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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-76

काम-उर्जा ही जीवन-ऊर्जा है

प्रवचन-छियत्रवां 

प्रश्नसार:

1-तंत्र की विधियां काम से ज्यादा संबंधित नहीं लगती है।
2-ज्ञान ओर अज्ञान आपस में किस प्रकार संबंधित है?  
3-कृष्ण मूर्ति विधियों के विरोध में क्यों है ?
4-व्यवस्था के हानि-लाभ क्या है?
पहला प्रश्न :
हमने सदा यहीसुना है कि तंत्र मूल रूप से काम-ऊर्जा तथा काम-केंद्र की विधियों से संबंधित है, लेकिन आप कहते हैं कि तंत्र में सब समाहित । यदि पहले दृष्टिकोण में कोई सच्चाई है तो विज्ञान भैरव तंत्र में अधिकांश विधियां अतांत्रिक मालूम होती हैं।
क्या यह सच है ?

बात जो समझने की है, वह है काम-ऊर्जा। जैसा तुम इसे समझते हो, वह तो बस एक अंश है, जीवन-ऊर्जा का एक हिस्सा है लेकिन तंत्र जानता है कि यह जीवन का ही पर्याय है। यह जीवन का कोई अंश, कोई हिस्सा नहीं है, स्वयं जीवन ही है। तो जब तंत्र कहता है काम-ऊर्जा तो उसका अर्थ
होता है जीवन-ऊर्जा।


काम-ऊर्जा की फायडियन धारणा के बारे में भी यही सत्य है। फ्रायड को भी पश्चिम में बहुत गलत समझा गया। लोगों को ऐसा लगा कि वह जीवन को काम तक ही सीमित कर रहा है लेकिन वह वही कर रहा था जो तंत्र इतने समय से करता रहा है। संपूर्ण जीवन काम है। काम शब्द प्रजनन तक ही सीमित नहीं है, जीवन-ऊर्जा का पूरा खेल ही काम है। प्रजनन उस खेल का बस एक हिस्सा है। जहां भी दो ऊर्जाएं मिलें निगेटिव और पाजिटिव, काम का प्रवेश हो गया।
इसे समझना कठिन है। उदाहरण के लिए : तुम मुझे सुन रहे हो। यदि तुम फ्रायड से पूछो, या तंत्र-गुरुओं से पूछो वे कहेंगे कि सुनना पैसिव है, स्त्रैण है और बोलना पुरुष जैसा है। बोलना तुममें प्रवेश करता है और तुम उसके प्रति ग्रहणशील होते हो। वक्ता और श्रोता के बीच एक काम-कृत्य हो रहा है, क्योंकि वक्ता तुममें प्रवेश करने की कोशिश कर रहा है और श्रोता ग्रहण कर रहा है। श्रोता की ऊर्जा रुपए हो गई है। और श्रोता रगण न हो तो सुनने की घटना नहीं घटेगी।
इसीलिए श्रोता को बिलकुल शांत होना पड़ता है। सुनते समय उसे सोचना नहीं चाहिए क्योंकि सोचना उसे सक्रिय कर देगा। उसे अपने भीतर विवाद नहीं करते रहना चाहिए, क्योंकि विवाद उसे सक्रिय कर देगा। सुनते समय उसे बस सुनना ही चाहिए और कुछ भी नहीं करना चाहिए। तभी संदेश ग्रहण किया जा सकता है और समझा जा सकता है। लेकिन तब श्रोता रुपए हो जाता है।
संवाद तभी हो पाता है जब एक पक्ष पुरुष होता है और एक पक्ष स्त्री, वरना तो कोई संवाद नहीं हो सकता। जहां भी निगेटिव और पाजिटिव मिले, काम घटित हो गया। चाहे यह भौतिक तल पर ही हो, निगेटिव और पाजिटिव विद्युत मिली, काम हो गया। जहां भी दो ध्रुव मिलते हैं, विपरीत ऊर्जाएं मिलती हैं वहीं काम है। तो काम एक बहुत विशाल, बहुत विराट शब्द है केवल प्रजनन से ही नहीं जुड़ा है। प्रजनन तो केवल एक प्रक्रिया है जो काम में समाहित है।
तंत्र कहता है, जब परम आनंद और उल्लास तुम्हारे भीतर घटता है तो उसका अर्थ है कि तुम्हारे पाजिटिव और निगेटिव ध्रुवों का मिलन हो गया। क्योंकि हर पुरुष, पुरुष और स्त्री दोनों है और हर स्त्री भी पुरुष और स्त्री दोनों है। तुम केवल स्त्री से या केवल पुरुष से पैदा नहीं हुए हो दोनों विरोधी ध्रुवों के मिलन से पैदा हुए हो। तुम्हारे पिता का भी योगदान है, तुम्हारी मां का भी योगदान है 1 तुम आधे अपनी मा हो और आधे अपने पिता; दोनों तुम्हारे भीतर साथ-साथ हैं। जब भीतर वे दोनों मिलते हैं तो आनंद घटता है।
बुद्ध अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हुए एक गहन आर्गाज्म में हैं। आंतरिक शक्तियों का मिलन हो गया है वे एक-दूसरे में समाहित हो गई है। अब बाहर किसी स्त्री को खोजने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि भीतर की स्त्री से मिलन हो गया है। और बुद्ध बाहर की स्त्री से अनासक्त हैं विरक्त हैं इसलिए नहीं कि वह स्त्री के विरुद्ध हैं, बल्कि इसलिए कि भीतर
परम घटना घट गई है। अब कोई जरूरत न रही। एक आंतरिक वर्तुल पूरा हुआ, संपूर्ण हुआ। यही कारण है कि बुद्ध के चेहरे पर इतनी गरिमा उतर आती है। यह पूर्ण होने की गरिमा है। अब कुछ कमी न रही, एक गहन परितृप्ति हो गई, अब आगे कोई यात्रा न रही। उन्होंने परम लक्ष्य पा लिया। तरिक शक्तियों का मिलन हो गया और कोई संघर्ष न बचा।
लेकिन यह एक कामुक घटना है। ध्यान एक कामुक घटना है, इसीलिए तंत्र को काम-आधारित काम-उन्मुख कहा जाता है। और ये सभी एक सौ बारह विधियां कामुक हैं। असल में कोई भी ध्यान की विधि गैर-कामुक नहीं हो सकती। लेकिन तुम्हें काम शब्द की विशालता को समझना पड़ेगा। यदि तुम इसे नहीं समझते हो तो परेशान ही रहोगे और गलतफहमी बनी रहेगी।
तो जब भी तंत्र कहता है काम-ऊर्जा तो उसका अर्थ है जीवन-ऊर्जा, स्वयं जीवन की ऊर्जा। वे पर्यायवाची हैं। जिसे भी हम काम कहते हैं वह जीवन-ऊर्जा का एक आयाम ही है। उसके और भी आयाम हैं। और ऐसा होना भी चाहिए। तुम किसी बीज को अंकुरित होते देखते हो कहीं किसी वृक्ष पर फूल खिल रहे हैं पक्षी गीत गा रहे हैं-पूरी की पूरी घटना कामुक है। यह जीवन है जो कई रूपों में अपने को अभिव्यक्त कर रहा है। जब कोई पक्षी गा रहा है तो यह एक कामुक आमंत्रण है, एक निमंत्रण है। जब एक फूल तितलियों को और मधु-मक्खियों को आकर्षित कर रहा है तो यह भी एक निमंत्रण है क्योंकि मक्खियां और तितलियां प्रजनन के लिए बीजों को ले जाएंगी।
अंतरिक्ष में तारे घूम रहे हैं। अभी तक किसी ने इस पर कार्य नहीं किया है, लेकिन यह तंत्र की प्राचीन धारणा है कि पुरुष ग्रह होते हैं और स्त्रैण ग्रह होते हैं वरना कोई गति न होती। ऐसा होना ही चाहिए क्योंकि चुंबकीय खिंचाव पैदा करने के लिए, आकर्षण पैदा करने के लिए विपरीत ध्रुवों की जरूरत होती है। ग्रह भी पुरुष और स्त्रैण होने ही चाहिए। सभी कुछ दो ध्रुवों में बंटा होना चाहिए। और जीवन इन ध्रुवों के बीच एक लयबद्धता है। विकर्षण और आकर्षण, निकट आना और दूर जाना-यह सब लयबद्धता है।
जहां भी विपरीत का मिलन होता है, तंत्र ‘काम’ शब्द का उपयोग करता है। यह एक 'कामुक' घटना है। और तुम्हारे भीतर के विरोधी ध्रुवों का कैसे मिलन हो जाए, ध्यान का सारा उद्देश्य यही है। तो ये सारी एक सौ बारह विधियां कामुक हैं। और कुछ नहीं हो सकता, कोई संभावना नहीं है। लेकिन काम शब्द की विराटता को समझने की कोशिश करो।

दूसरा प्रश्न :
आपने कहा कि अस्तित्व एक समग्रता है, कि हर चीज जुड़ी हुई है? कि सब कुछ एक-दूसरे में समाहित हो रहा है। कि वृक्ष सूर्य के बिना नहीं हो सकता और सूर्य भी वृक्ष के बिना नहीं हो सकता। हल संदर्भ में कृपया यह बताएं कि ज्ञान और अज्ञान एक-दूसरे से किस प्रकार जुड़े हुए हैं।

वे जुड़े हैं। ज्ञान  और अज्ञान दो विपरीत ध्रुव हैं। ज्ञान  तभी संभव है जब अज्ञान हो।
यदि संसार से अज्ञान विदा हो जाए तो साथ ही साथ ज्ञान भी विदा हो जाएगा। लेकिन अपनी
द्वैतवादी विचारधारा के कारण हम सदा यही सोचते हैं कि वे विपरीत हैं। असल में वे एक-दूसरे के परिपूरक हैं, विपरीत नहीं हैं। वे परिपूरक हैं, क्योंकि एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। तो वे शत्रु नहीं हैं। जीवन और मृत्यु शत्रु नहीं हैं क्योंकि यदि जन्म न हो तो मृत्यु भी नहीं हो सकती। जन्म मृत्यु के लिए आधार बनाता है। परंतु यदि मृत्यु न होती तो जन्म भी नहीं हो सकता था। मृत्यु आधारशिला है।
तो जब भी कोई मर रहा होता है तो कोई और पैदा हो रहा होता है। एक क्षण मृत्यु होती है और तत्क्षण अगले ही क्षण जन्म होता है। वे विपरीत दिखाई पड़ते हैं जहां तक परिधि का सवाल है वे विपरीत दिशा में कार्य करते हैं, लेकिन गहरे में वे मित्र हैं जो एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं।
अज्ञान और ज्ञान के बारे में समझना कठिन है क्योंकि हम सोचते हैं कि जब कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है तो अज्ञान पूरी तरह मिट जाता है। ज्ञान के बारे में यह सामान्य धारणा है कि अज्ञान पूरी तरह मिट जाता है।
नहीं, यह सही नहीं है; बल्कि इसके विपरीत, जब कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है तो ज्ञान और अज्ञान दोनों ही मिट जाते हैं। क्योंकि यदि एक हो तो दूसरा भी होगा ही, एक दूसरे के बिना नहीं हो सकता। या तो वे एक साथ होते हैं या एक साथ मिट जाते हैं। वे एक ही चीज के दो पहलू हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम सिक्के के एक पहलू को मिटाकर दूसरे पहलू को नहीं बचा सकते।
तो जब कोई व्यक्ति बुद्ध होता है, उस क्षण वास्तव में दोनों ही मिट जाते हैं-ज्ञान और अज्ञान दोनों मिट जाते हैं। केवल चैतन्य बचता है शुद्ध आत्मा बचती है; और दोनों संघर्षरत, विरोधी, सहयोगी विपरीत ध्रुव मिट जाते हैं। इसीलिए तो जब बुद्ध से पूछा जाता है कि बुद्धपुरुष को क्या होता है तो कई बार वह मौन रह जाते हैं। वह कहते हैं, 'यह मत पूछो क्योंकि मैं जो भी कहूंगा झूठ होगा। जो कुछ भी कहूंगा झूठ होगा। यदि मैं कहूं कि वह मौन हो जाता है, तो मौन का विपरीत भी होना चाहिए, वरना वह मौना कैसे अनुभव करेगा? कहूं वह आनंदित हो जाता है, तो उसके साथ-साथ विषाद भी होना ही चाहिए। विषाद के बिना तुम आनंदित कैसे हो सकते हो?' बुद्ध कहते हैं, 'मैं जो भी कहूंगा झूठ होगा।’
तो बुद्धपुरुष की अवस्था के बारे में वह सतत मौन ही रहते हैं, क्योंकि हमारे सभी शब्द द्वैतवादी हैं। यदि तुम कहो प्रकाश और कोई आग्रह करे कि इसकी परिभाषा करो, तो तुम उसकी परिभाषा, कैसे करोगे तुम्हें अंधकार को लाना ही पड़ेगा, तभी परिभाषा कर सकोगे। तुम कहोगे  अंधकार नहीं होता वह प्रकाश है-या ऐसा ही कुछ।
संसार का एक महानतम चिंतक, वोल्टेयर, कहा करता था कि यदि पहले तुम अपने शब्दों को परिभाषित कर सको तभी कोई बातचीत कर सकते हो। लेकिन यह असंभव है। यदि तुम्हें प्रकाश की परिभाषा करनी पड़े तो अंधकार को लाना पड़ेगा। और फिर यदि यह पूछा जाए कि अंधकार क्या है तो उसकी परिभाषा तुम्हें प्रकाश से देनी पड़ेगी, जो कि अपरिभाषित है। सभी परिभाषाएं वर्तुलाकार हैं।
यदि पूछो, मन क्या है? तो परिभाषा होगी, जो पदार्थ नहीं है। और पदार्थ क्या है? तो परिभाषा होगी, जो मन नहीं है। दोनों ही शब्द अपरिभाषित हैं और तुम अपने ही साथ एक चाल चल रहे हो। तुम एक शब्द की परिभाषा दूसरे शब्द से करते हो जिसके लिए स्वयं ही परिभाषा की जरूरत है। पूरी भाषा वर्तुलाकार है और विपरीत अनिवार्य है।
तो बुद्ध कहते हैं 'मैं तो यह भी नहीं कहूंगा कि बुद्धपुरुष होता है।’ क्योंकि होने का अर्थ है कि न-होना भी मौजूद है। तो वह यह भी नहीं कहेंगे कि बुद्धत्व के बाद तुम मौजूद होते हो क्योंकि होने को न-होने से परिभाषित करना पड़ेगा। तब कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पूरी भाषा ही विपरीत ध्रुवों से बनी हुई है।
इसीलिए तो उपनिषदों में कहा गया है कि यदि कोई कहे कि वह ज्ञानी है तो भली प्रकार जानना कि वह ज्ञानी नहीं है। क्योंकि वह यह अनुभव ही कैसे कर सकता है कि वह ज्ञानी है? थोड़ा अज्ञान जरूर बच रहा होगा क्योंकि विपरीत की जरूरत है।
यदि तुम काली दीवार पर सफेद खड़िया से लिखो, दीवार जितनी काली होगी लिखाई उतनी ही सफेद होगी। सफेद दीवार पर तुम सफेद खड़िया से नहीं लिख सकते। यदि तुम लिखो तो कुछ भी नहीं लिखा जाएगा। विपरीत चाहिए। यदि तुम्हें लगे कि तुम ज्ञानी हो तो उससे पता चलता है कि काली दीवार भी वहीं है तभी तुम्हें पता लग सकता है। यदि काली दीवार वास्तव में ही समाप्त हो गई है तो लिखाई भी मिट जाएगी। यह एक साथ होता है।
तो एक बुद्ध न तो अज्ञानी होता है न ज्ञानी होता है, वह बस होता है। तुम उसे द्वैत के किसी ध्रुव पर नहीं रख सकते। दोनों ही ध्रुव समाप्त हो गए।
जब दोनों ध्रुव समाप्त हो जाते हैं तो क्या घटता है? जब दोनों ध्रुव मिल जाते हैं तो वे एक-दूसरे को काट देते हैं और समाप्त हो जाते हैं। दूसरे ढंग से तुम यह कह सकते हो कि बुद्ध सबसे अज्ञानी व्यक्ति और सबसे ज्ञानी व्यक्ति दोनों हैं। ध्रुव अपनी अति पर आ गए हैं, वहां एक मिलन हुआ है, और मिलन ने दोनों को ही काट दिया है। ऋण और धन इकट्ठे हो गए हैं। न अब ऋण रहा न धन रहा, क्योंकि वे एक-दूसरे को काट देते हैं। ऋण ने धन को काट दिया और धन ने ऋण को काट दिया, दोनों समाप्त हो गए और एक शुद्ध आत्मा, एक निर्दोष आत्मा बच रही। तुम न तो यह कह सकते हो कि आत्मा ज्ञानी है, न कह सकते हो कि अज्ञानी है—या तुम कहा सकते हो कि यह दोनों ही एक साथ है।
बुद्धत्व का अर्थ है वह बिंदु, जहां से तुम अद्वैत में छलांग ले लेते हो। उस बिंदु से पहले द्वैत होता है। सब कुछ बंटा होता है।
किसी ने बुद्ध से पूछा, 'आप कौन हैं?'
वह हंसे और बोले, 'यह कहना तो कठिन है।’
लेकिन उस आदमी ने बहुत आग्रह किया। उसने कहा, 'कुछ तो कहा ही जा सकता है क्योंकि आप सामने मौजूद हैं। कुछ अर्थपूर्ण कहा जा सकता है। आप कुछ तो हैं।’ लेकिन बुद्ध ने कहा, 'कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मैं हूं लेकिन यह कहना भी मुझे असत्य में ले जाता है।’ फिर उस आदमी ने दूसरा रास्ता निकाला। उसने पूछा, 'आप पुरुष हैं या स्त्री?'
