प्रश्नसार:
1—मंजिल
को पाने की ‘जल्दी’ और प्रयत्न—रहित
खेल’ में
संगति कैसे
बिठाएं?
2—अपने
शत्रु को भी
अपने में
समाविष्ट
करने की
शिक्षा क्या
दमन पर नहीं
ले जाती है?
पहला
प्रश्न :
आरंभ
से आरंभ आपने
कल कहा कि
हमें अपनी
मंजिल की तरफ
शीघ्रता से
कदम रखने चहिए,
क्यौंकि हमारे
पास समय बहुत
थोड़े है। लेकिन
कुछ समय पहले
आपने कहा था
कि मंजिल की
तरफ चलने की
पूरी प्रक्रिया
प्रयत्न— रहित
खेल होना चाहिए
आप इन दो शब्दों
के बीच,
जल्दी और खेल
के बीच संगीत
कैसे
बिठाएंगे?
क्योंकि जो
जल्दी करता
है वह खेल के
सुख को कभी
नहीं पाता है।।
पहली
बात,
भिन्न—भिन्न
विधियों में
संगति बिठाने
की चेष्टा मत
करो। जब मैं
कहता हूं कि
जल्दी मत करो,
समय को
बिलकुल भूल
जाओ, गंभीर
मत होओ, कोई
प्रयत्न मत
करो, समर्पण
करो, जो
होता है उसे
होने दो—तो यह
एक भिन्न ही
विधि है। यह
विधि
मनुष्यता के
सिर्फ एक
हिस्से के काम
की है; सभी
लोग इस विधि
का प्रयोग
नहीं कर सकते।
और जिस ढंग के
लोग इस विधि
का प्रयोग कर
सकते हैं वे
इसके विपरीत
विधि का
प्रयोग नहीं
कर सकते।
यह
विधि स्त्रैण
चित्त के लिए
है। लेकिन
जरूरी नहीं कि
सभी
स्त्रियों के
पास स्त्रैण—चित्त
हो और सभी
पुरुषों के
पास पुरुष—चित्त
हो। इसलिए जब
मैं स्त्रैण—चित्त
की बात करता
हूं तो उससे
मेरा मतलब
स्त्रियां
नहीं है।
स्त्रैण—चित्त
का अर्थ है वह
मन जो समर्पण
कर सके, जो
गर्भ की तरह
ग्रहणशील हो,
जो खुला और निष्क्रिय
हो। आधी
मनुष्य—जाति
इस कोटि में
हो सकती है; लेकिन दूसरा
आधा वर्ग
सर्वथा भिन्न
है। जैसे
पुरुष और
स्त्री
मनुष्य—जाति
के आधे— आधे
हिस्से हैं, वैसे ही
स्त्रैण—चित्त
और पुरुष—चित्त
भी मनुष्य—मन
के आधे—आधे हिस्से
हैं।
स्त्रैण—चित्त
प्रयत्न नहीं
कर सकता; अगर
वह प्रयत्न
करता है तो वह
कहीं नहीं
पहुंचेगा।
प्रयत्न उसके
लिए सिर्फ
तनाव और संताप
पैदा करेगा; हाथ उसके
कुछ लगेगा
नहीं।
स्त्रैण—चित्त
का पूरा ढंग
ही प्रतीक्षा
करना है और चीजों
को घटित होने
देना है।
जैसा
कि स्त्रियों
का स्वभाव है :
स्त्री यदि
प्रेम में भी
हो तो वह पहल
नहीं करेगी।
और अगर कोई
स्त्री पहल
करे तो
तुम्हें उससे
दूर रहना
चाहिए और बचना
चाहिए।
क्योंकि वह
पुरुष—प्रवृत्ति
की है, स्त्री—शरीर
के भीतर पुरुष—चित्त
है और तुम
उपद्रव में
पड़ोगे। अगर
तुम सचमुच पुरुष
हो तो वह
स्त्री जल्दी
ही तुम्हारे
लिए आकर्षक
नहीं रह जाएगी।
लेकिन अगर तुम
स्त्रैण हो—तुम्हारा
शरीर पुरुष का
है और चित्त
स्त्री का—तो
तुम स्त्री को
पहल करने दोगे
और तुम सुखी
होगे। लेकिन
उस हालत में
शरीर के तल पर
वह स्त्री है और
तुम पुरुष हो
और मन के तल पर
तुम स्त्री हो
और वह पुरुष
है।
स्त्री
प्रतीक्षा
करेगी। वह कभी
नहीं कहेगी कि
मैं तुम्हें
प्रेम करती
हूं जब तक
उससे यह निवेदन
तुम नहीं कर
चुकोगे और
प्रतिबद्ध
नहीं हो जाओगे।
प्रतीक्षा
में ही स्त्री
की शक्ति है।
पुरुष—चित्त
आक्रामक होता
है। उसे कुछ
करना पड़ता है।
वह पहल करता
है,
आगे बढ़ता है।
यही
बात
आध्यात्मिक
यात्रा में
घटती है। अगर
तुम्हारा
चित्त
आक्रामक है, पुरुष—चित्त
है, तो
प्रयत्न
आवश्यक है। तब
जल्दी करो, तब समय और
अवसर मत खोओ।
तब अपने भीतर
उत्कटता, तत्परता
और संकट की
भाव—दशा
निर्मित करो,
ताकि तुम अपने
प्रयत्न में
अपने पूरे
प्राणों को
उंडेल सको। जब
तुम्हारा
प्रयत्न
समग्र होगा, तुम पहुंच
जाओगे। और अगर
तुम्हारा
चित्त
स्त्रैण है तो
कोई जल्दी
नहीं है—बिलकुल
नहीं। तब समय
की बात ही
नहीं है।
तुमने
शायद ध्यान
दिया हो या न
दिया हो कि
स्त्रियों को
समय का बोध नहीं
रहता, रह नहीं
सकता। पति
बाहर खड़ा है, कार का
हार्न बजा रहा
है और कह रहा
है कि जल्दी नीचे
आओ। और पत्नी
कहती है, मैं
हजार दफे कह
चुकी हूं कि
एक मिनट में
आई, दो
घंटों से कह
रही हूं कि एक
मिनट में आई—क्यों
पागल हुए जा
रहे हो? हार्न
क्यों बजाए जा
रहे हो? स्त्रैण—चित्त
को समय का भाव
नहीं हो सकता।
यह तो पुरुष—चित्त
है, आक्रामक
चित्त, जो
समय के बोध से
भरा है, समय
के लिए चिंतित
है।
स्त्रैण—चित्त
और पुरुष—चित्त
एक—दूसरे से
सर्वथा भिन्न
हैं। स्त्री
जल्दी में
नहीं है, उसके
लिए कोई जल्दी
नहीं है।
दरअसल उसे
कहीं पहुंचना
नहीं है। यही
कारण है कि
स्त्रियां
महान नेता, वैज्ञानिक
और योद्धा
नहीं होतीं—हो
नहीं सकतीं।
और अगर कोई
स्त्री हो जाए,
जैसे जॉन आफ
आर्क या
लक्ष्मी बाई
तो उसे अपवाद
मानना चाहिए।
वह दरअसल
पुरुष—चित्त
है—सिर्फ शरीर
स्त्री का है,
चित्त
पुरुष का है।
उसका चित्त जरा
भी स्त्रैण
नहीं है।
स्त्रैण—चित्त
के लिए कोई
लक्ष्य नहीं
है, मंजिल
नहीं है।
और
हमारा संसार
पुरुष—प्रधान
संसार है। इस
पुरुष—प्रधान
संसार में
स्त्रियां
महान नहीं हो
सकतीं, क्योंकि
महानता किसी
उद्देश्य से,
किसी
लक्ष्य से
जुड़ी होती है।
यदि कोई
लक्ष्य उपलब्ध
करना है, तभी
तुम महान हो
सकते हो। और
स्त्रैण—चित्त
के लिए कोई
लक्ष्य नहीं
है। वह यहीं
और अभी सुखी
है। वह यहीं
और अभी दुखी
है। उसे कहीं
पहुंचना नहीं
है। स्त्रैण—चित्त
वर्तमान में
रहता है।
यही
कारण है कि
स्त्री की
उत्सुकता दूर—दराज
में नहीं होती
है,
वह सदा पास—पड़ोस
में उत्सुक
होती है।
वियतनाम में
क्या हो रहा
है, इसमें
उसे कोई रस
नहीं है।
लेकिन पड़ोसी
के घर में
क्या हो रहा
है, मोहल्ले
में क्या हो
रहा है, इसमें
उसका पूरा रस
है। इस पहलू
से उसे पुरुष
बेबूझ मालूम
पड़ता है। वह
पूछती है कि
तुम्हें क्या
जानने की पड़ी है
कि निक्सन
क्या कर रहा
है या माओ
क्या कर रहा
है! उसका रस
पास—पड़ोस में
चलने वाले
प्रेम—प्रसंगों
में है। वह
निकट में
उत्सुक है, दूर उसके
लिए व्यर्थ है।
उसके लिए समय
का अस्तित्व
नहीं है।
समय
उनके लिए है
जिन्हें किसी
लक्ष्य पर, किसी
मंजिल पर
पहुंचना है।
स्मरण रहे, समय तभी हो
सकता है जब
तुम्हें कहीं
पहुंचना है।
अगर तुम्हें
कहीं पहुंचना
नहीं है तो
समय का क्या
मतलब है? तब
कोई जल्दी
नहीं है।
इसे
एक और
दृष्टिकोण से
समझने की
कोशिश करो।
पूर्व
स्त्रैण है और
पश्चिम पुरुष
जैसा
है। पूर्व ने
कभी समय के
संबंध में
बहुत चिंता
नहीं की, पश्चिम
समय के पीछे
पागल है।
पूर्व बहुत
विश्रामपूर्ण
रहा है; वहां
इतनी धीमी गति
है, मानो
गति ही न हो। वहां
कोई बदलाहट
नहीं है; कोई
क्रांति नहीं
है। विकास
इतना चुपचाप
है कि उससे
कहीं कोई शोर
नहीं होता।
पश्चिम बस
पागल है; वहां
रोज क्रांति
चाहिए, हर
चीज को बदल
डालना है। जब
तक सब कुछ बदल
न जाए जब तक
उसे लगता है
कि हम कहीं जा
ही नहीं रहे, कि हम ठहर गए
हैं। अगर सब
कुछ बदल रहा
है और सब कुछ
उथल—पुथल में
है, तब
पश्चिम को
लगता है कि
कुछ हो रहा है।
और पूर्व
सोचता है कि
अगर उथल—पुथल
मची है तो
उसका मतलब है
कि हम रुग्ण
हैं, बीमार
हैं। उसे लगता
है कि कहीं
कुछ गलत है, तभी तो उथल—पुथल
हो रही है।
अगर सब कुछ
सही है तो क्रांति
की क्या जरूरत?
बदलाहट
क्यों?
पूर्वी
चित्त
स्त्रैण है।
इसीलिए पूर्व
में हमने सभी
स्त्रैण
गुणों का गुणगान
किया है, हमने
करुणा, प्रेम,
सहानुभूति,
अहिंसा, स्वीकार,
संतोष, सभी
स्त्रैण
गुणों को
सराहा है।
पश्चिम में
सभी
पुरुषोचित
गुणों की
प्रशंसा की
जाती है, वहां
संकल्प, संकल्प—बल,
अहंकार, आत्मसम्मान,
स्वतंत्रता
और विद्रोह
जैसे मूल्य
प्रशंसित हैं।
पूर्व में
आज्ञाकारिता,
समर्पण, स्वीकार
जैसे मूल्य
मान्य हैं।
पूर्व की
बुनियादी
वृत्ति
स्त्रैण है, कोमल है; और
पश्चिम की
वृत्ति पुरुष
है, कठोर
है।
तो
इन विधियों को
मिलाया नहीं
जा सकता है, उनमें
समन्वय और
सामंजस्य
नहीं बिठाया
जा सकता है।
समर्पण की
विधि स्त्रैण
चित्त के लिए
है। और
प्रयत्न, संकल्प
और श्रम की
विधि पुरुष—चित्त
के लिए है। और
वे एक—दूसरे
के बिलकुल
विपरीत होने
ही वाली हैं।
अगर तुम दोनों
में सामंजस्य
बिठाने की
चेष्टा करोगे
तो तुम उनकी
खिचड़ी बना
दोगे। वह
सामंजस्य
अर्थहीन होगा,
बेतुका
होगा, और
खतरनाक भी
होगा। वह किसी
के भी काम का
नहीं होगा।
तो
यह स्मरण रहे।
कई बार ये
विधियां
परस्पर
विरोधी मालूम
पड़ेगी; क्योंकि
वे भिन्न—भिन्न
ढंग के
चित्तों के
लिए बनी हैं
और उनके बीच
कोई समन्वय
बिठाने की
कोशिश नहीं की
गई है। अगर
तुम्हें लगे
कि उनमें कुछ
विरोधाभास है
तो उसको लेकर
परेशान मत होओ।
विरोधाभास है।
और केवल छोटे
मन के लोग, बहुत
क्षुद्रमति
लोग ही
विरोधाभास से
डरते हैं। वे
बेचैनी अनुभव
करते हैं, घबरा
जाते हैं। वे
सोचते हैं कि
कहीं ?? नहीं
होना चाहिए, सब कुछ संगत
होना चाहिए।
यह
मूढ़ता है; क्योंकि
जीवन स्वयं
असंगत है।
जीवन स्वयं
विरोधों से
बना है। तो
सत्य विरोध—रहित
नहीं हो सकता,
केवल झूठ
विरोध—रहित हो
सकता है।
सिर्फ असत्य
सुसंगत हो
सकता है, सत्य
तो असंगत होगा
ही; क्योंकि
उसे अपने में
वह सब समेटना
है जो जीवन
में है। सत्य
को समग्र होना
है।
और
जीवन
विरोधाभासी
है। पुरुष है
और स्त्री है।
इसमें मैं
क्या कर सकता
हूं?
और शिव क्या
कर सकते हैं? और पुरुष
स्त्री के
विपरीत है।
यही कारण है
कि स्त्री—पुरुष
एक—दूसरे को
आकर्षित करते
हैं; अन्यथा
आकर्षण ही
नहीं होता।
सच
तो यह है कि
विपरीतता से
ही आकर्षण
निर्मित होता
है। ध्रुवीय
विपरीतता ही
चुंबकीय
शक्ति बनती है।
इसीलिए जब
स्त्री—पुरुष
मिलते हैं तो
उन्हें सुख
होता है। जब
दो ध्रुवीय
विपरीतताएं
मिलती हैं तो
वे एक—दूसरे
को काट देती
हैं एक—दूसरे
को नकार देती
हैं। वे एक
दूसरे को काट
देती है। क्योंकि
वे परस्पर
विपरीत है। जब
स्त्री—पूरूष
एक क्षण के
लिए भी मिलते
हैं—वस्तुत:
मिलते हैं, शरीर
से ही नहीं, समग्रत:
मिलते है—जब
उनके प्राण
प्रेम में
जुड़ते हैं, तब उस एक
क्षण के लिए
वे विलीन हो
जाते हैं। उस
क्षण में वहां
न कोई पुरुष
होता है और न
स्त्री, शुद्ध
अस्तित्व
होता है, शुद्ध
होना होता है।
और वही उसका
आनंद है।
वही
घटना
तुम्हारे
भीतर भी घट
सकती है। गहन
विश्लेषण से
यह बात प्रकट
हुई है कि
तुम्हारे भीतर
भी ध्रुवीयता
है,
ध्रुवीय
विपरीतता है।
अब आधुनिक
मनोविश्लेषण
ने मन की
गहराइयों में
उतरकर यह पता
लगाया है कि
तुम्हारे
भीतर भी चेतन
मन है और
अचेतन मन है—दो
ध्रुवीय
विपरीतताए
हैं। अगर तुम
पुरुष हो तो
तुम्हारा चेतन
चित्त पुरुष
है और अचेतन
चित्त स्त्री
है। और अगर
तुम स्त्री हो
तो तुम्हारा
चेतन चित्त
स्त्री है और
अचेतन चित्त
पुरुष। अचेतन
चेतन का
विपरीत है।
गहरे
ध्यान में
तुम्हारे
चेतन और अचेतन
के बीच एक
प्रगाढ़ मिलन, एक
प्रगाढ़ संभोग
घटित होता है,
एक गहन आर्गाज्म
घटित होता है—दोनों
एक हो जाते
हैं। और जब वे
एक होते हैं
तो तुम आनंद
के गौरीशंकर पर
पहुंच जाते हो।
तो
स्त्री और
पुरुष दो
ढंगों से मिल
सकते हैं। तुम
बाहर की किसी
स्त्री से मिल
सकते हो; लेकिन
यह मिलन
क्षणिक ही हो
सकता है—बहुत
क्षणिक। एक
क्षण के लिए
शिखर आता है, और फिर
चीजें बिखरने
लगती हैं।
स्त्री—पुरुष
का एक और मिलन
है जो
तुम्हारे
भीतर घटित
होता है। वहां
तुम्हारे
चेतन और अचेतन
का मिलन होता
है;
और यह मिलन
शाश्वत हो
सकता है। काम—सुख
भी
आध्यात्मिक
आनंद की ही
झलक है, लेकिन
वह क्षणभंगुर
है। लेकिन जब
सच्चा आंतरिक
मिलन घटित
होता है तो वह
समाधि है, वह
आध्यात्मिक
घटना है।
लेकिन
तुम्हें अपने
चेतन मन से
शुरू करना है।
अगर तुम्हारा
चेतन चित्त
स्त्रैण है तो
समर्पण
सहयोगी होगा।
और स्मरण रहे, स्त्री
होने से
स्त्रैण
चित्त भी होगा,
ऐसा जरूरी
नहीं है उससे
ही जटिलता
पैदा होती है।
अन्यथा तो बात
बहुत आसान
होती; स्त्री
समर्पण का
मार्ग पकड़ती
और पुरुष संकल्प
का।
लेकिन
बात इतनी सरल
नहीं है। ऐसी
स्त्रियां
हैं जिनके पास
पुरुष—चित्त
है;
जीवन के
प्रति उनका
रुझान संघर्ष
का है। और ऐसी
स्त्रियों की
संख्या
प्रतिदिन बढ़
रही है।
स्त्रियों का
मुक्ति—आंदोलन
अधिकाधिक
पुरुष—चित्त
स्त्रियां
पैदा करेगा; वे अधिकाधिक
आक्रामक
होंगी। उनके
लिए फिर
समर्पण का
मार्ग नहीं रह
जाएगा। और
क्योंकि
स्त्रियां
पुरुषों के
साथ प्रतिस्पर्धा
कर रही हैं, इसलिए पुरुष
आक्रमण से हट
रहा है, वह
अधिकाधिक
स्त्रैण हो
रहा है।
भविष्य में पुरुष
के लिए समर्पण
का मार्ग अधिक
उपयोगी होगा।
तुम्हें
अपने संबंध
में निर्णय
लेना है। और
सही—गलत की
भाषा में मत
सोचो। ऐसा मत
सोचो कि मैं
पुरुष हूं फिर
मेरे पास स्त्रैण
चित्त कैसे हो
सकता है।
तुम्हारा
चित्त
स्त्रैण हो
सकता है, उसमें
कुछ गलत नहीं
है। स्त्रैण चित्त
बहुत सुंदर है।
और ऐसा भी मत
सोचो कि मैं स्त्री
हूं तो मेरे
पास पुरुष—चित्त
कैसे हो सकता
है। उसमें भी
कुछ गलत नहीं
है, पुरुष—चित्त
भी म् बहुत
सुंदर है।
अपने चित्त के
संबंध में
प्रामाणिक
होओ। ठीक—ठीक
समझने की
कोशिश करो कि
मेरे चित्त का
ढंग क्या है
और उसके
अनुसार अपने
लिए योग्य
मार्ग पर चलो।
और
कोई समन्वय
करने की
चेष्टा मत करो।
मुझसे मत पूछो
कि आप कैसे इन
दोनों के बीच
संगति
बिठाएगे। मैं
कोई संगति
नहीं बिठाऊंगा।
मैं समझोते के
पक्ष में
बिलकुल नहीं
हूं। और मैं
सुसंगत
वक्तव्यों के
पक्ष में भी
नहीं हूं। यह
बात
मूढ़तापूर्ण
है,
बचकानी है।
जीवन विरोधों
से बना है और
इसीलिए जीवन
जीवन है।
सिर्फ मृत्यु
सुसंगत है, विरोध—रहित
है। जीवन
विरोधों में
पलता है, विरोधी
ध्रुवों से
गुजर कर आगे
बढ़ता है। और
यह विरोध, यह
चुनौती ऊर्जा
निर्मित करती
है। उससे ही
ऊर्जा पैदा
होती है और जीवन
गति करता है।
इसे
ही हीगल के
मानने वाले
द्वंद्वात्मक
गति कहते हैं।
वाद,
प्रतिवाद
और फिर संवाद।
और यह संवाद
फिर वाद बन
जाता है और
अपना प्रतिवाद
पैदा करता है।
इस तरह यात्रा
चलती रहती है।
जीवन ब्लू—सुरा
नहीं है। जीवन
तर्कबद्ध
नहीं है। जीवन
द्वंद्वात्मक
है।
तुम्हें
तर्कबद्धता
और
द्वंद्वात्मकता
के भेद को ठीक
से समझ लेना
चाहिए। तुम
सोचते हो कि
जीवन
तर्कबद्ध है, इसलिए
पूछते हो कि
आप सामंजस्य
कैसे बिठाएंगे।
क्योंकि तर्क
तो सदा
सामंजस्य
बिठाने की कोशिश
करता है; वह
विरोधी को, विपरीत को
बर्दाश्त
नहीं कर सकता।
तर्क को किसी
तरह दिखाना है
कि जीवन में
कहीं विरोध
नहीं है; और
अगर कहीं
विरोध है तो
दोनों पक्ष
सही नहीं हो
सकते, एक न
एक जरूर गलत
होगा। तर्क
कहता है कि
दोनों पक्ष एक
साथ गलत तो हो
सकते हैं, लेकिन
दोनों एक साथ
सही नहीं हो
सकते। तर्क सब
जगह संगति
खोजने की
चेष्टा करता
है।
विज्ञान
तर्कपूर्ण है।
यही वजह है कि
विज्ञान जीवन
के प्रति
समग्रत: सच
नहीं है; हो
नहीं सकता।
जीवन
विरोधाभासी
है। जीवन
अतर्क्य है।
वह विपरीत के
द्वारा काम
करता है। जीवन
विपरीत से
भयभीत नहीं है;
वह विपरीत
का उपयोग करता
है। विपरीत
देखने में ही
विपरीत हैं; गहरे में वे
संयुक्त हैं,
जुड़े हुए
हैं। जीवन
द्वंद्वात्मक
है, तर्कपूर्ण
नहीं। जीवन
विरोधों के
बीच संवाद है—सतत
संवाद।
एक
क्षण के लिए
विचार करो :
अगर विरोध न
हो,
विपरीत न हो,
तो जीवन मृत
हो जाएगा, जीवन
जीवन न रहेगा।
क्योंकि
चुनौती कहां
से आएगी? आकर्षण
कहां से आएगा?
