विराम है द्वार राम का—(प्रवचन—चौहदवां)
दिनांक: 14 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अंध
है।
लखत लखत
लखि परै, कटै जमफंद
है।।
कहन
सुनन कछु
नाहिं, नहिं
कछु करन है।
जीते—जी
मरि रहै, बहुरि नहिं
मरन है।।
जोगी
पड़े वियोग, कहैं घर दूर
है।
पासहि
बसत हजूर, तू चढ़त
खजूर है।।
बाह्मन दिच्छा देत सो, घर घर घालिहै।
मूर
सजीवन पास, तू पाहन पालिहै।।
ऐसन साहब
कबीर, सलोना
आप है।
नहीं
जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं
पाप है।।
प्रभु
तो पास है।
पास कहना भी
ठीक नहीं, क्योंकि पास
से पास में भी
थोड़ी दूरी बनी
रहती है।
इसलिए यही
उचित है कहना
कि प्रभु दूर
नहीं है।
वस्तुतः तो
प्रभु
तुम्हारा
आत्यंतिक
होना है।
जैसे, कली और फूल
में क्या
फासला है? कली
होने वाला फूल
है। अभी कली
है, अभी
फूल हो जाएगी।
कली में फूल
छिपा है; फूल
में कली छिपी
है। कली और
फूल किसी एक
ही घटना के दो
कदम हैं। जो
कली में छिपा
है वही फूल में
प्रगट हो
जाएगा। जो कली
में बंद है
वही फूल में
खुल जाएगा।
ऐसे ही
तुम्हारा और
प्रभु का नाता
है। तुम अगर
कली हो तो वह
फूल है। तुम
अगर बीज हो तो
वह वृक्ष है।
तुम्हारा
होना और उसका
होना दो बातें
नहीं, किसी
एक ही बात के
दो चरण हैं।
इसे
बहुत ठीक से
समझ लेना
जरूरी है। यह
समझ में इतना
गहरा बैठ जाए, इतना गहरे
बैठे जाए कि
तुम्हारे रोएं—रोएं में
यह प्रतीति
होने लगे, तो
प्रभु को पाने
में फिर जरा
भी देर नहीं।
अगर यह
प्रतीति
समग्र हो जाए;
अगर श्वांस—श्वांस,
धड़कन—धड़कन
यह अहसास कर
ले कि मैं कली
हूं, वह
फूल है; यह
धारणा इतनी
सघन हो जाए कि
इससे भिन्न
धारणा की कोई
जगह ही
तुम्हारे भीतर
न बचे—तो इसी
क्षण कली फूल
हो जाए; इसी
क्षण बीज टूट
जाए, अंकुर
निकल आए, क्षण
की भी देरी न
हो।
लेकिन
यह प्रतीति
आवश्यक है। और
इस प्रतीति के
होने में सबसे
बड़ी बाधा
तुम्हारा मन
है। तुम्हारा
मन कहेगा, यह हो ही
कैसे सकता है?
और बड़ी से
बड़ी बाधा
तुम्हारे
आसपास
तुम्हें घेरे
हुए पंडितों
का जाल है। वे
भी कहेंगे, यह कैसे हो
सकता है? उन्होंने
तो इससे उलटी
ही बात
तुम्हें
सिखाई है।
उन्होंने
तुमसे यह नहीं
कहा है कि
परमात्मा
तुम्हारे
निकट है; उन्होंने
तो तुमसे यही
कहा है कि तुमसे
ज्यादा
निंदनीय और
कोई भी नहीं; तुम ऐसे
निंदित हो कि
परमात्मा
तुम्हारे निकट
हो ही कैसे
सकता है? उन्होंने
तो सिर्फ
तुम्हें नरक
का आभास दिलाया
है, स्वर्ग
का नहीं। और
हजारों—हजारों
साल के शिक्षण—दीक्षण
ने तुम्हारे
मन में यह बात
गहरे में जमा
दी है कि तुम
सिर्फ निंदा
के पात्र हो।
नरक के
अतिरिक्त
तुम्हें अपने
होने के लिए
कोई और दूसरा
उपाय दिखाई नहीं
पड़ता। और तुम
जितना अपने को
निंदित समझोगे,
उतना ही
परमात्मा दूर
है; कली
खिल नहीं
सकती।
तुम्हीं कली
को न खिलने
दोगे।
तुम्हारा
निंदा का भाव
ही कली के खिलने
में सबसे बड़ी
बाधा बन
जाएगी। और
उन्होंने
कैसी सरल—सीधी
बातों को
निंदित कर
दिया है कि
बड़ी कठिनाई
है।
कल एक
युवक आया।
युवक है, तो
स्वभावतः
वासना जगेगी,
कुछ
आश्चर्यजनक
नहीं है, न जगे तो ही
आश्चर्यजनक
है। युवक हो
और अगर वासना
न जगे तो
उसका अर्थ यही
हुआ कि कहीं न
कहीं शरीर में,
मन में कुछ
कमी रह गई, कहीं
कोई बात चूक
गई। वासना तो
स्वाभाविक
है। लेकिन वह
युवक अपने को
बहुत निंदित
और दलित मान
रहा है, आत्मग्लानि
से भरा है। वह
कहता है, "मेरे
मन में बड़े
पाप उठ रहे
हैं। कैसे पाप
से छुटकारा हो?'
जिस
चीज को तुमने
पाप कह दिया, उससे छुटकारा
कभी भी न हो
सकेगा।
क्योंकि जिस
चीज को तुमने
पाप कह दिया, उतने ही में
मामला समाप्त
नहीं हो गया; उसके कारण
तुम पापी हो
गए। और पापी
परमात्मा के
निकट कैसे हो
सकेगा?
थोड़ा—सा
भोजन में रस
है, तो पाप।
थोड़ा कपड़ा
पहनने में रस
हो, तो
पाप। थोड़ी
ज्यादा देर सो
जाते हो सुबह,
तो पाप। सब
तरफ से पाप
खड़ा कर दिया
है निंदकों ने।
जहर फैलानेवालों
का बड़ा लंबा
इतिहास है।
उन्होंने सब
तरफ तुम्हें
निंदित कर
दिया है। उसके
पीछे कारण
हैं।
तुम
जितने निंदित
हो जाओ, उतने
ही पंडित
पूजित हो जाते
हैं। यह गणित
है। तुम जितने
निंदित हो जाओ,
उतना ही
पंडित पूजित
हो जाता है।
क्योंकि वह सुबह
पांच बजे उठता
है और तुम
नहीं उठ पाते।
वह ब्रह्ममुहूर्त
में उठता है।
वह उपवास करता
है, तुम
नहीं कर पाते।
त्यागी त्याग
करता है, तुम
नहीं कर पाते।
लेकिन तुम
जानकर चकित
होओगे कि सौ
में से
निन्यानबे
त्यागी इसलिए
त्याग कर रहे
हैं कि उनका
त्याग एक
अस्त्र है, जिसमें वे
तुम्हें
निंदित करते
हैं। उनका त्याग
उनके अहंकार
की एक
व्यवस्था है।
उपवास में मजा
उन्हें भी
नहीं आता, लेकिन
उपवास के कारण
भोजन करने
वालों को नरक
में भेजने की
जो सुविधा
उनके मन में आ
जाती है, वही
उपवास का रस
है।
उपवास
में किसको रस
आएगा? भूख
तो पीड़ा देगी।
यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। लेकिन अगर
मेरे एक दिन
उपवास करने से
लाखों लोगों
की तरफ मैं
निंदा से
देखने का मौका
पा सकता हूं, तो रस आ
जाएगा।
सौ में
से निन्यानबे
ब्रह्मचारी
सिर्फ इसलिए
ब्रह्मचारी
हैं कि उसके
कारण तुम सभी
पापी हो जाते
हो।
मेरे
एक मित्र हैं।
उनके पास बड़ा
मकान है। उस नगर
में उससे बड़ा
मकान किसी के
पास नहीं था।
फिर एक पड़ोसी
ने और बड़ा
मकान बना
लिया। उनका मकान
उतना का उतना
ही रहा, कोई
रत्तीभर फर्क
न आया; पर
वे उदास और
दुखी हो गए।
उनके घर में
मैं मेहमान था,
तो वे बड़े
चिंतित थे।
मैंने कहा, "मेरी समझ
में नहीं आता।
तुम्हारा
मकान ठीक वैसा
का वैसा है।' उन्होंने
कहा, "कैसे
वैसा का वैसा
रहेगा? पड़ोस
में देखते
नहीं, बड़ा
मकान खड़ा हो
गया? जब तक
इससे बड़ा मकान
मेरा न हो जाए,
तब तक चित्त
में अब शांति
नहीं।
दूसरे
को निंदित
करना हो तो एक
ही उपाय है कि
तुम जिस बात
की निंदा करते
हो, उसको
स्वयं न करो।
और सरल—से
उपाय हैं कि
कोई आदमी
विवाह नहीं
करता तो गैर—विवाहित
रहकर विवाहित
लोगों की
निंदा करता है।
सारी दुनिया
विवाहित
लोगों की
निंदित हो जाती
है। उसके
अहंकार की कोई
सीमा नहीं रहती।
अब यह
युवक, जो
मेरे पास कल
आया, वह
कहता है, "बड़े
पाप में पड़ा
हूं, इससे
छुटकारा दिलाएं।'
पाप
कहां है? जो
स्वाभाविक है
उसमें कोई पाप
नहीं। और ध्यान
रखने की बात
तो यह है कि
अगर तुमने पाप
समझा तो कभी
छूट न पाओगे।
अगर छूटना
चाहा तो कभी
छूट न पाओगे।
और अगर तुमने
प्रभु की
अनुकंपा समझी
इसे भी, तो
इसके द्वारा
भी तुम प्रभु
को पास ले आए, दूर न किया।
जरा सूक्ष्म
है, ठीक से
समझ लेना। अगर
तुमने कहा पाप
है, तो
कितनी बातें
घट रही हैं, तुम्हें पता
नहीं है। किसी
चीज को पाप
कहा तो तुम
पापी हो गए।
किसी चीज को
पाप कहा तो पूरी
प्रकृति पापी
हो गई, क्योंकि
उसी प्रकृति
से वह पाप
जन्मा है। और
किसी चीज को
अगर पाप कहा
तो बहुत गौर
से देखना, परमात्मा
भी पापी हो
गया, क्योंकि
उसके बिना इस
जगत में कुछ
भी नहीं घट सकता
है। वही बनाता
है, और पाप
बनाता है—पापी
हो गया।
जार्ज
गुरजिएफ कहा
करता था कि
सभी धर्म
परमात्मा के
खिलाफ हैं। और
यह बात सच है।
क्योंकि, जितनी
चीजों को तुम
पाप कह रहे हो,
उतने ही
अंशों में
परमात्मा की
भी निंदा कर
रहे हो।
अगर
तुमने एक चीज
की भी निंदा
की तो तुमने
उसके साथ पूरे
अस्तित्व को
निंदित कर
दिया। और यह
सब उसी का खेल
है। ये सब उसी
के रूप हैं।
वह भी निंदित
हो गया। फासला
बहुत भारी हो
गया। अब तुम
कभी न पहुंच
पाओगे। और अगर
तुमने अपनी
वासना को भी
उसका ही खेल
समझा... उसने ही
दिया है तो
जरूर कोई राज
होगा। शायद
यही राज हो कि
वासना में
तुम्हें
फेंके और तुम
न फिंको; वासना में
तुम्हें धकाए
और तुम उबर
जाओ; वासना
में तुम्हें
उतारे और तुम
अतिक्रमण कर जाओ—यही
राज होगा।
लेकिन
तब यह पाप
नहीं है, तब
यह शिक्षण
हुआ। तब यह
पाप नहीं है, तब यह
परमात्मा की
अनुकंपा हुई।
जैसे कि सोने को
आग में फेंको
तो निखरकर
वापस आता है, ऐसे
परमात्मा
तुम्हें
संसार में
फेंकता है कि
तुम निखरकर
वापस आ जाओ।
आग की निंदा
मत करो।
परमात्मा की अनुकंपा
को खोजो।
तत्क्षण तुम
पाओगे, वह
पास है—कली
खुलने लगी!
