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गुरुवार, 1 नवंबर 2018

शून्य समाधि-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विस्मय का भाव)

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुबह की चर्चा में जीवन के सत्य की ओर मनुष्य का कदम उठ सकेगा, इसके पहले सूत्र की हमने बात की है। उस संबंध में एक मित्र ने पूछा है कि मैं विस्मय को, आश्चर्य को, क्यों पहली सी.ढ़ी मानता हूं?
इसलिए पहली सीढ़ी मानता हूं, इसलिए पहला सूत्र मानता हूं, क्योंकि जो विस्मय-विमुग्ध हो जाता है उसकी विस्मय-विमुग्धता, उसके आश्चर्य का भाव सारे जगत को एक रहस्य में, एक मिस्ट्री में परिणित कर देता है। भीतर विस्मय है, तो बाहर रहस्य उत्पन्न हो जाता है। भीतर रहस्य न हो, भीतर विस्मय न हो, तो बाहर रहस्य के उत्पन्न होने की कोई संभावना नहीं है। जो भीतर विस्मय है, वही बाहर रहस्य है। और जिसके प्राणों में रहस्य की जितनी प्रतिछवि अंकित होती है, वह उतना ही परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। लोग कहते हैं, परमात्मा एक रहस्य है। और मैं आपसे कहना चाहूंगा, जहां रहस्य है वहीं परमात्मा है। रहस्य ही परमात्मा है। वह जो मिस्टीरियस है, वह जो जीवन में अबूझ है, वह जो जीवन में अव्याख्य है, वह जिसे जीवन में समझाना और समझना असंभव है, जो बुद्धि की समस्त सीमाओं को पार करके, बुद्धि की समस्त सामथ्र्य से दूर रह जाता है, अतीत रह जाता है, वह जो ट्रांसेडेंटल है, वह जो भावातीत है, वही प्रभु है।

लेकिन उस प्रभु को जानने के लिए धीरे-धीरे हमारे भीतर विस्मय की क्षमता गहरी से गहरी होती चली जाए, हमारे पास ऐसी आंखें हों जो निपट प्रश्नवाचक ढंग से सारे जीवन को देखने के लिए पात्र हो जाएं, जो पूछें और जिनके पास कोई उत्तर न हो, जो पूछें और मौन खड़े रह जाएं। जिनका प्रश्न अंतरिक्ष में गूंजता रह जाए और जिनके पास कोई भी उत्तर न हो, उनके प्राणों का संबंध उससे हो जाता है जो जीवन का सत्य है, जहां जीवन का मंदिर है। विस्मय कर देता है मनुष्य को विनम्र। विस्मय अकेली ह्युमिलिटी है। विस्मय में ही विनम्रता उत्पन्न होती है। क्योंकि जब मुझे ज्ञात होता है कि मैं नहीं जानता हूं, तो मेरे अहंकार को खड़े होने की कोई भी जगह नहीं रह जाती। ज्ञान अहंकार को मजबूत कर देता है, विस्मय अहंकार को विदा कर देता है।
बच्चों के पास अहंकार नहीं होता, बूढ़ों के पास इकट्ठा हो जाता है। अज्ञानी के पास अहंकार नहीं होता, ज्ञानी के पास इकट्ठा हो जाता है। अज्ञान का जो बोध है, इस बात की जो स्मृति है कि मैं नहीं जानता हूं, वह मनुष्य के भीतर सख्त गांठ को पिघला देती है जिसे हम अहंकार कहते हैं। और वह गांठ जितनी मजबूत होती चली जाए उतना ही मनुष्य अंधा हो जाता है। क्योंकि उसे फिर प्रत्येक चीज मालूम पड़ती है कि मैं जानता हूं और उसके जीवन में रहस्य, मिस्ट्री जैसी कोई भी चीज नहीं रह जाती।
यह जो मनुष्य-जाति इतनी अधार्मिक होती चली गई है, वह इसलिए ही, विस्मय के भाव की हत्या कर दी गई है। पहले धर्मशास्त्रों ने इसकी हत्या की फिर पीछे विज्ञान ने उसकी हत्या कर दी। पहले धार्मिक लोग इस तरह के दावे करते रहे कि हम सब कुछ जानते हैं, हम ईश्वर को भी जानते हैं, आत्मा को भी, पुनर्जन्म को भी, परलोक को भी, स्वर्ग को भी, नरक को भी, सब कुछ जानते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम नहीं जानते और हमारे शास्त्र में नहीं लिखा हुआ है। जीवन का सब कुछ जान लिया गया, जीवन व्यर्थ हो गया। अर्थ वही है जहां कुछ अज्ञात शेष रहता है। जहां हम ठगे खड़े रह जाते हैं और नहीं कह पाते कि हम जानते हैं। तो धर्मशास्त्रों ने एक भ्रम पैदा कर दिया कि हम सब जानते हैं। फिर पीछे विज्ञान आया उसी धारा में और विज्ञान ने भी दावे शुरू किए कि हम सब जानते हैं। धीरे-धीरे यह दावा इतना गहरा हो गया मनुष्य के मन में कि उसे यह ख्याल ही मिट गया कि हमारा जानना न कुछ के बराबर है।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाऊं।
एक धर्मगुरु ने एक रात सपना देखा। सपना कि वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया है। उसने जाकर स्वर्ग के द्वार पर देखा कि परमात्मा उसे लेने को, स्वागत करने को वहां खड़ा है या नहीं? वे लोग जो थोड़ी सी माला फेर लेते हैं, वे जो लोग पीले वस्त्र पहन लेते हैं, वे लोग जो सुबह मंदिर हो आते हैं वे सोचते हैं कि जब स्वर्ग के द्वार पर जाएं तो परमात्मा दरवाजे पर उनका स्वागत करता हुआ मिले। उस धर्मगुरु ने भी सोचा तो बुरा नहीं सोचा, उसकी अपेक्षा बिल्कुल न्यायसंगत थी। जीवन भर वह परमात्मा का ही स्मरण करता रहा, उसके ही गीत गाता रहा, उसके ही चरणों में पूजा चढ़ाता रहा, तो इतनी अपेक्षा तो बेचारा कर ही सकता था कि द्वार पर वे मिलेंगे। लेकिन द्वार बंद था। और द्वार पर उसने हाथ पीटने शुरू किए। लेकिन द्वार इतना बड़ा था, इतना बड़ा कि उसके हाथ की चोट ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे किसी पहाड़ पर कोई चींटी आवाज करती हो। कोई ध्वनि पैदा नहीं होती थी। वह बहुत घबड़ाया। उसने तो हमेशा यही पढ़ा था धर्मशास्त्रों में: गॅाड क्रिएटेड मैन इन हिज ओन इमेज। उसने तो यही पढ़ा था कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शक्ल में बनाया है। आज उसे पता चला कि यह दरवाजा इतना बड़ा है, इसके कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ते। मुझे पहली दफा पता चल रहा है कि मैं कहां आ गया हूं। मेरी कहां खोज खतम होती है। यहां कौन मुझे पहचानेगा?
