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शनिवार, 5 दिसंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--19)

मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक; रविवार, 26 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये
अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिये।।
सरबस वह जो देइ तो नाहीं काम का।
अरे हां, पलटू मित्र नहीं वह दुष्ट जो द्रोही राम का।।

लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।
भली—बुरी सिर धरौ भजौ भगवान को।।
हंसिहै सब संसार तौ माख न मानिये
अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिये।।


देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा
चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।
जाति—बरन—कुल खोइ करौ तुम भक्ति को।
अरे हां, पलटू कान लीजिये मूंदि, हंसै दे जक्त को।।

केतिक जुग गये बीति माला के फेरते।
छाला परि गये जीभ राम के टेरते।।
माला दीजे डारि मनै को फेरना।
अरे हां, पलटू मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना।।

तीसो रोजा किया, फिरे सब भटकिकै
आठो पहर निमाज मुए सिर पटकिकै।।
मक्के में भी गये, कबर में खाक है।
अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।

डांड़ी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।
सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।
भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।
अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।

ति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर—दर खड़ा
अब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंजिल पा सकूं, तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बंट गया
अच्छा हुआ तुम मिल गए
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूं, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन पूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा
हंसता कभी रोता कभी,
गति—मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठों याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व—प्रवाह में
किसको नहीं बहना पड़ा,
सुख—दुख हमारी ही तरह
किसको नहीं सहना पड़ा,
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूं, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर—दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ—न—कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
पर हो निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ साथ में चलते रहे
कुछ बीच से ही फिर गए
पर गति न जीव नकी रुकी
जो गिर गए सो गिर गए,
चलता रहे हर दम, उसीकी सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

