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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--53)

पहलगांव में आफत—(अध्‍याय—त्ररेपनवां)

जाने कितनी बार मित्रों की लापरवाही और बेपरवाही के कड़वे अनुभव मुझे हुए हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता कि कैसे लोग छोटी—छोटी बातों को लेकर इतने लापरवाह हो सकते हैं और किसी दूसरे को बडी परेशानी में फंसा देते हैं। ऐसा ही एक बार का अनुभव सुनाता हूं।

श्रीनगर के एक मित्र ने ध्यान शिविर आयोजित किया। चंदनवाडी के पास ही पहलगांव में शिविर होना था। मैं गुजरात में राजकोट में शिविर ले रहा था, वहां शिविर समापन के बाद मुंबई से दिल्ली होते हुए श्रीनगर पहुंचा। वहां एयरपोर्ट पर कोई भी लेने नहीं आया। अब मुझे यह समझ नहीं आया कि मैं सीधे पहलगांव जाऊं या जहां स्वामी जी श्रीनगर में रहते हैं वहां जाऊं?
खैर, मैं टेक्सी लेकर शालीमार बाग के पास ही उनके निवास पहुंचा। दोपहर के कोई डेढ़ बजे के समय उनके घर पहुंचा। हालांकि दिन का समय था पर कड़ाके की सर्दी थी। मैं जब घर पहुंचा तो वो साहब तो अपनी कंबल में आराम से बैठे हुए थे। मैंने कहा, 'अरे, आप यहां है, कोई हमें लेने तक नहीं आया?' वे बोले, 'स्वामी जी हमने तो शिविर निरस्त कर दिया। यहां तो बड़े दंगे—फसाद हो रहे हैं, स्थिति ठीक नहीं है।तो मैंने कहा, 'भाई, टेलिग्राम करते, फोन करते, हमें शचेत तो किया होता।वे बोले, 'टेलिग्राम कल ही डाली है।मुझे बडा अजीब लगा। मेरी टेक्सी खडी ही थी। उसी से वापस एयरपोर्ट आया और वहां मुझे प्लेन भी मिल गया। मैं शाम तक पुन: दिल्ली पहुंच गया। तो मेरा श्रीनगर में इतना ही ठहरना हुआ।
अब शिविर नहीं हुआ, चलो कोई बात नहीं, इतनी दूर से कोई व्यक्ति लंबी यात्रा करके जैसे—तैसे पहुंचा, उसे बैठने तक का नहीं पूछा गया। आज जब ये यादें ताजा होती है तो सच में चेहरे पर मुस्कान तो आ ही जाती है.. .कैसे—कैसे लोग हैं।

आज इति।


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