बहुत चिल्लाने, चीख-पुकार मचाने पर एक खिड़की खुली, एक विराट खिड़की, जैसे आकाश ही खुल गया हो, और कोई सिर उससे झांका। कोई सिर जिसके आयाम की भी कल्पना करनी कठिन होगी। और उस सिर से हजारों आंख झांकने लगीं, और एक-एक आंख एक-एक सूरज की भांति। वह धर्मगुरु घबड़ाया। और एक छोटी सी ओट में छिप गया और वहां से चिल्लाने लगा कि हे परमात्मा, आप भीतर ही रहिए। आपकी आंखें इतनी तेज हैं कि मैं बहुत डरा जा रहा हूं, मेरे प्राण सूखे जा रहे हैं। आप भीतर से ही दर्शन दीजिए, आप परदे के भीतर ही ठीक हैं। लेकिन वह हजार आंखों वाला आदमी हंसने लगा और उसने कहा: मैं परमात्मा नहीं हूं, यहां का सबसे अदना नौकर, यहां का पहरेदार, यहां का द्वारपाल हूं। मैं परमात्मा नही हूं।
तब तो वह धर्मगुरु बहुत घबड़ाया। हिम्मत जुटा कर थोड़ा बाहर निकला, क्योंकि द्वारपाल से इस भांति घबड़ा जाना उचित नहीं। लेकिन उसकी आंखों के सामने टिकना बहुत मुश्किल था। और फिर वह द्वारपाल कहने लगा कि तुम कहां छिपे हो, मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता? हजार आंखें और सूरज की तरह की आंखें। लेकिन उनमें भी आदमी कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है। वह धर्मगुरु बोला: क्या कहते हो, मैं दिखाई नहीं पड़ता हूं? मैं परमात्मा से मिलने आया हूं। मैं उस खास धर्म का प्रचारक हूं। परमात्मा ने ही जिसकी किताब दुनिया में भेजी है। वह द्वारपाल हंसने लगा और उसने कहा, सभी को यही वहम है कि हरेक की किताब भगवान ने ही भेजी है। वेद भी भगवान ने, बाइबिल भी, कुरान भी, गीता भी, सभी किताबें भगवान ने भेजी हैं। सभी को यही ख्याल है। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं तुम आते कहां से हो? उस आदमी ने कहा: मैं, मैं पृथ्वी से आ रहा हूं। वह द्वारपाल हंसने लगा और उसने कहा: ठीक-ठीक नंबर बताओ, इंडेक्स नंबर तुम्हारी पृथ्वी का क्या है? क्योंकि बहुत पृथ्वियां है, अनंत पृथ्वियां हैं। किसका पता, तुम किस पृथ्वी से आते हो।
यह तो उस धर्मगुरु ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी पृथ्वी के अलावा भी कोई पृथ्वी है। उसने कहा कि वही पृथ्वी जो सूरज के आस-पास है, सौर-परिवार में है, सूर्य वाली पृथ्वी।
वह द्वारपाल हंसने लगा और उसने कहा: तुम्हारे अज्ञान पर मुझे हंसी आती है। तुम कैसे धर्मगुरु? तुम्हें शायद यह पता नहीं कि कितने सूरज हैं! अनंत सूर्य हैं, अनंत सूर्यों की अनंत पृथ्वियां हैं। तुम नंबर बता सको अपने सूरज का, तो कुछ खोज-बीन की जा सकती है कि तुम कहां से आते हो।
उस धर्मगुरु ने कहा कि मैं मनुष्य हूं, यह मनुष्य के साथ कैसा अपमान हो रहा है भगवान के द्वार पर? मैं कोई साधारण कीड़ा-मकोड़ा नहीं हूं, मैं कोई पशु-पक्षी नहीं हूं, मैं मनुष्य-जाति का प्राणी हूं, मैं सर्वश्रेष्ठ प्राणी हूं, भगवान ने अपनी ही शक्ल में मुझे बनाया। वह द्वारपाल हंसने लगा उसने कहा: आदमी! यह नाम पहली बार ही इस दरवाजे पर सुना जा रहा है। लेकिन हम पता करने की कोशिश करेंगे। शायद पता लग जाए तुम कहां से आ रहे हो। और वह द्वार बंद हो गया। और समय बीतने लगा और उस द्वार के खुलने की कोई संभावना न दिखाई दी। फिर नींद में घबड़ा कर, ऊब कर उस धर्मगुरु की नींद खुल गई। वह अपने बिस्तर पर पड़ा था, और उसके चेहरे पर पसीना था, और उसकी आंखें आंसुओं से गीली थीं, और उसका हृदय धक-धक कर रहा था। वह बहुत भयानक दुःस्वप्न में से गुजरा था। उसकी समझ में भी नहीं आया कि यह क्या था।
लेकिन यह सचाई है, यह सपना नहीं है। अनंत है जीवन। यह जानने की, जिन सूर्यों की खोज-बीन की है, उनकी संख्या दो अरब हो गई है। दो अरब सूर्यों का पता तो विज्ञान को है। लेकिन उन दो अरब सूर्यों पर अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, उसके आगे भी, उसके आगे भी, उसके आगे भी और कितना फासला है इस अस्तित्व का? सूरज जमीन से कितनी दूर है, यह जमीन हमें बहुत बड़ी मालूम पड़ती है। हमें तो राजकोट ही बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। हमें तो अपना घर ही बहुत बड़ा मालूम पड़ता है, हम तो खुद ही बहुत बड़े मालूम पड़ते हैं। लेकिन यह पृथ्वी कितनी बड़ी है, शायद इस जगत में इससे छोटा और क्या हो सकता है? सूरज इससे साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन सूरज बहुत बड़ा नहीं है, सूरज सारे जगत में अब तक ज्ञात तारों में, ज्ञात सूर्यों में सबसे छोटा सूरज है। सूरज से हमारा फासला बहुत है, लेकिन सूरज कोई बहुत दूरी पर नहीं है। जो सबसे निकट का सूरज है इस सूर्य के बाद, उससे प्रकाश की रोशनी चले तो हम तक आने में चार वर्ष लग जाते हैं। और शायद आपको पता होगा कि प्रकाश की रोशनी किस गति से चलती है, एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रकाश की किरण चलती है। सबसे करीब इस सूरज को छोड़ कर जो तारा है हमारे, उससे जमीन तक रोशनी आने में चार वर्ष लग जाते हैं। उससे दूर के जो तारे हैं..किसी से सौ वर्ष, किसी से हजार वर्ष, किसी से लाख वर्ष, किसी से करोड़ वर्ष। पृथ्वी को बने हुए दो अरब वर्ष हुए हैं, ऐसे तारे हैं जिनसे दो अरब वर्ष पहले चली हुई किरण अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंच सकी। और तारे होंगे जिनकी किरणें शायद हम तक कभी भी नहीं पहुंच सकेगी।
यह जो अंतहीन अनंत विस्तार है, इसके बीच जिसको यह ख्याल हो जाता हो कि हम जानते हैं, वह पागल हो गया। इस अंतहीन विस्तार के प्रति जो भी जागेगा उसका विस्मय जाग जाएगा, उसके भीतर आश्चर्य जाग जाएगा। वह चकित, वह अवाक खड़ा रह जाएगा कि यह क्या है? उसे कोई भी उत्तर नहीं सूझेगा। उसे सब उत्तर बचकाने और चाइल्डिश मालूम होंगे..चाहे धर्मगुरुओं के, चाहे वैज्ञानिकों के, उसे उत्तर मात्र बचकाने मालूम होंगे। इस अंत और आदिहीन विस्तार के लिए क्या उत्तर हो सकता है आदमी के पास, क्या व्याख्या हो सकती है, क्या एक्सप्लेनेशन हो सकता है। व्याख्या देने की, परिभाषा करने की चेष्टा ही शायद नासमझी है। वे लोग बहुत भाग्यशाली हैं जो चुपचाप मौन में इस विस्तार को जानने में समर्थ हो जाते हैं। इस चित्त-दशा को मैंने विस्मय कहा है, इस चित्त-दशा को मैंने आश्चर्य कहा, इस आश्चर्य से गुजर कर ही कभी किसी ने कुछ जाना हो तो जाना हो।
ज्ञान के बोझ को लेकर तो कोई कभी नहीं जान पाता। ज्ञान का बोझ तो मृत बोझ है।
एक फकीर एक सुबह ही भीख मांगने गया था और किसी मित्र ने उसे थोड़ा सा मांस भेंट कर दिया और साथ में एक किताब भी दी, एक पाकशास्त्र भी दिया कि इस किताब में इस मांस को बनाने की विधि लिखी हुई है। वह उस किताब को और मांस को लेकर खुशी-खुशी अपने झोपड़े की तरफ भागा चला जा रहा है। एक चील झपटी और उसके मांस को हाथ से छीन कर उड़ गई। वह फकीर खड़े होकर हंसने लगा और उसने कहा: मूर्ख चील, मांस को ले जाकर क्या करेगी, बनाने की तरकीब की किताब मेरे पास है। आ गई धोखे में। वह खुशी-खुशी घर पहुंचा और उसने अपनी पत्नी को कहा: सुनती हो, एक चील मूर्ख बन गई अपने हाथ। मांस छीन कर ले गई, और पागल को पता भी नहीं कि बनाने की तरकीब की किताब मैं ले आया।
उसकी पत्नी ने अपना सिर ठोंक लिया और उसने कहा: तुम कैसे ज्ञानी हो यह मुझे समझ में आ गया। जिंदगी छूट जाती है, किताब हाथ में रह जाती है। जिंदगी छूट जाती है, ज्ञान हाथ में रह जाता है। कोरा कागज, कोरे शब्द, और हम बड़े खुश होते हैं कि हम किताब अपनी बचा कर घर ले आए।
जो कौमें हजारों साल तक किताबें बचा लेती हैं वे बहुत नाच-गान, बहुत शोरगुल करती हैं कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। हमने बहुत दिनों से बचाई है, और किताब ही बच जाती है हाथ में और जीवन चूक जाता है। सच तो यह है कि किताब को पकड़ने वाला चित्त जीवन को पकड़ने वाला चित्त नहीं होता है। ये दिशाएं अलग हैं। शब्दों को पकड़ लेने वाला चित्त, सत्य को पकड़ लेने वाला चित्त नहीं होता है। ये आयाम अलग हैं, ये मार्ग अलग हैं। शब्दों को पकड़ लेने वाला करता क्या है? शब्दों को सीखता है, स्मरण करता है, मेमोरी को परिपक्व करता है, स्मृति को भरता है, स्मृति के संग्रह को मजबूत करता है। बहुत सी इनफर्मेशन, बहुत सी सूचनाएं इकट्ठी करता है। और इन्हीं सूचनाओं के घेरे में जानता है, सोचता है कि मैंने जान लिया। सूचनाओं का जानने से क्या संबंध? क्या नाता? सूचनाएं तो मशीनों में भी संगृहीत की जा सकती हैं, सूचनाएं तो मशीनें भी दे सकती हैं। आदमी अगर सूचनाएं इकट्ठी कर लेता है तो इससे कुछ ज्ञानी हो जाने का संबंध है? ज्ञान बड़ी और बात है, ज्ञान तो समग्र जीवन का आमूल परिवर्तन है। ज्ञान बौद्धिक सूचनाओं का संग्रह नहीं, समग्र आत्मा का आमूल परिवर्तन है। ज्ञान एक नये जीवन में गति है। ज्ञान शब्दों का संग्रह नहीं, सत्य का अनुभव है। और उस अनुभव के लिए शास्त्रों और शब्दों को पकड़ लेने वाले लोग हमेशा के लिए दीवाल बना लेते हैं, यह मैंने सुबह आपसे कहा है। इसलिए मैंने कहा, विस्मय की आंखें वापस उपलब्ध कर लें। ज्ञानी का अहंकार छोड़ दें। विस्मय-विमुग्ध बच्चे के भाव को, निर्दोष भाव को ले आएं।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कैसे हम छोड़ दें?

