अपन पौ आपु ही बिसरो—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक:
13 नवंबर, 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना.
सूत्र:
अपन
पौ आपु ही बिसरो।
जैसे
श्वान कांच
मंदिर मह, भरमते भुंकि
मरो।।
जौं
केहरि
बपु निरखि
कूपजल, प्रतिमा देखि
परो।
वैसे
ही गज फटिक
सिला पर, दसनन्हि आनि अरो।।
मरकट मूठि
स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरो।
कहहिं
कबीर ललनि
के सुगना, तोहि कवने
पकड़ो।।
सूत्र
में प्रवेश के
पहले कुछ
आधारभूत
बातें समझ
लेनी जरूरी
है।
एक
सूफी फकीर हुआ, बायजीद।
बैठा था अपने
द्वार पर झोपड़े
के, एक
जिज्ञासु ने
पूछा, धर्म
क्या है? साधना
क्या है? मार्ग
क्या है? तो
बायजीद ने कहा,
क्या करोगे
जानकर? उस
युवक ने कहा, मुक्त होना
है बंधन से।
बायजीद हंसा। जोर से हंसा, जैसे पागल है। और उसने कहां, पहले ठीक से पता लगा कर आओ—बांधा किसने है, जो बंधन से मुक्त होना चाहता है? जब तक इसका पक्का पता लगा कर न आओगे, तब तक मैं जवाब देनेवाला नहीं।
बायजीद हंसा। जोर से हंसा, जैसे पागल है। और उसने कहां, पहले ठीक से पता लगा कर आओ—बांधा किसने है, जो बंधन से मुक्त होना चाहता है? जब तक इसका पक्का पता लगा कर न आओगे, तब तक मैं जवाब देनेवाला नहीं।
कहते
हैं, युवक गया,
वर्षों के
बाद वापिस
लौटा—वही
पागलों जैसी
हंसी अब उसके
पास भी थी।
बायजीद ने
पूछा, लगा
लिया पता? उस
युवक ने कहा, अब कुछ
पूछना नहीं, सिर्फ हंसी
का जवाब देने
आया हूं। खुद
ही बांधा था, और बंधन से
मुक्त होने की
तलाश भी
चालाकी की थी,
वह भी उस
मूल सत्य से
बचने का ही
ढंग था। पूछता
था, कैसे
मुक्त हो जाऊं?
मार्ग की
तलाश भी स्थगन,
पोस्टपोन करने की
विधि थी कि जब
मिलेगा मार्ग
तब पहुंचेंगे;
मिलेगी
विधि तब बंधन
कटेगा; जब
मार्ग ही पता
नहीं, विधि
का पता नहीं, तो कैसे
बंधन के बाहर
निकलेंगे? ठीक
किया तुमने कि
जवाब न दिया
और पागल की
हंसी हंसे। वह
हंसी चोट कर
गई। वह मन में
गहरा घाव कर
गई। बहुत खोजा—जैसे—जैसे
खोजने लगा, वैसे—वैसे
साफ होने लगा
कि बंधी तो
मैं ही हूं, बांधा किसी
ने भी नहीं।
और जब मैं ही
बंधा हूं तो
मुक्त होने की
जरूरत क्या है?
मत बंधो और
मुक्त हो गए।
यह
पहली बात समझ
लेनी जरूरी
है।
मोक्ष
की खोज भी
तरकीब है। वह
भी उपाय है
बचने का।
अन्यथा तुम
अमुक्त हुए कब? बांधा किसने?
बीमार ही
नहीं हो और
औषधि की तलाश
करते हो! औषधि
मिलती नहीं, तो सोचते हो,
कर भी क्या
सकते हैं हम!
गुरु को खोजते
हो, परमात्मा
को खोजते हो—और
उसे कभी खोया
नहीं, वह
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
जब तुम खोज
रहे हो, तब
भी वह मौजूद
है। और इसकी
हली झलक
तुम्हें भी
है। ऐसा भी
नहीं है कि इस
बात को तुम
बिलकुल भूल गए
हो कि बांधा
किसी ने नहीं।
हलकी झलक तुम्हें
भी है।
क्योंकि यह
इतना बड़ा सत्य
है, इसे
पूरा का पूरा
भुलाया भी
नहीं जा सकता।
ये जंजीर
तुमने अपने ही
हाथ से पहन
रखी हैं। हालांकि
तुमने जंजीरों
की तरह उन्हें
नहीं पहना है,
तुमने
आभूषण समझकर
पहना है।
तुमने जंजीरों
पर हीरे
जवाहरात जड़
लिए हैं।
तुमने
जंजीरें लोहे
की नहीं, सोने
की बना ली हैं।
तुमने जंजीरों
में बड़ा रस भर
लिया है। अब
तुम उन्हें
छोड़ने में भी
डरते हो।
क्योंकि वे
जंजीरें तुम्हें
जंजीरें
दिखाई ही नहीं
पड़ती।
कारागृह को
तुमने खूब सजा
लिया है। और
कारागृह को
तुमने घर बना
लिया है। अब
तुम पूछते जरूर
हो कि कारागृह
से मुक्त कैसे
हो जाऊं, लेकिन
तुम भलीभांति
जानते हो कि
तुम मुक्त
होना नहीं
चाहते।
अन्यथा कौन
तुम्हें
रोकता है।
घर में
आग लगी हो, तो तुम
छलांग लगाकर
बाहर निकल
जाते हो। तब
तुम पूछते
नहीं हो कि
गुरु कहां है,
जिससे पूछूं
मार्ग? तब
पूछते नहीं कि
विधि क्या है
बाहर निकलने
की? तब तुम शास्त्रों
का माध्यन—मनन
नहीं करते। तब
आग लगी है, इतना
जानना हो गया,
कि मार्ग
तुम खुद खोज
लेते हो।
लेकिन संसार
के बाहर
निकलने के लिए,
तुम पूछते
हो, मार्ग
कहां है? तुम
निकलना नहीं
चाहते, और
आग तुम्हें
शत्रु मालूम
नहीं पड़ती, मित्र मालूम
पड़ती है। फिर
तुम पूछते ही
क्यों हो? अगर
यही सच है कि
तुम्हें
निकलना नहीं,
अगर यही सच
है कि कारागृह
को ही घर
बनाने में तुम्हें
रस आता है, तो
बनाओ, फिर
मार्ग क्यों
पूछते हो?
मन
बहुत चालाक
है! मार्ग
पूछकर तुम
दोहरी बात अपने
को समझा लेते
हो कि मैं कोई
साधारण, सांसारिक
आदमी नहीं हूं,
मैं
आध्यात्मिक
हूं। बंधन में
पड़ा हूं, लेकिन
निकलना चाहता
हूं; क्रोध
करता हूं, लेकिन
आकांक्षा
अक्रोध की है;
कामवासना
में पड़ा हूं; लेकिन ध्यान
तो
ब्रह्मचर्य
का है। ऐसे
तुम अपनी
गंदगी को भी
आदर्शों में
छिपा लेते हो,
ऐसे तुम घाव
के ऊपर फूल रख
लेते हो। घाव
को तुम मिटाना
भी नहीं चाहते,
घाव को तुम
देखना भी नहीं
चाहते, इसलिए
तुम पूछते
फिरते हो; मार्ग
कहां, विधि
कहां, गुरु
कौन, कैसे
मुक्त हो!
तुम्हारी इस
बेईमानी से
कौन तुम्हें
बाहर निकाल
सकेगा?
यह
बेईमानी
तुम्हें पूरी
खुली आंख से
देखनी होगी। कष्टपूर्ण
है। दूसरे की
बेईमानी
देखनी तो बहुत
आनंदपूर्ण
होती है, खुद
की बेईमानी
देखनी बहुत कष्टपूर्ण
होती है।
क्योंकि
उसमें
तुम्हारी
अपनी ही आंखों
में तुम्हारी
प्रतिमा गिर
जाती है। और
तुमने बड़ी
भव्य
प्रतिमाएं
बना रखी हैं!
बुरे
से बुरा आदमी
भी यही मानता
है कि आदमी तो मैं
भला हूं, कभी—कभी
बुराई कर लेता
हूं, यह
बात दूसरी है।
बुरा कृत्य है,
आदमी तो मैं
भला हूं; संयोग
से, परिस्थिति
से, मजबूरी
से, भाग्यशांत बुराई कर
लेता हूं; करना
नहीं चाहता
हूं। और जिस
दिन सुविधा
होगी, उस
दिन भूलकर भी
नहीं करूंगा।
मजबूरी है, पत्नी है, बच्चे हैं, घर द्वार है,
थोड़ी चोरी,
थोड़ी
बेईमानी, थोड़ा
असत्य कर लेता
हूं, लेकिन
आदमी मैं बूरा
नहीं हूं।
बुरे
से बुरा आदमी
भी अपनी एक
सुंदर
प्रतिमा बनाकर
रखता है। वह
सुंदर
प्रतिमा बुरा
होने में
सहयोगी है; क्योंकि उस
प्रतिमा के
कारण ही तुम
बुराई के घाव
को नहीं देख
पाते। उस
प्रतिमा के
कारण ही बुराई
तुम्हें किस
तरह बांधे हुए
है, और किस
भांति जहर
तुम्हारे रोएं—रोएं में
समा गया है, उसकी
तुम्हें
प्रतीति नहीं
हो पाती। वह
उस प्रतीति से
बचने का उपाय
है। इसलिए तुम
विधि पूछते हो,
मार्ग
पूछते हो।
यह तो
पहली बात समझ
लेनी जरूरी है
कि तुम बंध हो, क्योंकि तुम
बंधना चाहते
हो। यह कितना
ही कष्टपूर्ण
हो, लेकिन
इसे भलाभांति
समझ लेना कि
जंजीरें
तुम्हारे हाथ
में हैं, किसी
और ने तुम्हें
पहनवाई
नहीं, तुमने
ही पहनी हैं।
दोष
दूसरे पर
डालना हमेशा
सुगम है। पति
सोचना है, पत्नी ने
बंधन डाला हुआ
है। कैसी मूढ़ता
है! पत्नी
सोचती है, पति
ने बंधन डाला
हुआ है। कैसा
पागलपन है!
