। खाली कर देता है मन को। और खाली मन को छोड़ देता है और कहता है--जान। तो एक तो भरे हुए मन का जानना है। और एक खाली मन का जानना है। धर्म जो हैः वह खाली मन का जानना है; और विज्ञान जो हैः वह भरे मन का जानना है। विज्ञान इनफर्मेशन है, धर्म नालेज है। विज्ञान की कोई नाॅलेज नहीं होती, और धर्म की कोई इनफाॅर्मेशन नहीं होती। विज्ञान ट्रेडीशन है, धर्म इनडिविजुअल है।
विज्ञान की परम्परा होती है। अगर न्यूटन न हो तो आइंस्टीन नहीं हो सकता। लेकिन महावीर न हों तो बुद्ध हो सकते हैं। महावीर से कोई बंधा नहीं है। अगर मोहम्मद न हों तो रमण हो सकते हैं। कोई, कोई, इसमें कोई जकड़ नहीं है। अगर दुनिया में कोई भी कभी धार्मिक व्यक्ति न हो, तो भी धार्मिक व्यक्ति इसी वक्त हो सकता है। लेकिन विज्ञान अतीत से बंधा है। उसका ट्रेडीशन है। अगर वह आदमी न हुआ होता जिसने गाड़ी का चाक बनाया, तो हवाई जहाज बनाने वाला हवाई जहाज नहीं बना सकता। यह उस आदमी से बंधा हुआ है। इसके बिना इसका रास्ता नहीं है, चारा नहीं है।
तो विज्ञान सामूहिक उपक्रम है और धर्म वैयक्तिक। तो विज्ञान की तो सूचना होती है। पहले जो लोगों ने जाना है, वह बताना पड़ेगा विद्यार्थी को कि न्यूटन ने यह जाना, फलाने ने यह जाना, ढिकां...। तुम यह सब जानो, फिर इसके आगे तुम बढ़ सकते हो। लेकिन धर्म का मामला बहुत अलग है। यहां यह बताना पड़ता है कि जिन लोगों ने भी जाना वे, वे ही लोग थे जिन्होंने सब जानने को छोड़ दिया।
महावीर क्या कर रहे हैं पहाड़ियों में जाकर? कोई शास्त्र ले जाते हुए दिखाई नहीं पड़े किसी को। वह कभी कि यह आदमी शास्त्र ले जा रहा है। मोहम्मद सिनाई के पहाड़ पर चला गया, तो कोई ने देखा नहीं कि कोई किताब ले गया हो। वह तो पढ़ता भी नहीं था। पढ़ भी नहीं सकता था। कोई गुंजाइश भी नहीं थी। जीसस क्राइस्ट भी बे-पढ़े-लिखे थे। और शास्त्रों से कोई संबंध, परिचय नहीं था। और तीन वर्ष तक वे जब गुप्त रहे, कोई किताब उनके पास नहीं थी।
इन क्षणों में ये लोग क्या कर रहे हैं? इन क्षणों में ये भूल रहे हैं जो सिखा दिया गया है। उसको फेंक रहे हैं बाहर वापस, जो भीतर डाल दिया गया। समाज ने, संस्कृति ने, सभ्यता ने जो-जो मन में रख दिया, उन सबसे मुक्त हो रहे हैं। उन सबकी जड़ें काट रहे हैं। क्योंकि उनसे मुक्त हो जाएंगे तो ही वह जो भीतर छिपा है उसके प्रकट होने की कोई संभावना हो सकती है।

प्रश्नः यह ज्ञान घातक किस दृष्टि से आप मान रहे हैं, जो बाहर से आता है। आखिर ज्ञान तो आत्मा का गुण है न? अगर बाहर से भी आया है तो इसमें घातकता क्या है?

जो बाहर से आया, वह ज्ञान नहीं रह गया। वह सूचना रह गई। क्योंकि अगर ज्ञान आत्मा का गुण है तो वह भीतर से ही आ सकता है। उसके बाहर से आने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई। जो आत्मा का गुण है, वह भीतर से ही आ सकता है। और बाहर से जो आता है वह आत्मा का गुण नहीं रह गया। तो बाहर से आने की वजह से ही वह सूचना हो गई, ज्ञान नहीं रहा।

प्रश्नः वह सूचना क्या हम केवल द्रष्टा-ज्ञाता रहे, तब भी हानिकारक हैं?

द्रष्टा-ज्ञाता रहे तब तो कोई हानिकारक नहीं है। वही तो मैं कह रहा हूं। अगर द्रष्टा-ज्ञाता रहें, तो वह आपको पकड़ता ही नहीं। पकड़ता तो वहां है, जहां आप भोक्ता बन जाते हैं उसके। पकड़ता तो वहां है, जहां उसके साथ आइडेंटिटी शुरू हो जाती है। कहने लगते हैं कि मैं जानता हूं। मैं और उसको जोड़ लेते हैं। अगर द्रष्टा-ज्ञाता रहें तो आप कभी यह नहीं कह सकते कि मैं जानता हूं ब्रह्म को। आप इतना ही कहेंगे कि मैंने सुना है ब्रह्म के बाबत। जानता मैं नहीं हूं। मैंने सुना है, मैंने पढ़ा है। जानता मैं नहीं हूं। यह फासला निरंतर बना रहेगा कि मैं जानता नहीं हूं। मैं जानता नहीं हूं। और यह पीड़ा गहरी होती चली जाएगी कि--मैं नहीं जानता, मैं नहीं जानता, मैं नहीं जानता।
यह पीड़ा जितनी गहरी होगी, उतनी ही साधना की संभावना प्रकट होगी। क्योंकि यह पी.ड़ा झेलना बहुत कठिन है। मैं नहीं जानता--इसकी पीड़ा सबसे ज्यादा है जगत में। लेकिन हमने इस पीड़ा को भुलाने की तरकीब निकाल ली है। हम शब्द सीख कर मजे में हो जाते हैं। हम कहने लगते हैंः मैं जानता हूं। वह पीड़ा खत्म हो गई। दुनिया में साधना इसीलिए खत्म हो रही है कि हमने साधना की जो मूल सोर्स है, न जानने का भाव, उसको पोंछ डाला बिलकुल। हमको खयाल है कि हम जानते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो यह कहे कि मैं नहीं जानता। (...29: 19 अस्पष्ट) वह कहेगा, हां मैं जानता हूं। न केवल वह यह कहेगा कि मैं जानता हूं, बल्कि वह कहेगाः मैं जो जानता हूं, वही सत्य है; दूसरा जो जानता है, वह सब असत्य है। वह लड़ने को, मारने को, तलवार निकालने को तैयार हो जाएगा अगर उसके जानने को आप गलत कह दें।
तो यह जो, आदमी के, आदमी के पतन में, मेरी दृष्टि से, न तो अनीति ने काम किया, न अनाचार ने काम किया, न नास्तिकता ने काम किया; आदमी के पतन में ज्ञान ने काम किया। इसलिए घातक है। क्योंकि जिसको भी यह खयाल हो गया--मैं जानता हूं, वह हो गया शत्रु। अब उसमें ज्ञान कभी पैदा नहीं होगा। बात खत्म ही हो गई।
वैजनर एक जर्मन संगीतज्ञ था। उसने घर के बाहर तख्ती लगा छोड़ी थीः इस संगीत के घर में उन्हीं के लिए प्रवेश है जो संगीत नहीं जानते हैं। वह तो संगीत का अदभुत गुरु था। सैंकड़ों मील से लोग उसके पास सीखने आते थे। जो आदमी आकर कहता, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, वह उसे बहुत थोड़ी सी फीस में सिखाने को राजी हो जाता। जो आदमी कहता कि मैं दस साल सीखा हुआ हूं, वह दुगनी-तिगनी फीस मांगता। वह आदमी कहता, आप क्या अदभुत बात कर रहे हैं? जो आदमी बिलकुल नहीं जानता उसको आप न-कुछ में सिखाने को राजी हैं, और मैं सीखा हुआ हूं, मैं काफी जानता हूं, मैंने संगीत के सब शास्त्र पढ़े हैं, मैंने दस साल अभ्यास किया है, मैं फलां-फलां गुरु के पास रहा हूं। वह वैजनर कहता हैः इसीलिए मैं दो गुनी, तीन गुनी फीस मांगता हूं। क्योंकि पहले मुझे भुलाने के लिए श्रम करना पड़ेगा। उस आदमी की जगह पहले तुम्हें लाना पड़ेगा जहां कि तुम कह सको, मैं नहीं जानता हूं। तब फिर शुरू होगी बात।
यह, यह जो, तो हमें जो...हमने क्या कर ली है भूल? हमने चीजों को इकठ्ठा कर लिया है। भूगोल सीखता है आदमी, इतिहास सीखता है, उसी भांति हम धर्म सीखते हैं। ए पोल्स अपार्ट। तो पोलेरिटी अलग है। जैसे एक आदमी गणित सीखता है, उसी तरह प्रेम नहीं सीखता। जैसे एक आदमी व्याकरण सीखता है, उसी तरह कविता नहीं सीखी जाती। ये चीजें अलग हैं। इनकी दिशाएं अलग हैं। जो एक दिशा में सीखने जैसा लगता है, दूसरी दिशा में घातक है। जैसे, और सब चीजें सीखते हैं उनका रास्ता एक ही है--शब्द सीखिए; सिद्धांत सीखिए; तर्क सीखिए, संग्रह करिए। और धर्म का उलटा रास्ता है--तर्क भूलिए, शब्द भूलिए, संग्रह को त्यागिए। वह जो-जो ज्ञान इकट्ठा कर रखा है उसको छोड़ दीजिए। कुछ कारण है इसका।
इसका कारण यह है कि हमारे भीतर जो छिपा है, अगर हम बाहर की चीजें और भीतर ले जाएं तो वह और दबता चला जाएगा। इस घर में एक हीरा पड़ा हुआ है। इस कमरे के भीतर एक हीरा पड़ा हुआ है। और हम बाहर से जमाने भर के कंकड़-पत्थर और फर्नीचर इस कमरे में लेकर इकट्ठा करते चले जाएं। और कहें कि हम उस हीरे को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। और हम जमाने भर की चीजें इस कमरे के भीतर ला रहे हैं। और हम कहते हैं कि हम उस हीरे को खोजने की कोशिश में ये सब चीजें भीतर इकट्ठा कर रहे हैं। तो कोई भी हमसे कहेगा कि तुम पागल हो। हीरा और भी खो जाएगा। इस कमरे में जितनी चीजें बढ़ेंगी, हीरे की खोज उतनी मुश्किल हो जाएगी। तुम कृपा करके कमरे के भीतर जो फर्नीचर है, उसको बाहर करो। वहां जो भीतर सामान है, उसको भी कमरे के बाहर ले आओ। ताकि अंत में अकेला हीरा ही भीतर रह जाए, और तुम देख सको कि वह कहां है, और क्या है।
जब हम कहते हैं कि ज्ञान आत्मा का गुण है, तो उसका मतलब है कि ज्ञान आत्मा में भीतर है। उसे कहीं से लाना नहीं है। और जो-जो हम ला रहे हैं, उसकी भीड़ में उसको खोजना मुश्किल हो जाएगा। जो-जो हम इकट्ठा कर रहे हैं, उसकी भीड़ में उसे खोजना मुश्किल हो जाएगा। स्मृति सब बाहर से आती है, और आत्मा का ज्ञान भीतर है। तो सारी स्मृति हिंडरेंस का काम करती है। वह सब चीजें इकट्ठा कर देती है। धीरे-धीरे खोजना मुश्किल हो जाता है कि--कहां है वह ज्ञान जिसको हम भीतर कहते थे।
तो उलटी प्रक्रिया है। घर का फर्नीचर बाहर कर देना। धीरे-धीरे-धीरे सब अलग कर देना। तब वही रह जाएगा जो अलग नहीं किया जा सकता। तब वही रह जाएगा जो एसेंशियल है। तब वही रह जाएगा जो सारभूत है, मेरा है। तब वही रह जाएगा जो आत्मा का गुण है। तब घर की चीज ही घर में रह जाएगी, बाहर घर की चीजें सब बाहर कर दी गई हैं। तब ही रिकग्नीशन होगा। तब ही पहचान आएगी। तब ही दिखाई पड़ेगा कि अरे, यह है। एक इलिमिनेशन चाहिए न। एक, एक धीरे-धीरे, धीरे-धीरे चीजों को हटाया जाना चाहिए, तो वह प्रकट हो सकता है।
कुछ और आपको पूछना हो तो बात कर लें?