बुरे
से बुरे में
भी उसी का हाथ
जिसने देख लिया, वही साधु
है। लेकिन
जिनको तुम
साधु कहते हो,
वे अच्छे से
अच्छे में
बुराई खोज
लेते हैं।
एक
साधु मुझे
मिलने आए। वे
थोड़े चकित
हुए। जिस मकान
में मैं रहता
था उन दिनों, बड़ा बगीचा
था उसके आसपास,
बड़े फूल
खिले थे।
उन्होंने कहा,
"आप?'—और
मैं पौधों को
पानी दे रहा
था—"आप और
फूलों में
आपका रस है?'
फूल
में तो कोई
पाप नहीं
दिखाई पड़ता।
लेकिन उन्होंने
कहा, "आप, और
फूलों में रस?
आप जैसे
व्यक्ति को तो
सभी राग—रंग
से विमुक्त
होना चाहिए।'
फूल भी
राग—रंग हैं!
है तो। अगर
बहुत गौर से
देखो तो फूल
भी कामवासना
का ही हिस्सा
है।
अगर
तुम
वैज्ञानिक से
पूछो तो वह
बताएगा कि फूल
खिलता है, तो फूल में
जो मध्य में छिपे
हुए कण हैं, वे कण उसके वीर्यकण
हैं।
मधुमक्खियों,
मक्खियों
और तितलियों
के पंखों में
लगाकर उन कणों
को वह दूसरे
फूलों के पास
भेज रहा है।
वह फूल खुद तो
नहीं चल सकता,
इसलिए मादा
को नहीं खोज
सकता, तो
उसने एक तरकीब
निकाल ली है।
वह तरकीब बड़ी
कुशल है: वह
मधुमक्खी को
आकर्षित कर
लेता है।
मधुमक्खी उस पर
बैठती है तो
उसके पैरों
में उसके पराग
के कण लग जाते
हैं।
मधुमक्खी के
माध्यम से वह
अपने वीर्यकण
भेज रहा है।
मधुमक्खी फिर
मादा फूल पर
बैठेगी और वीर्यकण
छूट जाएंगे—दो
का मिलन हो
जाएगा।
गौर से
देखो तो फूल
भी कामवासना है।
अगर गौर से
देखो इस संसार
में तो
तुम्हें कामवासना
के अतिरिक्त
कुछ भी दिखाई
न पड़ेगा। सब
जगह नर—मादा
का खेल है।
इसलिए
जिन्होंने
धर्म की बड़ी गहरी
खोज की है, जैसे कि
हिंदुओं ने
बड़ी गहरी खोज
की है, तो
हिंदुओं ने
अपने सभी
परमात्मा के
रूप के साथ
नारी रूप को
संयुक्त रखा
है। तो राम के
साथ सीता है; साथ ही नहीं,
राम से भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। इसलिए
हिंदू सीता—राम
कहते हैं, राम—सीता
नहीं कहते; सीता को
पहले रखते
हैं। वे राधा—कृष्ण
कहते हैं; राधा
को पहले रखते
हैं।
जैनों
को यह बात
बहुत अखरती
रही है कि तुम
अपने भगवान के
साथ स्त्री को
क्यों खड़ा किए
हो?
महावीर
अकेले खड़े
हैं। महावीर
ने विवाह किया
था; लड़की हुई
थी उनके; दामाद
था। लेकिन
महावीर का
मानने वाला जो
कट्टरपंथी
संप्रदाय है—दिगंबर,
वह कहता है,
"उन्होंने
कभी विवाह
किया ही नहीं।
महावीर और विवाह
करें? पाप!
यह असंभव है! यह
कपोलकल्पित
है। यह अफवाह
है, विरोधियों
की उड़ाई
हुई।
राम और
सीता को जैन
नमस्कार भी
नहीं कर सकता, क्योंकि
कठिनाई सीता
की वजह से है।
राम को कोई
अड़चन नहीं है;
कर लेता, लेकिन यह
सीता माता जो
साथ खड़ी है, वह बर्दाश्त
के बाहर है।
लेकिन
पूरे जीवन का
खेल नर और
मादा—शक्ति का
खेल है। सारी
प्रकृति नर और
मादा—शक्ति का
मिलन है।
तो
क्यों तुम पाप
समझते हो? उस युवक को
मैंने कहा, "छोड़ो यह खयाल, अन्यथा
मरोगे, मुश्किल
में पड़ोगे।
पाप की तरह
देखते क्यों हो?
जो है उसके
ऊपर तुम अपनी
व्याख्या
क्यों आरोपित
करते हो कि यह
पाप है? फिर
पाप के कारण, पापी हो गए।
फिर अपराध का
भाव पैदा होता
है, गिल्ट पैदा होती
है।'
मनसविद
कहते हैं कि
समस्त धर्मों
ने आदमी का
शोषण किया है—एक
तरकीब से। वह
तरकीब है कि
आदमी को
अपराधी सिद्ध
कर दिया है।
अपराधी आदमी
डरता है। डरा
हुआ आदमी
घुटने टेककर
प्रार्थना
करता है।
अपराधी आदमी
डरता है, यज्ञ—हवन
करता है।
अपराधी आदमी
डरता है; पंडित
को, पुजारी
को दान देता
है। अपराधी
आदमी डरता है;
धर्मशाला, मंदिर बनाता
है। वह जो
अपराध उसके
भीतर है कि इतने
पाप किए हैं, इनके उत्तर
में कुछ तो
पुण्य कर लूं,
नहीं तो
परमात्मा के
सामने क्या
कहूंगा? बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाऊंगा।
पाप ही पाप है,
और दूसरे पलड़े पर
पुण्य बिलकुल
नहीं है—तो
थोड़ा पुण्य कर
लूं।
इसलिए
पहले
धर्मगुरु
समझाता है कि
तुम कितने पापी
हो; फिर
समझाता है, अब कुछ करो, इन पापों को मिटाओ।
इससे सारा
धर्म का शोषण
चलता है।
वस्तुतः
जिन्होंने
धर्म को जाना
है—बुद्ध
पुरुषों ने—उन्होंने
तुम्हें पापी
नहीं कहा।
उन्होंने तो
कहा कि तुम
ब्रह्म—स्वरूप
हो। उपनिषदों
ने तुम्हें
पापी नहीं कहा।
उन्होंने तो
कहा कि तुम
परमात्मा हो।
उन्होंने तो
कहा कि
तुम्हारे
भीतर वही छिपा
है जो
आत्यंतिक है।
तुम खालिस सोना
हो। थोड़ी
मिट्टी यहां—वहां
से लग भी गई
होगी तो क्या
घबड़ा रहे हो? क्या डर का
कारण है?
मिट्टी
कितनी ही
तुमसे लग जाए, तुम मिट्टी
नहीं हो सकते।
तुम गहनतम
नरक में भी
चले जाओ, तो
तुम्हारी अंतरज्योति
न बुझेगी,
जलती ही
रहेगी।
महापाप से घिर
जाओ, तो भी
तुम्हारे उद्धार
का उपाय
समाप्त नहीं
हो गया है।
तुम एक क्षण
में वहां से
छलांग लगा
सकते हो। तुम
अपने को खो न
सकोगे।
तुम्हारे
होने में ही
परमात्मा
छिपा है। तुम कितने
ही उससे दूर
निकल जाओ, जरा तुम मुड़ोगे,
और उसे तुम
पीछे खड़ा हुआ
पाओगे। ऐसे ही
जैसे कि कोई
सूरज की तरफ
पीठ करके चले,
चलता रहे, हजारों मील
चलता रहे—क्या
तुम सोचते हो,
सूरज उससे
हजारों मील
दूर हो जाता
है? जिस
क्षण वह लौटकर
देखेगा, सूरज
को पीछे
पाएगा। सूरज
तो फिर भी दूर
है; जिस
सूरज की कबीर
बात कर रहे
हैं, जिस
सूरज की मैं
बात कर रहा
हूं—तुम कहीं
भी भागोगे, तुम उससे
भाग न सकोगे, क्योंकि तुम
भी वही हो।
सबसे
बड़ी उदघोषणा
जो तुम्हें
अपने जीवन में
कर लेनी है, वह यह है कि
मेरे भीतर
छिपा
परमात्मा है।
इस उदघोषणा
के साथ ही
तुम्हारे पाप
धुल जाएंगे।
इस उदघोषणा
के साथ ही
कांटे झड़
जाएंगे। इस उदघोषणा
के साथ ही तुम
पाओगे कि अंधेरा
खुद तुमसे
डरने लगा। और
मजा तो तभी है
जब पाप तुमसे
डरे। तुम पाप
से डरो, मजा
नहीं है—जीवन
रुग्ण हो गया।
मजा तो तभी है,
जब तुम जहां
जाओ, वहां
रोशनी पहुंच
जाए। तुम
अंधेरे से भागो,
यह बात शोभा
नहीं देती।
इसलिए
कबीर के ये
वचन तुम्हें
बड़े
क्रांतिकारी
मालूम पड़ेंगे, हैं भी; जलते
हुए अंगारे
हैं। जिस हृदय
को इन्होंने छू
लिया, उस
हृदय को
रूपांतरित कर
दिया। इन
वचनों से जो
बच गया, वह
अभागा है।
एक—एक
शब्द को गौर
से सुनना।
"घर घर दीपक बरै, लखै
नहिं अंध है।'
कबीर
कह रहे हैं, घर—घर में जल
रहा है उसका
दीया। घर—घर
में उसी का
नूर है। घर—घर
यानी शरीर—शरीर,
जल रही है
उसी की
ज्योति। बड़ी
मजे की बात है,
फिर भी
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती! कैसे
अंधे हो।
और यह
अंधापन भी
साधारण
अंधापन नहीं
है। यह अंधापन
ऐसा नहीं है
कि आंख
तुम्हारे पास
न हो। तुम बने
हुए अंधे हो।
आंख तुम्हारे
पास है, और
बंद किए बैठे
हो। अंधे भी
होते तो क्षमा
के योग्य थे।
क्या करोगे? आंख ही नहीं
होगी तो तुम
भी क्या करोगे?