मैं तो फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
जो बंद कर पलकें सहज
दो घूंट हंसकर पी गया
जिसमें सुधा—मिश्रित गरल, वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
धर्म एक यात्रा है।
जिसे हम साधारणतः जीवन कहते हैं, वह भी यात्रा जैसा मालूम होता, लेकिन यात्रा नहीं है। यात्रा का धोखा है। यात्रा तो वह जो पहुंचा दे जिसके आगे जाने को फिर कोई और जगह न बचे। यात्रा तो वह जो मंजिल से जुड़ा दे, राम से मिला दे। क्योंकि राम मिले तो विश्राम है। जब तक राम नहीं, तब तक विश्राम नहीं। तब तक आपाधापी है, दौड़धूप है, चिंता—विषाद है।
जब तक राम नहीं तब तक तुम जिसे यात्रा समझ रहे, वह कोल्हू के बैल की यात्रा है। गोल रहे गोल—गोल, घूम रहे गोल—गोल। वही राह हजार बार चल रहे। कहीं पहुंचोगे नहीं। ऐसे ही कोल्हू के बैल की तरह चलते—चलते गिर जाओगे एक दिन। भ्रांति तो रहेगी कि चल रहे हो। मगर चलने से ही थोड़े कोई पहुंचता है! चलने में एक कला चाहिए। चलने में भी एक दिशा चाहिए। चलने का भी एक विज्ञान है और बहुत कम लोग हैं जो चलना जानते हैं।
चलते सभी हैं, लेकिन चलना वे ही जानते हैं जो पहुंचते हैं। कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई पलटू, कोई नानक, कोई मुहम्मद। जो कह सके कि मैं आ गया। जो कह सके कि अब मेरी कोई चाह न रही। कह ही न सके, जिसके जीवन की ध्वनि, जिसका प्रसाद, जिसकी उपस्थिति, जिसका सान्निध्य, जिसकी तरंग तुम्हें प्रमाण दे कि जो पाने योग्य था, पा लिया गया। बीज फूल हो गया। अमावस पूर्णिमा हो गई। ऐसी यात्रा जीवन बने तो उस कला, उस विज्ञान का नाम धर्म है।
और कैसे यह होगा? करोड़ों तो लोग हैं। सभी चल भी रहे हैं। चल ही नहीं रहे, दौड़ भी रहे हैं।
मैंने सुना है—
एक बहुत तीव्र गति से उड़ता हुआ हवाई जहाज, उसके पायलट ने इंटरकाम पर यात्रियों को सूचना दी कि दो खबरें हैं, एक अच्छी, एक बुरी। पहले बुरी खबर, कि हमारा दिशासूचक यंत्र बिगड़ गया है। हम नहीं जानते कि हम कहां हैं? और हम नहीं जानते कि हम कहां जा रहे हैं? और दूसरी अच्छी खबर, कि हम जहां भी हैं और हम जहां भी जा रहे हैं, हम तेजी से जा रहे हैं।
लोग चल ही नहीं रहे हैं, दौड़ रहे हैं। पता नहीं कहां हैं? पता नहीं कहां जा रहे हैं? पता नहीं कहां से आ रहे हैं? मगर त्वरा है, तेजी है, बड़ा उद्दाम वेग है। क्षणभर की फुर्सत नहीं है लोगों को। समय नहीं कि दो घड़ी राम को याद करें, कि दो घड़ी प्रार्थना में डूबें। कहो: प्रार्थना, ध्यान, लोग कहते हैं, समय कहां है? जीवन की आपाधापी इतनी है। फुर्सत नहीं है। कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो?। तुमसे आगे भी लोग चल—चल कर कब्रों में गिर रहे हैं। तुम भी गिर जाओगे। कैसे ही चलो, कहीं भी जाओ, कब्र पर ही पहुंच जाओगे। गरीब भी पहुंच जाते हैं, अमीर भी पहुंच जाते हैं। पैदल भी और घुड़सवार भी। सोने के छत्रों की छाया में या धूप में पसीने से लथपथ, लेकिन सब बस मृत्यु के गङ्ढे में गिर जाते हैं।
मृत्यु के पहले जो अमृत को जान ले, समझना कि वही यात्री है।
फिर लोग इस यात्रा से ऊबते भी हैं। वही—वही रोज। वही दुकान, वही घर, वही खाना, वही पीना, वही धन...। और दिखाई भी पड़ता है कि जिनके पास धन है, उन्हें क्या मिल गया? और जिनके पास पद है, उन्हें क्या मिल गया? उनकी आंखों में भी शांति नहीं; उनके प्राणों में भी गीत नहीं; उनके जीवन में भी उत्सव नहीं; यह दिखाई भी पड़ता है। न भी देखना चाहो तो भी दिखाई पड़ता है। चारों तरफ यही है, कहां तक बचोगे, कैसे बचोगे?
लेकिन, करें क्या? सारी दुनिया दौड़ रही है। अगर हम न दौड़े तो पीछे रह जाएंगे। यह डर दौड़ाए चला जाता है कि कहीं हम पीछे न रह जाएं। पहुंचें या न पहुंचें, इसकी इतनी फिक्र नहीं है, लेकिन दूसरों से पीछे न रह जाएं, इसकी फिक्र ज्यादा है। एक स्पर्धा है, एक अहंकार है जो दौड़ाए रखता है।
और फिर कभी अगर यह दिखाई भी पड़ जाता है और समझ में भी आने लगती है बात कि दौड़ व्यर्थ है, यह यात्रा यात्रा नहीं है, तो लोग तीर्थयात्रा को निकल जाते हैं। चले काशी, चले काबा, चले गिरना! एक मूढ़ता छूटी नहीं कि दूसरी पकड़ने में देर नहीं लगती। मौलिक रूप से हमारी मूढ़ता वही की वही रहती है। फिर चाहे तुम कलकत्ता जाओ, चाहे काशी, क्या फर्क पड़ेगा? जाने वाले तुम वही के वही। पीने वाले तुम वही के वही। तुम्हारे पात्र में अमृत भी जहर हो जाएगा। तुम्हारे हाथ में सोना भी मिट्टी हो जाएगा। और मैं किसी सिद्धांत की ही बात नहीं कह रहा हूं, तुम्हारा अनुभव है यह। तुमने जो छुआ, वही मिट्टी हो गया है।
जब तक तुम न बदलो, कुछ भी न होगा। जब तक तुम्हारी आंतरिक कीमिया न बदले, तुम्हारे भीतर की रसायन—विद्या न बदले, तब तक कुछ भी न होगा। जब तक तुम पारस न बनो तब तक कुछ भी न होगा। हां, पारस बन जाओ, लोहा भी छुओगे तो सोना हो जाएगा। जहर भी पीओगे तो अमृत हो जाएगा। ऐसी अदभुत कला का नाम धर्म है, जिससे तुम पारस हो जाओ, जिससे तुम्हारे भीतर की रसायन बदल जाए।
पलटू के ये सूत्र उसी रसायन की तरफ इशारे हैं।
हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये
पहली बात, पलटू कहते हैं, जिनका हरि—चर्चा से बैर हो, उस संग—साथ को जल्दी ही छोड़ देना। इसके पहले कि बीमारी तुम्हें लग जाए, वहां से भागना, लौटकर देखना ही मत। उस चर्चा में रस है। उस चर्चा में उलझाव भी है। उस चर्चा में तर्क भी है। उस चर्चा में बहुत धोखे की संभावना है। वह चर्चा सार्थक भी लग सकती है। ईश्वर के पक्ष में तर्क ही क्या है! ईश्वर अतक्र्य है। आज तक कोई तर्क दिया नहीं जा सका। सब तर्क उसके खिलाफ हैं। अगर तुमने तर्क पर ध्यान दिया, तो तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, आस्तिक ठीक नहीं मालूम होगा। आस्तिक तो परवाना है, दीवाना है। तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, अगर तर्क पर ध्यान दिया। नास्तिक का तर्क सुडौल है, सुदृढ़ है, ठीक भूमि पर आधारित है। नास्तिक जो कहता है, उसमें भूल—चूक खोजनी कठिन है।
इसे समझ लेना ठीक से।
नास्तिक से विवाद में जीतना असंभव है। क्योंकि विवाद तो उसका जगत है। नास्तिक से संवाद नहीं हो सकता, विवाद हो सकता है। नास्तिक को परमात्मा का कोई पता नहीं है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इसके वह प्रमाण दे सकता है। और जिसे ईश्वर का पता है, वह उसके लिए कोई भी प्रमाण नहीं दे सकता।
यह बेबूझ पहेली है।
जिसने जाना है, उसके लिए गूंगे का गुड़ हो गया। जिसने जाना है, उसने अनुभव किया कि कोई शब्द उसे प्रकट नहीं कर सकते हैं। वह अभिव्यक्ति में नहीं आता है। जाना तो जाता है, लेकिन ज्ञान में नहीं समाता है। हमसे बड़ा है, हमसे विराट है। हम उसमें डूब जाते, गल जाते, पिघल जाते, एक हो जाते हैं। अब जो बूंद सागर में गिर कर एक हो गई है, वह क्या प्रमाण दे सागर का? वह बची कहां? उसका अलग होना न रहा, उसका अपना अस्तित्व न रहा; कैसा प्रमाण, किसका प्रमाण, कौन दे प्रमाण?
जिन्होंने जाना, वे चुप रह गए हैं ईश्वर के संबंध में। जिन्होंने नहीं जाना, वे बहुत मुखर हैं। जो ईश्वर के संबंध में प्रमाण देता है, वह उतना ही अज्ञानी है जितना वह, जो ईश्वर के विरोध में प्रमाण देता है। ईश्वर के संबंध में प्रमाण दिया ही नहीं जा सकता। यह तो पियक्कड़ों की बात है, प्रमाण की नहीं। यह तो मस्ती की बात है, तर्क की नहीं। हां, जाना जा सकता है। सत्संग में ही जाना जाता है। जो पीए बैठे हैं, जो डोल रहे हैं मस्ती से, जो यहां रखते हैं पैर और वहां पड़ता है पैर, जो कहीं रखते हैं पैर और कहीं पड़ता है पैर, जिनके भीतर आनंद छलक रहा है, उनके पास बैठोगे तो शायद कुछ बूंदाबांदी तुम पर भी हो जाए। उनका सत्संग करना। जहां हरि—चर्चा होती हो, वहां बैठना, उस रंग में रंगना।
लेकिन जहां हरि—चर्चा से बैर हो, पलटू कहते हैं, वह संग तत्काल छोड़ दो। क्योंकि वे बातें तुम्हारी बुद्धि को बहुत संगत मालूम होंगी। तुम्हारी खोपड़ी में उन बातों का खूब प्रभाव पड़ेगा। तुम्हारी खोपड़ी बिलकुल आश्वस्त हो जाएगी कि ऐसा ही है। तुम्हारा अहंकार चाहता है कि ईश्वर न हो। इसलिए जो भी तुम्हें ईश्वर के न होने के प्रमाण देगा, वह प्रीतिकर लगेगा। क्योंकि तुम्हारे अहंकार की प्रतिष्ठा होगी। तुम्हारा अहंकार बलिष्ठ होगा, पुष्ट होगा। तुम्हारे अहंकार को भोजन मिलेगा।
फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है: ईश्वर नहीं है, नहीं हो सकता, क्योंकि मैं हूं। और एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकतीं। फ्रेडरिक नीत्शे का वक्तव्य विचारणीय है। एक बहुत विचारशील आदमी का वक्तव्य है। उसकी विचारशीलता यद्यपि उसे विक्षिप्तता में ले गई—वह पागल हुआ। होना ही था पागल। क्योंकि ईश्वर से जितने टूटते जाओगे, उतनी ही तुम्हारी जड़ें अस्तित्व से अलग होने लगती हैं। और कोई वृक्ष पृथ्वी से टूट कर कितनी देर रहा रहेगा? कितनी देर उसकी कलियां फूल बनेंगी? कितनी देर उसके फूलों में गंध रहेगी? कितनी देर पक्षी उस पर घोंसले बनाएंगे? जल्दी ही सूख जाएगा। जल्दी ही अस्थिपंजर रह जाएगा। न यात्री उसकी छाया में बैठेंगे—छाया ही न होगी—न पक्षी उनके आसपास फुदकेंगे, गीत गाएंगे—हरियाली ही न होगी। वृक्ष जैसे भूमि से टूट जाए, जड़ें उसकी उखड़ जाएं, मर जाता है, वैसे ही आदमी भी एक वृक्ष है। उसकी जड़ें परमात्मा में हैं। अदृश्य है वह परमात्मा, अदृश्य हमारी जड़ें हैं। ऐसे भी वृक्षों की जड़ें भी कहां दिखाई पड़ती हैं? वे भी दबी हैं भूमि में, वे भी अदृश्य हैं इस अर्थ में। हमारी तो और भी अदृश्य हैं। क्योंकि हमारी जड़ें पौदगलिक नहीं हैं, पदार्थ की नहीं हैं, चैतन्य की हैं।
चेतना अदृश्य घटना है। हम चेतना से जुड़े हैं परमात्मा से। जितना हम परमात्मा को इनकार करते हैं, उतनी ही हमारी जड़ें टूटती चली जाती हैं। उतने ही हम रुग्ण और विक्षिप्त होने लगते हैं। जो नीत्शे के जीवन में घटा, वह अब पूरी दुनिया के जीवन में घट रहा है।
नीत्शे ने यह भी कहा था कि मैं भविष्यवाणी हूं। जो मुझे हो रहा है, वह सौ साल के भीतर प्रत्येक आदमी को होगा। और उसकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है। आज का आदमी जितना चिंतित, जितना उदास, जितना हारा—थका, जितना अर्थहीनता के बोझ से दबा है, उतना किसी सदी में कभी ऐसा न हुआ था। आदमी ने अपनी जड़ें अपने हाथ काट ली हैं। तुम सब कालिदास हो, जो उसी डाल पर बैठे हो जिसे काट रहे हो। हम परमात्मा से जुड़े हैं और अपने जोड़ तोड़ रहे हैं, अपने सेतु तोड़ रहे हैं।
बचना उन लोगों से, हट जाना उन लोगों से, जहां परमात्म—विरोध की चर्चा हो रही हो। यद्यपि तुम्हारा मन चाहेगा कि बैठो! क्योंकि मन के लिए यही हितकर है कि परमात्मा न हो। तुम्हारा अहंकार कहेगा, थोड़ी और सुनो ये बातें। क्योंकि अहंकार तभी तक जी सकता है, जब तक तुम परमात्मा से नहीं जुड़े हो। जितने जुड़ोगे, उतना अहंकार कम।
इस गणित को खयाल में रख लो।
जितने परमात्मा से अलग होओगे, उतना अहंकार ज्यादा। जितना परमात्मा के साथ होओगे, उतना अहंकार कम। जिस दिन पूरे—पूरे उसके साथ हो जाओगे, उस दिन कोई अहंकार नहीं बचता है। तुम्हारे भीतर यह भाव ही नहीं बचता कि मैं हूं। बस एक धुन रह जाती है: वह है। वही है। केवल वही है।
हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये
प्रश्न तो बिखरे यहां हर ओर हैं।
किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं।
सांझ आई, चुप हुए धरती गगन
नयन में गोधूलि के बादल उठे
बोझ से पलकें झंपी नम हो गईं
सांझ ने पूछा उदासी किस लिए?
किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं।
रात आई कालिमा घिरती गई
सघन तम में द्वार मन के खुल गए
दाह की चिनगारियां हंसने लगीं
रात ने पूछा, जलन यह किस लिए?
किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!
नींद आई, चेतना सब मौन है
देह थक कर सो गई पर प्राण को
स्वप्न की जादू भरी गलियां मिलीं
नींद ने पूछा भुलावे किस लिए?
किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!
प्रश्न तो बिखरे यहां हर ओर हैं।
किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!
और नास्तिकों के पास सब उत्तर हैं। उत्तर ही उत्तर हैं। और आस्तिक के पास कोई उत्तर नहीं है। परम आस्तिक के पास न तो उत्तर होते हैं, न प्रश्न होते हैं। एक निष्प्रश्न, निरुत्तर मौन होता है। उस मौन में ही जाना जाता है। वह मौन ही ध्यान, वह मौन ही समाधि।
लेकिन अगर तुम उत्तरों की तलाश कर रहे हो तो तुम नास्तिक के जाल में पड़े बिना न बचोगे। क्योंकि वहां उत्तर हैं। और जिन बातों के उत्तर नास्तिक के पास नहीं हैं, वह उन बातों को ही इनकार कर देता है, वहां वह शुतुरमुर्ग के न्याय का उपयोग करता है। शुतुरमुर्ग को दुश्मन दिखाई पड़ता है तो वह सिर को गड़ा कर रेत में खड़ा हो जाता है। उसका तर्क नास्तिक का तर्क है।
शुतुरमुर्ग रेत में सिर गड़ा लेता है, दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता; जो दिखाई नहीं पड़ता, वह है नहीं। बात खतम हो गई, अब दुश्मन से डरना क्या! लेकिन तुम्हें दिखाई न पड़े, इससे कोई चीज मिटती नहीं। है तो है। दिखाई पड़े चाहे न दिखाई पड़े। अंधे को रोशनी नहीं दिखाई पड़ती, इससे रोशनी नहीं मिटती। सिर्फ अंधा दीवालों से टकराता है, पत्थरों से टकराता है। सिर्फ अंधा टटोल—टटोल कर चलता है। बहरे को स्वर नहीं सुनाई पड़ते, इससे संगीत नहीं मिटता। इससे नदियों का कलकल नाद बंद नहीं होता। इसलिए आकाश के मेघ गड़गड़ाना नहीं रोक लेते। इसलिए बिजलियां कड़कना नहीं छोड़ देतीं। पक्षी गीत गाते रहते हैं, सागर की लहरें तटों से टकरा कर नृत्य करती हैं; लेकिन बहरे को इसका कुछ भी पता नहीं। बहरे के लिए ध्वनि है ही नहीं। मगर ध्वनि मिटती नहीं।
ऐसा ही नास्तिक है। उसे परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा दिखाई पड़ने वाली चीज भी नहीं है। परमात्मा तो वह है जो देखता है। तुम्हारे भीतर कौन है जो देख रहा है? नास्तिक तो देखता है। नास्तिक भी देखता है। आखिर कौन है जो देखता है? वही परमात्मा है। परमात्मा दृश्य नहीं है, परमात्मा द्रष्टा है। लेकिन नास्तिक यह बात मानकर चलता है कि परमात्मा को दृश्य होना चाहिए। कहां है, दिखलाओ! जब तक मैं देख न लूं तब तक मानूंगा नहीं। बच्चों को, बचकानी बुद्धि के लोगों को उसकी बात जंच जाएगी; कि बात तो ठीक है, दिखाई पड़े तब प्रमाण मिले।
लेकिन जिनके जीवन में थोड़ी चेतना की प्रौढ़ता है, वे कुछ और बात कहते हैं। वे कहते हैं: परमात्मा दृश्य नहीं है। इसलिए कभी दिखाई नहीं पड़ा। किसी को दिखाई नहीं पड़ा। अगर कोई कहता हो कि मुझे परमात्मा दिखाई पड़ा है, तो समझना कि वह भ्रांति में है, उसने सपना देखा है। परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा तो द्रष्टा है तुम्हारे भीतर, साक्षी है तुम्हारे भीतर। तुम्हारे साक्षी चैतन्य का ही नाम परमात्मा है। तुम्हारी आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था का नाम परमात्मा है। तुम उसे अनुभव कर सकोगे जब सब दृश्य छूट जाएंगे; जब केवल द्रष्टा ही रह जाएगा। कुछ दिखाई पड़ने को न होगा, सिर्फ देखने वाला बचेगा, तब देखने की ऊर्जा अपने पर ही लौट आती है। जैसे सांप कुंडली मार कर बैठ जाए, ऐसे द्रष्टा अपने पर ही कुंडली मार लेता है। उस कुंडली मार लेने का नाम ही ईश्वर का अनुभव है।
लेकिन अगर तुम्हारे पास प्रश्न हैं, तो तुम्हें उत्तर देने वाले लोग मिल जाएंगे। फिर चाहे वे नास्तिक हों, चाहे आस्तिक, जानने वालों के हिसाब में वे सभी नास्तिक हैं। जो तुम्हें उत्तर देता है, वह नास्तिक है। जो तुम्हें निरुत्तर की तरफ ले चलता है, वही आस्तिक है। जो तुम्हें अगर उत्तर भी देता है तो सिर्फ इसीलिए कि तुम्हारे सारे उत्तर छीन ले। जैसे एक कांटा गड़ जाए तो हम दूसरे कांटे से निकाल लेते हैं।
बुद्धों ने भी उत्तर दिए हैं; मगर उनके उत्तर उत्तर नहीं हैं, सिर्फ तुम्हारे प्रश्नों और तुम्हारे उत्तरों को निकालने वाले कांटे हैं। एक कांटा निकल आएगा तो फिर दूसरे कांटे को भी उसी के साथ फेंक देना पड़ता है। जो गड़ा था वह भी फेंक देते हैं हम और जिसने निकाला, उसे भी फेंक देते हैं। दोनों कांटे कांटे हैं। दोनों का कोई मूल्य नहीं है। दोनों से मुक्त होकर स्वास्थ्य है।
बचना उन स्थानों से, जहां प्रभु की चर्चा नहीं होती। बचना उन स्थलों से, जहां प्रभु—विरोध होता है। और तलाश करना उन जगहों की...कठिन होता जा रहा है रोज—रोज, उन स्थानों का अस्तित्व कठिन होता जा रहा है, जहां हरि—चर्चा; तोता—रटंत पंडितों की बकवास न हो वरन किसी जाग्रत, प्रबुद्ध पुरुष की वाणी हो।
ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हरि—चर्चा से जिनका बैर है, उन्हें त्यागना और जहां हरि—चर्चा चलती हो, वहां डूबना।
आज गगन में सावन बन कर,
फिर घिर आई याद तुम्हारी।