बुद्ध ने कहा, 'यह कहना भी कठिन है। कभी मैं पुरुष था, लेकिन तब मेरे सारे प्राण स्त्रियों की ओर आकर्षित थे। जब मैं पुरुष था तो मेरा मन स्त्रियों से भरा हुआ था और जब मेरे मन से स्त्रियां विदा हो गईं तो उनके साथ-साथ मेरा पुरुष भी विदा हो गया। अब मैं नहीं कह सकता। मैं जानता ही नहीं कि मैं कौन हूं। और इसकी परिभाषा करना कठिन है।’
जब द्वैत नहीं रहता तो किसी चीज की परिभाषा नहीं की जा सकती। तो यदि तुम्हें लगे कि तुम बुद्धिमान हो तो इसका अर्थ है कि अभी छूता भी है। यदि तुम्हें लगे कि तुम आनंदित हो तो इसका अर्थ है तुम अभी भी संसार में हो विषाद के जगत में हो। यदि तुम कहते हो कि तुम गहन स्वास्थ्य अनुभव करते हो तो इसका अर्थ है कि अभी रोग भी संभव है। विपरीत तुम्हारा पीछा करेगा, तुम एक को पकड़ोगे तो दूसरा पीछा करेगा। तुम्हें दोनों को छोड़ना होगा। और छोड़ना तभी होता है जब दोनों मिलते हैं।
तो सभी धर्मों का मूल विज्ञान यही है कि कैसे तुम्हारे अंतर के विपरीत ध्रुवों का मिलन
हो ताकि वे समाप्त हो जाएं और कोई चिह्न भी न बचे। उन विपरीत ध्रुवों के मिटने के साथ
ही तुम भी मिट जाओगे। जैसे तुम अभी हो, वैसे नहीं रहोगे और कुछ बिलकुल नया और अज्ञात, कुछ बिलकुल अकल्पनीय अस्तित्व में आएगा। उसे ही ब्रह्म कहा गया है, तुम उसे परमात्मा कह सकते हो। बुद्ध निर्वाण शब्द का उपयोग करते हैं। निर्वाण शब्द का बस इतना ही अर्थ है कि जो कुछ भी था उसका मिट जाना, अतीत का बिलकुल मिट जाना। और इस नए को परिभाषित करने के लिए तुम अपने अतीत के अनुभव और ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकते। यह जो नया है, अपरिभाष्य है।
अज्ञान और ज्ञान भी द्वैत के हिस्से हैं। हमें बुद्ध ज्ञानी लगते हैं क्योंकि हम अज्ञान में हैं। स्वयं बुद्ध तो अपनी दृष्टि में दोनों ही नहीं रहे। उनके लिए द्वैत की भाषा में सोचना असंभव है।

तीसरा प्रश्न

क्या आप कृपया हमें बताएंगे कि कृष्णमूर्ति विधियों के इतने विरोध में क्यों हैं, जब कि शिव तो बहुत सी विधियों के पक्ष में हैं?
विधियों के विरोध में होना भी एक विधि ही है। केवल कृष्णामूर्ति ही इस विधि का उपयोग नहीं कर रहे हैं, पहले भी कई बार इसका उपयोग किया गया। यह प्राचीनतम विधियों में से एक है इसमें कुछ नया नहीं है।
दो हजार वर्ष पहले बोधिधर्म ने इसका उपयोग किया। चान या झेन बुद्धिज्म के नाम से जिस धर्म को जाना जाता है, उसे वह चीन लेकर गया था। वह एक हिंदू भिक्षु था, भारत से था। वह अ-विधि में विश्वास करता था। झेन अ-विधि पर आधारित है। झेन गुरु कहते हैं कि यदि तुमने कुछ भी किया तो तुम चूक जाओगे, क्योंकि करेगा कौन? तुम! तुम्हीं तो रोग हो और तुमसे कुछ और पैदा नहीं हो सकता। प्रयास कौन करेगा? तुम्हारा मन! और तुम्हारा मन ही नष्ट होना है। और तुम मन की मदद से ही मन को नष्ट नहीं कर सकते। तुम जो भी करोगे, उससे तुम्हारा मन और मजबूत होगा।
तो झेन कहता है कि कोई विधि नहीं है, कोई उपाय नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है और कोई गुरु नहीं हो सकता। लेकिन सौंदर्य यह है कि झेन ने महानतम गुरु पैदा किए हैं, और झेन गुरुओं ने संसार के सवोंत्तम शास्त्र लिखे हैं और झेन के माध्यम से हजारों-हजारों लोग निर्वाण को उपलब्ध हुए हैं; लेकिन वे कहते हैं कि कोई विधि नहीं है।
तो यह समझने जैसा है कि अ-विधि वास्तव में बुनियादी विधियों में से एक है। 'नकार' पर बल है ताकि तुम्हारे मन का निषेध हो जाए। मन के दो दृष्टिकोण हो सकते हैं, ही या न। यही दो संभावनाएं हैं, दो विकल्प हैं जैसे कि सब चीजों में होते हैं।’न' रुपए है और 'ही' पुरुष। तो तुम चाहो तो न की विधि प्रयोग में ला सकते हो, या ही की विधि प्रयोग में ला सकते हो। यदि तुम हा की विधि अपनाओ तो कई विधियां होंगी; लेकिन तुम्हें हा कहना होगा और हा कई हो सकते हैं। यदि तुम न को अपनाओ तो कई विधियां नहीं हैं, बस एक ही विधि है क्योंकि बहुत न नहीं हो सकते।
इस बात को देखो : संसार में इतने धर्म हैं, इतने तरह के आस्तिक हैं। अभी कम से कम तीन सौ धर्म हैं। तो आस्तिकता के तीन सौ मंदिर, चर्च और शास्त्र हैं। लेकिन नास्तिकता केवल एक ही तरह की है दो नास्तिकताएं नहीं हो सकतीं। नास्तिकों का कोई संप्रदाय नहीं है। जब तुम कहते हो कि कोई परमात्मा नहीं है तो बात समाप्त हो गई। तुम दो न में भेद नहीं कर सकते। लेकिन जब तुम कहते हो 'ही परमात्मा है', तो भेद की संभावना है। क्योंकि मेरी ही मेरा अपना परमात्मा पैदा करेगी और तुम्हारी हा तुम्हारा परमात्मा पैदा करेगी। तुम्हारी हा जीसस के लिए हो सकती है, मेरी ही कृष्ण के लिए हो सकती है; लेकिन जब तुम न कहते हो तो सभी न एक जैसी होती हैं।
यही कारण है कि पृथ्वी पर नास्तिकता के कोई संप्रदाय नहीं हैं। नास्तिक एक जैसे हैं। उनका कोई शास्त्र नहीं है उनका कोई चर्च नहीं है। जब उनका कोई विधायक दृष्टिकोण ही नहीं है तो असहमत होने के लिए कुछ बचता ही नहीं, एक साधारण सी न ही पर्याप्त है। ऐसा ही विधियों के साथ है : न की केवल एक विधि है हा की एक सौ बारह हैं या और भी बहुत सी संभव हैं। तुम नई-नई विधियां पैदा कर सकते हो।
किसी ने कहा है कि मैं जो विधि सिखाता हूं सक्रिय ध्यान, वह इन एक सौ बारह विधियों में नहीं है। वह इनमें नहीं है क्योंकि वह एक नया मिश्रण है, लेकिन जो कुछ भी उसमें है वह इन एक सौ बारह विधियों में है। कोई भाग किसी विधि में है, कोई भाग किसी दूसरी विधि में है। ये एक सौ बारह बुनियादी विधियां हैं। उनसे तुम हजारों विधियां बना ले सकते हो। उसका कोई अंत नहीं है। कितने ही जोड़ संभव है।
लेकिन जो कहते हैं कि कोई विधि नहीं है, उनकी बस एक ही विधि हो सकती है। निषेध से तुम कुछ बहुत अधिक पैदा नहीं कर सकते। तो बोधिधर्म लिंची, बोकोजू कृष्णमूर्ति की केवल एक ही विधि है। असल में कृष्णमूर्ति ठीक झेन गुरुओं की श्रृंखला में ही आते हैं। वह झेन बोल रहे हैं। उसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन झेन सदा नया दिखाई पड़ता है। और कारण यह है कि झेन शास्त्रों में विश्वास नहीं करता, परंपरा में विश्वास नहीं करता, विधियों में विश्वास नहीं करता।
