दिनांक:
19 नवंबर 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
रस
गगन गुफा में
अगर झरै।
बिन
बाजा झनकार
उठे जहां, समुझि परै जब
ध्यान धरै।।
बिना
ताल जहं कंवल
फुलाने, तेहि चढ़ि
हंसा केलि करै।
बिन
चंदा उजियारी
दरसै, जहं तहं हंसा
नजर परै।।
दसवें
द्वार तारी
लागी, अलख
पुरुष जाको
ध्यान धरै।
काल
कराल निकट
नहिं आवै, काम—क्रोध—मद—लोभ
जरै।।
जुगत—जुगत
की तृषा बुझानी
कर्म—कर्म अध—व्याधि
टरै।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, अमर
होय कबहूं
न मरै।।
धर्म
है अमृत की
खोज।
मनुष्य
के जीवन में
सर्वाधिक
सुनिश्चित है
मृत्यु। उससे
ज्यादा
निश्चित और
कोई तथ्य नहीं।
और सब संयोग
है।...हो भी
सकता है, न
भी हो। मृत्यु
संयोग नहीं है—होगी
ही! कितने ही
बचने के उपाय
हों, सब
व्यर्थ हो
जाएंगे।
मृत्यु से कभी
बचा नहीं।
मनुष्य को
छोड़कर और कोई
पशु—पक्षी, पौधा, पत्थर,
मृत्यु, के
प्रति सचेतन
नहीं है। मरते
वे भी हैं, लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि
मृत्यु होगी।
इसलिए मनुष्य
के अतिरिक्त
और कोई मनुष्य
धर्म को पैदा
नहीं कर
पाएगा।
धर्म
पैदा होता है
मृत्यु के बोध
से। जितना गहन
मृत्यु का बोध
होगा, उतनी
ही गहन धर्म
की खोज होगी।
अगर मृत्यु न
हो तो धर्म खो
जाएगा। अगर
ऐसा हो जाए कि
आदमी कभी न
मरे, तो सब
मंदिर, मस्जिद,
बस गिर
जाएंगे।
इसीलिए तो
जैसे—जैसे
उम्र हाथ से
खोती है, वैसे—वैसे
व्यक्ति को
धर्म की चिंता
शुरू होती है।
जैसे—जैसे मौत
करीब आती है, वैसे—वैसे
आदमी विचार
करता है।
जवानी में
आदमी भुलाए रख
सकता है मंदिर
को। तब नशा
गहरा होता है
जीवन का।...चढ़ाव
पर होती है; गति होती है
जीवन में।
जीवन के भोग
का नशा होता
है। जैसे—जैसे
पहाड़ से उतार
शुरू होता है,
बुढ़ापा करीब आता है,
वैसे—वैसे
आश्वासन
टूटने लगते
हैं, भरोसा
गिरने लगता है,
जिंदगी हाथ
से जाती मालूम
पड़ती है। मौत
के कदम जैसे
ही सुनाई पड़ने
लगते हैं, वैसे
ही धर्म की
खोज शुरू हो
जाती है।
मृत्यु
के कारण धर्म
की खोज शुरू
होती है—इसीलिए
स्वभावतः
धर्म की खोज
अमृत की खोज
होगी। और जब
तक अमृत का
अनुभव न हो
जाए तब तक
मनुष्य भयभीत
रहेगा, कंपता
रहेगा तुम
कितनी ही भुलाओ,
तुम कितना
ही छिपाओ।
और हमने मौत
को छिपाने की
बड़ी कोशिश की
है।
इस
संबंध में एक
बात खयाल में
ले लेनी जरूरी
है। दुनिया
में दो तरह की
संस्कृतियां
हैं। एक संस्कृति
है, जो कम को
दबाती है, सेक्स
छिपाती है। और
दूसरी
संस्कृति है,
जो मृत्यु
को दबाती है, मृत्यु को
छिपाती है।
पश्चिम में
मृत्यु को
छिपाया जाता
है, सेक्स
की खुली छूट
है; रोज—रोज
छूट बढ़ती जा
रही है, लेकिन
मृत्यु को
बिलकुल
भुलाया जा रहा
है। पूरब में
सेक्स को
दबाया गया है,
कामवासना
को दबाया गया
है; मृत्यु
को नहीं दबाया
गया। ये दो
तरह की संस्कृतियां
हैं।
कामवासना
और मृत्यु दो
छोर हैं।
क्योंकि कामवासना
यानी जन्म।
कामवासना
यानी जन्म का
सूत्र। अगर
तुम जन्म को दबाएगा तो
मृत्यु को
तुम्हें
देखना ही
पड़ेगा। मृत्यु
पर तुम्हारी
आंखें अटक
जाएगी।
क्योंकि दो ही
तो तथ्य हैं
जीवन में: या
तो जन्म को
देखते रहो तो
मृत्यु को भूला
सकते हो; अगर
मृत्यु को
देखो तो जन्म
को भूला सकते
हो। पूरब ने
तय किया कि हम
जन्म को भूला
दें, कामवासना
को भूला दें, जैसे है ही
नहीं; ऐसी
जिंदगी बना
लें कि पता ही
न चले आदमी के
जीवन में कोई
कामवासना है।
समझो...अगर
मंगल से कोई
यात्री अचानक
आए, और हमारे
गांव में घूमे,
बाजारों
में, लोगों
से मिलने—जुले,
दुकान—दफ्तर
में जाए, उसे
पता ही न
चलेगा कि
कामवासना
जैसी कोई चीज भी
मनुष्य के
जीवन में है।
हमने उसे रात
के अंधेरे में
छिपा दिया है।
उसे पता ही
नहीं चलेगा, क्योंकि
हमारे जीवन के
बाहर वह कहीं
भी दिखाई नहीं
पड़ती। उसे
हमने भीतर मन
में छिपा लिया
है।
जो
संस्कृति
कामवासना को छिपाएगी, उसे मृत्यु
को गौर से
देखना पड़ेगा।
इसलिए पूरब
धार्मिक हो
गया; क्योंकि
मृत्यु को
ज्यादा
देखेंगे, अनिवार्य
रूप से अमृत
की खोज शुरू
होगी। पश्चिम
ने कामवासना
को नहीं दबाया,
मृत्यु को
दबाया। इसलिए
पश्चिम में
मृत्यु को
भुलाने की बड़ी
कोशिश की जाती
है। इस बात को
अशिष्ट समझा
जाता है कि आप
मृत्यु की
चर्चा करें।
पूरब में
कामवासना की
चर्चा करने को
अशिष्ट समझा
जाता है। पश्चिम
में मृत्यु की
बात नहीं की
जाती; मृत्यु
को चर्चा के
बाहर डाल दिया
गया है। कामवासना
की जितनी
चर्चा करनी हो
करो; मृत्यु
की भर बात मत
करना। कोई मर
भी जाए तो लोगों
ने अलग शब्द
खोज लिए हैं
मृत्यु को
छिपाने को कि
स्वर्गवासी
हो गया। हममें
से अधिक तो नर्कवासी
होंगे। लेकिन
जो भी मरा उसी
को हम कहते
हैं, स्वर्गवासी
हो गया।
मृत्यु शब्द
की जगह स्वर्गवासी
शब्द बड़ा मधुर
है। बैकुंठ—लोक
चले गए, बैकुंठवासी हो गए। इससे
ऐसा लगता है
मरे नहीं, कहीं
हैं। यह
मृत्यु को
छिपाने की
तरकीब है। लोग
कहते हैं; चोला
छोड़
दिया...जैसे
चोला ही छोड़ा;
मरे नहीं, कहीं हैं।
हजार
तरह की
अभिव्यक्तियां
हमने खोज रखी
हैं, जिनमें हम
छिपाते हैं
मृत्यु का
तथ्य—और
पश्चिम में
बहुत ज्यादा।
आदमी मर जाए
तो भी उसको
बड़ी शान—शौकत
से, बड़ी
व्यवस्था से,
फूलों से
सजा कर ले
जाते हैं, जैसे
कोई मृत्यु
नहीं घटी है; जैसे कुछ
दुख और शोक
नहीं हो गया
है; जैसे
कोई उत्सव है,
भुलाने की
व्यवस्था है।
और इसलिए हम
मरघट को बाहर
बना लेते हैं
गांव के। मरघट
पर भी पश्चिम
में पत्थर
लगाते हैं तो
वहां लिखते
हैं: यहां
फलां—फलां
आदमी सो रहा
है, मर
नहीं पाया है;
सो रहा है, चिरनिद्रा में लीन है!
ये सार शब्द
इस बात को
छिपाने की कोशिश
हैं कि कोई
चीज टूट गई, समाप्त हो
गई।
पश्चिम
ने छिपा लिया
है मौत को, इसलिए
विज्ञान पैदा
हुआ। क्योंकि
अगर मौत मनुष्य
की चेतना से
हट जाए तो फिर
जन्म ही रह
जाता है, कामवासना
रह जाती है, जीवन रह
जाता है। तो
फिर जीवन कैसे
अधिक सुविधापूर्ण
बनाया जाए—
कैसे जीवन को
अधिक रंगा जाए,
कलात्मक
बनाया जाए; कैसे अच्छे
मकान हों, कैसे
अच्छी सड़क हो,
कैसे अच्छा बाथरूम हो—तो
जीवन के काम
में लग गई
सारी
चेतना।
मृत्यु को
भूला दिया, तो जीवन को
बसाने का खयाल
आया। इसलिए
पश्चिम में
विज्ञान
विकसित हुआ।
पूरब
ने कामवासना
को भूला दिया, इसलिए जीवन
उपेक्षित हो
गया। कैसे तुम
जीते हो, कुछ
मतलब नहीं; कूड़े—कबाड़
में जीते हो, कोई मतलब
नहीं। झोपड़े
में जिंदा हो
कि मरे हो, भूखे
हो कि प्यासे
हो, दुर्गंध
है कि बीमारी
है कि मक्खियां
हैं घेरे हुए—कुछ
मतलब नहीं। यह
तो दो दिन का
खेल है, समाप्त
हो जाएगा!
असली चीज तो
मौत है। वह आ
रही है, चाहे
तुम महल में
रहो, चाहे झोपड़े में!