प्रश्न:...जी का पहला प्रश्न था...

आप अपना ही प्रश्न करिए, उनको छोड़ दीजिए।

प्रश्न: उसके निकट का ही प्रश्न है...

अपना ही...उसको अपना ही कहिए, हां।

प्रश्न: अपना ही कहूंगा...

हां।

प्रश्न: आपके अनुसार...

हां, बिलकुल। हां, इसीलिए।

प्रश्न: ...दूसरा हो ही नहीं सकता?

हां, इसीलिए।

प्रश्न: ...इन्होंने प्रश्न ऐसा किया कि...

इनको छोड़ दीजिए, कुछ वजह से कह रहा हूं।

प्रश्न: मैं छोड़ इसलिए नहीं रहा कि...

क्योंकि अभी झगड़ा खड़ा हो जाएगा इसका, कि अभी वे कहेंगे कि मेरा यह भाव ही नहीं था। आप उसको छोड़ दीजिए।

प्रश्न: नहीं उसका भाव जो है, यह नहीं कह रहा कि उनका क्या भाव था या नहीं?

अच्छी बात है।

प्रश्न: प्रश्न कुछ इस तरह का अर्थ था कि जैसे आप जो कुछ कहते हैं वह क्या बिलकुल एक नवीन बात है या कि कहने का ढंग?

तो मैंने क्या कहा? उससे आपको खयाल में नहीं आया।

प्रश्नः हां, मुझे ध्यान में है कि सत्य जो है वह सबका अलग-अलग है।

हमेशा ही नया है, इसलिए वह सवाल ही नहीं उठता। सवाल ही नहीं उठता।

प्रश्नः तो इस बात को मानते हुए भी इस बात की ओर आपने संकेत किया कि चाहे कामचलाऊ दृष्टि से ही देखें। हमारे जो दृष्टिकोण हैं सत्य के प्रति उनमें हम साझेदार या इकट्ठेपन का भाव लाते हैं। उसी संदर्भ में कुछ पुरानी बातों पर विचार करें, तो जैन धर्म में जैसे अभी वाद और कैवल्य हैं, इन दोनों का ध्यान मुझे एकदम तब आया जब आप कह रहे हैं कि हरेक का अपना-अपना सत्य है, और जब व्यक्ति ने अपना सकल ज्ञान कर लिया, तब उसको लगता है कि सब जो रास्ते थे अलग-अलग। तो वह भी ठीक है। और इसी संदर्भ में स्यात्वाद भी आ जाता है। तो ये तीनों जो हैं...

इस संदर्भ में कोई वाद नहीं आएगा। इस संदर्भ में कोई वाद नहीं आएगा। क्योंकि वाद की मान्यता सत्य को व्यक्ति से मुक्त करने की है। वाद की मान्यता इज्म की। मेरा मतलब आप समझे न? स्यात् तो आ सकता है, वाद नहीं आ सकता। क्योंकि वाद की मान्यता यह है कि सत्य न मेरा है, न आपका। सत्य एक वाद है, एक थेयरी है, एक सिद्धांत है। स्यात् तो आ सकता है। तो वह मैं कह रहा हूं कि स्यात् है उसमें, लेकिन जैन-वैन नहीं आ सकते। वे सब वाद हैं। वे सब वाद हैं। मेरा मतलब आप समझे न? हमारी क्या, हमारी क्या कठिनाई है? हमने तो सत्य के संप्रदाय बनाए हुए हैं। वाद बनाए हुए हैं। और हमारा आग्रह यह होता है कि जब भी हम कोई चीज समझें, तो वह किसी वाद के भीतर समझें। वाद के ढांचे में समझें। उसमें सरलता होती है समझने में।
समझने में सरलता इसलिए होती है, इसलिए होती है कि वाद को हम समझे हुए हैं। यह चीज भी उस ढांचे में जाकर बैठ जाती है। यह कोई फाॅरेन ऐलीमेंट नहीं होता। तकलीफ नहीं देता। ठीक है स्यात्वाद हो गया, बात खत्म हो गई। लेकिन मेरा कहना यह हैः यह समझने का रास्ता नहीं है। यह न समझने का रास्ता है। किसी चीज को समझना है तो उसे सीधा, इमीडिएट और डायरेक्ट समझना चाहिए। बीच में वाद नहीं लेना चाहिए। क्योंकि जैसे ही वाद लिया, वैसे ही नासमझी शुरू हो गई। क्योंकि एक चीज के समझने की जगह अब दो चीजों के बीच मेल बिठालने की भी शुरुआत हो गई। और मैं कहता हूं कि दो चीजों के बीच आंतरिक मेल नहीं है, नहीं हो सकता।
तो महावीर को स्यात् की भावना, प्रोबेबिलिटी की जो भावना होगी कि हर चीज सत्य हो सकती है, वह जो महावीर का अनुभव हैः वह मेरा नहीं हो सकता, आपका भी नहीं हो सकता। यह अनुभव भी जब मेरा होगा तो मेरा होगा, और आपका होगा। यह अनुभव भी। इसके लिए भी तीन आदमी मिल कर वाद खड़ा नहीं कर सकते हैं। और इसलिए आप जान कर हैरान होंगे कि दुनिया में आज तक जो लोग, जिनको हम कहते हैं जिन्होंने सत्य जाना, उनका आपस में आज तक कोई समूह नहीं बन सका। समूह सब असत्य के समूह हैं। महावीर और बुद्ध एक ही साथ जिंदा हैं, एक ही प्रदेश में हैं, लेकिन दोनों का कोई समूह नहीं बन सका। यह थोड़ा सोचने जैसा है कि--क्या?
एक बार तो यह हुआ कि महावीर और बुद्ध एक ही धर्मशाला में ठहरे। वे एक कोने में महावीर, एक कोने में बुद्ध। और ऐसा तो अनेक बार हुआ कि एक ही गांव में दो दिन पहले महावीर गुजरे, और दो दिन बाद बुद्ध। लेकिन इन दोनों के बीच कोई जोड़ नहीं बन सका। तो, या तो हम समझें कि बड़े अहंकारी हैं, इनमें जोड़ नहीं बनता--जो बात बिलकुल झूठी है। कोई अहंकारी नहीं हैं। या तो हम यह समझें कि बड़े जिद्दी हैं, बड़े वादी हैं कि मैं जो कहता हूं, वही सही है। ऐसी भी कोई वजह मालूम नहीं होती। फिर बुनियादी वजह क्या है? बुनियादी वजह मेरी दृष्टि में यह है कि वह, वह हो ही नहीं सकता, वह असंभावना है।
तो भीड़ इकट्ठी होती है उनकी, जो नहीं जानते; वाद बनता है उनसे, जो नहीं जानते; धर्म बनते हैं उनसे, जो नहीं जानते। जो जानते हैंः वह हमेशा व्यक्तिगत सुगंध है उनका धर्म, उनके साथ लीन हो जाती है, कुछ बचा नहीं रह जाता पीछे। परफ्यूम की खयाल भर रह जाती है कि सुगन्ध आई थी कभी, और गई। महावीर हवा हो जाते हैं, बुद्ध हवा हो जाते हैं; जैन धर्म बचा रह जाता है, बौद्ध धर्म बचा रह जाता है। ये अज्ञानियों के पंथ हुए। ज्ञानी तो विलीन हो जाता है और उसका ज्ञान उसके साथ तिरोहित हो जाता है। जैसे फूल गया, उसकी सुगन्ध भी उसके साथ गई।
मेरा कहना यह है कि अनुभव, महावीर का अनुभव महावीर के साथ आता है और महावीर के साथ विदा हो जाता है। पीछे कुछ रेखा भी नहीं बच जाती। जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, पीछे कोई पैर के चिह्न भी नहीं छूट जाते। तो सत्य के आकाश में जो भी उड़ता है, पीछे कोई लकीर भी नहीं छूट जाती। लेकिन हम जो सत्य के आकाश से बिलकुल परिचित नहीं हैं, हम वाद खड़े करते हैं। हम पंथ खड़े करते हैं। हम शास्त्र खड़े करते हैं। हम संप्रदाय खड़ा करते हैं।
और फिर इस संप्रदाय की भाषा में हम हर नई चीज को देखने की कोशिश करते हैं, जो और भी गड़बड़ हो जाती है। और इसका परिणाम यह होता है, इसका परिणाम यह होता है कि जब भी किसी व्यक्ति को किसी के जीवन में सत्य का कोई अनुभव होगा तो सारी दुनिया में उस अनुभव की कोई स्वीकृति नहीं होगी, मौजूद में। क्योंकि उन सबके जो लोग हैं दुनिया में, उन सबके अपने संप्रदाय पकड़े हुए हैं।
तो क्राइस्ट जब पैदा होते हैं तब कोई स्वीकृति नहीं क्राइस्ट को। तब उनका समाज उनको सूली पर लटकाता है। आज दो हजार साल बाद हजारों लोगों की स्वीकृति है। लेकिन अभी क्राइस्ट वापस आ जाएं, फौरन अस्वीकार हो जाएंगे। क्योंकि वे जो ढांचे, डेड ढांचे जो बना कर रखे हैं--सिद्धांत के, उसमें कहीं पकड़ में आना बहुत मुश्किल है।
जीवन को कहीं भी ढांचों में नहीं पकड़ा जा सकता। सत्य को भी ढांचों में नहीं पकड़ा जा सकता। अनुभव में--और अनुभव कोई ढांचा नहीं है। इसलिए न तो वाद, न जैन, न हिंदू, न मुसलमान। आप और जीवन, इतना काफी है। मैं और जीवन। और मेरे और जीवन के संबंध में दो नाते हो सकते हैं। या तो मैं और जीवन के संबंध में अज्ञान का नाता है; और या मेरे और जीवन के संबंध में ज्ञान का नाता है। या तो मैं जीवन को जीता ही नहीं, जानता भी हूं, उसमें प्रविष्ट हो गया हूं। और या मैं जीवन के बाहर खड़ा हूं, और नहीं जानता हूं। जीवन के और अपने बीच किसी सिद्धांत को भूल कर भी मत लाइए। क्योंकि वह बाधा ही बनेगा जीवन और आपके बीच।
ये कितनी तरकीबें, लेकिन हम निकाल लेते हैं। और फिर घूम-घूम कर उनके साथ हिसाब बिठालते रहते हैं और समय खराब, खराब करते रहते हैं। अब जैसे आपको यह खयाल आ गया स्यात्वाद का। एक मुसलमान यहां बैठा होता, उसको यह खयाल नहीं आ सकता था, कि आप सोचते हैं आ सकता था उसको? उसको ख्याल नहीं आ सकता था। मेरा मतलब यह कि उसको ख्याल में नहीं आता। मेरा मतलब...उसको ख्याल में शायद नहीं आता। उसको शायद कुछ और खयाल में आता। शायद कुरान की कोई कड़ी खयाल में आ जाती। क्या आपकी बात क्या उससे मेल खाती? एक ईसाई यहां बैठा हो तो उसको कुरान भी याद नहीं आएगा। एक कम्युनिस्ट बैठा हो तो न कुरान याद आएगा, न स्यात्वाद याद आएगा, न गीता याद आएगी। उसको तो माक्र्स कैपिटल में शायद कुछ लिखा हो तो खयाल में आए कि, कि क्या आपका मतलब यह है?
और यह जो याददाश्त आ रही है, यह आपने जो स्मृति इकट्ठी की है, उससे आ रही है। न इससे महावीर का संबंध है, न स्यात्वाद का संबंध है। मेरा आप मतलब समझ लेना। आपने बचपन से अब तक एक स्मृति इकट्ठी की है, एक स्टोर इकट्ठा हुआ है--जानने का, शब्दों का, सिद्धांतों का, संस्कारों का। एक संग्रह है भीतर। वह संग्रह हमेशा इस कोशिश में रहता है कि कोई भी चीज जो आती है जिंदगी में वह संग्रह से मेल खानी चाहिए। तो संग्रह स्वीकार करता है, नहीं तो संग्रह स्वीकार नहीं करता। क्योंकि संग्रह हमेशा खतरे में है। अगर ऐसी कोई चीज आती है जो संग्रह के बिलकुल उलटी है, या भिन्न है तो दो ही रास्ते हैंः या तो वह चीज बचेगी, या संग्रह को टूटना पड़ेगा।
तो संग्रह, जो माइंड की जो मेमोरी है वह हमेशा, सेल्फ-डिफेंस में हमेशा खड़ी हुई है। वह कोशिश कर रही है कि मेरी अपनी रक्षा होनी चाहिए। मैं टूट न जाऊं। मैं गड़बड़ न हो जाऊं। मैंने जो जाना है वह कहीं गड़बड़ न हो जाए। तो जब भी कोई नई अनुभूति, कोई नया शब्द, कोई नया खयाल, जीवन का कोई भी नया रूप सामने आएगा, वह अनुभूति जल्दी से उसकोे मेल-तोल करने की कोशिश करेगी। या तो मेल-तोल करेगी या रिजैक्ट करेगी। लेकिन उसको छोड़ नहीं देगी कि जैसा वह है--छोड़ दे।
अगर वैसे ही हम छोड़ते चले जाएं तो अनुभूति रोज स्मृति को नया करती जाएगी। रोज स्मृति का कचरा हटता चला जाएगा, हटता चला जाएगा। और रोज स्मृति भी नई होती चली जाएगी। एक क्षण ऐसा आना चाहिए, जब मैं और जीवन के बीच कोई स्मृति बाधा न देती हो। तो तो कोई अनुभव हो सकता है, नहीं तो अनुभव नहीं हो सकता। तो मुझे इसकी फिकर नहीं कि वह मेल खाए कि नहीं खाए। मुझे इस बात की फिकर है कि आपके मन में खयाल क्यों आता है उसको हम मिलाएं, कंपेयर करें, सिमिलैरिटी खोजें--क्यों? आपके भीतर...मेरा मतलब आप समझे न? हमारे भीतर यह क्यों? हां, वही एक कंडिशनिंग है।