कोई दूसरा
बंधन डाल कैसे
सकेगा? अगर
तुम बंधन न
चाहो, कोई
तुम्हें रोक
सकता? पत्नी
रोक सकती, पति
रोक सकता? बच्चे
रोक सकते हैं?
कौन रोक
सकता है? दुनिया
की कोई भी
शक्ति
तुम्हें बंधन
में नहीं डाल
सकती।
तुम्हारी
मुक्ति
अपराजेय है, उसे पराजित
नहीं किया जा
सकता। अगर
घुटने टेककर
तुम रुके हो, तो तुम
जिम्मेदार
हो। कोई किसी
को बांध नहीं
रहा है। कोई
किसी को बांध
ही कैसे सकता
है? कम से
कम एक चीज तो
ऐसी है जिस पर
किसी का कोई
वश नहीं है—वह
तुम्हारी
आंतरिक परम
स्वतंत्रता
है।
दोस्तोवस्की, रूस का एक
बहुत बड़ा लेखक,
बड़ा मनसविद,
बड़ा तत्वचिंतक,
कारागृह
में डाल दिया
गया था।
कारागृह से
उसने अपने एक
पत्र में लिखा
है कि कारागृह
आकर मुझे पता
चला कि दुनिया
में केवल मेरे
शरीर को ही
बंधन में डाल
सकती है, मुझे
नहीं। कारागृह
में मैं उतना
ही मुक्त हूं,
जितना मैं
कारागृह के
बाहर था; मेरी
मुक्ति में
कोई आधा नहीं
पड़ी।
तुम्हारे
भीतर के आकाश
को कौन
अवरुद्ध कर
सकता है? लेकिन
तुम सोचते हो,
पत्नी ने
बांध रखा है!
ऐसा
हुआ कि शेख
फरीद एक गांव
से गुजरता था।
दो—चार शिष्य
उसके साथ थे। अचानक
बीच बाजार में
फरीद रुक गया
और उसने कहा
कि देखो! एक
बड़ा सवाल
उठाया! बड़ा
तत्व का सवाल
है और सोचकर
जवाब देना। एक
आदमी गाय को
ले जा रहा है
बांधकर। फरीद
ने कहा कि मैं
पूछता हूं, यह गाय आदमी
से बंधी है कि
यह आदमी गाय
से बंधा है? शिष्यों ने
कहा, इसमें
कौन सी बड़ी
बात है। यह
कौन से तत्व
का सवाल है? और आप जैसे
आदमी को मजाक
करना शोभा
नहीं देता।
साफ है कि गाय
आदमी से बंधी
है; क्योंकि
बंधन आदमी के
हाथ में है, और गाय के
गले में है।
तो फरीद ने
कहा, दूसरा
सवाल है: अगर
हम यह बंधन
बीच से तोड़
दें, तो
गाय आदमी के
पीछे जाएगी कि
आदमी गाय के
पीछे जाएगा?
तब जरा
अनुयायी
चिंतित हुए।
उन्होंने कहा, बात तो
सोचने जैसी है,
मजाक नहीं।
क्योंकि बंधन
तोड़ दो, तो
गाय भाग खड़ी
होगी और आदमी
गाय के पीछे
भागेगा।
तो
फरीद ने कहा, मैं तुमसे
कहता हूं कि
आदमी के हाथ
में बंधन नहीं
है; आदमी
के गले में
है। ऊपर से
दिखायी पड़ता
है कि गाय
आदमी से बंधी
है; भीतर
अगर देखो तो
पता चलेगा, आदमी गाय से
बंधा है।
नहीं
कोई पत्नी पति
को कैसे बांधेगी? कोई पति
कैसे किसी
पत्नी को
बांधेगा? तुम
बंधना चाहते
हो, लेकिन
बंधन की
जिम्मेवारी
भी अपने पर
नहीं लेना
चाहते हो; वह
तुम दूसरे पर
डाल देते हो।
इससे बंधन
सुगम हो जाता
है: हम कर भी
क्या सकते हैं?
चारों तरफ
लोग बांधे हुए
हैं, हम
जाए तो जाए
कहां? करें
तो क्या करें?
मुक्ति
मिले कैसे? सारा संसार
विराट है और
बांधे हुए
हैं।
दुकानदार
सोचता है कि
ग्राहक उसे
बांधे हुए हैं।
लोभी सोचता है
कि धन उसे
बांधे हुए है।
कामी सोचता है
कि कामिनी उसे
बांधे हुए है।
सांसारिक
सोचता है कि
संसार उसे
बांध हुए है।
नहीं, कोई
तुम्हें
बांधे हुए
नहीं है। तुम
चालाक हो। और
तुम्हारी
चालाकी गहरी
है। तुम अपने
को धोखा दे
रहे हो। मगर
धोखा कुशलता
का है। दूसरा
बांधे हुए है,
इसलिए मैं
क्या कर सकता
हूं—इससे बंधे
रहने में
सुगमता हो
जाती है।
हम सदा
दूसरे पर दोष
देते हैं।
किसी ने गाली
दी, तुम कहते
हो, इस
आदमी ने मुझे
क्रोधित कर
दिया। कोई
तुम्हें कैसे
क्रोधित कर
सकेगा? तुम
असंभव की बात
कर रहे हो। यह
कभी हुआ ही
नहीं। तुम क्रोधित
होना चाहते हो,
तो गाली
सार्थक हो
जाती है। तुम
क्रोधित नहीं होना
चाहते, गाली
व्यर्थ हो
जाती है। एक
सुंदर स्त्री
निकलती है, तुम मोहित
हो जाते हो।
सुंदर स्त्री
तुम्हें मोहित
कर रही है? तुम
मोहित हो जाते
हो। राह पर
हीरा दिखाई
पड़ता है, तुम
झपट कर उठा लेते
हो। हीरे ने
तुम्हें
निमंत्रण
दिया, या
तुम वासना ले
कर चलते थे, वह वासना
झपट पड़ी? दूसरे
को दोष देना
बंद करो, अन्यथा
तुम कभी मुक्त
न हो सकोगे? क्योंकि अगर
दूसरे ने
तुम्हें
बांधा है तो
तुम कैसे
मुक्त हो
सकोगे, जब
तक दूसरा
तुम्हें
मुक्त न करे? और दूसरे
अनंत हैं। तब
मुक्ति हो
नहीं सकती। और
यह सच है, जो
तुम कहते हो
कि दूसरे ने
हमें बांधा है,
तो फिर
मोक्ष जैसी
कोई संभावना
नहीं है। फिर
तुम कभी
मुक्ति न हो
सकोगे। फिर
बंधन अनंत हैं,
क्योंकि
दूसरे अनंत
हैं। और
तुम्हें...यह
छोड़ देगी
पत्नी, तो
और स्त्रियां
हैं, कोई और
बांध लेगी।
तुम करोगे
क्या तुम
करोगे क्या? तुम निरवस
हो। तुम
बिलकुल असहाय
हो। तुम जहां
जाओगे, कोई
न कोई तुम्हें
बांध लेगा; किसी न किसी
का पट्टा
तुम्हारे गले
में होगा। अगर
दूसरे ने
बांधा है तो
मोक्ष असंभव
है।
इसलिए
कबीर, नानक,
फरीद, सभी
ज्ञानी इस
सत्य को पहली
सीढ़ी बनाते
हैं कि इसे तो
तुम बिलकुल
साफ कर लो, अन्यथा
यात्रा ही
नहीं होगी कि
तुम ही बंध
हो। तब मुक्ति
संभावना है।
क्योंकि तब
तुम ही तोड़
सकते हो। तुम
ही बंधे हो, तुम ही
मुक्त हो सकते
हो। न कोई
तुम्हें बांधता
है, न कोई
तुम्हें बांध
सकता है।
तब एक
और बात समझ
लेना जरूरी है, जो बड़ी गहरी
है। महावीर ने
कहा है, कोई
तुम्हें
मुक्त भी नहीं
कर सकता। तुम
कितनी ही पूजा
करो, कितना
ही पाठ करो—कोई
तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकता।
क्योंकि अगर
कोई तुम्हें मुक्त्त
कर सकता है, तो कोई
तुम्हें बांध
सकता है। अगर
दूसरे ने तुम्हें
बांधा ही नहीं,
तो दूसरा
तुम्हें
मुक्त भी न कर
सकेगा।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, तुम इस
भ्रांति में
भी मत पड़ना
कि कोई दूसरा
तुम्हें
मुक्त कर
देगा। महानतम गुरु
भी तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकता। क्योंकि
दूसरे के
द्वारा मुक्त
होने की
संभावना तभी है
जब तुम दूसरे
के द्वारा
बांधे गए हो।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, बुद्ध
केवल इशारा
करते हैं कि
बंधन कहां है;
बुद्ध
मुक्त नहीं कर
सकते। बंधे
तुम हो, मुक्त
भी तुम्हीं
होओगे।
महावीर बता
सकते हैं कि
बंधन कैसे
कटता है; बंधन
क्या है; लेकिन
महावीर
तुम्हारा
बंधन नहीं काट
सकते। और यह
शुभ है कि कोई
दूसरा
तुम्हारा
बंधन नहीं काट
सकता। नहीं तो
इधर महावीर
काटेंगे, कोई
दूसरा बांध
देगा। जब काटा
जा सकता है तो
बाधा जा सकता
है। जब बांधा
नहीं जा सकता,
तो काटा भी
नहीं जा सकता।
इसलिए
गुरु तुम्हें
मार्ग दे सकते
हैं, लेकिन
चलना तुम्हें
है। गुरु
तुम्हें विधि
दे सकते हैं, लेकिन विधि
का उपयोग करना
तुम्हें है।
गुरु इशारा कर
सकते हैं, लेकिन
इशारे को जीवन
बनाना
तुम्हें है।
गुरु केटलिटिक
एजेण्ट
हो सकते हैं, उनकी
मौजूदगी में
तुम जाग सकते
हो; लेकिन
जागना
तुम्हें है।
और बड़ी कठिनाई
यह है कि कबीर
ने कहीं कहा
है कि सोये, हुए को
जगाना आसान है; लेकिन
जो जागा हुआ
पड़ा हो, उसको
जगाना असंभव!
तुम उसी हालत
में हो—दूसरे...तुम
बिलकुल सोये
भी होते तो
हिला कर तुम्हें
पाया जा सकता
था। तुम बना
कर सो रहे हो। तुमने
चादर ओढ़ रखी
है, आंख
बंद किए पड़े
हो। तुम सभी
भांति दिखला
रहे हो कि तुम
बिलकुल गहरी
नींद में हो, और तुम जागे
हुए हो।
तुम्हें कैसे
जगाया जाए? नींद हो, टूट
सकती है; झूठी
नींद को कैसे तोड़िएगा? तुम धोखा दे
रहे हो। आत्मवंचना
तुम्हारा
करीब—करबी
स्वभाव बन गया
है।
इन
बातों को खयाल
में रख कर
कबीर के सूत्र
को समझने की
कोशिश करें।
कबीर तो
गांव के गंवार
हैं। उनके पास
कोई बहुत बड़े दार्शनिक
शब्द नहीं हैं, लेकिन एक
ग्रामीण का
गहरा अनुभव है,
और ग्रामीण
के अनुभव की
ताजगी है। वे
जो प्रतीक भी
चुनते हैं, वे गांव के
सहज प्रतीक
हैं, लेकिन
उनकी चोट बड़ी
गहरी है।
जितना
सुसंस्कृत
शब्द हो जाता
है, उतना ही
मृत हो जाता
है। भाषा
जितनी साफ—सुथरी,
परिष्कृत
हो जाती है, जितना उस पर
रंग—रोगन हो
जाता है, उतना
ही जीवन से
शून्य हो जाता
है।
गांव
का ग्रामीण जो
भाषा बोलता है, वह उतनी ही
जीवंत होती है
जितना गांव का
ग्रामीण होता
है। कबीर की
भाषा बड़ी
जीवंत है, और
उनके प्रतीक
सीधे—साधे
हैं।
हिंदुस्तान
में, जीसस
के मुकाबले
सिर्फ कबीर
है।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण,
राम—सब बहुत
परिष्कृत
दुनिया के लोग
हैं। बड़ी शुद्ध,
सुसंस्कृत,
कुलीन
परंपरा के लोग
हैं। कबीर ठेठ
ग्रामीण हैं—ठीक
जीसस जैसे—जीसस
बढ़ई के लड?के
हैं, कबीर
जुलाहे हैं। जीसस
भी गांव की
भाषा का उपयोग
करते हैं। और
यह जान कर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि जीसस का जो
प्रभाव है
इतना विराट, सारे जगत पर—आधी
दुनिया जीसस
के साथ है—उसका
कारण उनकी
भाषा की ताजगी
है।
महावीर
और बुद्ध की
भाषा कागजी
फूल मालूम पड़ती
है। बड़े शुद्ध
सिद्धांतों
की चर्चा है।
लेकिन हृदय को
चोट नहीं करती; बुद्धि को
छूती है और
बिखर जाती है।
कबीर और जीसस
की भाषा सीधी—सादी
है; अनुभव
की है, शास्त्र
की नहीं है।
ये सारे
प्रतीक अनुभव
के हैं।
कबीर
ने कहा—अपन पौ आपु ही बिसरो!
खुद ही भूल गए
हो खुद को, दूसरों को
दोष दे रहे
हो। खुद ही
बंध गए हो, दूसरों
को जिम्मेवार
ठहरा रहे।
अपना
पौ आपु ही बिसरो।
जैसे
श्वास कांच
मंदिर मह, भरमते भूंकि
मरो।।
कथा है
कि एक सम्राट
ने एक मंदिर
बनाया कांच का।
विराट मंदिर
था, उसमें
हजारों दर्पण
लगे थे! एक
कुत्ता भूल से
वहां प्रवेश
कर गया। द्वार,
द्वारपाल
रात बंद कर
गया, कुत्ता
भीतर रह गया
मंदिर में।
बड़ा मुश्किल में
पड़ गया। देखा
तो चारों तरफ
लाखों कुत्ते
थे। क्योंकि
हर दर्पण से
कुत्ता दिखाई
पड़ रहा था। इस
तरह दुश्मनों
को बीच में
कभी कुत्ते ने
अपने को पाया
नहीं था। एक
ही हो, लड़
ले, जीत
ले। लाखों थे,
जहां देखता
था, वहीं
थे—नीचे थे, ऊपर थे—चारों
तरफ थे—कुत्ता
घबड़ाया। भौंक
कर उसने डराना
चाहा।
ध्यान
रहे, तुम जब भी
दूसरे को
डराना चाहते
हो—डर के कारण
ही। तुम पहले
डर गए होते हो,
नहीं तो तुम
दूसरे को
क्यों डराना
चाहते हो? भयभीत
आदमी दूसरे का
भयभीत करना
चाहता है। अगर
दूसरा भयभीत
हो जाए, तो
उसके भय को
थोड़ी राहत
मिले।
तो
ध्यान रखना, जो आदमी
वस्तुतः अभय
है, वह
किसी भयभीत
नहीं करता। जो
आदमी खुद
भयभीत है, वह
दूसरे को भी
भयभीत करता
है। भयभीत
करने के ढंग
बड़े सूक्ष्म
हो सकते हैं।
कोई तुम्हारी
छाती पर तलवार
रख कर तुम्हें
डरा सकता है।
कोई तुम्हें
नर्क की पूरी
व्यवस्था
समझा के डरा
सकता है, कि
वहां आग लगेगी,
लपटें
होंगी, तेल
होगा, तेल
के बढ़ाए
होंगे, उसमें
तुम डाले
जाओगे! सैनिक
तुम्हें
डराता है
तलवार से, तुम्हारा
साधु तुम्हें
डराता हैं।
नर्क से। सूक्ष्म
उपाय हैं; लेकिन
तुम्हारा
साधु ही डरा
है, तुम्हारा
सैनिक भी डरा
हुआ है। जो
डरा हुआ नहीं
है, वह
दूसरे को
डराएगा क्यों?
दूसरे
को हम भयभीत
करते हैं
आत्मरक्षा के
लिए। उस
कुत्ते ने भी
सीधा—साधा
उपाय किया, जैसा आदमी
करते हैं।
भौंका, चाहा
कि डरा दे।
लेकिन बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया।
क्योंकि जब
भौंका तो उसने
पाया कि वह
लाखों कुत्ते
भी भौंके। और
खुद ही आवाज
सुनसान मंदिर
में गूंज कर
वापिस लौटी।
रोआं—रोआं कंप
गया होगा।
बचने का कोई
उपाय नहीं, भागने की
कोई जगह नहीं।
भागकर जाओगे
कहां, चारों
तरफ से घिरे
हुए हो। नीचे—ऊपर
से घिरे हुए
हो। उस कुत्ते
की पीड़ा तुम
नहीं समझ
पाओगे। लेकिन
अगर तुम अपने
जीवन को देखोगे,
तो वही पीड़ा
है, और समझ
में आएगी।
जैसे
श्वास कांच
मंदिर मह, भरमते भूंकि
मरो सुबह जब
द्वार खोला
गया तो कुत्ता
मरा हुआ पाया
गया। किसी ने
उसे मारा
नहीं। कोई
वहां था ही
नहीं जो
मारता। मंदिर
खाली था। लेकिन
कुत्ते के
पूरे शरीर पर
घाव थे।
लहूलुहान था।
सारे मंदिर
में खून फैला
था। हुआ क्या?
भौंका, झपटा,
दीवालों से
टकराया—अपने
ही हाथ मर
गया।
अपन पौ
आपु ही बिसरो! और
यही जीवन की
कथा है—तुम्हारी
भी!
किससे
तुम नाराज हो
रहे हो! किससे
तुम मोह से भरे
हो? किस पर तुम्हारी
घृणा है। कभी
तुमने गौर
किया कि तुम्हारे
सभी संबंध
दर्पणों की
भांति हैं।
सभी संबंध
दर्पण हैं।
क्योंकि तुम
अपनी ही
तस्वीर देखोगे,
तुम अपने
चारों तरफ
जितने संबंध
बनाते हो, वे
सब तुम्हारी
ही तस्वीर है।
उसमें तुम
किसी और को
नहीं देखते, अपने का ही
देखते हो।
जहां
तुम्हारी
तस्वीर अच्छी
तुम्हें मालूम
गलती है, मित्र;
जहां बुरी
लगती है, शत्रु।
अपना, पराया...!
लेकिन
तुम्हारे सभी
संबंध, रिलेशनशिप,
दर्पण की
भांति हैं।
उसमें दिखाई
तो तुम स्वयं
ही पड़ते हो, कोई और
नहीं।
खयाल
करो, क्रोधी
आदमी सब तरफ
पाएगा कि सभी
लोग उसका
अपमान कर रहे
हैं। कोई
हंसेगा, तो
वह समझेगा, मेरे लिए
हंसते हैं।
रास्ते पर कोई
खुसफुस कर बात
करेगा,तो
वह समझेगा
मेरे लिए बात
करते हैं। अगर
तुम कुछ न
बोलोगे, चुपचाप
खड़े रहोगे, तो वह
समझेगा कि ये
मेरी वजह से
चुपचाप खड़े हैं।
तुम कुछ भी
करो, वह
अपनी तस्वीर
देखेगा।
मेरे
एक मित्र हैं।
उनका एक लड़का
है। उनके लड़के
ने मुझे कहा
कि अब मैं
मुश्किल में
पड़ गया हूं, अब कोई उपाय
दिखाई नहीं
पड़ता, आप
ही कुछ करें!
मेरे पिता को
समझा दें। अगर
मैं ढंग से
कपड़े पहनता
हूं तो वे
कहते हैं, अच्छा,
कर लो
राजशाही; जब
मैं मरूंगा, तब पता
चलेगा। अगर
मैं साधारण
ढंग के कपड़े पहनूं, तो
वे कहते हैं, अच्छा, तो
हम मर गए क्या?