तो हमने जीवन
को और जन्म को
छिपाया। इसलिए
विज्ञान
विकसित नहीं
हुआ, धर्म
विकसित हुआ।
और जिस दिन
कोई व्यक्ति
दोनों को आंख
खोलकर देखता
है, उस दिन
सही अर्थों
में क्रांति
घटित होती है।
क्योंकि एक को
तुम छिपाओगे,
दूसरे को
तुम देखोगे,
तो
तुम्हारा बोध
आधा रहेगा, तुम अधूरे
रहोगे। और आधा
सत्य असत्य से
भी बदतर है।
क्योंकि आधा
सत्य जैसा
मालूम होता है,
और सत्य है
नहीं। पूरा
सत्य ही सत्य
होता है। और
अब तक दुनिया
में कोई
संस्कृति
पैदा नहीं हुई
है जिसने पूरे
सत्य को देखा
हो।
तुम्हें
मैं उसी
संस्कृति के
वाहक बनाना
चाहता हूं कि
तुम पूरे सत्य
को देखो: जन्म
भी है, जीवन
को ढंग से
जीना भी है—और
यह जानते हुए
जीना है कि
मौत होनेवाली
है। विज्ञान
विकसित हो, उससे हम
जीवन की
सुविधा खोजे;
और धर्म
विकसित हो, उससे हम
अमृत खोजें।
अगर
अकेला
विज्ञान होगा
तो खोज मृत्यु
की हो जाएगी।
इसलिए
विज्ञान एटमबम
और हाईड्रोजन
पर पहुंच गया।
खोजते—खोजते
मृत्यु ही हाथ
में लगेगी।
जिसको तुमने छिपाया
है, वही हाथ
में लगेगा।
क्योंकि जब
तुम खोजोगे,
जिसको
तुमने दबाया
है, वह हाथ
में लग जाएगा।
कहीं भी छिपाओ,
तुम्हें तो
पता ही है कि कहां
छिपाया है।
कितना ही भूलो,
तुम्हें
पता ही है। और
जिसको तुमने
छिपाया है, वह तुम्हारे
अचेतन को
प्रभावित
करता करेगा।
एक
वैज्ञानिक ने
जीवन भर की
तलाश पूरी कर
ली थी। वह
भागा हुआ घर
आया। जिस काम
के पीछे पचास
साल से लगा था, वह पूरा हो
गया। द्वार पर
ही उसे अपना
छोटा बेटा
बैठा हुआ
मिला। उसने
कहा, बेटे
तू भी जानकर
खुश होगा कि
मैं जो खोज
रहा था, वह
खोज पूरी हो
गई, मंजिल
आ गई। मैंने
वह अदभुत चीज
खोज ली, जिसकी
तलाश थी। बेटे
ने पूछा, तो
क्या है अदभुत
चीज? बाप
ने कहा कि
मैंने वह
रहस्य खोज
लिया है कि अगर
मैं चाहूं तो
एक सेकेंड में
सारी दुनिया
के लोगों को
मार डाल सकता
हूं। बेटे ने
कहा, डैडी
तो पहले मुझे
मारकर दिखाओ।
बेटा बड़ा प्रसन्न
था। और उसने
कहा, जैसे
कि बच्चे कहते
हैं: अच्छा
पहले हमें
करके दिखाओ!
तो उसने कहा
कि डैडी पहले
मुझे मारकर दिखाओ।
वैज्ञानिक
उदास हो गया।
सभी वैज्ञानिक
उदास हैं, आज, क्योंकि
उन्होंने
अनजाने मौत
खोज ली है। गए
थे जीवन को
खोजने, खोज
ली मौत। जिसको
छिपाया था, वह हाथ में आ
गया।
पश्चिम
के लोगों ने
मृत्यु का
सूत्र खोज
लिया है: कैसे
मारना सुगमता
से, जल्दी
तेजी से, कुशलता
से। अब एक
क्षण में ही
सारी दुनिया नष्ट
की जा सकती
है। यह बड़ी
अजीब बात हुई—खोजने
गए थे जीवन, हाथ लगी मौत!
पूरब
के लोगों ने
कामवासना को
छिपा—छिपाकर
सारे चित्त को
कामग्रसित
कर दिया है।
खोजने गए थे
ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य
मिला नहीं; मिली है
बहुत गर्हित
वासना। चित्त
में चौबीस घंटे
काम की ही धुन
बजती रहती है।
और जब तक तुम
काम की धुन बज
रही है तब तक
कबीर की धुन न
बजेगी। और जब
तक कामवासना रोएं—रोएं
को घेरे हुए
है, तब तक
कबीर लोक की
बात कर रहे
हैं, वह
दशम द्वार न
खुलेगा।
कामवासना
पहला द्वार
है। और पहले
ही द्वार पर जो
अटका है, वह
दसवें तक कैसे
पहुंचेगा? दसवां
तो आखिरी
द्वार है।
पहले में ही
उलझ गए, तो
दसवें तक कौन
जाएगा? लेकिन
जितना हमने
कामवासना को
दबाया, उतना
हम कामवासना
से भर गए। और
पश्चिम में
जितना मृत्यु
को दबाया, उतनी
मृत्यु हाथ
में आई।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
जो तुम छिपाओगे, वह आज नहीं कल
प्रकट होगा।
छिपाना कुछ भी
मत। जीवन के
तथ्यों को
सीधा—सीधा देख
लेना। जीवन
में जन्म भी
तथ्य है, मृत्यु
भी। जन्म को
भी देखना और
मृत्यु को भी।
तब तुम दोनों
को अतिक्रमण
कर सकोगे। भय
के कारण जिसको
तुम छिपा लोगे
वह बार—बार
तुम्हारे
रास्ते में
आएगा। भय से
कभी कोई मुक्त
नहीं हुआ है—अभय
चाहिए!
रोमारोलां
ने अपनी एक
डायरी में एक
बहुत कीमती
वचन लिखा है।
उसने लिखा है:
मैं एक ही अभय
जानता हूं। और
जिसने अभय सीख
लिया, उसने
सब सीख लिया।
और वह अभय यह
है कि जिंदगी
जैसी है तुम
उसे उसकी पूरी
सत्यता में
देखने की
कोशिश करना; न तो कुछ
छिपाना, न
कुछ जोड़ना।
जिंदगी जैसी
है, उसे
पूरा का पूरा
देखना। और
जिंदगी जैसी
है, उसके
पूरे अनुभव के
साथ तुम्हें
जीना। छिपाया
कि तुम
मुश्किल में
पड़ोगे, जिंदगी
अधूरी हो गई, खंडित हो
गई। दबाया, तुम मुश्किल
में पड़ेंगे।
ध्यान
रखना, कामवासना
जीवन का सूत्र
है। उसी का
अंत मृत्यु
में होता है।
जो जन्म में
शुरू होता है,
वही मृत्यु
में करता है।
जो जन्म के
पहले था, वह
मृत्यु के बाद
भी रहेगा।
अगर
तुम जन्म और
मृत्यु को गौर
से देखो, तो
जल्दी ही
तुम्हारी
आंखों में वह
तीव्रता और वह
रोशनी आ जाएगी
कि तुम जन्म
और मृत्यु के
पार भी देख
पाओगे। अगर
तुमने एक छोर
छिपा लिया, तो तुम इतने
डर जाओगे, तुम
इतने भयभीत हो
जाओगे कि तुम
कुछ भी देखने में
समर्थ न रह
जाओगे; तो
तुम इतने डर
जाओगे, तुम
इतने भयभीत हो
जाओगे कि तुम
कुछ भी देखने में
समर्थ न रह
जाओगे; तुम्हारी
आंखों में भय
समा जाएगा। और
जिस आंख में
भय है, वह
आंख धुएं में
दबी है। फिर
तुम तर्क
खोजते रहोगे,
तर्क तो सभी
खोज लेते हैं।
लेकिन तर्क
कोई सत्य नहीं
है। तर्क तो
पागल भी खोज
लेते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
गया था मनस—चिकित्सक
के पास।
परीक्षा के
तौर पर मनस—चिकित्सक
ने कहा, जांचने को कि इस
आदमी की
बुद्धि
डांवाडोल
कितनी हुई है,
या नहीं हुई
है। कहा कि नसरुद्दीन,
अगर हम
तुम्हारा एक
कान काट लें, तो क्या
होगा? नसरुद्दीन ने कहा, साफ
है कि मैं
जितना सुनता
हूं, उससे
आधा सुन
पाऊंगा। मेरी
सुनने की
क्षमता आधी हो
जाएगी। उस मनसविद
ने कहा, और
तुम्हारा
दूसरा कान भी
काट लें तो
क्या होगा? तो नसरुद्दीन
ने कहा, फिर
मैं देख न
पाऊंगा। मनसविद
हैरान हुआ।
उसने कहा, मतलब?
अचरज की बात
कहते हो!
दूसरा कान
काटने से तुम
देख क्या न
पाओगे? नसरुद्दीन ने कहा, उल्लू
के पट्ठे, मेरा
चश्मा जो गिर
जाएगा।
झक्कियों
के भी तर्क होते
हैं।...उसके
तर्क खंडित
नहीं कर सकते।
कह तो बात पते
की रहा है।
जैसे
ही तुमने जीवन
में एक चीज को
छुपा लिया, और दूसरी
चीज तुमने
इतनी
महत्वपूर्ण
बना दी कि वह
दोनों का
ध्यान बांट ले,
वैसे ही
तुम्हारे दिल
में, तुम्हारे
जीवन में एक
तरह का
झक्कीपन आ
जाएगा। झक्कीपन
का अर्थ है:
असंतुलन; तुम
एक तरफ ज्यादा
झुक गए। और
संतुलन सम्यकत्व
है; मध्य
में होना।
जैसा कोई नट
रस्सी पर चलता
है, तो जरा
बाएं झुकता
है। तो तत्काल
दाएं झुकता है,
ताकि
संतुलन न खो
जाए। और हर
घड़ी संतुलन को
बनाना पड़ता
है। संतुलन
कोई चीज नहीं
है की एक दफे
जमा लिया, जम
गई; प्रतिपल
संतुलन
सम्हालना
पड़ता है। हर
कदम पर नट को
फिर से संतुलन
सम्हालना
पड़ता है।
क्योंकि हर
कदम नया कदम
है, नई
स्थिति है।
ऐसा नहीं कि
एक दफे संतुलन
सम्हल गया, फिर आप मजे
से सा जाएं।
जीवन
भी रस्सी पर
चलते हुए नट
की भांति है।
वहां चुनाव नहीं
करना है; दो
के बीच संतुलन
सम्हालना है।
बाएं झुके तो
बाएं गिरोगे,
दाएं झुके
तो दाएं
गिरोगे। गिरो
कहीं भी, दोनों
हालत में मौत
हो जाएगी। अगर
मध्य में रहे
तो बच सकोगे।
तो न
तो जन्म के
साथ एक हो
जाना है, न
तो मृत्यु के
साथ। न तो
कामवासना को
सब कुछ बना
लेना है, और
न मृत्यु से
मुक्त होना की
वासना को सब
कुछ बना लेना
है। न तो काम
सब कुछ है, न
मोक्ष। दोनों
के मध्य
अतिक्रमण कर
जाना, ट्रान्सेन्डेन्स चाहिए। कोई
कामना न रह
जाए, मोक्ष
की भी न रह जाए—तभी
तुम दोनों के
पार हो सकोगे।
और जैसे ही कोई
दोनों के पार
होता है, उसके
जीवन में ये
अनूठी घटनाएं
घटनी शुरू हो
जाती हैं, जिसकी
कबीर चर्चा कर
रहे हैं।
ये
घटनाएं बड़ी
अतक्र्य हैं।
और भाषा में
कहना बड़ा
विरोधाभासी
है। क्योंकि
जो भी कहो, वही अधूरा
मालूम पड़ता
है। जो भी कहो,
बहुत कुछ
कहने को शेष
रह जाता है।
जो भी कहो, लगता
है कि सीमा
बांध दी उस पर
जो असीम था।
और जो भी कहो, सुननेवाले
को लगेगा कि
नशे में बातें
कर रहे हैं।
क्योंकि
सुननेवाला
जहां से सुन
रहा है, उसका
जो अपना अनुभव
है, उनसे
इन बातों का
कोई तालमेल न खाएगा।
तुम्हें
एक ही अनुभव
है जीवन का—वह
पहले द्वार का
है। या अगर तुम्हारा
अनुभव बहुत
गहरा हो गया
हो, तो भी
नौवें द्वार
से तुम्हारा
अनुभव ऊपर नहीं
जाता। दसवें
द्वार का
तुम्हें कोई
भी अनुभव नहीं
है।
नौ
द्वार हैं
हमारे शरीर
के: दो आंखें, दो नाक के
नासापुट हैं,
मुंह है, दो कान हैं, गुदा है, जननेंद्रिय
है—ये नौ
द्वार हैं। तुम्हारा
सारा जीवन
इन्हीं में
समाया हुआ है।
और ये सब
द्वार शरीर के
हैं। दसवां
क्षार सहस्रार
है। वह शरीर
में है और फिर
भी शरीर का
द्वार नहीं
है। क्योंकि
ये जो नौ
द्वार हैं, इनसे तुम
दूसरे शरीरों
के संबंधित
होते हो। आंख
से तुम क्या देखोगे? दूसरे को देखोगे।
कान से तुम
क्या सुनोगे?
दूसरे को सुनोगे।
हाथ से तुम
क्या छुओगे?
दूसरे को छुओगे।
दसवां
द्वार अनंत का
द्वार है, समस्त का
द्वार है।
कोने पर
कामवासना है,
और दूसरे
कोने पर दसवां
द्वार है।
कामवासना से
जो पैदा होता
है, वह
मरता है। और
दसवें द्वार
से जो
प्रविष्ट हो जाता
है, वह
अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है।
कामवासना से
शरीर पैदा
होता है; शरीर
मरणधर्मा
है। दसवें
द्वार से
अशरीर की झलक
मिलती है; उसकी
कोई मृत्यु
नहीं। वह
दसवां द्वार
तुम्हारे सिर
में है। और इन
पहले पहले
और दसवें
द्वार के बीच
में सारा खेल
है, सारा
नाटक है।
पहले
द्वार से तुम
प्रविष्ट
होते हो संसार
में, दसवें
द्वार से तुम
बाहर निकलते
हो संसार के। पहला
द्वार, वहां
लिखा है। एन्ट्रेन्स।
दसवां द्वार,
वहां लिखा
है—एक्जिट।
और यह तो बात
पक्की है कि
जहां एन्ट्रेन्स
होगा, वहां
एक्जिट
भी होगा। यह
तो बात पक्की
है, जहां
प्रवेश द्वार
होगा, वहां
बाहर जाने का
मार्ग भी
होगा।
कामवासना
से तुम
प्रविष्ट हुए
हो संसार में।
जननेंद्रिय
तुम्हारा
द्वार है आने
का। इसको भी
हमने भुला रखा
है। इसका हम
विचार ही नहीं
करते कभी। कोई
आदमी सोच ही
नहीं सकता, इसके मां—बाप
संभोग कर रहे
थे, इसलिए
वह संसार में
प्रविष्ट हुआ
है। ऐसी बात
ही सोचने में
लगेगा पाप...कि
कही मां—बाप...और
संभोग करते!
यह तो सब गलत
लोग करते हैं!
कभी
तुम सोचे हो, सजग रूप से
कभी तुमने इस
पर ध्यान किया
है, कैसे
तुम संसार में
आए? यह
सोचकर ही मन
में बड़ी
ग्लानि होगी
कि मां—बाप और
संभोग कर रहे
हैं। यह सोचकर
ही मन में बड़ी
चिंता होगी की
जननेंद्रिय
के द्वार से
तुम्हारा
आगमन हुआ है!
इन बातों को
हमने भुला रखा
है। इन बातों
को हमने छुपा
लिया है।
लेकिन ये सचाइयां
हैं और छिपाने
से झूठ नहीं
हो जाएगी, सचाइयां ही रहेंगी।
तुम
कभी सोचते ही
नहीं कि तुम कैसे
इस जगत में आए
हो। और अगर
पहले द्वार से
तुम जगत में
आए हो, और
उसी द्वार पर
अटके रहे तो
जगत में ही
बने रहोगे।
अगर तुम एन्टेस
पर, प्रवेश—द्वार
पर ही बैठे
रहे, तो
जीवन में कोई
गति नहीं होगी;
कोल्हू के
बैल की भांति
घूमते रहोगे।
ऐसा अनंत
जन्मों से तुम
घूम रहे हो।
जैसे
आने का मार्ग
है, वैसा
जाने का मार्ग
भी है। उसकी
ही तलाश धर्म है।
अमृत
की खोज धर्म
है। इस जीवन
में तो मृत्यु
है ही। और जब
तक तुम समझते
हो, यही जीवन
तुम्हारा सब
कुछ है, तब
तक तुम मृत्यु
से भयभीत
रहोगे; तब
तक तुम
ज्वालामुखी
पर बैठे हो, किसी भी क्षण
मौत हो सकती
है। और होगी
ही, एक
क्षण का भरोसा
नहीं है!
फकीर
हुआ एक सूफी
बायजीद।
यात्रा पर जा
रहा था तीर्थ
की, हज करने
जा रहा था।
सस्ते जमाने
थे; एक
पैसे में एक
दिन का भोजन
और एक दिन का
खर्च पूरा हो
जाता था। तो
उसने एक पैसा
जेब में रखा लिया
और यात्रा पर निकलने
को ही था उसके
एक धनपति भक्त
ने कहा कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? एक
पैसा लेकर हज
करने जा रहे
हो, कभी
सुना? वह
साथ में एक
थैली ले आया
था, जिसमें
बहुत अशरफियां
थीं। उसने कहा,
ये साथ में
रख लो। एक
पैसे से कहीं
हज हुई है! इतनी
लंबी यात्रा,
आना—जाना, कम से कम छह
महीने लगनेवाले
हैं।
बायजीद
ने कहा, रख
लूंगा
तुम्हारी
थैली भी, लेकिन
तुम मुझे पहले
पक्का भरोसा
दिला दो कि मैं
एक दिन से
ज्यादा
जियूंगा? कल
भी मैं
रहूंगा। अगर
तुम मुझे
आश्वासन दे दो
कि कल भी मैं
रहूंगा, तुम्हारी
थैली स्वीकार!
तो उस
धनपति ने कहा, मैं कैसे
आश्वासन दे
सकता हूं कि
कल आप रहेंगे?
कल का किसको
भरोसा है! तो
बायजीद ने कहा,
यह एक पैसा
आज के लिए
काफी है। कल
का जब भरोसा ही
नहीं तो कल का
इंतजाम...।
बायजीद
की भीड़ में एक
फकीर और बैठा
हुआ था। बायजीद
तब ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
हुआ था, लेकिन
फिर भी ज्ञान
के करीब ही
करीब रहा होगा,
ठीक कगार पर
रहा होगा; अभी
छलांग नहीं लग
गयी थी। तभी
तो हज की
यात्रा को जा
रहा था। कहीं
ज्ञानी
तीर्थयात्रा
को गए हैं! मगर
फिर भी समझ
गहरी थी, तब
तो धनपति के
पैसे को कह
दिया कि
सम्हालकर रख
लो, तुम्हारे
काम पड़ेगा।
मुझे तो कल का
भरोसा कोई
दिलाये तभी कल
कि चिंता हो।
एक
फकीर हंसने
लगा और भीड़ से
उठ गया।
बायजीद उसके
पीछे दौड़ा
और कहा कि तुम
हंसे क्यों? उसने कहा, जब एक दिन का
भरोसा है तो
कल के भरोसे
में क्या दिक्कत
है? जब एक
पैसा रख सकते
हो, तो बात
तो हो गई। फिर
एक पैसा रखो
कि करोड़
पैसा रखो, क्या
फर्क पड़ता है?
आज का भरोसा
है? और जब
एक पैसे पर
भरोसा है तो
परमात्मा पर
कितना भरोसा
है? है ही
नहीं!
बायजीद
ने वह पैसा भी
वहीं गिरा
दिया। और कहते
हैं, उस पैसे
के गिरने के
साथ बायजीद
ज्ञान को उपलब्ध
हुआ।
एक
क्षण का भरोसा
नहीं, और
इंतजाम कितना
बड़ा! इंतजाम
करते—करते ही
तुम समाप्त हो
जाओगे। पैसा,
धन तो
पेट्रोल की
भांति है; वह
कोई मंजिल
नहीं है।
लेकिन कुछ लोग
ऐसे हैं कि वे
पेट्रोल
इकट्ठा करते
चले जाते हैं।
उनके घर में
पेट्रोल हो
जाता है। खुद
भी रहने की जगह
नहीं रह जाती,
वे बाहर
हरते हैं। वे
यात्रा की
तैयारी कर रहे
हैं; क्योंकि
जब तैयारी
पूरी हो जाए
तो यात्रा पर
जाएंगे! इस
संसार में कोई
चीज कभी पूरी
नहीं होती, इसलिए वह
कभी यात्रा पर
नहीं जा पाते।
वे पेट्रोल
इकट्ठा करते—करते
मर जाते हैं।
धन
मंजिल नहीं
है। धन मार्ग
पर विनिमय का
साधन है। और
धन पर
तुम्हारी पकड़
यह बताती है
कि तुम्हें कल
का बहुत भरोसा
है। क्षण भर
भी भरोसे का
कोई कारण नहीं, मौत किसी भी
क्षण द्वार पर
दस्तक दे सकती
है। इस जीवन
मग तो मौत
छिपी है। इस
जीवन में तो
जन्म के साथ
ही मौत
तुम्हारे
भीतर आ गई है।
जन्म की घड़ी
में ही तय हो
गया कि कैसे
तुम मरोगे, कब तुम
मरोगे। एक—एक
क्रोमोसोम, जिससे शरीर
बनता है, उसकी
उम्र तय है कि
वह सत्तर साल जीएगा कि
अस्सी साल जीएगा।
बस, उतनी
ही तुम्हारी
उम्र होगी।
थोड़े
व्यवस्था से
जिए तो थोड़े
दिन ज्यादा।
थोड़ी
अव्यवस्था से
जिए तो थोड़े
दिन कम। लेकिन
आमतौर से उम्र
तय हो गई; जन्म
के साथ मौत
भीतर प्रवेश
कर गई है।
प्रवेश द्वार
पर ही मत बैठे
रहो, निकास
का मार्ग भी
खोजो! उसी को
निर्वाण
द्वार कहा है
बुद्ध ने। वह
सहस्रार!