ऊर्जा कहां
से आएगी? तब
जीवन ब्लू—सुरा
होगा, मृत
होगा।
द्वंद्व के
कारण ही, विपरीत
के कारण ही
जीवन संभव है।
पुरुष
और स्त्री
बुनियादी
विपरीतताए
हैं,
और तब
चुनौती से
प्रेम की घटना
का जन्म होता
है। और फिर
पूरा जीवन
प्रेम के
चारों ओर
घूमता है। अगर
तुम्हारा
प्रेमी और तुम
इस समग्रता से
एक हो जाओ कि
कोई अंतराल न
रहे तो तुम
दोनों मृत हो
जाओगे। तब तुम
जीवित न रह
सकोगे। तब तुम
दोनों इस
द्वंद्वात्मक
प्रक्रिया से विदा
हो जाओगे।
तुम
इस जीवन में
तभी तक रह
सकते हो जब तक
तुम्हारी
एकता समग्र न
हो। और
तुम्हें एक—दूसरे
से बार—बार
दूर हटना पड़ता
है,
ताकि फिर—फिर
निकट आ सको।
यही कारण है
कि प्रेमी आपस
में लड़ते रहते
हैं। वह लड़ाई
दूरी निर्मित
करती है। दिन
भर वे लड़ेंगे,
एक—दूसरे से
बहुत दूर चले
जाएंगे, एक—दूसरे
के शत्रु बन
जाएंगे। उसका
मतलब है कि वे अब
विपरीत
ध्रुवों पर हैं—वे
एक—दूसरे से
इतनी दूर चले
गए हैं जितनी
दूर जाना संभव
था। प्रेमी
सोचने लगते
हैं कि कैसे
इस स्त्री की
हत्या कर दूं
और प्रेमिकाएं
सोचने लगती
हैं कि कैसे इस
मुसीबत से
छुटकारा हो।
वे एक—दूसरे
से उतनी दूर
हट गए हैं
जितनी दूर वे
हट सकते थे।
और फिर संध्या
वे प्रेम कर
रहे है।
जब
वे बहुत दूर, बहुत
दूर हो जाते
हैं तो फिर
आकर्षण लौट
आता है। वे
इतनी दूरी से
एक—दूसरे को
देखते हैं कि
फिर आकर्षित
होने लगते हैं।
दूरी पर वे
फिर स्त्री और
पुरुष हो गए
हैं—प्रेमी न
रहे। अब वे एक—दूसरे
के लिए सिर्फ
स्त्री और
पुरुष हैं, अजनबी हैं।
अब वे फिर एक—दूसरे
के प्रेम में
पड़ेंगे। फिर
वे निकट आएंगे।
और फिर एक
बिंदु आएगा जब
वे क्षण भर के
लिए एक हो
जाएंगे। और
वही उनका सुख
होगा, आनंद
होगा।
लेकिन
फिर उस एक
होने के क्षण
में ही उनके
दूर हटने की
प्रक्रिया
शुरू हो जाती
है। जिस क्षण
में पत्नी और
पति मिलते हैं, उसी
क्षण, यदि
वे साक्षी
होकर देख सकें
तो वे देखेंगे
कि हम फिर अलग
होने लगे हैं।
शिखर का जो
क्षण है वही
क्षण अलग होने,
विपरीत
होने की
प्रक्रिया की
शुरुआत का
क्षण भी है।
और
यह क्रम चलता
रहता है। तुम
पुन: —पुन: निकट
आते हो और फिर—फिर
दूर होते हो।
यही अर्थ है
जब मैं कहता
हूं कि जीवन
विपरीतता के
द्वारा ऊर्जा
का सृजन करता
है। विपरीतता
के बिना जीवन
नहीं हो सकता
है। यदि दो
प्रेमी
वस्तुत: एक हो
जाएं तो वे
जीवन से विदा
हो जाएंगे। वे
मोक्ष को
उपलब्ध हो गए; वे
मुक्त हो गए।
उनका अब
पुनर्जन्म
नहीं होगा। अब
भविष्य में
उनके लिए जीवन
नहीं होगा।
अगर दो प्रेमी
इतनी समग्रता
से एक हो सकें
तो उनका प्रेम
गहरे से गहरा
ध्यान बन गया।
और उन्हें वह
उपलब्ध हो गया
जो बुद्ध को
बोधिवृक्ष के
नीचे उपलब्ध
हुआ था।
उन्हें वह
उपलब्ध हो गया
जो क्राइस्ट
को क्रास पर
उपलब्ध हुआ था।
वे अद्वैत को
उपलब्ध हो गए।
वे अब जीवन
में, संसार
में नहीं रह
सकते।
जैसा
हम जानते हैं, अस्तित्व
द्वैतमूलक है,
द्वंद्वात्मक
है। और ये
विधियां
तुम्हारे लिए
हैं जो द्वैत
में जीते हैं।
इसलिए अनेक
विपरीतताएं
होंगी।
क्योंकि ये
विधियां
दर्शनशास्त्र
नहीं हैं, ये
विधियां
प्रयोग के लिए
हैं, जीए
जाने के लिए
हैं। वे गणित
के सूत्र नहीं
हैं, वे
वास्तविक
जीवन—प्रक्रियाएं
हैं। वे
द्वंद्वात्मक
हैं, वे
विरोधाभासी
हैं। इसलिए
उनमें समन्वय
बिठाने के लिए
मत कहो। वे एक
जैसी नहीं हैं;
वे परस्पर
विरोधी हैं।
तुम
तो यह देखो कि
तुम्हारा
प्रकार क्या
है,
तुम्हारा
ढंग क्या है।
क्या तुम
शिथिल हो सकते
हो? क्या
तुम विश्राम
में उतर सकते
हो? क्या
तुम जो होता
है उसे होने
दे सकते हो? क्या तुम निष्क्रिय
तथाता में उतर
सकते हो? यदि
तुम्हारा
उत्तर ही में
है तो ये
विधियां तुम्हारे
लिए नहीं हैं,
क्योंकि ये
संकल्प की
मांग करती हैं।
अगर तुम
विश्राम में
नहीं जा सकते,
और अगर मैं
तुमसे कहता
हूं कि
विश्राम करो
और तुम तुरंत
पूछते हो कि
कैसे विश्राम
करूं, तो
वह कैसे का
पूछना
तुम्हारे मन
की खबर देता है।
वह प्रश्न
बताता है कि
तुम सहजता से
शिथिल नहीं हो
सकते, विश्राम
नहीं कर सकते।
विश्राम के
लिए भी
तुम्हें
प्रयत्न की
जरूरत है, इसलिए
तुम पूछते हो
कि कैसे
विश्राम करूं।
विश्राम
विश्राम है, उसमें
कैसे के लिए
जगह नहीं है।
अगर तुम
विश्राम करना
चाहते हो तो
तुम जानते हो
कि विश्राम
कैसे होता है।
तब तुम बस
विश्राम करते
हो। उसकी कोई विधि
नहीं है, उपाय
नहीं है।
उसमें कोई
प्रयत्न नहीं
है। जैसे रात
में तुम सो
जाते हो, तुम
कभी यह नहीं
पूछते कि कैसे
सोऊ।
लेकिन
ऐसे लोग भी
हैं जो
अनिद्रा से
पीड़ित हैं।
अगर तुम उनसे
कहो कि मैं बस
तकिए पर सिर
रखता हूं और
सो जाता हूं
तो वे तुम पर
विश्वास नहीं
करेंगे। और
उनका संदेह
अर्थपूर्ण
है। वे तुम पर
विश्वास
नहीं करेंगे;
उन्हें
लगेगा कि तुम
उन्हें धोखा
दे रहे हो। क्योंकि
वे भी तकिए पर
सिर रखते हैं,
वे सारी रात
तकिए पर सिर
रखे रहते हैं,
और कुछ नहीं
होता है। वे
पूछेंगे कि
कैसे? कैसे
तकिए पर सिर
रखूं? कोई
राज जरूर होगा
जो तुम छिपा
रहे हो।
उन्हें लगेगा
कि तुम उन्हें
धोखा दे रहे
हो। सारा
संसार उन्हें
धोखा देता
मालूम पड़ेगा।
वे कहेंगे. 'सब लोग यही
कहते हैं कि
हम बस सो जाते
हैं, कोई
विधि नहीं है,
कोई तरकीब
नहीं है।’
वे
तुम्हारा
विश्वास नहीं
करेंगे। और
तुम उन्हें
गलत भी नहीं
कह सकते। तुम
कहते हो. 'हम
बस अपना सिर
तकिए पर रखते
हैं, आंखें
बंद कर लेते
हैं, बत्ती
बुझा देते हैं,
नींद में खो
जाते हैं।’ वे भी यही सब
करते हैं, वे
भी यही
क्रियाकांड
करते हैं—और
वे तुमसे
ज्यादा सलीके
से करते हैं—लेकिन
फिर भी कुछ फल
हाथ नहीं आता।
रोशनी बंद है,
वे आंखें
बंद किए
बिस्तर पर पड़े
हैं, और
नींद आने का
नाम नहीं लेती।
जब
तुम सहजता से
शिथिल होने की
क्षमता खो
देते हो तो
विधि जरूरी हो
जाती है। तब
तुम विधि के
बिना, उपाय के
बिना नहीं सो
सकते।
तो
अगर तुम्हारा
चित्त
विश्रामपूर्ण
हो सकता है तो
समर्पण
तुम्हारा
मार्ग है। और
कोई समस्या मत
खड़ी करो, बस
समर्पण करो।
कम से कम आधे
लोग यह कर
सकते हैं।
तुम्हें पता
हो या न हो, लेकिन
पचास प्रतिशत
लोगों में
समर्पण की संभावना
है, क्योंकि
पुरुष—चित्त
और स्त्रैण—चित्त
एक अनुपात में
होते हैं। वे
सदा पचास—पचास
प्रतिशत के
अनुपात में
होते हैं; लगभग
सभी
क्षेत्रों
में आधे —आधे
की संख्या में
