प्रश्नसार:
1—अधिक
लोग दुःख और
पीड़ा का जीवन
ही क्यों
चुनते है?
2—हम
एक प्रबुद्ध
की आशा कैसे
कर सकते है?
पहला
प्रश्न :
आनंद
है क्या
मनुष्य के
सामने दो ही
विकल्प हैं :
सतत दुख और
पीड़ा का जीवन
या भगवत्ता और
आनंद का जीवन?
और क्या
चुनाव उनके
हाथ में है? फिर ऐसा क्यों
है कि सर्वाधिक
लोग दुख और पीड़ा
का ही जीवन
बनते हैं?
प्रश्न
बहुत
महत्वपूर्ण
है,
लेकिन साथ
ही बहुत नाजुक
भी है। पहली
बात समझने की
यह है कि जीवन
बहुत विरोधाभासी
है और उसके
कारण बहुत सी
चीजें घटित
होती हैं।
विकल्प दो ही
हैं. मनुष्य
स्वर्ग में हो
सकता है या
नरक में।
तीसरी कोई
संभावना नहीं
है। या तो तुम
गहन दुख का
जीवन चुन सकते
हो या दुख—शून्य
प्रगाढ़ आनंद
का जीवन चुन
सकते हो। ये
दो ही विकल्प
हैं, ये दो
ही संभावनाएं
हैं, ये दो
ही द्वार हैं—जीने
के दो ढंग।
लेकिन तब
स्वभावत:
प्रश्न उठता
है कि मनुष्य दुख
का जीवन क्यों
चुनता है?
दुख
मनुष्य का
चुनाव नहीं है, चुनाव
तो वह सदा
आनंद का ही
करता है।
लेकिन यहीं
विरोधाभास
खड़ा हो जाता
है।
विरोधाभास यह
है कि अगर तुम
आनंद चाहते हो
तो तुम्हें
दुख मिलेगा, क्योंकि
आनंद की पहली
शर्त चुनाव—रहितता
है। यही
समस्या है।
अगर तुम आनंद
का चुनाव करते
हो तो तुम्हें
दुख में जीना
पड़ेगा। और अगर
तुम कोई चुनाव
नहीं करते हो,
सिर्फ
साक्षी रहते
हो, चुनाव—रहित
साक्षी, तो
तुम आनंद में
होगे।
तो
प्रश्न यह
नहीं है कि
आनंद और दुख
के बीच चुनाव
करना है, प्रश्न
यह है कि
चुनाव और
अचुनाव के बीच
चुनाव करना है।
लेकिन ऐसा
क्यों होता है
कि जब भी तुम चुनाव
करते हो तो
तुम सदा दुख
ही पाते हो?
चुनाव
विभाजन करता
है,
बांटता है।
चुनाव का मतलब
है कि तुम
जीवन से कुछ
को इनकार करते
हो, कुछ को
अलग करते हो।
चुनाव का अर्थ
है कि तुम
समग्र जीवन को
नहीं स्वीकार
करते हो; उसमें
से कुछ को
स्वीकार करते
हो और कुछ को
इनकार करते हो।
लेकिन
जीवन का
विभाजन संभव
नहीं है, जब
तुम बांटकर
कुछ को चुनते
हो तो जिसे
तुम इनकार
करते हो वह
तुम्हारे पास
बार—बार लौट
आता है। जीवन
को खंडों में
नहीं बांटा जा
सकता, वह
अखंड है। और
इसलिए जिस
हिस्से को तुम
इनकार करते हो,
वह इनकार
करने से ही शक्तिशाली
हो जाता है।
और सचाई यह है
कि तुम उससे
भयभीत रहते हो।
जीवन
के किसी भी
हिस्से को
इनकार नहीं
किया जा सकता, छोड़ा
नहीं जा सकता;
ज्यादा से
ज्यादा तुम
उसके प्रति आंखें
बंद कर सकते
हो,
तुम उससे
भाग सकते हो, तुम उसके
प्रति मूर्च्छित
हो सकते हो।
लेकिन उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता; दबाया
हुआ अंश मन के
अंधेरे में
छिपा बैठा रहेगा,
और ऊपर आने
के अवसर का
इंतजार करता
रहेगा।
तो अगर
तुम दुख को
इनकार करते हो, अगर
तुम कहते हो
कि मुझे दुख
नहीं चाहिए, तो एक
सूक्ष्म ढंग
से तुमने दुख
को चुन लिया।
अब दुख सदा
तुम्हारे आस—पास
मंडराता
रहेगा—ब्लू
बात।
जीवन
समग्र है, यह
एक बात। और
दूसरी बात कि
जीवन सतत
परिवर्तन है,
सतत बदलाहट
है। ये
बुनियादी
सत्य हैं। एक
कि जीवन के
खंड नहीं किए
जा सकते और
दूसरा कि कुछ
भी स्थायी
नहीं है, कुछ
भी ठहरा हुआ
नहीं है।
तो जब
तुम कहते हो
कि मैं दुख
नहीं लूंगा, मैं
तो सदा आनंद
ही लूंगा, तो
तुम सुख से
चिपकोगे। और
जब तुम किसी
चीज से चिपकते
हो तो तुम
चाहते हो कि
वह हमेशा बनी
रहे। लेकिन
जीवन में कुछ
भी स्थायी
नहीं है, कुछ
भी ठहरा हुआ
नहीं है। जीवन
एक प्रवाह है।
तो जब तुम सुख
का आग्रह करते
हो, सुख से
चिपकते हो, तो तुम इस
आग्रह के कारण
ही दुख को
बुलावा दे रहे
हो, दुख का
निर्माण कर
रहे हो।
क्योंकि यह
सुख तो जाने
वाला है, यहं।
कुछ भी स्थायी
नहीं है। यह
तो एक नदी है, सतत बह रही
है, भागी
जा रही है। और
जब तुम नदी से
चिपकते हो तो
तुम ऐसी
स्थिति का
निर्माण कर
रहे हो जिसमें
देर— अबेर
निराशा ही हाथ
आएगी। नदी तो
आगे बढ़ जाएगी;
देर— अबेर
तुम पाओगे कि
नदी तो जा
चुकी है, तुम्हारे
पास नहीं है।
तुम पाओगे कि
तुम्हारे हाथ
खाली हैं और
तुम हाथ मल
रहे हो, सिर
धुन रहे हो।
अगर
तुम सुख को
पकड़कर रखना
चाहोगे तो पल—दो
—पल को ही सुख
तुम्हारे पास
रहेगा, फिर
विदा हो जाएगा।
जीवन तो
प्रवाह है, यहां
तुम्हारे
अतिरिक्त कुछ
भी स्थायी
नहीं है, यहां
तुम्हारे
अतिरिक्त कुछ
भी शाश्वत
नहीं है। और
जब तुम किसी
परिवर्तनशील
चीज से चिपकते
हो तो उसके
जाने पर
तुम्हारा दुख
में पड़ना
अनिवार्य है।
और न केवल तुम
उसके जाने पर
दुखी होगे, अगर
तुम्हारा मन
सुख से चिपकने
वाला है तो
तुम उसके रहते
हुए भी सुख का
आनंद नहीं ले
पाओगे।
क्योंकि तुम
सदा डरे हुए
रहोगे कि कहीं
यह सुख
तुम्हारे हाथ
से न निकल जाए।
अगर तुम सुख
को पकड़कर रखना
चाहते हो तो
तुम इस आग्रह
के कारण ही
सुख को भी
नहीं भोग
पाओगे। उसके
जाने पर तो
रोओगे ही, अभी
भी तुम उसका
सुख नहीं ले
पाओगे; क्योंकि
यह भय तो
निरंतर बना ही
हुआ है कि कहीं
यह चला न जाए।
और यह
सच है कि देर—
अबेर वह जाने
वाला ही है।
तुम्हारे घर
कोई मेहमान
आया है और तुम
जानते हो कि
वह मेहमान है
और कल सुबह
चला जाने वाला
है। तो तुम
अभी से ही
दुखी हो कि
मेहमान कल चला
जाएगा। तुम
भविष्य के लिए
दुखी हो रहे
हो,
भविष्य का
दुख तुम पर
अभी ही उतर
आया है। अब
तुम मेहमान के
रहते हुए भी
सुखी नहीं हो,
और उसके
जाने पर तो
दुखी होगे ही।
तो तुम हर हाल
दुखी हो, मेहमान
के रहते दुखी
हो कि वह चला
जाने वाला है
और उसके जाने
पर दुखी हो कि
वह चला गया।
यही हो रहा है।
पहली
बात कि जीवन
को खंडों में
नहीं बांटा जा
सकता है। और
चुनाव करने के
लिए बांटना
जरूरी है, अन्यथा
चुनाव कैसे
करोगे? और
फिर तुम जिसे
चुनोगे वह
रुकने वाला
नहीं है—देर—अबेर
वह जाने वाला
है। और तब वह
हिस्सा सामने
आएगा जिसको
तुमने इनकार किया
है; तुम
उससे बच नहीं
सकते। तुम यह
नहीं कह सकते
कि दिन तो मैं
लूंगा, लेकिन
रात नहीं
लूंगा; तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं श्वास
लूंगा, लेकिन
छोडूंगा नहीं,
मैं उसे
बाहर नहीं जाने
दूंगा।
जीवन
विरोधों से
बना है, वह
विरोधी
स्वरों से बना
हुआ संगीत है।
श्वास भीतर
आती है, श्वास
बाहर जाती है,
और इन दो
विरोधों के
बीच, उनके
कारण ही, तुम
जीवित हो।
वैसे ही दुख
है और सुख है।
सुख आने वाली
श्वास की
भांति है; दुख
जाने वाली
श्वास की
भांति है। या
सुख—दुख दिन—रात
जैसे हैं।
विरोधी
स्वरों का
संगीत है जीवन।
और तुम यह
नहीं कह सकते
कि मैं सुख के
साथ ही रहूंगा,
दुख के साथ
नहीं रहूंगा।
और अगर तुम यह
दृष्टिकोण
रखते हो तो
तुम और गहरे
दुख में
गिरोगे। यही
विरोधाभास है।
स्मरण
रहे,
कोई आदमी
दुख नहीं
चुनता है, दुख
नहीं चाहता है।
तुम पूछते हो,
क्यों आदमी
दुख का चुनाव
करता है। किसी
ने भी दुख का
चुनाव नहीं
किया है।
तुमने तो सुखी
रहने का चुनाव
किया है, दुखी
रहने का नहीं।
और तुमने सुखी
रहने का चुनाव
दृढ़ता के साथ
किया है। सुखी
रहने के लिए
तुम सारे
प्रयत्न करते
हो, उसके
लिए तुम कुछ
भी उठा नहीं
रखते हो।
लेकिन
विडंबना यह है
कि इसी कारण
तुम दुखी हो, इसी कारण
तुम सुखी नहीं
हो। फिर किया
क्या जाए?