अभी तो ठीक
से पहन लो, पीछे
तो यह हालत
आने ही वाली
है। उस युवक
ने मुझे कहा, कोई रास्ता
नहीं दिखाई
पड़ता सब करे
देख चुका हूं।
लेकिन नतीजा
वे हमेशा यह
निकालते हैं,
जो उन्हें
निकालना है।
और उनका नतीजा
बिलकुल
तर्कयुक्त
है। दोनों में
कहीं कोई गलती
आप नहीं पा
सकते।
क्रोधी
आदमी अपने
चारों तरफ हर
स्थिति से क्रोध
को उपजा लेता
है। लोभ आदमी
अपने चारों
तरफ देखता है
कि सब उसको
लूटने को
तैयार हैं। सब
मित्र, बेटे
पति—पत्नी—सब
उसको लूटने को
तैयार हैं।
सगे—संबंधी—सब
एक ही नजर पर
लगे हैं कि
किस तरह उसको
लूट लें। लोभी
पाता है कि
सारा संसार
उसे लूटने को
तैयार है। यह
लोभ की तस्वीर
दर्पण में
दिखाई पड़ रही
है।
कामी
पाता है कि
सारा संसार
उसको कामना
में ग्रस्त
करना चाहता
है। त्यागी
पाता है कि
सारा संसार
त्याग की तरफ
ले जा रहा है।
त्यागी पाता
है कि सारा
संसार एक ही
इशारा कर रहा
है कि छोड़ो, भागो।
तुम जो
हो, उसकी ही
प्रतिध्वनि
तुम्हें
चारों तरफ
सुनाई पड़ती
है। और सारा
जगत दर्पण है—कांच
मंदिर, कबीर
जिसको कह रहे
हैं।
जैसे
श्वान कांच
मंदिर मह, भरमते भूंक
मरो।
और
आखिर में जब
तुम मिट जाते
हो—सारी
जिंदगी तुम
मिटते हो—तो
आखिर में तुम
यही पाओगे, यही सोचोगे,
इन सबने मिल
कर समाप्त कर
दिया, सारा
डाला।
पुराने
समय में और
अभी भी
आदिवासी
कबीलों में, अगर कोई
बीमार पड़ जाए,
तो वे भी
पता लगाते हैं
कि किसने
बीमार करने का
जादू मुझ पर
चलाया। बीमार
तुम पड़ते हो!
लेकिन वह जाता
है ओझा के पास
पता लगाने कि
कौन है, जिसने
मेरे खिलाफ
बीमारी भेजी!
वह तर्क तो
यही है कि अगर
बीमारी आयी है
तो कोई
भेजनेवाला होगा।
अगर मैं दुखी
हूं तो कोई
दुख दे रहा
होगा। अगर मैं
परेशान हूं तो
कोई जरूर परेशान
कर रहा होगा।
गणित सीधा
दिखाई पड़ता है
कि बिना किसी
के परेशान किए
हुए कैसे
परेशान होऊंगा।
लेकिन
तुम्हें
मनुष्य के मन
का कुछ भी पता
नहीं है। अगर
तुम बिलकुल
अकेले छोड़ दिए
जाओ, तुम्हारी
सब जरूरतें
पूरी कर दी
जाए, तो भी
तुम्हारी यही
स्थिति होगी।
पश्चिम
में बहुत से
प्रयोग हुए
हैं। एक
प्रयोग जिसको
वे सेन्स—डिप्राईवेशन
कहते हैं, वह बहुत
बहुमूल्य
प्रयोग है। कई
मनोवैज्ञानिकों
ने उस पर काम
किया है।
उन्होंने इस
तरह के गर्भ—गृह
बनाए हैं, जहां
सब तरह की
सुविधा है।
भोजन भी अपने—आप
नली से खून
में पहुंच
जाता है; उसे
करने कि कोई
जरूरत नहीं।
प्यास लगती है
तो आटोमेटिक
इंतजाम है, पानी शरीर
में पहुंच
जाता है, भोजन
शरीर में
पहुंच जाता
है। घना
अहंकार है। कोई
आवाज नहीं
सुनाई पड़ती।
और उन्होंने
ठीक वैसा ही
रासायनिक
इंतजाम किया
है, जैसे
बच्चे के लिए
गर्भ में होता
है।
इस तरह
के टब बनाए
हैं, जिनमें
ठीक वही
रासायनिक
द्रव्य होता
है, जो मां
के गर्भ में
होता है, और
आदमी उसमें
तैरता रहता है,
उसमें सोया
रहता है। उस
टब में सब तरफ
अंधकार है। न
भोजन की चिंता
है, न पानी
की चिंता है, न कोई तकलीफ
है—सब तरह की
सुविधा है, बस सुख है।
लेकिन पंद्रह
मिनट में आदमी
बेचैन हो जाता
है—पंद्रह
मिनट में वह
सूचनाएं
भेजने लेता है,
मुझे निकालो,
बाहर करो।
लंबे
प्रयोग किए गए
हैं, कुछ
लोगों ने
हिम्मत की और
इक्कीस दिन का
प्रयोग किया
गया। और
इक्कीस दिन
में उनको खबर
दी गई कि वे
वक्त—वक्त पर
सूचना देते
रहें। उनके पास
बटन लगा दिए
गए थे। जब वे
क्रोधित
मालूम पड़ें तो
लाल बटन दबा
दें, तो
ऊपर
वैज्ञानिक
नोट कर लेगा
कि अभी
क्रोधित हैं।
जब वे भयभीत
मालूम पड़ें तो
हरा बटन दबा दे।
जबर्
ईष्या से भरे
मालूम पड़ें तो
यह बटन दबा
दें। इस तरह
के सब
मनोवेगों के
लिए बटन लगाए
रखे हैं। और बड़ी
हैरानी की बात
है: कोई नहीं
है सताने
को वहां, लेकिन
वक्त पर आदमी
क्रोधित होता
है। कोई कारण
नहीं क्रोधित
होने का। वह
खुद भी बेचैन
होता है कि
मैं क्रोधित
क्यों हूं, पर क्रोधित
है।
क्रोध, लोभ, मोह,
सब
तुम्हारी
भीतर
अवस्थाएं
हैं। इनका
बाहर के लोगों
से कोई भी
संबंध नहीं।
बाहर के लोग
तो खूंटियों
जैसे हैं, जिन
पर तुम अपने
कपड़े टांग
देते हो। बाहर
के लोगों पर
जब तुम क्रोध टांगते हो,
तो वे खूंटी
है; लोभ टांगते
हो, वासना टांगते हो—वह
खूंटी है। आता
सब तुम्हारे
भीतर से है।
और जब तुम
जीवन में
विषाद से भरोगे
और सब नष्ट हो
जाएगा, और
मौत पास आएगी,
तब तुम
कहोगे कि शायद
सारी दुनिया
के प्रति तुम्हारी
शिकायत है कि
लोगों ने
बरबाद कर दिया;
हम क्या से
क्या होने आए
थे, होने
नहीं दिया
गया! तुम्हारे
जीवन से कैसी
प्रतिभा और
प्रकाश पैदा
होता, लेकिन
सबने मिल कर
नष्ट कर दिया!
यह जगत तुम्हारा
शत्रु है?
पर कोई
कारण नहीं
दिखाई पड़ता कि
जगत तुम्हारा शत्रु
क्या है! कोई
तुम्हें
मिटाने को
उत्सुक क्यों
हैं? सब अपने
को पूरा करना
चाहते हैं, और सभी
सोचते हैं कि
बाकी उन्हें
मिटाने को उत्सुक
हैं। तुम
किसको मिटाने
को उत्सुक हो?
तुम अपने को
पूरा करना चाहते
हो, दूसरे
अपने को पूरा
करना चाहते
हैं। लेकिन संबंधों
में दर्पण के
अतिरिक्त भी
नहीं; तुम्हें
अपनी ही
तस्वीर दिखाई
पड़ती है।
मैंने
सुना है कि एक
आधुनिक
चित्रों की
प्रदर्शनी
थी। आधुनिक
चित्र, माडर्न पेंटिंग तो
तर्कहीन है।
उसका अर्थ भी
निकालना
मुश्किल है। और
पिकासो
जैसे
चित्रकार
कहते हैं, अर्थ
होता ही नहीं,
निकालोगे कैसे?
पिकासे
से किसी ने
पूछा कि
तुम्हारे इन
चित्रों का क्या
अर्थ है? तो
उसने कहा कि
बाहर जो झाड़
खड़े हैं, इनका
क्या अर्थ है?
ये फूल खिले
हैं, इनका
क्या अर्थ है?
झरना जो
कलकल कर रहा
है, इनका
क्या अर्थ है?
जब इनका कोई
अर्थ नहीं, तो पिकासो
को क्यों झंझट
में डालते हो?
जब
परमात्मा
अर्थहीन है तो
मुझ गरीब को
क्यों फंसाते
हो? मैं भी
अर्थहीन हूं।
तो
आधुनिक
चित्रकला
बिलकुल अर्थहिन
है—प्रकृति
जैसी है। उसे
तुम देखकर
प्रसन्न हो सकते
हो, उदास हो
सकते हो, दुखी
हो सकते हो, सुखी हो
सकते हो, मगर
अर्थ वहां कुछ
भी नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
देखने गया था
उस प्रदर्शनी
को—अधुनिक
चित्रों की।
चित्र देख—देखकर
वह परेशान हो
गया: कुछ सूझ—बूझ
के बाहर है सब; न इनका आगा, न पीछा। न यह
ही पता चलता
कि सीधे टंगे
हैं कि उलटें
टंगे हैं।
आखिर एक चित्र
के सामने खड़ा
हो गया, और
उसने कहा कि
हद हो गई, इस
चित्र का क्या
अर्थ है?
उस
चित्रकार ने
कहा, महानुभाव,
आप दर्पण के
सामने खड़े
हैं! यह चित्र
है ही नहीं।
पूरा
जीवन दर्पण के
सामने है।
इसलिए संबंध
के प्रति वही
व्यवहार करना
जो दर्पण के
प्रति करते
हो। संबंध
नाजुक भी उतना
ही है जितना
दर्पण—जरा गिर
गया कि टूट
जाता है। और
संबंध एक दफा
टूट जाए तो, वैसा ही
जोड़ना
मुश्किल है
जैसा दर्पण।
जोड़ भी लो
टूटे हुए इस
संबंध को, तो
भी टूट की
रेखाएं रह
जाती हैं।
प्रेम एक दफा
टूट जाए, फिर
लाख उपाय करो जोड़ने का, जोड़ भी लो, तो भी फिर
वही बात वापस
नहीं लौटती।
संबंध
बिलकुल दर्पण
जैसा है; उतना
ही नाजुक; और
तुमको ही
दिखाता है।
तुम सदा हर
संबंध में तुम्हीं
खड़े हो। दूसरे
को दोष मत
देना। अगर जीवन
व्यर्थ हो जाए,
तो जानना कि
तुमने ही
व्यर्थ कर
लिया है। और जितने
जल्दी तुम समझ
लो कि दूसरे
का कोई हाथ
तुम्हें नष्ट
करने में नहीं
है, उतने
ही जल्दी
तुम्हारी
जीवन में सृजन
की प्रक्रिया
का प्रारंभ हो
जाएगा।
जैसे
श्वास कांच
मंदिर मह, भरमते भूंकि
मरो।
अपन
पौ आपु ही बिसरौ।
ऐसी ही
तुम्हारी
दिशा है!