होते हैं, क्योंकि
स्त्री के
विपरीत ध्रुव
के बिना पुरुष
का होना संभव
ही नहीं है।
प्रकृति में
एक गहन संतुलन
है।
क्या
तुम जानते हो, अगर
एक सौ लड़कियां
पैदा होती हैं
तो उनके मुकाबले
एक सौ पंद्रह
लड़के पैदा
होते हैं? कारण
यह है कि लड़के
लड़कियों से
कमजोर होते
हैं।
कामवासना के
प्रौढ़ होने की
उम्र तक
पंद्रह लड़के
मर जाएंगे।
इसलिए सौ
लड़कियों के
पीछे एक सौ
पंद्रह लड़के पैदा
होते हैं।
लड़कियां
मजबूत होती
हैं, उनमें
ज्यादा शक्ति
होती है, वे
ज्यादा
प्रतिरोध कर
सकती हैं।
लड़के कमजोर
होते हैं, उनमें
उतनी
प्रतिरोध की
शक्ति नहीं
होती। इसीलिए
सौ लड़कियों के
मुकाबले एक सौ
पंद्रह लड़के!
ये पंद्रह
लड़के पीछे
विदा हो
जाएंगे। चौदह
वर्ष की उम्र
तक आते —आते, जब लड़के—लड़कियां
कामवासना की
दृष्टि से
प्रौढ़ होते हैं,
उनकी
संख्या बराबर
हो जाएगी।
प्रत्येक
पुरुष के लिए
एक स्त्री है
और प्रत्येक
स्त्री के लिए
एक पुरुष।
क्योंकि एक आंतरिक
खिंचाव है
जिसके बिना वे
नहीं जी सकते, वह
ध्रुवीय
विपरीतता
बहुत जरूरी है।
और
वही नियम आंतरिक
मन के साथ भी
सही है।
अस्तित्व को, प्रकृति
को संतुलन की
जरूरत है।
इसलिए तुममें
से आधे लोग
स्त्रैण हैं
और वे बहुत
आसानी से गहरा
समर्पण कर
सकते हैं।
लेकिन
तुम अपने लिए
समस्याएं खड़ी
कर सकते हो।
हो सकता है
तुम्हें
समर्पण करने का
भाव हो, लेकिन
तुम सोचते हो
कि मैं समर्पण
कैसे कर सकता
हूं। तुम्हें
लगता कि मेरे
अहंकार को चोट
पहुंचेगी।
तुम समर्पण
करने से भयभीत
हो जाते हो; क्योंकि
तुम्हें सखाया
गया है कि
स्वतंत्र बनो,
स्वतंत्र
रहो। अपने को
खोओ मत; किसी
दूसरे के हाथ
में अपनी
बागडोर मत दे
दो। सदा अपने
मालिक रहो।
यह
हमें सिखाया
गया है। ये
सीखी हुई
कठिनाइयां
हैं। तुम्हें
लग सकता है कि
मैं समर्पण कर
सकता हूं; लेकिन
फिर दूसरी
समस्याएं आती
हैं जो तुम्हें
समाज से, संस्कृति
से, शिक्षा
से मिली हैं।
और उनसे सदा
समस्याएं
निर्मित होती
हैं।
अगर
तुम्हें
सचमुच लगता है
कि समर्पण
तुम्हारे लिए
नहीं है तो
उसे भूल जाओ, उसकी
फिक्र ही छोड़
दो। और तब
अपनी सब ऊर्जा
प्रयत्न में
उंडेल दो।
ये
दो अतियां हैं।
एक,
अगर तुम
वस्तुत:
स्त्रैण
चित्त हो तो
तुम्हें कहीं
नहीं जाना है।
तब कोई मंजिल
नहीं है, तब
कोई ईश्वर
नहीं है जिसे
पाना है, भविष्य
में कोई
स्वर्ग नहीं
है; कुछ भी
नहीं है। अब
भाग—दौड़ में
मत रही, वर्तमान
में रहो। और
तुम्हें वह सब
यहां और अभी
अनायास
प्राप्त हो
जाएगा जो
पुरुष—चित्त
बहुत भाग—दौड़
और कठिन श्रम
से प्राप्त
करता है। अगर
तुम विश्राम
में हो सको तो
ठीक अभी ही
तुम मंजिल पर
हो।
पुरुष—चित्त
को तब तक
दौड़ना होगा जब
तक वह बिलकुल
थककर गिर न
जाए। तभी वह
विश्राम कर
सकता है। थककर
चूर होने के
लिए पुरुष—चित्त
को आक्रमण, प्रयत्न
और श्रम चाहिए।
जब थकावट
समग्र होती है
तभी उसके लिए
विश्राम और
समर्पण संभव
होता है।
समर्पण उसके
लिए सदा अंत
में आता है।
स्त्रैण
चित्त के लिए
समर्पण सदा
आरंभ में है।
तुम एक ही मंजिल
पर पहुंचते हो,
लेकिन
पहुंचने के
रास्ते भिन्न—भिन्न
हैं।
तो
कल जब मैंने
कहा कि समय मत
खोओ तो यह बात
मैंने पुरुष—चित्त
के लिए कही थी।
जब मैंने कहा
कि जल्दी करो
और ऐसी आपात
स्थिति
निर्मित करो
कि तुम्हारी
समग्र ऊर्जा, तुम्हारे
समस्त प्राण
एकाग्र हो
जाएं और उसी
एकाग्र, केंद्रित
प्रयास में
तुम्हारा
जीवन ज्योतिशिखा
बन जाएगा तो
यह बात मैंने
पुरुष—चित्त
के लिए कही थी।
स्त्रैण—चित्त
के लिए मैं
कहता हूं कि
विश्राम करो
और तुम अभी
ज्योतिशिखा
हो।
यही
कारण है कि
जहां तुम्हें
महावीर, बुद्ध,
जीसस, कृष्ण,
राम, जरथुस्त्र,
मूसा के नाम
उपलब्ध हैं, वहां
तुम्हारे पास
स्त्री
तीर्थंकरों
की ऐसी कोई
सूची नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि स्त्रियों
ने इस अवस्था
को उपलब्ध
नहीं किया।
उन्होंने भी
उपलब्ध किया,
लेकिन उनके
ढंग भिन्न हैं।
और पूरा
इतिहास
पुरुषों ने
लिखा है और
पुरुष सिर्फ
पुरुष—चित्त को
समझ सकता है, वह स्त्रैण
चित्त को नहीं
समझ सकता। यही
समस्या है। यह
सचमुच
मुश्किल काम
है।
पुरुष
को यह बात समझ
में नहीं आ
सकती कि कोई
स्त्री केवल
गृहिणी रहकर
उसे उपलब्ध कर
ले जिसे बुद्ध
इतने श्रम से, इतनी
साधना से
उपलब्ध करते
हैं। पुरुष यह
सोच ही नहीं
सकता, उसके
लिए यह सोचना
असंभव है कि
स्त्री बस
गृहिणी रहकर
उपलब्ध हो जाए।
वह क्षण में
जीती है, अभी
का सुख लेती
है; वह
निकट में, यहीं
और अभी में
जीती है। वह
दूर की चिंता
नहीं करती है,
उसके लिए न
कोई मंजिल है,
न कोई
अध्यात्म है।
वह बस अपने
बच्चों को
प्यार करती है,
अपने पति को
प्रेम करती है,
साधारण
स्त्री का
जीवन जीती है।
लेकिन वह
आनंदित है।
उसे महावीर की
तरह कठिन तप
नहीं करना है,
बारह
वर्षों की
लंबी, कठिन
तपस्या से
नहीं गुजरना
है।
लेकिन
पुरुष महावीर
की प्रशंसा
करेगा, वह
पुरुषार्थ को
आदर देगा। अगर
तुम बिना
प्रयत्न
के कुछ पा लो
तो पुरुष के
लिए उसका कोई
मूल्य नहीं है।
वह उसे आदर
नहीं दे सकता।
वह आदर देगा
तेनसिंग को, हिलेरी
को, क्योंकि
वे एवरेस्ट पर
पहुंच गए।
यहां एवरेस्ट
का मूल्य नहीं
है; मूल्य
इसका है कि यहां
तक पहुंचने में
इतना श्रम लगता
है कि वहां तक
पहुंचना इतना
खतरनाक है। और
अगर तुम कहो
कि मैं
एवरेस्ट पर ही
हूं तो वह
हंसेगा।
एवरेस्ट
अर्थपूर्ण
नहीं है; अर्थपूर्ण
है वह श्रम जो
उस पर चढ़ने
में लगता है।
और
जब एवरेस्ट पर
पहुंचना आसान
हो जाएगा, पुरुष?चित्त के
लिए उसका सब
आकर्षण
समाप्त हो
जाएगा।
एवरेस्ट पर
पाने को कुछ
नहीं है। जब
हिलेरी और तेनसिंग
एवरेस्ट पर
पहुंचे तो
उन्हें वहां
कुछ पाने लायक
नहीं मिला।
लेकिन पुरुष—चित्त
को बड़े गौरव
का अनुभव होता
है।
जब
हिलेरी
एवरेस्ट पर
पहुंचा, उस
समय मैं एक
विश्वविद्यालय
में था। सभी
प्रोफेसर
खुशी से नाच
उठे थे। मैंने
एक स्त्री
प्रोफेसर से
पूछा : 'तुम्हारा
हिलेरी और
तेनसिंग के
बारे में, जो
एवरेस्ट पर
पहुंच गए हैं,
क्या खयाल
है?' उसने
कहा. 'मेरी
समझ में नहीं
आता कि इसके
लिए इतना
शोरगुल क्यों
मचाया जा रहा
है। इसमें ऐसा
क्या है? वे
वहां पहुंच कर
क्या पा गए? किसी बाजार
में पहुंचना,
किसी दुकान
पर चले जाना
बेहतर होता।’
स्त्रैण—चित्त
के लिए यह
व्यर्थ है।
चांद पर जाना—यह
जोखिम क्यों? इसकी
जरूरत क्या है?