प्रश्नः यह कंडिशनिंग जो है, वह है सब में है। और हम क्या हम इस रूप से नहीं उसका विचार कर सकते, जो व्यक्ति जिसकी भी बात हम करते हैं, क्योंकि वह.... है, इसीलिए हम पूर्ण रूप से सत्य का भी अनुभव करते हैं, किसी दिन उसको अपने अनुभव के साथ आत्मसात करने का प्रयत्न करते हैं, उस स्मृति को मैं यह नहीं मानता कि स्मृति जो है वह जरा इकट्ठी है। स्मृति भी समय-समय पर मोडिफाई होती है। तो रिएक्शन जो होता है उसके साथ स्मृति भी बदलती है। बदलनी चाहिए।

हां-हां।

प्रश्नः ...तो यदि वह बदलेगी तो उसके अनुभव हमारे होते जाएंगे, वह भी कुछ प्रभाव अपना डालते हैं?

न, मेरा मतलब...

प्रश्नः तो जो अनुभव हमारे सामने आते रहते हैं, जब-जब और जैसे-जैसे वे अपना कुछ स्टोर करके...

जो भी अनुभव...

प्रश्नः हमारे को और बंधन में, आप यह कहेंगे, बांधते जाते हैं?

जो भी अनुभव सामने आता है, उसे देखने के ढंग का फर्क है। उसको आप स्मृति के माध्यम से देखते हैं या सीधा देखते हैं। इसको समझ लें। मेरे पास स्मृति है, आपके पास स्मृति है। होनी चाहिए, होगी। जीवन के लिए जरूरी हिस्सा है। लेकिन जैसे आप आए मेरे सामने तो मैं आपको, मेरी जो कल तक की स्मृति है, उसको बीच में पर्दा बना कर आपको देखता हूं। या उसे एक तरफ पड़ा रहने देता हूं, आपको सीधा देखता हूं। और जो अनुभव होता है वह अनुभव तो अपने आप स्मृति में जुड़ जाएगा। उसको जोड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन क्या मैं नये को सीधा देखता हूं, या स्मृति के माध्यम से देखता हूं। इन दोनों में ही बुनियादी फर्क है। अगर स्मृति के माध्यम से देखते हैं तो नये को आप देख ही नहीं पाते हैं। आपने चश्मा पहन लिया एक। और उस चश्मे के रंग आपको दिखाई पड़ते हैं, नये के रंग नहीं दिखाई नहीं पड़ते कि नये मेें क्या रंग हैं?
बुद्ध...एक सुबह एक आदमी आया।
...नहीं, जरा समझ लें, इसको थोड़ा समझ लें।
बुद्ध के पास एक आदमी आया, एक दिन सुबह। बहुत क्रोध में है, उसने बुद्ध के ऊपर थूक दिया। उन्होंने चादर से उस थूक को पोंछ लिया। और उस आदमी से कहा कि और कुछ कहना हो तो कहो। वह आदमी भी हैरान हो गया। क्योंकि यह उसने कुछ कहा नहीं था, सीधा थूका था। और बुद्ध का शिष्य आनंद, वह भी बहुत बेचैन और क्रोध से भर गया। और उसने कहा कि आप क्या कह रहे हैं? वह आदमी थूक रहा है, और आप पूछते हैं कि और कुछ कहना हो तो कहो।
तो बुद्ध ने कहा कि जहां तक मैं देख पाया, वह इतने क्रोध के आवेश में है कि शब्द से प्रकट नहीं कर सकता है उस बात को जो कहना चाहता है, तो थूक कर प्रकट कर रहा है। मैं समझ गया। बुद्ध ने कहा कि मैं समझ गया, मैं उसको देख रहा हूं, वह इतने क्रोध में है कि जो बात कहनी है, शब्द असमर्थ हैं। थूक कर कह रहा है। मैं समझ गया। मैं इसलिए मैं पूछता हूं कि और कुछ कहना हो तो कहो। और आनंद से उसने कहा कि आनंद, लेकिन तू इस आदमी को नहीं देख रहा। तुझ पर किसी ने कभी थूका होगा या किसी ने कभी किसी पर थूका होगा, तो उस स्मृति के माध्यम से देख रहा है इस आदमी को कि यह अपमान कर रहा है। इधर मैं तो सीधा देख रहा हूं। मैं भी स्मृति के माध्यम से देखूं तो शायद मुझे ऐसा लगे। मैं सीधा देख रहा हूं इस आदमी को।
वह आदमी तो बेचैनी में पड़ गया, इन दोनों की बातें सुन कर। उसे तो कुछ कहने को नहीं सूझा कि क्या कहे और क्या न कहे? वह वापस चला गया। लेकिन रात भर सो नहीं सका, पछताया। और उसे खयाल आया है कि मैंने कैसे आदमी पर थूका? भूल हो गई। यह तो गलत हो गया। ऐसे आदमी पर जिसने यह पूछा थूकने पर कि और क्या कहना है। जो मुझे इतनी समझने की कोशिश किया थूकते क्षण में भी। थूकते क्षण में भी जो कहीं भी व्यक्तिगत नहीं हुआ। वहां भी निर्वैयक्तिक तटस्थता से देखने की कोशिश की कि घटना क्या घट रही है।
दूसरे दिन सुबह गया माफी मांगने। पैर पर सिर...पैर पर सिर रखा और कहा, मुझे माफ कर दें, मुझसे कल भूल हो गई। तो बुद्ध ने कहा कि कल की बात कल समाप्त हो गई। मैं किसको माफ करूं? तुम वह आदमी नहीं जो कल आए थे। क्योंकि कल जो आदमी आया था, वह थूकता था। आज जो आदमी आया, वह क्षमा मांगता है। तुम वह आदमी नहीं जो कल आए थे। क्षमा मैं किसको करूं? और मैं भी वह आदमी नहीं जो कल था। चैबीस घंटे गंगा का बहुत पानी बह गया। और अब चैबीस घंटे वहीं रुका रहूं, वहीं रुका रहूं, जहां तुम थूक कर गए थे। तो चैबीस घंटे पीड़ा कौन झेले? मेरा मतलब आप समझ रहे हैं? अब वह उस आदमी से कहते हैं कि तुम वह आदमी नहीं, जो थूक गया था। क्योंकि थूकने वाला आदमी कुछ और ही था, जो आया था। उसकी आंखें तो जल रही थीं। तुम्हारी आंखों में तो आंसू भरे हुए हैं--क्षमा के और प्रायश्चित के। तुम वह आदमी नहीं। मैं किसको क्षमा करूं?
आनंद से कहने लगे कि आनंद! लेकिन मैं अगर कल की स्मृति से देखूं कि यही आदमी कल मुझ पर थूक गया था तो यह आदमी तो विलीन हो जाएगा यहां से, और स्मृति मेरे सामने खड़ी हो जाएगी। वही आदमी, लाल आंखों वाला, जो क्रोध से भरा हुआ है, थूक रहा है मेरे ऊपर। तब मैं उस स्मृति के माध्यम क्या इसको देख पाऊंगा जो यह आज होकर आया है? क्या इसके ये आंसू मुझे दिखाई पड़ेंगे? क्या इसकी यह, यह क्षमा की भावना दिखाई पड़ेगी? क्या इस आदमी को मैं पहचान पाऊंगा? नहीं पहचान पाऊंगा, क्योंकि तब सीधा देख ही नहीं पाऊंगा। स्मृति मेरे बीच में होगी।
हम रोज जीवन के छोटे-छोटे अनुभव को भी स्मृति के पर्दे के बीच से देखते हैं। और इसलिए जीवन का सीधा इंपेक्ट, सीधा संपर्क हम पर नहीं हो पाता। अनुभवों का भी नहीं हो पाता, शब्दों का भी नहीं हो पाता, व्यक्तियों का भी नहीं हो पाता। मैं जो कह रहा हूं, वह कुल इतना कह रहा हूंः स्मृति में तो माॅडिफिकेशंस होंगे, वे अपने आप होंगे। आपको करने नहीं हैं। वह तो आपका अनुभव आएगा और स्मृति में जाकर जुड़ेगा और माॅडिफाई करता रहेगा। उसको आपको कुछ भी करना नहीं, आपने किया तो गड़बड़ होगी। न करेंगे तो चुपचाप होगा।
आप खाना खा लेते हैं, फिर पचाते नहीं हैं। फिर वह पचता है। अगर आपने पचाने की कोशिश की तो बीमार पड़े। आप खाना ले गए, गले तक जाता है इसके बाद फिर आपका कोई संबंध नहीं है। फिर वह पचता है और खून बनता है, फिर वह आपको नहीं बनाना है। ठीक वैसे ही अनुभव आपके मस्तिष्क में भीतर प्रविष्ट हो जाए, फिर तो वह स्मृति में जाएगा, पचेगा, माॅडिफाई करेगा, सब कुछ करेगा। वह आपको नहीं करना, वह आपका संबंध नहीं है उससे। वह तो सारी की सारी आॅटोमेटिक प्रोसेस हैं जो हो रहा है। आपको तो इतना करना है कि दरवाजे के भीतर प्रविष्ट हो जाए, भोजन मुंह में चला जाए, इतना भर। यानी इतना आपने नहीं किया तो पेट पचाने का काम नहीं कर सकेगा। आप इतना ही कर लें कि भोजन उठा कर मुंह तक पहुंचा दें। प्रेम से मुंह तक विदा कर दें उसको। फिर इसके बाद जो होना है, वह हो जाएगा।
स्मृति के मामले में भी यही सत्य है। स्मृति के द्वार पर जो चेतना साक्षी है, वह द्वार है। जहां से अनुभव भीतर आते हैं। उस साक्षी के द्वार पर ही स्मृति खड़ी हो जाए तो गड़बड़ शुरू हो गई। क्योंकि वह द्वार अवरुद्ध हो गया। वह फिर बिलकुल ओपन नहीं रहा। कोई भी स्मृति बीच में आकर पक्ष बनती है; बाधा बनती है; क्लोजिंग बनती है; अवरुद्ध करती है। तो जो मैं कहा, वह कुल इतना, आपकी कंडिशनिंग है--वह है, उस कंडिशनिंग को बीच-बीच में खड़े नहीं होना चाहिए।
प्रतिपल जीवन को सीधा आने दें। न महावीर बीच में खड़े हों; न बुद्ध खड़े हों; न आप खड़े हों; न मैं खड़ा हो जाऊं। कोई खड़ा न हो। इस चित्त का द्वार बिलकुल खुला है। और जीवन के स्वागत के पूरे भाव उसमें हैं, वह जीवन को आने दे रहा है। ऐसा जो अनुभव है, एक दिन, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे चित्त को इतना स्पष्ट दर्पण की तरह कर देगा कि उस पर कोई बाधा नहीं रह जाएगी। तब जीवन का पूरा साक्षात भी हो सकता है। वह साक्षात सत्य है। और वह साक्षात हमेशा नया है। जब हो रहा है तब बिलकुल ही नया हो रहा है।
 अगर हम गौर से देखें तो जीवन में कुछ भी पुराना नहीं, सिवाय मुनष्य की स्मृति को छोड़ कर। अगर आदमी पृथ्वी पर न हो तो पृथ्वी पर कुछ पुराना है? जो पत्थर रात था, वह सुबह नहीं रहा। जो नदी कल इस घाट पर थी, वह यहां नहीं रही। सब भागा जा रहा है, सब बदला हा रहा है, सब परिवर्तित हुआ जा रहा है। आदमी की स्मृति एक अदभुत ईजाद है। वह नहीं भागती, वह नहीं...वह रुक जाती है। वह ठहर जाती है, वह खड़ी हो जाती है। जो चीज खड़ी हो जाती है, जो चीज मर जाती है, जो डेड हो जाती है--वह स्मृति में संगृहीत होती चली जाती है।
तो स्मृति डेड क्लेक्शन है--अतीत का, बीते हुए का। और बीते हुए मृत के माध्यम से जो जीवित को देखता है, वह भूल में पड़ गया। इसको मैं ध्यान कहता हूंः जीवन को सीधा देखना, स्मृति के बिना सहारे के। इसको मैं मेडिटेशन कहता हूं। और यह जितनी शुभ होती जाएगी, जितनी शुक्ल होती जाएगी--उतना ही सत्य का अनुभव खड़ा होता चला जाएगा--जितनी निर्मल होती चली जाएगी, जितनी इनोसेंट होती चली जाएगी।
 यह जरा देखें, बच्चा इनोसेंट होता है--क्यों? बच्चे के पास स्मृति नहीं है। बूढ़ा इनोसेंट नहीं है। बूढ़े के पास स्मृति है। और कोई फर्क नहीं बूढ़े और बच्चे में। कोई फर्क है? एक छोटे से बच्चे में और एक बूढ़े में कोई फर्क है? एक बात का फर्क हैः बूढ़े के पास स्मृति है और बच्चे के पास स्मृति नहीं है। तो बच्चे को हम कहते हैं--सरल, निर्दोष। बूढ़ा होता है--जटिल, कठिन, उलझा हुआ। लेकिन बूढ़ा अगर स्मृति से मुक्त हो जाए या स्मृति को एक कोने सरका दे तो बच्चे जैसा सरल हो गया। और तो कोई कठिनाई नहीं थी, और कोई जटिलता नहीं थी।
तो बुढ़ापे में फिर बचपन को पा लेना, या रोज बचपन को बनाए चले जाना, मिटने न देना--यह साधक की स्थिति है। कि वह अपने इनोसेंस को बचाता हुआ चला जाए। कोई शब्द, कोई सिद्धांत, कोई अनुभव बाधा न दे। वह इतना ही सरल रहे, जैसा पहले दिन बच्चा था--उस दिन था, तो सत्य का अनुभव हो सकता है।

हुं... कौन पूछ रहा है यह? किसका, किसका लिखा हुआ है?

प्रश्नः खुद नहीं कहना चाहता?

पर किसका है? ये तो नहीं कोई...किसने पूछा हुआ है, नहीं कोई कहे नहीं? किसने पूछा ह‏ुआ है? तेरा है? ...बढ़िया!

प्रश्नः आपके नीचे गया ह‏ुआ है?

न, न, वह पीछे है, नीचे नहीं गया है। ठीक। न मैं इसलिये पूछता हूं कि मेरे लिये प्रश्न भी व्यक्तिगत अर्थ रखते हैं। और जब तक मुझे ख्याल में न हो कि--कौन? तब तक सीधा मेरा संबंध नहीं बन पाता है। यह पूछा हुआ है...नहीं, नहीं, पूछने वाला मौजूद है...आप।

प्रश्नः यह पूछा हुआ है कि जीवन में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए या मानसिक शांति के लिए, अपना कुछ सेक्रीफाइस करना पड़ता है, कुछ त्याग करना पड़ता है या कि यह कुछ और ढंग से भी प्राप्त की जा सकती है--शांति और जीवन की प्रसन्नता ?