तुम्हारे
मस्तिष्क में, आखिरी
मस्तिष्क की
जगह, जहां
हिंदू चोटी
उगाते हैं, वह चोटी
सिर्फ
सहस्रार का
प्रतीक है कि
वहां केंद्र
है। लेकिन
चोटी उगाने से
कुछ नहीं
होता। सारे
बाल काट डालते
थे, सिर्फ
चोटी छोड़ देते
थे। वह चोटी
तो सिर्फ जगह
थी बताने को
कि यहां दसवां
द्वार है, और
इस पर ध्यान
रखो। चोटी तो
बहुत लोग रखे
हुए हैं, ध्यान
वगैरह कोई भी
नहीं करता।
ध्यान तो पहले
द्वार पर ही
लगा रहता है, चोटी कितनी
ही बड़ी हो।
उसे चोटी भी
इसलिए कहते
हैं कि वह
शिखर है। वह
जीवन का शिखर
वहां पर छिपा
है, इसलिए
चोटी! तुमने
शायद कभी सोचा
न होगा कि चोटी
क्यों कहते
हैं। शिखर है,
गौरशंकर है वहां।
वहीं छिपा है
जीवन का आखिरी
द्वार, जहां
से तुम
परमात्मा में
प्रवेश
पाओगे।
और ये
वचन उस दसवें
द्वार की
उपलब्धि के
बाद के हैं।
इसलिए बड़े
कठिन होंगे
समझने में, तर्क
मुश्किल
डालेगा।
विचार कहेगा,
यह कैसे हो
सकता है!
लेकिन तुम
जल्दी निर्णय
मत करना।
अनुभव करने के
बाद निर्णय
करना। तब तुम
भी नाचोगे,
जैसा कबीर
नाच उठे
होंगे।
रस गगन
गुफा में अजर झरै।
गगन
गुफा दसवें
द्वार का नाम
है। गगन—गुफा
इसलिए कि उसके
बाद गगन शुरू
होता है, अनंत
आकाश शुरू
होता है; सीमाएं
समाप्त हो
जाती है, असीम
शुरू होता है;
आकार विदा
हो जाता है, निराकार
शुरू होता है—इसलिए
गगन—गुफा।
रस गगन
गुफा में अजर झरै...और एक
अनंत अमृत—रस
उस गगन—गुफा
में झर रहा
है।
तुमने
एक तरह के रस
का अनुभव किया
है, वह है काम
में संभोग का।
जब तुम्हारा
वीर्य—रस झरता
है तब तुम्हें
क्षण भर को
सुख मालूम पड़ता
है। यह जिस रस
की बात कर रहे
हैं, यह
तुम ऐसा समझो
कि सारे
परमात्मा की
तुम्हारे ऊपर
वर्षा हो रही
है, तुम नहा
गए हो उसमें, तुम्हारा
रोआं—रोआं नहा
रहा है, रोआं—रोआं
पुलकित होकर
नाच रहा है।
और यह अजर है।
एक बार शुरू
हो गया, फिर
अंत नहीं है।
यह शाश्वत है।
यह क्षण भंगुर
नहीं है। यह
ऐसा नहीं कि
आज वर्षा हो
गई, कल
सुखा पड़ गया।
यह वर्षा तो
अभी भी हो रही
है, तुम्हें
पता नहीं है।
वर्षा तो अभी
भी हो रही है, तुम तरफ
जागे नहीं हो।
खजाना तो अब
भी है, लेकिन
तुमने उस तरफ
ध्यान नहीं
दिया। यह तो
सदा से होती
रही है। यह
जीवन का
स्वभाव है कि
वहां अजर अमृत
बरसता रहे।
रस
गगन गुफा में
अजर झरै।
बिन
बाजा झनकार उठे
जहं, समुझि परै जब
ध्यान धरै।
बिन
बाजार झनकार
उठे जहं...दो
तरह की
ध्वनियां
हैं। एक ध्वनि
को कहते हैं:
आहत ध्वनि।
जैसे मैं ताली
बजाऊं तो दो
हाथ टकराएं; यह जो ध्वनि
पैदा हुई, यह
आहत ध्वनि है;
दो की
टकराहट से
हुई। तबला बजाओ
कि वीणा बजाओ
कि कोई भी
वाद्य बजाओ—टकराहट,
सब आहत
ध्वनि है।
लेकिन
परमात्मा तो
एक है, अस्तित्व
तो एक है; वहां
तो कोई दूसरा
हाथ नहीं है
ताली बजाने
का। वहां भी
एक संगीत है।
उस संगीत का
नाम अनाहत है।
इसलिए फकीर
निरंतर कहते
रहते हैं, खोजो
अनाहत को।
अनाहत
का मतलब: एक
हाथ की ताली।
झेन फकीर जापान
में शिष्यों
को कहते हैं
कि जाओ और
खोजो कि एक
हाथ से ताली
कैसे बजेगी।
यह उनकी खास
साधना है।
साधक को
वर्षों लग
जाते हैं। वह
कई तरकीबें
सोचकर लाता है; लेकिन गुरु
कह देता है, नहीं, तुझे
कहने की जरूरत
नहीं, जब
बजेगी तो देख
ही लूंगा।
तुझे बताने की
जरूरत नहीं; जब बजेगी, तो तेरा
पूरा
अस्तित्व
बजेगा। रस गगन
गुफा में अजर झरै।
बिन
बाजा झनकार
उठे जहं...
कोई
बाजा नहीं, कुछ बज नहीं
रहा, कोई
टकराहट नहीं—और
अनंत ध्वनि का
उदघोष हो
रहा है। उस
ध्वनि को
हिंदुओं ने
ओंकार कहा है।
ओम् उस ध्वनि
का प्रतीक है।
नानक
कहते हैं, एक ओम् सतनाम।
बस, वह एक
ओंकार की
ध्वनि है सत्य
का नाम है; और
उसका कोई नाम
नहीं। और सब
नाम आदमी के खोजे हुए
हैं। ओम् शब्द
का कुछ अर्थ
नहीं होता। ओम्
शब्द, शब्द
ही नहीं, ध्वनि
है।
और
सारे संसार
में जब भी कोई
व्यक्ति
दसवें द्वार
पर पहुंचता है, तो वह ध्वनि
सुनाई पड़ती
है। लेकिन इस
ध्वनि को भाषा
में लोगों ने
अलग—अलग लिखा
है, यह
दूसरी बात है।
हिंदुओं ने उस
ओम् कहा है। मुसलमान,
यहूदी, क्रिश्चियन
उसे ओमीन
कहते हैं, इसलिए
ओमीन पर
उनकी
प्रार्थना
पूरी होती है।
वह ओम् का ही
रूप है—दसवें
द्वार पर सुनी
गई ध्वनि।
उसकी व्याख्या
बदल सकती है, क्योंकि
ध्वनि के साथ
एक दिक्कत है
कि तुम कैसी
व्याख्या
करोगे।
रेलगाड़ी जा
रही हो—छक, छक,
छक कहोगे कि
भर, भर
कहोगे, कि
फक, फक
कहोगे—क्या
कहोगे, यह
तुम पर निर्भर
है। रेलगाड़ी
एक ही जा रही
है। और अगर
तुम्हें पहले
से कोई धारणा
है तो वही सुनाई
पड़ जाएगा।
जैसे हिंदुओं
को धारणा है
कि ओंकार, ओम्।
जब तुम धारणा
ही लेकर गए हो,
तो तत्क्षण
तुम्हें जब वह
ध्वनि गूंजेगी,
तुम्हें
ओम् सुनाई पड़
जाएगा। तुमने
जो धारणा बना
ली होगी, वह
धारणा उस
ध्वनि को रूप
दे देगी।
लेकिन ध्वनि
के लक्षण सभी फकीरों ने
सारी दुनिया में
एक ही बताए
हैं। और सबसे
बड़ा लक्षण तो
है: बिन बाजा
इनकार!...कोई
चीज से पैदा
नहीं हो रही।
इसे थोड़ा समझ
लें।
जो चीज
किसी से पैदा
होगी, वह
मरेगी।
क्योंकि दो
चीजों से चीज
पैदा होगी, उसकी सीमा
और शक्ति
सीमित होगी।
मैंने हाथ से ताली
बजाई, कितनी
ताकत मैं
डालता हूं, उतनी देर तक
ताली गूंजेगी।
ताकत नष्ट हो
जाएगी, ताली
खो जाएगी।
कितने जोर से
तुम चिल्लाते
हो, उतनी
देर तक आवाज गूंजेगी।
जितनी ताकत
तुमने दी है, उतनी ताकत
चुक जाने पर
आवाज खो
जाएगी। तो जो
भी चीज पैदा
होती है, पैदा
होने के साथ
उसकी शक्ति और
सीमा निर्णीत हो
गई।
समझो
कि एक स्त्री
और एक पुरुष
मिले, दोनों
की उम्र
परंपरा से, उनके मां—बाप
और उनके मां—बाप
और उनके मां—बाप
सौ वर्ष तक
जीते रहे, तो
उन दोनों के
हाथ से जो
बजेगी, जो
बच्चा पैदा
होगा, वह
सौ साल तक जी
सकता है।
लेकिन एक
परंपरा है मां—बापों
कि पचास साल
में मरते रहे
हैं लोग उस घर
में, तो
उनके हाथ से
जो ताली बजेगी,
जो बच्चा
पैदा होगा, वह पचास साल
में मर जाएगा।
तो तुम्हारी
उम्र करीब—करीब
तय की जा सकती
है। तुम्हारी
पिछली पांच—छह
पीढ़ियों की
उम्र जोड़ ली
जाए, और
उसका औसत
निकाल लिया
जाए, तो
तुम्हारी
उम्र वही
होगी। इसमें
बहुत अड़चन
नहीं है।
तुम्हारी मां—पिता,
तुम्हारे
मां के पिता—मां,
तुम्हारे
पिता के मां—पिता,
ऐसे एक तीन—चार
पीढ़ी
पीछे लौटकर
तुम सबकी उम्र
जोड़ लो। और
अगर दस आदमियों
को उम्र जोड़ो,
दस का भाग
दे दो, जो
भी उत्तर आएगा
वह करीब—करीब
तुम्हारी
उम्र होगी।
सत्तर तो कभी एकहत्तर
है, कभी
उनहत्तर, बस
वही तुम्हारी
उम्र होगी।
क्योंकि दो
हाथ से जो
ताली बजी है, हाथ कितनी
ताकत दे सकते
हैं, उतने
ही दूर तक
जाएगी।
जब भी
कोई चीज पैदा
होती है, तो
पैदा होने में
ही उसका अंत
तय हो जाता है—कितनी
शक्ति...।
अनाहत
कभी अंत न
होगा, क्योंकि
वह किसी से
पैदा ही नहीं
हो रहा। इसलिए
परमात्मा को
हम सनातन कहते
हैं, शाश्वत
कहते हैं, क्योंकि
वह किसी से
पैदा नहीं हुआ
है। अगर वह पैदा
हुआ है तो वह
भी मरेगा।
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश
मरेंगे, क्योंकि
वे पैदा हुए
हैं। राम,कृष्ण,
बुद्ध
मरेंगे।
क्योंकि वे
पैदा हुए हैं।
लेकिन जिससे
वे पैदा हुए
हैं, और
जिसमें वे डूब
जाएंगे, मरकर
लीन हो जाएंगे,
वे कभी नहीं
मरेगा। वही
ब्रह्म है।
वही एक ओंकार सतनाम!