लेकिन
पुरुष—चित्त
के लिए मंजिल
महत्वपूर्ण
नहीं है, असली
चीज
पुरुषार्थ है।
क्योंकि तभी
वह सिद्ध कर
पाता है कि
मैं पुरुष हूं।
प्रयत्न, पुरुषार्थ,
आक्रमण और
जीवन को दाव
पर लगा देना
उसे पुलक से
भर देता है।
पुरुष—चित्त
के लिए खतरे
में बहुत रस
है, स्त्रैण—चित्त
के लिए उसमें
कोई रस नहीं
है।
यही
कारण है कि
मनुष्य का
इतिहास आधा ही
लिखा गया है।
उसका दूसरा
आधा भाग छूट
ही गया है, बिलकुल
अनलिखा रह गया
है। हमें नहीं
मालूम कि
कितनी स्त्रियां
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुईं।
यह जानना
असंभव है, क्योंकि
हमारे मापदंड,
हमारी
कसौटियां
स्त्रैण—चित्त
पर लागू नहीं
होती हैं।
तो
पहले अपने
चित्त के
संबंध में
निर्णय करो।
पहले अपने मन
पर ध्यान करो।
देखो कि मेरा
मन किस प्रकार
का है, उसका
ढंग क्या है।
और फिर उन सब
विधियों को
भूल जाओ जो
तुम पर लागू
नहीं होतीं।
और उनके बीच
समन्वय
बिठाने की
चेष्टा मत करो।
दूसरा
प्रश्न :
आपने
कहार 'अपने
होने में अधिक
से अधिक आस्तित्व
को समाविष्ट
करना सीखो। समस्त
आस्तित्व के
मूल स्रोत से
ऊर्जा गण करो।
अपने
शत्रु को भी
अपने में
समाहित करो।’
मैं अपने
शत्रु को अपने
में समाविष्ट
कैसे कर सकता
हूं अगर साथ—साथ
घृणा की
वृत्ति को भी
पूरी तरह जीना
है? क्या
यह शिक्षा दमन
पर नहीं ले
जाती है?
मैंने
कहा कि अपने
शत्रु को भी
अपने में
समाविष्ट करो, लेकिन
मैंने यह नहीं
कहा कि शत्रु
से ही शुरू
करो। शुरू तो
मित्र से करो।
तुम अभी जैसे
हो, तुम
अपने मित्र को
भी अपने में
सम्मिलित
नहीं करते।
मित्र से आरंभ
करो। वह भी
कठिन है।
मित्र को भी अपने
होने में सम्मिलित
करना, उसे
भी अपने भीतर
प्रवेश देना,
गहरे उतरने
देना, उसके
प्रति भी खुला
और ग्रहणशील होना
कठिन है। तो मित्र
से शुरू करो, प्रेमी—प्रेमिका
से शुरू करो।
शत्रु पर
एकाएक मत
छलांग लगाओ।
और
क्यों तुम
शत्रु पर
छलांग लगाते
हो?
इसलिए कि
तुम कह सको कि
यह असंभव है, यह हो नहीं
सकता, ताकि
तुम उसे छोड़
सकी। पहले कदम
से शुरू करो।
तुम अंतिम कदम
से शुरू करते
हो, फिर
यात्रा कैसे
संभव होगी? तुम सदा
अंतिम कदम से
शुरू करते हो।
पहला कदम अभी
उठा नहीं है, इसलिए अंतिम
कदम की बात
केवल कल्पना
है। और
तुम्हें लगता
है कि यह
असंभव है।
निश्चित ही यह
असंभव है। तुम
कैसे अंतिम से
आरंभ कर सकते
हो?
शत्रु
तो समाविष्ट
होने का अंतिम
बिंदु है; अगर
तुम मित्र को
अपने में
सम्मिलित कर
सकी तो शत्रु
को भी सम्मिलित
करना संभव हो
सकता है, क्योंकि
मित्र ही तो
शत्रु बनते
हैं। तुम किसी
को शत्रु नहीं
बना सकते यदि
तुम उसे पहले
मित्र नहीं
बनाते हो। या
बना सकते हो? अगर तुम
किसी को शत्रु
बनाना चाहते
हो तो पहले
उसे मित्र
बनाना जरूरी
है। मित्रता
पहला कदम है।
बुद्ध
ने कहीं कहा
है कि मित्र
मत बनाओ, क्योंकि
वही शत्रु
बनाने का पहला
कदम है। बुद्ध
कहते हैं कि
मित्रतापूर्ण
बनो, मित्र
मत बनाओ। अगर
तुम मित्र
बनाते हो तो
तुमने पहला
कदम उठा लिया,
अब जल्दी ही
तुम शत्रु
बनाओगे।
मित्र
को सम्मिलित
करो। निकट से
आरंभ करो।
आरंभ से ही
आरंभ करो। तो
ही शत्रु को
सम्मिलित
करना संभव
होगा। तब
कठिनाई नहीं
अनुभव होगी।
जब
तुम्हें
मित्र को ही
सम्मिलित
करना है, मित्र
को ही अपने
में समाविष्ट
करना है, तब
भी यह कठिन
काम है।
क्योंकि
प्रश्न मित्र
या शत्रु का
नहीं है, प्रश्न
तुम्हारे
खुले होने का
है। तुम तो
अपने मित्र के
लिए भी बंद हो।
तुम अपने
मित्र से भी
अपना बचाव
करते हो।
तुमने मित्र
के प्रति भी
अपने को
समग्रत: नहीं
खोला है। फिर
तुम उसे अपने
में सम्मिलित
कैसे कर सकते हो?
तुम उसे तभी
सम्मिलित कर
सकते हो जब
कोई भय न हो, जब तुम
भयभीत नहीं हो,
जब तुम उसे
अपने भीतर
प्रवेश करने
दो और उससे बचने
के लिए कोई
सुरक्षा—व्यवस्था
न करो।
लेकिन
तुम तो अपने
प्रेमी—प्रेमिका
के प्रति भी
द्वार—दरवाजे
बंद किए बैठे
हो,
उनके लिए भी
तुमने अपने मन
को अभी नहीं
खोला है। अभी
भी ऐसी चीजें
हैं जो गोपनीय
हैं, निजी
हैं। और अगर
तुम्हारा कुछ
अपना है, निजी
है, प्राइवेट
है, तो तुम
खुले नहीं हो
सकते, तुम
अपने में किसी
को समाविष्ट
नहीं कर सकते।
क्योंकि खतरा
है कि
तुम्हारा
प्राइवेट, व्यक्तिगत
जीवन प्रकट हो
जा सकता है, तुम्हारी
गोपनीय बातें
सार्वजनिक हो जा
सकती हैं।
मित्र को भी
समाविष्ट
करना आसान
नहीं है। तो
ऐसा मत सोचो
कि शत्रु को
सम्मिलित
करना कठिन है,
अभी यह
असंभव ही है।
यही
कारण है कि
जीसस की
शिक्षा असंभव
हो गई, और ईसाई
नकली हो गए।
ऐसा होना ही
था। क्योंकि
जीसस कहते हैं
कि अपने
शत्रुओं को प्रेम
करो, और
तुम अभी अपने मित्र
को भी प्रेम
करने में
समर्थ नहीं हो।
जीसस तुम्हें
एक असंभव काम
दे रहे हैं।
तुम झूठे होने
के लिए, पाखंडी
होने के लिए
बाध्य हो; तुम
प्रामाणिक
नहीं हो सकते।
तुम बात तो करोगे
शत्रु को
प्रेम करने की
और अपने
मित्रों को भी
घृणा करोगे।
मैं ऐसा नहीं
कह रहा हूं।
तो
पहली बात: अभी शत्रु
का विचार मत करो।
वह तुम्हारे मन
की चालाकी है।
पहले मित्र का
विचार करो। और
दूसरी बात.