मैंने सुबह भी कहा, शायद वे नहीं सुन पाए। मैंने नहीं कहा कि आप भूल जाएं, मैंने नहीं कहा कि यहां से जाते वक्त आपको अपने घर का पता न रह जाए। मैंने नहीं कहा कि आप अपना नाम भूल जाएं। यह सब मैंने नहीं कहा। मैंने सिर्फ इतना कहा है कि इस बात को आप जान लें कि जो आपने शब्दों से, सूचनाओं से जाना है वह ज्ञान नहीं है। बस इतना काफी है। इतना जानते ही आपके प्राणों में एक नई बेचैनी की लहर दौड़ जाएगी कि फिर ज्ञान क्या है?
एक आदमी पत्थर को हाथ में रखे हुए है, सम्हाले हुए है और समझ रहा है कि यह पत्थर बहुमूल्य हीरा है। मैं उससे नहीं कहता कि इसे छोड़ दे और फेंक दे। मैं उससे यही अगर कह पाऊं कि यह हीरा नहीं है, पत्थर है, और उसे याद आ जाए कि यह पत्थर है और ख्याल आ जाए और समझ आ जाए, तो बात पूरी हो गई। फेंकना और न फेंकने का सवाल नहीं है।
पत्थर दिखाई पड़ते ही उसके प्राणों का वह सारा संबंध टूट गया जो हीरे के साथ था, और पत्थर के साथ नहीं हो सकता।
दो संन्यासी एक राह से, एक जंगल से गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, वह अपने कंधे पर झोली लटकाए हुए है, पीछे उसका साथी है। रात पड़ गई, अंधेरा घना होने लगा, और बीहड़ अनजान जंगल। वह बूढ़ा संन्यासी अपने युवा मित्र से पूछने लगा: जंगल में कोई डर तो नहीं है? कोई भय तो नहीं है? जंगल अंधेरा मालूम पड़ता, रात खतरनाक मालूम पड़ती। युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ। क्योंकि संन्यासी को कैसा भय? और जिसे भय हो वह कैसा संन्यासी? और आज तक इस बूढ़े ने कभी भी नहीं पूछा था कि रात अंधेरी है, जंगल है। क्या हो गया है आज? आज कैसे भय ने इसके प्राणों को आतंकित कर रखा है? फिर थोड़ी देर बाद और वह बूढ़ा फिर पूछने लगा, रास्ता खतरनाक तो नहीं है? चोर-बदमाशों का डर तो नहीं है? युवक तो बहुत हैरान हुआ! आज हो क्या गया है? संन्यासी के पास खोने को ही कुछ नहीं तो चोर और डाकू का सवाल क्या? फिर वे एक कुएं पर रुके पानी पीने को, वह बूढ़ा कुएं पर पानी भरने लगा, उसने अपने कंधे का झोला युवक को दिया और कहा, सम्हाल कर रखना। तभी उस युवक को ख्याल आया कि भय का कोई न कोई कारण झोले के भीतर होना चाहिए। उसने, बूढ़ा तो पानी पीने लगा, उस युवक ने हाथ डाला भीतर, देखा, सोने की एक पूरी ईंट। उसने वह ईंट तो उठा कर झोले के बाहर फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उठा कर झोले में वापस रख दिया। बूढ़े ने जल्दी से पानी लिया, चारों तरफ झांक कर देखा, जल्दी से झोले को कंधे पर टांगा, ऊपर से टटोल कर देखा, ईंट है, वह चल पड़ा। थोड़ी देर बाद फिर उसने पूछा, कि कोई खतरा तो नहीं है? रास्ता खतम नहीं होता, गांव दूर मालूम पड़ता है। उस युवक ने कहा: अब आप बेफिकर हो जाएं, अब कोई खतरा नहीं है। खतरे को मैं पीछे फेंक आया हूं।
वह तो घबड़ा गया। उसने झोली में हाथ डाला, ईंट निकाल कर देखी; वह तो पत्थर की ईंट थी। एक क्षण को तो वह चुपचाप खड़ा रह गया उस घनी रात में, फिर उसने वह ईंट फेंक दी। फिर वह वहीं बैठ गया और उसने अपने युवा साथी को कहा: अब हम व्यर्थ ही गांव तक जाने की चिंता न करें, आज रात यहीं सो जाएं, सुबह चले चलेंगे, अब कोई भय न रहा। उस बूढ़े ने कहा, आश्चर्य है, अब कोई भय न रहा। अब तक मैं भयभीत था। अब न रात रही, अब न चोर रहे, न डाकू रहे। अब कोई भय न रहा, कोई खतरा न रहा।
क्या हो गया? बात क्या हो गई? जिसे अब तक वह सोने की ईंट समझे था, वह पत्थर की ईंट थी, बात खत्म हो गई। सोने की ईंट वहां नहीं थी। लेकिन ऊपर से झोले को टटोल रहा था तो ईंट मालूम पड़ती थी कि भीतर है, वजन मालूम पड़ता था। पत्थर में भी वजन होता है और सोने में भी वजन होता है। हाथ बताते थे कि है ईंट, मौजूद है। वह भयभीत छाती से दबाए उस ईंट को बढ़ा जाता था। लेकिन फिर झोला खोला और देखा।
सीखे हुए ज्ञान में भी वजन होता है पत्थर जैसा, जाने हुए ज्ञान में भी वजन होता है सोने जैसा। हाथ को दोनों वजन एक से मालूम पड़ते हैं। तराजू पहचान नहीं सकता कि कौन पत्थर है और कौन सोना है। पहचानने के लिए खुली आंखें चाहिए। अपनी खोपड़ी के भीतर, अपने झोले के भीतर झांक कर देख लेना चाहिए कि जो हम रखे हैं वह कहीं सीखा हुआ, दूसरों से उधार और बासा ज्ञान तो नहीं है? अन्यथा वह पत्थर है। अगर खुद का जाना हुआ, अगर खुद का जीया हुआ और खुद की अनुभूति में आई हुई कोई खबर है, कोई किरण है, तो वह बात दूसरी है, वह सोना दूसरा है। इस बात को जो पहचानता है भीतर, उसे कुछ फेंकना नहीं पड़ता। फेंकने का कोई सवाल नहीं है, बात खत्म हो जाती है। कोई संबंध टूट जाता है, कोई नाता बदल जाता है, कोई चीज ट्रांसफार्म हो जाती है। जो मिट्टी निकल आई, जो पत्थर निकल आया, उसके साथ वही संबंध नहीं रह जाता जो सोने के साथ था।
अगर हम अपने शास्त्रों और शब्दों के ज्ञान को ज्ञान समझते हैं, तो एक तरह का संबंध होगा उससे। और हम अगर उसे मात्र जानकारी समझते हैं, तो दूसरे तरह का संबंध होगा उससे। ये दोनों संबंध बुनियादी रूप से भिन्न हैं। और अगर जानकारी को हमने ज्ञान समझ रखा है, तो हम मिथ्या संबंध को निर्मित कर लेंगे। वही संबंध भटकाता है और जीवन को नष्ट कर देता है।
इसलिए मैंने कहा कि विस्मय चाहिए। और सीखे हुए ज्ञान से, सीखे हुए ज्ञान के प्रति एक जागृति, एक होश, एक समझ चाहिए। इस समझ को जितना हम विकसित करेंगे उतना ही आप पाएंगे कि एक बोझ हटता चला गया है। आप जानते हैं सब जो कल जानते थे वह कहीं भूल नहीं गया, वह कहीं खो नहीं गया, लेकिन अब आप एक बात और भी जानते हैं कि वह आपके प्राणों का हिस्सा नहीं है, वह आपकी अपनी आत्मा की ज्योति नहीं है, वह आपकी अपनी संपदा नहीं है। वह है पराई, वह है उधार, वह है ऋण। और ऋण से कभी कोई धनी नहीं होता है। वह बॅारोड है, वह किसी से मांग कर लाई गई है। और मांगी गई चीजों से कोई सम्राट नहीं होता है। चाहे कोई कितना ही मांगता चला जाए और चाहे कोई मांग-मांग कर कितने ही महल खड़े कर ले और कितनी ही संपदा इकट्ठी कर ले, वह छोटे भिखारी से बड़ा भिखारी हो जाता है, सम्राट नहीं। मांगने से कोई सम्राट कैसे हो सकता है? सम्राट तो केवल वे ही होते हैं जिनका मांगना समाप्त हो जाता है। और जिन्हें कोई ऐसी निधि मिल जाती है कि अब वे दे सकते हैं। और उस निधि से कुछ भी नहीं चुकता। अब वे बांट सकते हैं और वह निधि समाप्त नहीं होती। अब मांगने के दिन दूर चले गए।
एक राजधानी की तो खबर आपने सुनी होगी। हो सकता है कि आप भी उस राजधानी में रहे हों। उस राजधानी में ऐसा हुआ था कि एक फकीर मरने के करीब आ गया था, एक संन्यासी मरने के करीब। और उस संन्यासी को जीवन भर लोग न मालूम क्या-क्या भेंट कर गए थे। उसके पास कुछ स्वर्ण-मुद्राएं इकट्ठी हो गई थीं। उसने सारे गांव में डुंडी पिटवा दी कि गांव का जो सबसे दरिद्र और भिखारी आदमी हो, वह आ जाए, उसे मैं अपनी संपत्ति दे दूंगा। गांव के भिखमंगे वहां इकट्ठे हो गए। गांव में कोई भिखमंगों की कमी है? फिर वह राजधानी थी, राजधानी में तो भिखमंगों का भारी निवास होता है। वे सब वहां इकट्ठे हो गए। राजधानी में बसता ही कौन है और! भिखमंगे, चोर, बेईमान, वे सब वहां निवास करते हैं।
वे सारे भिखमंगे वहां इकट्ठे हो गए और उन्होंने आकर उस फकीर के द्वार पर भीड़ लगा ली और सब दावा करने लगे कि मुझसे बड़ा भिखारी और कोई भी नहीं है, मुझे मिल जाना चाहिए। उस संन्यासी ने कहा कि मैं थोड़ी जांच-परख कर लूं। अभी मुझे वह आदमी दिखाई नहीं पड़ रहा है जो इस नगर का सबसे बड़ा भिखारी है। तुम भी भिखारी हो, मैंने माना, लेकिन तुम सबसे बड़े नहीं हो। मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा, अगर वह नहीं आएगा तो तुम्हारे बीच जो सबसे बड़ा भिखारी उसको दे दूंगा। वे सब एक-दूसरे को भलीभांति पहचानते थे। एक ही धंधे के लोग, उस धंधे के लोगों को भलीभांति पहचानते थे। वे सब भिखमंगे अच्छी तरह जानते थे, कि गांव के सभी भिखमंगे इकट्ठे हो गए हैं, अब कोई भिखमंगा पीछे शेष नहीं रहा है, यह किसकी प्रतीक्षा करता है? यह किसकी राह देखता है? लेकिन उसकी आंखें सड़क की तरफ लगी हुई हैं। और फिर वह भिखमंगा आ गया। लेकिन वह भिखमंगा नहीं था। भिखमंगे तो चकित रह गए! वह था गांव का राजा। वह अपने हाथी पर निकला हुआ था। और वह संन्यासी बाहर आया और उसने अपनी झोली, जिसमें स्वर्णमुद्राएं इकट्ठी थीं, उस सम्राट के हाथी के ऊपर फेंक दीं। वह झोली सम्राट के हाथ में पड़ी, उसने कहा: यह क्या है? भिखमंगे चिल्लाने लगे कि यह क्या धोखा है, तुमने तो कहा था हम सबसे गरीब आदमी को, सबसे भिखमंगे को दे देंगे?
उस संन्यासी ने कहा: जो इस गांव का सबसे गरीब आदमी है उसको ही मैं दे रहा हूं। तुम्हारी मांग तो तृप्त भी हो सकती है, इस आदमी की मांग की तृप्ति का कोई ठिकाना नहीं। तुम्हें तो कुछ मिल जाए तो तुम शांत भी हो जाओगे। इस आदमी को कुछ भी मिल जाए तो यह शांत नहीं हो सकता। यह सबसे बड़ा भिखारी है।
धन के भी भिखारी होते हैं और ज्ञान के भी भिखारी होते हैं। धन के भिखारी उतने खतरनाक भिखारी नहीं हैं, क्योंकि धन बाहर की चीज है। ज्ञान के भिखारी ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि ज्ञान भीतर की चीज है। भीतर की आत्मिक दुनिया में भी जो भिखमंगे हैं उनके भिखमंगेपन का क्या इलाज होगा? बाहर की दुनिया में जो भिखमंगे हों, उनसे कोई इतना उपद्रव भी नहीं है। बाहर की दुनिया का कोई मूल्य भी नहीं है। लेकिन भीतर की दुनिया का बहुत मूल्य है। इसलिए मैंने आपसे कहा कि उधार और मांगे गए ज्ञान को ज्ञान मत समझ लेना, अन्यथा वहीं रुक जाएंगे, वहीं ठहर जाएंगे। अगर सम्राट बनना हो ज्ञान की दुनिया में, तो अज्ञान से शुरू करना, विस्मय से शुरू करना, वह पहली सीढ़ी है। अगर मुफ्त में सम्राट बन जाना हो, अपने मन को समझा लेना हो, यह मान लेना हो कि मैं जानता हूं, जल्दी और सस्ते में, तो फिर बहुत आसान यही है कि जो चारों तरफ से सुना है उसी को संपत्ति समझ लेना, उसी को इकट्ठा कर लेना, उसी को तोतों की तरह दोहराते रहना, उसी का मंथन करते रहना और उसी में जीते रहना। आस-पास के लोगों को भी पता नहीं चलेगा कि आप भिखमंगे हो, क्योंकि आपके आस-पास भी भिखमंगे ही इकट्ठे हैं। किसी को खबर भी नहीं होगी कि आप यह क्या कर रहे हो। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि यह क्या हो रहा है। बल्कि उलटी हालतें हैं।
मैंने सुना है, एक ऐसा छोटा सा द्वीप था जिस पर सारे लोग अंधे थे। सारे लोग अंधे उस द्वीप पर हमेशा से थे। क्योंकि जब कभी कोई आंख वाला पैदा हो जाता था, तो उस द्वीप के चिकित्सक उसकी आंखें निकाल कर अलग कर देते थे, कि यह आदमी बीमार मालूम पड़ता है। जहां सब अंधे हों वहां आंख वाला होना बहुत खतरा मोल लेना है। क्योंकि अंधों को यह मालूम पड़ता है कि इसके शरीर में कोई खराबी है। पांच अंगुलियों वाले घर में छह अंगुलियां वाला बच्चा पैदा हो जाता है, हम छठवीं अंगुली का आपरेशन करवा देते हैं फौरन। ठीक ही है, पांच अंगुली ठीक हैं, छह अंगुली गलत हैं। तो जहां आंख न होती हो वहां आंख वाला आदमी पैदा हो जाए, तो वहां के चिकित्सक, वहां के सर्जन उनकी आंखें अलग कर देते थे। इसलिए वहां कभी आंख वाले के पैदा होने की संभावना बंद हो गई थी। कभी कोई भूल-चूक से पैदा होता, तो उसकी आंख अलग कर दी जाती। और वे अंधे निश्चिंत थे। वे इलाज करते थे। एबनार्मल था, जिसकी आंखें थीं वह असाधारण था, वह रुग्ण था।
हम सब चूंकि उधार ज्ञान पर ही जीते हैं, हमें ख्याल भी नहीं आता कि वास्तविक ज्ञान क्या हो सकता है। वास्तविक ज्ञान से बड़ा आनंद नहीं, वास्तविक ज्ञान से बड़ी क्रांति नहीं, वास्तविक ज्ञान से बड़ा सौंदर्य नहीं, वास्तविक ज्ञान से बड़ी संपदा नहीं। लेकिन हमारे पास जो ज्ञान है उससे न तो आनंद उपलब्ध होता है, न शांति उपलब्ध होती है, न जीवन परिवर्तन होता है। कुछ भी नहीं होता और फिर भी हम उसे ज्ञान माने चले जाते हैं। शक भी नहीं पैदा होता, संदेह भी पैदा नहीं होता।
मैं आपसे यही कहता हूं: उस पर संदेह करें, शक करें, खोजें कि यह कैसा ज्ञान है हमारा, यह कैसा ज्ञान का धोखा है, यह कैसा डिसेप्शन है। और कोई और आपको धोखा दे रहा होता, तो बचने की उम्मीद भी थी, यह धोखा आप ही अपने को दे रहे हैं। दूसरे के धोखे से बचना आसान, लेकिन जब कोई खुद अपने को धोखा देता हो, तो बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैंने पहले सूत्र में यह कहना चाहा कि इस धोखे के प्रति जागरूक होकर देखें, समझें, पहचानें। यह क्या है? यह जिसे हम समझ रहे हैं कि हम जानते हैं, यह क्या है? पूछें, खोजें, परखें, कसें उसे कि जिंदगी को क्या काम दे रहा है? यह सीखी हुई गीता और सीखे हुए कुरान मेरी जिंदगी को कहां बदल रहे हैं? वे परमात्मा के पास कहां ले जा रहे हैं? उनसे मैं कितना करीब पहुंचा हूं उसके? मैंने कितने कदम पार किए और कितनी सीढ़ियां चढ़ा हूं मैं? सिवाय शब्दों की सीढ़ियों के कुछ और हम चढ़े? ताश के घर बनाते हैं बच्चे, और बच्चे कागज की नावें तैराते हैं। मैं आपसे कहता हूं: कागज की नाव में बैठ कर भी कोई यात्री नदी के पार हो सकता है, लेकिन शब्दों की नाव में बैठ कर कभी कोई यात्री जीवन की नदी के पार नहीं हुआ है। कागज की नाव फिर भी ठोस है, शब्द की नाव उतनी भी ठोस नहीं है। और मैं आपसे कहता हूं कि ताश के पत्तों के घर बना कर कोई जीवन उनमें बिता सकता है और रह सकता है, क्योंकि ताश फिर भी है, लेकिन शब्दों के घर बना कर जो रहते हैं, वे बिल्कुल बेघर हैं और भ्रम में पड़े हैं कि हम घरों के भीतर रह रहे हैं।
इसलिए मैंने कहा कि विस्मय की आंख उपलब्ध कर लेनी जरूरी है।

और कुछ प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि यदि हम यह जान लें, स्वीकार कर लें, पहचान लें कि यह ज्ञान हमारा नहीं है, तो हमारे भीतर क्या हो जाएगा? क्या परिवर्तन हो जाएगा? क्या क्रांति हो जाएगी?

इसे करें और देखें कि क्या हो जाएगा। इसे पूछें मत। क्योंकि जो हो जाएगा उसे बताने का कोई उपाय नहीं है। और अगर मैं उसे आपको बता भी दूं, तो वह फिर आपके लिए उधार ज्ञान बन जाएगा और कुछ भी नहीं। और हम उधार ज्ञान की तलाश में एकदम पड़े हुए हैं कि कोई हमें बता दे, कोई हमें बता दे, कोई हमें बता दे ताकि हमें जानने की पीड़ा से छुटकारा मिल जाए।
मां के पेट से बच्चा पैदा होता है, तो उसे प्रसव की पीड़ा झेलनी पड़ती है। और जब ज्ञान को जन्म मिलता है, तो आदमी को भी प्रसव की पीड़ा झेलनी पड़ती है। और मां अगर प्रसव की पीड़ा से बचना चाहती हो, तो बाजार में गुड्डे बिकते हैं, उनको खरीद ले और उनको बच्चे समझ ले। लेकिन असली बच्चों को जन्म देने का यह रास्ता नहीं है।
क्या होगा, क्या होगा उस शांति में जहां आपको यह ख्याल मिट जाएगा कि ज्ञान मेरे पास नहीं है? उस बूढ़े फकीर को क्या हुआ? जब उसे पता चला कि मेरे झोले में सोने की ईंट नहीं पत्थर की ईंट है। क्या हुआ उस बूढ़े को? कौन सी चीज बदल गई? एक नया रिकग्निशन, एक नई पहचान उसके सामने खड़ी हो गई कि मैं ईंट को ढो रहा था, सोना समझ रहा था, पत्थर को ढो रहा था, उसके बोझ को बहुमूल्य समझ रहा था, इसलिए भयभीत था, इसलिए परेशान था। फिर वह रात वहीं सो गया, निर्भय हो गया। कोई बात उसके भीतर बदल दी। वह किस शांति से सोया आप अंदाज लगा सकते हैं? वह किस अशांति में था चलते वक्त, वह किस शांति में सोया उस रात, उसका कोई हिसाब हो सकता है, कोई गणना, कोई नाप-जोख हो सकती है कि उस आदमी के भीतर उस रात क्या हुआ? एक तूफान था भीतर, फिर तूफान विदा हो गया, और एक गहरी शांति भीतर आ गई।
एक और घटना से समझाने की कोशिश करूं।
एक सम्राट अपने इकलौते लड़के पर नाराज हो गया। कुछ भूल-चूक हो गई, पिता नाराज हो गया, और उसने अपने लड़के को क्रोध में राज्य के बाहर निकालने की आज्ञा दे दी। वह राजकुमार राज्य के बाहर भेज दिया गया। तत्क्षण उसे घुड़सवार राज्य की दूर सीमाओं के बाहर छोड़ आए। अब उस राजकुमार ने, वह राजा का लड़का था, एकमात्र लड़का था, सम्राट होना उसका निश्चित था। उसके पास बड़ा राज्य था, बड़ी संपदा थी। न उसने कोई व्यवसाय सीखा था, न कभी कोई श्रम किया था, वह क्या करे? वह दरिद्र से भी दरिद्र होकर राज्य के बाहर खड़ा हो गया, वह क्या करे? उसके पास दो रोटी कमाने का भी कोई उपाय न था। हां, उसने थोड़ा संगीत जरूर सीखा था कि वह गांव में गीत गाकर भीख मांगने लगा।
पांच साल बीत गए। राजा बूढ़ा हो गया और उसे पश्चात्ताप हुआ और उसका एक ही लड़का उसने खो दिया। उसकी मौत करीब आने लगी। उसकी संपदा का, साम्राज्य का कौन मालिक होगा? उसने अपने वजीरों को बुलाया और कहा कि शीघ्र दौड़ो, और मेरा लड़का पृथ्वी के किसी भी कोने पर हो, उसे वापस ले आओ सम्मान के साथ। उसे कहना कि तेरे पिता ने तुझे क्षमा कर दिया और तुझे राज-सिंहासन के लिए बुलाया जा रहा है, तू वापस चल। तो वजीर भागे, उन्होंने दूर-दूर के देश छान डाले। फिर एक बूढ़े वजीर को वह युवक मिल गया एक गांव में, एक छोटी सी सराय के बाहर भीख मांगते हुए। वह नाच रहा था, गीत गा रहा था, और हाथ में एक कटोरा लिए हुए भीख मांग रहा था। धूप के तेज दिन थे, आग बरसती थी, उसके पैरों में फफोले पड़े थे, उसका चेहरा काला पड़ गया था, उसका शरीर सूख गया था, उसे पहचानना भी मुश्किल था। वह वे ही कपड़े पहने था जिन्हें पांच वर्ष पहले पहने हुए उसे घर के बाहर निकाल दिया गया था, वे सब फटे चीथड़े हो गए थे।
उस वजीर ने उसे पहचाना, वह उसके पास गया, उसके पैरों में जूते भी न थे, पैर जल रहे थे और फफोले पड़े हुए थे और वह लोगों से मांग रहा था कि कुछ पैसे दे दें ताकि मैं सस्ते से जूते खरीद लूं, मैं बिना जूते के मरे जा रहा हूं, रेगिस्तान की तेज धूप है, जलती हुई नीचे जमीन है, मुझे कुछ पैसे मिल जाएं ताकि मैं जूते खरीद लूं। वह उसी के लिए पैसे इकट्ठे कर रहा था। उसने कुछ पैसे अपने हाथ की कटोरी में इकट्ठे भी कर रखे थे। उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं और वह सराय के बाहर भीख मांग रहा है। रथ रुका, वजीर नीचे उतरा और उसने जाकर उस राजकुमार के पैर छुए और कहा, तुम्हारे पिता ने तुम्हें क्षमा कर दिया है, तुम वापस लौट चलो।
एक क्षण और जैसे कोई बिजली कौंध गई, वह आदमी उसी क्षण दूसरा आदमी हो गया। उसके हाथ का कटोरा फिंका और सड़क पर पैसे बिखर गए। उसकी आंखों का तेज और रोशनी बदल गई। और उसने वजीर को कहा: ठीक, जाओ, अच्छे वस्त्र खरीद कर लाओ। कीमती से कीमती जूते खरीद कर लाओ। सराय के लोग तो भीड़ लगा कर इकट्ठे हो गए, उन्होंने पूछा: क्या हुआ? जो भीख मांग रहा था। लेकिन उस आदमी को पहचानना भी मुश्किल था, वह आदमी ही दूसरा हो गया था। कपड़े तो अब भी उसके भिखारी के थे लेकिन उसकी आंखों में वह भाव आ गया था जो सम्राटों का होता है। वह उन लोगों की तरफ अब देख भी नहीं रहा था जिनके सामने उसने हाथ फैला रखे थे। लोगों ने पूछा, क्या हो गया? यह आदमी तो एकदम बदल गया। यह आदमी तो दूसरा आदमी हो गया।
वजीर भी चकित खड़ा रह गया था। वजीर ने भी पूछा कि क्या हो गया? उस युवक ने कहा: इस बात का ख्याल भी आ गया कि मैं वापस बुला लिया गया हूं और राज-सिंहासन का मालिक हो गया हूं, तो सारी बात बदल गई। मैं आदमी दूसरा हो गया। मेरे भीतर जो पांच साल से भिखमंगा था वह कहां तिरोहित हो गया है मैं खोज कर भी नहीं पा रहा हूं उसको। यह सारी कांशसनेस, यह सारी चेतना दूसरी हो गई है।
एक छोटा सा स्मरण, पांच साल से उसे ख्याल था कि मैं एक भिखमंगा हूं, तो वह दीन-हीन था, उसकी आंखें दीन-हीन थीं, उसके चेहरे का भाव निस्तेज था। और एक क्षण में उसे ख्याल आ गया, एक रिकग्निशन, उसे पहचान आ गई, उसे रिमेंबर हुआ, उसे बोध हुआ कि मैं तो सम्राट हूं और सब बात बदल गई। वह दीनता-हीनता आंख से विलीन हो गई। वे आंखें जो निस्तेज थीं तेज से भर गईं, वे प्राण जो मंदिम पड़ चुके थे वे गतिमान हो गए, वे श्वासें जो मृत सी थीं उन्होंने फिर जीवन की हवा ले ली। क्या हो गया उस युवक को?
जिस दिन आपको पता चलेगा कि जो ज्ञान मैंने आज तक ज्ञान समझा है वह दो कौड़ी का है, वह कोई ज्ञान नहीं है। एक क्रांति आपके भीतर खड़ी हो जाएगी। झूठे सिक्के व्यर्थ हो जाएंगे, सोने की ईंट मिट्टी की ईंट हो जाएगी। जिसे कल तक समझा था महत्वपूर्ण वह एकदम विलीन हो जाएगा, वह खो जाएगा, उस पर से मुट्ठी खुल जाएगी। और यह जो रिलैक्सेशन है, यह जो मुट्ठी का खुल जाना है, उस झूठी ईंट से, उस मिथ्या गेम से, यह जो आंखों का हट जाना है उस जगह से..जब आंखें मिथ्या से हटती हैं तो आंखें वहां पहुंच जाती हैं जो सम्यक है, जो ठीक है। गलत से आंख का हटना ठीक पर पहुंच जाना है। टू नो दि फॅाल्स ए.ज फॅाल्स। जो झूठ है, जो गलत है, उसे गलत की तरह जान लेना उस पर पहुंच जाना है जो सही है, जो सत्य है।
सत्य को जानने की तरफ पहला कदम है कि मैं उसे पहचान लूं जो सत्य नहीं है, जो भ्रांत है, जो असत्य है, जो मिथ्या है, जो केवल आभास है, जो केवल वंचना है उसे मैं जान लूं। इस जानने से यह क्रांति का पहला कदम घटित होगा, आंखें हटेंगी उस जगह से और उस जगह पहुंच जाएंगी जहां ठीक है। जब झूठे ज्ञान से आंखें हटती हैं तो सच्चे ज्ञान की खोज में उठ जाती हैं। और वह सच्चा ज्ञान कहीं हिमालय की कंदराओं में नहीं है, कहीं सहारा के रेगिस्तानों में नहीं है, कहीं सात समुंदर पार करके उसे खोजने नहीं जाना है, वह ज्ञान प्रत्येक के भीतर है जिसकी मैं बात कर रहा हूं। वह प्रत्येक का अपना निज-स्वरूप है, वह प्रत्येक का अपना स्वभाव है। एक बार मिथ्या से हमारी आंख हट जाए तो हम उसको खोज ले पा सकते हैं जो हम हैं, जो सदा से हमारा है।
लेकिन गलत चीज पर मुट्ठी बंधी हो तो ठीक चीज की तलाश में हाथ खोज ही नहीं कर पाते हैं। इसलिए गलत को गलत जान लेना पहली बात है। व्यर्थ को व्यर्थ जान लेना पहली बात है। असार को असार जान लेना पहली बात है, ताकि सार्थक की तरफ हम आंख तो उठा सकें।
और जब तक हम व्यर्थ को सार्थक समझते हैं, जब तक हम ना-कुछ को सब कुछ समझते हैं, तब तक सत्य की तरफ आंख कैसे उठ सकती है? सब्स्टीट्यूट जब तक हमारे हाथ में हैं तब तक बड़ी गड़बड़ है, तब तक ख्याल में भी नहीं आ सकता। जब तक कोई चीज पूर्ति कर रही है, मिथ्या चीज पूर्ति कर रही है, तब तक ख्याल भी नहीं आ सकता है कि कैसे हम उसको खोजें जो ठीक है और सही है।
इसलिए, इसलिए मैंने पहली बात आपसे कही और फिर से कुछ बातें वापस आपको ख्याल में लाने की कोशिश की कि क्यों इतना जोर दे रहा हूं? क्यों शब्द और सिद्धांत और शास्त्रों को इतना व्यर्थ कह रहा हूं? क्यों चाहता हूं कि आपके भीतर न जानने की स्मृति आ जाए? जाना हुआ व्यर्थ हो जाए, आप उसके ऊपर उठ जाएं और आप खुले मन से, एक ओपन माइंड से जगत को फिर से देख सकें, नया। सीखा हुआ नहीं, याद किया हुआ नहीं, बिल्कुल नई आंखों से जगत को देख सकें। स्मरण रखिए कि जिन आंखों से अभी आप देख रहे हैं उन आंखों से परमात्मा अगर देखा जा सकता होता तो देख लिया गया होता। कब तक उन्हीं पुरानी आंखों से देखने की कोशिश जारी रखिएगा? अगर उनसे कहीं कुछ मिलने वाला होता तो मिल गया होता। कब तक प्रतीक्षा करिएगा? लेकिन स्पष्ट है कि उनसे उसकी झलक नहीं मिली जो है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे देखने की आंख ही गलत है?