जरा पुरा था घाव कि छूकर हरा कर गई फिर पुरवाई,
झपका ही था दर्द कि सहसा, बादल ने आवाज लगाई,
तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा
कुछ सूखी थी सेज कि नभ ने बूंदों की बांसुरी बजाई,
सिसकी सांस, आंख बरसती, तरती पुतली, बंध गई हिचकियां,

किस किस तरह न जाने मेरे—
घर अकुलाई याद तुम्हारी।

खटका कहीं किवाड़, धड़कने लगी विकल रह रहकर छाती,
गूंजी कहीं मल्हार, बुझ गई कांप कांप दीपक की बाती,
बिखरी कोई बूंद, बिखर झर गई गुंथे सपनों की माला
महकी कोई गंध, हरहरा उठी नयन नदिया बरसाती,
छूटा धीरज डांड, बह गई अनजाने सागर में नैय्या,

जाने कहां कहां आकर डूबी—
उतराई याद तुम्हारी।

सपन हवन हो गए, कटी जब नहीं, किसी विधि रात उदासी,
अश्रु यती बन गए, थमी जब नहीं, बरसती पुतली प्यासी,
धर धर परवत दिए वक्ष पर, जब जब हृदय अधीर कराहा
भर भर लिए अंगार, न सोई किसी तरह जब बांह विसासी,
कभी अश्रु ने, कभी जलन में, कभी नयन ने, कभी सपन ने,
तुम्हें पता क्या, तुम बिन किस—
किसने बहलाई याद तुम्हारी।