प्रश्न किसी
को समाविष्ट
करने का नहीं
है,
प्रश्न है
समावेश की
क्षमता का, खुलेपन का, फैलाव का।
वह तुम्हारी
चेतना का गुण
है। उस खुलेपन
को, उस
विस्तार को
पैदा करो, उस
गुणवत्ता को
पैदा करो।
उस
गुणवत्ता का
निर्माण कैसे
हो,
यह विधि
उसके लिए ही
है। तुम किसी
वृक्ष के पास
बैठे हो। उस
वृक्ष को देखो।
वह तुमसे बाहर
है। लेकिन यदि
वह वृक्ष
बिलकुल तुमसे
बाहर है तो तुम
उसे जान नहीं
सकते। उसका
कुछ अंश तो
अवश्य ही
यात्रा करके
तुम्हारे
भीतर पहुंच
गया है, तभी
तो तुम जान
सके कि वृक्ष
है, कि वह
हरा है।
लेकिन
क्या तुम
जानते हो कि
यह हरा रंग
तुम्हारे
भीतर है, वृक्ष
में नहीं? जब
तुम आख बंद
लेते हो तो
पेडू हरा नहीं
है। अब
वैज्ञानिक भी
कहते हैं कि
रंग तुम देते
हो। प्रकृति
में सब कुछ
रंगहीन है; वहां कोई
रंग नहीं है।
रंग तब पैदा
होता है जब
किसी विषय—वस्तु
से आती हुई
किरणें
तुम्हारी आंखों
से मिलती हैं।
तो रंग
तुम्हारी आंखें
पैदा करती हैं।
वृक्ष और
तुम्हारे
मिलन से हरापन
घटित होता है।
फूल
खिले हैं, उनकी
गंध तुम्हारे
पास आती है, तुम सुगंध
महसूस करते हो।
लेकिन वह
सुगंध भी
तुम्हारी दी
हुई है; वह
प्रकृति में
नहीं है।
तुम्हारे पास
सिर्फ तरंगें
पहुंचती हैं,
जिन्हें
तुम गंध में
रूपांतरित कर
लेते हो। गंध
तुम्हारें
नाक का गुण है,
नाक गंध
सूंघती है।
तुम न रहो तो
कोई गंध नहीं
होगी।
ऐसे
दार्शनिक हुए
हैं—बर्कले, नागार्जुन
या शकर—जो
कहते हैं कि
जगत माया है, तुम्हारे मन
का एक खयाल है,
क्योंकि हम
संसार के
संबंध में जो
भी जानते हैं
वह वस्तुत:
हमारा आरोपण
है। इसीलिए
जर्मन चिंतक
और दार्शनिक
इमेनुअल कांट
कहता है कि
वस्तुत: किसी
वस्तु को नहीं
जाना जा सकता,
हम जो भी
जानते हैं वह
हमारा
प्रक्षेपण है।
मुझे
तुम्हारा
चेहरा सुंदर
दिखाई देता है।
तुम्हारा
चेहरा न सुंदर
है न कुरूप; सुंदरता
'मेरी
दृष्टि है।
मैं ही
तुम्हें
सुंदर या
कुरूप बनाता
हूं। यह मुझ
पर निर्भर है।
यह मेरा भाव
है। अगर तुम
संसार में
अकेले हो, कोई
कहने वाला न
हो कि तुम
कुरूप हो या
सुंदर, तो
तुम न सुंदर
होगे न कुरूप
होंगे। या कि
होगे? अगर
तुम धरती पर
अकेले हो तो
तुम सुंदर
होगे या कुरूप
होगे? तुम
बुद्धिमान
होगे या मूर्ख
होगे? तुम
कुछ नहीं होगे।
सच तो यह है कि
तुम धरती पर
अकेले हो ही
नहीं सकते; अकेले तुम
हो नहीं सकते।
अगर
तुम किसी झाडू
के पास बैठे
हो तो ध्यान
करो। आख खोलों
और झाड़ को
देखो। और फिर
आख बंद करके
झाडू को अपने
भीतर देखो।
अगर यह प्रयोग
करोगे—फिर आख
खोलकर झाडू को
देखो और फिर
आख बंद करके उसी
झाड़ को अपने
भीतर देखो—तो
प्रारंभ में
तो भीतर दिखने
वाला झाडू
बाहर के झाडू
की धुंधली सी
छाया मालूम
होगा। लेकिन
अगर तुमने
प्रयोग जारी
रखा तो धीरे —
धीरे भीतर का
झाडू ठीक बाहर
के झाडू जैसा
हो जाएगा।
और
अगर तुम इस
प्रयोग में
धैर्यपूर्वक
लगे रहे—जो
कठिन है—तो एक
क्षण आता
है
जब बाहर का वृक्ष
भीतर के वृक्ष
की छाया मात्र
बनकर रह जाता
है। भीतर का
वृक्ष ज्यादा सुंदर, ज्यादा
जीवंत हो जाता
है। क्योंकि अब
तुम्हारी आंतरिक
चेतना इसके लिए
भूमि बन गई। अब
आंतरिक चेतना में
इसकी जड़ें जग
गई है। अब यह सीधे
चैतन्य से भोजन
ले रहा है। यह
बहुत दुर्लभ
चीज है।
जब
जीसस या जीसस
जैसे लोग
परमात्मा के राज्य
की चर्चा करते
हैं तो वे ऐसी
रंगीन भाषा
में चर्चा
करते हैं कि
हमें लगता है
कि वे या तो
पागल हैं या
भ्रांत हैं।
वे पागल या
भ्रांत कुछ भी
नहीं हैं; उन्होंने
अस्तित्व को
अपने में
समाविष्ट करना
सीख लिया है।
उनकी अपनी आंतरिक
चेतना अब एक
जीवनदायी
तत्व बन गई है।
अब जो कुछ
भीतर जाता है
वह जीवंत हो
जाता है, वह
ज्यादा रंगीन,
ज्यादा
गंधपूर्ण, ज्यादा
प्राणवान हो
जाता है—मानो
वह इस जगत का, इस पार्थिव
जगत का न हो—मानो
वह किसी उच्च
लोक का हो।
कवियों को
इसका कुछ आभास
मिलता है।
रहस्यदर्शी
इसे बहुत गहरे
में जानते हैं,
लेकिन कवि
भी कुछ—कुछ
महसूस करते
हैं। कवियों
को उसकी थोड़ी
झलक मिलती है।
वे जगत के साथ
अपने को एक
महसूस कर सकते
हैं।
इसे
प्रयोग करो :
इतने खुलो, इतने
विस्तृत होओ
कि सबको अपने
में समाविष्ट कर
सकी। जब मैं
कहता हूं कि
समावेश करना
सीखो तो उसका यही
मतलब है।
वृक्ष को अपने
भीतर प्रवेश
करने दो और
वहां उसे जड़ जमाने
दो। फूल को
भीतर प्रवेश
करने दो और
वहां उसे खिलने
दो, प्रस्फुटित
होने दो।
तुम्हें इस पर
भरोसा नहीं
होगा, क्योंकि
अनुभव किए
बिना इसे
जानने का और
कोई उपाय नहीं
है। एक कली पर,
गुलाब की
कली पर
एकाग्रता
साधो। उस पर
अवधान को
एकाग्र करो, उस पर पूरी
तरह एकाग्र हो
जाओ और उसे
बाहर से भीतर
आ जाने दो।
और
जब कली का यह आंतरिक
अनुभव इतना
सघन,
सच्चा हो
जाए कि बाहरी
कली, असली
कली, तथाकथित
असली कली उसकी
छाया भर मालूम
पड़े—असली
धारणा अब अंदर
है, असली
चीज भीतर है
और बाहरी कली आंतरिक
कली की फीकी
सी झलक भर है—जब
तुम इस बिंदु
पर पहुंच जाओ
तो आख बंद कर
लो और भीतर की
कली पर
एकाग्रता
साधो। तुम
चकित रह जाओगे,
क्योंकि
भीतर की कली
खिलने लगेगी,
फूल बनने
लगेगी, वह
ऐसा फूल बनेगी
जैसा तुमने
कभी नहीं जाना।
वैसा फूल
तुम्हें बाहर
के जगत में
कभी नहीं
मिलेगा। यह एक
अपूर्व घटना
है—जब कोई चीज
तुम्हारे
भीतर बढ़ती है,
खुलती है, खिलती है।'
इस
भांति बढ़ो, विस्तृत
होओ, समावेश
करना सीखो और
धीरे—धीरे
अपनी सीमाओं
को फैलने दो।
अपने में
प्रेमियों को
सम्मिलित करो,
मित्रों को
सम्मिलित करो,
परिवार को
सम्मिलित करो।
फिर परायों को
भी सम्मिलित
करो। और तब
तुम धीरे—
धीरे शत्रु को
भी सम्मिलित
कर लेते हो।
वह अंतिम
बिंदु होगा।
और जब तुम उसे
अपने भीतर
प्रवेश करने
देते हो, वहां
जड़ें जमाने
देते हो, उसे
अपनी चेतना का
हिस्सा बनने
देते हो, तब
तुम्हारे लिए
कुछ भी
शत्रुतापूर्ण
नहीं रह जाता।
तब सारा जगत
तुम्हारा घर
हो गया। तब
कुछ भी अजनबी
न रहा, कोई
भी पराया न रहा,
और तुम जगत
के साथ आनंदित
हो।
लेकिन
मन की चालाकी
से सावधान रहो।
मन सदा
तुम्हें ऐसा
कुछ कहेगा
जिसे तुम कर न
सको। और जब
तुम नहीं कर
पाओगे तो मन
कहेगा कि ये
फिजूल की बातें
हैं,
इन्हें छोड़ो।
मन ऐसा लक्ष्य
देगा जिसे तुम
पूरा नहीं कर
पाओगे, यह
सदा स्मरण रहे।
अपने ही मन के शिकार
मत बनो। सदा संभव
से शुरू करो; असंभव पर छलांग
मत लगा।
और
अगर तुम संभव
में बढ़ सके, गति
कर सके, तो
असंभव उसका ही
दूसरा छोर है।
असंभव संभव के
विपरीत नहीं
है, वह
उसका ही दूसरा
छोर है। वह एक
ही इंद्रधनुष
का हिस्सा है,
दूसरा छोर
है।
इसमें
एक और प्रश्न
जुड़ा है : 'मैं
अपने शत्रु को
अपने में कैसे
समाविष्ट कर सकता
हूं अगर साथ
ही साथ घृणा
की वृत्ति को
भी पूरी तरह
जीना है? क्या
यह शिक्षा दमन
पर नहीं ले जाती
है?'