जौ केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि
परो।
और
जैसा सिंह ने
गुजरते हुए
नदी के तट पर
अपनी छाया
देखी, झपट
कर कुछ पड़ा!
दुश्मन को
बरदाश्त करना
मुश्किल है!
मर गया।
तुम जब
भी झपटो, थोड़ा रुकना!
एक क्षण सोचा
कि जिससे तुम
झपट रहे हो, वहां कोई है,
या तुम अपनी
ही प्रतिबिंब
पर झपट रहे हो?
कोई
तुम्हारी
निंदा करे, तुम तत्काल
झपट पड़ते हो।
कभी
तुमने गौर
किया कि निंदा
से दुख इसलिए
होता है कि वह
सच है, अन्यथा
दुख न होगा
अगर कोई
तुम्हारे
संबंध में
सरासर झूठ बात
कह रहा हो तो
तुम हंस सकोगे?
लेकिन अगर
कोई ऐसी बात
कह रहा है जो
सच है, जिसको
तुम छिपाए
बैठे हो, और
जिसको वह उघाड़े
डाल रहे है, तो तुम झपट
पड़ोगे। निंदा
पीड़ा देती है
कि तुम्हारे ढके हुए
सत्य
तुम्हारे
सामने ही उघड़ने
शुरू होते
हैं।
अगर
तुम गौर से
निंदक का
विचार करोगे
तो तुम अक्सर
पाओगे कि सौ
मैं
निन्यानबे मौकों पर
वह सही है। और
इसका कारण है
उसके सही होने
का। क्योंकि
दूसरे को
देखना
तटस्थता से, हमेशा
तुम्हें जैसा
देखते हैं, तुम अपने को
नहीं देख
पाते।
तुम्हें पता
ही नहीं चलता
कि दूसरे
तुम्हें कैसे
देखते हैं।
मनसविद
कहते हैं, अगर सभी लोग
वास्तविक, सच्चे
हो जाए, जैसा
कि धर्मगुरु
समझते हैं कि
सभी लोग सच्चे
हो जाए, और
सत्य ही बोलें
तो दुनिया चार
दिन चल सकती।
क्योंकि अगर
सभी सत्य कह
दें, जैसा
वह तुम्हारे
संबंध में
सोचते हैं, तो सब
दुश्मन हो
जाएंगे।
मित्र तो एक
खोजना मुश्किल
है। क्योंकि
मित्र भी
इसलिए मित्र
मालूम होता है
कि वह कहता
नहीं, जो
सोचता है, या
कहता भी है, तो पीठ पीछे
कहता है।
दूसरा
तुम्हें गौर
से देख पाता
है; क्योंकि
एक तटस्थता
है। एक बात
कभी तुम्हें भी
निरीक्षण में
आयी होगी; कोई
आदमी समस्या
लेकर
तुम्हारे पास
आ जाए तो तुम
उसे बड़ी कीमती
सलाह दे पाते
हो, और अगर
वही समस्या
तुम्हारे
जीवन में हो, तो खुद की
सलाह भी तुम
खुद के काम
में नहीं ला
पाते हो।
क्यों?
दूसरे
को सलाह देना
आसान है, क्योंकि
फासला है। बड़े
से बड़े सर्जन
की पत्नी का
आपरेशन करना
हो तो वह खुद
नहीं करता, क्योंकि हाथ
कंपेगा; फासला कम
है। दूसरे की
पत्नी पर कोई
दिक्कत नहीं
है उसकी।
दूसरी की
पत्नी से क्या
लेना—देना है!
दूसरे की
पत्नी पर वह
ऐसे ही आपरेशन
करता है, जैसे
पास्टमार्टम
कर रहा हो।
जिंदा है कि
मुर्दा, कोई
फर्क नहीं।
लेकिन अपनी
पत्नी में
लगाव है, बच्चे
हैं, घर
परिवार है; वह कहीं मर न
जाए, कहीं
भूल—चूक न हो
जाए! भयभीत
होता है, कंपता
है! तो बड़े से
बड़े डाक्टर को
भी अगर अपनी
पत्नी का
आपरेशन हो, तो किसी
दूसरे सर्जन
को बुलाना
पड़ता है। और
बड़े से बड़े
डाक्टर को भी
अगर खुद की ही
बीमारी का निदान
करना हो, तो
दूसरे से
करवाना पड़ता
है।
बड़ी
हैरानी की बात
है! तुम, जो
सभी जानते हो—क्या
जरूरत है किसी
और से निदान
करवाने की? खुद निदान
कर लो। लेकिन
अब फासला और
भी कम है—पत्नी
से थोड़ा बहुत
फासला था भी।
और पत्नी मर जाए,
ऐसी कोई
अचेतन
आकांक्षा भी
हो सकती थी, क्योंकि
छुटकारा कौन
नहीं पाना
चाहता! शायद डर
के पीछे यह भी
कारण हो सकता
है कि कहीं
मैं मार न डालूं,
कि कहीं भूल—चूक
करके इसको खत्म
न कर दूं; क्योंकि
अचेतन में, ऐसा पति
खोजना कठिन है,
जिसने दस—पांच
बार न सोचा हो
कि यह खतम ही
हो जाए पत्नी।
पत्नी खोजना
मुश्किल है, जिसने दस
बार न सोचा हो
कि यह कैसे
खतम हो जाए, तो झंझट
मिटे। खतम हो
जाने पर रोएंगे,
छाती पीटेंगे।
और वह
भी कारण समझने
जैसा है। जब
कोई मरता है, तुम रोते हो,
उस रोने में
तुम्हारा
अपराध का भाव
भी है, क्योंकि
तुमने इसे
मारना चाहा था
और अब यह मर गया।
तुम्हें लगता
है कि
तुम्हारी भी
जिम्मेवारी
है। अगर तुमने
किसी व्यक्ति
को कभी मारना
न चाहा हो, तो
उसकी मृत्यु
को तुम हलकेपन
से ले लोगे। तुम्हारा
कोई अपराध
नहीं है, पश्चात्ताप,
ज्यादा
नहीं होगा।
पश्चात्ताप
उसी मात्रा में
होता है जितना
अपराध का भाव
हो।
बाप मर
जाता है, बेटा
बहुत रोता है;
क्योंकि
जिंदा था, कभी
उसके पैर न
छुए; जिंदा
था, कभी
उसके पास
बैठकर दो
प्रेम की
बातें न कीं। अब
कोई मौका न रहा।
सदा के लिए यह
अपराध मन पर
रह जाएगा। अब
इसको सुलझाने
की कोई सुविधा
नहीं है।
लेकिन जिस
बेटे ने बाप
की सेवा की हो,
जरूरत पर
पैर दाबे
हों, समय
पर उसकी सुनी
हो, उसकी
चिंता की हो, उसको प्रेम
किया हो, वह
इस तरह का
पागल नहीं
होगा। बाप मर
जाएगा तो वह
समझेगा, सभी
मरते हैं।
मरना
स्वाभाविक
है। मैं भी
मरूंगा।
लेकिन
अगर तुमने बाप
के साथ कुछ
ऐसा किया हो, जो नहीं
करना था, तो
तुम्हें
पश्चात्ताप
भारी होगी। यह
बड़ी उलटी बात
है। इसलिए जो
बेटा बहुत
छाती पीटकर
रोएगा, समाज
सोचता है उसको
बहुत दुख हो
रहा है। और जो बेटा
चुपचाप बैठकर
दुख को झेल
लेगा, लोग
कहेंगे कि
बेईमान, बाप
मर गया, चुप
बैठा है।
लेकिन हालत यह
है कि जो चुप
बैठा है इसका
कोई
पश्चात्ताप
नहीं। जो छाती
पीट कर शोरगुल
मचा रहा है, यह
परिपूर्ति कर
रहा है, सब्स्टीयूट खोज रहा है।
इतनी ताकत पैर
दबाने में
लगाई होती, सिर दबा दिया
होता। यह रोने—पीटने
से कोई अर्थ
नहीं है।
तो यह
भी अचेतन भय
हो सकता है कि
कही मैं मार
ही न डालूं, इसलिए भी
हाथ कंप सकता
है। लेकिन खुद
के पास तो
इतना भी फासला
नहीं होता। जब
मैं बीमार हूं,
तो निदान
खुद नहीं हो
सकता।
क्योंकि अब भय
बहुत ज्यादा
है कि कहीं भूल
न हो जाए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने डाक्टर
के पास गया
था। और डाक्टर
ने कहा, तुम
घबड़ाते
क्यों हो? जब
मैं हूं, तो
बीमारी ठीक हो
जाएगी। और
तुम्हारे
भरोसे के लिए
यह कहता हूं
कि ऐसी बीमारी
से मैं भी बीमार
रहा हूं। तुम
बिलकुल मत घबड़ाओ।
नसरुद्दीन
ने कहा, घबड़ाहट नहीं मिटती,
क्योंकि आप
भला इस बीमारी
से बीमार रहे
होंगे, लेकिन
आपका डाक्टर
दूसरा रहा
होगा।
इसलिए
कबीर कहते हैं, काहे की
कुशलात! हाथ
में दीया था
और कुएं में गिर
पड़े! दीया
दूसरों के लिए
था। अपने लिए
जिसके पास
दीया है, वह
तो बुद्ध हो
जाता है। अपने
लिए जिसके पास
ज्ञान है, वह
तो भीतर
प्रकाशित हो
जाता है। उसकी
कुशलता का तो
कोई अंत नहीं है।लेकिन
दूसरों के लिए
दीया हमारे
पास है; अपने
लिए तो हम
अंधे हैं।
इसलिए
यह भी हो सकता
है कि
तुम्हारा
निंदक तुम्हारे
संबंध में जो
कहता हो, वह
ज्यादा सच हो,
जितना तुम
अपने संबंध में
कह सको। कबीर
ठीक कहते हैं,
निंदक
नियरे रखिए।
और उसकी बात
पर सोचना। और
तुम हैरान
होओगे, वही
बात चोट पहुंचाती
है, जो सच
है। सच अखरता
है। सच चुभाता
है। अगर तुम्हारे
संबंध में कोई
झूठी बातें कह
रहा हो, तो
कोई हर्ज
नहीं।
ऐसा
मैंने सुना है
कि आस्कर
वाइल्ड, एक पश्चिम
का बड़ा लेखक, ने किसी
दूसरे लेखक के
संबंध में एक
लेख लिखा, जिसमें
उसने बड़ी
निंदा की। वह
लेखक उससे
मिलने आया, और उसने कहा,
ऐसी क्या
दुश्मनी भंजा
रहे हो? क्यों
इस तरह की
झूठी बातें
मेरे संबंध
में लिखते हो?