आया बचपन याद समय के सजे खिलौने चूर हो गए,
एक न दो, सारे के सारे खेल खिलाड़ी दूर हो गए,
वर्तमान के घर आकर उतरी कोई डोली अतीत की
जितने क्षण थे शेष उमर के, जाने को मजबूर हो गए,
कहीं जनम बन, कहीं मरण बन, कहीं धूप बन, कहीं छांव बन
जाने कितनी बार यहां—
भूली भरमाई याद तुम्हारी।
बैठना ऐसी जगह, उठना ऐसी जगह, जहां कोई भूली—बिसरी याद—जिसे हम जन्मों—जन्मों से भूल गए हैं—फिर पुनरुज्जीवित हो उठे, फिर हरी हो उठे। फिर कोई घाव, फिर कोई पीड़ा, फिर कोई प्रेम जग उठे।
आज गगन में सावन बनकर,
फिर घिर आई याद तुम्हारी।
जहां हरि—चर्चा चलती हो, वहां फिर बादल घिरते हैं, फिर सावन आता है।
जरा पुरा था घाव कि छूकर हरा कर गई फिर पुरवाई,
झपका ही था दर्द कि सहसा, बादल ने आवाज लगाई,
तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा
कुछ सूखी थी सेज कि नभ ने बूंदों की बांसुरी बजाई,
सिसकी सांस, आंख बरसी, तरसी पुतली, बंध गई हिचकियां,
किस किस तरह न जाने मेरे—
घर अकुलाई याद तुम्हारी।
जैसे पपीहा पुकार उठे पिया को। जैसे दूर जंगल से पी कहां की आवाज आए और तुम्हें घेर ले, ऐसे जहां सत्संग होता हो, उस परम प्यारे की स्तुति होती हो, बैठना, उठना, रंगना; कौन जाने कौन बात छू जाए! कौन जाने हवा का कौन—सा झोंका तुम्हारे भीतर धूल की परतों को उड़ा ले जाए, दर्पण को स्वच्छ कर जाए।
तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा
बुद्धपुरुष और करते क्या हैं? तुम्हारे पास, तुम्हारे हृदय के पास आकर पिया कह उठते हैं! पुकार देते हैं उसे जो तुम्हारे भीतर सोया है। अंगड़ाई लेकर कोई तुम्हारे भीतर उठ आता है। फिर हर तरफ उसकी खड़क मिलने लगती है।
खटका कहीं किवाड़, धड़कने लगी विकल रह रहकर छाती,
गूंजी कहीं मल्हार, बुझ गई कांप कांप दीपक की बाती,
बिखरी कोई बूंद, बिखर झर गई गुंथे सपनों की मामला
महकी कोई गंध, हरहरा उठी नयन नदिया बरसाती,
छूटा धीरज डांड, बह गई अनजाने सागर में नैय्या,
जाने कहां कहां जाकर डूबी—
उतराई याद तुम्हारी।
परमात्मा एक अज्ञात सागर है। वहां डांड लेकर नावें नहीं चलाई जातीं। डांड की क्या बिसात! वहां तो सागर के ही ऊपर नैया छोड़ देनी होती है। सागर के ही सहारे छोड़ देनी होती है। वहां तो तूफान को ही किनारा समझ लेने वाले पार पा पाते हैं।
जहां सत्संग हो, वहां पुकार है। जहां सत्संग न हो, वहां से बचना!
हरि—चर्चा से बैर संग वह त्यागिये
अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिये।।
इसके पहले कि तुम्हारी बुद्धि नष्ट होने लगे, जल्दी भागना। सबेरे भागिये...तुरंत! देर मत करना! टालना मत!—कहना कि थोड़ी देर और। वहां क्षण—भर भी टिकना खतरनाक है।
अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिए।।
सरबस वह जो देह तो नाहीं काम का।
अगर ऐसे लोगों के साथ रहने से धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, किसी काम की नहीं है, क्योंकि मौत सब छीन लेगी।
अरे हां, पलटू मित्र नहीं वह दुष्ट जो द्रोही राम का।।
जो तुम्हें जाने—अनजाने, प्रत्यक्ष—परोक्ष परमात्मा से तोड़ता हो, वह मित्र नहीं है। उससे बड़ा कोई शत्रु नहीं हो सकता है।
लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।
भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को।।
और छोटी—छोटी चीजें छोड़ो।...लोक—लाज। कितनी क्षुद्र चीजों में लोग उलझे हैं। वर्ण, कुल, जाति, पद, मर्यादा, कितनी व्यर्थ की चीजों को कितना मूल्य दे रहे हो! सांयोगिक है कि किस घर में पैदा हो गए...ब्राह्मण कि शूद्र...अकड़ेअकड़े न फिरो। जरा चोटी बढ़ा ली और एक धागा जनेऊ का गले में डाल लिया और चंदन—तिलक लगा लिया—व्यर्थ अकड़ेअकड़े न फिरो! थोड़ा धन है, थोड़ा पद है, प्रतिष्ठा है—पगला न जाओ! चुल्लू—भर पानी में डूब मरने जैसी हैं ये बातें। इनका कुछ मूल्य नहीं; इनकी कोई गहराई नहीं।
लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।
भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को।।
फिक्र छोड़ो ये सब। लोग गालियां दें तो ठीक, लोग सम्मान दें तो ठीक, अपमान करें तो ठीक। भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को। सबको सिर रख लो। बुरे—भले को सब स्वीकार कर लो। मान—अपमान को अंगीकार कर लो। मगर एक काम मत छोड़ देना—भगवान के भजन को मत छोड़ देना। सब छूट जाए, चलेगा—क्योंकि सब छूट ही जाना है—भगवान बच जाए, बस काफी है। क्योंकि वही एक है जो नहीं छूटेगा। मौत सिर्फ तुम्हारे परमात्म—अनुभव को नहीं छीन सकती है, और तो सब छिन जाएगा। और जिसे मौत छीन ले वह कसौटी है। व्यर्थता सिद्ध हो गई। जैसे सुनार सोने को कसता है पत्थर पर, कसौटी पर, ऐसे ही जिंदगी में मौत कसौटी है। मौत को कसौटी समझ लो। मौत पर कस—कस कर देख लेना। जो मौत पर कच्चा निकल जाए, उसे कूड़ा समझना।
एक बात हमेशा सोच लेना कि तुम जो समय लगा रहे हो, जिस चीज में भी लगा रहे हो, क्या मौत के पार इसे बचाकर ले जा सकोगे? अगर ले जा सको तो बिलकुल ठीक है; दांव लगा दो। अगर न ले जा सको, तो समय न गंवाओ।
हंसिहै सब संसार तो माख न मानिए।
लोग हंसें, बुरा न मानना। लोगों का क्या कसूर है? लोग तुम पर हंसते हैं आत्मरक्षा के लिए। लोगों को हरि—चर्चा में डूबे व्यक्ति से खतरा पैदा हो जाता है। लोगों को, हरि—रस में जो संलग्न हो रहा है, उससे बेचैनी पैदा हो जाती है। क्योंकि उन्हें भी याद आनी शुरू हो जाती है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं; कि हम कुछ चूक रहे हैं। यह आदमी उन्हें उकसाता है। यह आदमी तीर की तरह उनकी छाती में गड़ने लगता है। वे अपनी आत्मरक्षा के लिए हंसेंगे, अपमान करेंगे, गालियां देंगे, पत्थर मारेंगे, जहर पिलाएंगे, सूली पर लटकाएंगे—वे जो भी कर सकते हैं करेंगे।
तुम फिक्र मत करना।
मौत तो यहां होनी ही है, इससे क्या फर्क पड़ता है आज मरे कि कल! मौत तो यहां होनी है, इससे क्या फर्क पड़ता है कि चार दिन की दुनिया में सम्मान मिला कि अपमान। सम्राट भी मर जाते हैं, भिखमंगे भी मर जाते हैं—और एक जैसे! सिर्फ कुछ थोड़े—से लोग हैं तो मर कर भी नहीं मरते। बस उन थोड़े—से लोगों में तुम भी एक हो जाओ, तो जीवन सार्थक हुआ।
लोग हंसेंगे—उन्हें हंसना पड़ेगा। क्योंकि जब कोई हरि—भजन में लीन होता है, तो जो आदमी रुपए—पैसे इकट्ठे करने में लगा है, वह क्या करें? अगर हरि—भजन में लीन होने वाला व्यक्ति सही है, तो फिर उसका रुपया—पैसा इकट्ठी करना मूढ़ता—पूर्ण है। और रुपया इकट्ठा करने में भीड़ लगी है, बड़ी भीड़ लगी है, सारी दुनिया लगी है, तो सारी दुनिया को बेचैनी पैदा होती है हरि—भक्त को देखकर। सारी दुनिया चाहती है उसे गलत सिद्ध कर दे। उसे गलत सिद्ध करने में ही दुनिया अपने काम में लगी रह सकती है। अगर वह सही है, तो दुनिया गलत है। दोनों साथ—साथ सही नहीं हो सकते। उसे गलत सिद्ध करना ही होगा।
और स्वभावतः अज्ञानियों की भीड़ है, मूढ़ों की जमात है। और इस दुनिया में चीजें संख्या से तय होती हैं। संख्या का बड़ा बल है। जिनके पास संख्या है, वे अपने को सत्य मान ले सकते हैं। हालांकि सत्य का संख्या से कोई संबंध नहीं है। एक भी आदमी के पास हो तो भी सत्य सत्य है, और झूठ अनेक लोग मानते हों, तो भी झूठ है। अनेकों के मानने से झूठ सत्य नहीं होता और सिर्फ एक के ही पास होने से सत्य झूठ नहीं होता। संख्या का कोई संबंध सत्य से नहीं है।
लेकिन, भीड़ के पास संख्या का बल है। वह बुद्धों पर हंस सकती है। फिर क्षमा योग्य है। हंसने के द्वारा वह सिर्फ अपनी मूढ़ता प्रकट कर रही है। इसमें तुम्हें परेशान हो जाने की कोई जरूरत नहीं है।
हंसिहै सब संसार तो माख न मानिए।
अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिए।।
सभी सदियों में, सभी कालों में, चारों युगों में, वह जो भीड़—भाड़ से भरा हुआ जगत है, उसका भक्त से विरोध है। क्योंकि भक्त के मूल्य और हैं। भक्त के मूल्य पारलौकिक हैं। उसके जीवन के देखने का ढंग भिन्न है।
जैसे उदाहरण के लिए—
जीसस एक नदीत्तट पर बैठे हैं। सांझ का समय है। और एक वेश्या को गांव के लोग पकड़ कर लाए। और उन्होंने जीसस से कहा कि यह स्त्री दुराचारिणी है, व्यभिचारिणी है। इसे हमने रंगे हाथों पकड़ा है। आप क्या सजा तजबीज करते हैं?
वे चालबाज लोग थे। गांव का पादरी, पुरोहित, पंडित, रबाई, वे सब वहां उनके साथ थे। गांव के प्रतिष्ठित सज्जन, आदृत लोग, गांव का मेयर, सरपंच, सब वहां थे। उन्होंने यह तरकीब निकाली थी जीसस को फंसाने की। क्योंकि जीसस बार—बार अपने वचनों में कहते थे: पहले तुमसे कहा गया है, लेकिन मैं तुमसे ऐसा कहता हूं। पहले तुमसे कहा गया है कि जो तुम्हें ईंटें मारे, उसे पत्थर से जवाब देना, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, दायां उसके सामने कर देना। जो तुम्हारा कोट छीने, कमीज भी उसे दे देना। और जो तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, दो मील उसके साथ चले जाना। पुराने लोगों ने तुमसे कहा है कि जो तुम्हारी आंख फोड़े, उसकी आंख तुम फोड़ना। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा भी उसके सामने कर देना।
जीसस बार—बार इस तरह के वक्तव्य देते थे। पंडित—पुरोहित परेशान थे। वे एक निर्णय पर आना चाहते थे। उन्होंने देखा यह मौका अच्छा है। आज सब तय हो जाएगा। वे तय ही करके आए थे कि जीसस क्या कहते हैं अब! क्योंकि पुरानी किताब कहती थी, उनकी धर्म—किताब कहती थी कि जो स्त्री दुराचारिणी हो, उसको पत्थरों से मारकर मार डालना। अब यह बड़े मजे की बात है कि कोई स्त्री अकेली ही तो दुराचार नहीं कर सकती! किसी पुरुष ने ही किया होगा! लेकिन पुरुष के संबंध में शास्त्र में कोई उल्लेख नहीं है। दुराचारिणी स्त्री को पत्थर मार—मार कर मार डालना। लेकिन दुराचारिणी स्त्री ने क्या देवताओं के साथ दुराचार किया? भूत—प्रेतों के साथ दुराचार किया? किसी पुरुष के साथ ही किया होगा! सच तो यह है, किसी पुरुष ने दुराचार किया होगा। क्योंकि स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। वह उसकी शारीरिक संरचना नहीं है। तुमने कभी सुना कि किसी स्त्री ने किसी पुरुष पर बलात्कार किया हो? वह असंभव है। पुरुष बलात्कार कर सकता है। स्त्री तो कर ही नहीं सकती।