यह
थोड़ी बारीक
बात है जिसे
अच्छी तरह
समझना चाहिए।
जब तुम घृणा
करते हो तो
मैं नहीं कहता
कि उसका दमन
करो। क्योंकि
जो भी दमित
किया जाता है
वह खतरनाक है।
और अगर तुम
दमन करते हो
तो तुम बिलकुल
खुले नहीं हो
सकते। तब तुम
अपनी एक निजी, अलग
दुनिया बना
लेते हो जो
तुम्हें
दूसरों को
अपने में
सम्मिलित नहीं
करने देगी। और
तुम जिस चीज
का भी दमन
करोगे, तुम
उससे सदा ही
भयभीत रहोगे,
क्योंकि
किसी भी क्षण
वह बाहर आ
सकती है। तो
पहली बात कि
क्रोध, घृणा
या किसी भी
भाव का दमन मत
करो।
लेकिन
क्रोध या घृणा
को किसी दूसरे
पर प्रकट करने
की भी जरूरत
नहीं है। तुम
दूसरे पर अपना
क्रोध या घृणा
प्रकट करते हो, क्योंकि
तुम सोचते हो
कि दूसरा
जिम्मेवार है।
यह बात गलत है।
दूसरा
जिम्मेवार
नहीं है, तुम
स्वयं
जिम्मेवार हो।
तुम घृणा करते
हो, क्योंकि
तुम घृणा से
भरे हो। दूसरा
सिर्फ
तुम्हें मौका
देता है, और
कुछ नहीं। अगर
तुम आते हो और
मुझे गाली
देते हो तो
तुम मुझे
सिर्फ एक मौका
देते हो कि
मेरे भीतर जो
भी है उसे मैं
बाहर ले आऊं।
अगर घृणा है
तो घृणा बाहर
आएगी, अगर
प्रेम है तो
प्रेम प्रकट
होगा। और अगर
करुणा है तो
करुणा व्यक्त
होगी। तुम
केवल मुझे
अपने को प्रकट
करने का अवसर
दे रहे हो।
इसलिए
अगर तुम्हारी
घृणा बाहर आती
है तो यह मत
सोचो कि दूसरा
उसके लिए
जिम्मेवार है।
वह सिर्फ
माध्यम है।
हमारे पास
संस्कृत में
इसके लिए
सुंदर शब्द है
: निमित्त।
निमित्त यानी
माध्यम। वह
कारण नहीं है, कारण
सदा भीतर है।
वह तो कारण को
बाहर लाने का
निमित्त
मात्र है।
इसलिए उसका
धन्यवाद करो,
उसका
अनुग्रह मानो
कि वह
तुम्हारी
छिपी हुई घृणा
के प्रति
तुम्हें
बोधपूर्ण
बनाता है। वह
मित्र है। तुम
उसे दुश्मन
समझ लेते हो, क्योंकि तुम
उस पर सारा
दायित्व डाल
देते हो। तुम
सोचते हो कि
वह घृणा पैदा
करवा रहा है।
यह सदा के लिए
गांठ बांध लो.
कोई दूसरा
तुम्हारे
भीतर कुछ
निर्मित नहीं
कर सकता।
अगर
तुम बुद्ध के
पास जाओ और
उन्हें गाली
दो तो वे
तुम्हें घृणा
नहीं करेंगे, वे
तुम पर क्रोध
नहीं करेंगे।
तुम चाहे कुछ
भी करो, तुम
उन्हें
क्रोधित नहीं
कर सकते।
इसलिए नहीं कि
तुम्हारे
प्रयत्न में
कुछ कमी है, बल्कि इसलिए
कि उनमें
क्रोध ही नहीं
है। तुम बाहर
क्या लाओगे?
दूसरा
व्यक्ति
तुम्हारी
घृणा का स्रोत
नहीं है, इसलिए
अपनी घृणा को
उस पर मत फेंको।
उसके प्रति
कृतज्ञ होओ, उसे धन्यवाद
दो। और उस
घृणा को, जो
तुम्हारे
भीतर, खाली
आकाश में उलीच
दो। यह है
पहली बात।
दूसरी
बात: घृणा को
भी अपने भीतर
ले लो, उसे भी
अपने में
सम्मिलित कर
लो। वह जरा
बात। वह गहरा
आयाम। घृणा को
भी अपने में
जगह दो। जब
मैं यह कहता
हूं तो मेरा
क्या अर्थ है?
जब
भी कुछ बुरा
होता है, जब भी
कुछ ऐसा घटित
होता है जिसे
तुम बुरा कहते
हो, अशुभ
कहते हो, तो
तुम उसे कभी
अपने में
शामिल नहीं
करते। और जब
कुछ शुभ होता
है, भला
होता है, तो
तुम तुरंत उसे
अपने में
शामिल कर लेते
हो।
जब
तुम
प्रेमपूर्ण
होते हो तो
कहते हो कि
मैं प्रेम हूं
लेकिन जब तुम
घृणा करते हो
तो कभी नहीं
कहते कि मैं
घृणा हूं। जब
तुम्हें
करुणा होती है
तो तुम कहते
हो कि मैं
करुणा हूं
लेकिन जब
क्रोध आता है
तब नहीं कहते
कि मैं क्रोध
हूं। तुम सदा
कहते हो कि
मैं क्रोधित
हूं—मानो
क्रोध
तुम्हें घटित
हुआ है, मानो
तुम क्रोध
नहीं हो, यह
कोई बाह्य
घटना है, कुछ
आकस्मिक चीज
है। और जब तुम
कहते हो कि
मैं प्रेम हूं
तो लगता है कि
प्रेम
तुम्हारा
सारभूत गुण है,
वह आकस्मिक
रूप से तुम पर
घटित नहीं हुआ
है, वह
बाहर से नहीं
आया है। तुम
मानते हो कि
वह तुम्हारे
भीतर से आया
है।
तो
जो भी अच्छा
है,
शुभ है, तुम
उसे अपने में गिन
लेते हो; और
जो भी बुरा है
उसे नहीं
गिनते। अशुभ
को भी अपने
में शामिल करो।
क्योंकि
तुम्हीं घृणा
हो, तुम्हीं
क्रोध हो। और
जब तक तुम इस
बात को कि मैं
घृणा हूं कि
मैं क्रोध हूं
अपने गहन अंतस
में नहीं
अनुभव करते हो,
तब तक तुम
उसके पार नहीं
जा सकते हो।
अगर
तुम अनुभव कर
सको कि मैं
क्रोध हूं तो
तुम्हारे भीतर
रूपांतरण की
एक सूक्ष्म
प्रक्रिया
सक्रिय हो
जाती है। क्या
होता है जब
तुम कहते हो
कि मैं क्रोध
हूं?
बहुत सी
बातें होती
हैं। पहली बात,
जब तुम कहते
हो कि मैं
क्रोधित हूं
तो तुम उस ऊर्जा
से अलग हो
जिसे तुम
क्रोध कहते हो।
यह सचाई नहीं
है। और सत्य
झूठे आधार से
कभी घटित नहीं
हो सकता। यह
सच नहीं है कि
तुम अपने
क्रोध से
भिन्न हो।
सचाई यह है कि
तुम क्रोध ही
हो, यह
तुम्हारी ही
ऊर्जा है। वह
तुमसे कोई अलग
चीज नहीं है।
तुम
क्रोध को, घृणा
को अपने से
अलग करते हो, क्योंकि तुम
अपनी एक झूठी
प्रतिमा
निर्मित करते
हो कि मैं कभी
क्रोध नहीं
करता, घृणा
नहीं करता, कि मैं सदा
प्रेमपूर्ण
हूं सहृदय और
सहानुभूतिपूर्ण
हूं। ऐसे
तुमने अपनी एक
झूठी प्रतिमा
निर्मित कर ली
है। और यह
झूठी प्रतिमा
अहंकार है।
अहंकार
तुम्हें कहे
चला जाता है. 'क्रोध को
छोड़ो, घृणा
को काटो; ये
अच्छी चीजें
नहीं हैं।’ ऐसा नहीं है
कि तुम जानते
हो कि वे
अच्छी चीजें
नहीं हैं।
केवल इसलिए
तुम उन्हें
छोड़ना चाहते
हो, क्योंकि
वे तुम्हारी
अच्छी
प्रतिमा को
तोड़ते हैं, वे तुम्हारे
अहंकार को, तुम्हारी
झूठी प्रतिमा
को पोषण नहीं
देते हैं।
तुम्हारी
एक प्रतिमा है।
तुम मानते हो
कि मैं अच्छा
आदमी हूं
प्रतिष्ठित, सुंदर,
सुसंस्कृत
आदमी हूं। और
यह आकस्मिक है
कि कभी—कभी
तुम अपनी
प्रतिमा से
गिर जाते हो।
और तब तुम
अपनी प्रतिमा
को फिर संवार
लेते हो।
लेकिन यह
आकस्मिक नहीं
है; असल
में वही
तुम्हारा
असली रूप है।
जब तुम क्रोध
में होते हो
तब तुम्हारा
असली रूप अधिक
सच्चाई से प्रकट
—बजाय उन
क्षणों के जब
तुम झूठी
मुसकान ओढ़े
रहते हो। जब तुम
अपनी घृणा
प्रकट करते हो
तब तुम ज्यादा
प्रामाणिक हो—बजाय
उन क्षणों के
जब तुम प्रेम
का ढोंग करते
हो।
पहली
बात है कि
प्रामाणिक
बनो,
सच्चे होओ।
घृणा को, क्रोध
को, तुम्हारे
भीतर जो भी है, सबको सम्मिलित
करो। क्या होगा? अगर तुम सब कुछ
सम्मिलित कर
लेते हो तुम्हारी
झूठी प्रतिमा
सदा के लिए
गिर जाएगी। और
यह शुभ है। यह
कितना सुंदर
है कि तुम
अपनी झूठी
प्रतिमा सै, अपने
मुखौटों से
मुक्त हो जाओ।
क्योंकि यह
झूठी प्रतिमा
ही जीवन में
जटिलताएं पैदा
करती है। इस
प्रतिमा के
गिरते ही
तुम्हारा
अहंकार गिर जाएगा।