पर आंख है।
भीतर की आंख
कभी भी अंधी
नहीं होती।
क्योंकि भीतर
आंख का अर्थ
केवल होता है,
होश की
क्षमता। वह तो
सभी में है।
चैतन्य तो सभी
में है। वही
भीतर की आंख
है, लेकिन
तुम बंद किए
बैठे हो। न
केवल तुम बंद
किए बैठे हो, बल्कि तुमने
बड़ी श्रद्धा
कर ली है अपने
अंधेपन पर।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन मेरे
पास आया। एक
तो चश्मा वह
लगाए हुए था, दो हाथ में
लिए हुए था।
मैंने पूछा कि
मामला क्या है,
इतने चश्मे?
उसने कहा कि
एक पास देखने
के लिए, एक
दूर देखने के
लिए और तीसरा
दो को खोजने
के लिए। मैंने
कहा, "तुम
एक काम करो: एक
चश्मा और खरीद
लो; तीन कम
हैं।'
उसने
कहा, "चौथा किसलिए?'
मैंने
कहा, "तुम
सोचकर आओ।'
रात भर
सोचता रहा, सुबह आकर
उसने कहा, "बहुत
सोचा लेकिन
कुछ समझा
नहीं। तीन में
बात खतम हो
जाती है, चौथे
की कुछ समझ
में नहीं आती।'
मैंने
कहा, "भीतर
कैसे देखोगे?
उसकी तो याद
ही नहीं आती।
दूर का इंतजाम
कर लिया। पास
का इंतजाम कर
लिया। दोनों
चश्मों को खोजने
का भी इंतजाम
कर लिया। सब
इंतजाम तुमने
कर लिया—लेकिन
बाहर का। भीतर
का भी कुछ
खयाल है?'
और
भीतर ही जल
रही है रोशनी।
और जब तक
तुम्हें अपने
भीतर की रोशनी
न दिखाई पड़े, तब तक
तुम्हें किसी
की भी भीतर की
रोशनी न दिखाई
पड़ेगी। जब तक
तुम अपने को
शरीर मानोगे,
दूसरे भी
तुम्हें शरीर
जैसे ही दिखाई
पड़ेंगे।
क्योंकि
दूसरे का बोध
तुम्हारे
आत्मबोध से ऊपर
नहीं जा सकता।
जिस दिन
तुम्हें भीतर
का जलता हुआ
प्रकाश दिखाई
पड़ेगा, उसी
क्षण तुम्हें
सभी घर में
दीए दिखाई पड़
जाएंगे। ऐसा
ही नहीं कि
मनुष्यों में,
पशुओं में,
पक्षियों
में, पौधों
में भी
तुम्हें जलती
हुई आंख दिखाई
पड़ेगी।
सब
रोशन है, सारा
जगत रोशन है।
यहां रोशनी के
सिवाय कुछ है
ही नहीं।
प्रत्येक चीज
रोशनी से बनी
है। रोशनी मूल
आधार है।
"घर—घर
दीपक बरै,
लखै नहिं अंध
है।'
पर बड़े
अदभुत अंधे हो
तुम कि घर—घर
जो दीया जल
रहा है, और
दूसरों के
घरों में ही
नहीं, तुम्हारे
घर में भी जो
दीया जल रहा
है, वह भी
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता।
एक
आध्यात्मिक
अंधापन है।
तुम भीतर
देखते ही नहीं।
तुम भीतर
देखने की कला
ही भूल गए हो।
तुम इतने समय
तक बाहर देखते
रहे हो कि
तुम्हारी आंखें
जड़ हो गई हैं; वे भीतर की
तरफ मुड़ती
ही नहीं।
पक्षाघात
जैसे हो जाता
है, पेरेलिसिस जैसे हो
जाती है, जैसे
एक आदमी बैठा
ही रहे वर्षों
तक और पैरों
को न चलाए—तो
फिर न चला
सकेगा, फिर
पैर जड़ हो
जाएंगे, पक्षाघात
हो जाएगा।
एक
आदमी आंखों को
बंद किए बैठा
रहे कई वर्षों
तक अंधेरे में, तो आंखें
फिर रोशनी को
देखने में
समर्थ न रह जाएंगी।
क्योंकि
प्रत्येक चीज
सक्रिय रहने से
सतेज रहती है,
निष्क्रिय
होने से
क्षमता खो
देती है।
तुम्हारी
भीतर की तरफ
देखने की
क्षमता जंग खा
गई है; तुमने
उसका उपयोग ही
नहीं किया। और
इसलिए तुम अंधे
जैसे मालूम पड़
रहे हो। अंधे
तुम हो नहीं।
अंधे तुम हो
नहीं सकते। और
अगर तुम्हें
लगता हो कि
तुम अंधे हो, और अगर तुमने
यह मान लिया
कि तुम अंधे
हो तो
तुम्हारी मान्यता
ही तुम्हारी
मृत्यु हो
जाएगी।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है! लोग
आते हैं, वे
पूछते हैं कि
"ईश्वर कहां
है? आप
हमें दिखा
दें।' वे
यह नहीं पूछते
कि क्या हो
सकता है, ईश्वर
तो हो और
हमारे पास
देखने की कला
न हो। आप हमें
देखने की कला
सिखा दें; वह
यह नहीं
पूछते। वे
पूछते हैं, "ईश्वर कहां
है? अगर है
तो दिखा दें।'
उन सभी
को यही
भ्रांति है कि
जैसे अगर
ईश्वर हो तो
तुम्हें
दिखाई पड़ ही
जाएगा; तुम्हारे
देखने की
क्षमता की
जैसे कोई
जरूरत ही नहीं
है। जैसे अंधा
कहे, प्रकाश
को दिखा दें—कैसे
दिखाइएगा
प्रकाश अंधे
को? बहरे
को कैसे सुनवाइएगा
संगीत? नासापुट
जिसके जड़ हो
गए हों, उसे
कैसे गंध का
बोध दिलवाइएगा?
सारा जगत
भरा हो सुगंध
से, पर
जिसकी नाक में
पक्षाघात लग
गया है तो
क्या कोई उपाय
है? और
वैसा आदमी अगर
जिद्द कर
ले कि जब तक
परमात्मा न दिखेगा,
तब तक मैं
मान न सकूंगा,
तो वैसा
आदमी सदा के
लिए अंधा रह
जाएगा। क्योंकि
वह यह कह रहा
है कि मैं मानूंगा
तभी जब दिखाई
पड़ जाएगा।
यही
श्रद्धा के
सूत्र का अर्थ
है।
श्रद्धा
का अर्थ है:
जिसे मानने के
लिए तर्क के
पास कोई कारण
न हो; जिसे
मानना बिलकुल
असंभव मालूम
पड़े, जिसे
मानना बिलकुल
ही अतक्र्य हो—उसे
मान लेना। जो
दिखाई न पड़ता
हो, जिसका
स्पर्श न होता
हो, जिसकी
गंध न आती हो, और जिसको
मानने के लिए
कोई भी आधार न
हो—उसे मान
लेने का नाम
है श्रद्धा।
लेकिन
श्रद्धा
बहुमूल्य
सूत्र है। वह
अंत नहीं है, शुरूआत है।
जिसे तुम मान
लेते हो, उसकी
खोज की
संभावना शुरू
हो जाती है।
वैज्ञानिक हायपोथिसिस
निर्मित करते
हैं। श्रद्धा हायपोथिसिस
है। हायपोथिसिस
का मतलब होता
है कि पहले
वैज्ञानिक एक
सिद्धांत तय
करता है, क्योंकि
बिना
सिद्धांत तय
किए तुम जाओगे
कहां, खोजोगे कैसे क्या खोजोगे? खोज की
शुरूआत ही न
हो सकेगी। वह
सिद्धांत
सिर्फ
प्रारंभ है, वह कोई अंत
नहीं है।
लेकिन उससे
द्वार खुलता है,
उससे
संभावना
निर्मित होती
है—फिर आदमी
खोज में
निकलता है। हो
सकता है वह मिले,
हो सकता है
न मिले।
क्योंकि
अंधेरे में
तुमने जो तय
किया था, उसके
मिलने की कोई
जरूरत नहीं
है। लेकिन एक
बात पक्की है:
हो सकता है, तुमने जो तय
किया था वह न
मिले; लेकिन
कुछ मिलेगा।
परमात्मा
को तुम अभी
जानते नहीं, कोई पहचान
नहीं, कभी
देखा नहीं, कभी मिलन
नहीं हुआ।
श्रद्धा का
अभी तो इतना
ही अर्थ हो
सकता है कि हम
एक परिकल्पना
स्वीकार करते
हैं, और हम
खोज में लगते
हैं—शायद जो
परिकल्पना है
वैसा सिद्ध हो,
न हो। लेकिन
एक बात पक्की
है कि खोज
शुरू हो जाएगी।
आर जिसकी खोज
शुरू हो गई, अंत ज्यादा
दूर नहीं है।
और एक बात यह
भी पक्की है
कि
अज्ञानियों
ने जितने ढंग
से परमात्मा को
माना है, अंतिम
अर्थ में वे
कोई भी सही
सिद्ध नहीं
होती; वे
सभी परिकल्पनाएं
असिद्ध होती
हैं। जो प्रगट
होता है, वह
सभी परिकल्पनाओं
से ज्यादा
अनूठा है। जो
प्रकट होता है
वह तुम्हारी
सभी
मान्यताओं से
बहुत ऊपर है।
जो प्रगट होता
है, तुमने
उसे सोचा था
दीया; लेकिन
जो प्रगट होता
है वह महासूर्य
है। किसी की
परिकल्पना
परमात्मा के
संबंध में कभी
सही सिद्ध
नहीं होती, हो भी नहीं
सकती।
छोटा
सा मन है, छोटा
सा उसका आंगन
है—कितना बड़ा
आकाश उस आंगन
में समाएगा?
छोटे—छोटे
हाथ हैं। इन
छोटे—छोटे
हाथों से उस
विराट को छूने
की कोशिश—कितना
विराट तुम छू
पाओगे? बूंद
जैसी क्षमता
है, सागर
को खोजने
निकले हो—कितना
सागर तुम अपने
में ले पाओगे?
लेकिन
श्रद्धा के
बिना यात्रा
शुरू नहीं होती।
श्रद्धा का
कुल इतना ही
अर्थ है कि
साहस की हम
तैयारी करते
हैं, हम ज्ञात
से न बंधे
रहेंगे, अज्ञात
में, उतरने
के लिए हमारी
हिम्मत है; हम डरे—डरे
अपने घर में
कैद न रहेंगे,
हम खुले
आकाश के महाअभियान
पर निकलते
हैं।
एक बात
पक्की है कि
तुम जो भी
मानकर
निकलोगे, वह
तुम कभी न
पाओगे; क्योंकि
तुम अभी जानते
नहीं तो तुम
ठीक मान कैसे
सकोगे?
सम्यक
श्रद्धा तो
ज्ञान से घटित
होगी। लेकिन सम्यक
श्रद्धा के
पहले एक
परिकल्पित
श्रद्धा है, हायपोथेटिकल है।
वैज्ञानिक भी
उसके बिना काम
नहीं कर सकता,
तो धार्मिक
तो कैसे कर
सकेगा?