कुछ भी त्याग नहीं करना पड़ता। त्याग तो जिस चीज के लिए भी करना पड़ता है उससे दुख ही मिलेगा। उससे सुख नहीं मिल सकता कभी भी। दो-तीन बातें समझ लो। पहली बात, जिस चीज के लिए त्याग करना पड़ता है, उससे दुख ही मिलेगा। उससे सुख नहीं मिल सकता, शांति भी नहीं मिल सकती। लेकिन कुछ चीजें मिलती हैं तो कुछ चीजें छूट जाती हैं। त्याग करना नहीं पड़ता है, त्याग हो जाता है। जिस चीज के मिलने से किसी चीज का त्याग हो जाता है, उससे आनंद मिल सकता है। इन दोनों का फर्क समझ लेना चाहिए, त्याग करना और त्याग हो जाना।
तुम अपने हाथ में कंकड़-पत्थर लिए चले जा रहे हो। और कोई तुम्हें समझाता है कि ये, ये कंकड़-पत्थर हैं, इनको छोड़ दो। तुम कहते होः ये चमकदार हैं, ये हीरे हैं, ये मोती हैं। मैं इनको छोड़ नहीं सकती। वह तुमसे कहता है कि नहीं, इन्हें छोड़ दो तो तुम्हें हीरे-मोती मिल सकते हैं। अब उन हीरे-मोतियों को तुम्हें कोई पता नहीं है कि वे कहां हैं? क्या हैं? तुम्हारा प्राण डरता है क्योंकि हाथ में जो है, वह तो कम से कम--है। छोड़ने पर पता नहीं वह मिलेगा कि नहीं मिलेगा जिसकी बात की जा रही है? वह है भी या नहीं? तुम्हें उसका कोई अनुभव नहीं। अगर किसी की बात में आकर या लोभ में आकर तुम ये कंकड़-पत्थर छोड़ दो, तो तुम्हारे खाली हाथ तुम्हें जब तक खाली हैं, पीड़ा ही देंगे। और इनके छोड़ते ही तुम्हें उन हीरे-जवाहरातों की कल्पना नहीं आएगी जो तुमने जाने ही नहीं। तुम्हें इन्हीं की याद बार-बार आएगी जो छूट गए हैं, क्योंकि वे तुम्हारे परिचित थे।
साधु-संन्यासी को परमात्मा नहीं दिखाई पड़ने लगता है। जो घर-द्वार पीछे छूट गया है वही याद आता है। वह जो पीछे छूट गया है, क्योंकि वह जाना हुआ है। याद उसकी आ सकती है, जो परिचित है। जो अपरिचित, उसकी कोई याद ही नहीं होती, कोई उसकी कोई स्मृति नहीं होती। उसको याद कैसे करोगे?
एक बहुत बड़े साधु थे। वह पंद्रह वर्ष छोड़ कर चले गए परिवार को, पत्नी को। फिर काशी में थे। पंद्रह वर्ष बाद उनकी पत्नी की मृत्यु हुई। तो उनके मित्र वहां इकट्ठे थे, और उन्होंने खबर दी, तार पहुंचा कि आपकी पत्नी चल बसी। तो उन्होंने कहा कि अच्छा हुआ, झंझट छूटी। मुझे किसी ने आकर कहा कि उन्होंने ऐसा कहा, कितने त्यागी आदमी हैं! मैंने कहा कि मेरे लिए तो बड़ी गड़बड़ हो गई। जिस पत्नी को पंद्रह साल पहले छोड़ गए, वह अभी तक झंझट थी? उसके मरने पर पंद्रह साल बाद यह साधु कहे कि अब मेरी झंझट छूटी तो बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि उस पत्नी को छोड़े पंद्रह साल हो गए। न उस गांव गए, न उस पत्नी... पंद्रह साल से उस परिवार से कोई संबंध नहीं रहा। उसके मरने पर यह आदमी कहे कि चलो झंझट छूटी, तो झंझट मौजूद थी। पंद्रह साल तक कहीं भीतर झंझट चलती थी। यह झंझट थी।
और जब पत्नी के पंद्रह साल छोड़ने पर यह नहीं छूटी थी तो मरने से कैसे छूट जाएगी? क्योंकि पंद्रह साल से मरी थी पत्नी। मरे के बराबर। और जिस पत्नी के मरने पर न तो दया आई, न दुख आया, न प्रेम आया, न पीड़ा आई, न सहानुभूति आई, बल्कि यह खयाल आया कि झंझट छूटी। जरूर इस आदमी ने पंद्रह साल में कई दफा सोचा होगा कि पत्नी मर जाए। यह असंभव है कि इसने न सोचा हो। इसने सोचा होगा कि पत्नी मर जाए तो अच्छा। अब बड़े आश्चर्य की बात है कि पत्नी को छोड़ कर भी यह आदमी उलझा है पत्नी से। वह खयाल पंद्रह साल पीछे ठहरा हुआ रह गया है। पत्नी छोड़ी है, इसलिए। पत्नी छूट जाती, बात दूसरी थी।
छोड़...जिस चीज को हम छोड़ेंगे, वह घाव की तरह है। जैसे कच्चे पत्ते को हम वृक्ष से तोड़ लें, एक घाव छूट गया पीछे। पत्ते को भी पीड़ा हुई, वृक्ष को भी पीड़ा हुई, तोड़ने वाले ने भी हिंसा की। लेकिन एक सूखा पत्ता वृक्ष पर है, हवा आती है, पत्ता उड़ जाता है--सूखा पत्ता है। न पत्ते को पता चलता है कि मैं टूट गया। क्योंकि जो सूख गया उसको पता नहीं चल सकता अब टूटने का। न वृक्ष को पता चलता है कि एक पत्ता टूट गया। क्योंकि जो सूख गया, वह टूट ही गया था। अटका था, हवा ले गई उड़ा कर, कुछ पता किसी को नहीं चलता। न किसी से हिंसा हुई; न कहीं कोई घाव छूटा; न कहीं कोई पीड़ा हुई। एक पत्ता--हवा आई और गिर गया। कहीं दुनिया में कोई खबर न हुई कि एक सूखा पत्ता गिर गया। तो जीवन में सच्चा त्याग तो सूखे पत्ते की तरह होता है, और झूठा त्याग कच्चे पत्ते की तरह होता है।
तो जिसको छोड़ना पड़ता है, जिसको तुम कहते हो सेक्रीफाइस करना पड़े, बस गड़बड़ शुरू हो गई। परेशानी शुरू हो गई। सेक्रीफाइस भूल कर मत करना। कभी किसी चीज को छोड़ना मत। लेकिन जीवन में श्रेष्ठतम चीजें कैसे पाई जा सकें, इसके उपाय करना। और जब भी कोई श्रेष्ठ चीज तुम्हें मिलेगी, तो उसकी जगह जो सब्स्टीट््यूट था--अश्रेष्ठ का, वह छूट जाएगा। वह छूट जाएगा।
अशांति छोड़ नहीं सकती हो तुम, लेकिन शांति पा सकती हो। और शांति पा लो तो अशांति छूट जाती है। धन कोई छोड़ नहीं सकता, लेकिन धर्म पा सकता है। और धर्म पा ले तो धन छूट जाता है। और...लेकिन हम क्या करते हैं? हम उलटे चक्कर में पड़े हैं। एक आदमी सोचता हैः मैं धन छोड़ दूं तो धर्म पा लूंगा। मैं घर छोड़ दूं तो भगवान मिल जाएगा। मैं यह छोड़ दूं तो वह हो जाएगा। मैं यह छोड़ दूं तो यह हो जाएगा। यह छोड़ने की भाषा ही गलत है। पाने की--जीवन की सच्ची भाषा पाने की भाषा है। जीवन की सच्ची भाषा छोड़ने की भाषा नहीं, छोड़ने की भाषा मृत्यु की भाषा है। जीवन की भाषा नहीं है। इसलिए छोड़ने वाला धीरे-धीरे मरता है, क्षीण होता है, मिटता है, उदास होता है, दुखी होता है। कहीं पहुंचता नहीं। तो जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे पाने की कोशिश करना। और उसको जैसे-जैसे पाने की दिशा में आगे बढ़ोगी, वैसे-वैसे तुम्हें पता चलेगा।
जैसे अब यह कमरा है। कल हम इससे अच्छा फर्श यहां ले आएं, तुम क्या करोगे? फिर इस फर्श को यहां से हटा देना पड़ेगा। लेकिन तब इसकी याद नहीं आएगी। क्योंकि इससे बेहतर फर्श यहां बिछा दिया गया है। यह चुपचाप कोने में हट जाएगा। एक कोने में अंधेरे कमरे में चला जाएगा। इसका किसी को पता नहीं चलेगा।... तुम्हें दिखाई पड़ जाए, तो हाथ के पत्थर तुम छोड़ दोगी, हीरे भर लोगी। तुम्हें खयाल भी नहीं आएगा कि मेरे हाथ में रंगीन पत्थर थे और मैंने त्याग कर दिया।
तो इस मामले में मेरा बहुत जोर है। और वह यह है कि हमेशा पाने की भाषा में, विधायक भाषा में सोचना। जीवन में श्रेष्ठ उपलब्ध होता चले। निकृष्ट छूटेगा, तुम्हें पता भी नहीं चलेगाः कब छूट गया। वैसे ही, जैसे नई साड़ी तुम खरीद लाई हो और पुरानी साड़ी सूटकेस के बाहर हो गई है। तुम्हें कभी पता नहीं चला कि वह कब बाहर कर दी गई। न उसकी पीड़ा रह गई पीछे, न खयाल रह गया है। न यह भाव रह गया कि मैंने त्याग कर दिया। यह भी भाव नहीं पीछे रह जाता।

प्रश्नः और दूसरा पूछा ह‏ुआ है कि कोई व्यक्ति आवश्यकता से अधिक सेंटिमेंटल हो, तो यह कहां तक उचित है? इसे कैसे दूर किया जाए?