तो जब भी न उठता है तो वह ताजा और नया होता है।’ही' परंपरा में शास्त्रों में, गुरुओं में विश्वास करता है। जब भी 'हा' होगा उसकी एक लंबी, आरंभहीन परंपरा होगी। जिन्होंने भी ही कहा है, कृष्ण हों कि महावीर, वे कहे चले जाते हैं कि वे कुछ नया नहीं कह रहे। महावीर कहते हैं, 'मुझसे पहले तेईस तीर्थंकरों ने यही सिखाया है।’ और कृष्ण कहते हैं 'मुझसे पहले एक ऋषि ने दूसरे ऋषि को संदेश दिया, दूसरे ऋषि ने तीसरे को दिया, और यह चलता चला आ रहा है। मैं कुछ भी नया नहीं कह रहा।’
'हा' सदा पुराना होगा, शाश्वत होगा।’न' सदा नया लगेगा, जैसे अचानक अस्तित्व में आ गया हो।’न' की कोई पारंपरिक जड़ें नहीं हो सकतीं। वह बिना जड़ों के है। इसीलिए कृष्णमूर्ति नए लगते हैं। नए वह हैं नहीं।
विधियों से इनकार करने की यह विधि क्या है? इसका उपयोग किया जा सकता है। यह मन को मारने और नष्ट करने का एक सूक्ष्मतम उपाय है। मन किसी ऐसी चीज को पकड़ना चाहता है जो सहारा बने। मन के होने के लिए सहारे की जरूरत है वह शून्य में नहीं हो सकता। तो वह कई तरह के सहारे बनाता है-चर्च शास्त्र, बाइबिल, कुरान, गीता-तब वह सुखी होता है कि पकड़ने को कुछ है। लेकिन फिर इस पकड़ने के कारण मन भी बना रहता है।
अ-विधि की यह विधि सब सहारे नष्ट कर देने पर बल देती है। तो वह बल देगी कि कोई शास्त्र नहीं होना चाहिए। कोई बाइबिल मदद नहीं कर सकती, क्योंकि बाइबिल शब्दों के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कोई गीता किसी तरह की मदद नहीं कर सकती क्योंकि गीता से तुम जो भी जानोगे वह उधार होगा और सत्य उधार नहीं हो सकता। कोई परंपरा किसी काम की नहीं है क्योंकि सत्य को मौलिक रूप से निजी रूप से उपलब्ध करना होता है। तुम्हें उसे पाना पड़ता है उसे हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। कोई गुरु तुम्हें सत्य नहीं दे सकता क्योंकि वह संपदा जैसी कोई वस्तु नहीं है। वह हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, सिखाया नहीं जा सकता क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है। यदि कोई गुरु तुम्हें सिखाता है तो तुम केवल शब्द, धारणाएं, सिद्धांत सीख सकते हो। कोई गुरु तुम्हें आत्मबोध नहीं दे सकता। वह आत्मबोध तुम्हें होगा और बिना किसी सहयोग के होगा। यदि वह किसी सहयोग से हुआ तो वह दूसरे पर आश्रित है और तुमको परम मुक्ति की ओर, मोक्ष की ओर नहीं ले जा सकता।
ये अ-विधि के अंग हैं। इन आलोचनाओं निषेधों और विवादों से सहारे नष्ट हो जाते  हैं। फिर तुम बिना किसी गुरु, बिना शास्त्र, बिना परंपरा, बिना चर्च के अकेले रह जाते हो, न कहीं आना है न कहीं जाना है, न कहीं आश्रित होना है। तुम एक शून्य बच रहे। और वास्तव में यदि तुम इस शून्य की कल्पना कर सको और उसमें होने को तैयार होओ तो तुम रूपांतरित हो जाओगे।
लेकिन मन बड़ा चालाक है। यदि कृष्णमूर्ति कहते हैं कि न गुरु को पकड़ना है, न शास्त्र को न विधि को; तो तुम कृष्णमूर्ति को पकड़ लोगे। कई लोगों ने उन्हें पकड़ा हुआ है। मन ने फिर एक सहारा बना लिया और फिर पूरी बात ही बिगड़ गई।
कई लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, 'हमारे मन अशांत हैं। आंतरिक शांति कैसे पाएं? तरिक मौन कैसे पाएं?' और यदि मैं उन्हें कोई विधि देता हूं तो वे कहते हैं, 'लेकिन विधियां काम नहीं दे सकतीं क्योंकि हम कृष्णमूर्ति को सुनते रहे हैं।’ तब मैं उनसे पूछता हूं 'फिर तुम मेरे पास क्यों आए हो? और जब तुम पूछते हो कि शांति कैसे पाएं, तो तुम्हारा अर्थ क्या है? तुम विधि मांग रहे हो और अभी भी कृष्णमूर्ति को सुन रहे हो। क्यों? यदि कोई गुरु नहीं है और सत्य सिखाया नहीं जा सकता तो तुम उन्हें सुनने क्यों जा रहे हो? वह तुम्हें कुछ भी नहीं सिखा सकते। लेकिन तुम उन्हें सुनते चले जाते हो और वही तुम सीखते जा रहे हो। और अब तुमने यह अ-विधि पकड़ ली है। तो जब भी तुम्हें कोई विधि देगा तुम कहोगे, नहीं, हम विधियों में विश्वास नहीं करते। और तुम अभी भी शांत नहीं हो। तो क्या हुआ है? तुम कहां चूक गए हो? यदि सच में ही तुम्हें अ-विधि की जरूरत है, यदि अ-विधि ही तुम्हारी विधि है, तो जरूर तुम उपलब्ध हो गए होओगे। लेकिन तुम उपलब्ध नहीं हुए।’
मूल बात पर ही चूक हो गई, इस अ-विधि की विधि के सफल होने के लिए बुनियादी बात यह है कि तुम्हें सब सहारे नष्ट कर देने चाहिए, तुम्हें कुछ भी नहीं पकड़ना चाहिए। और यह बड़ा कठिन है। लगभग असंभव ही है। यही कारण है कि चालीस-चालीस वर्षों से लोग कृष्णमूर्ति को सुनते रहे हैं लेकिन उन्हें कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। किसी सहारे के बिना बिलकुल अकेले रहना और इतने होश में रहना कि मन को कोई सहारा नहीं बनाना है, इतना कठिन है, इतना दुष्कर है, कि लगभग असंभव ही है। क्योंकि मन बहुत चालाक है, बार-बार सूक्ष्म सहारे खड़े कर सकता है। तुम गीता फेंक सकते हो, लेकिन फिर तुम कृष्णमूर्ति की पुस्तकों से वही जगह भर लेते हो। तुम मोहम्मद पर हंस सकते हो, महावीर पर हंस सकते हो, लेकिन यदि कोई कृष्णमूर्ति पर हंसे तो तुम्हें क्रोध आ जाता है। फिर दूसरी तरह से तुमने सहारा बना लिया, कुछ पकड़ लिया।
कोई पकड़ न होना ही इस विधि का राज है। यदि तुम इसे कर सको तो ठीक है, यदि न कर सको तो स्वयं को धोखा मत दो। फिर विधियां हैं उनका उपयोग करो! फिर स्पष्ट समझ लो कि तुम अकेले नहीं हो सकते और तुम्हें किसी का सहयोग चाहिए। सहयोग संभव है। सहयोग से भी रूपांतरण संभव है।
ये विरोधी हैं; हा और न विरोधी हैं। तुम किसी से भी शुरू कर सकते हो, लेकिन तुम्हें अपने मन और उसके कार्य करने के ढंग का निश्चय करना पड़ेगा। यदि तुम्हें लगे कि तुम अकेले हो सकते हो...।
एक बार ऐसा हुआ कि मैं किसी गांव में ठहरा हुआ था तो एक आदमी आया और मुझसे बोला, 'मैं बड़ा परेशान हूं। मेरे घर वाले मेरी शादी करना चाहते हैं।’ वह जवान आदमी था, अभी-अभी विश्वविद्यालय से आया था। वह बोला, 'मैं इस सब में पड़ना नहीं चाहता। मैं संन्यासी बनना चाहता हूं, सब कुछ त्याग देना चाहता हूं। तो आपकी सलाह क्या है?  उसे कहा, 'मैं तो किसी से भी पूछने नहीं गया, लेकिन तुम मेरी सलाह मांगने आए हो। और तुम सलाह मांगने आए हो इससे पता चलता है कि तुम्हें सहारे की जरूरत है। तुम्हारे लिए पत्नी के बिना जीना कठिन होगा। वह भी एक सहारा है।’
तुम अपनी पत्नी के बिना नहीं जी सकते, तुम अपने पति के बिना नहीं जी सकतीं, लेकिन क्या तुम सोचते हो गुरु के बिना जी सकते हो? असंभव! तुम्हारा मन हर तरह से सहारा खोजता है। तुम कृष्णमूर्ति के पास किसलिए जाते हो? तुम सीखने जाते हो, सिखाए जाने के लिए जाते हो, ज्ञान उधार मांगने जाते हो। वरना तो कोई जरूरत नहीं है।