जो स्त्री बलात्कार कर ही नहीं सकती, उसके लिए तो शास्त्र में नियम हैं कि पत्थर मार—मार कर मार डालना। और जो पुरुष बलात्कार कर सकता है, उसके लिए कोई नियम नहीं है। जरूर चालबाज पुरुषों ने ही ये शास्त्र लिखे होंगे। ये उन्हीं पुरुषों ने लिखे हैं जिन्होंने लिखा है कि पति परमात्मा है। ये वे ही पुरुष हैं। उन्होंने ही ये किताबें लिखी हैं। इनमें स्त्रियों के लिए कोई न्याय नहीं है।
सोचा था पंडित—पुरोहितों ने कि अब जीसस को हम फांस लेंगे। अगर जीसस कहेंगे कि हां, पुराने मसीहा ठीक कहते हैं, पत्थर मारकर इसे मार डालो, तो हम कहेंगे: फिर क्या हुआ तुम्हारी प्रेम की बातों का? कि शत्रु को भी प्रेम करो। और क्या हुआ तुम्हारे सिद्धांत का कि जो क्षमा करेगा, वही क्षमा किया जाएगा? और क्या हुआ तुम्हारे सिद्धांत का कि बुराई पर भी निर्णय न लो? उन सब बातों का क्या हुआ? ऐसा हम पूछेंगे। और अगर जीसस ने कहा कि नहीं, इस स्त्री को पत्थर न मारो, तो जो पत्थर हम लेकर चले हैं, इन्हीं से हम जीसस को मार डालेंगे। कि तुम हमारी धर्म—किताब का विरोध करते हो! तो हमारे सब नबी—पैगंबर मूढ़ थे! एक तुम्हीं समझदार पैदा हुए हो!
यह बढ़ई का छोकरा, न पढ़ा—लिखा बहुत, यह महा ज्ञानी है! और मूसा और इजेकियल और अब्राहम और पुराने मसीहा जिन्होंने ईश्वर का स्वयं दर्शन किया था, जो ईश्वर के ही हाथ से आज्ञाएं लेकर आए थे, जिन्होंने ईश्वर के ही नियम को स्थापित किया था, वे सब अज्ञानी हैं! तो इस स्त्री की तो हम फिक्र छोड़ देंगे, पहले हम जीसस का भुर्ता बना डालेंगे।
बड़ी तैयारी से गए थे। ठीक जाल फैलाया था। आखिर जीसस दो में से एक ही बात कह सकते हैं। या तो इसे क्षमा करो; तो हम जीसस को मार डालेंगे। और या, इस स्त्री को मार डालो; तो कहेंगे, क्या हुआ तुम्हारी ज्ञान की बातों का? तो अब दोबारा इस तरह की बकवास मत करना जो तुम करने के आदी हो गए हो। दोनों हालत में जीत हमारी है।
उन्हें पता भी न था कि जीसस जैसे आदमी के साथ जीत तुम्हारी कभी हो ही नहीं सकती। तुम जीसस को मार सकते हो, मगर जीत तुम्हारी कभी नहीं हो सकती। तुम जीसस को मार सकते हो, मगर जीत तुम्हारी कभी नहीं हो सकती। वह असंभव है। सत्य के सामने असत्य की कहीं कोई जीत होती है! सत्यमेव जयते। सत्य जीतता ही है। जीत उसका स्वाभाविक लक्षण है। हां, तुम मार सकते हो, काट सकते हो जीसस को, मगर सत्य नहीं कटेगा और सत्य नहीं मरेगा। तुम जीसस को मारोगे, सत्य और जी उठेगा। जीसस के खून से और परिपुष्ट हो जाएगा।
जीसस ने बात सुनी और कहा कि ऐसा करो—पुराने शास्त्र कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे—तुम सब पत्थर हाथ में उठा लो। वे तो पत्थर लेकर आए ही थे। उन्होंने कहा, पत्थर तो हमारे हाथ में हैं, बस तुम्हारी आज्ञा चाहिए, हम इस स्त्री को मार डालें। जीसस ने कहा, लेकिन पत्थर पहले वह आदमी मारे जिसने कभी स्वयं कोई पाप न किया हो और पाप की आकांक्षा न की हो, पाप करने की कल्पना, योजना न बनाई हो, पाप करने का सपना न देखा हो। पहले वह आदमी पत्थर मारे। वे जो सरपंच आगे खड़े थे, मेयर इत्यादि, म्युनिसिपल कमेटी के मेंबर वगैरह, उन्होंने पत्थर वहीं के वहीं रेत में गिरा दिए और पीछे सरक गए।
धीरे—धीरे भीड़ छंटने लगी। क्योंकि कौन पत्थर मारे! ऐसा कौन आदमी था, जिसने पाप न किया हो या पाप की कल्पना भी न की हो! हां, पाप न किया हो, ऐसे लोग तो मिल जाते; लेकिन पाप का विचार और पाप करने में कुछ भेद नहीं है। धर्म की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। कानून की दृष्टि से फर्क पड़ता है।
यही पाप और अपराध का भेद है।
पाप का अर्थ फोता है: तुम्हारे मन में बुरा करने का विचार उठा। अपराध का अर्थ होता है: तुमने उसे कृत्य में परिणत किया। क्योंकि पुलिस और कानून तो कृत्य को पकड़ सकते हैं, विचार को नहीं पकड़ सकते। विचार करने के लिए तो तुम्हें छूट है। तुम ठीक अदालत के सामने बैठकर, आंखें बंद करके जितना बलात्कार करना हो करो! कोई मजिस्ट्रेट कुछ नहीं तुम्हारा बिगाड़ सकता! जितनी हत्याएं करनी हों—दुनिया भर को मार डालो—कोई पुलिस तुम्हारे हाथों में जंजीरें नहीं पहना सकती! विचार को पकड़ने के लिए कोई कानून नहीं है।
लेकिन धर्म के जगत में तो विचार का ही मूल्य है। क्योंकि तुमने सोचा तो किया। तुमने करना चाहा तो किया। क्योंकि वहां तो अभिप्राय की कीमत है, किया या नहीं यह सवाल नहीं है।
तो जीसस ने कहा कि जिसने सोचा भी हो पाप का विचार, वह मारे पत्थर, वह गलती करेगा, अपराध हो जाएगा। उसे पत्थर मारने का हक नहीं है। सिर्फ पुण्यात्मा लोग पत्थर मार सकते हैं। कौन पुण्यात्मा था! वे सब भाग गए।
थोड़ी देर में स्त्री अकेली छूट गई जीसस के पास।
वह स्त्री जीसस के पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा, आप मुझे दंड दें, मैं अपराधिनी हूं। उनके सामने तो मैं अपना अपराध स्वीकार नहीं कर सकती थी, क्योंकि उन्होंने मेरे अहंकार को बड़ी चोट पहुंचाई थी। और मैं उन सब को जानती हूं और उनकी नीयत को जानती हूं। उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो मुझे पत्थर मार सकता, क्योंकि उनमें से अनेक ने मेरे द्वार पर अनेक बार रात में दस्तक दी है। उनमें से बहुत से तो मेरे ग्राहक हैं। वह जो पुजारी बहुत पुजारी बना फिरता है, वह मेरा ग्राहक है। जब तुमने कहा कि जिसने पाप न किया हो वह पत्थर मारे, तभी मैं निश्चिंत हो गई थी कि अब पत्थर कोई नहीं मार सकता। और जब तुमने कहा कि जिसने विचार भी किया हो, वह भी पत्थर नहीं मार सकता, तब तो बात ही खतम हो गई थी। क्योंकि मैं इन सबको जानती हूं। ये इस गांव के पंडित—पुरोहित हैं, मैं इस गांव की वेश्या हूं। मुझसे भलीभांति इन्हें कौन जानता है? मैं इनके रग—रग, रेशे—रेशे से परिचित हूं। इनके सामने मैं अपराधिनी अपने को स्वीकार नहीं कर सकती थी, ये खुद ही अपराधी हैं। सच तो यह है, इन्हीं ने मुझे वेश्या बनाया। इन्हीं ने मुझे इस गर्त में ढकेला।
लेकिन, तुम्हारे चरणों पर गिरती हूं, अपना अपराध स्वीकार करती हूं, मुझे तुम जो भी दंड दोगे वह सहर्ष स्वीकार है। जीसस ने कहा, मैं दंड देने वाला कौन? तेरे और तेरे परमात्मा के बीच मैं आने वाला कौन हूं? तू उसी परमात्मा से प्रार्थना करना! वह महा करुणावान है! निश्चित क्षमा मिलेगी। हमारे पाप बहुत छोटे हैं, उसकी करुणा बहुत बड़ी है। हमारे पाप छोटे—छोटे आंगन, उसकी करुणा विराट आकाश। तू उससे ही क्षमा मांग लेना।
लेकिन ऐसा व्यक्ति स्वभावतः जगत की सामान्य धारणाओं से बहुत भिन्न होगा। भिन्न है ही। ऐसे व्यक्ति को जगत माफ नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति के खिलाफ पूरा जगत खड़ा हो जाएगा। जीसस को बहुत लांछन मिली। जीसस को बहुत सताया गया। फांसी तो आखिरी बात थी, उसके पहले भी बहुत सताया गया—जगह—जगह सताया गया, जहां गए वहां सताया गया।
ठीक कहते हैं पलटू:
अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिए।।
वह जो भक्त है परमात्मा का, उसका जगत से कुछ अनिवार्यरूपेण उलझाव हो जाता है। क्योंकि वह जो कहता है, जगत उसकी मान नहीं सकता। और जो जगत मानता है, उसको वह सहमति नहीं दे सकता।
जगत राजनीति है। राजनीति में धर्म को कहां जगह? वहां तो अधर्म का खेल है। वहां तो जो जितना झूठा, जितना बेईमान, जितना चालबाज, उसकी गति है। वहां सीधे—सरल के लिए कहां स्थान है? वहां तो तिरछे—तिरछे जाने वाले को सफलता मिलती है। जो कहे कुछ, करे कुछ, बोले कुछ, सोचे कुछ। जिसका तुम पता ही न लगा सको कि उसका प्रयोजन क्या है! जो एक को एक बात कहे, दूसरे को दूसरी बात कहे, तीसरे को तीसरी बात कहे। जिसके संबंध में तुम्हें अंदाज ही न बैठ सके कि उसका अभिप्राय क्या है! जो सबको धोखे में रखने में कुशल हो। वही इस जगत में सफल होता है। लेकिन भक्त तो होता है सीधा—सादा; उसकी गति साफ होती है, निष्कपट होती है। भक्त तो होता है नग्न, वह आवरणों में छिपा नहीं होता। वह तो जैसा होता है वैसा ही प्रकट कर देता है अपने को। उसके भीतर कोई पाखंड नहीं होता। और इसलिए पाखंड से भरे इस जगत में अगर उसका विरोध हो तो आश्चर्य नहीं।
देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा
ध्यान रखना, जगत कुछ बिगाड़ नहीं सकता, विरोध कितना ही करता रहे।
इसलिए पलटू कहते हैं, इसकी फिक्र न लेना; जगत क्या करैगा!
चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।
तू तो अपनी सीधी चाल चल। इनकी मान कर इरछी—तिरछी चालों में मत पड़ना। और इनकी मान कर झूठे देवताओं की पूजा मत करना। मंदिरों में रखी प्रतिमाएं आदमियों की ही बनाई हुई प्रतिमाएं हैं।
लोग देवताओं को ईजाद कर लिए हैं। अपनी ही शक्लों में! इसलिए चीनी देवता की नाक चपटी होती है। इसलिए अफ्रीकी देवता के ओंठ खूब मोटे होते हैं और बाल घुंघराले। उतने मोटे ओंठ तुम कृष्ण के नहीं बनाओगे। बनाओगे तो कृष्ण की तुम्हारी प्रतिमा को कोई खरीदने को राजी नहीं होगा। क्योंकि भारत में तो जितना पतला ओंठ हो, उतना ही सुंदर। तुम जरा कृष्ण—कन्हैया की चपटी नाक तो बनाओ! लोग पिटाई कर देंगे, कि तुम हमारे कृष्ण—कन्हैया की चपटी नाक तो बनाओ! लोग पिटाई कर देंगे, कि तुम हमारे कृष्ण—कन्हैया को बिगाड़ रहे हो! यहां तो तोते की चोंच जैसी नाक होनी चाहिए, तब सुंदर।