एक मस्जिद में एक सुबह ही सुबह कुछ लोग नमाज पढ़ कर बाहर निकले थे और एक व्यक्ति मस्जिद में प्रविष्ट हुआ। उसने जूते आहिस्ता से उतारे और द्वार के किनारे रख कर वह मस्जिद के भीतर चला गया। वे जो लोग द्वार पर खड़े थे, उन्होंने सोचा, वे जूते कीमती थे, बहुत चमकदार थे, बहुत बहुमूल्य थे। लेकिन वह आदमी इतने आहिस्ते से उन्हें द्वार पर रख गया था कि वे सब चकित हो गए और आपस में पूछने लगे कि इस आदमी ने जूते बाहर क्यों छोड़ दिए हैं? कोई इन्हें चुरा ले जाए तो? और वह आदमी ऐसे भीतर चला गया है जैसे उसे कोई प्रयोजन ही नहीं है, जैसे इन जूतों से उसका कोई संबंध नहीं है। फिर उन्होंने सोचा, हम रुक जाएं और जब वह लौटे तो उससे पूछें। वे रुके थे, तभी एक दूसरा आदमी भी प्रविष्ट हुआ, उसने अपने फटे-पुराने जूते उतारे, दोनों को एक साथ हाथ में लिया और मस्जिद के भीतर चला गया। उन लोगों में से कोई बोला, एक आदमी यह भी है कि अपने फटे-पुराने जूतों को भी मस्जिद के भीतर ले जा रहा है। जो जूते को भी बाहर नहीं छोड़ सकता, वह मंदिर में कैसी प्रार्थना करेगा? फिर उन्होंने सोचा, किसी ने कहा कि वह भी जब बाहर आ जाए तो उससे भी हम पूछें कि उसके फटे-पुराने जूतों को भीतर ले जाने की वजह क्या है? क्या उसे कोई भय है कि कोई इन्हें चुरा न ले?
फिर पहला आदमी नमाज पढ़ कर बाहर आया, वह अपने जूते पहन रहा था, तो उन लोगों ने पूछा कि क्या हम पूछ सकते हैं कि आप अपने कीमती जूते इतने चुपचाप बाहर छोड़ गए, इसका राज क्या है? आप भीतर क्यों नहीं ले गए? लोग आमतौर से फटे-पुराने जूते भी भीतर ले जाते हैं। अभी आपके पीछे ही दूसरा आदमी जूते भीतर लेकर नमाज पढ़ने गया। उस आदमी ने कहा: मेरे दोस्तो, मैं जूते इसलिए बाहर छोड़ गया कि अगर कोई उन्हें चुराना चाहे तो मैं उसके बीच बाधा न बन सकूं, एक। दूसरे, इसलिए जूते बाहर छोड़ गया कि अगर किसी को जूते चुराने की कामना पैदा हो, टेंपटेशन पैदा हो, उत्तेजना पैदा हो और कहीं वह उस उत्तेजना पर विजय पा ले और जूते चुराने से बच जाए, तो उसे पुण्य का अवसर देने का सौभाग्य मुझे भी मिलता है, इसलिए मैं जूते बाहर छोड़ गया।
उसने जूते पहने और वह अपने रास्ते पर हो गया। और वे सब चकित और आश्चर्य से खड़े रह गए। और उन्होंने कहा: कितना अदभुत आदमी है। कोई चोरी में बाधा न बन जाऊं, मैं इसलिए जूते बाहर छोड़ गया। और इसलिए जूते बाहर छोड़ गया कि हो सकता है कोई चोरी करने से बच सके, तो उसके पुण्य का भी सौभाग्य मुझे मिलता है। फिर उन्होंने कहा: और वह दूसरा आदमी? वह कैसा निकृष्ट आदमी है। फिर वह दूसरा आदमी भी अपने जूते बगल में दबाए हुए बाहर निकला, तो उन्होंने उसे रोका और कहा: दोस्त, क्या आप बता सकेंगे कि इन फटे-पुराने जूतों को भी आप बाहर क्यों नहीं छोड़ गए? जब कि लोग बहुमूल्य जूते भी बाहर छोड़ जाते हैं। उस आदमी ने कहा: तुम पूछते हो, तो मैं बताता हूं। इसलिए जूते बाहर नहीं छोड़ गया कि कहीं किसी का मन उन पर चोरी करने का न हो जाए, अन्यथा उसके पाप में मैं भी भागीदार हो गया। उसे मैंने मौका दिया चोरी करने का, तो मैं चोरी में भागीदार हो गया। और अगर उसने चोरी न भी की, सिर्फ उसे टेंपटेशन हुआ, सिर्फ उसे उत्तेजना हुई, कामना हुई कि चोरी कर लूं, तो भी चित्त तो चोर हो ही गया। तो मैं ऐसा मौका नहीं देना चाहता कि किसी का चित्त चोर हो। इसलिए मैं जूते भीतर ले गया।
वे लोग उसकी बात सुन कर भी हैरान रह गए और कहने लगे कि कैसा साधु-पुरुष है, कैसा भला आदमी है। वह आदमी अपने जूते पहन कर रास्ते पर हो लिया। और तभी उन लोगों के बीच में एक बूढ़ा खड़ा था, वह बूढ़ा हंसने लगा। तो उन लोगों ने पूछा कि तुम क्यों हंसते हो? उसने कहा: मैं इसलिए हंसता हूं कि दोनों आदमियों ने जो बातें कहीं उनका सत्य से कोई भी संबंध नहीं है, उनका सच्चाई से कोई भी संबंध नहीं है। तथ्य कुछ और ही है। उन लोगों ने पूछा: तथ्य क्या है? उस आदमी ने कहा: तुम देख भी नहीं पाए कि एक तीसरा आदमी भी भीतर प्रविष्ट हुआ। लेकिन उसके पास न तो बाहर रखने को जूते थे, न भीतर ले जाने को जूते थे। वह आदमी तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ा। क्योंकि न उसके पास जूते बाहर रखने को थे, न भीतर। वह चुपचाप भीतर प्रविष्ट हो गया। उसका तुम्हें पता भी नहीं चला। इन दो आदमियों का तुम्हें पता चला और इन दोनों आदमियों ने अपने कृत्य की बड़ी ज्ञानपूर्ण व्याख्या की। सच्चाई कुछ और है।
जो आदमी कीमती जूते बाहर छोड़ गया है, उस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। उस बूढ़े ने कहा: वह केवल जूते इसलिए बाहर छोड़ गया ताकि तुम उसके जूते ठीक से देख लो कि कितने चमकदार और कीमती हैं। अन्यथा मस्जिद में उन जूतों को लेकर आने की कोई जरूरत भी न थी। छोड़ने का राज यह नहीं था जो उसने बताया, वह तो सिर्फ तरकीब थी, जस्टीफिकेशन था, वह किसी चीज को न्यायसंगत ठहराने की आदमी की होशियारी थी, वह आदमी की कनिंगनेस है। मैं उस आदमी को भलीभांति जानता हूं, एग्.िजबीशन का उसे शौक है, चीजों को प्रदर्शन करने की उसे आदत है। हर चीज दिखा देना चाहता है, सब लोग देख लें। उसके घर में एक बार उसकी बीबी मर गई थी, तो वह घर के भीतर नहीं रोता था, चैरस्ते पर खड़े होकर रोता था, ताकि सबको पता चल जाए कि उसकी बीबी मर गई है और वह रो रहा है। उस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं, वह क्यों जूते बाहर रख गया था। लेकिन उसने बड़ी ज्ञानपूर्ण बात कही। और बड़े गहरे अज्ञान को छिपा लिया और तुम भी धोखे में आ गए हो। और जो आदमी जूते भीतर ले गया था, उस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। वह नमाज कम पढ़ता है, जूतों का ध्यान ज्यादा रखता है। फटे-पुराने जूते भी छोड़ने की उसकी हिम्मत नहीं है। लेकिन अपनी इस कमजोरी को उसने बड़ी ज्ञानपूर्ण बातों में छिपा लिया। उसने बड़ी अच्छी बात कही है कि मैं इसलिए जूते भीतर ले गया था। लेकिन जो आदमी न जूते बाहर छोड़ गया, न भीतर, वह तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ा। वह तुम्हारे ख्याल में भी नहीं आया। तुम उससे पूछने भी नहीं गए। तुमने उससे पूछा भी नहीं कि तेरे पास जूते भी नहीं हैं। उस आदमी के पास जूते थे, लेकिन वह जूते एक उस आदमी को दे आया जो गरीब था और बूढ़ा था और सड़क पर नंगे पैर चल रहा था। वह अपने जूते किसी बूढ़े आदमी को दे आया है। जो नंगे पैर था और धूप में चल रहा था। लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं गया।