दूर करने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन में जो भी है उसका उपयोग करने की जरूरत है। इसको समझ लेना खयाल से। हर आदमी के पास संपदा है। कोई आदमी बहुत-बहुत देखेंः इंटलेक्चुअल है, कोई आदमी बहुत सेंटिमेंटल है, भावुक है, कोई आदमी बहुत प्रेमी है, कोई आदमी बहुत बहादुर है, कोई आदमी बहुत क्रोधी है, कोई आदमी बहुत लोभी है--ये घटनाएं हमारे भीतर हैं। आमतौर से लोग कहेंगे कि इसको छोड़ो, उसको छोड़ो, यह करो, वह करो। मैं यह कहता हूंः जो तुम्हें मिला है उसका सम्यक उपयोग करो।
भावुकता का भी सम्यक उपयोग है, राइट यू.ज है। और क्रोध का भी। अशांति तक का भी ठीक उपयोग है। यानी जीवन में ऐसी कोई चीज नहीं जिसका ठीक उपयोग न हो। और यह भी आश्चर्य की बात है कि जिस चीज का आप ठीक उपयोग करना शुरू करो, वह धीरे-धीरे-धीरे ठीक में परिवर्तित होनी शुरू हो जाती है। अगर कोई व्यक्ति क्रोध का ठीक उपयोग करे तो वह एक दिन क्षमा पर पहुंच जाएगा।
क्षमा क्रोध का अंतिम ठीक उपयोग है। अब यह तुम्हें एकदम से दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि हमें तो लगता है कि क्षमा उसको मिलती है जो क्रोध को छोड़ देता है। क्षमा उसको मिलती है जो क्रोध को ट्रांसफाॅर्म करता है, जो क्रोध को बदलता है, रूपांतरित करता है।
शक्ति तो वही है जो क्रोध में प्रकट होती है, वही क्षमा में प्रकट होती है। तुम यह भी जान कर हैरान होगे कि दुनिया के बड़े क्षमाशील लोग वे ही हो सकते थे जो बड़े क्रोधी थे, नहीं तो क्षमाशील नहीं हो सकते थे। मीडियाकर कुछ भी नहीं हो सकते। गांधी जैसा आदमी इतने बड़े ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि गांधी बहुत सेक्सुअल, बहुत कामुक थे।
दुनिया में जब भी कोई आदमी महान ब्रह्मचारी हुआ हो तो यह जान ही लेना कि वह उतना ही सेक्सुअल न रहा हो तो ब्रह्मचारी हो नहीं सकता। इसको थोड़ा खयाल में लेना। क्योंकि सख्ती..., जो आदमी बड़े से बड़ा पाप कर सकता है, वही आदमी बड़े से बड़ा पुण्य कर सकता है।
नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात अपनी किताब के माॅटो में लिखी हुई है। उसने लिखा है कि अगर किसी वृक्ष को आकाश छूना हो तो उसकी जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। इसके बिना कोई रास्ता नहीं है। वृक्ष को आकाश छूना हो तो जड़ों को पाताल छूना पड़ता है। जड़ें जितनी गहरी जाती हैं, वृक्ष उतना ऊपर जाता है।
जीवन बड़ी अदभुत बात है। जीवन जिसको हम कहते हैं, जैसे तुम उदाहरण लिए हो कि अतिभावुक है मेरा चित्त। तो अतिभावुकता के अच्छे उपयोग हो सकते हैं, बुरे उपयोग हो सकते हैं। मीरा अतिभावुक है। लेकिन सारा भाव एक अदभुत प्रार्थना में परिवर्तित हो गया है। मीरा साधारण स्त्री नहीं है--अतिभावुक है। क्योंकि अतिभावुक न हो तो अनुपस्थित कृष्ण के प्रति इतने प्रेम की संभावना नहीं है। यह तो अत्यधिक भावुकता है कि जो अनुपस्थित है, वह उपस्थित प्रतीत होने लगे। यह, यह साधारण भावुकता नहीं है। क्योंकि साधारण भावुकता तो ठोंक-बजा कर देखती है, दो पैसे की हंडी खरीदती है तो बजा कर देखती है कि भई, यह ठीक है कि नहीं। लेकिन जो नहीं है मौजूद वह प्राणों का केंद्र बन जाए, इसके लिए इतना भावुक हृदय चाहिए, इतना भावुक--चरम स्थिति में।
लेकिन यह भावुकता प्रेम बन गई। यह भावुकता खुशी बन गई, यह भावुकता आनंद बन गई। यह भावुकता आंसू भी बन सकती थी; यह दुख भी बन सकती थी; पीड़ा भी बन सकती थी। आमतौर से पीड़ा बनती है। दुनिया के सारे कवि भावुक हैं। सारी कविता भाव से पैदा होती है, नहीं तो उसके होने की कोई गुंजाइश नहीं है। गणित से पैदा नहीं होती। गणितज्ञ कवि नहीं हो सकता। उसको कल्पना ही नहीं आ सकती, यह खयाल ही नहीं आ सकता। उसके लिए तो दो और दो चार होते हैं। और भाव में कभी-कभी दो और दो पांच भी होते हैं, छह भी होते हैं। दो और दो कुछ भी नहीं होता, शून्य भी हो जाता है। भाव के जगत का हिसाब बिलकुल अनूठा है। वहां का गणित अलग है।
तो यह मत पूछो कि भावुकता को कैसे अलग करें? यह पूछो कि भावुकता को हम कैसे सम्यक, कैसे ठीक दिशा दें? अब तुम गृहिणी हो, तुम किसी को खाना खिलाती हो। होटल में जब खाना खिलाया जाता है तो गणितज्ञ की तरह खाना खिलाया जाता है। और घर में जब खिलाया जाता है तो कवि की तरह खिलाया जाता है। होटल में एक खाना परोसा जा रहा है, वह गणितज्ञ खाना परोस रहा है। वहां सब गणित की भाषा है। कम से कम खाओ, इसकी दृष्टि है। कम से कम खर्च में बन जाए, इसकी दृष्टि है। जितनी जल्दी खाने से उठ जाओ, इसकी दृष्टि है।
एक गृहिणी खाना खिला रही है। यह गणित की भाषा में नहीं खिला रही, यह कविता की भाषा में खिला रही है। जितना ज्यादा खाओ, जितनी देर खाओ, जितना अच्छे से अच्छा दे सके, जितनी देर बिठा सके थाली पर--इसकी कोशिश में लगी हुई है। तो अब अगर भावुक है गृहिणी, और घर में आए मेहमान के प्रति उसकी भावुकता प्रकट होती है, पति को खाना खिलाते वक्त प्रकट होती है, बच्चों को सुलाते वक्त प्रकट होती है, सुबह प्रार्थना करते वक्त प्रकट होती है। तो उसकी सारी भावुकता घर को एक मंदिर बना देगी। लेकिन उसकी भावुकता कब प्रकट होती है? उसका पति उसे सिनेमा नहीं ले जा रहा, उसकी भावुकता प्रकट होती है, वह छाती पीट कर रो रही है, वहां सिर फोड़ रही है--वह सेंटिमेंटल है। वह कहती है, हम सेंटिमेंटल हैं। उसकी भावुकता यहां प्रकट हो रही है। उसको अच्छी साड़ी नहीं लाई गई तो उसकी भावुकता प्रकट हो रही है। वह रो रही है, या दुख उठा रही है, या पीड़ा उठा रही है।
तो हमारे जीवन की सारी की सारी क्षमताएं कैसे सम्यक होती चली जाएं, इस पर ध्यान रखना बहुत-बहुत जरूरी है। और अगर ध्यान रखो तो तुम्हें किसी चीज को छोड़ने की जरूरत नहीं है। तुम धीरे-धीरे पाओगी कि हर चीज को उपयोग में बदल दिया जा सकता है। और हर चीज जब उपयोगी हो जाती है तो तुम्हारे जीवन को एक सीढ़ी ऊपर पहुंचा देती है। और जब निरूपयोगी हो जाती है तो जीवन को एक सीढ़ी नीचे पहुंचा देती है।
तो इस संबंध में यह ध्यान में ले लेना चाहिए।...बैठ जाइए, बैठ जाइए...।
यह खयाल में आती है बात तुम्हारे न? यह खयाल में लेना चाहिए कि जो भी मेरे पास संपदा है उसका मैं अधिकतम उपयोग कैसे करूं ? ठीक उपयोग कैसे करूं ? वह मुझे जीवन में मार्ग बने, दीवाल न बने; सीढ़ी बने, पत्थर न बने रोकने वाला। और तब एक भी ऐसी बात नहीं खोजी जा सकती जिसका कोई न कोई ठीक उपयोग न किया जा सके। एक भी बात नहीं खोजी जा सकती। बुरे से बुरे आदमी में भी ऐसी बात नहीं खोजी जा सकती कि उसके भीतर बड़े से बड़ा आदमी इसी वक्त पैदा न हो सके। लेकिन ट्रांसफर्मेशन की दृष्टि--यह दृष्टि ही गलत है कि मैं छोड़ू। क्योंकि तुम कभी छोड़ ही नहीं सकती, छोड़ेगा कौन? तुम भावुक हो, भावुकता छोड़ेगा कौन? तुम नहीं छोड़ोगी, छोड़ोगी कैसे? छोड़ने का कोई सवाल नहीं है।