स्मरण
रखो कि जीवन
अखंड है, जीवन
समग्र है।
इसमें चुनाव
संभव नहीं है।
पूरे जीवन को
स्वीकार करना
है। पूरे जीवन
को जीना है।
सुख के क्षण
आएंगे और दुख
के भी क्षण
आएंगे; और
दोनों को
अंगीकार करना
है। चुनाव
व्यर्थ है; क्योंकि
जीवन दोनों है।
अन्यथा
लयबद्धता खो
जाएगी, और
इस लयबद्धता
के बिना जीवन
नहीं चल सकता
है।
जीवन
संगीत जैसा है।
तुम संगीत
सुनते हो, उसमें
दो स्वरों के
बीच मौन का
अंतराल है।
स्वर और मौन, इन दो
विरोधी
तत्वों के
मिलन से संगीत
का जन्म होता
है। अगर तुम
कहो कि मैं
सिर्फ स्वर ही
लूंगा, मौन
के अंतराल को
नहीं लूंगा, तो संगीत
नहीं पैदा
होगा। वह कोई
एक—सुरी चीज
होगी, वह
मृत होगी। वे
अंतराल ही
संगीत को
प्राणवान
बनाते हैं।
जीवन
का सौंदर्य भी
यही है कि वह
विरोधों के आधार
पर खड़ा है।
जैसे स्वर और
मौन,
स्वर और
शून्य मिलकर
संगीत को जन्म
देते हैं, वैसे
ही सुख और दुख,
दो विरोधों
से मिलकर जीवन
निर्मित होता
है।
जीवन
में चुनाव
नहीं हो सकता, और
अगर तुम चुनाव
करोगे तो तुम
फंसोगे, तुम
दुख पाओगे। और
अगर तुम्हें
जीवन की
समग्रता का
बोध हो जाए और
इसका बोध हो
जाए कि जीवन
कैसे चलता है,
तो तुम
चुनाव नहीं
करोगे—यह पहली
बात। और जब
तुम चुनाव
नहीं करोगे तो
फिर किसी चीज
या संबंध से
चिपकने की, उससे आसक्त
होने की जरूरत
न रहेगी; फिर
तुम्हें
आसक्ति से, मोह से
मुक्ति मिल
जाएगी। तब दुख
आएगा तो तुम
दुख का मजा
लोगे और सुख
आएगा तो सुख
का मजा लोगे।
तब तुम सुख—दुख
दोनों को ठीक
से जीओगे। जब
मेहमान घर में
होगा तो तुम
उसके होने का
सुख लोगे और
जब वह विदा हो
जाएगा तो उसकी
जुदाई का दुख
भी मजे से
लोगे।
मैं
कहता हूं : सुख
और दुख, दोनों
का मजा लो।
यही विवेक का
मार्ग है.
दोनों का सुख
लो, चुनाव
मत करो। जो भी
आए उसे
स्वीकार करो।
यही तुम्हारा
भाग्य है, यही
तुम्हारा जीवन
है; उसमें
कुछ किया नहीं
जा सकता।
अगर यह
तुम्हारा का ढंग
जाए तो तुम
चुनाव नहीं
करोगे, तब
तुम
चुनावरहित हो
गए। और जब तुम
चुनाव—रहित हो
तो तुम स्वयं
के प्रति बोध
से भर जाओगे।
क्योंकि अब
तुम्हें यह
फिक्र न रही
कि क्या होगा,
क्या नहीं
होगा; अब
तुम्हारा
चित्त
बहिर्गामी न रहां,
अब तुम्हें
यह चिंता न
रही कि
तुम्हारे आस—पास
क्या हो रहा
है। अब जो भी
होगा, तुम
उसे स्वीकार
करोगे, उसको
भोगोगे, उसको
जीओगे, उसको
अनुभव करोगे
और उससे कुछ
सीखोगे।
क्योंकि
प्रत्येक
अनुभव से, चाहे
सुख का अनुभव
हो या दुख का, चेतना
विस्तृत होती
है, समृद्ध
होती है।
अगर
तुम्हें दुख न
हो तो तुममें
कुछ कमी रह जाएगी, क्योंकि
दुख जीवन को
गहराई देता है।
जिस व्यक्ति
ने दुख नहीं
जाना वह सदा
उथला रहेगा, सतही रहेगा;
उसके जीवन
में गहराई न
होगी। दुख से
जीवन में
गहराई आती है।
सच तो यह है कि दुख
के बिना
तुम्हारा
जीवन बेस्वाद
होगा, दुख
के बिना
तुम्हारा
जीवन ऊब भरी
घटना होगा।
दुख तुम्हें
मांजता है, निखारता है;
तुम्हें
उससे एक
गुणवत्ता
उपलब्ध होती
है जो दुख से
ही उपलब्ध
होती है, जो
किसी भी सुख
से नहीं मिल
सकती।
यदि
कोई आदमी सदा
सुख—सुविधा
में ही रहा हो, कोई
दुख—दर्द न
जाना हो, कोई
पीड़ा न झेली
हो, उसके
जीवन में चमक
नहीं होगी, धार नहीं
होगी। वह माटी
का लोंदा जैसा
होगा; उसमें
कोई गहराई
नहीं हो सकती।
सच तो यह है कि
वह हृदय के
बिना ही रह
जाएगा, क्योंकि
हृदय तो दुख
से निर्मित
होता है। तुम
दुख के द्वारा
विकसित होते
हो।
और यदि
किसी व्यक्ति
ने दुख ही दुख
जाना हो, उसके
जीवन में सुख
की कोई किरण न
उतरी हो, तो
उसका भी जीवन
समृद्ध नहीं
होगा। वह भी
दरिद्र रह
जाएगा।
समृद्धि तो
विरोधों के, विपरीतताओ
के बीच गति से
फलित होती है।
विपरीतताओं
के बीच तुम्हारी
जितनी अधिक
गति होगी, तुम्हारे
जीवन में उतना
ही ज्यादा, उतना ही
गहरा विकास
होगा, ऊर्ध्वगमन
होगा।
अगर
कोई व्यक्ति
दुख ही दुख
में जीए तो वह
गुलाम हो
जाएगा। यदि
उसने सुख के
कोई क्षण नहीं
जाने हैं तो
वह यथार्थत:
जीवित नहीं
होगा, वह
पशुवत होगा; वह किसी भांति
जीए जाएगा—या
कि किसी भांति
मरे जाएगा।
उसके प्राणों
में कोई कविता
न होगी; उसके
हृदय में कोई
गीत न होगा, उसकी आंखों
में आशा की
कोई चमक न
होगी। वह अपनी
निराशा की, हताशा की
जिंदगी से
समझौता करके
बैठ जाएगा; उसके जीवन
में कोई
संघर्ष, कोई
साहसिक
अभियान न होगा,
कोई गति न
होगी। उसके
जीवन में कोई
बहाव न होगा; वह चेतना का
मात्र डबरा
बनकर रह जाएगा।
और डबरे की
चेतना चेतना
नहीं है; इसलिए
ऐसा आदमी धीरे—
धीरे अचेतन हो
जाएगा, बेहोश
हो जाएगा। यही
कारण है कि जब
तुम अत्यंत
पीड़ा में होते
हो तो बेहोश
हो जाते हो।
तो सुख
ही सुख से काम
नहीं चलेगा, क्योंकि
सुख में
चुनौती नहीं
है। और दुख ही
दुख हो तो भी
आदमी टूट
जाएगा; उसमें
आशा नहीं होगी,
स्वप्न
नहीं होगा; उसके जीवन
में कोई उड़ान
नहीं होगी, कोई संघर्ष
नहीं होगा।
इसलिए सुख और
दुख दोनों
जरूरी हैं।
जीवन म् इन
दोनों के बीच
एक सूक्ष्म
खिंचाव, एक
सूक्ष्म तनाव
की तरह है।
और अगर तुम
यह बात समझ
जाओ तो फिर
तुम चुनाव नहीं
करोगे। तब तुम
भलीभांति
जानते हो कि
जीवन कैसे गति
करता है, जीवन
कैसे चलता है,
जीवन क्या
है। जीवन का
ढंग यही है कि
उसकी नदी सुख—दुःख
के दो किनारों
के बीच बहती
है; उससे
ही उसमें गति
आती है, निखार
आता है, गहराई
आती है, अर्थवत्ता
आती है। इसलिए
दोनों शुभ हैं।
लेकिन
ध्यान रहे, मैं
कहता हूं कि
सुख और दुख
दोनों शुभ हैं;
मैं यह नहीं
कहता कि तुम
दोनों के बीच
चुनाव करो।
मैं इतना ही
कहता हूं कि
दोनों शुभ हैं,
इसलिए कोई
चुनाव मत करो।
बल्कि दोनों
को होने दो, दोनों को
जीओ, दोनों
का सुख लो।
दोनों के
प्रति खुले
रहो, कोई
प्रतिरोध मत
करो। न एक से
चिपकने की
चेष्टा करो और
न दूसरे से बचने
और भागने की।
अप्रतिरोध को
अपने जीने का
ढंग बना लो, कह दो कि मैं
जीवन का
प्रतिरोध
नहीं करूंगा।
जीवन जो भी
लाएगा, मैं
उसे स्वीकार
करूंगा, मैं
उसके प्रति
उपलब्ध
रहूंगा, मैं
उसका सुख
लूंगा।
यदि
दिन अच्छा है
तो रात भी
उतनी ही अच्छी
और सुंदर है।
वैसे ही दुख
का भी अपना
सौंदर्य है; कोई
सुख उस
सौंदर्य को
नहीं पा सकता
है। अंधेरे का
अपना सौंदर्य
है, प्रकाश
का अपना
सौंदर्य है।
दोनों में न
कोई तुलना की
बात है और न
चुनाव की।
दोनों के काम
करने के अपने —अपने
आयाम हैं।
और जब
तुम्हें यह
बोध होगा तो
फिर तुम चुनाव
नहीं करोगे।
तब तुम मात्र
साक्षी रहोगे, द्रष्टा
रहोगे। और तब
तुम किसी भी
चीज का आनंद
ले सकोगे। यह
अचुनाव ही
आनंद बन जाएगा।
यह अचुनाव ही
आनंद में बदल
जाएगा।
आनंद
दुख के विपरीत
नहीं है; आनंद
ऐसी गुणवत्ता
है जिससे तुम
