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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--28)

(अध्‍याय—अट्ठाईसवां)

ज ओशो बड़ौदा यूनिवर्सिटी में कॉलेज के विद्यार्थियों को संबोधित कर रहे हैं। हजारों विद्यार्थी उनको सुनने के लिए इकट्ठे हुए तैं। हॉल खचाखच भरा हुआ है और उसके सब दरवाजे खुले हुए हैं।
मैं अपना छोटा सा कैसेट रिकार्डर लिए पोडियम पर उनके पीछे—पीछे जाती हूं। जैसे ही हम पोडियम पर. पहुंचते हैं हॉल तालियों की गड़गड़ाहट गज उठता है। वातावरण में बहुत उत्साह है। वे ''युवक और यौन’’ विषय पर बोलने वाले हैं। वे हाथ जोड़कर सबको नमस्कार करते हैं और पद्मासन में बैठकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं।
मैं उनके सामने रखे माइक की रोड पर अपने माइक्रोफोन की तार बांधने की कोशिश करती हूं। कुछ छात्र कागज के हवाई—जहाज बना—बनाकर मेरी ओर फेंकने लगते हैं। मुझे बड़ा अजीब सा लगता है। किसी तरह, इस सब की उपेक्षा करते हुए मैं अपना टेपरिकार्डर अपने सामने रखकर उनके पास बैठ जाती हूं।
मैं उनकी ओर देखने लगती हूँ। कुछ मिनटों में वे अपनी आंखें खोलते हैं और सीधे सामने दरवाजे की ओर देखते हैं। बंबई के कुछ मित्र जिन्हें हॉल में कोई सीट नहीं मिल पाई है, वे वहां खड़े हुए हैं। वे उनके लिए संदेश भिजवाते हैं कि पोडियम पर आकर उनके पीछे बैठ जाएं। ऐसी छोटी—छोटी बातों का वे कितना स्याल रखते हैं, मैं यह देखकर हैरान हूं। वे मेरी ओर देखकर मुस्कुराते हैं, मैं रिकॉर्डिंग का बटन दबा देती हूं और उनकी मधुर आवाज श्रोताओं को संबोधित करती है, र्मेरे प्रिय आत्मन्।हॉल में बिलकुल शांति हो गई है, केवल उनकी आवाज ही गूंज रही है—उन सबकी प्यास को तृप्ति देती हुई जो उन्हें अपने हृदय में ग्रहण करने को तैयार हैं।

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