बिन
बाजार झनकार
उठे जहं, समुझि परे जब
ध्यान धरै।
जब समझ में
आने लगता है, तब आदमी उस
पर ध्यान करता
है। बज तो वह
सदा रहा है।
वह झनकार तो
गूंज ही रही
है। वह झनका
ही तो तुम हो।
वह झनकार इस
समय भी
तुम्हारे भीतर
गूंज रही है; लेकिन जब समुझि
परै, जब
समझ में आ जाए
तो आदमी उस
तरफ ध्यान
देता है। और
स्मरण रखना, जिस तरफ तुम
ध्यान दोगे, वही सत्य
होगा।
एक
युवक खेल रहा
है हाकी के
मैदान पर, पैर में चोट
लग गई, खून
बह रहा है।
लेकिन वह खेल
में लीन है।
सारे दर्शकों
को दिखाई पड़
रहा है कि पैर
से खून बह रहा
है, लकीरें
बन गई हैं
जमीन पर; लेकिन
वह खेलने में
लीन है, उसे
पता ही नहीं
कि दर्द हो
रहा है, उसे
पता नहीं कि
खून बह रहा
है। खेल खतम
हुआ, एकदम
पता चला। वह
बैठ गया। पैर
से खून बह रहा
है, उसका
चेहरा पीला पड़
गया। पहली दफा
दुख का पता चला।
क्या
हुआ? चोट लगी
तब पता न चला!
ध्यान वहां न
था; ध्यान
खेल में लगा
था। खून बहा
तब पता न चला, ध्यान वहां
न था। ध्यान खेल
में लगा था।
जिस तरफ
तुम्हारा
ध्यान होगा, उसका ही पता
चलेगा। इसलिए
इस दुनिया में
हर आदमी को
अलग—अलग चीजें
पता चलती हैं।
अगर एक
कवि आ जाए बगीचे
में, तो उसे
कुछ और बातें
पता चलती हैं।
एक वैज्ञानिक
आए, उसे
कुछ और पता
चलता है।
दोनों को कोई
मेल ही न होगा।
अगर दोनों
जाकर बताए कि
एक ही बगीचे
को देखकर लौटे
हैं, तो
कोई भरोसा न
कर सकेगा।
क्योंकि कवि
को सौंदर्य
दिखाई पड़ेगा।
काव्य का जन्म
होगा। एक रोमांस
का अनुभव लेकर
वह लौटेगा।
वैज्ञानिक को
न कोई कविता
का जन्म होगा,
न कोई
रोमांस का भाव
ले कर लौटेगा।
वह शायद कुछ
नये पौधों की
जाति, उन
के नाम, क्लासिफिकेशन,
कौन—सा पौधा
किन खनिज
द्रव्यों से
मिलकर बनता है,
इस सबका पता
लेकर लौटेगा।
इन दोनों की
डायरी देखकर
आप पता न लगा
सकेंगे कि ये
एक ही बगीचे
से लौटे हैं।
यह असंभव है।
कहते हैं कि
चमार जब किसी
को देखता है
तो आदमी को
नहीं देखता, जाते को
देखता है, और
जूते से आदमी
को पहचान लेता
है। जूते की
हालत सब बता
देती है, आदमी
की पूरी हालत
बता देती है
कि आर्थिक
हालत कैसी चल
रही है, जूता
कह देता है।
दुकान ठीक चल
रही है कि
नहीं चल रही
है, जूता
देता है।
पत्नी से बन
रही है कि
नहीं बन रही
है, जूता
कह देता है।
जूते की भी
कथा है। चमार पढ़ना
जानता है।
डाक्टर
जब किसी को
देखता है, तो आदमी
नहीं दिखाई
पड़ता, बीमारी
दिखाई पड़ती
हैं। देखते से
ही तुम डाक्टर
के घर में
प्रविष्ट हुए
कि बीमारी
दिखाई पड़ती
है। तुम चाहे
मित्र की तरह
ही मिलने आए
हो...।
एक बड़े
चित्रकार ने, मानेक नाम था, एक
चित्र बनाया—एक
पोट्रेट एक
गरीब आदमी का,
एक भूखे
आदमी का—बड़ी
पीड़ा से
कराहता हुआ!
और अपने एक
मित्र डाक्टर
को निमंत्रित
किया दिखाने
को। डाक्टर दस
मिनिट तक
देखता रहा। मानेक भी
हैरान हुआ।
उसने कहा
तुम्हारी
चित्रकला में
इतनी रुचि, मुझे कभी
पता नहीं था!
उसने कहा, कैसी
चित्रकला! इस
आदमी को
अपेंडिक्स का
दर्द है। यह
जो चित्र
बनाया है। अपेंडिसाइटिस
की तकलीफ है।
डाक्टर
देखेगा वही, जो देख सकता
है। चमार
देखेगा वही, जो देख सकता
है। जहां
ध्यान है, वही
दिखाई पड़ता
है। ध्यान की
तुम्हारा
सत्य है। तुम्हारे
भीतर भी बह
रही है रस की
धार, पर
तुम खेल में
लगे हो। कोई
धन के खेल में
लगा है, कोई
पद के खेल में
लगा है। तुम
खेल में लगे
हो, वह
रसधार
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती। तुम
ठीकरे इकट्ठे
कर रहे हो।
तुम बाहर उलझे
हो। जब तुम सुलझोगे
बाहर, तब
ध्यान जाएगा।
बाहर से सुलझने
का नाम, समझ।
समझ का
मतलब बहुत
ज्यादा
सूचनाओं का
पता चलना नहीं।
समझ का मतलब
है, खेल की
समझ। समझ का
मतलब है, बाहर
के उपद्रव की
समझ; समझ का मतलब
है, अब
बाहर से चुके;
देख लिया
बहुत, अब
आंख भीतर बंद
करेंगे; खेल
लिया बहुत, अब सुसताएंगे,
विश्राम
करेंगे, दौड़
लिए बहुत, अब
जरा रुकेंगे!
जिस दिन
तुम्हें यह
दिखाई पड़
जाएगा कि बाहर
की दौड़ का कोई
भी फल नहीं है—कितना
ही पा लो, कुछ
भी मिलता नहीं;
कितना ही
इकट्ठा कर लो,
सब खाली
रहता है; धन
का ढेर लग
जाता है, तुम
गरीब बने रहते
हो—जिस दिन यह
समझ पड़ जाएगा,
उस दिन ध्यान
भीतर जाएगा।
कबीर
कहते हैं,
समुझि परै जब
ध्यान धरै!
बिन बाजा झकार
उठे जहं।
बिना
ताल जहं
कमल फुलाने।
कोई
सरोवर नहीं है, लेकिन कमल
खिल रहे हैं।
तेहि चढ़ि हंसा
केलि करै।
कमल
पूरब में बहुत
गहरा प्रतीक
है। और कमल का फूल
है भी बहुत
रहस्यपूर्ण।
बाहर जो कमल
का फूल है वह
भी
रहस्यपूर्ण
है। तो भीतर
के कमल का तो
तुम अंदाज
नहीं लगा
सकते। बाहर के
कमल की कुछ खूबियां
समझ लो, क्योंकि
बाहर के कमल
में भी भीतर
के कमल की थोड़ी
सी झलक है।
बाहर
के कमल की
पहली तो खूबी
यह है कि यह
मिट्टी से, गंदी मिट्टी
से पैदा होता
है—और उस जैसा
पवित्र फूल
नहीं है! कूड़ा—करकट,
कचरा, कीचड़—उससे
कमल पैदा होता
है; लेकिन
कमल जैसी
पवित्र
पंखुरी तुम
कहीं भी न पा
सकोगे। कमल
जैसी कोमल, ताजी...और
कीचड़ से पैदा
होता है! तो
कमल बड़े से बड़ा
रूपांतरण है।
कीचड़ से कमल—बड़े
से बड़े
क्रांति है।
तो तुम अपनी
कीचड़ से परेशान
मत होना। माना
कि कीचड़ है, बहुत कीचड़
है—उस पर तुम
ध्यान भी मत
देना। भीतर
कमल भी खिल रहे
हैं उस कीचड़
में। तुम
ध्यान कमल पर
देना। चोरी है,
बेईमानी है,
झूठ है, फरेब
है, ईर्षा
है, द्वेष
है, घृणा
है, माया, मोह—मत्सर
है—बहुत कीचड़
है। लेकिन
कीचड़ है तो
कमल भी होगा।
तुम जरा भीतर
ध्यान देना—बाहर
कीचड़, भीतर
कमल। और कीचड़
को मिटाने में
मत लगना। क्योंकि
उसी कीचड़ से
कमल को पोषण
मिल रहा है।
कीचड़ के
दुश्मन भी मत
हो जाना; तुम
तो कमल की
तलाश करना। और
जिस दिन तुम
कमल को पहचान
लोगे उस दिन
कीचड़ को भी
धन्यवाद
दोगे। उस दिन तुम
कहोगे, इस
शरीर का भी
मैं अनुगृहीत
हूं, क्योंकि
इसके बिना यह
कमल कैसे
खिलता! अगर
तुम कीचड़ होते
तो किसको यह
खयाल उठता कि
कीचड़ को बदलें;
किसको यह
खयाल उठता कि
रूपांतरण
करें; किसको
यह खयाल आता
कि क्रांति
करें; किसको
यह खयाल आता
कि शुभ, सत्यम्,
सुंदरम् की
यात्रा करें?
यह खयाल कमल
का है।
तुम
भीतर ध्यान दो, और तुम्हें
वहां कमल
खिलते दिखाई
पड़ेंगे।
तो
पहली तो खूबी
है कमल की कि
गंदी से गंदी
कीचड़ से
शुद्धतम, पवित्रम पंखुडियां
उभरती हैं। और
अगर कीचड़ में
कमल छिपा है, तो माया में
ब्रह्म छिपा
है; शरीर
में आत्मा
छिपी है।
दूसरी कमल की
खूबी है कि
रहता है यानी
में, लेकिन
पानी छूता
नहीं; रहता
है पानी में
लेकिन
अस्पर्शित
यही तो साधक
की यात्रा; रहे संसार
में, और
अस्पर्शित!
पानी तो चारों
तरफ है, लेकिन
कमल ऊपर उठ
जाता है पानी
के। कीचड़, पानी,
सबको पीछे
छोड़ देता है; भाग नहीं
जाता, रहता
वही है—ऊपर उठ
जाता है। और
फिर वर्षा का
पानी भी गिरे,
ओस का पानी
भी गिरे, कमल
को छूता नहीं।
बूंद आती है
और जाती है—सरक
जाती है।
कमल के
पास बैठकर कभी
कमल से सरकती
बूंद को देखना, उस पर ध्यान
करना। एक बूंद
गिरती है, छूती
भी नहीं, दूर
ही दूर बन
रहती है। इतने
पास होकर भी!
कमल भी पंखुडी
पर होती है।
फिर भी कहीं
कोई स्पर्श
नहीं होता।
बूंद ऐसी लगती
है जैसे पानी
की नहीं है, मोती है।
क्योंकि अगर
स्पर्श होता
तो बिखर जाती,
फैल जाती।
स्पर्श होता
नहीं, बंद
ही रह जाती
है। और जैसे
ही वजन होता
है, वैसे
ही अपने—आप गिर
जाती है। कमल
अछूता रह जाता
है। कमल अलग
रह जाता है।
कमल प्रविष्ट
ही नहीं होता।
बूंद अपने ही
भार से गिर
जाती है।
संसार
अपने ही भार
से गिर जाएगा।
तुम परेशान मत
होओ। क्रोध
अपने ही भार
से गिर जाएगा, तुम परेशान
मत होओ। लोभ
अपने ही भार
से गिर जाएगा,
तुम परेशान
मत होओ।
गिराने की कोई
चेष्टा भी मत
करो। तुम
कमलवत हो जाओ!
बस तुम कमल
जैसे हो जाओ!
छूने न दो
चीजों को।
क्रोध आए
दूसरी बार अब,
तो तुम भीतर
अपने का
अस्पर्शित
रखो, बाहर
नाटक करो
क्रोध का; क्योंकि
शायद जरूरत है
जिंदगी में
क्रोध के नाटक
के बिना
जिंदगी को
चलाना
मुश्किल है।
कभी उसका
उपयोग भी है।
करो क्रोध—नाटक
की तरह, अभिनेता
की तरह—और
भीतर अछूते
बने रहो।
ये दो खूबियां
कमल की हैं।
ये दोनों खूबियां
भीतर के कमल
की भी हैं।
फर्क एक है कि
बिना ताल जहं
कंवल
फुलाने। वहां
कोई ताल नहीं
है—और कमल
खिलता है।
क्योंकि ताल में
जो कमल खिलेगा
वे मर जायेगा; आज नहीं कल, समाप्त
होगा। बिना
ताल के जो
खिलेगा, अकारण
जो खिलेगा, वह सदा
रहेगा।
अकारण
सदा होने का
सूत्र है।
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हुआ, अगर
उसमें कोई
कारण है, वह
समाप्त होगा।
वह कारण कोई
भी हो—धन हो, सौंदर्य हो,
पद—प्रतिष्ठा
हो—कारण कोई
भी हो: जो
प्रेम कारण से
पैदा हुआ, वह
समाप्त होगा।
अकारण प्रेम
सदा रहेगा।
अगर तुम
प्रार्थना भी
कारण से करते
हो, वह भी
मुरझा जाएगी।
कारण पूरा हो
जाएगा, फिर
क्यों
प्रार्थना
करोगे!
एक
छोटे बच्चे को
उसकी मां कह
रही थी कि
तूने रात की
प्रार्थना कर
ली या नहीं? ईसाई घर था, मैं वहां
मेहमान था। उस
बच्चे ने कहा,
लेकिन अभी
कोई जरूरत ही
नहीं है। सब
ठीक ही चल रहा
है, तो
प्रार्थना किसलिए
करनी?
जब सब
ठीक चलता है, तब तुम
प्रार्थना
क्यों करोगे?
कारण से उठी
प्रार्थना, कारण के
पूरे होते ही
मुरझा जाएगी।
अकारण प्रार्थना!
अकारण
प्रार्थना
तुमने कभी की
है? तभी
तुम्हें
प्रार्थना का
रस मिलेगा।
तुम कर रहे हो,
क्योंकि
करने में आनंद
है, कोई
कारण नहीं है।
अकारण प्रेम
तुमने कभी किया
है? तब
तुम्हारा
प्रेम ही
दिव्य का
द्वार बन जाएगा।
अकारण
तुम जो भी कर
सकोगे, वही
साधना है। रास्ते
पर एक आदमी
गिर पड़ा है, तुमने अकारण
उठा दिया। अगर
कोई भी कारण
है, इतना
भी कारण है कि
लोग देख रहे
हैं, कहेंगे
कि कितना सेवा
भावी है—इतना
भी नम में भाव
हो, तो यह
साधना न रही।
कोई नदी में
डूब रहा है और
तुम कूदे
और तुमने उस
बचा लिया; और
तुमने इतना भी
चाहा कि से कम
वह धन्यवाद दे
दे; अगर
उसने धन्यवाद
न दिया, तुम
उदास और दुखी
हुए; और
तुमने सोचा
मैंने जान
दांव पर लगाई,
इस आदमी ने
धन्यवाद भी न
दिया—तो यह
साधन नहीं है।
फिर तुम संसार
को ही फैला रहे
हो। उसके नये—नये
ढंग हैं।
एक
स्त्री तालाब
में डूबकर।
मरी। मुल्ला नसरुद्दीन
किनारे पर खड़ा
था, खड़ा ही
रहा। बाद में
भीड़ इकट्ठी हो
गई। जब लाश निकाली
गई, नसरुद्दीन से पूछा कि
तुम यहां
मौजूद थे, चाहते
तो बचा लेते। नसरुद्दीन
ने कहा कि
मैंने
कहानियां भी
पढ़ी हैं, फिल्में
भी देखी हैं।
मैं तो उसे
बचा लेता। लेकिन
अगर वह विवाह
का प्रस्ताव
करती, जैसा
सभी फिल्मों
में होता है, फिर मुझे
उससे कौन
बचाता?
कारण—इस
तरह या उस तरफ—और
तुम संसार में
हो! अकारण—और
तुम संसार के
बाहर हुए!
क्योंकि
परमात्मा का
एक ही गुण—धर्म
है कि वह
अकारण है।
उसका कोई कारण
नहीं है। तुम
यह नहीं पूछ
सकते कि
परमात्मा
क्यों है। यह
बात ही व्यर्थ
है। तुम यह
नहीं पूछ सकते
कि अस्तित्व
क्यों है। यह
बस है—इसका
कोई कारण नहीं
है।
अकारण
तुम अगर हो गए, तो तुम
अस्तित्व
जैसे हो गए।
अकारण
की सूचना कबीर
देते हैं:
बिना ताल हजं
कंवल
फुलाने, तेहि चढ़ि
हंसा केलि करै।
और जिस
दिन तुम्हारे
जीवन में
अकारण फूल
खिलेंगे, उस
दिन तुम्हारी
आत्मा हंस की
तरह उन पर क्रीड़ा
करेगी।
तुम्हारी
आत्मा की क्रीड़ा
तभी शुरू होगी,
तुम्हारी
आत्मा की
प्रफुल्लता, उत्सव तभी
शुरू होगा, जब जीवन में
अकारण कमल खिलें।
नहीं तो तुम
दुख ही पाओगे।
तुम्हारी
आत्मा, तुम्हारा
हंस रोता ही
रहेगा। कारण
से अगर तुम
जिये, तो
तुम्हारी
आत्मा तरसती
ही रहेगी, उसकी
तृषा न
बूझेगी।
अकारण तुम
जिये कि फिर
भीतर का जो
हंस है, फिर
वह क्रीड़ा
कर पाता है।
उस क्रीड़ा
करनेवाले हंस
को ही हमने
परमहंस कहा
है। हंस तो
सभी हैं—रोते,
परेशान
होते, व्यर्थ
ही दीन हुए, व्यर्थ ही
भीख मांगते; मिलता भी
कुछ नहीं है।
जिस
दिन तुम्हारे
भीतर अकारण
कमल खिलता है, उसी दिन
तुम्हारा हंस
परमहंस हो
जाता है।
बिन
चंदा उजियारी
दरसै, जहंत्तहं हंसा नजर परै।
और
जहां तक
तुम्हारी
भीतर की आंख
जाती है...और उसके
जाने की कोई
सीमा नहीं, असीम है।
क्योंकि भीतर
की आंख के लिए
कोई बाधा नहीं
है। वह वहां
तक जाती है
जहां तक
अस्तित्व है—और
अस्तित्व सब
तरफ है, सब
जगह है।
अस्तित्व
कहीं समाप्त
नहीं होता। एक
जगह नहीं आती
जहां लगा हो
कि बस, रुक
जाओ, रास्ता
बंद है।
अस्तित्व
अनंत है, असीम
है। और उस
भीतर के हंस
की आंख सब तरफ
जाती है, सब
दिशाओं में
डोलती है।
बिना
चंदा उजियारी
दरसै, जहंत्तहं हंसा नजर परै।
और जहां तुम
नजर जाती है, वहां तक एक
उजाला दिखाई
पड़ता है—जो
बिना चांद के
है। इसे थोड़ा
समझ लें।
एक तो
रोशनी है सूरज
की। सूरज की
रोशनी में रोशनी
भी है, ताप भी
है; गर्मी
भी है, उष्णता
भी है। रोशनी
तो है, लेकिन
रोशनी में
पीड़ा है। तुम
ज्यादा देर
उसे न झेल
सकोगे। और तुम
सूरज की तरफ
आंख भी न कर सकोगे।
और उन ताप में
एक पीड़ा है जो
जल्दी ही तुम्हें
झुलसा देगी।
चांद की रोशनी
में फर्क है: चांद
में रोशनी तो
है, लेकिन
शीतल है। तुम
चांद की तरफ
देख भी सकते
हो। और तुम चांद
की रोशनी में
घंटों बैठ
सकते हो—और
तुम शीतल होते
जाओगे, तुम
शांत होते
जाओगे।
ध्यान
सूरज की रोशनी
जैसा नहीं है; ध्यान चांद
की रोशनी जैसा
है।
दूसरी
बात: कबीर
कहते हैं, वहां चांद
भी नहीं है, बस रोशनी है—बिना
स्रोत, बिना
कारण।
क्योंकि चांद
की रोशनी भी
होगी तो चांद बुझेगा, तो चांद ढलेगा।
तो कभी
पूर्णिमा
होगी, कभी
अमावस होगी।
कभी चांद
दिखेगा, कभी
नहीं दिखेगा।
बिना स्रोत की
रोशनी सदा रहेगी।
दसवें
द्वार तारी
लागी, अलख
पुरुष जाको
ध्यान धरै।
यह दसवें
द्वार तारी लागी...दसवां
द्वार है, सहस्रार।
वहां तारी
लागी। यह तारी
शब्द बड़ा मधुर
है। शब्दकोश
में उसका जो
अर्थ है, उससे
पूरी बात समझ
में न आएगी।
क्योंकि
शब्दकोश तो
कहेगा: नींद
लगी—तारी लगी!