किसी भी स्थिति
को जी सकते हो,
दुख को भी।
बुद्ध—पुरुष
को दुख नहीं
होता, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि बुद्ध—पुरुष
को दुख नहीं
मिलता, दुख
तो बुद्ध—पुरुष
को भी उतना ही
मिलता है
जितना
तुम्हें
मिलता है।
लेकिन बुद्ध
दुख से दुखी
नहीं होते हैं,
क्योंकि
उन्हें दुख को
भी सुख बनाने
की कला मालूम
है। उन्हें
दुख छूता नहीं,
क्योंकि वे
उसमें भी
आनंदित हैं; वे दुख को भी
उत्सव बना
लेते हैं, वे
दुख में भी
ध्यानस्थ
रहते हैं। वे
दुख में भी
खुले हुए आनंद—मग्न
और प्रतिरोध—रहित
रहते हैं। दुख
तो उन पर भी
आता है, लेकिन
वे उसके दंश
से अछूते, अस्पर्शित
रह जाते हैं।
दुख आता है और
चला जाता है, वैसे ही
जैसे श्वास
आती है और चली
जाती है; और
वे
अनुद्विग्न
रहते हैं, वे
स्वयं में थिर
रहते हैं। दुख
उन्हें
विचलित नहीं
कर सकता; दुख
में भी वे
अकंप बने रहते
हैं। कुछ भी
उन्हें
विचलित करने
में असमर्थ है—न
दुख और न सुख।
और तुम
तो घड़ी के
पेंडुलम जैसे
हो—हर चीज
तुम्हें हिला
जाती है। तुम
तो ठीक से
सुखी भी नहीं
हो सकते, क्योंकि
बहुत सुख भी
तुम्हें मार डालेगा।
तुम उसमें
इतने
उत्तेजित हो
जाते हो।
मुझे
एक कहानी याद
आती है। एक
बार एक अवकाश—प्राप्त
गरीब शिक्षक
को लाटरी मिल
गई। शिक्षक
कहीं बाहर गया
हुआ था, खबर
उसकी पत्नी को
मिली। पत्नी
चिंतित हुई कि
यह लाटरी बूढ़े
व्यक्ति के
लिए जरा
ज्यादा हो
जाएगी, एक
साथ पचास हजार
रुपए पाने की
खबर सुनकर वह
खुशी के मारे
पागल हो जाएगा।
उसे तो पांच
रुपए का नोट
भी खुशी से भर
देता था; पचास
हजार रुपया तो
उसे मार ही
डालेगा। तो वह
भागकर पास के
चर्च में गई
और पादरी को
उसने सारा हाल
कहा। उसने कहा
: 'बूढ़ा
शीघ्र ही घर
लौटने वाला है,
तो आप कुछ
उपाय करें।
पचास हजार
रुपए मिलने की
खबर उसकी जान
ले लेगी।’
पादरी
ने कहा : 'तुम
चिंता मत करो।
मैं मनुष्य के
मन को जानता
हूं मुझे उसके
काम करने का
ढंग मालूम है।
मैं मनुष्य का
मनोविज्ञान
जानता हूं।
चलो, मैं
तुम्हारे साथ
चलता हूं।’ इधर बूढ़े की
पत्नी पादरी
को लेकर घर आई
और उधर वह
बूढ़ा भी आ गया।
पादरी ने बूढ़े
से कहा : 'मान
लो कि तुम्हें
पचास हजार की
लाटरी मिल गई है
तो तुम उसका
क्या करोगे?' बूढ़े ने जरा
देर मन ही मन
इस पर विचार
किया और फिर
पादरी से कहा : 'मैं उसमें
से पचीस हजार
रुपए
तुम्हारे
चर्च को दान कर
दूंगा।’
यह
सुनकर पादरी
के प्राण—पखेरू
उड़ गए। यह
अतिशय था।
तुम्हें
सुख भी मार
डालेगा, क्योंकि
तुम उसमें
इतने
उत्तेजित हो
जाते हो। तुम
किसी चीज के
बाहर नहीं रह
सकते, सुख
या दुख जो भी
तुम्हारे
द्वार आए तुम
उससे इतने जुड़
जाते हो कि
तुम डांवाडोल
हो जाते हो, तुम तुम
नहीं रहते।
हवा का एक
झोंका और
तुम्हारे
पांव उखड़ जाते
हैं।
मैं
तुमसे यह कहता
हूं : कोई
चुनाव ही मत
करो। तुम बस
सजग और
बोधपूर्ण रहो
कि यही जीवन
का ढंग है कि
रात और दिन
आते हैं, चले
जाते हैं; दुख
और सुख आते
हैं, चले
जाते हैं—और
तुम मात्र
साक्षी हो। न
तुम्हें सुख
को पकड़ना है
और न तुम्हें
दुख से बचना
है, भागना
है। तुम्हें
अपने में रहना
है—केंद्रित,
स्थिर, अकंप।
यही आनंद है।
और
स्मरण रहे कि
आनंद दुख के
विपरीत नहीं
है। ऐसा मत
समझो कि जब
तुम्हें आनंद
उपलब्ध होगा तो
फिर दुख
तुम्हारे पास
नहीं आएगा। इस
मूढ़ता में मत
पड़ो। दुख जीवन
का ही हिस्सा
है,
वह तभी विदा
होगा जब जीवन
विदा होगा। वह
तो शरीर के
साथ आता है और
शरीर के साथ
जाता है। जब
तुम जन्म—मरण
से छूटोगे तभी
तुम दुख से
छूटोगे।
लेकिन तब तुम
समष्टि में खो
जाओगे, उससे
एक हो जाओगे।
तुम तब नहीं
रहोगे—सागर
में बूंद की
तरह खो जाओगे।
लेकिन जब तक
तुम हो, दुख
रहेगा। दुख
जीवन का
अभिन्न अंग है।
लेकिन
तुम जाग सकते
हो,
तब दुख कहीं
तुम्हारे
इर्द—गिर्द
घटित होगा, तुम्हें
नहीं होगा, तुम उससे
अछूते रहोगे।
लेकिन तब
तुम्हें सुख
भी नहीं होगा,
तुम उससे भी
अछूते रहोगे।
यह मत सोचो कि
तुम पर सुख की
तो वर्षा होती
रहेगी और दुख
बिलकुल नहीं
होगा। नहीं, तुम्हें
दोनों नहीं
होंगे। वे
तुम्हारे
इर्द—गिर्द
घटित होंगे, वे तुम्हारी
परिधि पर घटित
होंगे और तुम
अपने केंद्र
पर अचल बने
रहोगे। तुम
उन्हें घटित
होते देखोगे,
तुम उनका
सुख भी लोगे, लेकिन वे तुम्हें
नहीं होंगे, वे तुम्हारे
आस—पास होते
रहेंगे।
यह तभी
संभव है जब
तुम चुनाव
नहीं करते हो।
इसलिए मैंने कहां, यह
बहुत बारीक
बात है, सूक्ष्म
बात है।
क्योंकि जीवन
विरोधाभासी
है, इसलिए
तुम सुख चुनते
हो और दुख
पाते हो। और
जैसे—जैसे तुम
दुख से भागते
हो वैसे—वैसे
दुख और—और
तुम्हारा
पीछा करता है।
इसलिए तुम इसे
परम नियम की
तरह जानो कि
तुम जो भी
चुनोगे उसके
विपरीत
तुम्हारा भाग्य
होगा।
इसे ही
मैं परम नियम
कहता हूं. तुम
जो भी चुनोगे
उससे उलटी
तुम्हारी
नियति होगी।
तो स्मरण रहे, तुम
जो भी हो वह
तुम्हारा
चुनाव है, तुमने
ही विपरीत को
चुनकर उसे
चुना है। स्मरण
रहे, तुम
जो भी हो उसे
तुमने चाहा है, उससे
विपरीत को
चाहकर तुमने
उसे चाहा है।
अगर तुम दुखी
हो तो तुमने
सुख को चुनकर
उसे चुना है।
सुख को चुनना
बंद करो, सुख
की मांग बंद
करो और दुख
विदा हो जाएगा।
कोई चुनाव मत
करो, और तुम्हें
कुछ भी नहीं
होगा।
और इस
जगत में
तुम्हारे
अतिरिक्त सब
कुछ प्रवाह है, इस
बात को अच्छे
से समझ लेना
है। अस्तित्व
में केवल तुम
सनातन हो; शेष
सब प्रवाह है,
सब
क्षणभंगुर है।
केवल तुम
शाश्वत हो और
कुछ नहीं।
तुम्हारा बोध
नहीं बदलता है,
बोध नित्य
है। दुख आता
है, तुम
उसके साक्षी
हो। सुख आता
है, तुम
उसके साक्षी
हो। कुछ भी
नहीं आता है, तुम उसके भी
साक्षी हो। सब
आता—जाता है, केवल साक्षी
अचल है, सदा
है। और वह
साक्षी तुम हो।
तुम
कभी बच्चे थे, या
उससे भी पीछे
जाना चाहो तो
तुम कभी एक
अणु थे, मां
के गर्भ में
एक सूक्ष्म
कोष्ठ थे, जिसे
स्थूल आंखों
से देखा भी
नहीं जा सकता।
तुम उसकी
कल्पना भी
नहीं कर सकते,
अगर वह
कोष्ठ
तुम्हारे
सामने आ जाए
तो तुम नहीं
पहचान पाओगे
कि कभी तुम
वही थे। फिर
तुम बच्चे थे।
फिर तुम जवान
हुए। और अब के
हो और मृत्यु—शय्या
पर पड़े हो। इस
बीच कितनी—कितनी
घटनाएं घट गईं।
तुम्हारा
पूरा जीवन एक
प्रवाह है—सरित—प्रवाह।
दो क्षण भी
कोई चीज स्थिर
नहीं है।
हेराक्लाइटस
ने कहा है कि
तुम एक ही नदी
में दुबारा
नहीं उतर सकते।
यह वह जीवन की
नदी के लिए कह
रहा है।
तुम्हें कभी
दो समान क्षण
नहीं मिलते
हैं। जो क्षण
बीत गया, फिर
वह तुम्हारे
हाथ आने वाला
नहीं है। कुछ
भी तो वही का
वही नहीं है।
इस महाप्रवाह
में केवल एक
चीज स्थायी है,
सदा है—वह
है तुम्हारा
साक्षी।
अगर
तुम मां के
पेट में
साक्षी रह
सकते तो वह साक्षी
वही रहता। अगर
तुम अपने बचपन
में साक्षी
रहे होते तो
वह साक्षी वही
रहता। अगर तुम
अपनी मृत्यु—शय्या
पर भी साक्षी
रहो तो साक्षी
की गुणवत्ता
वही की वही
रहेगी।
तुम्हारे
अंतरतम में जो
साक्षी—चेतना
है वह सदा
समान है, नित्य
है। शेष सब
कुछ बदल जाता
है, सिर्फ
चैतन्य
अपरिवर्तनशील
है, शाश्वत
है। अगर तुम
इस
परिवर्तनशील
जगत के किसी
भी विषय से, किसी भी चीज
से आसक्त हुए,
चिपके, तो
तुम निश्चित
ही दुख पाओगे।
तब दुख से
बचने का कोई
उपाय नहीं है,
क्योंकि
तुम असंभव को
संभव करने में
लगे हो। और
यही कारण है
कि तुम दुख
में हो। मैं
जानता हूं कि
तुम कभी दुख
नहीं चुनते, लेकिन इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। अगर
तुम दुखी हो
तो जानो कि
तुमने परोक्ष
रूप से उसे
चुना है, वह
तुम्हारा ही
चुनाव है।
यदि
तुम जीवन के
इस परोक्ष रूप
को,
उसके
विरोधाभासी
गुण को समझ लो,
उसके प्रति
सजग हो जाओ, तो तुम
चुनना छोड़
दोगे। और जब
चुनाव समाप्त
होता है तो
संसार भी
समाप्त हो
जाता है।
चुनाव गया कि
तुम परम में
प्रवेश कर गए।
लेकिन
यह तभी संभव
है जब चुनाव
करने वाला मन
पूरी तरह विदा
हो जाए। निर्विकल्प
बोध,
चुनाव—रहित
साक्षी के उदय
पर ही
तुम्हारा
आनंद में प्रवेश
हो सकता है।
तभी तुम आनंद
में होगे। यह
कहना उचित
होगा कि तब
तुम आनंद ही
होगे। और मैं
फिर दोहराता
हूं : दुख तो
आते रहेंगे, लेकिन अब
तुम्हें कोई
दुखी नहीं कर
सकेगा। अब अगर
तुम अचानक नरक
में भी डाल दिए
जाओ तो
तुम्हारी
उपस्थिति से
ही नरक नरक
नहीं रहेगा, स्वर्ग हो
जाएगा।
किसी
ने सुकरात से
पूछा कि मरने
के बाद आप
कहां जाएंगे? तो
सुकरात ने कहा
: 'मुझे पता
नहीं कि
स्वर्ग और नरक
हैं या नहीं, लेकिन मैं
उनमें से किसी
को भी न
चुनूंगा। मैं
तो यही
प्रार्थना
करूंगा कि मैं
जहां कहीं भी
रहूं सजग रहूं
बोधपूर्ण
रहूं।’
फिर
चाहे वह
स्वर्ग हो या
नरक,
उससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि अगर
तुम पूरी तरह
सजग हो, बोधपूर्ण
हो, तो नरक
खो जाता है।
नरक तुम्हारी
बेहोशी की, मूर्च्छा की
दशा का नाम है।
और अगर तुम
पूरे होश से
जीते हो तो
वही होश स्वर्ग
बन जाता है।
स्वर्ग
तुम्हारे
पूर्ण बोध की
दशा का नाम है।
सच में
स्वर्ग और नरक
कोई भौगोलिक
स्थान नहीं
हैं। और मूढ़ता
की भाषा में
मत सोचते रहो
कि जब तुम मरोगे
तो परमात्मा
तुम्हें
तुम्हारे
कर्मों के
अनुसार
स्वर्ग या नरक
भेज देगा।
नहीं, तुम
अपना स्वर्ग
और नरक अपने
साथ लिए चलते
हो, तुम
जहां भी जाते
हो तुम्हारा
स्वर्ग या नरक
तुम्हारे साथ जाता
है। अगर तुम
बेहोश हो तो
तुम नरक में
हो और परमात्मा
भी कुछ नहीं
कर सकता है।
अगर वह
तुम्हें
अचानक मिल जाए
तो वह भी
तुम्हें नरक
जैसा मालूम
पड़ेगा। अगर
तुम अपना नरक
लिए चल रहे हो
तो तुम जहां
भी हो वहां
अपने नरक को
प्रक्षेपित
कर लोगे। तुम
परमात्मा के
सामने भी दुख
में होगे, नरक
में होंगे।
उसका
साक्षात्कार
मृत्यु जैसा
होगा, असहनीय
होगा, तुम
बेहोश हो
जाओगे।
तुम्हें जो भी
होता है, उसका
बीज तुम्हारे
भीतर है। और
चेतना का बीज
ही सारे
अस्तित्व का
बीज है।
तो
स्मरण रहे, अगर
तुम दुख में
हो तो यह
तुम्हारा
चुनाव है, जाने
या अनजाने, प्रत्यक्ष
या परोक्ष
तुमने दुख
चुना है। यह
तुम्हारा
चुनाव है; इसके
लिए तुम
जिम्मेवार हो।
कोई दूसरा
व्यक्ति
तुम्हारे दुख
के लिए जिम्मेवार
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारे मन
में,
तुम्हारे भ्रांत
मन में सब कुछ
उलट—पुलट हो
गया है। तुम
उलटी खोपड़ी हो।
अगर तुम दुखी
हो तो तुम
सोचते हो कि
तुम दूसरे के
कारण दुखी हो,
दूसरा
तुम्हें दुखी
कर रहा है।
हकीकत यह है
कि तुम अपने
कारण दुखी हो।
कोई दूसरा
तुम्हें दुखी
नहीं कर सकता;
यह असंभव है।
और अगर
कोई दूसरा
तुम्हें दुख
देता है तो वह
भी तुम्हारा
चुनाव है कि
तुम उसके
हाथों दुख पाओ।
तुमने ही उस
व्यक्ति को
अपने दुख का
माध्यम बनाया
है। और वह
व्यक्ति
तुम्हें किस
भांति का दुख
देगा, यह भी
तुमने ही चुना
है। दूसरा
तुम्हें दुखी
नहीं कर सकता;
तुम्हारा
दुख सर्वथा
तुम्हारा
अपना ही चुनाव
है। लेकिन तुम
निरंतर सोचते
हो कि अगर
दूसरा बदले, अगर दूसरा
कुछ करे, तो
तुम्हारा दुख
दूर हो सकता
है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक खड़ी हुई
कार से अपनी कार
टकरा दी और वह
पुलिस थाने
में एक फार्म
भर रहा था।
फार्म में
अनेक बातें
पूछी गई थीं।
जब वह उस खाने
पर पहुंचा
जहां पूछा गया
था कि दूसरी
कार का चालक
दुर्घटना
बचाने के लिए
क्या कर सकता था,
तो मुल्ला
ने लिखा. 'उसे
अपनी कार कहीं
और खड़ी करनी
चाहिए थी।
वैसा उसने
नहीं किया, उसने अपनी
कार उस जगह पर
खड़ी की—इसलिए
दुर्घटना
उसके कारण हुई।’
तुम भी यही
कर रहे हो।
सदा दूसरा
जिम्मेवार है, अगर
वह वैसा नहीं
करता तो तुम्हें
दुख नहीं
भोगना पड़ता।
नहीं, दूसरा
बिलकुल
जिम्मेवार
नहीं है; तुम्हीं
अपने दुख के लिए
जिम्मेवार
हो। और जब तक
तुम समझ
पूर्वक यह
जिम्मेवारी
अपने ऊपर नहीं
लेते,तब तक
तुम नहीं
बदलोगे।
बदलाहट तो तभी
संभव होगी—बहुत
आसानी से संभव
होगी—जब तुम
जानोगे कि सब जिम्मेवारी
तुम्हारी है।
अगर तुम दुखी
हो तो यह
तुम्हारा
चुनाव है।
कर्म का सिद्धांत
यही है कि जो
कुछ भी होता
है—दुख—सुख, नरक—स्वर्ग,
जो भी होता
है—उसके लिए
पूरी तरह तुम
जिम्मेवार हो।
कर्म का सिद्धांत
यही है. पूरी
जिम्मेवारी
तुम्हारी है।
लेकिन
डरो मत, चिंतित
मत होओ।
क्योंकि यदि
पूरी
जिम्मेवारी
तुम्हारी है और
तुम यह
समझपूर्वक
स्वीकार करते
हो तो अचानक तुम्हारे
लिए
स्वतंत्रता
का द्वार खुल
जाता है।
क्योंकि अगर
तुम्हीं
तुम्हारे दुख
का कारण हो तो
तुम बदल सकते
हो। यदि दूसरे
लोग कारण हैं
तो बदलाहट का
कोई उपाय नहीं
है। तब तुम
कैसे बदल सकते
हो? तब तो
तुम्हें तब तक
दुख में रहना
पड़ेगा जब तक सारा
संसार न बदले।
और चूंकि
दूसरों को
बदलने का कोई
उपाय नहीं है,
इसलिए
तुम्हें सदा
दुख में ही
रहना पड़ेगा।
लेकिन
हम ऐसे निराश
लोग हैं कि
कर्म जैसे
सुंदर सिद्धांत
की व्याख्या
भी इस भांति करते
हैं कि वह
हमें मुक्त
करने की बजाय
और भी बंधन
में जकड़ देता
है। भारत में
तो हमें कोई
पांच हजार
वर्षों से कर्म
के सिद्धांत
की जानकारी है, लेकिन
हमने क्या
किया? अपने
ऊपर
जिम्मेवारी
लेने की बजाय
हमने सब जिम्मेवारी
कर्म के सिद्धांत
पर थोप दी; हम
कहते हैं कि
जो हो रहा है
सब भाग्य के
कारण हो रहा
है, इसमें
हम कुछ नहीं
कर सकते। हम
क्या कर सकते
हैं अगर पिछले
जन्मों के कर्मों
के कारण हमारा
यह जीवन इस
ढंग का है?
कर्म
का सिद्धांत
तुम्हें
स्वतंत्र
करने के लिए
था,
वह तुम्हें
पूरी तरह
स्वतंत्र
करने के लिए
था। कोई दूसरा
तुम्हें दुखी
नहीं कर सकता,
यह उसका
संदेश था। अगर
तुम दुखी हो
तो यह
तुम्हारी
निर्मिति है।
तुम अपने
भाग्य के
मालिक हो। और
अगर तुम इसे
बदलना चाहो तो
यह तुम्हारे
हाथ में है, तुम तत्क्षण
उसे बदल सकते
हो और
तुम्हारा
जीवन भिन्न हो
जा सकता है।
लेकिन हमारी
दृष्टि ही
उलटी है।
मैंने
सुना है, दो
मित्र आपस में
बातचीत कर रहे
थे। उनमें एक
पक्का
आशावादी था और
दूसरा पक्का
निराशावादी।
लेकिन
आशावादी भी
वर्तमान
स्थिति के
संबंध में
बहुत प्रसन्न
नहीं था, उसने
कहा 'अगर
यह आर्थिक
संकट कायम रहा,
ये
राजनीतिक
उपद्रव चलते
रहे और दुनिया
ऐसी ही अनैतिक
रही, तो हम
जल्दी ही भीख
मांगने के लिए
मजबूर हो जाएंगे।’
वह भी
वर्तमान
स्थिति के
बारे में
आशावादी नहीं
था, यद्यपि
वह पक्का
आशावादी था।
जब उसने कहा
कि हम भीख
मांगने पर
मजबूर हो जाएंगे
तो
निराशावादी
मित्र ने पूछा
: 'किससे? अगर यह
स्थिति बनी
रही तो भीख
देने वाला कौन
रह जाएगा?'
तुम्हारा
जो मन है वह
इतना रुग्ण है
कि तुम उसे ही
सब चीजों पर
आरोपित कर
देते हो, तुम
प्रत्येक सिद्धांत
और देशना का
गुणधर्म बदल
देते हो। तुम बहुत
आसानी से
बुद्धों और
कृष्णों को
पराजित कर
देते हो, क्योंकि
तुम्हारा मन
प्रत्येक चीज
को अपने रंग
में रंग देता है,
अपने ही
जैसा बना देता
है।
नहीं, तुम
जो भी हो, जिस
स्थिति में भी
हो, तुम
स्वयं उसके
लिए शत
प्रतिशत जिम्मेवार
हो। और जो
तुम्हारी
दुनिया है, जिसको तुम
कोसते रहते हो,
वह भी
तुम्हारी
निर्मिति है।
और उसके लिए
तुम स्वयं जिम्मेवार
हो—शत प्रतिशत।
और अगर यह बात
तुम्हारी
चेतना की
गहराई में उतर
जाए तो तुम सब
को बदल सकते
हो—स्वयं को
भी और संसार
को भी। तब
तुम्हें दुख
में जीने की
जरूरत नहीं है।
बस
चुनाव मत करो, साक्षी
रहो, और
तुम आनंद को
उपलब्ध हो
जाओगे। आनंद
कोई मुर्दा
स्थिति नहीं
है। इसलिए दुख
तो तुम्हारे
आस—पास घटित
होता रहेगा, लेकिन तुम
उससे अछूते
रहकर आनंदित
रहोगे। इसलिए
प्रश्न यह
नहीं है कि
तुम्हें क्या
होता है, प्रश्न
यह है कि तुम
क्या हो, तुम
कैसे हो। जीवन
का आत्यंतिक
अर्थ तुमसे
आता है, घटनाओं
से नहीं।
दूसरा
प्रश्न:
कल रात
आपने ऊब के,
बोरियत के
संबंध में
चर्चा की।
लेकिन हम एक
प्रबुद्ध
समाज की आशा
कैसे कर सकते
हैं जब कि
समाज को चलाने
के लिए अधिकतर
लोगों को
पुनरुक्ति
यूर्ण,
उबाऊ और नीरस
काम करने
जरूरी हैं?
फिर
वही बात : तुम
अपने मन को
काम पर आरोपित
कर रहे हो।
कोई भी काम
उबाने वाला
नहीं है, नीरस
नहीं है, लेकिन
तुम जरूर ऊब
से भरे हो, नीरसता
से भरे हो, और
उससे ही सब
कुछ नीरस और
उबाने वाला
मालूम पड़ता है।
कोई भी काम
अपने आप में न
उबाने वाला है
और न गैर
उबाने वाला है;
तुम्हीं
उसे नीरस या
सरस बना देते
हो। और एक ही
काम तुम्हें
अभी उबाने
वाला लग सकता
है और अगले क्षण
आनंदित करने
वाला लग सकता
है। ऐसा नहीं
कि काम बदल
गया, लेकिन
तुम्हारा मन,
तुम्हारे
मन का गुणधर्म
जिससे तुम काम
करते हो, जरूर
बदल गया। तो
स्मरण रहे, तुम इसलिए
नहीं ऊबते हो
कि एक ही तरह
का काम निरंतर
करना पड़ता है;
सच तो यह है
कि चूंकि तुम
ऊब से भरे हो
इसलिए हर काम
उबाने वाला
मालूम पड़ता है।
उदाहरण
के लिए, बच्चे
एक ही खेल बार—बार
खेलना पसंद
करते हैं, तुम
उससे ऊब जाते
हो, लेकिन
वे नहीं ऊबते
हैं। तुम्हें
हैरानी होती
है कि वे
क्यों एक ही
खेल बार—बार
खेलते हैं। वे
एक ही कहानी
फिर—फिर सुनना
चाहते हैं; कई बार
सुनने के बाद
भी कहते हैं
कि वह कहानी फिर
से सुनाओ। बात
क्या है?
तुम
सोच भी नहीं
सकते कि बच्चे
एक ही खेल बार—बार
क्यों खेलते
हैं,
एक ही कहानी
फिर—फिर क्यों
सुनते हैं।
तुम्हें यह
मूढ़ता मालूम
होती है।
लेकिन यह
मूढ़ता है नहीं।
बच्चे इतने
जीवंत हैं कि
उनके लिए कुछ
भी पुनरुक्ति
नहीं लगता है,
पुराना
नहीं लगता है।
और तुम इतने
मुर्दा हो कि
हर चीज
तुम्हारे लिए
पुनरुक्ति हो
जाती है।
बच्चे
दिन भर एक ही
खेल खेल सकते
हैं,
और अगर तुम
उन्हें
रोकोगे तो वे
चिल्लाएंगे, वे विरोध करेंगे
और कहेंगे कि
हमारा खेल मत
बर्बाद करो।
और तुम समझ
नहीं पाते हो
कि वे दिन भर
क्या करते
रहते हैं।
बच्चों
की चेतना की
गुणवत्ता
भिन्न है; उन्हें
कुछ भी नहीं
उबाता है। वे
खेल का इतना
मजा लेते हैं
कि वह मजा
पूरी बात ही
बदल देता है, वे फिर—फिर
उसका मजा लेते
हैं। फिर उनका
मजा भी बढ़ता
जाता है, क्योंकि
वे खेल में और—और
कुशल होते
जाते हैं।
जितना ज्यादा
वे खेल का सुख
लेते हैं, उतनी
उनके सुख की
मात्रा बढ़ती
जाती है।
तुम्हारी
हालत बिलकुल
उलटी है।
तुम्हारे सुख
की मात्रा
निरंतर घटती
जाती है और तुम्हारी
उकताहट बढ़ती जाती
है। बात क्या
है?
काम ही
उकताने वाला
है या
तुम्हारी
चेतना की स्थिति
में, तुम्हारे
होने के ढंग
में कोई
बुनियादी भूल
है?
इसे
दूसरे ढंग से
देखो। दो
प्रेमी एक ही
काम रोज—रोज
करते हैं। वे
रोज—रोज एक—दूसरे
को चूमते हैं, एक—दूसरे
को आलिंगन में
लेते हैं। ये
काम एक जैसे
हैं। लेकिन
प्रेमी उसे
अनंत बार
दोहराते रहना
चाहेंगे। अगर
तुम उन्हें
मौका दो तो वे
वही काम अनंत
काल तक करते
रहेंगे। दो
प्रेमियों के
व्यवहार को भी
बाहर से देखकर
तुम ऊब जाओगे।
वे कर क्या
रहे हैं? रोज—रोज
वही चीज कैसे
दोहराते हैं?
और उन्हें
सुविधा हो तो
वे दिन भर ब्लू—दूसरे
को चूमते
रहेंगे और
आलिंगन में
लिए रहेंगे।
यह सब क्या है?
प्रेमी
फिर से बच्चे
हो गए हैं।
इसीलिए प्रेम
इतना निर्दोष
है,
वह तुम्हें
फिर से बच्चा
बना देता है—बच्चे
जैसा निर्दोष।
प्रेमी होकर
तुम फिर खेलने
लगे, खेल
में मजा लेने
लगे। तुमने
प्रौढ़ता की
सारी मूढ़ता
उठाकर अलग रख
दी। अब तुम एक—दूसरे
के शरीर से
खेलते हो और
उसमें कुछ भी
पुनरुक्ति
जैसा नहीं
लगता है।
प्रत्येक
चुंबन नया और
अनूठा मालूम
पड़ता है; न
पहले कभी ऐसा
था और न आगे
कभी ऐसा होगा।
प्रेम के
प्रत्येक
क्षण का अपना
अलग अस्तित्व
है, वह कभी
दोहरता नहीं
है। यही वजह
है कि तुम
उसका इतना रस
ले पाते हो।
अर्थशास्त्र
का घटते
प्रभाव का
नियम यहां लागू
नहीं होता है।
प्रेम में
घटते प्रभाव
जैसा कोई नियम
नहीं है; बल्कि
बढ़ते प्रभाव
का नियम प्रेम
में लागू होता
है, तुम
जितना ज्यादा
प्रेम करते हो
उसका रस उतना
ही बढ़ता जाता
है।
इसीलिए
अर्थशास्त्री
प्रेम को नहीं
समझ पाते, न
गणितज्ञ समझ
पाते हैं। जो
लोग भी हिसाब—किताब
में निपुण हैं
वे प्रेम को
नहीं समझ पाते
हैं, क्योंकि
प्रेम बेक है,
वह सब नियम
को, सब
गणित को लांघ
कर बढ़ता जाता
है।
जब मैं
विद्यार्थी
था तो एक दिन
क्लास में
अर्थशास्त्र
के शिक्षक घटते
प्रभाव का
नियम समझा रहे
थे। मैंने
उनसे पूछा : 'प्रेम
के बारे में
आप क्या कहते
हैं? प्रेम
तो बढ़ता जाता
है।’ वे
बेचैन हो गए
और उन्होंने
मुझे क्लास से
बाहर जाने को
कहा और कहा कि
तुम
अर्थशास्त्र
नहीं समझ सकते;
घटते प्रभाव
का नियम तो
जागतिक नियम
है। मैंने
उनसे कहा. 'इसे
जागतिक मत
कहिए, फिर
प्रेम का क्या
होगा?'
हमें
लगेगा कि
प्रेमी एक ही
चीज बार—बार
कैसे करते हैं, लेकिन
उन्हें ऐसा
नहीं लगता।
लेकिन किसी
वेश्या के लिए
वही काम उबाऊ
हो जाता है; वहां
अर्थशास्त्र
का नियम फिर
लागू हो जाएगा।
क्योंकि
वेश्या प्रेम
नहीं करती, शरीर का
व्यापार करती
है। अगर तुम
किसी वेश्या
को चूमोगे तो
वह उसे नीरस
और उबाने वाला
कृत्य मालूम
पड़ेगा और किसी
दिन वह कहेगी : 'यह बेहूदा
कृत्य है। मैं
दिन भर चुंबन
देते—देते थक
गई हूं अब
ज्यादा
बरदाश्त नहीं
होता। उसके
लिए यह जरूर
पुनरुक्ति
पूर्ण, उबाने
वाला कृत्य है।’
मैं
तुम्हें
सिर्फ भेद
स्पष्ट कर रहा
हूं कि प्रेमी
के लिए चुंबन
उबाने वाला
नहीं होता, वेश्या
के लिए होता
है। असल में
कोई कृत्य
नीरस नहीं है,
उबाने वाला
नहीं है। यह
तुम्हारे मन
पर निर्भर है
कि तुम उसे
कैसे लेते हो।
तुम जो भी
करते हो, अगर
तुम उसे
प्रेमपूर्वक
करते हो तो वह
पुनरुक्ति
नहीं रह जाता
है। अगर तुम
प्रेम से कुछ
भी करते हो तो
कभी ऊब नहीं
होगी। लेकिन
तुम प्रेम से
नहीं करते हो।
मैं
रोज—रोज तुमसे
बोल रहा हूं; मैं
अनंत काल तक
बोल सकता हूं।
लेकिन मैं
प्रेम से
बोलता हूं
प्रेम के लिए
बोलता हूं; इसलिए मेरे
लिए वह कतई
नीरस नहीं है।
मैं अनंत काल
तक तुमसे
बोलता रह सकता
हूं। तुमसे
बात करना, तुम्हारे
हृदय से
गुफ्तगू करना
मुझे प्रीतिकर
है, यह
मेरे लिए
प्रेम का
कृत्य है, इसलिए
मेरे लिए यह
पुनरुक्ति पूर्ण
नहीं है, अन्यथा
मैं कब का ऊब
गया होता।
मैंने
सुना है, एक
बच्चा अपने
मां—बाप के
साथ एक रविवार
को चर्च गया, और वह
लगातार तीन
रविवारों तक
चर्च जाता रहा।
तीसरे रविवार
को उसने अपने
पिता से पूछा. 'क्या
परमात्मा
ऊबता नहीं है?
वही—वही लोग
हर रविवार को
यहां आते हैं।
बार—बार वही—वही
चेहरे देखकर
वह जरूर ऊब
गया होगा।’
लेकिन
परमात्मा ऊबा
नहीं है। पूरा
अस्तित्व, पूरी
सृष्टि
निरंतर
दोहरती रहती
है, जो
हमें
पुनरुक्ति
जैसी लगती है।
लेकिन यदि कोई
स्रष्टा है, कोई
परमात्मा है,
तो वह ऊबा
नहीं है, अन्यथा
उसने कब की
सृष्टि—रचना
बंद कर दी
होती। वह कह
सकता है, बहुत
हुआ। इतिश्री।
लेकिन स्पष्ट
है कि, वह
नहीं ऊबा है।
क्यों?
वह
प्रेम करता है, वह
अपनी पूरी
सृष्टि को
प्रेम करता है।
और जो भी है, जो भी होता
है, वह
उसका प्रेम है।
वह स्रष्टा है,
श्रमिक
नहीं, मजदूर
नहीं। वह
सर्जक है, सृजन
उसका प्रेम है।
पिकासो भी
नहीं ऊबता है,
क्योंकि वह
सर्जक है। अगर
तुम्हारा
कृत्य भी सृजन
हो जाए तो तुम
भी नहीं ऊबोगे।
और यदि
तुम्हें अपने
कृत्य से
प्रेम है तो
वह कृत्य सृजन
हो जाएगा।
लेकिन
बुनियादी
कठिनाई यह है
कि तुम्हें
अपने कृत्य से
प्रेम नहीं हो
सकता, क्योंकि
तुम स्वयं को
घृणा करते हो।
असली समस्या
यह है कि तुम
स्वयं को घृणा
करते हो। तो
तुम जो भी
करते हो उससे
भी तुम घृणा
करते हो, क्योंकि
तुम असल में
स्वयं को घृणा
करते हो।
तुमने अब तक
स्वयं को नहीं
स्वीकार किया
है। तुमने अब
तक अस्तित्व
को, परमात्मा
को अपने होने
के लिए
धन्यवाद नहीं
दिया है।
परमात्मा के
प्रति तुमने
कभी अपना
अहोभाव नहीं
प्रकट किया है।
सच तो यह है कि
तुम्हें
परमात्मा से
शिकायत है कि
उसने तुम्हें
क्यों पैदा
किया।
तुम्हारे
भीतर यह
प्रश्न बना ही
रहता है. 'मुझे
क्यों
अस्तित्व में
फेंक दिया गया
है? मेरे
होने का
प्रयोजन क्या
है?'
क्या
तुमने कभी
सोचा है कि
यदि परमात्मा
तुम्हें
अचानक मिल जाए
तो उससे तुम
क्या पूछोगे? तुम
पूछोगे. 'तुमने
मुझे किसलिए
पैदा किया? यह दुख
झेलने के लिए?
पीड़ा और
संताप में
जीने के लिए? जन्म—जन्मांतर
भटकते रहने के
लिए? किसलिए
मुझे पैदा
किया? जवाब
दो मुझे!'
जब
तुमने अपने को
ही नहीं
स्वीकार किया
है तो अपने
कृत्य को कैसे
स्वीकार कर
सकते हो? अपने
को प्रेम करो।
अपने प्रति
प्रेमपूर्ण
होओ। अपने को
स्वीकार करो।
तुम जैसे हो, जो हो, उसे
वैसा ही
स्वीकार करो।
क्योंकि
कृत्य गौण है,
वह तुम्हारे
होने से
निकलता है, तुम्हारे
प्राणों से
आता है।
अगर
मैं स्वयं को
प्रेम करता
हूं तो मैं जो
भी करूंगा, प्रेमपूर्वक
करूंगा। और
यदि मुझे किसी
कृत्य से
प्रेम नहीं
होगा तो मैं
उसे नहीं
करूंगा, छोड़
दूंगा। फिर
उसे जारी
क्यों रखना?
लेकिन
तुम्हें स्वयं
से ही प्रेम
नहीं है। और
जब स्त्रोत
ही प्रेम—शून्य
है तो उससे
बहने वाली नदी
प्रेमपूर्ण
कैसे हो सकती
है?
तुम जो भी
करते हो—डाक्टर
हो, इंजीनियर
हो, वैज्ञानिक
हों—तुम जो भी
करते हो, उसमें
तुम्हारी
घृणा प्रवेश
कर जाएगी। और
घृणा के कारण
कृत्य उबाऊ और
नीरस हो जाता
है।
और तुम
अपने कृत्य को
घृणा भी करते
हो और उसे किसी
न किसी बहाने
किए भी जाते
हो। तुम कहते
हो,
यह धंधा मैं
अपनी पत्नी के
लिए, बाल—बच्चों
के लिए करता
हूं। और
तुम्हारे
पिता
तुम्हारे लिए
करते थे, और
उनके पिता
उनके लिए करते
थे, और जब
तुम्हारे
बच्चे यही
करेंगे तो
कहेंगे, हम
भी अपने बाल—बच्चों
के लिए करते
हैं। और इस
तरह दुनिया के
सारे लोग जीवन
के आनंद से वंचित
रह जाते हैं।
यह
चालबाजी है, यह
झूठ है। सचाई
यह है कि तुम
कायर हो। तुम
इसे इसलिए
नहीं छोड़ सकते,
क्योंकि
उससे तुम्हें
सुरक्षा
मिलती है, बैंक
बैलेंस बढ़ता
है, प्रतिष्ठा
मिलती है। चूंकि
तुम कायर हो, तुम इसे छोड़
नहीं सकते और
न वह कर सकते
हो जो तुम
करना चाहते हो।
और फिर तुम सब
जिम्मेवारी
अपने बच्चों
के, पत्नी
के, परिवार
के कंधों पर
डालते रहते हो।
और सब
लोग यही कर
रहे हैं। किसी
बच्चे से पूछो।
वह स्कूल जा
रहा है और ऊब
से भरा है। वह
कहेगा 'मैं
अपने पिता की
खुशी के लिए
जाता हूं। अगर
मैं नहीं जाऊं
तो उन्हें
पीड़ा होगी।’ और तुम्हारी
पत्नी? वह
तुम्हारे
बच्चों के लिए
सारी गृहस्थी
ढो रही है।
कोई भी अपने
लिए नहीं जी
रहा है। किसी
को स्वयं से
इतना प्रेम
नहीं है कि वह
अपने लिए जीए।
और तब सब कुछ
विषाक्त हो
जाता है। जब
जड़ों में ही
जहर हो तो फूल—फल
जहरीले न
होंगे तो क्या
होंगे!
और ऐसा
मत सोचो कि
अगर तुम अपना
धंधा बदल लोगे
तो तुम नए
धंधे को प्रेम
करने लगोगे।
उसे भी
तुम्हीं तो
करोगे न! उस पर
भी तुम्हारा पुराना
चित्त हावी हो
जाएगा। शुरू—शुरू
में हो सकता
है थोड़ा
उत्साह लगे, नया—नया
मालूम हो, लेकिन
नएपन की
आरंभिक
उत्तेजना
समाप्त होगी कि
तुम्हारा
पुराना रोना—
धोना शुरू हो
जाएगा।
अपने
को बदलों।
अपने को प्रेम
करो। और जो भी
करो उसे
प्रेमपूर्वक
करो,
चाहे वह
कितनी ही छोटा
कृत्य क्यों न
हो, उससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
मुझे
एक घटना याद
आती है। जब
अब्राहम
लिंकन
अमेरिका के
राष्ट्रपति
हुए तो पहले
ही दिन जब वे
सीनेट का
उदघाटन कर रहे
थे,
किसी सदस्य
ने, जिसे
उनसे, उनकी
सफलता से बहुत
ईर्ष्या थी, उठकर कहा. 'लिंकन, यह
मत भूलिए कि
आपके पिता
जूते बनाने
वाले थे।’ उस
समय यह बात
बिलकुल
अप्रासंगिक
थी, बेहूदी
थी। लेकिन जिस
व्यक्ति ने
कही थी उसने
यह भी कहा 'आपके
पिता जूते
बनाने वाले थे,
और मेरे
परिवार के लिए
जूते बनाया
करते थे।
उन्हें मत भूल
जाना।’
निश्चित
ही यह बात
अब्राहम
लिंकन को
अपमानित करने
के लिए कही गई
थी। और सीनेट
के सभी सदस्य
हंस पड़े, क्योंकि
सभी के मन में
ईर्ष्या थी।
प्रत्येक
सदस्य सोचता
था कि यह
कुर्सी उसकी
है जिसे लिंकन
ने उससे छीन ली
है। अजीब बात
है कि
प्रत्येक
व्यक्ति यही समझता
है कि दूसरे
सारे लोग
चालाकी से सफल
होते है,
सिर्फ मैं अपवाद
हूं। इस भांति
हम दूसरों की
सफलता को झेल
लेते हैं कि
वह चालाकी से
हासिल की गई
है। इस भांति
हम अपने को
सांत्वना दे
लेते हैं। तो
सारी सीनेट
हंस पड़ी।
लेकिन
उत्तर में
अब्राहम
लिंकन ने जो
बात कही वह
अदभुत रूप से
सुंदर है।
उसने कहा. 'इस
अवसर पर आपने
मुझे मेरे
पिता की याद
दिला कर बहुत
अच्छा किया।
मुझे पता है
कि मेरे पिता
जूते बनाते थे,
लेकिन
मैंने अपने
जीवन में उनके
जैसा दूसरा जूते
बनाने वाला
व्यक्ति नहीं
देखा। वे
अनूठे थे, वे
सर्जक थे, क्योंकि
वे अपने काम
को प्रेम करते
थे। और मैं
अपने को उनके
जैसा सफल नहीं
समझता हूं क्योंकि
मुझे इस पद से
उतना प्रेम
नहीं है जितना
मेरे पिता को
जूते बनाने से
था। जूते
बनाना उनका
आनंद था; वे
जूते बनाकर
सुखी थे। मैं
इस पद पर कभी
उतना आनंदित
नहीं होऊंगा
जितने आनंदित
वे जूते बनाकर
थे।’
फिर एक
क्षण रुककर
लिंकन ने कहा. 'लेकिन
आपने इस क्षण
उन्हें कैसे
याद किया? मैं
भलीभांति
जानता हूं कि
मेरे पिता
आपके परिवार
के लिए जूते
बनाते थे, लेकिन
किसी ने कभी
कोई शिकायत
नहीं की। तो
मैं समझता हूं
कि जूते ठीक
ही थे। लेकिन
आप इस क्षण
उन्हें बिना
किसी प्रसंग
के याद करते
हैं तो मुझे
लगता है कि
कोई जूता आपको
काट रहा है।
मैं उनका बेटा
हूं मैं उसे
सुधार सकता
हूं।’
अगर
तुम्हें
स्वयं से और
अपने काम से
प्रेम है तो
तुम और ही
माहौल में
जीते हो। उस
माहौल में कुछ
भी पुनरुक्त
नहीं होता है।
पुनरुक्ति का
भाव तो ऊब भरे
मन का लक्षण
है। यह मत कहो
कि मैं एक ही
ढंग का काम
निरंतर करने
से ऊब गया हूं।
सच तो यह है कि
तुम ऊबे हुए
हो,
इसलिए काम
दोहरते रहने
वाले प्रतीत
होते हैं। तुम
ऊबे हुए मन से
जो भी काम
करोगे वह ऐसा
ही मालूम
पड़ेगा। कसूर
काम का नहीं
है, कसूर
तुम्हारे मन
का है।
जीवन
को देखो, जीवन
में कितनी
चीजें
दोहराती रहती
हैं। सूर्य एक
वर्तुल में
घूमता रहता है,
वह रोज सुबह
उगता है, संध्या
डूब जाता है।
ऋतुएं एक चक्र
में घूमती
रहती हैं—जाड़ा
आता है, गर्मी
आती है, बरसात
आती है। चक्र
चलता रहता है।
एक गहरे अर्थ
में सारा
अस्तित्व बार—बार
दोहरता रहता
है। ऐसा लगता
है कि पूरी
सृष्टि
बच्चों के खेल
जैसी है। न
पेड़ ऊबते हैं,
न आकाश ऊबता
है। अनंत समय
से वर्षा ऋतु
में आकाश
बादलों से भर जाता
है, लेकिन
वह कभी नहीं
कहता 'फिर
क्यों बादल आ
गए?' जीवन
को देखो—कितनी
पुनरुक्ति है।
यह
शब्द ठीक नहीं
है,
पुनरुक्ति
शब्द ठीक नहीं
है। कहना
चाहिए, जीवन
एक ही खेल
खेलते रहना
पसंद करता है।
यह खेल उसे
इतना भाता है
कि बार—बार
खेलता है, खेलता
ही जाता है।
और वह निरंतर
खेल को
विस्तार दिए
जा रहा है, उसे
उसकी
पराकाष्ठा पर
लिए जा रहा है।
फिर आदमी ही
पुनरुक्ति से
क्यों ऊबता है?
इसलिए नहीं
कि पुनरुक्ति
उबाती है, बल्कि
इसलिए कि आदमी
ऊबा ही हुआ है।
वह इतना ऊबा
हुआ है कि हर
चीज उसे उबाने
वाली लगती है।
एक बार
ऐसा हुआ कि
सिगमंड
फ्रायड एक
मानसिक रोगी
की जांच कर
रहा था। वह रोगी
से प्राथमिक
प्रश्न पूछ
रहा था जो वह
मनोविश्लेषण
शुरू करने के
पहले
प्रत्येक
रोगी से
पूछता था।
उसने रोगी से
कहा : 'सामने
पुस्तकों की
कतार को देखो,
उसे देखकर
तुम्हें
तुरंत किस चीज
की याद आती है?'
रोगी ने
पुस्तकों की
तरफ निगाह
उठाई, उन्हें
उसने ठीक से
देखा भी नहीं
और कहा: ‘यह
मुझे स्त्री
की याद दिलाती
है—सुंदर स्त्री
की।’
फ्रायड
खुश हुआ, क्योंकि
यह उसके सिद्धांत
के अनुकूल था।
उसका सिद्धांत
है कि जगत में
सब कुछ कामुक
है। उसने कहां,
ठीक। और फिर
उसने जेब से
अपना रूमाल
निकाला और रोगी
के सामने
हिलाकर पूछा : 'इसे देखो और
बताओ कि यह
रूमाल तुरैत
तुम्हें किस
चीज की याद
दिलाता है?'
वह
आदमी हंसा और
उसने कहा : 'एक
खूबसूरत स्त्री
की।’
फ्रायड
तो प्रसन्नता
से भर गया।
यही तो उसका सिद्धांत
था प्रत्येक
आदमी कामुकता
से ग्रस्त है; पुरुष
स्त्री के
संबंध में
सोचता रहता है,
स्त्री
पुरुष के
संबंध में
सोचती रहती है।
यही तो सारा
चक्कर है। और
फिर फ्रायड ने
कहा : 'दरवाजे
की तरफ देखो।’
वहां कोई
नहीं था। सड़क
पर भी कोई
नहीं था। उसने
कहा : 'वहां
देखो! वहां
कोई नहीं है; यह खालीपन
देखकर
तुम्हें क्या
खयाल आता है?' रोगी ने कहा. 'एक खूबसूरत
स्त्री।’
अब
फ्रायड भी
थोड़ा चिंतित
हुआ कि कहीं
यह आदमी उसके
साथ कोई
धोखाधड़ी तो
नहीं कर रहा
है। तो उसने
कहा : 'यह अजीब बात
है; क्या
प्रत्येक चीज
तुम्हें
स्त्री की ही
याद दिलाती है?'
उस
आदमी ने कहा. 'चीज
से कोई लेना—देना
नहीं है। चाहे
किताब हो या
रूमाल हो या
खाली दरवाजा
हो, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। सच
तो यह है कि
मैं कभी
स्त्री के
सिवाय और किसी
चीज के बारे
में सोचता ही
नहीं। मैं और
किसी चीज के
संबंध में कभी
सोचता ही नहीं;
इसलिए आप
क्या दिखाते
हैं वह
अप्रासंगिक
है। ऐसा नहीं
है कि
प्रत्येक चीज
मुझे स्त्री
की याद दिलाती
है, मैं
स्त्री के
बारे में ही
सदा सोचता
रहता हूं। यह
कोई याद
दिलाने की बात
नहीं है।’
यही
हाल तुम्हारा
है। प्रश्न यह
नहीं है कि
तुम्हें यह
काम उबाता है
या वह काम
उबाता है, या
पुनरुक्ति
भरा काम, नीरस
काम उबाता है।
सचाई यह है कि
तुम ऊबे हुए
हो—चाहे तुम
कोई काम करो
या न करो। अगर
तुम कुर्सी
में पड़े—पड़े
आराम भी करोगे
तो ऊब जाओगे, कुछ भी नहीं
करोगे और ऊब
जाओगे। तुम
कहोगे, करने
को कुछ नहीं
है और मैं ऊब
रहा हूं।
सप्ताह भर तुम
काम से ऊबे
रहते हो और
सप्ताह के अंत
में, छुट्टी
के दिन तुम
छुट्टी से ऊबे
रहते हो।
जिंदगी भर
किसी नीरस
धंधे से ऊबे
रहते हो और
रिटायर होने
पर
रिटायरमेंट
से ऊब जाते हो,
क्योंकि अब
करने को कुछ न
रहा। सारी
जिंदगी तुम ऊब
से भरे हो, क्योंकि
वही का वही
काम—फैक्टरी
या आफिस या
दुकान। और जब
तुम रिटायर हो
जाते हो तो
इसलिए ऊबते हो
कि अब कुछ
करने को नहीं
है।
तुम्हारी
ऊब का संबंध
किसी काम—धंधे
से नहीं है, बस
तुम ऊबे हुए
हो। तुम ऊब ही
हो गए हो। और
फिर तुम जो भी
करते हो उस पर
अपनी ऊब की
काली चादर ओढ़ा
देते हो।
तुमने राजा
मिदास का नाम
सुना होगा; वह जो कुछ
छूता था वह
सोना हो जाता
था। तुम भी एक
राजा मिदास हो,
तुम जिसे
छूते हो वह ऊब
हो जाता है।
तुम्हारे
स्पर्श में ही
जादू, जिस
चीज को भी छू
दोगे वह ऊब बन
जाएगी—हर चीज।
तो
कृत्यों को, काम
को बदलने की
चिंता छोड़ो।
चिंता करो
सिर्फ अपने को
बदलने की।
अपनी चेतना के
गुणधर्म को
बदलने की
फिक्र करो।
अपने प्रति
प्रेमपूर्ण
बनो। पहली बात
स्मरण रखने योग्य
यह है कि
स्वयं के
प्रति
प्रेमपूर्ण
होओ।
नैतिक
शिक्षकों ने
सारे जगत को
विषाक्त कर दिया
है। वे कहते
हैं : 'अपने को
प्रेम मत करो,
यह स्वार्थ
है। वे कहते
हैं, दूसरे
को प्रेम करो,
स्वयं को
प्रेम मत करो।
स्वयं को
प्रेम करना
पाप है।’
और मैं
तुमसे कहता
हूं कि यह
बिलकुल ही
नासमझी की बात
है,
यह बड़ी से
बड़ी मूढ़ता है।
और यह साधारण
नासमझी नहीं
है, खतरनाक
नासमझी है। जब
तक तुम अपने
को प्रेम नहीं
करते हो, तुम
किसी को भी
प्रेम नहीं कर
सकते। यह
असंभव है। जो
व्यक्ति
स्वयं से
प्रेम नहीं
करता है उसे किसी
से भी प्रेम
नहीं हो सकता।
अगर तुम्हें
स्वयं से
प्रेम है तो
ही तुम्हारे
प्रेम का
प्रवाह दूसरे
तक पहुंच सकता
है, अन्यथा
नहीं।
और
जिसे स्वयं से
प्रेम नहीं है, वह
स्वयं को घृणा
करेगा। और जब
तुम खुद को ही
घृणा करते हो
तो किसी दूसरे
को प्रेम कैसे
कर सकते हो? तब तुम
दूसरों को भी अनिवार्यत:
घृणा करोगे।
तब तुम केवल
प्रेम का
दिखावा कर
सकते हो। वह
प्रेम नहीं, प्रेम का
धोखा होगा। और
उससे भी बड़ी
बात यह है कि
जब तुम स्वयं
ही अपने को
प्रेम नहीं
करते तो तुम
दूसरों से
प्रेम पाने की
अपेक्षा कैसे
कर सकते हो?
प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
ही नजरों में
निंदित है।
समस्त नैतिक
शिक्षा
तुम्हें एक ही
चीज देती है, वह
है आत्म—निंदा
की विधि। वह
सिखाती है कि
तुम कैसे
निंदित हो, बुरे हो
अपराधी हो, पापी हो।
ईसाइयत कहती
है कि
तुम्हारा
पापी होना इस
पर निर्भर
नहीं है कि
तुम क्या करते
हो, तुम
पाप में ही
पैदा हुए हो।
ऐसा नहीं है
कि तुम कोई
पाप करते हो
या नहीं तुम जन्म
से पापी हो।
ईसाइयत
कहती है, मनुष्य
का जन्म ही
पाप में होता
है। आदम ने, पहले मनुष्य
ने पाप किया
और तुम उसकी
संतान हो, तुम
पापी हो। पाप
तो हो चुका, अब उसे
अनकिया नहीं
किया जा सकता।
तुम पाप में
ही जनमे हो—आदम
के पाप में।
अगर
तुम पाप में
ही पैदा हुए
हो तो तुम
स्वयं को कैसे
प्रेम कर सकते
हो?
जब
आत्मनिदा
तुम्हारे
प्राणों का
स्वर है तो तुम
स्वयं को कैसे
प्रेम कर सकते
हो? और अगर
तुम स्वयं को
ही प्रेम नहीं
कर सकते तो तुम
दूसरों को
कैसे प्रेम कर
सकते हो? प्रेम
का आरंभ घर से
होता है—और
तुम वह घर हो—फिर
वह फैलकर
दूसरों तक
पहुंचता है।
दूसरों को
प्रेम देने की
अनिवार्य
शर्त यह है कि
पहले तुम
प्रेम से भरे
होओ, अपने
प्रति
प्रेमपूर्ण
होओ। तभी
प्रेम तुमसे
बहकर दूसरों
तक पहुंच सकता
है।
और जब
तुम
प्रेमपूर्ण
होंगे, जब
तुम्हारा प्रेम
बहेगा, तब
वह तुम्हारे
कृत्यों में
प्रकट होगा।
फिर तुम चाहे
चित्र बनाओ या
जूते बनाओ या
कुछ भी करो, सड़क पर झाडू
भी लगाओगे तो
उसमें
तुम्हारा प्रेम
प्रवाहित
होगा। यदि तुम
स्वयं के
प्रति प्रगाढ़
प्रेम से भरे हो
तो तुम जो भी
करोगे उसमें
प्रेम
प्रवाहित होगा।
और अगर तुम
कुछ भी न
करोगे तो भी
प्रेम तुमसे
बहता रहेगा।
प्रेम तुमसे
वैसे ही बहेगा
जैसे दीए से
प्रकाश बहता
है। प्रेम
तुम्हारा
अस्तित्व बन
जाएगा। और ऐसे
प्रेम की दशा
में कुछ भी
उबाता नहीं।
लोग
मेरे पास आते
हैं,
कभी—कभी
बहुत
सहानुभूति से
कोई मित्र
मुझसे पूछते हैं:
'आप दिन भर
एक कमरे में
बैठे रहते हैं,
खिड़की के भी
बाहर नहीं
झांकते, फिर
भी आप ऊबते
नहीं है?’
मैं
स्वयं के साथ
हूं मुझे ऊब
क्यों हो?
वे
पूछते हैं 'अकेले
बैठे—बैठे
आपका जी नहीं
ऊबता?'
यदि
मैं स्वयं से
घृणा करता तो
मैं भी ऊब
जाता, जरूर ऊब
जाता। क्या
तुम उस
व्यक्ति के
साथ रह सकते
हो जिसे तुम
घृणा करते हो?
तुम स्वयं
से ऊब जाते हो,
क्योंकि
तुम्हें
स्वयं से ही
घृणा है।
तुम
अकेले नहीं रह
सकते। यदि कुछ
क्षणों के लिए
भी अकेले होते
हो तो तुम
बेचैन होने
लगते हो, तुम
किसी से मिलने
के लिए आतुर
होने लगते हो।
क्योंकि तुम
अपने साथ नहीं
रह सकते, अपना
ही संग
तुम्हें
काटता है—अपना
ही संग। तुम
अपना ही चेहरा
नहीं देखना
चाहते हो। तुम
कभी प्रेम से
अपना हाथ नहीं
छू सकते—असंभव
है।
तो जो
मित्र पूछते
हैं उनका
पूछना उनके
संदर्भ में
ठीक है। वे जब
अकेले होते
हैं तो ऊब
जाते हैं। वे
मुझे पूछते
हैं. 'क्या आप कभी
बाहर नहीं
निकलते हैं?' उसकी जरूरत
नहीं है। कभी
वे पूछते हैं 'लोग वही—वही
समस्याएं
लेकर आपके पास
पहुंचते हैं।
आप ऊबते नहीं
हैं?'
यह सच
है कि लोगों
की समस्याएं
भी एक जैसी
हैं। तुम इतने
नकली हो कि
तुम मौलिक
समस्या भी नहीं
बना सकते। सभी
की समस्याएं
वही की वही
हैं। वही
सेक्स, वही
अशांति, वही
क्रोध, वही
रोग सबके हैं।
लोगों को
आसानी से उनके
सवालों के
आधार पर सात
हिस्सों में
बांटा जा सकता
है; क्योंकि
सात ही
बुनियादी
समस्याएं हैं।
और वही—वही
सवाल लोग
पूछते रहते
हैं। तो वे
मित्र पूछते
हैं 'आप
ऊबते नहीं हैं?'
मैं
कभी नहीं ऊबता, क्योंकि
मेरे लिए
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा है और
इस अनूठेपन के
कारण
प्रत्येक की
समस्या भी
भिन्न है, समस्या
का स्वरूप
भिन्न है। तुम
अपनी प्रेम की
समस्या लेकर
आते हो, दूसरा
अपनी प्रेम की
समस्या लेकर
आता है, दोनों
एक जैसी दिखती
हैं, लेकिन
एक हैं नहीं।
क्योंकि दो
व्यक्ति इतने
भिन्न हैं कि
वह भिन्नता
उनकी
समस्याओं का
गुणधर्म बदल
देती है।
तो अगर
तुम वर्गीकरण
करो तो सब
समस्याएं सात
वर्गों में
बांटी जा सकती
हैं। लेकिन
मैं कोई
वर्गीकरण
नहीं करता, मेरे
लिए प्रत्येक
व्यक्ति इतना
अनूठा है कि उसे
किसी के साथ
भी नहीं रखा
जा सकता।
वर्गीकरण
संभव नहीं है।
लेकिन उस
अनूठेपन को
देखने के लिए
पैनी दृष्टि
चाहिए, सघन
बोध चाहिए, ताकि तुम उन
जड़ों तक जा
सको जहां हर
व्यक्ति अनूठा
है। अन्यथा
सतह पर सब
समान हैं।
सतह पर
सब लोग समान
हैं,
उनकी
समस्याएं
समान हैं।
लेकिन अगर तुम
सजग हो और
व्यक्ति के
साथ उसकी गहराई
में, उसके
अंतरतम में
उतरी, तो
तुम पाओगे कि
तुम जितने
गहरे उतरते हो
उतना ही
व्यक्ति अधिक
अनूठा, अधिक
मौलिक होता
चला जाता है।
और अगर तुम
ठीक उसके
केंद्र पर
पहुंच सको तो
वह व्यक्ति
अदभुत रूप से
अनूठा है। कभी
वैसा व्यक्ति
न पहले हुआ, न आगे कभी
होगा। वह
सर्वथा अनूठा
है। और तुम
रहस्य से अवाक
रह जाते हो—व्यक्ति
के अनूठेपन के
रहस्य से।
जगत में
कुछ भी
पुनरूक्ति
नहीं है, अगर
तुम बोधपूर्ण हो,
प्रेमपूर्ण
हो, सजग हो
और गहरे देखना
जानते हो।
अन्यथा सब कुछ
पुनरुक्ति है,
उबाऊ है।
तुम ऊबे हुए
हो, क्योंकि
तुम्हारी
चेतना ऊब पैदा
करने वाली है।
चेतना को बदलों,
और ऊब विदा
हो जाएगी।
लेकिन
तुम विषय
बदलने में लगे
हो;
उससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ेगा। स्वयं
को बदली।
आज
इतना ही।
(चौथा
भाग समाप्त)
Great.
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