और अहंकार का
विसर्जन धर्म
का द्वार है।
जब
तुम कहते हो
कि मैं क्रोध
हूं तब
तुम्हारा अहंकार
कैसे खड़ा रह
सकता है? जब
तुम कहते हो
कि मैं घृणा
हूं? मैं
ईर्ष्या हूं
मैं क्रूरता
हूं? मैं
हिंसा हूं तब
तुम्हारा
अहंकार कैसे
खड़ा रह सकता
है? अहंकार
तो तब खडा
होता है जब
तुम कहते हो
कि मैं ब्रह्म
हूं मैं
परमेश्वर हूं।
तब अहंकार
आसान है। मैं
आत्मा हूं
परमात्मा हूं—यह
मानने से
तुम्हारा
अहंकार सरलता
से खड़ा हो सकता
है। लेकिन जब
तुम कहते हो
कि मैं
ईर्ष्या, घृणा,
काम, क्रोध,
वासना हूं, तब
तुम्हारा
अहंकार नहीं
रह सकता। झूठी
प्रतिमा के
गिरने के साथ
ही अहंकार गिर
जाता है, तुम
सच्चे और
स्वाभाविक हो
जाते हो। और
तभी अपनी
यथार्थ
स्थिति को
समझना संभव है।
तब तुम अपने
क्रोध के पास
निर्विरोध
भाव से जा
सकते हो, उसे
देख सकते हो।
वह तुम ही हो।
तुम्हें
समझना है कि
वह मेरी ही
ऊर्जा है।
और
अगर तुम अपने
क्रोध के
प्रति
समझपूर्ण हो सके
तो यह समझ ही
क्रोध को बदल
देती है, रूपांतरित
कर देती है।
अगर तुम क्रोध
और घृणा की
पूरी
प्रक्रिया को समझ
सके तो उस
समझने में ही
क्रोध, घृणा,
सब विदा हो
जाता है।
क्योंकि
क्रोध के, घृणा
के होने के
लिए बुनियादी
जरूरत है उनके
प्रति बेहोश
होना, अनजान
होना, सोया
होना। जब भी
तुम सजग नहीं
हो, क्रोध
संभव है। और
जब तुम सजग हो
तो क्रोध
असंभव है। जो
ऊर्जा क्रोध
बन सकती थी
वही सजगता में
समाहित हो
जाती है।
बुद्ध
बार—बार अपने
भिक्षुओं से
कहते हैं. 'मैं
यह नहीं कहता
कि क्रोध मत
करो, मैं
कहता हूं कि
जब तुम क्रोध
करो तो सजग
रहो। यही
वस्तुत:
रूपांतरण का
मूलभूत
सिद्धात है।
मैं यह नहीं
कहता कि क्रोध
मत करो, मैं
कहता हूं कि
जब क्रोध आए
तो सजग रहो।’
इसे
प्रयोग करो।
जब क्रोध आए
तब सजग हो जाओ।
उसे देखो।
उसका
निरीक्षण करो।
उसके प्रति
होश रखो, सोए
मत रहो। और
तुम जितना होश
रखो, क्रोध
उतना ही कम
होगा। और जिस
क्षण तुम पूरी
तरह सजग होगे,
क्रोध
बिलकुल नहीं
होगा। जो
ऊर्जा क्रोध
बनती है वही
ऊर्जा सजगता
बन जाती है।
ऊर्जा
तटस्थ है। वही
ऊर्जा क्रोध
बनती है, वही
ऊर्जा घृणा
बनती है। और
वही ऊर्जा
प्रेम बनती है,
वही ऊर्जा
करुणा बनती है।
ऊर्जा तो एक
है, क्रोध,
घृणा, प्रेम,
उसकी
अभिव्यक्तियां
हैं। और ऐसी
कुछ आधारभूत
स्थितियां
हैं जिनमें ऊर्जा
कोई विशेष
वृत्ति का रूप
ले लेती है।
अगर तुम मूर्च्छित
हो तो ऊर्जा
क्रोध बन सकती
है, काम बन
सकती है, हिंसा
बन सकती है।
अगर तुम
जागरूक हो, सावचेत हो
तो ऊर्जा यह
सब नहीं बन
सकती; होश, बोध, चैतन्य,
ऊर्जा को उन
मार्गों में
जाने नहीं
देता है। तब ऊर्जा
एक भिन्न
धरातल पर गति करती
है—वही ऊर्जा।
बुद्ध
कहते हैं : 'चलो,
बैठो, भोजन
करो—जो भी करो
पूरे सावचेत
होकर करो, पूरे
बोध के साथ करो
कि यह कर रहा
हूं।’
एक
बार ऐसा हुआ
कि बुद्ध टहल
रहे थे और एक
मक्खी आई और
उनके माथे पर
बैठ गई। बुद्ध
कुछ भिक्षुओं
से बातें कर रहे
थे,
तो मक्खी पर
ध्यान दिए
बिना ही
उन्होंने
अपना हाथ
हिलाया और
मक्खी उड़ गई।
फिर उन्हें
बोध हुआ कि
मैंने कुछ
किया जो बोधपूर्ण
नहीं था; क्योंकि
मेरा बोध तो
उन भिक्षुओं
के प्रति था जिनसे
मैं बात कर
रहा था।
उन्होंने
भिक्षुओं से
कहा 'मुझे एक
क्षण के लिए
क्षमा करो।’ फिर
उन्होंने आख
बंद की और
अपना हाथ
उठाया।
भिक्षु चकित
हुए कि बुद्ध
क्या कर रहे
हैं! क्योंकि
अब कोई मक्खी
तो वहां थी
नहीं।
उन्होंने
दोबारा अपना
हाथ उठाया और
उसी स्थान पर
हिलाया जहां
मक्खी बैठी थी—यद्यपि
अब वह वहां
नहीं है।
उन्होंने
अपना हाथ नीचे
किया, आंखें
खोलीं और
भिक्षुओं से
कहा: 'अब
तुम पूछ सकते
हो।’
लेकिन
उन भिक्षुओं
ने कहा. 'हम तो
भूल ही गए कि
क्या पूछना
चाहते थे। अब
हम पूछना
चाहते हैं कि
यह आपने क्या
किया? मक्खी
तो अभी नहीं
थी, पहले
जरूर थी, फिर
आप क्या कर
रहे थे?' बुद्ध
ने कहा. 'मैंने
वह किया जो
मुझे पहले
करना चाहिए था,
पूरी सजगता
से हाथ उठाना
चाहिए था। यह
मेरे लिए
अच्छा नहीं था;
यह बिलकुल
बेहोशी में, यंत्रवत
किया गया था।’
ऐसा
होश,
ऐसा चैतन्य
क्रोध नहीं बन
सकता है। ऐसी
सजगता घृणा
नहीं बन सकती
है। यह असंभव
है।
तो
पहले घृणा को, क्रोध
को, जो भी बुरा
माना जाता है,
सबको
सम्मिलित करो।
उसे अपने में
समाविष्ट करो,
अपनी
प्रतिमा में
शामिल करो, ताकि
तुम्हारा
अहंकार गिर
जाए, तुम
आसमान से जमीन
पर उतर आओ।
तुम सच्चे बनी।
फिर
क्रोध या घृणा
को किसी दूसरे
पर मत फेंको।
उसे रहने दो, उसे
आकाश के प्रति
व्यक्त करो।
पूरे सावचेत
हो जाओ। अगर
तुम क्रोध में
हो तो एक कमरे
में चले जाओ, स्वात में
चले जाओ और
वहां क्रोध
करो, वहां
क्रोध को
प्रकट करो—और
सजग रहो। वह
सब करो जो तुम
उस व्यक्ति के
साथ करते जो
तुम्हारे
क्रोध का
निमित्त बना
था। तुम उसका
चित्र कमरे
में रख सकते
हो, या
उसकी जगह एक
तकिया रख सकते
हो। और उससे
कहो. तुम मेरे
पिता हो। और
फिर उसकी खूब
पिटाई करो।
लेकिन पूरी
तरह सजग रहो।
पूरी तरह सजग
रहो कि तुम
क्या कर रहे
हो, और करो।
और
एक अदभुत
अनुभव होगा।
क्रोध की पूरी
अभिव्यक्ति
होगी और तुम
सजग रहोगे। और
तुम हंसोगे, तुम
जानोगे कि मैं
भी क्या—क्या
मूढ़ताएं करता
हूं। लेकिन
तुम यही सब
असली पिता के
साथ कर सकते
थे—अभी तुम
सिर्फ तकिए के
साथ कर रहे हो।
और
अगर तुम यह
प्रामाणिकता
से कर सके तो
तुम अपने पिता
के प्रति बहुत
करुणा से भर
जाओगे, बहुत
प्रेमपूर्ण
हो जाओगे। जब
तुम कमरे से
बाहर आओगे और
अपने पिता को
देखोगे तो तुम
अपने को उनके
प्रति बहुत
करुणा, बहुत
प्रेम से भरा
पाओगे। और
तुम्हें भाव
होगा कि उनसे
क्षमा मांग लो।
मेरा
यही मतलब है
जब मैं कहता
हूं कि सबको
अपने में
सम्मिलित करो।
उसका अर्थ दमन
नहीं है। दमन
सदा खतरनाक है, जहर
है। जो भी तुम
दमित करते हो
उससे तुम
सिर्फ आंतरिक
जटिलताएं ही
निर्मित करते
हो। वे
जटिलताएं
जारी रहेंगी
और तुम्हें
अंततः पागल
बनाकर
छोड़ेंगी। दमन
की अंतिम परिणति
पागलपन है। तो
प्रकट करो, अभिव्यक्त
करो। लेकिन
किसी दूसरे पर
मत प्रकट करो।
उसकी जरूरत
नहीं है, वह
मूढ़ता है। और
उससे एक दुश्चक्र
निर्मित होता
है। अकेले में
प्रकट करो।
और
ध्यानपूर्वक
प्रकट करो। और
प्रकट करते
हुए सजग रहो।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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