(अध्याय—सत्ताईस्वां)
आज, भोजन
के बाद, मैं
उनसे कहती हूं
कि मैं अपना
कमरा भीतर से
बंद कर ले—क्योंकि
मैं भी आराम
करना चाहती
हूं। ते कहते
हैं, लोग
आकर दरवाजा
खटखटाने
लगेंगे।’ मैं
उनसे कहती हूं
कि मैं
अपार्टमेंट
का मुख्य
द्वार ही बंद
कर रही हूं और
साथ ही कॉल
बेल भी बंद कर
दूंगी। मैं
उन्हें
आश्वासन देती
हूं कि उन्हें
किसी तरह की
तकलीफ नहीं
होगी। मुझे
अपने इरादे पर
बिलकुल अड़ा
हुआ देखकर वे
कहते हैं, ठीक
है, ठीक है,
जो चाहे वह
कर।’
मैं
सारी चीजें
देख—भालकर
अपने कमरे में
चली जाती हूं
और दोपहर—भर
मजे से सोती
हूं।
परमात्मा का
धन्यवाद है कि
उनके आराम के
समय में आकर
किसी ने
उन्हें
परेशान नहीं
किया।
दोपहर
चाय पीते समय
वे मुझे एक
कहानी—सुनाते
हैं जो मैं
कभी नहीं भूल
सकती, क्योंकि
वह मेरी कहानी
है।
कहानी
हे :
एक
गुरु अपने
इकलौते शिष्य
के साथ—जंगल
में एक झोपड़ी
में रहता था।
वे दोनों ही
बड़े आलसी थे।
एक रात जब वे
दोनों अपने
बिस्तरों पर
लेटे हुए थे।
गुरु शिष्टा
को कहता है, —पू
बाहर जाकर पता
तो लगा कि
बारिश हो रही
है या नहीं।’
शिष्य
अपने बिस्तर
से रंचमात्र
भी हिले——डुले
बिना जवाब
देता है, बारिश
नहीं हो रही
क्योंकि अभी—अभी
बाहर से एक
बिल्ली आई थी
और उसको मैंने
हाथ लगाकर
देरवा था, वह
गीली नहीं थी।’
गुरु
कहता है, ठीक
है, दरवाजा
बंद कर दे और
हम सो जाते
हैं।’ फिर
शिष्य बिना
हिले कहता है,
गुरु जी, दरवाजा बंद
करने की क्या
जरूरत है? चोरों
का तो हमें
कोई डर है नहीं
और खुले दरवाजे
से ठंडी हवा का
अंदर आना
अच्छा लगता है।’
गुरु
यह बात मान
जाता है और
कहता है, 'अच्छा
चल दीया तो
बूझा दे।’
शिष्य
जवाब देता है, गुरुजी
दो काम मैंने
कर दिए, यह
एक काम तो
आपको करना
चाहिए।’
जिस
तरह ओशो कोई
भी कहानी
सुनाते हैं, व्यक्ति
पूरे दृश्य को—ऐसे
'रेख सकता
है जैसे वह
अभी उसके
सामने घट रहा
हो। और साथ ही
कहानी में
हमारे लिए कोई
सूक्ष्म अर्थ
भी निहित रहता
है, यदि हम उसे—समझ
सकें।
यह
कहानी सुनकर
मुझे शर्म आती
है कि अपनी
बेहोशी में
मैने—क्या किया, लेकिन
ओशो कभी किसी
को किसी भी
चीज के लिए
अपराधी महसूस
नहीं करने
देते।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें