(अध्याय—पांचवां)
इस
ध्यान शिविर
के बाद जब मैं
वापस बंबई
लौटती हूँ तो
खुद को लोगों
की भीड़ में
खोया हुआ पाती
हूं। उनसे फिर
से मिलने की
गहन. अभीप्सा
ने मेरी रातों
की नींद चुरा
ली है। करीब—करीब
हर रात मैं
उन्हें
स्वप्न में
देखती हूँ कि
वे मुझसे
बातें कर रहे
हैं। तब हर
रोज मैं
उन्हें एक
पत्र लिखना
आरम्भ कर देती
हूं और चाहती
हूं कि शीघ्र
ही उनका जवाब आए।
मैं यह पूरी
तरह भूल ही
चुकी हूँ कि
पत्र को उन तक
पहुंचने में
कम से कम तीन
दिन लगेंगे और
यदि वे मेरा
पत्र पाकर तुरन्त
उसी दिन भी वे
जवाब दे देते
हैं तो उनका
पत्र मुझ तक
पहुंचने में
फिर तीन दिन
का समय और
लगेगा।
कई बार
मुझे उन पर
गुस्सा भी आने
लगता है कि
मुझे वे इस
तरह दीवानी
बना रहे. हैं—मैं
नहीं जानती कि
कैसे —खुद को
संभाले हुए
हूं और ऑफिस
में जाकर अपना
काम भी करती
हूँ। कछ हफ्ते
बीत चुके हैं।
आज शाम पांच
बजे ऑफिस से
निकलकर
मैं
नीचे जाने के
लिए सीढ़ियां
उतर रही हूं
कि मेरे ऑफिस
का चपरासी एक
चिट्ठी हाथ
में लिए मेरे
पीछे दौड़ता
हुआ आता है।
यह कुछ अजीब
सी घटना है, क्योंकि
हमारे ऑफिस
में किसी —के
व्यक्तिगत
पत्रों की कोई
परवाह नहीं
करता। मैं
उससे पत्र ले
लेती हूं—यह
मेरे प्रियतम '
की ओर से
आया है। मैं
इसे चूमकर
कांपते हाथों
से खोलती हूँ।
उसमें
लिखा है:
प्यारी
पुष्पा
(संन्यास से
पहले का मेरा
नाम)
प्रेम!
तेरा पत्र
पाकर मैं
आनंदित हूं।
परमात्मा के
लिए ऐसी अभीप्स
शुभ है
क्योंकि
अभीप्सा की
सघनता ही उस
तक पहुंचने का
मार्ग बन जाती
है।
17
की रात को मैं
बंबई में
होउंगा। नौ
बजे रात .आकर
मिल या जब
दोबारा 21 को
मैं बंबई वापस
आउंगा, तब
शाम 3 बजे आकर
मिल सकती हे।'
मैं
कहां ठहरूंगा
वह तू इन फोन
नंबरों पर पता
लगा सकती है।'
ओशो
पत्र
पढ़कर मैं खुशी
से फूली नहीं
समाती। 'आज
सत्रह तारीख
ही है और मैं
आज रात ही
उनसे मिलने
जाने की ठान
लेती हूं। फोन
करने के लिए
मैं दौड़कर
वापस ऑफ्लि
में जाती हूं।
पत्र पढ़ते हुए
मैं सोच रही
थी कि
उन्होंने भला
चार फोन नंबर
क्यों लिखे
हैं। लेकिन वे
जाग्रत पुरुष
हैं और बेहतर
जानते हैं।
तीन नंबर लगते
ही नहीं, चौथा
लगता है, और
जो स्त्री फोन
उठाती है वह
बताती है कि
हां, उनका
आगमन हो चुका
है और जहां वे
मिलेगें, वहां
का पता मुझे
दे देती है।
5
बजकर 10 मिनट हो
चुके हैं। अब, सिर्फ
चार घंटे की
बात है और मैं
दोबारा उनसे मिल
पाउंगी। समय
बहुत धीमी गति
से सरक रहा है।
हर पांच या: दस
मिनट बाद मैं
अपनी पड़ी की
ओर देख रही
हूं और इतने
अहिस्ता—अहिस्ता
चलने के लिए
उसे कोसने, लगती हूं। इंतजार
की ये घड़ियां
अनंतकाल जैसे
लग रही है।
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