हां, इसका उपयोग, यह जीवन के लिए सृजनात्मक हो, विध्वंसात्मक न हो। यह जीवन को और समृद्ध करे; और सुखी करे; और सुंदर बनाए; और प्रेम से भरे--इस दिशा में बढ़ते जाना चाहिए। और अगर इसका खयाल आ जाए तो ऐसा ही है मामला, जैसे कि यहां घर के बाहर कोई खाद लाकर रख दे और दुर्गंध फैलने लगे, बदबू फैलने लगे। और हम कहें कि इस खाद को हम कैसे छूटें? इसे कैसे फेंकें, क्या करें, क्या न करें?
तो और एक दूसरा आदमी है, वह उस खाद को बगिया में डाल दे और बीज बो दे। और कल फूल आ जाएं और सुगंध से मकान भर जाए। और हम पूछने लगें कि इतने सुंदर फूल, इतने खूबसूरत, इतने सुगंधित फूल कहां से आए? और वह कहे कि वही खाद है जो दुर्गंध फेंकती थी, वह मैंने बगिया में बिछा दी, मैंने बीज डाल दिए--वही खाद। उसी की दुर्गंध अब सुगंध बन गई है। तो ट्रांसफार्मेशन हुआ। नहीं तो खाद दुर्गंध देती थी, और फूल सुगंध दे रहे हैं। और जितनी दुर्गंध देने वाली खाद होगी, उतनी सुगंध देने वाले फूल पैदा होंगे। यह, यह ध्यान में रहे। लेकिन अगर हम खाद से घबड़ा गए और सोचने लगे इसको कहां छोड़ें, कहां फेंकें, तो फिर बगिया में फूल भी पैदा नहीं होंगे।
जीवन की प्रत्येक चीज का निषेध किया गया अब तक। अब तक की सारी शिक्षाएं एक तरह से निषेधात्मक हैं। और यह छोड़ो, वह छोड़ो, यह करो, वह करो। क्रोध छोड़ो, भावुकता छोड़ो, घृणा छोड़ो, ईष्र्या छोड़ो, सब छोड़ो। आदमी सुन लेता है और उसको लगता भी है--ठीक है, कि बात ठीक है। खाद दुर्गंध दे रही है, इसको छोड़ो। लेकिन छोड़ना न तो संभव है, न छोड़ना अर्थपूर्ण है। न छोड़ने से कभी कोई मुक्त हो सकता है। पीछे बंध जाएगा।
तो मेरा छोड़ने का ख्याल ही नहीं, मेरा खयाल है बदलो। जो भी है तुम्हारे पास उसको संपत्ति मान लो, उसको इनवेस्ट करो। उसको और आगे इनवेस्ट करो, कि देखो कि मेरे पास क्या है? पहले तो पूरा निरीक्षण कर लो कि मेरे पास क्या है? मैं क्या संपत्ति लेकर पैदा हुआ। मेरे पास इतना क्रोध है, इसका मैं क्या कर सकता हूं। गांधी के पास क्रोध न हो तो कुछ भी नहीं कर सकते। महावीर के पास भी क्रोध न हो तो कुछ भी नहीं कर सकते। क्योंकि जीवन में करने की सारी ताकत जो है, वह क्रोध से पैदा होती है। जो बच्चा घर में पैदा हो, अगर उसमें क्रोध नहीं है तो न तो उसको पढ़ा सकते, न लिखा सकते, न उससे कुछ करवा सकते जिंदगी भर। अगर क्रोध न हो तो लड़का बिलकुल ही, बिलकुल ही व्यर्थ होकर मिट्टी का आदमी हो जाए पैदा, उसमें कुछ नहीं होगा।
क्रोध तो बल है। लेकिन कहां लगाया जाए? कैसे लगाया जाए? पर हमको शिक्षक समझाते हैंः क्रोध छोड़ो, शांति ग्रहण करो। मैं नहीं समझाता। मैं कहता हूं, क्रोध को बदलो। और क्रोध अंततः शांति में परिवर्तित होगा। इतना बदलो, इतना बदलो, उसको इतने ऊंचे से ऊंचे तलों पर ले जाओ। दुनिया में जितने, जितने बड़े लोग हैं, सभी लोग बड़े क्रोधी लोग हैं। बड़ा बल है, लड़ने की सामथ्र्य है, मिटने की सामथ्र्य है, दांव लगाने की सामथ्र्य है--ये सब क्रोधी के हिस्से हैं। ये सब क्रोधी के हिस्से हैं।
सुभाष परीक्षाएं पास करके वापस लौटे और कलकत्ता के गवर्नर ने उनको इंटरव्यू के लिए बुलाया। तो जैसे बंगाली अपना छाता बगल में दबा कर...वह अपना छाता दबा कर गवर्नर से मिलने गए। अंदर गवर्नर बैठा है अपने कमरे में। वह अंदर पहुंचे, जाकर कुर्सी पर बैठ गए। अपना टोपी लगाए हुए हैं, छाता लगाए हुए हैं। तो उस, तो उस गवर्नर ने कहा कि इतनी भी शिष्टता तुममें नहीं है? तुम आई.सी.एस. की परीक्षा पास करके आ रहे हो कि...टोपी नीचे उतारनी चाहिए। इतना कहना था कि उन्होंने वह छाता निकाल कर, टेबल के उस तरफ गवर्नर की गर्दन छाते की डंडी में फंसा ली। अब वे दोनों अकेले हैं कमरे में, और उससे कहा कि महानुभाव, यह नौकरी मैंने छोड़ी। अभी मैं नौकर नहीं हुआ। अभी तो इंटरव्यू देने आया था। अभी तो मेहमान था आपका। आपको पहले खड़े होना चाहिए था, आपको पहले टोपी उतारनी चाहिए थी। और जब आपने इतनी अशिष्टता का व्यवहार किया, स्वभावतः जो आपने किया, उसका मैंने उत्तर दिया। और अब यह नौकरी नहीं करूंगा। क्योंकि ऐसे नीचे लोगों के साथ क्या नौकरी करनी है? छाता बाहर खींच लिया। उस गवर्नर को तो एक सेकेंड में समझ भी नहीं आया कि यह क्या हो गया?
अब यह आदमी साधारण क्रोधी नहीं है। इसका क्रोध ज्वलंत है। लेकिन वह क्रोध धीरे-धीरे ट्रांसफाॅर्म होता चला गया। वह धीरे-धीरे बल बन गया है। इस आदमी की आत्मशक्ति बन गया। इस आदमी की पूरी जिंदगी एक दांव बन गई। और इस दांव में इस आदमी ने जिंदगी में कुछ जाना, पाया। कुछ, कुछ अनुभव किया। अगर यह क्रोध न हो तो सुभाष बिना रीढ़ का आदमी हो गया। अब वह तो, तो उतार लेता और नमस्कार करके बैठ जाता, नौकरी भी मिल जाती, आई.सी.एस. आफिसर भी हो जाता। लेकिन एक दुनिया में एक बहुत कीमती आदमी पैदा होने से वंचित हो जाता।
मेरा मतलब समझ रहे हैं न? हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि जो हमारे पास है, उसको हम अधिकतम ठीक दिशा में कैसे उपयोग करें कि वह जीवन के लिए हितकर हो जाए। और मेरी जिंदगी के लिए सीढ़ियां बने और मुझे ऊपर ले जाए। तो अपनी सेंटिमेंटैलिटी का भी उपयोग करो। बड़े उपयोग हैं। और एक स्त्री में अगर भावुकता न हो तो और क्या होना चाहिए? लेकिन सब लोग समझा रहे हैं कि भावुकता नहीं होनी चाहिए। तो स्त्री धीरे-धीरे पुरुष जैसी हो जाएगी, उसमें जिस दिन भावुकता नहीं होगी। पश्चिम में वैसी हालत पैदा हो गई है। पश्चिम की स्त्री भावुक नहीं रही। क्योंकि इधर डेढ़ सौ साल के शिक्षकों ने यह सिखाया कि भावुकता नहीं होनी चाहिए, बड़ी गलत बात है। यह वीकनेस है, कमजोरी है। तो आज हालत यह खड़ी हो गई कि पश्चिम में स्त्री है ही नहीं। दो तरह के पुरुष हैं, बस। स्त्री तो नहीं है वहां। और उसके पीछे कोई भाव नहीं है, कोई कल्पना नहीं है, कोई कविता नहीं है। कोई जीवन को समर्पित करने का सवाल नहीं है। सीधा गणित हो गया है।
तो एक स्त्री तलाक दे सकती है अपने पति को, क्योंकि रात यह आदमी खर्राटे भरता है। और रात उसकी नींद ठीक नहीं चलती। यह हम कल्पना ही नहीं कर सकते। लेकिन अगर ठीक गणित से चलें तो यह बिलकुल ठीक बात है, इसमें गलती क्या है? एक स्त्री को जिस पति के साथ जिंदगी भर रहना है, वह रात को खर्राटे भरता है। आवाज करता है सोने में, तो यह कैसे चल सकता है? यह तलाक देना ठीक है, बिलकुल गणित की बात है। बिलकुल वैज्ञानिक है, बिलकुल साइंटिफिक है। एक दिन का सवाल नहीं है, यह तो रोज का सवाल है। सीधा गणित कहता है कि पति ऐसा होना चाहिए जो रात सोने दे। यह रात आवाज करे तो कैसे हो? लेकिन भावुकता कुछ और कहती है।
भावुकता एक अंधे पति को भी जीवन भर हाथ पकड़ कर चला सकती है। एक बीमार पति को जीवन भर बैठ कर पत्नी खिला सकती है, मजदूरी कर सकती है, बर्तन धो सकती है, सड़क पर गिट्टी फोड़ सकती है। और उसकी भावुकता यह कहेगी उससे कि वह मेरा पति है। क्या वह मेरा पति तभी होता जब वह स्वस्थ होता? उसकी आंखें होती हैं, तभी मेरा पति होता। तो फिर प्रेम क्या आंख और स्वास्थ्य और ये कीमतें सोचता है? और प्रेम देखेगा यह कि वह...यह कसौटी है अब उसको कि वह पता चले कि प्रेम था कि नहीं था। वह जीवन भर उसकी सेवा करती रहेगी। यह भावुकता का ट्रांसफार्मेशन हुआ। और भावुकता अगर हम तोड़ ही दें, तो भावुकता टूटती है। तो फिर गणित रह जाता है, सीधा-सीधा हिसाब रह जाता है। मां देखती है कि यह बेटा, इसको बड़ा करना है तो यह कितना कमा कर देगा, नहीं देगा--तो बड़ा करना। नहीं तो क्या जरूरत है? क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है इसमें? कोई प्रयोजन नहीं, कोई अर्थ नहीं। लेकिन एक भावुकता है वह मां को कहती है कि कुछ देगा कि नहीं देगा...
मैं अभी एक, लाला जी एक, एक स्टेशन पर एक ट्रेन चूक गया। वहां प्लेटफार्म पर बैठा हुआ हूं। एक बूढ़ी औरत को गांव से लोग लाए गाड़ी में, बैलगाड़ी में। उसके सिर पर पट्टियां बंधी हैं, उसको अस्पताल ले जा रहे हैं, बड़ी बस्ती। और चार-छह औरतें उसके साथ हैं। और वह बिलकुल बेहोश सी हालत में है बुढ़िया। तो मैं पूछा कि इसको क्या हुआ? तो साथ की औरत ने कहा कि इसके लड़के ने इसको लाठी मार दी। एक ही लड़का है इसका, और उसने इसको यह लाठी मार दी। और उस औरत ने यह कह कर, यह कहा कि ऐसे लड़के तो होते से मर जाएं तो अच्छा। वह जो बुढ़िया आधी सी बेहोश है, वह फौरन कहने लगीः न-न-न, ऐसा मत कहो। अगर आज लड़का न होता तो मारता भी कौन? है, तो मारता है। नहीं, ऐसा मत कहो। ऐसा मत कहो। ऐसा बुरा शब्द मत कहो। लड़का है तो मारता है, नहीं होता तो मारता भी कौन? अब इसको तो हम कहेंगे, यह भावुकता की अंतिम दशा हो गई। लेकिन यही मां के चित्त की दशा है। भावुकता काट लो तो मां भी कट गई। पीछे एक औरत रह गई, फिर एक मां नहीं है वहां।
मेरी समझ तो यही है कि जो हमारे पास है--जो भी है, उसको बुनियादी संपत्ति मानो। जिससे जीवन का पूरा व्यवसाय करना है, उसे छोड़ने-छाड़ने की बात मत करो। उसको बुनियादी संपत्ति मान कर हम क्या करें, किस दिशा में नियोजित करें कि हमारा जीवन अधिकतम आनंद और शांति को उपलब्ध होता चला जाए। हम क्या करते हैं, ऐसी दिशा में नियोजित करते हैं कि जीवन दुख और अशांति को उपलब्ध होता चला जाता है। और स्मरण रखें कि जो चीज दुख और अशांति लाती है, वही चीज सुख और शांति ला सकती है। सिर्फ नियोजन का फर्क होगा, सिर्फ नियोजन का फर्क। और छोटा सा फर्क और जमीन-आसमान अलग हो जाते हैं।
अभी मैं पूना था तो मैं एक घटना वहां कह रहा था। एक, एक यहूदी साधु है, लिएबमेन। वह शिक्षा लेने गया है, अपने गुरु के आश्रम में। अपने एक मित्र के साथ दोेनों गए। दोनों आश्रम में भर्ती हो गए हैं लेकिन बड़ी तकलीफ दोनों को सिगरेट पीने की, पागल पकड़ है। बिना उसके जी नहीं सकते। और आश्रम में सिगरेट वगैरह बिलकुल निषिद्ध है। सिर्फ एक घंटा बाहर निकलने का मौका मिलता है। नदी के किनारे वह घूमने के लिए एक घंटा मिलता है। एक घंटे बाहर जा सकते हैं। लेकिन वह भी ईश्वर चिंतन के लिए मिलता है। किसी और काम के लिए नहीं। एक घंटा घूमो, ईश्वर चिंतन करो। तो उन्होंने सोचा कि यही वक्त है, इसी में पी लेनी चाहिए। लेकिन लिएबमेन ने कहा कि जब हम साधु होने आए हैं तो इतनी सच्चाई तो बरतें कि गुरु से आज्ञा ले लें कि हम वहां सिगरेट पीना चाहते हैं। तो दोनों गुरु के पास गए। लिएबमेन गुरु के पास गया तो गुरु ने एकदम मना कर दिया--कि नहीं, नहीं पी सकते हो। सिगरेट मना है। वह वापस लौटा। लेकिन उसका मित्र पहले ही गुरु से पूछ कर आ गया और बैठ कर सिगरेट पी रहा है। तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहाः तुमको गुरु ने हां भर दी क्या? मुझे तो इंकार किया है। उसने कहा कि मुझे तो, उन्होंने कहा, हां-हां। उसने कहाः यह तो बड़ी अजीब बात है! एक ही गुरु है, एक ही बात के लिए हम दोनों ने पूछा। यह तो बड़ी ज्यादती और अन्याय है। मैं फिर से जाता हंू। तो उसके मित्र ने कहाः एक मिनट रुक जाओ, तुमने पूछा क्या था? उसने कहा कि पूछने की क्या बात थी, मैंने पूछा कि क्या हम ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकते हैं? उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? तो उसने कहा कि बस समझ में आ गया। मैंने पूछा था कि क्या हम सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकते हैं? बिलकुल कर सकते हैं।
अब इसमें कितना सा फर्क है? शायद कोई भी फर्क नहीं है बुनियादी तो। लेकिन नियोजन का फर्क है। शब्द अलग तरह से नियोजित हुए हैं। एक आदमी पूछता है कि क्या मैं ईश्वर चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? कौन हां भरेगा इसके लिए? कोई भी नहीं भरेगा दुनिया में हां, कि यह क्या बेवकूफी की बातें कर रहे हो। तुमको और कोई वक्त नहीं मिलता? ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीनी है? लेकिन एक आदमी पूछता है कि मैं सिगरेट पीता हूं, और उस वक्त ईश्वर-चिंतन करूं तो कोई बुराई तो नहीं? तो कोई भी कहेगा कि क्या हर्जा है? कर सकते हो। यह बिलकुल एक ही है, लेकिन नियोजन है, दिशा। जरा सा फर्क, और जमीन और आसमान अलग हो जाते हैं। तो अपनी सेंटिमेंटैलिटी को, अपनी भावुकता को नियोजन करो। उसे उस दिशा में लगाओ, जहां से धीरे-धीरे ज्यादा आनंद... खयाल रखो चैबीस घंटे कि मैंने अपनी भावुकता का क्या प्रयोग किया? क्या उससे दुख आया मुझे, पति को, बच्चों को, परिवार को, या कि सुख आया? और एक पंद्रह दिन निरीक्षण करो। और तय करो कि किन-किन उपयोग से दुख और किन-किन उपयोग से सुख अनुभव होता है। फिर सुख की दिशा में उसका प्रयोग करते चलो।
क तीन महीने में तुम पाओगे कि भावुकता तुम्हारी सबसे बड़ी संपत्ति बन गई। तुम उसके लिए भगवान को धन्यवाद दोगे कि यह मुझे दी तो ठीक, नहीं तो मैं क्या करती? छोड़ने की तो बात ही मत करना, छोड़ तो कोई सकता नहीं। छोड़ नहीं सकता।