आस्कर वाइल्ड ने
कहा, चुप
रहो। अगर सच
लिखना शुरू कर
दूंगा तो तुम
कहीं के न
रहोगे। और
कहते हैं, वह
आदमी चुपचाप
खिसक गया। फिर
उसने शिकायत न
की।
झूठ
तुम्हारे
संबंध में कोई
कहे, सहा जा
सकता है। सच
चुभता है। जो
चीज चुभे,
जान लेना कि
किसी दर्पण ने
तुम्हारा
चेहरा दिखाया।
और दर्पण को
तोड़ देने का
मन होता है।
मैंने
सुना है कि एक
महिला जो बड़ी
कुरूप थी, वह दर्पणों
की दुश्मन थी।
जहां भी दर्पण
देखती फौरन
तोड़ देती।
उसको यही
मैनिया, पागलपन
था। उसको मनसविद
के पास लाया
गया कि इसका
इलाज करो। उस
स्त्री ने कहा
कि मैं, कुछ
भी हो जो, दर्पण
को बरदाश्त
नहीं कर सकती,
क्योंकि दर्पण
के कारण मैं
कुरूप हो जाती
हूं। दर्पणों
के कारण मैं
कुरूप हो जाती
हूं! दर्पण
नहीं होता तो
मैं सुंदर
हूं। दर्पण
होता है तो
मैं कुरूप हो
जाती हूं।
दर्पण
तुम्हें
क्यों कुरूप
करने में लगेगा? दर्पण का
क्या लेना—देना?
दर्पण का
क्या स्वार्थ,
क्या संबंध?
पर दर्पण वह
बता देता है, जो तुम हो।
सब संबंध में
दर्पण हैं।
और वह
स्त्री जो कर
रही थी, वही
लोग संबंधों
में कर रहे
हैं। लोग
संबंध तोड़ते
हैं।
संन्यासी भाग
जाता है पत्नी
को छोड़कर कि
यह अब नहीं
सहा जाता।
लेकिन पत्नी
दर्पण थी।
तुम्हारी
वासना को
प्रकट करती
थी। तुम्हारी
वासना को दिखा
देती थी।
दर्पण तोड़ने
से क्या होगा?
तुम उसी
महिला जैसे
पागल हो।
हिमालय पर भाग
कर क्या करोगे?
वासना तो
साथ चली जाएगी,
दर्पण छूट
जाएगा। खतरा
ज्यादा है
हिमालय में; क्योंकि
दर्पण न होगा,
तो तुम अपने
को सुंदर
समझने लगोगे।
लेकिन तीस साल
बाद, या तीस
जन्मों बाद भी
अगर वापिस
लौटे हिमालय
से, जैसे
ही दर्पण
दिखाई पड़ेगा,
वैसे ही
कुरूप हो
जाओगे। कुरूप
तो तुम थे ही।
इसलिए
वास्तविक
संन्यासी
संबंधों से
भागता नहीं, संबंधों में
जागता है।
दर्पण गौर से
देखता है। और
वास्तविक
संन्यासी
अपने संबंधों
को धन्यवाद
देगा कि तुमने
मुझे दिखाया,
चेताया कि
मैं क्या हूं।
झूठा
संन्यासी
भागता है; सच्चा
संन्यासी
जागता है।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं—भागो
नहीं, जागो। उसे सूत्र
बना लेना है।
किसी संबंध
में मत भागो;
क्योंकि
सभी संबंध
तुम्हें
जागते हैं। जागो और
अपने को बदलो!
दर्पण को
तोड़ने से क्या
होगा? जिस
दिन तुम बदल
जाओगे, यही
दर्पण
तुम्हारे
संबंध में
दूसरी खबर देगा।
जब तुम सुंदर
होओगे, दर्पण
तुम्हें
सुंदर कहने
लगेगा। दर्पण
बिलकुल
निष्पक्ष है।
जौं
केहरि
बपु निरखि
कूपजल, प्रतिमा देखि
परो।
वैसे
ही गज फटिज
सिला पर, दसनन्हि आनि अरो।।
और
वैसे ही हाथी
ने स्फटिक
शिला में
देखकर अपने
चेहरे को, स्फटिक से
टक्कर दे दी, दांत तोड़
डाले अपने।
मरकट
मूठी स्वाद
नहीं बिहुरै, घर—घर रटत
फिरो।
कबीर
के प्रतीक बड़े
सीधे—साफ हैं।
ऐसा अक्सर
होता है कि
बंदर किसी घड़े
में हाथ डाल
देता है—सामना
निकालने को।
चुने हैं, कुछ और भोजन
है। और फिर
मुट्ठी बांध
लेता है। और
स्वभावतः, जितनी
बड़ी मुट्ठी
बांध कसता है,
उतनी बांध
लेता है। हम
भी वही करते
हैं।
बंदर
और आदमी में
निश्चित ही
संबंध है।
डार्विन
गलत नहीं हो
सकता। जब
मुट्ठी को
भरने का मौका
मिला हो तो
छोटी कौन
बनायेगा! उसको
हम नासमझ
कहेंगे।
बुद्धिमान
बंदर, छोटा
बच्चा बंदर का
शायद थोड़ा
बहुत निकाल ले
बाहर। नासमझ
है, अनुभवी
हनीं है; लेकिन अनुभव
बंदर तो जितनी
बड़ी मुट्ठी भर
सकेगा, उतनी
भरेगा। अब
मुट्ठी हो
जाती है बड़ी
और बर्तन के
मुंह से हाथ
बाहर नहीं
निकलता, तो
बंदर बर्तन
लटकाए हुए
कष्ट भोगता है,
भागता है
द्वार—द्वार
छलांग लगाता
है—लेकिन
मुट्ठी नहीं
खोलता।
चिल्लाता है,
चीखता है!
निश्चित ही
कष्ट में पड़ा
है और शायद सोचता
होगा कि इस
बर्तन में कोई
तरकीब है, जिसकी
वजह से मैं
फंस गया।
लेकिन मुट्ठी
नहीं खोलता।
वही
तुम्हारी दशा
है। बड़ी
मुट्ठी बांध
ली, मुट्ठी
नहीं खोलते और
द्वार—द्वार
सिर पटकते
फिरते हैं:
शांति चाहिए,
आनंद चाहिए,
जीवन चाहिए!
और एक घड़े
में फंसे हैं।
उसकी वजह से
बड़ी मुसीबत
है।
बंदरों
को पकड़नेवाले
बंदरों की इस
नासमझी का
फायदा
उठाते हैं।
वह घड़े गाड़ देते
हैं जमीन में, तो बंदर भाग
भी नहीं सकता;
मुट्ठी खोल
भी नहीं सकता।
तुम नहीं
खोलते तो बंदर
कैसे खोलेगा?
कोई तुमसे
कम समझदार है
बंदर? कोशिश
करता है कि
बंधी मुट्ठी
बाहर निकल आए।
यही तो तुम भी
कर रहे हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
है, बस
जैसा चल रहा
है चलता रहे—और
मन शांत हो
जाए। मुट्ठी
बंधी रहे और
मन शांत हो
जाए—ऐसी कोई
तरकीब बताएं।
सब जैसा चलता
है, चलता
रहे, इसमें
कुछ अड़चन न
पड़े और मन
शांत हो जाए।
मन अशांत है, क्योंकि
वहीं घड़े
में जहां
मुट्ठी बांध
ली है, वहीं
कष्ट हो रहा
है, वहीं
पीड़ा है।
एक धनपती
मेरे पास आते
हैं। वह अक्सर
कहते हैं कि
छोडूंगा, एक
दिन सब
छोडूंगा; लेकिन
तब तक कुछ
विधि बताइए!
एक दिन
छोडूंगा, सब
छोडूंगा, लेकिन
तब तक...तब तक
अशांति तो मत भोगवाइये!
जैसे कि मैं
उन्हें
अशांति भुगवा
रहा हूं। कोई
विधि बताइए, तब तक तो मन
शांत हो जाए!
और मैंने उनसे
कहा कि अगर तब
तक कोई विधि
होती शांत
होने की, तो
जब तुम अशांत
हालत में नहीं
छोड़ रहे हो, तो शांत हो
कर तुम कैसे छोड़ोगे? फिर तुम तो
कहोगे कि अब
जरूरत ही न
रही। अगर बंदर
मुट्ठी बांधे
हुए घड़े
के बाहर हाथ
निकल ले, मुट्ठी
बांधे हुए घड़े
की चिंता से
मुक्त हो जाए,
मुट्ठी
बांधे हुए घड़ा
निर्भार हो
जाए—तो बंदर
पागल है कि
फिर मुट्ठी खोलो! इतने
कष्ट कर नहीं
खोल रहा...तुम
इतने दुख में
हो और फिर तुम
नहीं खोल रहे
मुट्ठी, तो
तुम सुख में
होकर मुट्ठी
खोलोगे?