कई बार मित्रों ने मुझे कहा है, 'अच्छा होता यदि आप और कृष्णमूर्ति मिलते।’ तो मैंने उनसे कहा, 'कृष्णमूर्ति से पूछो और यदि वह मिलना चाहें तो मैं आ जाऊंगा। लेकिन वहां होगा क्या? हम करेंगे क्या? हम क्या बातचीत करेंगे? हम मौन रहेंगे। तो जरूरत ही क्या है?' लेकिन वे कहते हैं, 'यदि आप दोनों मिलते तो बहुत अच्छा होता। हमारे लिए अच्छा होता। आप जो कहेंगे उसे सुनकर हमें बड़ा सुख होगा।’
तो मैं उन्हें एक कहानी कहता हूं। एक बार ऐसा हुआ कि एक मुसलमान फकीर, फरीद, यात्रा कर रहे थे। जब वे दूसरे संत कबीर के गांव के निकट पहुंचे तो फरीद के शिष्यों ने कहा कि यदि वे दोनों मिलें तो बहुत अच्छा होगा। और जब कबीर के शिष्यों को यह पता चला तो उन्होंने भी आग्रह किया कि जब फरीद गुजर रहे हैं तो उन्हें निमंत्रित करना चाहिए। तो कबीर ने कहा, 'ठीक है।’ फरीद ने भी कहा, 'ठीक है। हम चलेंगे, लेकिन जब मैं कबीर की कुटिया में प्रवेश करूं तो कुछ भी कहना मत, बिलकुल मौन रहना।’
दो दिन तक फरीद कबीर की कुटिया में रहे। दो दिन तक वे मौन बैठे रहे। और फिर कबीर गांव की सीमा तक फरीद को विदा करने आए, और मौन में ही वे विदा हुए। जैसे ही वे विदा हुए दोनों के शिष्य पूछने लगे।
कबीर के शिष्यों ने उनसे पूछा, 'यह क्या हुआ? यह भी खूब रही! आप दो दिन तक मौन ही बैठे रहे, एक शब्द भी नहीं बोले, और हम सुनने को इतने उत्सुक थे !' फरीद के शिष्यों ने भी कहा, 'यह क्या हुआ? बड़ा अजीब लगा। हम दो दिन तक देखते ही रहे, देखते ही रहे, इंतजार करते रहे कि इस मिलन से कुछ निकले। लेकिन कुछ हुआ नहीं।’
कहते हैं फरीद ने कहा, 'तुम्हारा मतलब क्या है? दो ज्ञानी बात नहीं कर सकते; दो अज्ञानी बहुत बात कर सकते हैं लेकिन सब व्यर्थ है, बल्कि हानिकारक है। एकमात्र संभावना यह है कि एक ज्ञानी अज्ञानी से बात करे।’ और कबीर ने कहा, 'जो कोई एक शब्द भी बोलता वह यही सिद्ध करता कि वह अज्ञानी है।’
तुम सलाहें मांगे चले जाते हो सहारे खोजते रहते हो। इसे अच्छी तरह से समझ लो कि यदि तुम सहारे के बिना नहीं रह सकते तो अच्छा है कि समझ-बूझ कर कोई सहारा, कोई मार्गदर्शक चुन लो। यदि तुम सोचते हो कि कोई जरूरत नहीं है, कि तुम स्वयं ही पर्याप्त हो, तो कृष्णमूर्ति या किसी ओर से पूछना बंद करो। आना-जाना बंद करो ओर अकेले हो रहो।
ऐसे लोगों को भी घटना घटी है जो अकेले थे। लेकिन यह कभी-कभार ही होता है, करोड़ों में किसी एक व्यक्ति को। वह भी बिना किसी कारण के नहीं। वह व्यक्ति कई जन्मों से खोजता रहा होगा; वह कई सहारे कई गुरु, कई मार्गदर्शक खोज चुका होगा और अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है जहां अकेला हो सकता है। केवल तभी ऐसा होता है। लेकिन जब भी किसी व्यक्ति के साथ ऐसा होता है कि अकेला ही वह परम को उपलब्ध कर लेता है तो वह कहने लगता है कि ऐसा तुम्हें भी हो सकता है। यह स्वाभाविक है।
क्योंकि कृष्णामूर्ति को यह अकेले हुआ तो वह कहे चले जाते हैं कि तुम्हें भी हो सकता है। तुम्हें ऐसा नहीं हो सकता! तुम सहारे की खोज में हो और उससे पता चलता है कि तुम यह अकेले नहीं कर सकते। तो अपने से ही धोखा मत खाओ! हो सकता है तुम्हारे अहंकार को अच्छा लगे कि मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है! अहंकार सदा इसी भाषा में सोचता है कि 'मैं अकेला ही पर्याप्त हूं।’ लेकिन वह अहंकार काम नहीं आएगा। वह तो सबसे बड़ी बाधा बन जाएगा।
अ-विधि भी एक विधि है, लेकिन कुछ खास लोगों के लिए। उनके लिए, जो कई जन्मों में संघर्ष किए हैं और अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां अकेले हो सकते हैं, यह विधि काम देगी। और यदि तुम उस तरह के व्यक्ति हो तो मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तुम यहां नहीं होओगे। तो मुझे उस व्यक्ति की चिंता नहीं है, वह यहां होगा ही नहीं। वह यहां हो ही नहीं सकता। यहां पर ही नहीं, कहीं पर भी, किसी भी गुरु को सुनता हुआ, पूछता, खोजता, अभ्यास करता वह नहीं होगा। वह कहीं नहीं मिलेगा। तो उसे तो हम छोड़ सकते हैं हमें उसकी बात भी करने की जरूरत नहीं है।
ये विधियां तुम्हारे लिए हैं। तो अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि कृष्णमूर्ति उस व्यक्ति के लिए बोल रहे हैं जो वहां जाएगा ही नहीं, और मैं उन लोगों के लिए बोल रहा हूं जो यहां हैं। कृष्णमूर्ति जो भी कह रहे हैं वह बिलकुल सही है लेकिन जिन लोगों से कह रहे हैं वे बिलकुल गलत हैं। जो आदमी अकेला हो सकता है जो बिना किसी विधि, बिना किसी सहारे बिना किसी शास्त्र, बिना किसी गुरु के पहुंच सकता है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने नहीं जाएगा क्योंकि कोई जरूरत ही नहीं है, कोई अर्थ ही नहीं है। और जो लोग सुनेंगे, वे उस तरह के नहीं हैं उन्हें बड़ी कठिनाई होगी।
और वे कठिनाई में हैं। उन्हें सहारे की जरूरत है और उनका मन सोचता है की उन्हें सहारे की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें गुरु की जरूरत है और उनका मन कहता है कि गुरु तो एक बाधा है। उन्हें विधियों की जरूरत है और तर्कपूर्ण ढंग से उन्होंने निष्कर्ष निकाल लिया है कि विधियां मदद नहीं कर सकतीं। वे बड़ी दुविधा में हैं लेकिन दुविधा उन्होंने ही खड़ी की है। तुम कुछ भी करना शुरू करो उससे पहले तुम्हें यह समझ लेना चाहिए कि तुम्हारा मन किस तरह का है, क्योंकि अंतत: गुरु अर्थपूर्ण नहीं है अंतत: तुम्हारा मन ही अर्थपूर्ण है। अंतिम निर्णय तुम्हारे मन से ही आएगा, लक्ष्य तुम्हारे मन से ही प्राप्त होगा। तो बिना किसी अहंकार में उलझे इसे समझो।
बस इतना समझ लो कि कहीं तुम्हें सहारा, मार्गदर्शन या उपाय तो नहीं चाहिए। यदि तुम्हें उनकी जरूरत है तो खोज लो। यदि तुम्हें उनकी जरूरत नहीं है तो कोई प्रश्न ही नहीं है अकेले रहो बिना किसी सहारे के; अकेले चलो बिना कुछ पकड़े। दोनों बातों से वही होगा।
हां और न दो विपरीत ध्रुव हैं और तुम्हें खोज लेना है कि तुम्हारा मार्ग क्या है।

अंतिम प्रश्न :
आपने कहा कि शिव कोई व्यवस्था बिठाने वाले नहीं थे और उनकी शिक्षाओं के आस-पास कोई संप्रदाय नहीं खड़ा किया जा सकता। लेकिन बुद्ध, महाबीर, जीसस और गुरजिएफ जैसे लोग तो बड़ी व्ववस्था बिठाने वाले लोग लगते हैं। उन्हें व्यवस्था क्यों बिठानी पड़ती है? कृपया व्यवस्था के लाभ और हानियां बताएं और क्या आप बहु-व्यवस्था के रचयिता हैं?