लेकिन तारी का
अर्थ सिर्फ
नींद नहीं है।
तारी का अर्थ
है: एक
सम्मोहित
चित्त की दिशा।
जैसे तुम अपनी
प्रेयसी को
देखते हो, जैसे
मजनू ने लैला
को देखा होगा—वह
तारी है! तारी
का मतलब यह है
कि सारी
दुनिया का होश
खो गया, बस
लैला रह गई; सारी दुनिया
के प्रति मजनू
सो गया, सिर्फ
लैला के प्रति
जागा रहा है।
अगर
तुमने किसी हिप्नोटिस्ट
को, सम्मोहन
करनेवाले को
देखा हो, तो
वह जब आदमी को
सुला देता है,
सम्मोहित
करके, तो
सबके प्रति तो
सो जाता है, लेकिन
सम्मोहन
करनेवाले के
प्रति जगा
रहता है। वह
अगर कहता है
कुछ तो वह
सुनता है, वह
कहता है, उठकर
खड़े हो जाओ, दौड़ो, तो वह दौड़ता
है। लेकिन अगर
कोई और बोलेगा,
तो वह नहीं
सुनेगा। सबके
प्रति सो गया,
जिसने
सम्मोहित
किया है बस, उसके प्रति
जागा रह गया।
ध्यान अपलक एक
की तरफ लग
गया।
तारी
का मतलब है, सारे संसार
के प्रति नींद
हो गई, जैसे
संसार है ही
नहीं, और
सिर्फ
परमात्मा की
तरफ आंख अटकी
रह गई। अपलक, पलक झपती
भी नहीं। यह
होगा ही।
क्योंकि जब
दसवें द्वार
पर पहली दफा
कोई खड़ा होता
है, और उसे
विराट
सौंदर्य को
देखता है, उस
अनंत ध्वनि को
सुनता है, उस
अमृत की धार
में स्नान
करता है, पहली
बार
ब्रह्मानंद
का रस चखता है,
तारी लग
जाती है। तारी
लग गई। अब सब
संसार भूल गया।
ऐसा
रामकृष्ण को बहुत
बार हो जाता
था कि वे छह—छह
दिन तक बेहोश
पड़े रह जाते
थे—वह तारी की
दशा थी। उनको
कहीं भी लग
जाती। वे रास्ते
पर चल रहे हैं, और किसी ने
कह दिया जय
राम जी—उनमी
तरी लग लग
गई, वे वही
रास्ते पर खड़े
रह गए; हाथ—पैर
वैसे ही रह
गए। लोग तो
समझते कि
विक्षिप्त हो
गए। उठाकर घर
लाना पड़ता।
घंटों लग जाते
तब तो होश में
आते। कोई उनसे
पूछता कि क्या
हो जाता है, तो वे कहते
ये शब्द ऐसे
हैं कि याद आ
जाती है। राम!...और
मैं भीतर चला
गया। वे दसवें
द्वार पर पहुंच
गए। यह शब्द
जैसे चाबी हो
गया। इसने
एकदम दसवां
द्वार खोल
दिया। और जब कोई
दसवें द्वार
पर पहुंच जाता
है, तो
संसार से खो
गया। वह
रास्ते पर खड़ा
हो, खतरा
हो ट्रैफिक का
कि कार में दबेगा
कि बस में, कोई
फिकर नहीं—वह
वहीं खड़ा ही
रहेगा।
रामकृष्ण
को उनके भक्त
जब कहीं ले
जाते थे, तो
खयाल रखते थे
रास्ते में, कोई
परमात्मा का
नाम न ले दे! तो
रास्ते में एक
उपद्रव हो
जाता है। और
लोगों की तो
कुछ समझ नहीं।
लोग समझते हैं,
यह पागल हो
गया, दीवाना
है! रामकृष्ण
को लोग उत्सव,
जलसों में
नहीं बुलाते
थे। क्योंकि
यदि वह वहां
पहुंच जाए तो
वे खुद ही
जलसा हो जाए।
किसको रोको, कोई कुछ कह
दे!
किसी
के घर शादी
थी। भक्त थे
रामकृष्ण के, उनको
बुलाया। पहले
ही वे
प्रार्थना कर
गए थे कि आप
खयाल रखना, क्योंकि
शादी का वक्त
है। पर
रामकृष्ण
कैसे खयाल रख
सकते हैं!
खयाल रखने
वाला कौन! जब
तारी लग जाती
तो कैसा खयाल!
कबीर ने कहा
है कि पूरी मधुशाला
पी गया हूं, और तुम खयाल
की बात करते
हो! थोड़ी—बहुत
शराब नहीं पी
है—परी
मधुशाला...।
रामकृष्ण गए।
और जैसे ही वे
दरवाजे में
प्रवेश कर रहे
थे, किसी
ने कह दिया, जय राम जी—वे
वहीं खड़े हो
गए! छह दिन तक!
सब शादी—विवाह
ठंडा हो गया।
दूल्हा—दुल्हन
को लोग भूल गए,
उनकी फिकर
करनी जरूरी हो
गई। वे गिर
पड़ते और जब भी
उठते, रोते
उठते। आंख से
आंसुओं की धार
बह रही और चिल्लाते
उठते कि मां, मुझे दूर
क्यों किए दे
रहे है? क्यों
द्वार बंद हो
रहा है? क्यों
मुझे वापिस
भेजा जा रहा
है? उठते
और रोते।
तारी
का अर्थ है:
दसवें द्वार
का सम्मोहन।
वहां से
परमात्मा
दिखता है।
जिसकी आंख उस
पर पड़ गई, सारा
संसार खो जाता
है। शुरुआत
में तो चाहिए
साथी—संगी, भक्त, जो
ध्यान रख सके;
अन्यथा वह
आदमी मर
जाएगा।
क्योंकि वह छह
दिन बेहोश
पड़ा...पानी भी
देना पड़ता है
मुंह में, दूध
भी देना पड़ता,
पंखा भी
करना पड़ता, ओढ़ाना भी पड़ता।
उसे तो कुछ भी
पता नहीं। वह
इस दुनिया में
है ही नहीं।
लाश पड़ी है इस
दुनिया में।
वह तो किसी और
देश में उड़
गया! कबीर
कहते हैं—चल
हंसा वा देश—वह
जो दूसरा देश
है, चल
वहां!
नानक
एक गांव से
गुजर रहे थे।
और हंस उड़ गए
आकाश में।
सरोवर के
किनारे खड़े
थे। और हंसो
की एक कतार
उठी और नानक
उनके पीछे
भागने लगे।
मरदाना, उनका
भक्त साथ था।
उसने बहुत
रोकने की
कोशिश की कि
यह क्या कर
रहे हो; लेकिन
वह रुके नहीं।
मरदाना भी
पीछे भागता रहा।
जब तक हंस न
रुक गए, तब
तक नानक न
रुके। लगता है
हंस भी समझे।
हंस रुक गए।
नानक उनके पा
पहुंच गए।
मरदाना तो डरा
कि वह पास
जाएंगे तो वह
फिर उड़ जाएगा,
मगर वे नहीं
उड़े।
नानक उनके बीच
बैठ गए। और
आंखों से
आंसुओं की धार
बह रही है। और
उन्होंने जो
वचन कहे, वे
बड़े अदभुत थे।
उन्होंने कहा,
हंसो, तुम तो बड़े
दूर आकाश में
उड़ते हो, तुमने
जरूर उस
बनानेवाले को
कभी देखा
होगा! तुम तो
बड़ी—बड़ी दूर
की यात्रा पर
जाते हो—चल
हंसा वा देश—तुमने
जरूर मेरे
बनानेवाले को
देखा होगा!
मैं उसकी तलाश
में हूं, कुछ
खोज—खबर तो
मुझे दो, कुछ
पता—ठिकाना!
फिर आंसू बह
रहे हैं और वे
वहीं रुके हैं।
और एक परम
मस्ती ने उनको
घेर लिया।
मरदाना
को वे हमेशा
साथ रखते थे।
मरदाना एक
संगीतज्ञ था।
जैसे ही नानक
खोने लगते, वह अपना
एकतारा छेड़
देता। वह
एकतारा तरकीब
थी उनको वापिस
लाने की। वह
मरदाना के
एकतारा को
सुनकर, तत्क्षण
वापिस आ जाते
थे। वह कुंजी
थी। नहीं तो
वे दसवें
द्वार पर अटक
जाएं, तो
जो रामकृष्ण
की हालत होती
थी, वह
नानक की होती।
लेकिन
रामकृष्ण के
पास मरदाना
जैसा कोई कुशल
कलाकार नहीं
था, क्योंकि
वह वही धुन
बजाता था, जो
वापिस लौटा
ले। धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे
नानक वापिस आ
जाते, स्वस्थ
हो जाते, शरीर
में हो जाते।
मरदाना को
उन्होंने
जीवनभर साथ
रखा। मरदाना
मुसलमान था, नानक हिंदू
थे। मंदिर में
भी जाते तो
तभी जाते जब मरदाना
साथ जा सके, क्योंकि
मंदिर में
तारी लग जाए!
अगर कोई मंदिर
कहता कि
मुसलमान को न
जाने देंगे तो
वह मंदिर नानक
के जाने के
लिए बंद थे।
तारी
का अर्थ है, जब कोई दशम
द्वार पर खड़ा
होगा। जब कोई
दसवें द्वार
के आगे निकल
जाता है, तब
फिर तारी नहीं
लगती। बुद्ध
और महावीर को
तारी नहीं
लगती। इस
दसवें द्वार
पर खड़े हो कर
जब कोई देखता
है, उस
अनंत के
सौंदर्य को, तब तारी
लगती है।
इसलिए याद
रखना इस बात
को। रामकृष्ण
को जैसी
बेहोशी थी, ऐसी बुद्ध
और महावीर के
जीवन में कभी
नहीं आई। दसवें
द्वार पर
रुककर
उन्होंने
देखा नहीं। वे
तो सीधे उतर
गए, द्वार
पर ध्यान ही
नहीं दिया।
द्वार के पार
कौन है, उस
तरफ भी नहीं
देखा—वे चले
ही गए। वे खुद
ही एक हो गए
उसके साथ। फिर
तारी नहीं
लगती, क्योंकि
द्वैत चाहिए,
तारी लगने
को। परमात्मा
अलग, मैं
अलग। मैं अपने
घर पर खड़ा
हूं।
परमात्मा
मुझे दिखाई पड़
रहा है—तब
तारी लगती है।
जब मैं डूब ही
गया परमात्मा में,
एक हो गया, तब तारी
नहीं लगती।
तारी किसकी
लगेगी? तारी
भक्त की लगती
थी, भगवान
की नहीं।
तो
इसलिए यह एक
बड़ी बेबूझ
घटना है। लोग
पूछते हैं कि
रामकृष्ण को
जैसा होता था, वैसा बुद्ध
को क्यों नहीं
हुआ? महावीर
को क्यों नहीं
हुआ? या तो
राम—कृष्ण गलत
हैं, या
बुद्ध और
महावीर गलत
हैं। कोई भी
गलत नहीं है।
रामकृष्ण
दसवें द्वार
पर खड़े होकर
झलक ले रहे
हैं। और वह
भक्त की
मनोदशा है।
भक्त कहता है:
हे भगवान थोड़ी
दूरी बनाए
रखना, ताकि
मैं तुझे देख
सकूं, और
तेरा रस पी
सकूं, और
तेरे सौंदर्य
को निहार सकूं,
थोड़ी दूरी
बनाये रखना!