तुमने
कभी सुना है
कि किसी ने
सुख के कारण
संसार छोड़
दिया? दुख
के कारण लोग
नहीं छोड़ते, दुख रहते
हुए नहीं
छोड़ते, महा
दुख पड़ता रहे
तो नहीं छोड़ते,
तो सुख के
कारण कोई
संसार छोड़ेगा?
फिर तो
असंभव है। अभी
असंभव दिखता
है, तो फिर
तो कैसे संभव
होगा?
वे
कहते हैं कि
आप जो भी कहते
हैं, ठीक कहते
हैं। अभी तो
सुविधा छोड़ने
की नहीं है।
क्या ऐसे ही तड़पाता
रहूं? क्योंकि
वे रात सो
नहीं सकते।
उनके घर मैं
मेहमान होता
था, तो वह
रात मुझे भी
नहीं सोने
देते थे। वह
बैठे हैं, बैठे
हैं। मैं संकोचवश
उनसे बात करता
रहूं। आखिर
उनकी पत्नी ने
मुझसे कहा कि
ऐसा न चलेगा।
ऐसी ही पहले
मैंने भी भूल
की थी इनके
साथ। आप तो सो
जाओ! यह जो
इनको रातभर
नींद आती ही
नहीं, क्योंकि
आंकड़े धन के
इतने बड़े हैं,
एक बार
उनके घर
मेहमान हुआ, तो बहुत
उदास थे।
एयरपोर्ट से
मुझे लेकर गए
तो रास्ते में
उन्होंने कहा,
इस बार बहुत
नुकसान हुआ
है। पांच लाख
का नुकसान लगा
अभी पांच—सात
दिन के भीतर। सटोरिये
हैं। उनकी
पत्नी भी साथ
थी। मैं दोनों
के बीच में
बैठा था।
पत्नी ने मेरा
हाथ दबाया और
उसने कहा कि
उनकी बात में
मत पड़ना।
घर जाकर मैंने
पूछा कि मामला
क्या है? उनकी
पत्नी ने कहा
कि नुकसान
बिलकुल नहीं
हुआ, पांच
लाख का लाभ
हुआ है; लेकिन
दस का होना
था। तो वे
जमाने भर में
कहते फिर रहे
हैं कि पांच
लाख का नुकसान
हो गया।
अब यह
जो बंदर की
मुट्ठी है, अब ये शांति
चाहते हैं!
लाभ कल्पना का
जो था, वह
कल्पना पूरी
नहीं हुई, उसको
नुकसान कह रहे
हैं।
तुम भी
जिंदगी के अंत
में जब मरने
के करीब पहुंचोगे, तो तुम उस सब
को भी अपनी
हानि में गिनोगे,
जो तुम
सोचते थे, होना
चाहिए और नहीं
हुआ। जो मिलना
था तुम्हें, जिसकी
तुम्हारी
योग्यता और
पात्रता थी, जिसके लिए
तुम बिलकुल
जन्म से
अधिकार लेकर
आए थे, वह
तुम्हें नहीं
मिल गया।
मुट्ठी
खोलनी पड़ेगी।
बंदर पन से
नहीं चलेगा! और
संन्यास का
इतना ही अर्थ
है: बंदरपन
से मुक्त हो
जाना। वह
नासमझी इतनी
साफ है कि तुम
परेशान हो रहे
हो ज्यादा लाभ
के कारण। तुम परेशान
हो रहे हो
ज्यादा क्रोध
के कारण। तुम
परेशान हो रहे
हो...उतनी
वासनाएं
इकट्ठी कर ली
हैं, जिनको
बांधकर रख
लेने का
तुम्हारे पास
उपाय भी नहीं।
तुम्हारी
मुट्ठी छोटी है,
और तुमने
बहुत भर लिया
है। आवश्यकता
तक तो मुट्ठी
काफी है; जैसे
ही आवश्यकता
वासना बनती है,
मुट्ठी
छोटी पड़ जाती
है। फिर जितनी
बड़ी तुम मुट्ठी
बनाते जाते हो,
संसार के घड़े में
उतने ही फंसते
जाते हो।
कहते
हैं कबीर, मरकट मूठि
स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरा!
और फिर घर—घर
चिल्लाता
फिरा, रोता
फिरा, मगर
मटके को लटकाए
रहा। कष्ट
भारी था, लेकिन
लोभ भी भारी
था। लोभ कष्ट
से ज्यादा मालूम
पड़ता है। इस
बात को खयाल
में रख लें।
तुम
जहां हो, जो
दुख है, उस
दुख से ज्यादा
तुम्हें सुख
की आशा है।
सुख है नहीं—आशा
है। आशा से आदमी
बंधा है: आज
नहीं कल, कोई
तरकीब निकले
आएगी, कोई
विधि हो जाएगी,
कोई
चमत्कार, किसी
का आशीर्वाद—सब
ठीक हो जाएगा!
आशा से! मत छोड़ो।
एक दफे मुट्ठी
बाहर निकाल ली,
फिर पता
नहीं दुबारा
डालने का मौका
मिले, न
मिले। घड़ा रोज
तो मिलता
नहीं। और घड़े
कम हैं, बंदर
ज्यादा हैं।
सब अपने—अपने घड़े लिए
हुए हैं; तुमने
छोड़ दिया, कोई
दूसरा बंदर
हाथ डाल दे!
तुम दुख छोड़
दो, दूसरा
दुख भोगने लगे;
फिर तुम
क्या करोगे? तो इसको तो
रखे ही रहो, इसकी लटकाए
रहो, कष्ट
पाओ, सो न
सको, हर्ज
नहीं। जीवन एक
बेचैनी और
नर्क हो जाए, ठीक लेकिन
आशा, कभी न
कभी, किसी
न किसी दिन, कोई विधि हो
जाएगी!
प्रार्थना
करो, पूजा
करो, मंदिर
जाओ, लेकिन
मटके को साथ
रखो!
मंदिर
में लोगों की
प्रार्थनाएं
सुनें, वे
प्रार्थनाएं
कर रहे हैं? वे
प्रार्थनाएं
यह कर रहे हैं
कि मुट्ठी
बंधी हुई मटके
के बाहर आ
जाए।
खलील
जिब्रान ने
कहीं लिखा है
कि मैंने
हजारों लोगों
की प्रार्थनाएं
सुनी और मैंने
पाया, उनकी
प्रार्थनाओं
का एक ही मतलब
है दो और दो चार
न हों, कुछ
असंभव घट जाए,
बस यही उनकी
प्रार्थनाएं
हैं।
कहहिं
कबीर ललनीके
सुगना, तोहि कवने
पकड़ो।।
तोतों
को पकड़नेवाले
व्याघ, एक छोटी सी
तरकीब का उपयोग
करते हैं।
रस्सी बांध
देते हैं दो
वृक्षों के
बीच। रस्सी के
बीच में छोटी—छोटी
लकड़िया
अटका देते
हैं। तोते उन लकड़ियों
पर आकर बैठ
जाते हैं। वजन
के कारण लकड़ी
उलटी घूम जाती
है। तोते नीचे
लटक जाते हैं।
उलटा लटका
तोता समझा है,
फंस गए!
डरता है कि
अगर छोड़े हाथ तो
नीचे गिरेंगे
और मरेंगे।
कोशिश करता है
कि किसी तरह
सीधा होकर
बैठे जाए। वह
रस्सी है पतली,
इसलिए वह
बैठ नहीं सकता;
उसका वजन
ज्यादा है, वह नीचे ही
गिरेगा। वह
जितना तड़पेगा,
उतना ही
फंसेगा। और इस
घबड़ाहट
में वह यह भूल
ही जाता है कि
मेरे पास पंख
हैं, मैं
उड़ सकता हूं, गिरने का
कोई सवाल ही
नहीं है।
लेकिन
शीर्षासन की
वजह से फंस
जाता है।
शीर्षासन
से सावधान
रहना! लेकिन
उल्टे खड़े हैं, फिर डरते
हैं।
कबीर
कहते हैं, कहहिं कबीर ललनी
के सुगना, तोहि कवने
पकड़ो। तुझे
पकड़ा किसने है
मूर्ख! तू छोड़
दे, तो ही पकड़े है इस
रस्सी को।
तेरे छोड?ते ही तू
मुक्त है।
बंधन
नहीं है, पकड़
है। मोक्ष
बंधन से
मुक्ति नहीं
है, पकड़ से
छुटकारा है।
बंधन तो बाहर
होता है, पकड़
भीतर होती है।
बंधन तो दूसरा
भी लगा सकता है,
पकड़
तुम्हीं लगा
सकते हो, पकड़
दूसरा नहीं
लगा सकता।
जिस—जिसको
तुमने कपड़ा
है, वहीं—वहीं
तुम बंध गए
हो। और अब तुम
डरते हो। अब
तुम्हें
पंखों का
विस्मरण हो
गया है कि तुम
उड़ भी सकते हो
और गिरने का
कोई डर नहीं
है; लेकिन
इतने दिन से
तुम बंधे हो, इतनी लंबी
हो गई है बंधन
की प्रक्रिया
कि तुम भूल ही
गए कि कभी तुम
मुक्त थे, कभी
तुम आकाश में
भी उड़े
थे।
तोते
बहुत दिन
पिंजरे में रह
जाएं, फिर
उड़ नहीं पाते;
पंखों का
स्मरण खो जाता
है। बहुत दिन
तक पंख उड़ने
से रुके रहें,
तो उनकी
क्षमता क्षीण
हो जाती है।
यही हुआ है।
और
कबीर बड़ा गहरा
व्यंग्य कर
रहा है। वह कह
रहे हैं: ललनी
के सगुना तोहि कवने
पकड़ो। किसने
तुझे पकड़ा है? कोई पकड़े
हुए नहीं है।
तूने ही कुछ
गलत चीजें पकड़
रखी हैं और
कष्ट पा रहा
है।
इसलिए
समस्त धर्म का
सार है: पकड़, क्लिंगिंग
को छोड़ना। कुछ
भी मत पकड़ो।
जियो सब, पकड़ो
कुछ भी मत।
रहो घर में, रहो दुकान
पर, बाजार
में—पकड़ो मत; मुट्ठी खुली
रखो। जियो
सारे संसार को;
वह जीने के
लिए है। उसके
जीने से प्रौढ़ता
मिलेगी। उसके
जीवन से समझ बढ़ेगी।
अनुभव
बुद्धिमत्ता
को लाएगा।
जियो, पर जागकर
जियो, पकड़ो
मत। मुक्त रह
कर जियो। विचारो
संसार में। एक
भी अनुभव ऐसा
नहीं कि उसे
तुम छोड़ो।
सभी अनुभव कर
लेने जैसे
हैं। क्योंकि
उसको करने से
ही तुम्हारे
भीतर जो छिपी
हुई संभावना
है, बोध की,
वह जागेगी।
सभी अनुभव, बुरे—भले—गुजहर
जाने जैसे
हैं। पर जागकर
गुजरना, ताकि
कोई अनुभव
कारागृह न बन
जाए, और
तुम किसी
अनुभव में बंद
न हो जाओ।
अभी
ऐसा ही हुआ
है। एक बार
तुम जो अनुभव
कर लेते हो, तुम उसमें
बंध जाते हो, फिर तुम बार—बार
उसी को करना
चाहते हो।
क्लिंगिंग
पैदा हो गई, पकड़ पैदा हो
गई। जो भी
अनुभव
तुम्हें सुख
देता है, जरा
सी भी झलक
देता है, तुम
मुट्ठी बांध
लेते हो। तुम
इतना
अविश्वास किए
हो जीवन पर!