तो, श्रद्धाएं दो प्रकार
की हैं। एक
श्रद्धा है
साहस का नाम, जो अज्ञान
से बाहर लाती
है, द्वार
के बाद हृदय
में आरोपित
होती है। उस
दूसरी श्रद्धा
को फिर डिगाने
का कोई उपाय
नहीं है। पहली
भी उखाड़
ले सकता है।
नए रोपे की
बड़ी सुरक्षा
करनी पड़ती है,
चारों तरफ बागुड़
लगानी पड़ती है,
देखभाल
रखनी पड़ती है।
एक बार वृक्ष
की अपनी जड़ें
जमीन को पकड़
लेती हैं, एक
बार वृक्ष
जमीन के साथ
एक हो जाता है,
फिर बागुड़
की कोई जरूरत
नहीं। फिर
बच्चे उसे न उखाड़
पाएंगे। फिर
कोई उसे
नुकसान न
पहुंचा
पाएगा। फिर तो
वृक्ष बड़ा हो
जाएगा। फिर तो
सैकड़ों
लोग उसके नीचे
बैठकर छाया पा
सकेंगे।
इसलिए
प्राथमिक रूप
से जब श्रद्धा
में कोई उतरता
है तो बड़ी
सावधानी की
जरूरत है, क्योंकि
चारों तरफ
अंधों की भीड़
है। वह तुमसे
कहेगी, "क्या
मान रहे हो? क्या कर रहे
हो? पागल
हो गए? दिमाग
तो ठीक है?' वह
अंधों की भीड़
बच्चों की तरह
है; वह
तुम्हारे
पौधे को उखाड़
दे सकती है।
प्राथमिक
चरण में
श्रद्धा को
ऐसे ही बचाने
की जरूरत पड़ती
है, जैसे
स्त्री
गर्भिणी होती
है और अपने गर्भ
को बचाती है, संभलकर चलती
है, एक—एक
पैर संभालकर
उठाती है—कहीं
गिर न पड़े।
क्योंकि अगर
एक ही जीवन
नहीं, दो
जीवन दांव पर
लग गए हैं।
ऐसे ही जिस
दिन तुम्हारे
जीवन में
श्रद्धा का
बीज आरोपित
होता है—तुम
गर्भ से भर गए;
अब
परमात्मा ने
तुम्हारे
भीतर पहला रूप
लिया है।
बीज
वृक्ष की क्या
खबर दे सकता
है? बीज तो कंकड़—पत्थर
जैसा मालूम
पड़ता है। इससे
फूलों का क्या
नाता जोड़ोगे?
तो पहली
श्रद्धा कभी
भी अंतिम
श्रद्धा की
कोई झलक नहीं
दे सकती।
लेकिन पहली
श्रद्धा के
बिना अंतिम
श्रद्धा के
आने का कोई
उपाय नहीं। और
पहली श्रद्धा ही
तुम्हारे
जीवन—चिंतना
का ढंग बदलेगी,
शैली
बदलेगी। पहली
श्रद्धा का
अर्थ होता है:
अब तुम यह न
पूछोगे कि
परमात्मा है
या नहीं; अब
तुम यह पूछोगे
कि "मेरी आंख
कैसे सुधर जाए
कि अगर वह हो
तो उसे मैं
देख लूं; और
अगर न हो तो
उसके न होने
को देख लूं।
लेकिन आंख
मेरी कैसे
सुधर जाए?' तुम्हारी
सारी वृत्ति,
अब
परमात्मा है
या नहीं, इससे
संबंधित न रही;
अब इससे
संबंधित हो गई
कि मेरी देखने
की क्षमता
कैसे साफ हो
जाए। होगा तो
देखें लेंगे;
न होगा तो न—होना
देख लेंगे।
लेकिन अब बिना
देखे न रहेंगे।
जिसने यह तय
कर लिया कि अब
अंधे न रहेंगे;
अब आंख
चाहिए; बिना
देखे न रहेंगे;
न अब दर्शन
चाहिए—वह पहली
श्रद्धा को
उपलब्ध हुआ।
"घर—घर
दीपक बरै,
लखै नहिं अंध
है।
लखत लखत परै, कटै जमफंद
है।।'
और
जिसने देखने
की कोशिश की—"लखत लखत
लखि परै'—ऐसा देखते—देखते
एक दिन दिखाई
पड़ जाता है; क्योंकि वह
तो मौजूद है, सिर्फ आंख
की कमी है। ये
शब्द बड़े
बहुमूल्य हैं—"लखत लखत
लखि परै!'
ऐसा देखते
ही रहोगे, खोजते
ही रहोगे, टटोलते
ही रहोगे—इस
कोने, उस
कोने, इस
दिशा में, उस
दिशा में; इस
आयाम, उस
आयाम; रुकोगे न, देखते
ही रहोगे, खोजते
ही रहोगे—तो
देखते—देखते—देखते
एक दिन अचानक
आंख खुल जाती
है।
आंख तो
है, सिर्फ
उपयोग न करने
से बंद पड़ी
है। अंधे तुम
हो नहीं। अंधा
कोई भी नहीं
है। अंधे भी
अंधे नहीं
हैं। अंधे को
भी परमात्मा
दिखाई पड़ सकता
है, क्योंकि
बाहर की आंख
का कोई सवाल
नहीं है, भीतर
की ज्योति की
बात है।
"लखत लखत
लखि परै,
कटै जमफंद
है।' और
जैसे ही वह
दिखाई पड़ जाता
है, वैसे
ही मृत्यु का
पाश कट जाता
है। फिर मरने
वाला कोई भी न
बचा। जिसने
परमात्मा की
एक झलक भी पा
ली, उसने
अमृत की झलक
पा ली।
परमात्मा
यानी अमृत।
तुम यानी
मृत्यु। तुम जब
तक समझते हो
कि तुम ही हो, परमात्मा
नहीं, तब
तक तुम मृत्यु
के फंदे में
हो। जिस दिन
तुमने पाया कि
मैं नहीं हूं,
परमात्मा
है, उसी
क्षण—"कटै
जमफंद है!'
लेकिन
देखते—देखते—देखते
दिखाई पड़ता
है। ऐसे ही
जैसे की तुम
भरी दुपहरी
में लंबी
यात्रा करके
घर लौटे, धूप
से आंखें चकमका
गई हैं, धूप
ने लाखों को
थका डाला है, धूप ने
आंखों को बुरी
तरह आक्रमित
किया है—क्योंकि
धूप हमला करती
है आंख पर; हर
क्षण बाहर की
रोशनी आंख पर
चोट करती है—थके—मांदे,
धूप से थके—हारे
तुम घर लौटे
हो, अंधेरा
मालूम पड़ता है
घर में; कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता; आंखें
इतनी थक गई
हैं और धूप की
इतनी आदी हो
गई हैं कि यह
जो धीमी—सी
शांत रोशनी है
घर के भीतर, यह दिखाई
नहीं पड़ती।
लेकिन अगर तुम
शांत होकर, शिथिल होकर
लेट गए, बैठे
रहे थोड़ी देर—"लखत लखत
लखि परै'—धीरे—धीरे
आंख शांत
रोशनी के लिए
राजी हो जाती
है; फिर से
पा लेती है
अपनी ऊर्जा—विश्राम
से। धूप ने थकाया
था; वह
थकान मिट जाती
है। धीरे—धीरे
कमरे में
रोशनी ज्यादा
होने लगती है।
कमरा वही है, रोशनी उतनी
ही है; सिर्फ
तुम्हारी आंख
बदल रही है।
अब आंख की क्षमता
प्राप्त हो
रही है। अब
कमरे में
तुम्हें परिपूर्ण
रोशनी दिखाई
पड़ने लगती है।
चोर
अंधेरे घर में
भी देख लेता
है। तुम अपने
घर में न चल
सको, और चोर
तुम्हारे घर
में बड़ी शान
से चल लेता है।
तुम दिन में
भी चलते हो तो
चीजों से टकरा
जाते हो; तुम्हारे
पराए घर में
जहां चोर कभी
नहीं आया, वहां
वह इतना देखकर
चलता है, सम्हलकर
चलता है कि
तुम्हारी
जमाई हुई
चीजों से नहीं
टकराता।
अंधेरे में
चोर को धीरे—धीरे
दिखाई पड़ने
लगता है।
अंधेरे
में भी देखने
से दिखाई पड़ने
लगता है, तो
भीतर तो बड़ी
शांत रोशनी है,
अंधेरा
नहीं है।
लेकिन जो लोग
भी ध्यान में
पहली दफा
उतरते हैं, उनको यही
प्रतीत होता
है कि भीतर
अंधेरा है। लोग
मुझसे आकर
कहते हैं कि
आप कहते हैं
रोशनी, हम
आंख बंद करते
हैं, सिवाय
अंधेरे के कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
तुम
रोशनी से थके
हुए आए हो, जन्मों—जन्मों
तक धूप से
आक्रांत—थोड़ा
समय चाहिए। "लखत लखत
लखि परै।'
थोड़ा बैठो
भीतर, थोड़ा
विश्राम करो।
जल्दी मत करो।
अभी तुम्हारी
आंखों को भीतर
की रोशनी के
साथ तालमेल
बिठाना
पड़ेगा। जब
तालमेल बैठ
जाएगा, तब
तुम देख
पाओगे। तब एक
अनूठी रोशनी
का दर्शन होता
है, जो
रोशन तो है
लेकिन जलाती
नहीं।
यहूदियों
की बड़ी पुरानी
कथा है कि
हजरत मूसा जब सिनाई के
पर्वत पर गए
तो अचानक
उन्होंने
आवाज सुनी कि
जूते उतार दे, क्योंकि यह पवित्र
भूमि है। तो
डरकर
उन्होंने
जूते उतार दिए।
आगे बढ़े तो
उन्होंने एक
झाड़ी में आग
को जलते देखा।
वे बड़े हैरान
हो गए। वह बड़ा
चमत्कारी
अनुभव था। आग
तो जल रही थी
और झाड़ी जल
नहीं रही थी।
आग में तो
लपटें निकल
रही थी; झाड़ी
हरी की हरी
थी।
यहूदियों
को बड़ी
मुश्किल हुई
यह समझाने में
कि इसका क्या
मतलब होगा। इसका
मतलब बाहर की
किसी कथा से
नहीं है; इसका
मतलब भीतर की
आग से है।
भीतर एक ऐसी
आग है जो जलती
है और जलाती
नहीं। एक बड़ी
ठंडी रोशनी है;
ठंडी आग—बरफ
जैसी ठंडी, और आग जैसी
उज्जवल। जब
तुम भीतर
जाओगे तो बाहर
की रोशनी से इस
रोशनी का
गुणधर्म अलग
है। इसलिए
तुम्हारे पास
नई आंखें
चाहिए जो इसे
देख सकें। और
तुम्हें अपनी
आंखों को धीरे—धीरे
समायोजित
करना होगा।
ध्यान
की सारी
प्रक्रियाएं
और कुछ भी
नहीं हैं, सिवाय इसके
कि तुम्हारी
बाहर देखने के
लिए जो आदत
बनी है आंखों
की, उसमें
एक नई आदत को
प्रवेश करवा
दें कि तुम भीतर
देखते रहो, कितना ही
अंधेरा हो, अंधेरे को
ही देखते रहो—अंधेरे
को भी देखते—देखते—देखते
तुम एक दिन
पाओगे कि
अंधेरा कम
होने लगा; एक
धीमी—सी रोशनी
आने लगी। अगर
तुम देखते ही
गए, देखते
ही गए, तो
एक नई रोशनी
का जगत प्रारंभ
हो जाता है।
"लखत लखत
लखि परै,
कटै जमफंद
है।'
"कहन
सुनन कछु
नाहिं, नहिं
कछु करन है।'
कबीर
कहते हैं, न तो कुछ
कहने को है उस
संबंध में, क्योंकि जो
भी कहो, वह
गलत हो जाता
है; जो भी
कहो वह गलत
है। क्योंकि
भाषा तो बाहर
की है और
अनुभव भीतर का
है—तालमेल नहीं
बैठता। जो भी
कहो गलत हो
जाता है। सब
शास्त्र गलत
हो गए। सब
ज्ञानी गलत हो
गए। सिर्फ पंडित
को खयाल होता
है कि वह जो कह
रहा है वह सही
है; ज्ञानी
को तो पक्का
ही खयाल होता
है कि वह जो कह
रहा है वह सही
नहीं है। वह
कह रहा है
इसलिए नहीं कि
वह सोचता है
कि कह सकेगा; वह कह रहा है
इसलिए कि तुम
बिना कहे न सुनोगे।
तुम कहने से
भी नहीं सुन
पाते, तो
बिना कहे तो
सुनना बहुत
असंभव है।
ज्ञानी
के वचन भीतर
की बात कहने
के लिए नहीं हैं; जो बाहर भटक
रहे हैं, उनको
भीतर बुलाने
के लिए हैं।
ज्ञानी के वचन
तो ऐसे हैं
जैसे मंदिर का
घंटा होता है;
कुछ कहता
नहीं, सिर्फ
बुलाता है। हर
मंदिर के
सामने घंटा टंगा है।
मस्जिद के पास
सुबह अजान
देने के लिए
मुल्ला चढ़
जाता है।
ज्ञानी के वचन
तो अजान की
तरह हैं—कुछ
कहता नहीं; सिर्फ जो
सोए हैं, उनको
जगाता है, पुकारता
है, बुलाता
है। एक
निमंत्रण है
ज्ञानी के वचन
में, सत्य
की
अभिव्यक्ति
नहीं।
इसे
ठीक से समझ
लेना। पंडित
भर को यह खयाल
होता है कि वह
जो कह रहा है
वह ठीक कह रहा
है, क्योंकि
उसे पता नहीं
है कि ठीक
क्या है। उसे शब्दों
का ही पता है।
जिसे सत्य का
पता है वह भलीभांति
जानता है कि
कोई शब्द सत्य
को प्रकट करने
में समर्थ
नहीं है। वह
चेष्टा ही
असंभव है।
वह तो
ऐसा ही है, समझो कि कोई
सौंदर्य को
गणित की भाषा
में प्रगट
करना चाहे—कैसे
करिएगा? सौंदर्य
और गणित का
कोई मेल ही
नहीं बैठता।
अगर सौंदर्य
को प्रगट करना
हो तो काव्य
की भाषा चाहिए।
और वह भी कोई
साधारण
सौंदर्य हो तो
काव्य की भाषा
काम आ जाएगी; अगर कोई
असाधारण
सौंदर्य हो तो
काव्य भी ठिठककर
खड़ा हो जाएगा,
कविता भी
मूक हो जाएगी।
अगर
प्रेम की बात
कहनी हो तो
बाजार की भाषा
में नहीं कही
जा सकती।
बाजार की भाषा
प्रेम के लिए
नहीं है, शोषण
के लिए है।
बाजार की भाषा
बाजारू है। प्रेम
की भाषा हृदय
की है। और वह
भी छोटा—मोटा
प्रेम हो तो
थोड़ा—सा डगमगाकर
कुछ कहा जा
सकता है; लेकिन
वह भी ऐसा ही
होगा जैसे
छोटे बच्चे
तुतला रहे
हों। अगर
प्रेम
परमात्मा से
हो, भक्ति
हो, फिर
कुछ कहने का
उपाय नहीं, वहां तो मौन
ही एकमात्र
भाषा है।
सारी
भाषा बाहर की
है। भीतर की
कोई भाषा नहीं
है, हो ही
नहीं सकती।
पूछा
जा सकता है कि
हजारों—हजारों
साल से ज्ञानी
भीतर जा रहे
हैं, अब तक
भीतर की भाषा
विकसित क्यों
नहीं हुई? कोई
नई घटना तो
नहीं है। उस
भीतर के देश
में न मालूम
कितने लोग गए
हैं! न—मालूम
कितने लोग
वहां से डूबकर
और सिक्त होकर
आए हैं! न—मालूम
कितनों ने
भीतर के उस
अंतरध्यान
में लीनता पाई
है! अब तक भीतर
की भाषा
विकसित क्यों
नहीं हो सकी? कारण है।
भाषा की जरूरत
होती है, जहां
दो हों। भीतर
तो तुम अकेले
ही होते हो। अकेले
में तो भाषा
की कोई जरूरत
नहीं होती।
भाषा की जरूरत
होती है जहां
दो हों, जहां
द्वैत हो; अद्वैत
में तो भाषा
का कोई सवाल
ही नहीं उठता।
जहां अकेले ही
हैं, वहां
किससे बोलना
है, किसको
बोलना है? तो
भीतर तो आदमी
जाकर बिलकुल
गूंगा हो जाता
है। कबीर कहते
हैं, "गूंगे
केरी सरकरा,
खाए और मुसकाए।'
गूंगा खा
लेता है शक्कर,
और मुसकाता
है।
वैसे
ही भीतर का
अनुभव है कि
वहां एक ही
बचता है, और
वह भी इतने
अपरिसीम आनंद—उत्सव
में लीन हो
जाता है कि
कौन खोजे
भाषा और किसके
लिए खोजे?
जब बाहर आता
है भीतर से, तब अड़चन
शुरू होती है—बाहर
खड़े हैं लोग, इनको बताना
मुश्किल हो
जाता है। तो
कबीर कहते हैं,
"कहन सुनन
कछु नाहिं'—न तो कुछ
कहने को है, न कुछ सुनने
को है। कहना—सुनना
दोनों छोड़कर,
मार्ग पकड़ना
है "होने' का।
बहुत कहा गया,
बहुत सुना
गया है—कुछ भी
हुआ नहीं।
"होने' का
एकमात्र
मार्ग है।
"नहीं
कछु करन है'—करने को भी
कुछ नहीं है।
इसलिए
मैं कहता हूं, ये बड़े
क्रांतिकारी
वचन हैं। कोई
करने की बात नहीं
है। क्या
करोगे उसे
पाने के लिए? जिसे पाया
ही हुआ है, उसे
पाने के लिए
क्या करोगे? जो भीतर
छिपा ही है, मौजूद है, जो तुम्हारे
साथ ही चला
आया है, जो
तुम्हारी
अंतर—संपदा है—उसे
पाने के लिए
क्या करोगे? उसे जितना
तुम पाने की
कोशिश करोगे,
उतनी ही
अड़चन खड़ी
होगी। जैसे
कोई अपनी ही
खोज में निकल
जाए—भटकेगा।
दूसरे की खोज,
समझ में आती
है; अपनी
ही खोज—कहां खोजोगे? हिमालय
जाओगे? मक्का—मदीना,
काशी, गिरनार—कहां
जाओगे?
एक दिन
बाजार में
लोगों ने देखा
कि नसरुद्दीन
अपने गधे पर
बैठा तेजी से
भागा जा रहा
है। भीड़ में से
कुछ लोग
चिल्लाए, "नसरुद्दीन,
कहां जा रहे
हो?' लेकिन
उसने कहा कि
अभी समय नहीं,
जल्दी में
हूं। और वह भी
भागते हुए, गधे पर उसने
चिल्लाकर कहा
कि अभी समय
नहीं है, बहुत
जल्दी में
हूं। घंटे भर
बाद वापस लौट
रहा था—बहुत
उदास, तो
लोगों ने पूछा,
"मामला
क्या था? इतनी
जल्दी क्या थी?'
उसने कहा कि
मैं अपने गधे
को खोजने जा
रहा था और
इतनी जल्दी
में था कि यही
भूल गया कि
मैं गधे पर ही
बैठा हुआ हूं।
जल्दी के कारण
इतनी भी फुर्सत
न मिली कि मैं
ठीक से देख
लूं।
बहुत
बार ऐसा हो
जाता है कि
तुम चश्मा
लगाए हो और
चश्मा खोज रहे
हो; चश्मे ही
से चश्मा खोज
रहे हो। और
जल्दी में अक्सर
हो जाता है।
कभी अगर
तुम्हें
जल्दी ट्रेन पकड़नी है, तो तुम्हें
पता होगा कि
जो बटन सदा
अपने ही काज
में लगती थी, वह दूसरे
काज में लग
जाती है।
जल्दी में...!
एक
होटल में आग
लग गई। बड़ी घबड़ाहट
फैल गई।
विक्षिप्तता
आ गई लोगों
में। भयंकर आग
थी, बामुश्किल
लोग बाहर निकल
पाए। नसरुद्दीन
भी होटल में
ठहरा हुआ था।
वह नीचे बढ़ा, शान से सीढ़ियां
उतरते हुआ और और उसने
कहा, "क्या
मर्द होकर, और इस तरह
शोरगुल मचा
रहे हो? एक
मुझ को देखो।
जब मैंने देखा
कि आग लग गई, तो उस वक्त
मैं चाय पी
रहा था। तो
पहले तो मैंने
अपनी चाय पूरी
की, फिर
अपनी टाई
बांधी। टाई की
गांठ ठीक न
लगी थी तो आइने
के पास जाकर
गांठ ठीक की।
एक मैं आदमी
हूं, और एक
तुम नामर्द की
तरह चिल्लाए,
भागे जा रहे
हो।'
भीड़ ने
कहा, "वह तो
ठीक है, लेकिन
आप पायजामा
क्यों नहीं
पहने हुए हैं?'
वे
बिना ही
पायजामा के
खड़े थे!
जल्दी
में होश खो
जाता है; तुम
वही खोजने
लगते हो, जिसे
तुमने कभी
खोया नहीं था।
और आदमी बड़ी
जल्दी में है।
मौत पास खड़ी
है; वह घबड़ाहट
और एक
जल्दबाजी
पैदा करती है।
पूरब
के लोग इतनी
जल्दी में
नहीं हैं।
इसलिए पूरब के
लोग कभी—कभी
आत्मा को खोज
लेते हैं; पश्चिम के
लोग नहीं खोज
पाते, क्योंकि
वे और भी
जल्दी में
हैं।
पश्चिम
में एक बड़ा
दुर्भाग्य
घटित हो गया।
वह दुर्भाग्य
यह था कि ईसाई, यहूदी और
मुसलमान
तीनों ने एक
ही जन्म का
सिद्धांत मान
लिया—बस यह एक
ही जन्म; जन्म
और मृत्यु
सत्तर साल बस!
