(अध्याय—आठवां)
ओशो
ट्रेन द्वारा
बंबई से
जबलपुर के लिए
रवाना हो रहे
हैं। प्लेटफार्म
पर बहुत भीड़ और
शोर है और हम
कोई पचास लोग
हैं, जो उन्हें
विदा देने आए
हुए हैं। कुछ
उनसे हाथ मिला
रहे हैं, कुछ
उनके पांव छू
रहे हैं, और
हर बार वे उन
लोगों के सिर
पर हाथ रखने
के लिए झुक रहे
हैं। कुछ
मित्र चुपचाप
खड़े, आंसू
भरी आंखों से
उन्हें देख
रहे हैं, और
ओशो उनके पास
आकर उन्हें
गले से लगाते
हैं: और उदास न
होने को कहते
हैं क्योंकि
वे जल्दी ही
वापस आएंगे।
उनके स्पर्श
से उन लोगों
के आंसू सब
बांध तोड़ कर
बह निकलते हैं
लेकिन चेहरों
पर
मुस्कराहटें
छा जाती है।
ओशो के इर्द—गिर्द
आंसू और
मुस्कान रक
साथ घटते हैं
और यह हर रोज
का ही किस्सा
है।
अचानक
गार्ड की सीटी
सुनकर, हम सब
लोग चौंक जाते
हैं और .यह
संकेत हो जाता
है कि गाड़ी
छूटने वाली है।
ओशो गाड़ी में
चढ़कर दोनो हाथ
जोड़े हुए
दरवाजे पर खड़े
हो जाते हैं।
वे मुझे अपने
पास बुलाते
हैं। मैं गाड़ी
की सीढ़ी पर चढ़
जाती हूं और वे
दूर कोने में
खड़ी हुई एक
महिला की ओर
इशारा करके
मुझसे कहते
हैं कि मैं जाकर
उसे ले आऊं।
मैं
हिचकिचाते
हुए कहती हूं, 'ओशो
गाड़ी छूटने
वाली है।'
वे
बिलकुल
संकल्पयुक्त
दृढ़ता से कहते
हैं,
नहीं, गाड़ी
नहीं छूटेगी। तू
जाकर उसे ले आ।
मैं सैकडों लोगों
के बीच से जगह बनाती
हुई उस तरफ दौड़ती
हूं और वहां
पहुंचकर
विस्मित होती
हूं कि वह
महिला और कोई
नहीं मा तारों
है। वह अपनी
मां से बिछुड़े
छोटे बच्चे की
तरह रो रही है।
मैं उसका हाथ
कसकर पकड़कर
उसे ट्रेन की
ओर ले आती हूं।
ओशो तक वापस
पहुंचने में
मुझ कम से कम
पांच मिनट का
समय लगा —होगा
और वे उससे
मिलने के लिए
वहां अपने
एयरकंडीशंड
कंपार्टमेंट
के दरवाजे पर
खड़े हुए हैं।
वे
अपना हाथ उसके
सिर पर रखकर
उसे आश्वासन
देते हैं कि
वे जल्दी ही
वापस आएंगे, वह
रोए न। और फिर
वही 'आंसू
और मुस्कान' ताओ के
चेहरे पर हैं,
उसकी छोटी—छोटी
आंखें
सितारों की
तरह चमक रहीं
हैं। मैं देख
रहीं हूं कि
कैसे अपने हाथ
के स्पर्श मात्र
से ही वे अपना
प्रेम उंडेल
रहे हैं, और
जैसे हम
भक्तगण उनके
लबालब भरे
कुएं से शाश्वत
जीवन का जल
पीने लगे हों।
वे
एक बार फिर
सबकी ओर देखते
हैं और विदाई
में अपने हाथ
हिलाते हैं, मानों
कि वे गाड़ी के
ड्राइवर को कह
रहे हों 'अब
तुम गाड़ी चला
सकते हो।' और
गाड़ी धीरे—धीरे
सरकना शुरु कर
देती है। और
वे दरवाजे पर
खड़े हुए तब तक
हम सबको देखते
रहते हैं, जब
तक कि गाड़ी आंखों
से ओझल नहीं
हो जाती। हम
लोग एक—दूसरे
से गले मिलते
हैं और चुपचाप
भारी हृदय से
उनसे जल्दी ही
पुनर्मिलन की
आशा संजोए
प्लेटफार्म
से चल पड़ते हैं।
मुझे
एक झेन हाइकू
याद आती है,
तुम, मेरे
सामने खड़े,
ओ
मेरे शाश्वत
प्राण!
प्रथम
दर्शन से ही,
तुम
मेरे गुप्त
प्रेम हो।'
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