तुम्हें यह
पता ही नहीं
कि जिस जीवन
से यह अनुभव
मिला, उस जीवन
से और बड़े
अनुभव भी
मिलेंगे; बंधने
की जल्दी क्या
है? जो
जीवन यहां
लाया गया है, वह जीवन और
विराट
किनारों तक भी
ले जाएगा। यही
घर बना लेने
की जल्दी क्या
है? तुम
रास्ते पर
पहला कदम ही
नहीं रखते कि
वहीं पड़ाव
बना लेते हो।
रुको, ठहरो!
रात का
विश्राम बुरा
नहीं है, लेकिन
सुबह होते चल पड़ो।
वेदों के
ऋषियों ने कहा
है: चलते रहो!
चलते रहो!
रुको मत, ठहरो
भला!
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
कहते थे, चरैवेति,
चरैवेति, चरैवेत्ति! चलते रहो, चलते रहो!
विश्राम के
लिए रुको, घर
मत बनाओ। कहीं
भी जहां तुमने
पकड़ बनाई, वहीं
घर बनता है। जहां
घर बना, वह
जल्दी ही
कारागृह
निर्मित हो
जाता है।
बौद्धों
की बड़ी पुरानी
कथा है। एक
आदमी संन्यासी
हुआ। उसने
गुरु से
दीक्षा ली। तो
गुरु ने उससे
पूछा कि
दीक्षा के समय
कुछ बोध, जो
मैं सदा याद
रखूं? गुरु
ने कहा, एक
बात भर खयाल
रखना; बिल्ली
कभी मत पालना।
वह थोड़ा हैरान
हुआ कि यह
आदमी पागल
मालूम होता
है। हम ज्ञान
की खोज में
निकले हैं—मोक्ष,
निर्वाण, ईश्वर—और इस
आदमी से
दीक्षा ले
फंसे; और
यह क्या उपदेश
दे रहा है कि
बिल्ली कभी मत
पालना!
फिर
गुरु तो मर
गया। और जो
उसने कहा था, चूंकि इसने
उसको कभी समझा
ही नहीं। और उसने
समझा कि
व्यर्थ की
बकवास कर रहा
है, दिमाग
खराब हो गया
है, सठिया
गया है। साठ
के ऊपर था। और
दो आदमी भरोसे
के नहीं होते।
पुराने जमाने
में, जो
सठिया जाते थे,
साठ के पार
चले जाते थे, वे भरोसे के
नहीं थे। आज
के जमाने में,
जो कुर्सिया
जाते हैं, वह
सठिया गए, अब
उनकी बात का
कोई मतलब
नहीं।
बूढ़ा
तो मर गया।
इसके पास बस
एक लंगोटी ही
थी, उसको टांगता
था, तो
चूहे काट जाते
थे। तो गांव
के लोगों से
पूछा कि क्या
करूं? तो
उन्होंने कहा
कि एक बिल्ली
पाल लो। भूल
ही गया बिलकुल
की गुरु ने
कहा था कि
बिल्ली भी मत पालना।
अपने अनुभव से
कहा था, क्योंकि
यही कहानी
उसके साथ
दोहरी थी।
कहानी तो वही
है, पात्र
बदल जाते हैं।
कुछ अड़चन नहीं
मालूम पड़ी, एक बिल्ली
पाल ली। झंझट
शुरू हो गई, क्योंकि
बिल्ली को
भोजन चाहिए; उसको दूध
चाहिए। चूहे
तो खतम किए
बिल्ली ने, लेकिन
बिल्ली आ गई!
गांव के लोगों
से पूछा।
उन्होंने कहा,
इसमें क्या
अड़चन है? एक
गाय हम आपको
भेंट दिए देते
हैं।
बिल्ली
के पीछे गाय आ
गयी। गाय के
लिए घास कब तक
गांव के लोग
दें।
उन्होंने कहा, ऐसा करो कि
जमीन पड़ी है
तुम्हारे पास
आसपास मंदिर
के, थोड़ी
खेती—बाड़ी
शुरू कर दो।
खेती—बाड़ी
शुरू की तो
कभी बीमारी भी
होती, पानी
डालना है, कोई
पानी डालने
वाला चाहिए।
खेती—बाड़ी में
समय ज्यादा लग
जाता, खुद
ही खाना बनाना
है। तो गांव
के लोगों ने
कहा, ऐसा
करे, शादी
कर लो। एक
लड़की थी भी
गांव में
योग्य, बिलकुल
तैयार।
उन्होंने
इसकी शादी
करवा दी। फिर
बच्चे हो गए।
फिर वह भूल ही
गया। दीक्षा,
संन्यास, वह सब मामला
खत्म हुआ; सब
बच्चों को पढ़ाना,
लिखाना...!
खेती—बाड़ी हो
गई, व्यवसाय
फैल गया...।
जब
मरने के करीब
था, तब उसे एक
दिन याद आया, जैसे नींद
से चौंका कि
हद कर दी, उस
बूढ़े ने भी
ठीक ही कहा था
कि बिल्ली मत
पालना! बिल्ली
के पीछे सब
चला आता है।
पहला कदम
तुमने उठाया,
फिर
मुश्किल हो
जाती है।
एक घर
में मैं ठहरा
था, दो छोटे
बच्चे
सीढ़ियों पर
बैठकर बात कर
रहे थे। घर के
दो बच्चे—बड़ा
होगा कोई चार
साल का, छोटा
होगा कोई ढाई
साल का। बड़ा
छोटे को ज्ञान
दे रहा था।
छोटा पूछ रहा
था कि किस चीज
से बचना चाहिए?
स्कूल में,
उसके जाने
का वक्त आ गया
था। बड़े ने
कहा, बस एक
बात खयाल रखना,
अगर उसमें
बच गए तो
बिलकुल बच गए।
छोटे ने कहा, बता दो।
उसने कहा, सी
ए टी—कैट! कैट यानि
बिल्ली। जब
स्कूल में यह पढ़ाया जाए,
इसको
बिलकुल सीखना
ही मत। इसको सीखे कि
फिर दूसरी चीजें
सीखनी
पड़ती हैं। बस
इस पर ही तुम, इस पर अड़े
रहना। फिर बड़े—बड़े
शब्द आते हैं
इसके पीछे। और
फिर कोई अंत नहीं
है। उसी में
मैं फंस गया।
तुम सावधान
रहना!
जब उन
बच्चों की बात
मैं सुन रहा
था, तब मुझे
यह कहानी याद
आयी कि ठीक है,
सी ए टी कैट;
कैट यानी
बिल्ली! बिल्ली
से जो बचा, वह
सब से बचा!
एक चीज
को पकड़ो, पकड़
शुरू हो गई।
फिर दूसरी को पकड़ना पड़े,
तीसरी को पकड़ना पड़े—सिलसिला
है। एक पीछे
दूसरा, दूसरे
के पीछे, एक
शृंखला है।
जीना, गुजरना—सब
अनुभव से; पकड़ना
कोई अनुभव
नहीं है। और
सदा अनुभव की
संभावना है, जल्दी क्या है
पकड़ने की?
और
पुनरुक्ति की
आकांक्षा मत
करना। जो
अनुभव एक बार
गुजरे, फिर
बार—बार मत
मांगना।
क्योंकि बार—बार
मांगने का
मतलब है कि
तुम वही अटकने
को खड़े हो गए, बार—बार
तुमने भरोसा
खो दिया जीवन
का। अभी बहुत
बाकी था। यह
जीवन वहां तक
ले जाता है
जहां परमात्मा
है—अगर तुम
चलते रहो। रुक
गए, तो तुम
कहीं छोटी जगह,
व्यर्थ जगह
रुक जाते हो; किसी कूड़े
की ढेर पर घर
बना लेते हो।
इसलिए
कबीर कहते है, कहहिं कबीर ललनी
के सुगना, तोहि कवने
पकड़ो। किसी ने
पकड़ा नहीं है,
बिल्ली
तुम्हीं ने
पाल ली है।
तुम्हीं चाहो
तो छूट सकते
हो। छूटने के
लिए सिर्फ
छूटने की चाह!
और
क्या है पकड़? उसको समझने
का प्रयास
चाहिए; अभीप्सा
कि मैं मुक्त
होना चाहता
हूं। और इस अभीप्सा
के पीछे, स्वभावतः
समझ विकसित
होनी शुरू
होने लगती है कि
मैं बंधा
क्यों हूं।
सिद्धों
ने कहा है, तुम बंधे
नहीं हो, तुमने
अपने को बांध
रखा है। अगर
तुम मुक्त
होना चाहते हो,
इसी क्षण
मुक्त हो सकते
हो। एक क्षण
भी गंवाने की
कोई जरूरत
नहीं। समझ की प्रगाढ़ता,
त्वरा, तीव्रता,
एक लपट की
तरह सभी अतीत
को राख कर
सकती है। इसी क्षण
तुम मुक्त हो
सकते हो?
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें