(अध्याय—अट्ठारहवां)
इंडियन एयरलाइंस
की हड़ताल
समाप्त हो गई
है और हम
प्लेन द्वारा
ही उदयपुर से
अहमदाबाद जाते
हैं। प्लेन
में यात्रा
करने का यह
मेरा पहला
अनुभव है। ओशो
प्लेन में चढ़
जाते हैं और
मैं भी उनके
पीछे—पीछे चल
देती हूं। जब
वे खिड़की के
पास की सीट पर
बैठ जाते हैं
तो मैं भी
उनके साथ बैठ
जाती हूं। मैं
उनसे कहती हूं
मैं पहली बार
प्लेन से सफर कर
रही हूं इसलिए
मुझे डर लग
रहा है।’ इसी
बीच एक एयर
होस्टेस एक
ट्रे लेकर आती
है।
ओशो एक
छोटा सा पैकेट
उठा लेते हैं
और उसे खोलते
हैं। .उसमें
रुई है। रुई
को तोड़कर वे
दो टुकड़े करते
हैं और उनमें
से एक मुझे
देकर कहते हैं,
इसे अपने
कानों में
लगाओ, और
जब प्लेन उड़ान
भरे तो आंखें
बद करके भीतर
देखना। यह
ध्यान के लिए
एक अच्छा अवसर
है।’
फिर
वे मुझे बताते
हैं कि बेल्ट
कैसे बांधनी है।
यह कोई आधे घंटे
का सफर था, जो
मुझे कभी नहीं
भूलेगा। जब
प्लेन चलना
शुरू होता है
तो मैं आंखें
बंद कर लेती हूं।
जब प्लेन उड़ान
भरता है तो सच
में बड़ा
अद्भुत अनुभव
होता है। मुझे
ऐसा लगता है
कि मैं किसी
और ही जगत में
पहुच गई हूं।
कुछ क्षणों
बाद मैं अपनी आंखें
खोलती हूं और
खिड़की से बाहर
देखती हूं।
हमारा प्लेन
बादलों के बीच
से गुजर रहा
है, और मैं
अपने इस
अभूतपूर्व
अनुभव से
रोमांचित हो
जाती हूं।
मैं
ओशो की ओर
देखती हूं। वे
आंखें बंद किए, बिना
हिले—डुले
सगंमरमर की
किसी सुंदर मूर्ति
की भांति
निश्चल बैठे
हुए हैं। मैं
नहीं जानती कि
इसे क्या कहूं, ‘वे पूरी
तरह मौजूद हैं—या
पूरी तरह
गैरमौजूद हैं।’
यह तो पक्का
है कि वे सो
नहीं रहे है।
जैसे
ही प्लेन
अहमदाबाद
एयरपोर्ट पर
उतरता है, वे
आंखें खोलने
के बाद अपनी
बेल्ट हटाते
हैं, और
मुझसे पूछते
हैं, कैसा
रहा?'
मैं
कहती हूं 'ओशो
बहुत बढ़िया—सचमुच
मैं ने खूब
आनंद लिया।’ और मैं मन ही
मन सोचती हूं
प्लेन से एक
बार यात्रा
करना गाड़ियों
में दस बार
यात्रा करने
से बेहतर है।’
मुझे लगता
है उन्होंने
यह सुन लिया।
वे मेरी ओर
देखकर बस
मुस्कुरा
देते हैं।
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