भक्त
भगवान होना
नहीं चाहता।
भक्त कहता है:
आखिर तक थोड़ा
फासला बनाए
रखना। मैं
तेरे सिंहासन
के पास आ जाऊं, लेकिन तेरे
चरणों को छुऊं—बस
इतना काफी है।
जन्मों—जन्मों
तक भक्त रहूं।
निश्चित
ही बड़ा
अपरंपार
सौंदर्य है, जो ज्ञानी
को नहीं मिलता,
जो भक्त को
मिलता है; क्योंकि
भक्त थोड़ा
फासला बनाए
रखना है। और
कहता है: तुम
भगवान, मैं
भक्त। तुम
मालिक, मैं
दास।
इसलिए
कबीर बार—बार
कहते हैं, कहे दास
कबीर। मालिक
नहीं— दास।
तुम्हारे चरण
पकड़ लूं, बस
इतनी मेरी
मंजिल। वही
मेरा बैकुंठ,
वही मेरा
मोक्ष!
भक्तों
ने गाया है कि
मैं मोक्ष
नहीं चाहता; मुझे
तुम्हारे
चरणों की सेवा
चाहिए। तो
भक्त दसवें
द्वार पर
रुकता है:
उससे आगे नहीं
बढ़ता; क्योंकि
उससे आगे बढ़ा
कि सागर में
गया। जैसे गंगा
वहीं रुक जाए
जहां से सागर
में गिरती है,
और वहां से
खड़े होकर सागर
को देखे। यह
तो नानक, कबीर
और रामकृष्ण
की दशा है।
बुद्ध
और महावीर
सीधे सागर में
चले जाते हैं; वे सागर हो
जाते हैं।
वहां भक्त और
भगवान का कोई
फासला नहीं रह
जाता। वे
स्वयं भगवान
हो जाते हैं।
फिर तारी नहीं
लगती—तारी
किसकी लगे, किस पर लगे? द्वैत खो
गया, तारी
खो गई।
दसवें
द्वार तारी
लागी, अलख
पुरुष जाको
ध्यान धरै।
काल
कराल निकट
नहिं आवै, काम—क्रोध—मद—लोभ
जरै।।
और इस
दसवें द्वार
पर अब न तो मौत
पास आती; क्योंकि
पहले द्वार पर
मौत है, दसवें
द्वार पर अमृत
है। पहले
द्वार पर जीवन—मौत,
दोनों हैं।
दसवें द्वार
पर, जीवन
के पार जो
जीवन है—जिसका
कोई जन्म नहीं,
जिसका कोई
अंत नहीं—महाजीवन
है।
काल
कराल निकट
नहिं आवै, काम—क्रोध—मद—लोभ
जरै...और अब
काम, क्रोध,
मद, लोभ
सब अपने—आप जल
गया। हटाना
नहीं पड़ता, लड़ना नहीं
पड़ता। वे तो
सब पहले द्वार
के अनुषांगिक
अंग हैं। जो
पहले द्वार पर
खड़ा है, काम
के द्वार पर
जो खड़ा है, उसे
क्रोध भी होगा,
मद भी होगा,
लोभ भी
होगा।
क्योंकि जब तक
कामना है, जब
तक तुम क्रोध
से कैसे मुक्त
होओगे? जो
भी तुम्हारी
कामना में
बाधा डालेगा,
उसी पर
क्रोध आएगा।
तब तक तुम मद
से कैसे मुक्त
होओगे? क्योंकि
अगर मद से तुूम
मुक्त हो गए, बेहोशी से
मुक्त हो गए, तो कामवासना
में कौन
गिरेगा? तब
तक तुम लोभ से
कैसे मुक्त
होओगे? क्योंकि
लोभ का इतना
ही अर्थ है, कामवासना को
पूरी करने का
साज—सामान
जुटाना। अगर
तुम झोपड़े
में हो तो
बहुत सुंदर
स्त्री न पा
सकोगे। सुंदर
स्त्री पाने के
लिए महल
चाहिए। झोपड़े
में हो तो झोपड़े
के लायक
स्त्री
मिलेगी।
तो लोभ
का अर्थ इतना
ही है कि
कामवासना ठीक
से पूरी हो
सके, उसका
इंतजाम
जुटाना। जब तक
काम है तब तक
क्रोध, लोभ
सब जारी
रहेंगे। काम
कैसे मिटेगा?
लड़—लड़ कर कभी
नहीं मिटता।
जिसकी जीवन—ऊर्जा
दसवें द्वार
पर पहुंच जाती,
वह अचानक
पाता है, सब
जल गया! अब न
काम है, न
क्रोध है, न
लोभ है।
जुगत—जुगत
की तृषा बुझानी...और
जन्मों—जन्मों
की जो प्यास
थी वह बुझ गई।
क्योंकि जिसकी
तलाश तुम
संसार में कर
रहे हो, वह
संसार में है
नहीं। तो
प्यास तो बनी
ही रहती है।
कितना ही पियो
इस पानी को, प्यास बुझती
नहीं।
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है। एक
कुएं के पास गए।
राह से गुजरते
थे। एक औरत
पानी भरती थी।
जीसस ने कहा
कि मुझे पानी
पिला दे, मैं
बहुत प्यासा
हूं। धूप थी, लंबी यात्रा
थी। दूर गांव
से चलकर आए
थे। उस स्त्री
ने कहा, क्षमा
करें, लेकिन
मैं अछूत जात
की हूं, छोटी
जात की हूं।
और बता देना
उचित है। मेरे
हाथ का छुआ
पानी बड़ी जात
के लोग नहीं
पीते।
जीसस
ने कहा, तू
उनकी फिकर
छोड़। और अगर
तू मुझे पानी पिलाएगी
इस कुएं का, तो मैं तुझे
उस कुएं का
पानी पिलाऊंगा
कि फिर प्यास
कभी लगती
नहीं। मैं
तुझे वह पानी
पिला सकता हूं
कि उसे पीने
के बाद प्यास
फिर कभी लगती
नहीं।
जीसस
जिस कुएं की
बात कर रहे
हैं, वह दसवां
द्वार है। उस
दसवें द्वार
पर जो खड़ा हो
जाता—जुगत—जुगत
की तृषा बुझानी,
कर्म—कर्म
अध—व्याधि टरै—सब
पाप, कर्म
इत्यादि सब
समाप्त हो गए,
सब जल गए।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, अमर
होय कबहूं
न मरै। और
इस दसवें
द्वार को
जिसने जान
लिया, वह
अमर हो गया।
उसकी फिर कोई
मृत्यु नहीं
है।
धर्म
अमृत की खोज
है। अमृत
दसवें द्वार
का अनुभव है।
कैसे
तुम्हारी
ऊर्जा, तुम्हारी
जीवन शक्ति, पहले द्वार
से उठे और
दसवें तक
पहुंच जाए—यही
सारी ध्यान—विधियों
का लक्ष्य है।
यहां
हम कुंडलिनी
ध्यान का
प्रयोग कर रहे
हैं। वह ध्यान
तुम्हारी
ऊर्जा को पहले
द्वार से उठा
कर दसवें तक
ले जाने का
मार्ग है।
इसलिए पहले
दिस मिनिट तुम
शरीर को कंपाते
हो। कंपाने
का अर्थ है कि
जो—जो ऊर्जा
जहां—जहां दबी
पड़ी है, वह
पिघल जाए; जहां—जहां
रुकी पड़ी है, वहां—वहां
से गतिमान हो
जाए। अगर
तुमने ठीक से
शरीर को दस
मिनिट
संपूर्ण भाव
से कंपाया तो
सारी दबी हुई
ऊर्जा प्रकट
हो जाएगी, बहने
लगेगी।
फिर
दूसरे चरण में
नृत्य है।
नृत्य का अर्थ
है कि जो
ऊर्जा अब फैल
गई है सब तरफ, वह आनंद भाव
से रूपांतरित
हो, तुम
नाचो; जैसे
तुम एक उत्सव
में हो; जैसे
कोई महा घटना
घटी; जैसे
तुम्हारे
जीवन में कोई
प्रकाश उतरा!
तुम नाचो आनंद
भाव से!
क्योंकि
जितने तुम
आनंदित होते
हो, उतनी
ही ऊर्जा ऊपर
उठती है; जितनी
ऊर्जा ऊपर
उठती है, उतने
तुम आनंदित
होते हो। तो
अगर तुम मस्त
होगे, नाचने
लगे, जैसे
पूरी मधुशाला
पी गए...ऐसा
कंजूस का नाच—उससे
कम न चलेगा—कि
नाच रहे हैं
ऐसा, जैसे
कि बड़ी मजबूरी
है, कि
क्या करें, अब आ फंसे
हैं; या कि
देख लें शायद
कुछ हो! न, ऐसे
चलेगा। कुनकुना
काम, काम
नहीं आएगा।
त्वरा चाहिए!
नाच रहे हैं, जैसे पागल
होकर!
पागल
हुए बिना
परमात्मा
नहीं मिलता।
तुम अपनी
बुद्धि से चले
तो तुम तुम
जहां हो वहीं
रहोगे।
तुम्हारी
बुद्धि से थोड़ा
पार जाने की
जरूरत है। और
जब तुम्हारी
पूरी ऊर्जा
आनंदमग्न हो
गई है, ऊपर
की तरफ बह रही
है...आनंदमग्न
होने का अर्थ
ही है कि ऊपर
की तरफ बह रही
है। क्योंकि
आनंद का भाव
ही ऊपर की तरफ
बहने से होता
है। जितनी
नीचे बहती, इतना दुख का
भाव होता है, उतना ही
जीवन में नर्क
उतरता है।
इसलिए हम कहते
हैं नर्क नीचे,
और स्वर्ग
ऊपर। उसका
मतलब कुल इतना
ही है कि पहले
द्वार के साथ
जुड़ा है नर्क
और दसवें
द्वार के साथ
जुड़ा है
स्वर्ग। ऊपर—नीचे
का और कोई
मतलब नहीं।
जब
तुम्हारी
ऊर्जा पहले
द्वार से नीचे
गिरती है, तब तुम अपने
जीवन में नर्क
पैदा कर रहे
हो। और जब
तुम्हारी
ऊर्जा दसवें
द्वार पर खड़े
होकर विराट की
तरफ बहती है, तब तुमने
अपने जीवन में
स्वर्ग बना
लिया। दोनों
तुममें छिपे
हैं। जब ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है और तुम
आनंदमग्न हो,
तब ठहरकर
खड़े हो जाना
या बैठ जाना; ताकि ऊर्जा
को अब पूरा
मौका मिल जाए
प्रवाहित होने
का। बैठ जाना
उपयोगी है, ताकि सिर्फ
रीढ़ बचे। सारा
शरीर खो जाए, सिर्फ रीढ़
बचे। और रीढ़
से ऊर्जा ऊपर
जाए और सारी
रीढ़ में
संगृहीत हो
जाए। फिर लेट
जाना है, ताकि
जो ऊर्जा
संगृहीत होकर
ऊपर बह रही है
उसको और सुबह
हो जाए, वह
दसवें द्वार
पर टक्कर
मारने लगे।
कुंडलिनी का
पूरा प्रयोग
दसवें द्वार
पर टक्कर
मारने का है।
अगर तुमने ठीक
से किया, तो
तुम भी कह
सकोगे:
जुगत—जुगत
की तृषा बुझानी, कर्म—मर्म
अध—व्याधि टरै।
कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, अमर
होय कबहूं
न मरै।।
आज
इतना ही।
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