हर देश के, हर जाति के देवी—देवता अगर गौर से देखो तो तुम चकित होओगे, वह लोगों ने अपनी ही शकल में बनाए हैं। वे उनके ही प्रतीक हैं; उनकी ही ईजाद हैं। फिर उनकी पूजा चल रही है। कैसी मूढ़ता है! खुद ही बना लेते हो देवता, फिर खुद ही अपने बनाए देवताओं के सामने घुटने टेक कर झुक जाते हो। अपने ही बनाए खिलौने और उनकी पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो! इससे ज्यादा और अज्ञान क्या हो सकता है?
परमात्मा को तलाशना होता है, बनाना नहीं होता। खोजना होता है, निर्माण नहीं करना होता।
फिर तुम्हारी मौज! तुम्हें जो बनाना हो बनाओ! लोगों ने अपने—अपने ढंग के देवी—देवता बना लिए हैं। जो जिनको जैसा लगा। अब गणेश जी हैं!...खूब खोज की है! जरा उनकी देह तो देखो! और चूहा उनका वाहन है! हाथ में लड्डू लिए बैठे हैं!
एक बहुत बड़े पालि—संस्कृत के विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन कहते थे कि वह लड्डू नहीं है, अंडा है। उन्होंने बड़े शास्त्रीय आधार पर सिद्ध करने की कोशिश की थी कि वह अंडा है, लड्डू नहीं है। तुम समझ रहे हो मोतीचूर का लड्डू! राहुल सांकृत्यायन से मैंने कहा था कि तुम्हारी बात सैद्धांतिक रूप से सही हो या न हो, मुझे मतलब नहीं, लेकिन जंचती है। क्योंकि यह सूंडधारी गणेश और मोतीचूर के लड्डू खाएं!...अंडा ही होगा। ज्यादा आसान होगा।
गणेश जी बना लिया, गणेश—उत्सव कर लिया...धूम—धड़ाम...और तुम समझे कि धार्मिक हो गए। और फिर इनको बिचारों को गए और डुबा भी आए! विसर्जित करने में भी तुम्हें देर नहीं लगती है! अपना ही खेल है—अपने ही बनाए, अपने ही हाथ से मिटाए।
देव पित्र दे छोड़ि...
पलटू कहते हैं, इस तरह के देवता छोड़ो। और लोग मर गए हैं जो, उनकी पूजा कर रहे हैं—पितर! अब पितरों को कहां खोजो? खिलाते हैं पितरों को, कौवे खाते हैं। तुम क्या सोच रहे हो सब पितर तुम्हारे कौवे हो गए! जिंदा में कभी फिक्र नहीं की उनकी! दिखता है जब से मर गए हैं तब से तुम भयभीत हो, डर रहे हो कि जिंदगी में तो फिक्र नहीं की, अब कहीं सताएं न, अब कहीं परेशान न करें! चलो साल में एक दफा, पितृ—पक्ष में खिला—पिला दो, झंझट मिटाओ। भूत—प्रेतों से लोग बहुत डरते हैं कि कहीं नाराज हो जाएं। पलटू कहते हैं: देव पित्र दे छोड़ि...यह सब बकवास बंद करो। जीवन की पूजा करो! मृत्यु की पूजा में लगे हो। जीवन को तो मिटाते हो। जीवन को मिटाने के लिए तो तलवारें, बंदूकें, बम, एटम बम, हाइड्रोजन बम और पित्रों के लिए, मरे मुरदों के लिए, पूजा के थाल! तुम होश में हो? यह तुम्हारी जिंदगी किस हिसाब से चल रही है?
देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा
चिंता मत करो!
नानक के जीवन में उल्लेख है, हरिद्वार गए। वहां देखा कि लोग पित्र—पूजा कर रहे हैं। लोग एक कुएं पर पानी भर कर और पितरों को चढ़ा रहे हैं। वे भी एकदम से कुएं पर पहुंचे, किसी से बालटी मांगी, भरा पानी और पास ही कुएं के डाला और कहा: पहुंच मेरे खेत में! भीड़ इकट्ठी हो गई कि यह क्या मामला है? खेत कहां? दूसरी बाल्टी, तीसरी बाल्टी...जब वे भरते ही गए तो लोगों ने कहा, भाई रुको, तुम्हारा खेत कहां है? खेत तो मेरा पंजाब में है। तो तुम होश में हो? हरिद्वार की सड़क पर पानी डाल रहे हो और पंजाब के खेत पर पहुंचेगा! उन्होंने कहा, यह मुझे पहले मालूम ही नहीं था। जब मर गए पित्रों तक पहुंच रहा है—तुम्हारे पित्र कहां हैं? कोई नर्क में होगा...ज्यादातर तो नर्क में ही होंगे, कोई एकाध स्वर्ग में पहुंच गया होगा...जब वहां तक पहुंच रहा है पानी, तो पंजाब तो कोई बहुत दूर नहीं है। मैं तो तुम्हारी इस अदभुत कला को देखकर सोचा कि यह तो खूब मजे की रही! अब पंजाब जाने की जरूरत भी नहीं। नहीं तो जाना पड़ता है बार—बार। अब जहां रहे वहीं से डाल देंगे।
नानक याद दिला रहे हैं उन्हें कि तुम क्या मूढ़ता कर रहे हो! सारे संत तुम्हें याद दिलाते रहे हैं कि तुम जोर कर रहे हो धर्म के नाम पर, मूढ़ता है। लेकिन लोग क्यों कर रहे हैं? लोकलाजवश। और सब लोग कर रहे हैं, न करो, अच्छा नहीं लगता। लोग पूछते हैं, क्यों, तुमने क्यों नहीं किया? लोग चाहते हैं कि तुम ठीक उनकी कार्बनकापी रहो। वे तुम्हें मौलिक व्यक्तित्व नहीं देना चाहते। तुम उनसे अलग—थलग खड़े होओ, लोग बर्दाश्त नहीं करते। लोग चाहते हैं, जैसा वे करें, वैसा तुम करो। ताजिया उठाएं तो ताजिया उठाओ। छाती पीटेंयाऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ, तो तुम भी छाती पीटो: याऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ...। जो लोग करें, वही तुम करो; तो लोग प्रसन्न होते हैं। क्योंकि तुम उनका समर्थन कर रहे हो। समर्थन से क्यों प्रसन्न होते हैं? क्योंकि उन्हें भी शक है कि वे जो कर रहे हैं, वह सच है कि नहीं? जितना समर्थन मिलता है, उतना ही उनको ढाढ़स बंधता है कि ठीक ही होगा, जब तो इतने लोग कर रहे हैं। अगर ठीक न होता तो इतने लोग कैसे करते? उनके पास सत्य का कोई अनुभव तो नहीं है। उनके पास सत्य के लिए सिर्फ एक ही आधार है—अधिक लोग कर रहे हों; जब इतने लोग कर रहे हैं तो सभी मूढ़ तो नहीं हो सकते। अपने मन में वे सोचते हैं: हो सकता है मैं मूढ़ हूं, मैं नासमझ हूं, मैं अज्ञानी, मगर सारी दुनिया तो अज्ञानी नहीं है। जब इतने लोग कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे होंगे। और मजा यह है कि ऐसा ही बाकी लोग भी सोच रहे हैं।
तुमने वह कहानी सुनी है? कि एक सम्राट ने राजधानी में घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति एक—एक मटकी दूध लाकर महल के सामने बनी हुई हौज में डाल जाए। हर व्यक्ति ने सोचा: इतने लोग वहां जाकर दूध डालेंगे, हम अगर एक मटकी पानी डाल आए, कहां पता चलेगा? लेकिन ऐसा प्रत्येक ने सोचा। लोगों के सोचने में कुछ बहुत फर्क होते नहीं; गणित—हिसाब एक ही होते हैं। प्रत्येक ने यही सोचा कि हजारों लोग दूध डालेंगे, मैं अकेला एक मटकी सुबह—सुबह अंधेरे में पानी डाल आऊंगा, कौन पता चलने वाला है!
सुबह जब सम्राट उठा, बड़ा हैरान हुआ! हौज पानी से भरी थी। एक मटकी भी दूध की कोई नहीं डाल गया था। उसने अपने वजीरों से पूछा कि यह क्या मामला है? वजीरों ने कहा, कुछ मामला नहीं है, यही लोगों का हिसाब है। प्रत्येक अपने भीतर सोचता है, इतने लोग कर रहे हैं, तो मैं चुप रहूं, बोलने की कोई जरूरत नहीं, नहीं तो मैं अज्ञानी समझा जाऊंगा। चलो, पितृ—पक्ष मनाओ! इतने लोग मना रहे हैं तो ठीक ही मना रहे होंगे। ऐसा प्रत्येक सोच रहा है।
काश, तुम सब अपने हृदय खोलकर रख सको तो तुम्हारे धर्म तिरोहित हो जाएं! काश, तुम ईमानदारी से कह सको अपने पड़ोसी से कि तुम्हारी भीतरी दशा क्या है, तो सारे मंदिर—मस्जिद, सारे पंडित—पुरोहित इस पृथ्वी से विदा हो जाएं! उनके जीने का ढंग एक है। उस ढंग में एक ही गणित है कि कोई किसी से नहीं कहता। मैं क्यों फंसूं?
एक और कहानी तुमने सुनी होगी!
एक सम्राट के दरबार में एक दिन एक आदमी आया और उस आदमी ने कहा, आपके पास सब है, मगर एक चीज की कमी है। सम्राट ने कहा, वह क्या, जल्दी बोलो! क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे पास किसी चीज की कमी हो। मैं तो सोचता था, सब जो इस दुनिया में है, मेरे पास है। मैं चक्रवर्ती सम्राट हूं। छहों महाद्वीप मेरे कब्जे में हैं। सारा धन, सारी दौलत, सारी पृथ्वी मेरी है। कौन—सी चीज की कमी है, तुम बोलो! उस आदमी ने कहा कि आपके पास देवताओं के वस्त्र नहीं हैं। सम्राट ने कहा, यह बात तो ठीक है! वस्त्र मेरे पास देवताओं के नहीं हैं। और उस आदमी ने कहा, आप जैसा महा सम्राट और आदमियों जैसे वस्त्र पहने, शोभा नहीं देता। मेरी पहुंच है देवताओं तक, मेरी ऐसी सिद्धि है, मैं आपके लिए वस्त्र ला सकता हूं। लेकिन सौदा महंगा है। सम्राट ने कहा, तू पैसे की फिक्र मत कर! पैसे की क्या कमी है! कितना खर्च होगा? उसने कहा, करोड़ों का खर्च है। और अभी एकदम से नहीं कह सकता। क्योंकि आप तो जानते ही हैं! पहले तो स्वर्ग पहुंचना लंबी यात्रा, फिर द्वारपाल से लेकर देवताओं तक रिश्वत खिलाना, कोई आसान काम तो है नहीं! मगर करके लाऊंगा। अंदाजन कह रहा हूं कि करोड़ों का खर्च है। सम्राट ने कहा, हो खर्च, लेकिन तू धोखा देने की कोशिश मत करना, क्योंकि मैं खतरनाक आदमी हूं। शर्त एक रहेगी। तुझे हम एक महल दे देते हैं। महल चारों तरफ फौज से घिरा रहेगा। तुझे जो करना हो भीतर—साधना, सिद्धि, तंत्र—मंत्र—वह तू कर! कितने दिन लगेंगे? उसने कहा कि समय तो लगेगा, लेकिन कम—से—कम तीन सप्ताह। सम्राट ने कहा, ठीक!
तीन सप्ताह बड़ी प्रतीक्षा में गुजरे। और डर कोई था नहीं, क्योंकि फौजें चारों तरफ से घेरे थीं! तीन सप्ताह बाद वह आदमी एक बड़ी सुंदर काष्ठ—मंजूषा लेकर महल के बाहर आया। उसने कहा कि वस्त्र ले आया हूं। सम्राट ने दरबार में उसे बुलाया। सारे दरबारी इकट्ठे हुए थे। राजधानी में बड़ा तहलका था। एक ही चर्चा थी। बस एक ही बात थी तीन सप्ताह से। कोई पक्ष में बोल रहा है, कोई विपक्ष में बोल रहा है। लेकिन आज तो बात ही खतम हो गई, जब उसको देखा कि वह ले ही आया! भीड़ लग गई महल के चारों तरफ, लाखों लोग इकट्ठे हैं, और आवाज लगा रहे हैं कि हम भी दर्शन करना चाहते हैं सम्राट के।
उस आदमी ने जाकर अपनी काष्ठ की मंजूषा बीच दरबार में रखी और कहा कि एक शर्त देवताओं ने कही है कि ये वस्त्र उसी को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो। अब यह एक झंझट की बात लगा दी! सम्राट से उसने पूछा, आपको पक्का है कि आप अपने ही बाप से पैदा हुए हो? सम्राट ने कहा, तू क्या समझता है हम किसी और से पैदा हुए हैं? अपने ही बाप से पैदा हुए हैं। तो फिर, उसने कहा, कोई चिंता नहीं। दरबारियों से पूछा कि आप लोगों में कोई ऐसा नहीं है यहां जो अपने बाप से पैदा नहीं हुआ हो? दरबारियों ने कहा, तू क्या बात कर रहा है? होश में आ! हम कोई साधारण कुछ के लोग नहीं हैं! कुलीन लोग हैं। अभिजात लोग हैं। फिर, उसने कहा, फिर कोई चिंता नहीं।
पेटी खोली। सबने पेटी में देखा, कुछ भी नहीं था। सम्राट ने भी देखा। लेकिन कोई कुछ बोले नहीं—क्योंकि कौन बोले? जो बोले सो फंसे! सबने यही सोचा कि तो अपनी ही कुछ गड़बड़ है! बाकी सब लोग तो एकदम कह रहे हैं कि अहह! धन्य हुए! ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं थे! जब सबको प्रशंसा करते देखा तो सम्राट भी बोला कि अहह! भीतर तो उसके प्राण कंपे कि यह हद्द हो गई, मगर यह कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे पिता और मुझे धोखा दे गए! कि मेरे मां मुझे धोखा दे गई! आज यह भी राज पता चल गया। अब ठीक है, जो है सो है। उसे छिपाकर ही रखना ठीक है। अब चार को बताने से फायदा भी क्या है?
मगर मामला यहीं खतम तो होने वाला नहीं था। उस आदमी ने कहा, निकालिए अपनी पगड़ी! पगड़ी लेकर उसने डाल दी पेटी में और वहां पेटी में हाथ डाला, खाली हाथ बाहर निकाला, खाली हाथ सम्राट के सिर पर रखा और कहा, यह देवताओं की पगड़ी। देखें इसको कहते पगड़ी! न कोई पगड़ी, न कुछ—और दरबारी एकदम वाह—वाह, वाह—वाह!—सम्राट भी बोला कि है, सुंदर चीज है! न देखी न सुनी! न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी! और धीरे—धीरे अंगरखा उतर गया और चूड़ीदार पैजामा और नेहरूकट जवाहर—बंडी...सब! जब आखिरी चड्डी उतरने लगी, तब सम्राट थोड़ा डरा! मगर अब बात बहुत आगे बढ़ चुकी  थी, अब लौटा भी नहीं जा सकता था। थोड़ा झिझका! उस आदमी ने कहा, झिझक रहे हैं! सम्राट ने कहा, मैं और झिझकूं! अपने बाप से पैदा हुआ हूं! चड्डी भी उतार दी। ऐसी हालातों में आदमी को सभी कर देना पड़े।
नंग—धड़ंग खड़े हैं और सारा दरबार उनके वस्त्रों की प्रशंसा कर रहा है। और हर दरबारी देख रहा है कि राजा नंगा है! मगर कहो क्या? कहे कौन? जो कहे सो फंसे। मगर वह आदमी भी गजब का था! उसने कहा, महाराज, जनता बाहर इकट्ठी है। लोग देवताओं के वस्त्रों के दर्शन करना चाहते हैं। सम्राट ने सोचा कि अब मारे गए! मगर अब इतने आगे आ गए हैं कि अब लौटना कैसे? लौटने की भी सीमाएं होती हैं। एक सीमा के पार फिर लौटा नहीं जा सकता। अब इतनी भद्द तो हो ही गई, अब दरबारियों ने तो देख ही लिया, अब जो होना था हो ही गया, अब क्या पीछे लौटना? अब क्या पीठ दिखाना? और जब इतने लोगों को दिखाई पड़ रहा है तो होंगे ही!
आना पड़ा बाहर।
और भीड़ में देखो तो जय—जयकार! क्योंकि उस आदमी ने आकर पहले ही घोषणा कर दी कि वस्त्र केवल उसी को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो।
सिर्फ एक छोटा बच्चा जो अपने बाप के कंधे पर बैठकर आया था, उसने कहा, पप्पा, राजा नंगा मालूम होता है! उसके पप्पा ने कहा, चुप, नालायक! अभी तेरी उम्र नहीं है; जब बड़ा होगा तब तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ेंगे; चुप! अभी तू छोटा है, कच्ची उमर है। मगर उसने कहा कि इसका उमर से क्या संबंध है, पापा! राजा बिलकुल नंगा है! बाप ने उसके मुंह पर हाथ रखा और कहा कि बदतमीज! तू इज्जत डुबा देगा, घर चल! मैं पहले ही कह रहा था कि इसको नहीं ले जाना है; तेरी मां पीछे पड़ी कि ले जाओ। मुझे पहले ही डर था कि कुछ झंझट होगी।
एक सिर्फ बच्चे को असलियत कहने की हिम्मत थी। और वह भी सिर्फ इसलिए थी कि वह बच्चा था और उसे पता नहीं था कि पद और प्रतिष्ठा, लोक—लाज का खतरा है। और बाप ठीक कह रहा था कि बेटा, जरा बड़ा हो जा, तुझे भी दिखाई पड़ेंगे।
गणेश जी में तुमको सच में भगवान दिखाई पड़े हैं? या कि सिर्फ बड़े हो गए, इसलिए दिखाई पड़ने लगे! मंदिरों में, मूर्तियों में तुम्हें भगवान दिखाई पड़े हैं? कि चूंकि सब को दिखाई पड़ रहे हैं इसलिए तुम भी देख रहे हो! तुम्हें कौओं में पितर दिखाई पड़े हैं? पितृ—पक्ष को छोड़कर जब कांव—कांव कौआ करता है तो पत्थर मारते हो। और यही सज्जन पितृ—पक्ष में तुम्हारे पितरों के वाहन हो जाते हैं, या क्या हो जाता है?
तुम्हें राजनेताओं में कभी सज्जन दिखाई पड़े हैं? मगर नहीं, चरण छू—छू कर प्रशंसा करते हो कि आपके कारण ही चांदत्तारे टिके हैं। नहीं तो कब के गिर जाते। आपके कारण ही लोक थिर है। आप हो तो व्यवस्था है। आप नहीं हो तो अराजकता हो जाएगी। और ये ही हैं अराजकता फैलाने वाले! ये ही हैं मूलस्रोत सारे उपद्रव के! लेकिन गांधी टोपी, और खादी के शुद्ध वस्त्र...देखने में बड़े भोले—भाले मालूम पड़ते हैं। और तुम भी भलीभांति जानते हो कि तुम कितने ही सफेद वस्त्र पहनो, तुम्हारी कालिख नहीं छिपने वाली है। मगर आमने—सामने जब खड़े होते हो, तो एकदम प्रशंसा करने लगते हो।
सारी दुनिया प्रशंसा कर रही है। जो पद पर होता है, उसकी प्रशंसा की ही जाती है। जो पद से उतरा कि प्रशंसा गई, निंदा शुरू। कैसा अंधापन है! और यह एक दिशा में नहीं, तुम्हारे जीवन की सारी दिशाओं में है। धार्मिक व्यक्ति को इन सारी दिशाओं से अपने को खींच लेना होता है। जो भी कीमत हो, चुका देने योग्य है। मगर इन भ्रांतियों को सहयोग न देना।
देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा
चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।
ये सब मर जाएंगे रो—रो कर, मत फिक्र करो इनकी। तुम अपनी सीधी चाल चलो। जो तुम्हारी सहज गति हो, तुम्हारा स्वभाव हो, उसके अनुसार जीओ। किसी को हक नहीं है कि तुम्हारे स्वभाव के प्रतिकूल तुम्हें चलाए। लेकिन तुम्हें चलाया जा रहा है स्वभाव के प्रतिकूल। तुम्हें सिर के बल खड़ा होना सिखाया जा रहा है। तुमसे कहा जा रहा है कि शीर्षासन बिना किए स्वर्ग नहीं मिलेगा। और तुम शीर्षासन भी कर रहे हो। तुमसे कहा जाता है, हाथ—पैर तिरछे करो, मोड़ो, उल्टे—सीधे होओ, वह भी तुम कर रहे हो। तुम कभी पूछते नहीं कि शरीर की इस कवायद से मोक्ष का क्या संबंध!
जाति—बरन—कुल खोइ करौ तुम भक्ति को।
अरे हां, पलटू कान लीजिये मूंदि, हंसै दे जक्त को।।
हंसने दो जगत को। मगर तुम कान मूंद लेना जगत के प्रति। तुम तो अपने भीतर देखना और अपने भीतर से जीना। अपने अंतःकरण की आवाज सुनो। और अगर तुम्हारा अंतःकरण कहता है राजा नंगा है, तो राजा नंगा है। फिर चाहे भीड़ कितना ही कहती हो कि बड़े सुंदर वस्त्र हैं, तुम फिक्र मत करना! जीसस ठीक कहते हैं कि जो बच्चों की भांति सरलचित्त होंगे, वे ही केवल परमात्मा के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे। अब उस भीड़ में सिर्फ एक बच्चे ने सत्य कहा था। अक्सर यह हो जाता है कि इस झूठों की भीड़ में कभी—कभी कोई साहसी, सरलचित्त व्यक्ति सीधी—सीधी बात कह देता है। हालांकि उसे बहुत गालियां झेलनी पड़ती हैं।
केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।
तुम कितने जमानों से माला फेर रहे हो! और तुमने कभी एक बार सोचा कि ये माला के मनके फेरने से क्या होगा? मगर और लोग भी फेर रहे हैं, सो तुम भी फेर रहे हो।
डर लगता है शीश झुकाते, अपने बंदन सुमन चढ़ाते
कहीं न मेरा भाल कलंकित कर दे पावन चरण तुम्हारे।
मन ने कैसी की नादानी
जो तुमको पाने को मचला।
जैसे नन्हा जुगनू, सूरज—
की पूजा करने को निकला।
तुमको अपनी पीर सुनाऊं, इतनी शक्ति कहां से लाऊं
सावन भादों बन जाएंगे, धुले गगन से नयन तुम्हारे।
सारी उम्र धुआं करने को
मन की दबी आग काही है।
चंदा की बदनामी को बस
उसका एक दाग काफी है।
मुझको अपने अंग लगाओ, सोच समझ बाहें फैलाओ
काले पड़ जाएंगे मुस्कानों वाले आभरण तुम्हारे।
मेरे अपराधी अधरों पर
सिर्फ तुम्हारा नाम बचा है।
माटी की गागर में जैसे
गंगाजल भर रही ऋचा है।
अगर तुम्हारे स्वर मिल जाएं, मेरे गीत मंत्र बन जाएं
जीवन हो पूजा की थाली, फूल बनें संस्मरण तुम्हारे।
दरस तुम्हारा जैसे कोई
वैरागी तीरथ पा जाए।
या जन्मांध भिखारिन मावस
पूनम वाला पथ पा जाए।
सकुचाये निर्धन प्रणाम हैं मचल रहे हर सुबह शाम हैं
शायद हट जाएं पल भर को संकोची आवरण तुम्हारे।
तुम्हारे माला फेरने से परमात्मा के चेहरे की नकाब थोड़ी हटी, थोड़ी सरकी? कुछ दरस—परस हुआ?
दरस तुम्हारा जैसे, कोई
वैरागी तीरथ पा जाए।
या जन्मान्ध भिखारिन मावस
पूनम वाला पथ पा जाए।।
इतने जन्मों से माला फेर रहे हो, पूर्णिमा हुई जीवन में? अमावस की अमावस बनी है। तुम जहां थे, वहीं पत्थर के ढेले की तरह पड़े हो। इंच—भर गति नहीं होती, क्योंकि माला फेरना झूठ है। तुम्हारे हृदय में क्रांति नहीं हुई है सिर्फ हाथों ने माला पकड़ ली है—यंत्रवत।
मेरे अपराधी अधरों पर
सिर्फ तुम्हारा नाम बचा है।
माटी की गागर में जैसे
गंगाजल भर रही ऋचा है।
अगर तुम्हारे स्वर मिल जाएं, मेरे गीत मंत्र बन जाएं
जीवन हो पूजा की थाली, फूल बनें संस्मरण तुम्हारे।
फिर मालाएं नहीं फेरनी पड़तीं। तुम जो बोलो वही मंत्र हो जाता है। तुम जो गुनगुनाओ वही ऋचा हो जाती है।
लेकिन हृदय में होनी चाहिए क्रांति। मालाएं फेरने से यह नहीं हो सकता।
केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।
छाला परि गए जीभ राम के टेरते।।
और कुछ हैं कि राम—राम, राम—राम जपे जा रहे हैं। बस जीभी ही जीभ पर रटन है; कंठ से भी नीचे नहीं उतरती। हृदय तो उन्हें पता ही नहीं कि है भी उनके पास या नहीं। जीभ पर राम—राम चल रहा है, हृदय में कुछ और चल रहा है—ठीक राम से विपरीत चल रहा है, काम चल रहा है। भीतर तो वासना है, ऊपर—ऊपर प्रार्थना है। ऐसे कच्चे रंग पानी के पहले झोंके में बह जाएंगे।
जनम—जनम हम गलियां बदले।
जैसे बदले चमन चिरैया,
कुन्जनिकुन्ज तितलियां बदलें।
कोई बदले नूतन कंगना,
कोई चाहे चुनरी रंगना
पिया हमारे बदलें अंगना,
हम घर—घर पायलियां बदलें।
रात—रात भर चांद निहारें,
राह देखते उमर गुजारें
क्या पतझड़ क्या मस्त बहारें,
जब कांटों से कलियां बदलें।
सेज सजाएं हम कलियों से,
फिर भी दूर पिया गलियों से
प्रियतम की तारावलियों से,
अपनी दीपावलियां बदलें।

