(अध्याय—छब्बीस)
इस
बार,
मैं ओशो के
साथ अहमदाबाद
आई हूं जहां
वे गीता पर प्रवचन
दे रहे हैं।
सुबह
प्रवचन के बाद
वे 11 —3० बजे भोजन
लेते हैं और
फिर कुछ घंटे के
लिए आराम करते
हैं। मैं बाहर
दरवाजे के पास
स्टूल पर
पहरेदारी करने
के लिए बैठ
जाती हूं।
गर्मियों के
दिन हैं और
मुझे भी नींद
आने लगती है।
मैं वहीं
स्टूल पर बैठे—बैठे
ही ऊंघने लगती
हूं। स्वयं को
जगाए रखने के
लिए मैं एक
किताब पढ़ने
लगती हूं।
किसी तरह मैं
वहां बैठी
रहती हूं और
इस बात का
ख्याल रखती
हूं कि कोई
किसी भी तरह उनके
आराम में बाधा
न डाले।
2 बजे दोपहर
को वे अपने
कमरे से
निकलते हैं और
बाथरूम में
चले जाते हैं।
मैं उनके लिए
चाय तैयार
करती हूं।
जल्दी ही उनसे
व्यक्तिगत
रूप से मिलने
के लिए लोग
आने लगेंगे।
मैं कप में
चाय डाल रही—हूं
तो वे मुझ से
पूछते हैं, तू मेरी
सेक्रेटरी
बनेगी?' यह
मेरी कल्पना से।
परे है और
बिना सोचे
समझे ही मैं
कहती हूं, 'ओशो,
मुझे तो खुद
ही सेक्रेटरी
की जरूरत है।’
मेरा उत्तर
सुनकर वे हंस
पड़ते हैं। मैं
उनसे कहती हूं, मैं बहुत ही
आलसी किस्म की
हूं मैं तो
अपने काम भी
नहीं संभाल पाती।’
वे कहते हैं,
तेरा आलस्य
मेरे आलस्य के
मुकाबले कुछ
भी .। हीं है।’ और वे मुझे
अपने आलस्य की
अनेकों
कहानियां सुनाने
लगते है। मुझे
लगता है वे
मनगढ़ंत
कहानियां
सुना रहे हैं।
जब यह बात मैं
उनसे कहती हूं
तो वे कहते
हैं, 'नहीं,
नहीं, ये
सब सच्ची
घटनाएं हैं।’
एक
किस्सा जो
मुझे बहुत ही पसंद
आता है, वह तब
का है जब वे हॉस्टल
में रहते थे
और अपना
बिस्तर
उन्होंने दरवाजे
के पास ही लगा
रखा था।
दरवाजा खोलते
ही सीधे वे
बिस्तर पर कूद
जाते थे। उनकी
सारी किताबें
बिस्तर के
नीचे या चारों
ओर ही पड़ी
रहती थीं।
बाकी कमरे से
उनका कछ लेना—देना
नहीं था।
मुझे
उनके आलस्य के
किस्से सुनने
में मजा आता
है,
जो कि मुझे
अपने आलसी
होने के अपराध
भाव से मुक्त
कर देते हैं।
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