2 टिप्‍पणियां:

  1. Makemake wau e kaʻana like i kaʻu hōʻike me ka honua a hiki i ka poʻe ke hoʻohana ia mea a paʻa loa wau e kōkua ana i kēlā me kēia mea e heluhelu nei i kēia manawa. ʻO Dua koʻu inoa. I kēia lā hauʻoli loa wau i ka mea a Dr.Pellar i hana ai i koʻu ola. nui a wikiwiki hoʻi kāna mau kilokilo, ʻaʻole wau i ʻike i kekahi mea pono e like me ia, ua hoʻoponopono ʻo ia i koʻu pilikia aʻu i manaʻo ʻole ai, ua hālāwai wau me ia e kamaʻilio ana e pili ana i ka hana kākau maikaʻi loa, ua ʻākoakoa wau i kāna pilina a me kāna kamaʻilio ʻana i pane aku ai i ka pane ʻana a e nīnau ana e pili ana i koʻu pilikia, ua wehewehe wau iā ia me ka waimaka, ua haʻi mai ʻo ia iaʻu e hoʻopili aku iā ia, ʻaʻohe oʻu mana, e hoʻi hou kaʻu kāne iaʻu e like me koʻu aloha iā ia, ua pūʻiwa wau. Ua nīnau koke wau pehea e hoʻihoʻi ai i ke kāne, hāʻawi ʻo ia iaʻu i nā ʻōkuhi a pono i kona inoa a me nā kiʻi, aʻu e hoʻolohe mau ai a e ukali hoʻi. Ua hoʻohiki ʻo ia iaʻu e kāhea kahi kāne ʻelua lā iaʻu e waiho i kāna hana, ʻoiaʻiʻo, ua kāhea kaʻu kāne, akā ua haʻo wau i kāna kāhea ʻana, hauʻoli loa wau. Ua hoʻohiki ʻo ia iaʻu e hoʻi mai kaʻu kāne ma ka home i 48 mau hola a pono wau e wehe i kaʻu kapuahi a hana pū me ia i kaʻu hana. I kēia lā, hoʻi hou koʻu ʻohana me ke kōkua o Dr.Pellar, hoʻi kaʻu kāne i ka wā i haʻalele ai iaʻu, a laila kekahi wahine mai kahi mokuʻāina ʻē aʻe. ʻIke ʻoe i koʻu ʻano ke haʻo wau i kaʻu kāne aloha no kekahi wahine ʻē aʻe e hana ana i ka mea i hoʻihoʻi mai iā ia. i kēia lā hoʻohiki wau e kaʻana a haʻi i ka honua i kāna hana nui no ka mea hauʻoli loa wau i kēia lā. e kāhea iā Dr.Pellar inā pono ʻoe i kāna kōkua, e hoʻāʻo a hoʻopili koke iā Dr.Pellar ma o kāna Email; drpellar@gmail.com

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  2. Aloha au e kaʻana like i koʻu ʻike i ka hoʻi ʻana o kaʻu aloha {jack} a aloha hou ʻo ia iaʻu ma mua o ka mea aʻu e manaʻo ai. ʻO koʻu inoa ʻo Era no Albania.
    Ua male au i ʻelima mau makahiki i hala aku nei, ʻelua a māua keiki ʻelua. ua maikaʻi ko mākou noho ʻana a hiki i ka wā i kipa mai ai kona māmā makuahine iā mākou. ma hope o ka hebedoma ua haʻalele ʻo ia, ua hoʻomaka pū kaʻu kāne me ka hana hoʻomākeʻaka. Ua pūʻiwa au a pūʻiwa hoʻi no ka mea ʻaʻole wau i ʻike i kaʻu hana hewa. ua haʻi ʻo ia iaʻu e hoʻopau i kā māua male a lawe pū i nā keiki me ia. ʻoiai ʻike wau ʻaʻole kaʻu kāne i kahi kāne puʻuwai maikaʻi ʻole, pono wau e ʻimi i kahi hopena i ka manawa. ʻo ia kahi i hālāwai ai me Dr.Sango i ʻike i nā hōʻike maikaʻi he nui e pili ana iā ia. No laila ua launa aku wau iā ia a haʻi aku iā ia i nā mea āpau i loaʻa iaʻu. Ua haʻi ʻo Dr.Sango iaʻu e hoʻomākaukau ʻo ia i kahi kilokilo naʻu a ua noi mai ʻo ia iaʻu e kūʻai i nā mea no ka mea aʻu i uku ai. ma hope o ka enchanted iaʻu, ua lilo ia i nā mea āpau i kaʻu male ʻo ka tūtū wahine a kaʻu kāne. Ua hana ʻokoʻa ʻo ia i ka pela kilokilo iaʻu a me kaʻu kāne, hilahila ka wahine a kuʻu kāne a kuʻu kāne i kēia manawa. mahalo a pau iā Dr.Sango ka mea i kuleana e kōkua iaʻu mai loko mai o kēia pilikia. He kanaka maikaʻi ʻo Dr.Sango o kāna ʻōlelo. hiki iā ʻoe ke hoʻopili aku a hoʻihoʻi ia i kou hauʻoli. inā makemake ʻoe i kōkua e hiki iā ʻoe ke kelepona iā Dr.Sango ma o kāna leka uila; spellspecialistcaster937@gmail.com

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