इस अनंत
यात्रा में
कुल सत्तर साल
का वक्त है—बहुत
कम; करने
को बहुत
ज्यादा, समय
बहुत कम।
इसलिए पश्चिम
एक हड़बड़ाहट
में है, सदा
भागा हुआ है; तेजी है, और
तेजी को बढ़ाया
जाता है। ये
जो जेट और
अंतरिक्ष—यान
पैदा हो रहे हैं,
अगर इनको
कोई किसी दिन
गौर से समझेगा
कि ये भीतर की
जल्दबाजी के
परिणाम हैं।
गति को बढ़ा
रहे हैं—स्पीड,
ताकि समय
बड़ा हो जाए
गति के माध्यम
से।
अगर
तुम बैलगाड़ी
में चलते हो
तो जहां
पहुंचने में
तुम्हें दो दिन
लगेंगे वहां
तुम दस मिनट
में हवाई जहाज
से पहुंच जाते
हो—तो तुमने
दो दिन बचा
लिए।
समय
बहुत कम है, और समय को
बचाना है, तो
जितनी स्पीड
हो जाए हर चीज
में उतना
ज्यादा समय बच
जाएगा। ऐसा
खयाल है, बचता
नहीं है।
क्योंकि, जो
समय बचता है, उसको भी तुम
स्पीड में ही
लगाते हो ताकि
वह और बच जाए।
अंततः तुम
पाते हो कि
दौड़े बहुत, पहुंचे कहीं
भी नहीं।
ऐसा
हुआ कि अमरीका
में पहली दफा
ट्रेनें चलाई गईं; ट्रेन की
पटरियां डाली
गईं; तो एक
आदिवासी
कबीले में भी
पहली दफे
ट्रेन गुजरने
वाली थी।
अमरीकी प्रेसीडेंट
उसका उदघाटन
करने गया।
स्टेशन पर झाड़
के नीचे एक
आदिवासी लेटा
हुआ सारा
दृश्य बड़े मजे
से देख रहा है;
बीच—बीच में
अपने हुक्के
से दम लगा
लेता है, फिर
अपने लेटकर
वही देख रहा
है—ऐसे जैसे
दुनिया में
कुछ करने को
नहीं है। प्रेसीडेंट
उसके पास गया
और उसने कहा
कि तुम्हें
शायद पता नहीं
कि यह बड़ी
ऐतिहासिक
घटना है, इस
ट्रेन का
गुजरना। उस
आदिवासी ने
पूछा, इससे
क्या होगा? तो प्रेसीडेंट
ने उसे समझाने
के लिए कहा कि
तुम लकड़ियां
काटकर शहर
जाते हो बेचने—कितने
दिन लगते हैं?
उसने कहा कि
दो दिन जाने
में लगते हैं,
एक दिन
बेचने में लग
जाता है, दो
दिन लौटने में
लगते हैं—सप्ताह
में पांच दिन
लग जाते हैं
और फिर दो दिन
घर आराम करना
पड़ता है, फिर
जाना पड़ता है।
अभी ये आराम
के दिन हैं—दो
दिन।
प्रेसीडेंट
ने कहा, "अब
तुम समझ
सकोगे। ट्रेन
से तुम घंटे
भर में पहुंच
जाओगे, और
दिन भर में
बिक्री करके
रात घंटे भर
में घर वापस आ
जाओगे।' सोचा
था प्रेसीडेंट
ने कि आदिवासी
बहुत प्रसन्न
होगा, वह
थोड़ा उदास हो
गया। उसने कहा,
"फिर छह दिन,
बाकी दिन
क्या करेंगे?
यह तो बहुत
झंझट हो गई।'
समय कम
हो तो बचाओ, बचाने का
अर्थ है गति
को तेज कर लो, सब चीजों
में गति कर
लो। सब चीजों
में गति हो जाती
है, एक हड़बड़ाहट
पैदा हो जाती
है, भीतर
एक तनाव पैदा हो
जाता है। तुम
सदा भागे—भागे
हो; जहां
हो वहां नहीं
हो। तुम्हें
कहीं और आगे
होना था, वहां
तुम अभी
पहुंचे नहीं
हो। जब तुम
वहां पहुंचोगे,
तब तुम वहां
नहीं हो। तुम
सदा अपने से
आगे भागे जा
रहे हो। चित्त
बहुत अशांत और
बेचैनी से भर
जाता है। ऐसी हड़बड़ी में
कैसे तुम
स्वयं को पा
सकोगे? क्योंकि
स्वयं को पाने
के लिए एक
स्थिति चाहिए—जैसे
कहीं नहीं
जाना, कुछ
नहीं करना, सिर्फ आंख
बंद करके बैठे
रहना है, अपने
में डूबना है।
इसलिए पूरब
में तो कभी—कभी
आत्मज्ञान की
घटना घट जाती
है। पश्चिम में
बहुत मुश्किल
हो गई है। और
पूरब में घट
जाती है, क्योंकि
पूरब को खयाल
है कि जल्दी
कुछ भी नहीं
है यह जन्म ही
नहीं, अनंत
जन्म हैं।
यात्रा लंबी
है। समय बहुत
है। विश्राम
किया जा सकता
है।
जिसने
विश्राम की
कला सीख ली, जिसने विराम
का राज समझ
लिया, वह
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाएगा। यह बात
तुम्हें बड़ी बेबूझ
लगेगी। श्रम
से कभी किसी
ने परमात्मा को
नहीं पाया।
श्रम से संसार
पाया जाता है,
बाहर की
वस्तुएं पाई
जाती हैं; विश्राम
से परमात्मा
पाया जाता है,
भीतर का
अस्तित्व
पाया जाता है।
बाहर
कुछ पाना हो
तो दौड़ना, नहीं तो न पा
सकोगे। इसलिए
तो भारत नहीं
पा सका; बाहर
की दुनिया में
गरीब रह गया।
पूरब बाहर की
दुनिया में
कुछ भी नहीं
पा सका, मुश्किल
से जी रहा है।
पश्चिम ने
बाहर की दुनिया
में अंबार लगा
लिए; इतनी
चीजें इकट्ठी
कर लीं कि अब
यही समझ में नहीं
आता है कि
इनका उपयोग
करो कैसे, इनका
उपयोग क्या
हुआ? पूरब
दरिद्र रह गया,
पश्चिम
अमीर हो गया।
बाहर
की दुनिया में
कुछ करना हो
तो बड़ी सक्रियता
चाहिए।
क्योंकि बाहर
की दुनिया
तुम्हें मिली
ही नहीं हुई
है। उसे पाने
के लिए चेष्टा
करनी पड़ेगी।
और भीतर की
दुनिया में
कुछ करना हो
तो विश्राम
चाहिए, परम
विश्राम
चाहिए।
क्योंकि वहां
तो मिला ही
हुआ है, वहां
कुछ करना नहीं
है; सिर्फ
विश्राम की
अवस्था लानी
है ताकि चित्त
के तनाव
तुम्हें बाहर
न खींचें,
ताकि चित्त
की तरंगें
तुम्हें उलझाएं
न, चित्त निस्तरंग
हो जाए—तो
अचानक तुम गिर
गए उस गहन खाई
में जिसका नाम
परमात्मा है।
"कहन
सुनन कछु
नाहिं, नहिं
कछु करन है।
जीते—जी मरि
रहै, बहुरि
नहिं मरन है।।'
और यही बात
है, जिसको
मैं विश्राम
कह रहा हूं, उसको कबीर
जीते—जी मरना
कह रहे हैं।
आखिर रात जब
तुम नींद में सोते
हो तो करते
क्या हो?—थोड़ी
देर को मर
जाते हो। नींद
रोज—रोज का
छोटा—छोटा
मरना है, और
मृत्यु लंबी
देर के लिए
मरना है। फिर
पैदा हो
जाओगे। जैसे
रात सोओगे, सुबह जग
जाओगे—ऐसे ही
इस शरीर में
मरोगे, दूसरे
शरीर में पैदा
हो जाओगे।
अंतर केवल परिमाण
का है, गुण
का नहीं है।
इसलिए निद्रा
मृत्यु जैसी
है और मृत्यु
निद्रा जैसी
है।
"जीते—जी
मरि रहै'—तो फिर जीते—जी
मरने की क्या
कला होगी? वह
यही होगी कि
जब तुम्हें
मौका मिले, आंख बंद
करके मर रहो
बाहर की तरफ, जैसे बाहर
नहीं है, जैसे
तुम नींद में
खो गए। होश
में रहते हुए
नींद में खो
जाओ। जागे—जागे
बाहर की तरफ
मर जाओ। बाहर
मिट जाए, तुम
बाहर के लिए
मिट जाओ—सिर्फ
भीतर रह जाए; एकमात्र
अस्तित्व
भीतर का बचे।
"जीते—जी
मरि रहै,
बहुत नहिं
मरन है।' और
जिसने ऐसे
मरने की कला
सीख ली फिर वह
कभी नहीं
मरता। फिर तो
वह मरते समय
भी भीतर जीता
है। फिर तो
मरते समय भी
वह भीतर जागता
है। फिर तो मौत
को भी वह
देखते हुए
गुजरता है।
फिर मृत्यु में
भी वह होश को
कायम रखता है।
क्योंकि होश
भीतर की बात है।
तुम्हें एक
दफा भीतर जाना
आ गया, मरते
वक्त तुम
रोओगे, चिल्लाओगे,
चीखोगे
नहीं; तुम
आंख बंद कर
लोगे, चुपचाप
भीतर डूब
जाओगे। और यह
जो भीतर डूबना
है, अगर
तुम्हें मौत
में आ गया, फिर
कैसी मौत!
शरीर
मरेगा, मन
मरेगा, तुम
नहीं मरोगे।
वह जानने वाला,
जगाने वाला
जागा ही रहेगा,
जीवित ही
रहेगा—वही
अमृत है।
"जीते—जी
मरि रहै,
बहुरि नहिं
मरन है।' फिर
न उसका कोई
जन्म है, न
कोई मृत्यु; वह आवागमन
के पार हो
गया।
"जोगी पड़े
वियोग, कहैं
घर दूर है।' कबीर बड़ा
मजेदार व्यंग
कर रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
"जोगी पड़े
वियोग!'
योगी
का अर्थ होता
है, जो मिले
ही हुए हैं—वे
वियोग कर रहे
हैं! परमात्मा
से जो मिले ही
हुए हैं, वे
भी रो रहे हैं
और पूछ रहे
हैं कि
परमात्मा कहां
है!
"जोगी पड़े
वियोग।' वियोग
कभी हुआ नहीं
उससे। योग की
बात ही करनी बेकार
है। जिससे कभी
हम दूर ही
नहीं हुए, उसको
पास लाने का
क्या कारण है?
मछली
ने कभी सागर
छोड़ा है? वह
सागर में ही
पैदा होती है,
सागर में ही
लीन होती है।
परमात्मा में
हम जी रहे हैं,
उसी में
श्वास लेते, उसी में
उठते—बैठते, चलते, भटकते,
पाते—सब उसी
में घट रहा
है। खोते भी
हैं, तो भी
उसी के भीतर
हैं; पाते
हैं तो भी उसी
के भीतर हैं।
उससे बाहर होने
का कोई उपाय
नहीं है। मछली
तो कभी—कभी
छलांग लगाकर
तट पर भी आ
सकती है और तड़फ
सकती है, लेकिन
परमात्मा के
बाहर होने का
कोई उपाय नहीं
है, क्योंकि
उसके बाहर कोई
तट ही नहीं
है। वह तटहीन
सागर है। उससे
बाहर जाने की
कोई जगह नहीं
है, क्योंकि
उसके बाहर कुछ
नहीं है; वही
सब कुछ है।
कबीर
बड़ी गहरी मजाक
कर रहे हैं।
कह रहे हैं, "जोगी पड़े
वियोग'—जो
जुड़े ही हुए
हैं, वे
विरह का गीत
गा रहे हैं, वे कह रहे
हैं, कब
होगा मिलन? रो रहे हैं, छाती पीट
रहे हैं। यह विधि
वह विधि कर
रहे हैं; त्याग,
तप, यज्ञ
चला रहे हैं।
"जोगी
पड़े वियोग, कहैं, घर
दूर है।'—कि
घर बहुत दूर
है। "पासहि
बसत हजूर,
तू चढ़त
खजूर है'—और
वे तुम्हारे
पास ही बैठे
हैं, उनको
खोजने के लिए
आप खजूर पर चढ़
रहे हैं। नाहक
गिरोगे, हाथ—पैर
तोड़ लोगे।
बहुत—से योगी
खजूर पर चढ़कर
गिरते हैं।
खजूर पर चढ़ने
का मतलब ही है
कि गिरने का
उपाय करना।
इसलिए बड़ा
प्रसिद्ध
शब्द है—"योगभ्रष्ट';
वह खजूर पर चढ़ने से
होता है। कोई
जरूरत ही न थी
खजूर पर चढ़ने
की और भ्रष्ट
होने की।
सिर्फ योगी ही
भ्रष्ट होते
हैं। तुमने
किसी और को
भ्रष्ट होते
देखा? जो
जमीन पर चल
रहा है, वह
भ्रष्ट किसलिए
होगा? वह
गिरेगा कैसे?
खजूर पर चढ़े
कि अड़चन आई।
दूर
नहीं है
परमात्मा, खजूर पर
नहीं बैठा है।
वह कोई पागल
नहीं है कि खजूर
पर बैठे।
लेकिन अहंकार
को चढ़ने
में मजा आता
है, खजूर चढ़ने में
खासकर, क्योंकि
और किसी झाड़
पर चढ़ना
आसान है—कुछ
सहारे रहते
हैं, कुछ
शाखाएं रहती
हैं, कुछ
पकड़ सकते हो।
खजूर बिलकुल
सर्कस का नाम
है। उस पर तो
बड़ी कुशलता हो,
बड़ा अभ्यास
किया हो, योग—साधना
की हो, तभी
कोई चढ़ सकता
है। बड़े संयम
की जरूरत है
खजूर पर चढ़ने
में और आखिरी—आखिरी
पहुंचकर भी
आदमी गिर जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन चढ़ा।
खजूर पक गए थे
और उससे न रहा
गया। डरा तो
बहुत, क्योंकि
अभ्यास न था
कोई। मगर पके
फल! रस बहने लगा।
रुक न सका।
सुरक्षा करने
के लिए उसने
कहा कि हे
परमात्मा! अगर
सही—सलामत
पहुंच गए और
फल पा लिए, तो
चार आने चढ़ाऊंगा,
नकद चार आने!
ध्यान रखना, अपने भक्त
की फजीहत न
करवा देना।
वह चढ़ा
याद करते हुए
परमात्मा को।
पहुंच गया। जब
बिलकुल फल
करीब आ गए तो
उसने कहा कि
फल चार आने के
मालूम ही नहीं
पड़ते। चार आने
में इतनी मेहनत
और चार आना चढ़ाना? दो आना काफी
है। ऐसा मन
में उठा कि दो
आना काफी है।
और पहुंच भी
गए, ऐसी
कोई जरूरत भी
नहीं है
सुरक्षा की।
जब फल हाथ में
ही आ गए, तो
उसने सोचा कि
अरे, मैं
तो सोचता था, पके हैं, आधे
तो कच्चे हैं।
एक आने से चल
जाएगा। और जब
वह बिलकुल
तोड़ने के ही
करीब था फल, तो उसने
सोचा कि चढ़ें
तो हम और पैसा
तुम्हें चढ़ाएं?
इसी
चिंता में पैर
चूक गया, भड़ाम से नीचे
गिरा। ऊपर
आकाश की तरफ
मुंह करके कहा
कि हद हो गई, जरा मजाक भी
नहीं समझते!
अगर फल पा लिए
ही होते तो
चार आने क्या,
आठ आने चढ़ा
देता!
चढ़ने
में एक चुनौती
है; और
अहंकार के लिए
चढ़ाई बड़ी
प्रीतिकर है।
जो अहंकार चढ़ाता
है, फिर
वही अहंकार
गिराता भी है।
चढ़कर
भी जाओगे कहां? खजूर कोई
मार्ग थोड़े ही
है जो कहीं
पहुंचता है।
अंततः अंत आ
जाएगा। फिर
क्या करोगे?
सब योग—विधियां
अखीर में उस
जगह आ जाती
हैं, जहां से
आगे जाने का
कोई उपाय नहीं,
विधि का अंत
आएगा ही।
साधना की एक
सीमा है। परमात्मा
की कोई सीमा
नहीं है, और
साधना की सीमा
है। तो तुम
साधना से असीम
को कैसे पा
सकोगे?
नहीं, कुछ करने से
नहीं पाया
जाता
परमात्मा; न
करने से पाया
जाता है। इसको
कबीर "सहज योग'
कहते हैं।
इसलिए कबीर
बार—बार
दोहराते हैं,
"साधो सहज
समाधि भली।'
सहज का
मतलब है: नाहक चढ़ो मत
खजूर; शांत
जीवन को जीयो;
सहजता से जीयो; स्वाभाविकता
से जीयो; सरलता से जीयो;
व्यर्थ की
उलझनें मत खड़ी
करो। न तो कोई
नाक बंद करने
की जरूरत है, न कोई
शीर्षासन
करने की जरूरत
है। कोई खजूर
नहीं चाहिए—
"पासहि बसत हजूर, तू चढ़त
खजूर है।।'
"बाह्मन दिच्छा देत सो, घर
घर घालिहै।
मूर
सजीवन पास, तू पाहन पालिहै।।'
कबीर
कहते हैं, ब्राह्मणों
से जिन्होंने
दीक्षा ली...।
ब्राह्मण
यानी पंडित—जिसने
जाना नहीं और
जिसे जानने का
खयाल है; जो
बिना जाने
ज्ञानी हो गया
है, वह
अज्ञानी से भी
बदतर है।
क्योंकि
अज्ञानी कम से
कम दूसरे को न
भटकाएगा। अज्ञानी
कम से कम
डरेगा कि मुझे
पता नहीं। अज्ञानी
कम से कम
विनम्र होगा।
लेकिन
ब्राह्मण, पंडित?
वह तो जानता
ही है, और
वह दूसरों को
भटकाता है। वह
दूसरों को
दीक्षा दे रहा
है, वह
लोगों को कह
रहा है कि चलो
इस मार्ग पर।
कोई वेद के
मार्ग पर, कोई
कुरान के
मार्ग पर कोई
बाइबल के
मार्ग पर—पंडित
अनंत हैं और
वे दूसरे
लोगों को भी
चला रहे हैं।
जीसस
ने कहा है, "अगर अंधे अंधे
को चलाएं
तो क्या होगा?'
कबीर ने
जवाब दिया है,
"अंधा अंधा
ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत'—अंधे
ने अंधे को
चलाया, दोनों
ही कुएं में
गिरे—गुरु और
शिष्य दोनों,
उस्ताद—शागिर्द
दोनों।
"बाह्मन दिच्छा
देता सो, घर—घर
घालिहै'—और
जिन्होंने
पंडितों से
दीक्षा ली, वे विनष्ट
हो गए।
काशी
के पंडित अगर
कबीर से नाराज
थे तो अकारण नहीं।
और काशी में
ही—पंडितों के
घर में ही
कबीर बैठे थे।
"घर—घर
घालिहै'—उससे घर—घर
का नाश हो गया
है।
जिन्होंने
पंडितों से
दीक्षा ले ली
है, उनका
विनाश हो गया
है। विनाश का
इतना ही अर्थ है
कि जो जानते
नहीं थे, उनके
मार्ग पर तुम
चलने लगे।
ज्ञानी
को खोजना।
लेकिन उसमें
कठिनाई है। पंडित
को पाना सदा
आसान है। वह
जन्म के साथ
ही तुम्हें
उपलब्ध रहता
है। अगर तुम
जैन घर में
पैदा हुए, तो जैन
पंडित
तुम्हें
शिक्षा दे रहा
है, जन्म
के साथ ही।
अगर तुम
मुसलमान घर
में पैदा हुए,
मुसलमान
मौलवी
तुम्हें
शिक्षा दे रहा
है, जन्म
के साथ ही।
उसे तुम्हें
खोजने के लिए
नहीं जाना
पड़ता, वह
तुम्हारी
गर्दन को खुद
ही पकड़ लेता
है, इसके
पहले कि
तुम्हें होश
आए।
लेकिन
ज्ञानी को
तुम्हें
खोजने जाना
पड़ेगा। ज्ञानी
को तो तुम्हें
सजग—सचेत होकर
पाने के लिए
यात्रा करनी
पड़ेगी। और जरूरी
नहीं है कि
ज्ञानी तुम
जिस संप्रदाय
में पैदा हुए
हो, वहां
मौजूद हो; अक्सर
तो संप्रदाय
में ज्ञानी
नहीं होता। क्योंकि
जैसे ही कोई
ज्ञानी होता
है, संप्रदाय
उसे निकाल
बाहर कर देता
है। क्योंकि
ज्ञानी
खतरनाक है।
जीसस
यहूदी घर में
पैदा हुए, लेकिन
यहूदियों ने
निकाल बाहर कर
दिया। बुद्ध
हिंदू घर में
पैदा हुए, लेकिन
हिंदुओं ने
निकाल बाहर कर
दिया।
ज्ञानी
तो हमेशा
संप्रदाय के
बाहर निकाल दिया
जाएगा।
क्योंकि अगर
ज्ञानी बचे, तो पंडितों
का क्या होगा?
और जहां
सूरज जल रहा
हो, वहां
बुझे दीयों के
पास कौन आएगा?
तो पंडित
कभी ज्ञानी को
बर्दाश्त
नहीं कर सकता।
ज्ञानी की
मौजूदगी
पंडित के पूरे
व्यवसाय को जड़
से काट देती
है। इसलिए
पंडित तो सदा
संप्रदाय में
मिलेगा; ज्ञानी
सदा संप्रदाय
के बाहर
मिलेगा। और
वही अड़चन है।
तुम अपने
संप्रदाय में
खोजो कि कोई हिंदू
ज्ञानी मिल
जाए—हिंदू
ज्ञानी कभी
हुआ ही नहीं; कोई मुसलमान
ज्ञानी मिल
जाए—मुसलमान
ज्ञानी कभी
हुआ ही नहीं।
ज्ञानी कहीं
मुसलमान और
हिंदू होता है?
ज्ञानी
सिर्फ होता; उसका कोई
विशेषण नहीं
है।
तब
तुम्हें अड़चन
होगी। उसके
लिए तो
तुम्हें संप्रदाय
की दृष्टि छोड़नी
पड़ेगी।
तुम्हें अपनी
बंधी धारणाएं
हटानी पड़ेंगी।
अगर तुम्हें आंखवाला
गुरु चाहिए तो
तुम्हें अपने
संप्रदाय के
सारे वस्त्र
छोड़ने पड़ेंगे, तभी तुम उसे
पा सकोगे। नहीं
तो तुम्हें
कोई अंधा गुरु
मिल जाएगा।
"बाह्मन दिच्छा देत सो, घर
घर घालिहै।
मूर
सजीवन पास तू
पाहन पालिहै।।'
और जो
परमात्मा पास
था, पंडित ने
तुझे उसकी जगह
पत्थर पकड़ा
दिए। तू पत्थर
पूज रहा है।
परमात्मा पास
था। पंडित की
दीक्षा ने
तुझे पत्थर
पकड़ा दिए। और
पत्थरों की
पूजा चल रही
है। कुछ हर्जा
नहीं है पत्थर
की पूजा में, अगर पत्थर
में परमात्मा
दिखाई पड़ रहा
हो। लेकिन
जिसको पत्थर
में परमात्मा
दिखाई पड़
जाएगा, वह
पत्थर में
पूजने जाएगा?
फिर तो सब
जगह उसी की
पूजा है, उसका
तो सारा जीवन
उसी की अर्चना
हो जाएगा। फिर
तो मंदिर
विराट है। फिर
तो पौधे में
भी वही है।
फिर तो मस्जिद
में भी वही है
और मंदिर में
भी वही है। तो
अगर मस्जिद
पास हो, तो
तुम मंदिर
काहे के लिए
जाओगे? मस्जिद
में ही चले
जाओगे।
मस्जिद भी
जाने की क्या
जरूरत?
सुना
है मैंने कि
बायजीद जब
बूढ़ा हो गया—एक
मुसलमान
फकीर। सत्तर
साल लोगों ने
उसे सदा
मस्जिद में
जाते देखा। एक
दिन अचानक वह
मस्जिद नहीं
आया। वह बीमार
हो तो जाता, कोई भी
स्थिति में
कभी वह मस्जिद
में आने से नहीं
चूका था। एक
दिन नहीं आया
तो मस्जिद के
लोगों ने समझा
कि मर गया
होगा, और
कोई कारण नहीं
हो सकता, क्योंकि
बीमार कितना
ही वह हो, वह
आता ही है। वे
पहुंचे उसके
घर, वह
अपने झोपड़े
के सामने खंजड़ी
बजाकर गीत गा
रहा था। वे
बड़े नाराज हो
गए। उन्होंने
कहा, "बुढ़ापे
में क्या
नास्तिक हो गए
या सठिया गए?' बायजीद ने
कहा कि जब तक
मिला नहीं था,
तब तक आते
थे; अब जब
मिल गया तो
सभी तरफ वही
है। अब मस्जिद
के सिवाय और
कोई जगह ही
नहीं है। वही
सब जगह मस्जिद
है। अब किसके
लिए आना? अब
तक खोजते थे; अब खोजना न
रहा, अब
उत्सव शुरू
हुआ। अब तो
नाचेंगे, गाएंगे।
अब कोई मांग न
रही। अब वह सब
तरफ मौजूद है।
"मूर
सजीवन पास, तू पाहन पालिहै'—
वह पास
बैठा है और तू
मंदिरों में
पूजा करने जा
रहा है?
"ऐसन
साहब कबीर, सलोना आप
है।
नहीं
जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं
पाप है।।'
कबीर
कहते हैं, ऐसा है वह
साहब कबीर का!
"ऐसन
साहब कबीर, सलोना आप
है।' खुद
तो बहुत सुंदर—सलोना
है ही, उसके
सलोनेपन
की क्या बात!
उसके सौंदर्य
की क्या चर्चा
करें! उसके
रूप का क्या
वर्णन! खुद तो
बहुत सुंदर है
ही, उसने
तुम्हें भी
सुंदर बनाया
है। तुम्हें
उसने अपने से
कम सुंदर नहीं
बनाया।
"ऐसन
साहब कबीर, सलोना आप
है। नहीं जोग
नहिं जप, पुन्न
नहिं पाप है।।'
तुम्हारे
लिए न तो जोग
की जरूरत है, न जाप की
जरूरत है; और
न कहीं पुण्य
की कोई जरूरत
है, न पाप
की कोई जरूरत
है। जिसने
तुम्हें
बनाया, वह
पुण्य और पाप
के बाहर है; तुम भी बाहर
हो। और जिसने
तुम्हें
बनाया, तुम
जिसकी कृति हो,
उसके
हस्ताक्षर
तुम पर हैं—तुम
कैसे पापी हो
सकते हो? तुम
कैसे बुरे हो
सकते हो?
कहावत
है, फल से
वृक्ष जाना
जाता है। तो
तुमसे
परमात्मा जाना
जाएगा, क्योंकि
तुम उसके
श्रेष्ठतम फल
हो इस पृथ्वी पर।
इस सृष्टि में
मनुष्य उसका
श्रेष्ठतम फल है।
तो तुम कैसे
पापी हो सकते
हो? जिन्होंने
तुम्हें कहा,
तुम पापी हो,
उन्होंने
तुम्हारे
जीवन से
परमात्मा का
संबंध बिलकुल तुड़वा
दिया। तो कबीर
कहते हैं, "ऐसन
साहब कबीर'—कबीर के
साहब ऐसे हैं,
खुद तो
प्यारे, सुंदर,
अनूठे, अद्वितीय
हैं—उनसे तुम
भी पैदा हुए
हो।
बाइबिल
में कहा है कि
परमात्मा ने
अपनी ही शकल
में आदमी को
बनाया; बनाया
है, लेकिन
तुम्हें अपनी
शकल का पता ही
नहीं।
"नहीं
जोग नहिं जाप'—
न तो कोई
जाप करने की
जरूरत है, न
कोई जोग करने
की जरूरत है; न तो पुण्य
करने की जरूरत
है, न पाप
से भयभीत होने
की जरूरत है।
क्योंकि उस परम
की निकटता में
न तो पाप बचता
है, न
पुण्य बचता
है।
यह
आखिरी बात
थोड़ी समझ लेने
जैसी है।
पापी
और पुण्यात्मा
में बहुत फर्क
नहीं है। इतना
ही फर्क है, जैसे एक
आदमी पैर पर
खड़ा है और एक
आदमी सिर पर खड़ा
है। तुम अगर
शीर्षासन कर
लो तो कुछ
फर्क हो जाएगा?—तुम ही
रहोगे—सिर के
बल खड़े रहोगे।
अभी पैर के बल
खड़े थे। क्या
फर्क होगा
तुममें?—तुम
उलटे हो
जाओगे।
पुण्यात्मा
सीधा खड़ा है; पापी सिर के
बल खड़ा है—वह
शीर्षासन कर
रहा है। और
शीर्षासन
करने में कष्ट
मिलता है, तो
पा रहा है।
पुण्यात्मा
कुछ विशेष
नहीं कर रहा
है। और पापी
कुछ पाप का फल
आगे पाएगा, ऐसा नहीं है;
पाप करने
में ही पा रहा
है। सिर के बल
खड़े होओगे, कष्ट
मिलेगा। और
पुण्यात्मा
पैर के बल खड़ा
है, इसलिए
सुख पा रहा
है। इसमें कोई
भविष्य में कोई
सुख मिलेगा, स्वर्ग
मिलेगा—ऐसा
कोई सवाल नहीं
है। तुम अगर
ठीक—ठीक चलते
हो रास्ते पर,
तो सकुशल घर
आ जाते हो, बस।
अगर तुम उलटे—सीधे
चलते हो, शराब
पीकर चलते हो—गिर
पड़ते हो, पैर
में चोट लग जाती
है, फ्रैक्चर हो जाता है।
कोई जमीन
तुम्हारे पैर
में फ्रैक्चर
नहीं करना
चाहती थी; तुम्हीं
उलटे—सीधे
चले।
पापी
उलटा—सीधा चल
रहा है, थोड़ा
डांवाडोल चल
रहा है; पुण्यात्मा
थोड़ा सम्हलकर
चल रहा है।
लेकिन कबीर
कहते हैं कि
जो अपने भीतर
चला गया, वह
तो स्वयं
परमात्मा हो
गया—वहां न
कोई पाप है, न कोई पुण्य
है। उसकी चाल
का क्या कहना!
ध्यान
रखो, पाप से
दुख मिलता है,
पुण्य से
सुख मिलता है।
पाप रोग की
तरह है, पुण्य
स्वस्थ होने
की तरह है।
लेकिन भीतर जो
चला गया, वह
न तो दुख में
होता है, न
सुख में; वह
आनंद में जीता
है। आनंद बड़ी
और बात है।
आनंद का मतलब
है: सुख भी गए, दुख भी गए।
क्योंकि जब तक
दुख रहते हैं,
तभी तक सुख
रहते हैं। और
जब तक सुख
रहते हैं, तब
तक दुख भी
छिपे रहते हैं;
वे जाते
नहीं। पापी के
लिए नरक, पुण्यात्मा
के लिए स्वर्ग;
और जो भीतर
पहुंच गया, उसके लिए
मोक्ष। वह स्वर्ग
और नरक दोनों
के पार है।
पुण्य
और पाप, दोनों
ही बंधन है।
पाप होगा लोहे
की जंजीर, पुण्य
होगा सोने की
जंजीर—हीरे, जवाहरातों
से जड़ी। पर
क्या फर्क
पड़ता है? पापी
भी बंधा है, पुण्यात्मा
भी बंधा है।
पापी दुख पा
रहा है, पुण्यात्मा
सुख पा रहा है;
लेकिन
दोनों को अभी
उसकी खबर नहीं
मिली जो दोनों
के पार है। दोनों
द्वैत में जी
रहे हैं। भीतर
जिसने स्वयं
को जाना; जिसने
साहब को जाना;
जिसने अपने
सलोने रूप को
पहचाना; जिसने
अपने निराकार—निर्गुण
को देखा; जिसने
अपनी अद्वैत
प्रतिष्ठा
पाई—उसके लिए
न तो कोई
पुण्य है, न
तो कोई पाप
है। वह
द्वंद्व के
बाहर हो गया—वह
निर्द्वंद्व
है। वह द्वैत
के पार उठ गया—वह
अद्वैत है।
और यह
साहब बहुत दूर
नहीं है। पास
भी कहना उचित
नहीं है। साहब
तुम्हारे
भीतर है। भीतर
कहना भी उचित
नहीं है। साहब
तुम्हीं हो।
"ऐसन साहब
कबीर...!'
"कस्तूरी
कुंडल बसै!'
आज
इतना ही।
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