जनम—जनम जीने का धंधा,
आंखमिचौली का है फंदा
रूप हजारों बदलें चंदा,
लाखों रंग बदलियां बदलें।

बरस—बरस पर बादल बरसें,
पनघट पर हम प्यासे तरसें
किसको पकड़ें, किसको परसें
पल—पल पंथ बिजलियां बदलें।

पेड़ गिने हमने बस लाखों,
फल खाए तो आंखों—आंखों
अंत समय किस्मत के हाथों
हम तो सिर्फ गुठलियां बदलें

भाग्य—गीत के ताल—छंद पर
बदलें, हम तो गांव, डगर, घर
जैसे लहर—लहर लहराकर,
जल की धार मछलियां बदलें।

जब रुख बदले पवन सनन—सन,
बदले सरगम, छूम—छनन—छन
बदलें तार—सितार—झनन—झन,
पर ना कभी उंगलियां बदलें।
हम बस ऊपर—ऊपर की बदलाहटों में लगे रहते हैं। सितार बदल लेते हैं। मगर उंगलियां...बजाने की कला आती है या नहीं? लोगों को नाचना आता नहीं और कहते हैं: आंगन टेढ़ा है। तुम्हारे हृदय में गीत नहीं उठे हैं; तुम्हारे हृदय में प्रार्थना नहीं जगी है; तुम्हारे हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित नहीं हुआ है; तो फिर तुम करते रहो लाख—लाख उपाय—
केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।
छाला परि गए जीभ राम के टेरते।।
माला दीजे डारि मनै को फेरना।
पलटू कहते हैं, फेंको यह माला, मन को फेरो, मन को बदलो
माला दीजे डारि मनै को फेरना।
अरे हां, पलटू मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना।।
ऐसे मुंह के कहने से नहीं मिलेगा, हृदय के मध्य में, ठीक प्रणों के मध्य में खोजना होगा।
तुम डगर पर बाट मेरी जोहना
मैं मिलन के गीत लेकर आ रहा हूं।

पाप जो मैंने किए, स्वीकार कर लूं,
पीर जो मुझको मिली, शृंगार कर लूं,
जो युगों से मौन ही अब तक रहे—
होंठ में गीले नयन का प्यार भर लूं,

पालकी में बैठ पलकों की—
अदेखे स्वप्न का संगीत लेकर आ रहा हूं।

रश्मियों से गूंथकर अपनी कहानी,
और दुर्बलता भरी अपनी जवानी,
भाग्य का तूफान आंचल में छुपाये
श्वांस की बाती जला, काया अजानी,

हारकर सौ बार तामस के समर म—
ज्योति की मैं जीत लेकर आ रहा हूं।

तृप्ति का परिचय पिपासा से करा दूं,
प्यार का परिचय निराशा से करा दूं,
गूंजती अव्यक्त जो मेरे गगन में—
भावना का मेल भाषा से करा दूं,

जो विषय अनुभूतियों से भी न छूटा—
वह हृदय का गीत लेकर आ रहा हूं।
उसकी तरफ चलना है तो हृदय में दीया जलाओ! ज्योति लेकर बढ़ो! चैतन्य का दीया, होश का दीया, बोध का दीया। अपने चारों तरफ प्रेम की रोशनी छिटकाओ! राम—राम जपने से क्या होगा, राम को जीओ। माला मत फेरो, मन को फेरो। मन अभी बाहर की तरफ दौड़ रहा है, इसे खींचो, इसे भीतर ले चलो। अभी यह विषयों में उलझा है, इसे विषयों से मुक्त करो, इसे शून्य से भरो। और तब तुम जानोगे—क्या है धर्म? और तब तुम पहचानोगे—क्या है परमात्मा? और वह पहचान तृप्ती से भर जाएगी। ऐसी तृप्ती जो फिर कभी समाप्त नहीं होती।
तीसों रोजा किया, फिरे सब भटकिकै
आठो पहर निमाज मुए सिर पटकिकै।।
सिर पटक—पटक कर आठों पहर नमाज पढ़—पढ़ कर लोग मर गए, कुछ पाया नहीं।
मक्के में भी गए, कबर में खाक है।
गए काबा, गए मक्का, कब्रों की खाक छानी; कब्रों में कुछ भी नहीं है।
अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।
लेकिन अब कभी कोई ऐसा आदमी मिल जाए जिसने प्रभु को जाना हो...जिसे हम बुद्ध कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं, जिसे हम अवतार कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं; जिसे हम तीर्थंकर कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं। नबी का अर्थ है, जिसने जाना। जिसने जाना, वही तो जना सकता है। इसलिए वह पैगंबर है। उसका होना पैगंबर है। उसका अस्तित्व एक पैगाम है, एक संदेश है। उसकी श्वास—श्वास में परमात्मा के लिए प्रमाण है।
अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।
बस एक सदगुरु को खोज लो, वही एकमात्र पवित्र स्थल है इस पृथ्वी पर। जहां सदगुरु है, वहां तीर्थ है। और सदगुरु के पास बैठ जाओ, अपनी व्यर्थ की बकवास को छोड़कर, तो तुम भी डूब जाओगे; तुम्हारी नौका भी उतर जाएगी अज्ञात के सागर में।
आज नए बादल फिर उमड़े
लगा कि तुमने मुझे पुकारा।

मुक्त करों से अमृत—गगरियां
ढुलका कर तुम मुस्काओगे
मरे श्रांत—क्लांत तन—मन में
नई चेतना भर जाओगे।
नए नए मेघों के पट में—
लगा कि तुमने मुझे संवारा।

घन निनाद से गीत तुम्हारे
गूंजेंगे मेरे कानों में।
लौट लौट कर जैसे आते
तुम्हीं प्यार के आह्वानों में।
नए बादलों की उड़ान में—
लगा कि मेरी खोज पसारा।

भूल गई मैं मरु की जलती
दुपहर की चिर आकुल प्यासें
चंदन शीतल सुमन—सुरभि सी
लहराई पुरवा की सांसें।
लगा कि पत्थर चट्टानों ने—
मुझे बनाया निर्झर धारा।

हुआ क्या कि इतने नि तक जो
रहा तड़पता सागर खारा।
नदियां कृश हो गईं, धरा का
उजड़ गया था यौवन सारा।
अब तो लगा कि जल—थल सबकी—
तृप्ति हेतु ही मुझे निहारा।
आज नए बादल फिर उमड़े
लगा कि तुमने मुझे पुकारा।
किसी सदगुरु के पास बैठो तो तुम्हें लगेगा—परमात्मा ने तुम्हें पुकारा। सदगुरु की पुकार उसकी ही पुकार है। वही बोलता है उससे। सदगुरु स्वयं शास्त्र है। वही है कुरान, वही है वेद, वही है बाइबिल, वही है गीता। क्योंकि उसके भीतर गीत गूंज रहा है परमात्मा का। वह तो बांसुरी बन गया है। वह तो पोला हो गया है, बांस की पोली पोंगरी, प्रभु के ओठों पर रख कर अदभुत संगीत से भर जाती है। जो भी शून्य होने को राजी है, वही पूर्ण हो जाता है। और जो शून्य होकर पूर्ण हो गया, उसे पैगंबर कहो, तीर्थंकर कहो, अवतार कहो, नबी कहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन पलटू कहते हैं: बस वही एक पाक स्थल है; वही एक पवित्र स्थान है। उसे खोज लो।
डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।
और अगर तुम किसी सदगुरु के पास पहुंच गए, तो तुम्हें यह समझ में आ जाएगा: डांडी पकड़े ज्ञान...। वह जो तुम्हें दे दे, उससे तुम्हारे हृदय में जो ढल जाए, वही ज्ञान है। और वह ज्ञान एक तराजू है! जिस तराजू पर सब तुल जाएगा। जो तुल सकता है वह भी तुल जाएगा और जो अतुलनीय है, वह भी तुल जाएगा।
डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।
और जैसे ही तुम ज्ञान से जागोगे, तुम्हारे भीतर क्षमा पैदा होगी, करुणा पैदा होगी।
सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।
और तब तुम्हारे भीतर स्मृति उठेगी अपने अस्तित्व की। मैं कौन हूं, इसका बोध जगेगा।
सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।
और तब जानना कि मन बदला। जब ज्ञान का तराजू हाथ लगे, करुणा के बांट हाथ लगें, और सुरत सबद की तौल हो जाए, परमात्मा की स्मृति तुलने लगे तुम्हारे तराजू में, तब जानना कि मन का रूपांतरण हुआ, क्रांति हुई।
भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।
और तब न कुछ भला है, न कुछ बुरा है। फिर दोनों को समान रूप से निबाहने की कला आ जाती है। सम्यकत्व पैदा होता है; समता पैदा होती है।
अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।
और वही है महाजन, वही है बड़ा, वही है महान, जिसके जीवन में संतोष की दुकान खुली।...पलटू तो साधारण से, गरीब बनिया थे। तो उनकी भाषा में भी उनके जीवन के अनुभव की छाप है। जिंदगी—भर तौलते रहे। पत्थर के सेर, बांट, पसेरी रही होंगी। लकड़ी की तराजू रही होगी, कि लोहे की। दुकान में बेचते रहे होंगे गेहूं कि चावल कि दाल। अब भी वे प्रतीक उपयोग करते हैं—
डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।
सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।
भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।
अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।
वे धन्यभागी हैं, वे और ही हैं, विशिष्ट हैं, जो ज्ञान का तराजू पकड़ लेते हैं। और जो ज्ञान के तराजू में अतुलनीय को तौल लेते हैं।
क्या है अतुलनीय?
सुरति, स्मृति, परमात्मा की याद।
इस जगत में पाने योग्य अगर कोई धन है तो बस प्रभु की स्मृति है। और सब व्यर्थ है। और कुछ भी धन नहीं है, धन का धोखा है। और सब विपदा है। संपदा तो एक है: प्रभु का स्मरण। क्योंकि वही स्मरण तुम्हें मृत्यु के पार ले जाएगा। वही स्मरण तुम्हें देह के पार, मन के पार ले जाएगा। वही स्मरण तुम्हें उस परम ज्योति से मिला देगा, जिससे मिल जाने के बाद फिर कोई बिछुड़ना नहीं है, फिर कोई विरह नहीं है।
तुम्हारे नेह के कारण
उठा ऊपर असाधारण
नहीं तो पांव के नीचे कहीं धरती नहीं है।
न तुम छूते अगर चट्टान कैसे गल गई होती
धधकती आग कैसे रोशनी में ढल गई होती
तुम्हारे ज्योति—कण पीकर
बना हूं चंद्रमा भू पर
नहीं तो चांदनी मेरे बिना मरती नहीं है।
कभी गुण भी फिरे मेरे गली में ठोकरें खाते
कहां अब दोष भी मेरे किताबों में लिखे जाते!
तुम्हारा हाथ है सिर पर
मिला है इसलिए आदर
नहीं तो जिंदगी मुझ पर कृपा करती नहीं है।
समंदर देखता हूं तो उसे दर्पण समझता हूं
निकट हो तुम, तभी तूफान को भी तृण समझता हूं
तुम्हारे नाम के बल से
नहीं मरता हलाहल से
नहीं तो मृत्यु मेरे नाम से डरती नहीं है।
विमुख जब तक रहे तुम, सिर्फ था मैं राख की ढेरी
सजल जब से हुए तुम, प्यास भी पुजने लगी मेरी
तुम्हारे ही इशारे पर
खड़े हैं द्वार पर निर्झर
नहीं तो तृप्ति जल मेरे लिए भरती नहीं है।
एक परमात्मा मिला तो सब मिला। एक परमात्मा मिला तो अमृत मिला। इसलिए पलटू ठीक कहते हैं:
हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये
अपनी बुद्धि नसाय सेवेर भागिये।।
सरबस वह जो देइ तो नाहीं काम का।।
जहां हरि—चर्चा होती हो, चार दीवाने बैठकर प्रभु का स्मरण करते हों, वहां बैठो, गुनो; सुनो; समझो; डुबो; जीओ; तो इसी जीवन में अमृत—जीवन का अनुभव हो सकता है। क्षण में शाश्वत की प्रतीति हो सकती है। और अपने भीतर ही वह पाया जा सकता है, जिसे जन्मों—जन्मों से दौड़कर भी बाहर तुम नहीं पा सके हो और नहीं पा सकते हो। वह बाहर है ही नहीं, तो बाहर पाया कैसे जा सकता है? अंतर्यात्रा का विज्ञान धर्म है।

आज इतना ही।


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