दो संभावनाएं हैं : तुम लोगों की मदद के लिए कोई व्यवस्था बिठा सकते हो, लोगों की मदद के लिए बहुत सी व्यवस्थाएं बिठा सकते हो; या फिर, लोगों की मदद के लिए व्यवस्थाओं को नष्ट करने की कोशिश कर सकते हो। फिर वही हा और न, फिर वही विपरीत ध्रुव। और दोनों तरह से तुम लोगों की मदद कर सकते हो।
बोधिधर्म व्यवस्था तोड़ने वाले हैं, कृष्णमूर्ति व्यवस्था तोड़ने वाले हैं झेन की पूरी परंपरा व्यवस्था तोड़ने वालों की है। महावीर, मोहम्मद, जीसस, गुरजिएफ बड़े व्यवस्था बनाने वाले हैं। समस्या सदैव यही है कि हम दो विरोधाभासों को एक साथ नहीं समझ सकते। हम सोचते हैं कि दोनों में से एक ही सही हो सकता है लेकिन दोनों सही नहीं हो सकते। यदि व्यवस्था बनाने वाले सही हैं तो हमारा मन कहता है कि व्यवस्था तोड़ने वाले गलत ही होने चाहिए। और यदि व्यवस्था तोड़ने वाले सही हैं तो व्यवस्था बनाने वाले गलत होने चाहिए।
नहीं दोनों ही सही हैं। व्यवस्था का अर्थ है अनुसरण करने के लिए एक मार्ग, अनुसरण करने के लिए एक स्पष्ट मार्ग ताकि कोई संदेह न उठे, कोई अनिर्णय न उठे और तुम पूर्ण विश्वास के साथ अनुसरण कर सको। इसे याद रखो : व्यवस्था का निर्माण भरोसा पैदा करने के लिए, श्रद्धा पैदा करने के लिए होता है। यदि सब कुछ स्पष्ट हो तो अधिक सरलता से श्रद्धा पैदा हो जाएगी। यदि बड़े हिसाब से तुम्हारे सब प्रश्नों के उत्तर दे दिए जाएं तो तुम असंदेह की स्थिति में आ जाओगे। और आगे बढ़ सकोगे।
तो कई बार महावीर तुम्हारे बेतुके प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं। वे बेकार के प्रश्न हैं, व्यर्थ हैं, लेकिन वह उत्तर देंगे। और वह इस तरह से उत्तर देंगे कि वह उत्तर तुम्हें श्रद्धा पाने में सहयोग दे क्योंकि श्रद्धा बहुत जरूरी होती है। जब भी कोई अज्ञात में प्रवेश करने का प्रयास करता है तो एक गहन श्रद्धा की जरूरत होती है, वरना तो आगे बढ़ना ही असंभव हो जाएगा। यह इतना खतरनाक होगा कि तुम डर जाओगे। वहां अंधकार है मार्ग स्पष्ट नहीं है, सब कुछ अनिश्चित है और हर कदम तुम्हें और-और असुरक्षा में ले जाता है।
इसलिए व्यवस्था की जरूरत है ताकि सब कुछ सुनियोजित हो जाए : तुम्हें स्वर्ग और नर्क और परम मोक्ष के बारे में सब पता हो; और तुम कहा से चलोगे कहा से गुजरोगे, इंच-इंच सुनिश्चित हो। उससे तुम्हें सुरक्षा मिलती है, एक भाव होता है कि सब कुछ ठीक-ठाक है। तुमसे पहले भी लोग वहां गए हैं, और तुम निर्जन में नहीं जा रहे, अज्ञात में नहीं जा रहे। व्यवस्था से ऐसा लगता है कि सब ज्ञात है। वह तुम्हें मदद देने के लिए बस एक सहारा देने के लिए है। और यदि तुममें भरोसा हो तो आगे बढ़ने के लिए तुम्हारे पास होगी। यदि तुम्हें संदेह है तो तुम ऊर्जा व्यर्थ गंवाओगे और आगे बढ़ना कठिन होगा।
तो व्यवस्था बनाने वालों ने हर तरह के प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है और उन्होंने एक साफ और स्पष्ट नकशा बना दिया है। उस नकशे को हाथ में लेकर तुम्हें लगता है कि सब ठीक है, तुम आगे बढ़ सकते हो।
लेकिन तुम्हें कहता हूं कि हर व्यवस्था कामचलाऊ है। हर व्यवस्था बस तुम्हारी मदद करने के लिए है। वह वास्तविक नहीं है। कोई भी व्यवस्था वास्तविक नहीं हो सकती। वह बस एक उपाय है। लेकिन वह इसीलिए तुम्हारी मदद करती है क्योंकि तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व ही इतना झूठा है कि केवल झूठे उपाय ही मदद कर सकते हैं। तुम झूठ में जीते हो, सत्य को नहीं समझ सकते। व्यवस्था का अर्थ होता है थोड़ा कम झूठ, फिर और भी कम झूठ, और फिर धीरे-धीरे, धारे-धीरे सत्य के करीब और करीब आते जाना। जब सत्य तुम पर प्रकट होगा तो व्यवस्था तुम्हारे लिए व्यर्थ हो जाएगी, छूट ही जाएगी।
जब सारिपुत्त बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, परम लक्ष्य पर पहुंचा, तो उसने वहां से पीछे मुड़कर देखा और पाया कि सारी व्यवस्था विदा हो गई है। जो कुछ भी उसे सिखाया गया था, कुछ भी नहीं बचा था। तो उसने बुद्ध से कहा, 'मुझे जो भी व्यवस्था सिखाई गई थी, सब विदा हो गई है।’
बुद्ध ने उसे कहा, 'मौन रह, दूसरों को मत बता! वह विदा हो गई है उसे विदा होना ही था, क्योंकि वह कभी थी ही नहीं, बस एक कल्पना थी। लेकिन उसने तुझे इस बिंदु तक पहुंचने में मदद की। उनको मत बताना जो अभी पहुंचे नहीं हैं, क्योंकि यदि उन्हें पता लग गया कि जहां वे जा रहे हैं वहां कोई ज्ञान नहीं है तो वे रुक जाएंगे। अज्ञात में वे बिना सुरक्षा के नहीं जा सकते, अकेले नहीं जा सकते।’
ऐसा कई बार होता है। यह मेरा अपना अनुभव रहा है कि लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, 'अब ध्यान गहरा हो रहा है लेकिन हमें डर लगता है।’ जब तुम्हें मर जाने जैसा डर लगता है, जैसे कि मृत्यु पास आ रही हो, तो एक परम अनुभूति आएगी ही। जब ध्यान अपने शिखर पर पहुंचता है तो मृत्यु जैसा लगता है। मैं उन्हें कहता हूं 'चिंता मत करो, मैं तुम्हारे साथ हूं।’ फिर उन्हें ठीक लगता है। मैं वहां हो नहीं सकता, असंभव है। कोई भी वहां साथ नहीं जा सकता। यह एक झूठ है। कोई भी वहां नहीं जा सकता, तुम अकेले ही जाओगे। वह बिलकुल एकाकी स्थान है। लेकिन जब मैं कहता हूं कि मैं वहां होऊंगा, तुम चिंता मत करो, तुम आगे बढ़ो, तो उन्हें अच्छा लगता है और वे आगे बढ़ जाते हैं।
यदि मैं कहूं कि तुम अकेले ही होओगे और कोई भी वहां नहीं होगा, तो वे पीछे हट जाएंगे। वह बिंदु आ गया है जहां भय उठेगा ही। खाई सामने है और वे गिरने वाले हैं, गिरने में मुझे उनकी मदद करनी ही चाहिए। तो मैं कहता हूं कि मैं वहां हूं तुम बस छलांग ले लो। और वे छलांग ले लेते हैं! छलांग लेने के बाद उनको पता चलेगा कि वहां कोई भी नहीं था। लेकिन अब तो सारी बात ही समाप्त हो गई, वे वापस नहीं आ सकते।
तो यह एक उपाय है। सभी व्यवस्थाएं मदद करने के उपाय हैं : उन लोगों 'की मदद के लिए जो संदेह से भरे हैं, उन लोगों की मदद के लिए जिनमें श्रद्धा नहीं है, उन लोगों की मदद  के लिए जिनमें भरोसा नहीं है। व्यवस्थाएं इसलिए खड़ी की जाती हैं कि लोग निश्चित होकर अज्ञात में प्रवेश कर सकें। उन व्यवस्थाओं में सब कुछ कहानियों जैसा होता है।
इसीलिए तो इतनी व्यवस्थाएं हैं। महावीर अपनी व्यवस्था बनाते हैं। वह व्यवस्था उनके शिष्यों की आवश्यकताओं के अनुसार बनाई गई है। तो वह एक व्यवस्था बनाते हैं। यह एक कल्पना है, लेकिन बड़ी सहयोगी है, क्योंकि इसके द्वारा कई लोग चले और सत्य तक पहुंचे। और जब वे पहुंचे तो उन्हें पता चल गया कि व्यवस्था झूठ थी, लेकिन उसने काम किया।
बुद्ध सत्य की परिभाषा ही यही करते हैं कि 'जो काम दे'। सत्य की उनकी परिभाषा ही यही है कि 'जो काम दे'। यदि झूठ भी काम आ जाए तो वह सत्य है और यदि कोई सत्य भी काम न आ सके तो झूठ ही है।
इतनी व्यवस्थाएं हैं और हर व्यवस्था मदद करती है। लेकिन सब व्यवस्थाएं सबकी मदद नहीं कर सकतीं। इसीलिए तो पुराने धर्म इस बात पर बल देते थे कि व्यक्ति को अपना धर्म नहीं बदलना चाहिए, क्योंकि समय के साथ मन को तो किसी व्यवस्था में संस्कारित किया जा सकता है और बदला जा सकता है, लेकिन गहरे में तुम नहीं बदलोगे और नई व्यवस्था तुम्हारे लिए कभी उपयोगी नहीं होगी।
एक हिंदू ईसाई बन सकता है, एक ईसाई हिंदू बन सकता है, लेकिन सात वर्ष की उम्र के बाद मन लगभग जड़ हो जाता है संस्कारित हो जाता है। तो यदि कोई हिंदू ईसाई बन जाए तो गहरे में वह हिंदू ही रहेगा और ईसाई व्यवस्था उसकी मदद नहीं करेगी। और स्वयं की व्यवस्था से उसने संबंध खो दिया है जो काम आ सकती थी।
हिंदू और यहूदी हमेशा धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध रहे हैं। धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध ही नहीं, यदि कोई अपने आप उनके धर्म में भी आना चाहे तो वे विरोध करेंगे। वे कहेंगे, 'नहीं, अपने ही मार्ग पर चलो।’ क्योंकि व्यवस्था बड़ी अचेतन घटना है; उसे गहरे अचेतन में होना चाहिए, तभी मदद कर सकती है। वरना वह मदद नहीं कर सकती और वह ऊपर-ऊपर ही होगी। यह भाषा की तरह ही है। तुम कोई भाषा इस तरह नहीं बोल सकते जिस तरह अपनी मातृभाषा बोलते हो, यह असंभव ही है। इसके बाबत कुछ किया नहीं जा सकता। किसी और भाषा में तुम कितने ही कुशल हो जाओ, वह उथली-उथली ही रहेगी। गहरे में तुम्हारी मातृभाषा तुमको प्रभावित करती रहेगी। तुम्हारे सपने तुम्हारी मातृभाषा में ही होंगे अचेतन तुम्हारी मातृभाषा से चलेगा। कुछ भी ऊपर से लादा जा सकता है, लेकिन उसे हटाकर कुछ और नहीं लाया जा सकता।
धार्मिक व्यवस्थाएं भाषा की तरह हैं, वे भाषा ही हैं। लेकिन यदि वे गहरे प्रवेश कर जाएं तो मदद करती हैं क्योंकि तुम्हें भरोसा आ जाता है। व्यवस्था अर्थपूर्ण नहीं है, लेकिन भरोसा अर्थपूर्ण है। तुम्हें भरोसा होता है तो तुम एक निश्चित कदम उठा लेते हो। तुम्हें पता होता है कि तुम कहा जा रहे हो। और यह पता होना मदद करता है।
लेकिन व्यवस्था तोड़ने वाले भी होते हैं और वे भी मदद करते हैं। इसमें एक लयपूर्ण वर्तुल होता है, बिलकुल दिन रात की तरह-फिर से दिन होता है, फिर रात आती है। वे भी मदद करते हैं। क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि जब इतनी व्यवस्थाएं होती हैं तो लोग उलझन में पड़ जाते हैं, और नक्शे से चलने की बजाय, नक्शों इतने बोझिल हो जाते हैं कि वे उन्हें ढो भी नहीं सकते। ऐसा हमेशा होता है।
उदाहरण के लिए, कोई परंपरा, कोई बहुत लंबी परंपरा सहयोगी होती है क्योंकि वह भरोसा देती है कि वह इतनी लंबी है। लेकिन क्योंकि वह इतनी लंबी है, इसलिए बोझिल भी होती है, वह एक मृत बोझ बन जाती है। तो चलने में तुम्हारी मदद करने के बजाय. उसके ही कारण तुम चल नहीं सकते। तुम्हें भारमुक्त होना पड़ेगा। तो परंपरा तोड़ने वाले होते हैं जो तुम्हारे मन से व्यवस्था को हटाते हैं और चलने में तुम्हारी मदद करते हैं।
वे दोनों ही मदद करते हैं, लेकिन यह निर्भर करता है। यह युग पर निर्भर करता है, उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जिसकी मदद की जानी है।
इस युग में व्यवस्थाएं बहुत बोझिल और उलझन भरी हो गई हैं। कई कारणों से पूरी बात ही खो गई है। पहले हर व्यवस्था अपने ही जगत में सीमित थी : जैन पैदा भी जैन की तरह होता था, जीता भी जैन की तरह था और मरता भी जैन की तरह ही था। वह हिंदू शास्त्रों का अध्ययन नहीं करता था, इसका निषेध था। वह मस्जिद या चर्च में नहीं जाता था, वह पाप था। वह अपनी ही व्यवस्था की चारदीवारी में रहता था। कुछ भी विजातीय उसके मन में प्रवेश नहीं करता था। तो कोई उलझन नहीं होती थी।
लेकिन वह सब नष्ट हो गया है और सभी लोग सब बातों से परिचित हैं। हिंदू कुरान पढ़ रहे हैं और मुसलमान गीता पढ़ रहे हैं। ईसाई पूर्व की ओर आ रहे हैं और पूर्व पश्चिम की ओर जा रहा है। सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है। व्यवस्था से जो भरोसा आता था, वह अब नहीं रहा। सब कुछ तुम्हारे मन में प्रवेश कर गया है और सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है। अब अकेले जीसस ही नहीं हैं, कृष्ण भी प्रवेश कर गए हैं, मोहम्मद भी प्रवेश कर गए हैं। और तुम्हारे भीतर एक-दूसरे का विरोध कर रहे हैं। अब कुछ भी निश्चित नहीं है।
बाइबिल एक बात कहती है और गीता बिलकुल उसके विपरीत बोलती है। मोहम्मद एक बात कहते हैं और महावीर उनके बिलकुल विपरीत बोलते हैं। उन दोनों ने एक-दूसरे का विरोध किया है। तुम कहीं के भी न रहे। तुम कहीं के भी नहीं हो, बस उलझन में खड़े हो। कोई भी मार्ग तुम्हारा नहीं है। मन की ऐसी दशा में व्यवस्था तोड़ना सहयोगी हो सकता है।
इसीलिए पश्चिम में कृष्णमूर्ति का इतना आकर्षण है। पूर्व में उनका इतना आकर्षण नहीं है क्योंकि पूर्व अभी भी उतना उलझन में नहीं है, जितना कि पश्चिम, क्योंकि पूर्व अभी भी दूसरों के बारे में इतना परिचित नहीं है। पश्चिम दूसरों के बारे में जानने से अभिभूत है। वे बहुत अधिक जानते हैं। अब कोई व्यवस्था वास्तविक नहीं है, उन्हें पता है कि सब कुछ मान्यता है। और एक बार तुम्हें यह पता चल जाए तो वह काम नहीं देगी।
कृष्णमूर्ति उनको आकर्षित करते हैं क्योंकि वह कहते हैं कि सब व्यवस्थाएं छोड़ दो। यदि तुम सब व्यवस्थाएं छोड़ दोगे तो उलझन से मुक्त हो जाओगे। लेकिन यह तुम पर निर्भर करेगा। ऐसा हो सकता है, जैसा कि लगभग हमेशा ही होता रहा है, कि सब व्यवस्थाएं तो बनी ही रहेंगी, व्यवस्थाओं को छोड़ने की यह व्यवस्था और आ जाएगी। एक रोग और जुड़ जाएगा।
जीसस बोले चले जाते हैं, कृष्ण बोले चले जाते हैं और फिर कृष्णमूर्ति भी आ जाते हैं-तुम्हारा मन बेबल की मीनार बन जाता है। इतनी आवाजें हैं और तुम समझ नहीं सकते कि क्या हो रहा है। तुम्हें लगता है कि तुम पागल हो गए हो।
यदि तुम किसी व्यवस्था में विश्वास कर सको तो अच्छा है; यदि तुम किसी भी व्यवस्था में विश्वास नहीं कर सकते तो सभी छोड़ दो। फिर बिलकुल स्वच्छंद, बोझमुक्त हो जाओ। लेकिन इन दो विकल्पों के बीच में मत लटके रहो। और ऐसा लगता है कि जैसे सब बीच में ही हैं। कभी तुम दाईं ओर चले जाते हो, कभी बाईं ओर, फिर दाईं ओर, फिर बाईं ओर। घड़ी के पेंडुलम की तरह तुम एक ओर से दूसरी ओर जाते रहते हो। इस गति से तुम्हें लग सकता है कि तुम आगे बढ़ रहे हो।
तुम कहीं भी नहीं बढ़ रहे हो। हर कदम दूसरे को काट देता है, क्योंकि जब तुम दाईं ओर जाते हो और फिर बाईं ओर जाते हो तो अपना ही विरोध करते रहते हो। अंत में बस तुम उलझ जाते हो, परेशान होते हो, ऊहापोह में पड़ जाते हो।
तो या तो पूरी तरह बोझमुक्त हो जाओ। वह सहयोगी होगा। तुम स्वच्छ, निर्दोष और बालवत हो जाओगे और उड़ान भर सकोगे। या फिर, यदि वह बात तुम्हें बहुत खतरनाक लगती है, यदि तुम बोझमुक्त होने से डरते हो क्योंकि उससे तुम एक खालीपन में, एक रिक्तता में पहुंच जाओगे यदि वह बोझमुक्त होना तुम्हें खतरनाक लगता है और तुम भयभीत हो, तो फिर कोई व्यवस्था चुन लो।
लेकिन कई ऐसे लोग हैं जो तुम्हें बताए चले जाते हैं कि सब कुछ एक ही है, कुरान भी वही कहती है बाइबिल भी वही कहती है गीता भी वही कहती है, उनका संदेश एक ही है। ये लोग बड़े उलझन में डालने वाले हैं। कुरान, बाइबिल, गीता एक ही बात नहीं कहती, वे व्यवस्थाएं हैं स्पष्ट व्यवस्थाएं हैं बिलकुल भिन्न हैं। न केवल भिन्न हैं, बल्कि कई जगह विपरीत और विरुद्ध हैं।
उदाहरण के लिए, महावीर कहते हैं कि अहिंसा ही कसौटी है। यदि तुम हिंसक हो थोड़े से भी हिंसक हो, परम सत्य का द्वार तुम्हारे लिए बंद हो जाता है। यह एक विधि है। पूर्णतया अहिंसक होने के लिए तुम्हारे मन और शरीर दोनों की परिपूर्ण शुद्धि जरूरी है। तुम्हें पूर्णतया शुद्ध होना पड़ेगा, तभी तुम अहिंसक हो पाओगे। अहिंसक होने की यह प्रक्रिया तुम्हें इतना शुद्ध कर देगी कि प्रक्रिया ही परिणाम बन जाएगी।
इससे ठीक उलटा कृष्ण का संदेश है। वह अर्जुन से कहते हैं, 'तू मारने से मत डर, क्योंकि आत्मा को नहीं मारा जा सकता। तू शरीर को तो मार सकता है लेकिन आत्मा को नहीं मार सकता। तो किसलिए डरना? और शरीर तो मरा ही हुआ है। तो जो मरा ही हुआ है वही मरेगा और जो जीवित है वह जीवित ही रहेगा। तुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह तो बस एक लीला है।’
वह भी सही हैं, क्योंकि यदि तुम इस सूत्र को समझ सको कि आत्मा को नष्ट नहीं किया जा सकता तो फिर पूरा जीवन एक लीला, एक कल्पना एक नाटक बन जाता है। और यदि पूरा जीवन एक नाटक बन जाए, हत्या और आत्महत्या तक तुम्हारे लिए नाटक बन जाएं-विचार में ही नहीं, बल्कि तुम यह अनुभव कर लो कि सब कुछ स्वप्न मात्र ही है-तो मृत्यु भी तुम्हें साक्षी ही बनाएगी। और वह साक्षित्व अतिक्रमण बन जाएगा, तुम संसार के ऊपर उठ जाओगे। पूरा जीवन एक नाटक बन जाता है; न कुछ अच्छा है, न बुरा है, बस एक सपना है। तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन ये दो बातें बिलकुल भिन्न हैं। अंतत: वे एक ही बिंदु पर ले जाती हैं, पर उनको आपस में मत मिलाना। यदि तुम उन्हें मिलाओगे तो तुम पीड़ित होओगे। व्यवस्था बनाने वाले भी तुम्हारी मदद के लिए हैं और व्यवस्था तोड़ने वाले भी तुम्हारी मदद के लिए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि कोई भी मदद नहीं कर पाया। तुम ऐसे हो, इतने हठी और इतने चालाक हो कि तुम बच निकलने के लिए सदा ही कोई न कोई उपाय खोज लेते हो।
बुद्ध और कृष्ण और जीसस, हर सदी में वे कुछ बातें सिखाते चले जाते हैं। तुम सुनते रहते हो, लेकिन तुम बड़े चालाक हो। तुम सुनते हो और फिर भी नहीं सुनते। तुम सदा कुछ न कुछ खोज लेते हो, कोई जगह, जहां से तुम बचकर निकल सको। अब आधुनिक मन ने एक चाल खोज ली है कि यदि कोई व्यवस्था है-यदि गुरजिएफ सिखा रहा है-तो लोग उसके पास जाएंगे और कहेंगे, 'कृष्ण मूर्ति कहते हैं कि कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।’ यही लोग कृष्णमूर्ति के पास जाएंगे-कृष्णा मूर्ति अव्यवस्था सिखाते हैं-और वे कहेंगे, 'लेकिन गुरजिएफ कहते हैं कि व्यवस्था के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।’
तो गुरजिएफ के पास वे कृष्णमूर्ति का एक तरकीब की तरह उपयोग करते हैं और कृष्णमूर्ति के पास वे गुरजिएफ से बचने के लिए एक चाल की तरह उपयोग करते हैं। लेकिन वे किसी और को धोखा नहीं दे रहे, वे स्वयं को ही नष्ट कर रहे हैं।
गुरजिएफ मदद कर सकते हैं, कृष्णमूर्ति मदद कर सकते हैं, लेकिन तुम्हारे सहयोग के बिना वे मदद नहीं कर सकते। तुम्हें कुछ बातों के विषय में निश्चित होना चाहिए। एक, तुम्हें मदद चाहिए या नहीं चाहिए। दूसरे, तुम बिना किसी भय के अज्ञात में अकेले प्रवेश कर सकते हो या नहीं कर सकते। और तीसरे, तुम बिना किसी उपाय, बिना किसी विधि, बिना किसी व्यवस्था के एक भी इंच चल सकते हो या नहीं। इन तीन बातों का तुम्हें अपने भीतर निर्णय ले लेना है। अपने मन का विश्लेषण करो, उसे खोलो, उसमें झांको और निर्णय लो कि किस तरह का मन तुम्हारे पास है।
यदि तुम यह निर्णय लो कि तुम इसे अकेले नहीं कर सकते हो तो तुम्हें किसी व्यवस्था, किसी गुरु, किसी शास्त्र, किसी विधि की जरूरत है। यदि तुम सोचते हो कि तुम इसे अकेले ही कर सकते हो तो तुम्हें किसी और चीज की जरूरत नहीं है। तुम ही गुरु हो, तुम ही शास्त्र हो, तुम ही विधि हो।
लेकिन ईमानदार बनो और यदि तुम्हें लगे -कि निर्णय करना असंभव है-निर्णय लेना
इतना सरल नहीं है-यदि तुम्हें उलझन महसूस हो तो किसी गुरु के पास जाकर देखो, किसी विधि, किसी व्यवस्था का उपयोग करके देखो। और उसको पूरी ताकत से बिलकुल अति से करके देखो, ताकि यदि कुछ होने वाला है तो हो जाए। यदि कुछ भी नहीं होने वाला तो तुम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां यह निर्णय कर सको कि अब तुम्हें ही सब करना होगा, तुम अकेले होओगे। वह भी अच्छा होगा।
लेकिन मेरा सुझाव है कि हमेशा शुरुआत तो तुम्हें किसी गुरु, किसी व्यवस्था, किसी विधि से ही करनी चाहिए, क्योंकि दोनों तरह से यह अच्छा ही होगा। यदि तुम उससे उपलब्ध हो सको तो अच्छा है; यदि उससे उपलब्ध न हो सको, तो फिर पूरी बात ही व्यर्थ हो जाती है और तुम उसे छोड़कर अकेले आगे बढ़ सकते हो। फिर कृष्णमूर्ति को तुम्हें यह बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि किसी गुरु की जरूरत नहीं है, तुम जानते ही हो। फिर तुम्हें किसी झेन-देशना के यह बताने की जरूरत नहीं रहेगी कि अपने शास्त्र फेंक दो और जला दो, तुम उन्हें अपने आप ही जला दोगे।
तो किसी गुरु के साथ, किसी व्यवस्था के साथ, किसी विधि के साथ शुरू करना अच्छा है, लेकिन निष्ठावान रहो। जब मैं कहता हूं निष्ठावान तो मेरा यह अर्थ है कि गुरु के साथ तुम जो भी कर सकते हो, करो; ताकि जो भी होना हो, हो जाए। यदि कुछ नहीं होता तो तुम यह निष्कर्ष निकाल सकते हो कि यह मार्ग तुम्हारे लिए नहीं है और तुम अकेले आगे बढ़ सकते हो।

आज इतना ही।

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