ध्यान उनकी तरफ जाता है जो ध्यान आकर्षित करते हैं। ध्यान उनकी तरफ नहीं जाता जो चुपचाप जीवन के रास्ते से गुजर जाते हैं। और फिर जो हम सीख लेते हैं ज्ञान, हम अपने सारे जीवन को ज्ञान से ढांकने और छिपाने का उपाय करते हैं। ज्ञान के हम वस्त्र बना लेते हैं। और अपने सारे जीवन की वृत्तियों को, सारी अंदरूनी वृत्तियों को ज्ञान की आड़ में छिपा लेते हैं। यह ज्ञान सीखा हुआ ज्ञान कहीं ले जाता तो नहीं लेकिन जीवन की व्यर्थता को, जीवन के अंधेरे को, जीवन के घावों को छिपाने का जरूर काम करता है। इसलिए दुनिया में जितना यह तथाकथित ज्ञान बढ़ता जाता है आदमी अपने हर पाप के लिए जस्टीफिकेशन खोजता चला जाता है। वह जो भी बुरा करता है उसके भी कारण बताता है। जो भी बुरा करता है उसके लिए भी शास्त्रों का उद्धरण देता है। उसे शास्त्र ख्याल ही तब आते हैं जब उसे कोई बात छिपानी होती है, तब उसका ज्ञान बीच में काम करता है और रुकावट बनता है। जीवन को बदलने के काम में नहीं आता है यह ज्ञान, नहीं आ सकता है। केवल जीवन न बदल पाए इसके लिए जरूर काम में आता है। अगर वह चोरी करता है आदमी, तो वह माक्र्स की कैपिटल में से उद्धरण देगा कि धन तो सभी चोरी है, जिसके पास भी धन है वह चोर है। इसलिए अगर मैं चोरी करता हूं तो क्या बात है। और फिर जिन लोगों ने चोरी कर-कर के धन इकट्ठा कर रखा है और अगर उनसे चोरी भी की जाए, तो यह पुण्य का कार्य, मैं उनका धन वापस लौटा रहा हूं उनके पास जिनका वह है। दुनिया भर के डाकू इसमें अपना जस्टीफिकेशन खोज सकते हैं, खोजते हैं। लेकिन इस डकैती को वे सिद्धांतों के नाम देते हैं। अगर एक आदमी धन इकट्ठा कर ले पाप से, बेईमानी से, सब तरह की चोरी से, तो वह यह नहीं कहता कि मैंने चोरी और बेईमानी से धन इकट्ठा किया है, वह कहता है कि धन तो पुण्य का अर्जन है, पिछले जन्मों में जो अच्छे कर्म करता है उसको धन मिलता है। शास्त्रों में लिखा हुआ है। शास्त्र उसकी गवाही बन जाते हैं। शास्त्र उनकी गवाही बन जाते हैं। और शास्त्रों में, दुनिया के शास्त्रों में शायद कोई भी एक ऐसी बात नहीं है जिसके लिए गवाही न खोजी जा सके। एक पाप ऐसा नहीं है जिसके लिए गवाही न खोजी जा सके। जीवन बहुत विराट है। एक आदमी जुआ खेलता है, तो युधिष्ठर की गवाही देता है कि युधिष्ठर जुआ खेलते थे। और मैं क्या जुआ खेलता हूं, बड़े जुआरी लोग थे, अपनी पत्नी को भी जुए पर लगा देते थे।
सारा यह तथाकथित ज्ञान जो हम इकट्ठा कर लेते हैं, हमारे भीतर जो हमें नहीं बदलना है उसके लिए सहारा बनता है और कुछ भी नहीं। इस झूठे ज्ञान से कभी किसी को बदलते हुए तो नहीं देखा गया। लेकिन नहीं बदलते हुए जरूर देखा गया है। सारी पृथ्वी इसका सबूत है और गवाही है, जो हमें करना होता है हम करते हैं और ज्ञान की गवाही, विटनेस इकट्ठी कर लेते हैं। अज्ञानी के पास कम से कम गवाही तो नहीं होती, अज्ञानी कम से कम इतना तो कहता है कि मैं अपराधी हूं, मुझसे भूल हो गई। और जो आदमी यह कहता है कि मुझसे भूल हो गई उसके भूल के बदलने का उपाय हो सकता है। लेकिन जो आदमी कहता है, भूल का सवाल कहां, सारे शास्त्र मेरे पक्ष में खड़े हैं...हर युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता है, हर युद्ध के पीछे शास्त्रों की गवाही खोजी जाती है, हर बुराई के पीछे शास्त्र इकट्ठे किए जाते हैं। हर बुराई के पीछे एक ज्ञान है। और इतने जोर से चीख-पुकार मचाई जाती है कि बुराई तो मिट ही जाती है, ज्ञान ही दिखाई पड़ता रह जाता है। दुनिया में कुछ ऐसा नहीं है जिसके लिए ज्ञान का सहारा नहीं मिल जाता हो। और इस भांति सीखे हुए ज्ञान ने आदमियत को रूपांतरित तो नहीं किया लेकिन रोका जरूर है।
मैं आपसे कहता हूं: ज्ञान का सहारा छोड़ दें, खो दें ज्ञान का सहारा। और जैसे आपने सीधे और साफ, अन-जस्टीफाइड, कोई न्याय-संगतियां हम नहीं खोज रहे हैं अपने लिए..बुरे हैं तो बुरे, भले हैं तो भले। उस सीधी सचाई को सारे ज्ञान को एक तरफ रख कर सोचें। नहीं तो एक गुंडा हत्या करता है किसी की, हत्या करने का मजा लेता है, लेकिन वह कहता है, मैं हिंदू हूं और यह मुसलमान है, और मुसलमान को समाप्त करना धर्म है। और एक दूसरा गुंडा एक औरत को घसीटता है और व्यभिचार करता है, वह मुसलमान है और औरत हिंदू है, वह कहता है, यह हिंदू औरत है और इसलिए मैं इसे उठा कर ले जा रहा हूं, यह धर्म का कार्य हो रहा है। मस्जिदें जलाई जाती हैं और मंदिर तोड़े जाते हैं। मूर्तियां फोड़ी जाती हैं और किताबों में आग लगाई जाती है। और आदमी की हत्या की जाती है अच्छे-अच्छे सिद्धांतों के नाम पर, अच्छे-अच्छे ज्ञान के नाम पर। हैरानी है इस ज्ञान को, लानत भी है इस ज्ञान के लिए। दुर्भाग्य है यह हमारा कि इस ज्ञान की आड़ को हम लिए ही चले जाते हैं। दुनिया भर के पाप किए जाते हैं ज्ञान और किताबों की आड़ में, और वे पाप चलते रहेंगे जब तक जब तक कि हम किताबों के उस झूठे मोह को न छोड़ दें और जीवन को सीधा देखने के लिए तैयार न हो जाएं। सीधा केवल वही देख सकता है जो ज्ञान को विदा दे देता है और विस्मय की आंखें, आश्चर्य की आंखों को रिक्त कर लेता है।
इसलिए सुबह मैंने ये बात कहीं और ये कुछ सूत्र मैंने पुनः स्पष्ट किए। मैं आशा करता हूं कि वे आपको साफ हुए होंगे। और उन पर सोचिए और विचार करिए और पूछिए और खोजिए ताकि एक दिन यह बात बहुत ही स्पष्ट आपके सामने खड़ी हो जाए। अगर यह बात स्पष्ट हो जाए, तो आपके जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाती है।
यह पहले सूत्र की दोनों चर्चाएं पूरी हुईं। कल सुबह हम दूसरे सूत्र पर विचार करेंगे।

मेरी बातों को इतनी शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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