ज्ञान से शून्य होने में ज्ञान से पूर्ण होना है—(प्रवचन—बीसवां)
दिनांक; सोमवार, 30 जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान,
क्या
प्रभु—मिलन
में विरह—अवस्था
से गुजरना
आवश्यक है?
2—भगवान,
मैं
मृत्यु की तो
बात दूर, मृत्यु शब्द
से भी डरती
हूं। मृत्यु
से कैसे छुटकारा
हो सकता है?
3—भगवान,
आप
इतने प्रेम से
समझाते हैं, पर मुझ
अज्ञानी के
पल्ले कुछ भी
नहीं पड़ता। वैसे
वेद, पुराण,
गीता
इत्यादि सब
मेरी समझ में
आ जाते हैं।
फिर आप क्यों
समझ में नहीं
आते?
पहला
प्रश्न:
भगवान, क्या प्रभु—मिलन
में विरह—अवस्था
से गुजरना
आवश्यक है?
कैलाश!
विरह की
अवस्था में तो
तुम हो ही, गुजरने की
बात नहीं।
तुम्हारा
होना ही विरह
की अवस्था है।
तुम्हारा मिट
जाना मिलन।
विरह कोई ऐसी
बात नहीं है
कि कल तुम्हें
उसमें से गुजरना
होगा, आज
ही तुम उसमें
हो। कल भी तुम
उसमें थे। और
यदि कुछ न
किया तो कल भी
तुम उसमें ही
रहोगे।
विरह
का अर्थ है:
मैं पृथक हूं, अलग हूं, अस्तित्व
से भिन्न हूं,
अभिन्न
नहीं, ऐसी
प्रतीति।
जैसे कोई
पत्ता वृक्ष
का समझ ले कि
मैं वृक्ष से
अलग हूं। होता
नहीं समझने से,
मानने से
होता नहीं, रहता तो
वृक्ष का ही
हिस्सा है, लेकिन
मान्यता हो
जाए तो भ्रांति
खड़ी हो जाती
है। प्रभु से
हम अलग नहीं
हैं, सिर्फ
अलग होने की
भ्रांति है।
भ्रांति ही तोड़नी है।
प्रभु से जुड़ना
थोड़े ही है!
उससे तो जुड़े
ही हैं। लाख
उपाय करें तो
भी टूट नहीं
सकते। टूटना
असंभव है।
क्योंकि
टूटकर होना
असंभव है। जो
भी है प्रभु
में है।
अस्तित्व अर्थात
परमात्मा।
तुम हो, इतना
काफी है
तुम्हारा
परमात्मा में
होने के लिए।
कौन ले रहा है
तुम्हारे
भीतर श्वास? कौन
तुम्हारे
प्राण में धड़क
रहा है? कौन
है तुम्हारे
भीतर चैतन्य?
वही है।
लेकिन, पत्ते ऐसी
भूल नहीं
करते। कर नहीं
सकते। करने की
उनकी
सामर्थ्य
नहीं। मनुष्य
ऐसी भूल करता
है। करने की
उसकी
सामर्थ्य है।
यह मनुष्य की
महिमा है और
उसका
दुर्भाग्य भी।
महिमा, क्योंकि
मनुष्य अकेला
है जो स्व—चेतन
हो सकता है।
और दुर्भाग्य,
क्योंकि
स्व—चेतन होने
की क्षमता का
दुरुपयोग हो
सकता है। और
स्व—चेतन होने
की क्षमता
अहंकार बन सकती
है। अहंकार बन
जाए तो हम टूट
गए परमात्मा
से।
अहंकार
यानी विरह की
अवस्था।
फिर
जीवन रुदन है, विषाद है, विक्षिप्तता
है। इसलिए
क्योंकि जैसा
नहीं है वैसा
हम मान रहे
हैं। जहां
दीवाल है वहां
द्वार मानोगे
तो विक्षिप्त
नहीं तो और
क्या? और
जहां द्वार है
वहां दीवाल मानोगे
तो मुश्किल
में तो पड़ोगे!
निकल तो न सकोगे।
द्वार का
उपयोग न कर
सकोगे! दीवाल
से टकराओगे
और द्वार से
निकल न पाओगे।
मगर द्वार द्वार
है, तुम
चाहे दीवाल
मानो और दीवाल
दीवाल है,
तुम चाहे
द्वार मानो।
मान्यता
में मनुष्य
भूला है।
मान्यता के
अतिरिक्त
कहीं कोई भ्रांति
नहीं है।
तुमने मान रखा
है कि मैं हूं।
न केवल मान
रखा है, वरन
तुम इसे सब
भांति पुष्ट
करते हो। धन
से, पद से, प्रतिष्ठा
से। इसे पोषण
देते हो। कोई
इस पर चोट करे
तो मरने को
तैयार हो जाते
हो। तुम अपने
अहंकार की
रक्षा में सतत
तैनात हो, नंगी
तलवार लिए। और
कभी अगर
तुम्हें
मजबूरी में
झुकना भी पड़ता
है तो झुकना
ऊपर—ऊपर होता
है, भीतर
तुम बदले की
प्रतीक्षा
करते हो। कब
मिले समय, कब
आए अवसर कि
जिसके समाने
तुम्हें
झुकना पड़ा है,
तुम उसे
झुका लो?
विरह
का अर्थ है:
मैंने मान
लिया कि मैं
इस विराट से
अलग हूं। बस
पीड़ा शुरू
हुई! तड़फन
शुरू हुई! फिर
तुम्हें अगर तड़फन का
ठीक—ठीक बोध
हो जाए तो तुम
आस्तिक। तो
तुम तलाश में
लग जाओगे, कि कैसे
भ्रांति टूटे
और कैसे सत्य
से मेरा संबंध
पुनः हो जाए? कैसे मुझे
सुरति आए, स्मृति
आए? और अगर
तुमने ठीक से
न समझा तो
विरह को तुम
समझोगे धन की
कमी, पद की
कमी, प्रतिष्ठा
की कमी। फिर
संसार की दौड़
है।
ये
दोनों ही
यात्राएं
धर्म की और
संसार की विरह
से पैदा होती
हैं। एक सद—यात्रा
है, सम्यक
यात्रा है, क्योंकि अगर
तुम चल पड़े
धर्म के मार्ग
पर, स्वभाव
के मार्ग पर, तो आज नहीं
कल विरह मिट
जाएगा और मिलन
होगा। मिलन जो
कि वस्तुतः है
ही। सिर्फ
उसका
आविष्कार होगा,
उदघाटन
होगा, पर्दा
उठेगा। परदे
की ओट में है
अभी। फिर आंख के
सामने होगा।
भक्त भी विरह
में जीता है
और जिनको तुम
संसारी कहते
हो, वे भी
विरह में जी
रहे हैं।
यद्यपि भक्त
का विरह एक
दिन मिलन बन
जाएगा और जो
संसारी हैं, उनका विरह
और भी और नर्क
बनता जाएगा।
लिख—लिख
भेजीं
अनगिन पाती
फिर
भी नहीं निठुर
तुम आए।
दिन
फिर गए बिजन—बगिया
के, घिर—घिर
आए घन कजरारे,
महक
उठी मेंहदी की
क्यारी, चहक उठे
द्वारे
चौबारे,
आंगन
की निबिया
बौराई, फूल
उठी घर की
अमराई,
सब—सब
बोले, तुम्हीं
न बोले, बैठे
एक हमी मन
मारे,
हंसी
खो गई, खुशी
खो गई
नींद
बिकाई, चैन गंवाए।
किसके
मंदिर करूं
आरती, किसके
द्वारे करूं
समर्पण,
किसको
भेजूं
मौन संदेशे, किसको भेजूं
नेह निमंत्रण,
लिख—लिख
भेजी अनगिन
पाती, कोई
नहीं लौट कर
आती,
सब—सब
आए, तुम्हीं
न आए, ऐसी
बान पड़ी किस
कारण,
इतनी—इतनी
लगन धराई
इतने—इतने
जतन कराए।
गुमसुम
चुप रह गई
देहरी, खटक—खटक
रह गई किवरिया,
झूम—झूम
झुक उठे बदरवा, बरस—बरस रह
गई बदरिया,
जब—जब
आई याद
तुम्हारी, बढ़ी और मन की
लाचारी,
कसक—कसक
रह गया करेजवा, बीज गई
बेरहम उमरिया,
सौ—सौ
बार संदेश पठाए
फिर
भी नहीं निठुर
घर आए।
लिख—लिख
भेजीं
अनगिन पाती
फिर
भी नहीं निठुर
तुम आए।
भक्त
अस्तित्व के
प्रेम में है।
जहां प्रेम है, वहां विरह
सघन होगा।
जहां प्रेम है,
वहां प्यास
सघन होगी।
जहां प्रेम है,
वहां पुकार
उठेगी
अहर्निश, आकांक्षा
जगेगी। कब
होगी सुबह? कब टूटेगी
रात? कब
अंधेरा
मिटेगा दूरी
का? कब
होगा सामीप्य,
सान्निध्य
उपलब्ध? जितनी—जितनी
यह प्रीति, जितनी—जितनी
यह प्यास सघन
होगी, उतनी
ही संभावना
प्रबल होगी
मिलन की। एक
ऐसी घड़ी आती
है कि प्यासा
तो गल ही जाता
है, प्यास
ही रह जाती
है। एक ऐसा
अपूर्व क्षण
आता है जब रोने
वाला नहीं
बचता सिर्फ
रुदन बचता है।
जब भीतर कोई
नहीं होता
खोजने वाला
सिर्फ
अहर्निश एक खोज
रह जाती है।
श्वास—श्वास
धड़कन—धड़कन में
एक पुकार रह
जाती है। जागे—सोए
पुकार बनी ही
रहती है। उसी
क्षण मिलन घट
जाता है। परदा
उठ जाता है।
कैलाश!
विरह की
अवस्था में तो
हो ही। अब इस
विरह को दो
ढंग दे सकते
हो। एक तो अज्ञानी
का ढंग है कि
वह सोचता है
थोड़ा धन हो
जाएगा तो सब
ठीक हो जाएगा।
सोचता है
सुंदर पत्नी होगी, पति होगा, बच्चे होंगे,
सब ठीक हो
जाएगा। बड़ी
नौकरी होगी, पद होगा, प्रतिष्ठा
होगी, सब
ठीक हो जाएगा।
सोचता है कुछ
कमी है बाहर, इसे भर लूं।
वह कमी कभी
भरती नहीं। वह
ऐसा भिक्षापात्र
नहीं जो भर
जाए। मांग
बढ़ती चली जाती
है, मृगमरीचिका
की तरह, वे
दूर दिखाई
पड़ने वाले
जलस्रोत बस
दूर से ही जलस्रोत
दिखाई पड़ते
हैं, पास
पहुंचते—पहुंचते
रेत के ढेर
हाथ आते हैं।
लेकिन तब तक मृगतृष्णा
आगे दौड़ाने
लगती है, सपने
आगे सजते चले
जाते हैं। वे
दूर के ढोल सुहावने
हैं। जब तक उन
ढोलों की पोल
खुले, तब
तक तुम नए
सपने संजो
लेते हो।
उनमें उलझ जाते
हो। यह भी
विरह है।
लेकिन ठीक से
समझा नहीं गया।
बीमारी का ठीक
निदान नहीं
हुआ, इसलिए
कुछ भी उलटी—सीधी
दवाएं ले रहे
हो। और बीमारी
तो एक तरफ, दवाएं
और नई
बीमारियां
खड़ी कर रही
हैं, वह
दूसरी तरफ।
बीमारी तो
मिटती नहीं, दवाएं और
बीमारियां बन
जाती हैं।
ठीक
निदान हो तो
कमी बाहर नहीं
है, कमी भीतर
है। ठीक निदान
हो तो होश की
कमी है, धन
की कमी नहीं।
होश बढ़े तो
मिलन हो जाए।
होश में ही
मिलन हो सकता
है। नींद में
विरह है, जागरण
में मिलन है।
और विरह से घबड़ाओगे
तो मिलन कभी न
हो पाएगा।
विरह को
समझोगे तो विरह
निखारता है, पखारता है, धूल—धवांस
झाड़ता
है। विरह
स्नान है।
अंतरात्मा
विरह से गुजर—गुजर
कर ही कुंदन
बनती है। और
तभी पात्रता
पैदा होती है
परमात्मा को
पाने की।
परमात्मा
तो मौजूद है, हर एक को
मिलता क्यों
नहीं? पलटू
को, कबीर
को, नानक
को मिलता है, तुम्हें
क्यों नहीं
मिलता? नानक
भी यहीं, पलटू
भी यहीं, कबीर
भी यहीं, रैदास
भी यहीं, तुम
भी यहीं, यही
दुनिया, दुनिया
कोई दूसरी
नहीं, यही
आकाश, यही चांदत्तारे,
यही लोग, मगर उन्हें
परमात्मा
मिलता है और
तुम्हें परमात्मा
नहीं मिलता।
तुम्हारे
निदान में भूल
है। तुम बाहर
तलाशते हो, सो चूकते
चले जाते हो।
जितना चूकते
हो उतना ही घबड़ाहट
में और जोर से
भागते हो।
जितने जोर से
भागते हो उतने
और ज्यादा
चूकते हो। एक दुष्टचक्र
पैदा हो जाता
है। नहीं
मिलता तो लगता
है शायद दौड़
ठीक से नहीं
कर रहा हूं।
नहीं मिलता है
तो लगता है और दौडूं और
थोड़ा श्रम
लगाऊं। लेकिन
यह याद नहीं
आता कि कहीं
ऐसा तो नहीं
कि जिस दिशा
में मैं दौड़
रहा हूं, वहां
संपदा है ही
नहीं। नई दिशा
खोजूं।
ग्यारह
दिशाएं हैं।
दस दिशाएं
बाहर और
ग्यारहवीं दिशा
भीतर है। दस
दिशाएं संसार
की और
ग्यारहवीं दिशा
धर्म की। जो
उस ग्यारहवीं
दिशा पर चल
पड़ा, निश्चित
पहुंचा है। आज
तक कोई भी
अपवाद नहीं। फिर
तो आंसू भी उस
पर चढ़ जाते
हैं। हंसी भी
उस पर चढ़ जाती
है, खुशी
भी उस पर, सब
उस पर
न्योछावर हो
जाता है।
कांटे और फूल,
सब; अच्छा
और बुरा, सब;
रात और दिन,
सब।
अबोले
गीत की दुआएं
तुम को।
रुआंसी
इस हंसी की,
अधर
की बेबसी की,
अदेखे
अश्रु की दुआएं
तुम को।
अबोले
गीत की दुआएं
तुम को।
किन्हीं
बिकते प्रणों
की—
कि
डोली के
क्षणों की—
अजानी
राह की दुआएं
तुम को।
अबोले
गीत की दुआएं
तुम को।
दुआ
है ताज की भी,
अधूरे
साज की भी,
बुझे
संगीत की दुआएं
तुम को।
अबोले
गीत की दुआएं
तुम को।
जैसे—जैसे
तुम भीतर
जाओगे, रसधार
बहेगी, थोड़ा
स्वयं का
अनुभव होगा, वैसे ही
वैसे तुम
पाओगे: सब उस
पर समर्पित
है। बेशर्त समर्पित
है। उस समर्पण
में ही मिलन
का द्वार खुल
जाता है।
एक
समर्पण है, जबर्दस्ती
कराया जाता
है। एक समर्पण
है, जो
स्वेच्छा से
किया जाता है।
जबर्दस्ती का
समर्पण झूठा
है। उसके भीतर
क्रोध है। आज
नहीं कल क्रोध
फूटेगा।
ज्वालामुखी
के ऊपर तुम
बैठे हो। और
तुमसे धर्म के
नाम पर भी
जबर्दस्ती ही
समर्पण करवा
लिए गए हैं, इसलिए
तुम्हारा
धर्म भी
मिथ्या है।
तुम्हारा
परिवार
तुम्हें ले
गया मंदिर, कि मस्जिद, कि गुरुद्वार,
कि गिरजा और
तुम्हें झुका
दिया है।
जबर्दस्ती
झुका दिया है।
तुम झुक भी गए;
बचपन से
झुकते रहे, झुकने की
आदत हो गई; संस्कार
दृढ़ हो गया; अब मंदिर के
सामने से
निकलते हो तो
यंत्रवत हाथ
जुड़ जाते हैं;
मरण प्राण,
नहीं जुड़ते;
प्रार्थना,
नहीं उठती।
पलटू
ने कहा न कल, राम—राम, जप—जप
कर जीभ पर
छाले पड़ गए
हैं, सार
क्या? जनम—जनम
से, युगों—युगों
से माला फेरते—फेरते
थक गए, पाया
क्या? माला
का कसूर नहीं
है, खयाल
रखना। माला
बेचारी का
क्या कसूर!
भूल होगी तो
तुम्हारी
होगी कहीं।
राम के नाम की
कुछ भूल नहीं
है, भूल
होगी तो
तुम्हारी
होगी कहीं।
जीभी से ही जपते
रहे तो छाले
ही पड़ेंगे और
क्या होगा!
हाथों में
गट्ठे पड़
जाएंगे माला
जपते—जपते, लेकिन जब तक
अंतर्भाव का
जोड़ न हो तब तक
कुछ भी न होगा।
अंतर्भाव का
जोड़ हो जाए तो
तुमने सुनी है
न कहानी, वाल्मीकि
तो राम तो छोड़ो,
मरा—मरा जपकर
भी राम को पा
गए। उलटा नाम
जपते रहे। गैर
पढ़े—लिखे
थे, गंवार
थे, जंगली
थे, भूल गए
ठीक नाम, उलटा
ही जपते रहे।
टालस्टाय
की प्रसिद्ध
कहानी है।
तीन
फकीर बड़े
प्रसिद्ध हो
गए। इतने
प्रसिद्ध हो
गए कि रूस का
जो सबसे बड़ा
पुरोहित था, उस तक कोर्
ईष्या और जलन पकड़ी। लोग
उनके पास न
आते और उन फकीरों
के पास जाते।
एक झील के पार
उन तीनों फकीरों
ने एक झाड़ के
नीचे डेरा जमा
रखा था। उनकी
कहानियां, उनकी
चर्चा गांव—गांव,
चेहरे—चेहरे,
मुख—मुख पर
फैल गई।
प्रधान
पुरोहित के
बर्दाश्त के
बाहर हो गया, उसने एक दिन नाव
ली, मांझी
लिया, झील
पार की, उस
तरफ पहुंचा।
वे तीनों उठकर
उसके पैर छुए।
उनके पैर छूने
से तो समझ में
आ गया कि इनको
कुछ आता—जाता
नहीं।
अहंकारी आदमी
था। देख लिया
कि ये तो सीधे—सादे
लोग हैं, गांव
के गंवार हैं,
नाहक की
प्रतिष्ठा हो
गई है!
उनको
पूछा कि
तुम्हारी
सिद्धि क्या
है? उन्होंने
कहा, सिद्धि
हमारी कोई भी
नहीं। पूछा
तुम प्रार्थना
क्या करते हो,
साधना क्या
है? तो वे
एक—दूसरे की
तरफ देखकर
कहने लगे कि
तू बता दे!
पुरोहित की तो
अकड़ बढ़ी, उसने
कहा कि बोलो, मैं प्रधान
पुरोहित हूं,
मैंने तो
तुम्हें कभी
दीक्षा भी
नहीं दी; अदीक्षित
तुम परमात्मा
को उपलब्ध हो
गए? उन्होंने
कहा कि नहीं—नहीं,
हम और
परमात्मा को
कैसे उपलब्ध
होंगे! हम दीन,
हम हीन, हम
कहां
परमात्मा को
उपलब्ध
होंगे। हम तो
उसके चरणों की
धूल भी नहीं
हैं। रही
प्रार्थना, सो हम
झिझकते हैं
कहने में, क्योंकि
हमने किसी से
सीखी नहीं, हम तीनों ने
खुद ही गढ़
ली है। और
ज्यादा बड़ी भी
नहीं है, सुंदर
भी नहीं है, क्योंकि
हमें कविता भी
नहीं आती, हम
पढ़े—लिखे
भी नहीं हैं। हमने
तो छोटी—सी
बना ली है, अपने
काम के लिए।
घरेलू है। आप
क्षमा करें, न पूछें, शर्म
लगती है बताने
में।
पुरोहित
ने जिद्द
की तो
उन्होंने कहा, आप नहीं
मानते तो सुन
लें। हमने
सुना है कि परमात्मा
तीन
है।...ईसाइयों
में परमात्मा
को तीन रूपों
में माना गया
है। पिता, पुत्र
और पवित्र
आत्मा। जैसे
हिंदू
त्रिमूर्ति
मानते हैं, ऐसे ईसाई
ट्रिनिटी
मानते हैं।
परमात्मा के तीन
रूप। तो
उन्होंने कहा,
हमने सुना
है कि
परमात्मा के
तीन रूप हैं, और फिर हमने
देखा कि हम भी
तीन हैं, सो
हमने एक
प्रार्थना
बना ली कि तुम
भी तीन, हम
भी तीन, अब
हम पर कृपा
करो! प्रधान
पुरोहित तो
सुनकर चौंका!
ऐसी
प्रार्थना
उसने कभी सुनी
नहीं थी। तुम
भी तीन, हम
भी तीन, हम
पर कृपा करो।
यू आर थ्री, वी आर थ्री, हेव मर्सी
अपान अस।
पुरोहित
ने कहा, बंद
करो यह बकवास।
यह प्रार्थना
नहीं है। तुम मजाक
कर रहे हो
परमात्मा का,
व्यंग्य
उठा रहे हो!
मैं तुम्हें
प्रार्थना बताता
हूं। उसने
पूरी जो उसके
चर्च की
नियमित—सरकारी
प्रार्थना
थी...सरकारी
प्रार्थनाएं
होती हैं, सरकारी
संत होते हैं,
बड़ी दुनिया
अदभुत है!
अंग्रेजी
में तो संत
शब्द का जो
रूप है, सेंट,
बहुत—से लोग
सोचते हैं कि
वह हिंदी के
संत या
संस्कृत के
संत का ही
रूपांतरण है।
गलत सोचते
हैं।
अंग्रेजी में
जो शब्द है, सेंट, उसका
संत शब्द से
कोई संबंध
नहीं है, उसका
संबंध है सेंक्शन
से। सरकार के
द्वारा
प्रमाणित।
जिसके पास प्रमाणपत्र
है, वह संत
है।
तो
उन्होंने कहा
कि बंद करो, यह रही
प्रार्थना!
लंबी
प्रार्थना थी,
उन तीनों ने
सुनी और कहा, एक दफा और कह
दें, नहीं
तो हम भूल
जाएंगे।
दुबारा कही।
फिर उन्होंने
कहा, एक
बार और कह दें,
नहीं तो हम
भूल जाएंगे।
तीन बार कही।
उन्होंने
धन्यवाद
दिया।
पुरोहित बड़ा
प्रसन्न कि
इनको रास्ते
पर लगा दिया।
चला अपनी नाव
में। मांझियों
ने पतवार उठाईं।
जब वह
बीच झील में
पहुंचा तो
देखकर सब
हैरान हुए, मांझी भी
हैरान हुआ, पुरोहित भी
हैरान हुआ, वे तीनों
फकीर झील पर
भागते चले आ
रहे थे। छाती
दहल गई उसकी।
झील पर चलते
हुए उसने
सिर्फ कहानी
सुनी थी कि
जीसस चले थे
एक बार। उसका
भी उसे कभी
पक्का भरोसा
नहीं आया था
कि जीसस कभी
चले होंगे झील
पर, कि
पानी पर कोई
चल सकता है।
मगर अपनी
आंखों से देखा,
आंखें मींड़कर
देखा, मांझी
से पूछा कि तू
देख रहा है यह
क्या हो रहा है?
उसने कहा, मैं भी देख
रहा हूं, मैं
भी उतना ही
चौंका हूं
जितना आप चौंके
हैं। आपको तो
नहीं चौंकना
चाहिए। आप तो
मानते हैं कि
जीसस चले थे।
तो चलना हो
सकता है। मैं
तो साधारण
आदमी हूं, मैं
तो बहुत चौंक
गया हूं। मैं
तो बहुत घबड़ा
गया हूं, मेरे
हाथ—पैर कंप
रहे हैं। ये
पता नहीं अब
क्या करेंगे तीनों
आकर? वे
तीनों दौड़ते
हुए आकर बगल
में खड़े हो गए
नाव के, हाथ
जोड़कर
उन्होंने कहा,
एक बार और
कह दें
प्रार्थना, हम भूल ही गए!
इसलिए हमें
आना पडा, आपको
फिर कष्ट दे
रहे हैं। अब
तो पुरोहित की
जबान लड़खड़ा
गई। अब इनसे
क्या
प्रार्थना
कहे! झुक गया
उनके चरणों
में और कहा, मुझे क्षमा
करो, तुम्हारी
प्रार्थना ही
ठीक है, तुम
अपनी ही
प्रार्थना
जारी रखो, वह
तुम्हारी
हार्दिक है।
हालांकि उस
शब्दों में
कुछ भी नहीं
है, जो तुम
दोहरा रहे हो,
लेकिन
तुम्हारे
प्राण जरूर
होंगे।
अन्यथा यह
चमत्कार जो
मैं अपनी आंख
से देख रहा
हूं! मेरी
इतनी आस्था
नहीं है कि
मैं
प्रार्थना के
बल पर पानी पर
चल जाऊं, हालांकि
मैं भी यह
प्रार्थना जन्मभर से
दोहरा रहा
हूं। तुम जीते,
मैं हारा।
तुम मुझे
क्षमा कर दो!
तुमने मेरी आंखें
खोल दीं। मैं
अंधा था, तुमने
मुझे आंखें
दीं। मैं बहरा
था, तुमने
मुझे कान दिए।
मुझे
शास्त्रों का
अब तक कोई पता
नहीं था, आज
पहली बार तुमने
मुझे शास्त्र
की अनुभूति दी,
सत्य दिया।
विरह
की अवस्था, कैलाश, कोई
शास्त्रीय
बात नहीं है!
ऐसा नहीं कि
बैठे हैं, माला
जप रहे हैं, राम—राम जप
रहे हैं, ढोंग
कर रहे हैं, विरह की
अवस्था
हार्दिक है।
तुम्हारे
भीतर प्राण तड़फें, जैसे
मछली तड़फ
जाए पानी से
खींचकर उसे
किनारे पर डाल
दो तो। जैसे
किसी पक्षी को
पिंजड़े
में बंद कर दो,
वह पर फड़फड़ाए।
ऐसे जब
तुम्हारे
प्राण पर फड़फड़ाएं,
ऐसे जब
तुम्हारे
प्राण मीन की
तरह, मछली
की तरह धूप
में तट पर तड़फें,
तब जानना कि
विरह की
अवस्था है। और
एक ही याद रह जाए, सब याद भूल
जाए, एक ही
परमात्मा की
स्मृति रहे, अपनी भी याद
भूल जाए, तो
जिस घड़ी ऐसी
प्रज्वलित
प्यास
तुम्हारे भीतर
होगी, मिलन
घट जाता है।
विरह की परम
अवस्था ही
मिलन है।
इसलिए उससे
गुजरना तो
होगा ही।
तुम्हारे
प्रश्न से ऐसा
लगता है कि
मिलन तो तुम
चाहते हो और
विरह से बचना
चाहते हो।
पूछते
हो, क्या
प्रभु—मिलन
में विरह—अवस्था
से गुजरना
आवश्यक है? तुम्हारे
इरादे नेक
नहीं।
तुम्हारी
नीयत साफ
नहीं। तुम
चाहते हो कि
कोई ऐसा
रास्ता मिल जाए
कि विरह से
बचकर निकल
जाएं। तुम
चाहते हो कीमत
न चुकानी पड़े
और परमात्मा
मिल जाए। तुम
चाहते हो पैर
में कांटा न
गड़े और यात्रा
पूरी हो जाए।
तुम जरा भी
मूल्य चुकाने
को तैयार नहीं
मालूम होते।
तुम मुफ्त
पाना चाहते
हो।
और
ध्यान रखना, परमात्मा
मुफ्त नहीं
मिलता।
मेरा
मतलब यह नहीं
है कि
परमात्मा धन
से मिलता है।
मेरा मतलब यह
नहीं कि तुम
परमात्मा को
बाजार में
खरीद सकते हो।
मेरा मतलब यह
है कि
परमात्मा को
पाने के लिए स्वयं
को अर्पण करना
होता है। धन, पद, प्रतिष्ठा
देने से नहीं,
अपने
प्राणों को
समर्पित करने
से परमात्मा मिलता
है। प्राणों
से जो कीमत
चुकाने को
तैयार है, बस
मिलन उसके लिए
ही संभव है।
जिस दिन मिलन
होगा, उस
दिन तुम जानोगे
कि जो तुमने
चुकाया, वह
कुछ भी नहीं, दो कौड़ी
था, और जो
तुमने पाया, वह अनंत है।
जैसे दो कौड़ियों
में किसी को
कोहनूर हीरा
मिल जाए। मगर
कोहनूर हीरे
की परख चाहिए
न! अगर परख न हो—अगर
तुम्हारे
भीतर पारखी न
हो—तो शायद
तुम दो कौड़ियों
को बचाओ और
हीरे को छोड़
दो।
मैंने
सुना है, एक
कुम्हार को
रास्ते के
किनारे एक
हीरा मिल गया।
बड़ा हीरा!
चमकदार पत्थर
समझकर, कि
सोचकर कि चलो
उठा लो, और
तो उसे कुछ
उपयोग सूझा
नहीं, अपने
गधे के गले
में लटका
दिया।
कुम्हार था, गधे ही से
प्रेम था, गधे
ही से दोस्ती
थी, गधे ही
को सजाने की
इच्छा रहती थी,
चलो अच्छा
हुआ। लाखों का
हीरा, गधे
के गले में
लटका दिया!
गधे पर
लादकर बर्तन—भांडे
बाजार की तरफ
जा रहा था कि
एक जौहरी की नजर
पड़ी। उसने
बहुत हीरे
देखे थे मगर
इतना बड़ा हीरा
नहीं देखा था।
और गधे के गले
में लटका! और कुम्हार
गधे को हांक
रहा है, बर्तन—भांडे
लादे हुए हैं!
यह गधा तो
सम्राटों से
भी ज्यादा
कीमती है। उस
जौहरी ने कहा,
रुक भाई!
समझ गया कि
इसको कुछ पता
नहीं है कि यह क्या
है। कहा, इस
पत्थर का क्या
लेगा? इस
चमकदार पत्थर
का क्या लेगा?
कुम्हार ने
बहुत सोचा, कहा—अच्छा, आठ आने दे दो!
बड़ी हिम्मत
करके आठ आने
मांगे उसने।
कौन देगा आठ
आने पत्थर के?
जौहरी भी
रहा होगा महा
कंजूस। उसने
कहा, आठ
आने! शर्म
नहीं आती! इस
पत्थर के आठ
आने! दो आने ले
लो! चल तीन आने
ले ले!
आखिरी, चार
आने ले ले!
फिर जौहरी ने
सोचा, देगा
ही यह! चार आने
भी कौन इसको
देने वाला है?
जौहरी थोड़ा
दो—चार—दस कदम
आगे चला गया, यह सोचकर कि
यह खुद ही
अपने—आप
पुकारेगा।
लेकिन चूंकि
नहीं पुकारा
कुम्हार ने, तो जौहरी को
लौटकर आना पड़ा,
लेकिन तब तक
चूक हो चुकी
थी। एक दूसरे
जौहरी की नजर
पड़ गई और उसने
एक रुपए में
पत्थर खरीद लिया।
अब तुम
सोच सकते हो, पहले जौहरी की
छाती पर सांप
लोट गए हों!
छाती धक से रह
गई होगी! हाथ
आई परम संपदा
गंवा दी!
लाटरी अपने—आप
खुली जा रही
थी, सिर्फ
चार आने के
पीछे गंवा दी!
ईष्या से जल—भुन
गया दूसरे
जौहरी को
देखकर।
कुम्हार से कहा,
अरे नासमझ,
अरे मूढ़,
तुझे इतनी
भी अकल नहीं
है कि यह
लाखों का हीरा
और तूने एक
रुपए में बेच
दिया! उस
कुम्हार ने
कहा, मैं मूढ़ हूं सो
जाहिर है।
नहीं तो
कुम्हार न
होता। मगर
तुम्हारी मूढ़ता
का क्या कहें?
तुमने यह
हीरा लाखों का
चार आने में
छोड़ दिया! तुम
तो जौहरी हो, तुम तो
जानते थे, तुम
तो पहचान गए
थे! मेरे लिए
तो पत्थर था।
मेरे लिए तो
आठ आने की जगह
रुपया मिला तो
दुगुने दाम
मिले। लेकिन
तुम अपनी तो
सोचो! तुम्हें
मैं आठ आने
में दे रहा था;
तुम आठ आने
में लेने को
राजी न हुए!
अभी तो
लग सकता है कि
विरह में हम
जो दे रहे हैं, वह बड़ा
कीमती है।
क्योंकि हमें
परख नहीं है।
हम जौहरी नहीं
हैं।
जिन्होंने
जाना है
परमात्मा को,
वे तो कहते
हैं: हमारे
पास देने को
ही क्या है! जो
है, उसका
है, हमारा
क्या है! त्वदीयं
वस्तु,...तेरी
ही चीज है, तुभ्यमेव समर्पये,
तुझको ही
समर्पित कर
रहे हैं।
इसमें अपना
लेना—देना
क्या है? यह
जीवन भी तो
उसी का है। ये
आंखें और ये
आंसू और यह
हृदय, ये
सब तो उसी का
है। उसका ही
उसको लौटाते
हैं। कैसी
कृपणता पकड़
रही है!
नहीं, कैलाश, इस
भाव को विदा
करो! विरह
अवस्था से
नाचते हुए गुजरो,
गीत गाते
हुए गुजरो,
उत्सव—मनाते
हुए गुजरो।
यह विरह
अवस्था भी तो
उसी की है।
उसके लिए ही है।
यह पीड़ा भी तो उसीकी ओर
इशारा कर रही
है। ये आंसू
भी तो उसके ही
चरणों में झर—झर
झर रहे हैं।
कंजूसी करोगे,
कृपणता
करोगे, बच
जाना चाहते हो?
मुफ्त पा
लेना चाहते
हो। कुछ न
लगे। एक आंसू
भी न झरे।
तो फिर तुम
नहीं पा
सकोगे। फिर
असंभव है। फिर
बात ही छोड़
दो। फिर धन कमाओ,
राजनीति की सीढ़ियां चढ़ो, अपने
घर में टांग
लो दिल्ली दूर
नहीं है तख्ती
पर लिखकर, दिल्ली
पहुंचने को
लक्ष्य बनाओ!
और मजा
यह है कि
दिल्ली
पहुंचने वाले
लोग सब चढ़ा
देने को राजी
हैं, सब
समर्पित कर
देने को राजी
हैं। धन के
दीवाने क्या
नहीं दांव पर
लगा देते? सारा
जीवन दांव पर
लगा देते हैं।
धन के दीवाने
यह नहीं पूछते
कि बिना दांव
पर लगाए धन
मिल सकेगा? आखिर सिकंदर
ने सब दांव पर
लगाया या नहीं?
अपना पूरा
जीवन गंवाया
या नहीं? कौड़ी—कौड़ी लोग
इकट्ठी करते
हैं और कभी
नहीं पूछते कि
इन कौड़ियों
में हम जो
इकट्ठा कर रहे
हैं, वह
इकट्ठा करने
योग्य है भी
या नहीं? लेकिन
विरह के संबंध
में बहुत बार
लोग पूछते हैं
कि क्या
परमात्मा को
पाने के लिए
रोना पड़ेगा?
मगर
रोना भी सिर्फ
उन्हीं को
रोना मालूम
होता है
जिन्हें
परमात्मा से
सच में कोई
लगाव नहीं है।
जिन्हें लगाव
है, वे तो धन्यभागी
समझते हैं। उसके
मार्ग पर अगर
आंसू भी बहे
तो आंसू भी
अमृत हैं। उसे
पाने की तलाश
में अगर कांटे
भी मिले तो
कांटे भी फूल
हैं। उसे पाते—पाते
अगर पत्थरों
की भी वर्षा
हो गई तो मोती—माणिक
ही बरसे।
मिलन
इतनी बड़ी घटना
है कि हजार
विरह सहे जा
सकते हैं।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, मैं मृत्यु
की तो बात और, मृत्यु शब्द
से भी डरती
हूं। मृत्यु
से कैसे छुटकारा
हो सकता है?
कुसुम
रानी! मृत्यु
से तो छुटकारा
नहीं हो सकता।
मरना तो
पड़ेगा! मृत्यु
तो जन्म के ही
सिक्के का
दूसरा पहलू
है। जब जन्म
ले लिया, जब
सिक्के का एक
पहलू ले लिया,
तो अब दूसरे
पहलू से कैसे
बचा जा सकता
है? मृत्यु
तो जन्म में
ही घट गई।
सत्तर साल तो
तुम्हें पता
लगाने में
लगेंगे, बस,
घट तो चुकी
ही है।
जिस
दिन बच्चा
पैदा होता है, उसी दिन रो
लेना; मृत्यु
तो आ गई। अब
जीवन में और
कुछ हो या न हो,
एक बात
पक्की है:
मृत्यु होगी।
अदभुत है
जीवन! इसमें
मृत्यु के
सिवाय और कुछ
भी सुनिश्चित
नहीं है। सब
अनिश्चित है;
हो या न हो; हो भी सकता
है, न भी हो;
मगर मृत्यु
तो होगी ही।
कितने ही भागो
और कितने ही
बचो, मृत्यु
से न कोई बच
सकता है और न
कोई भाग सकता
है।
और
जितने डरोगे, उतने ही
मरोगे।
मृत्यु
तो एक बार आती
है, मगर डरने
वाले को रोज
प्रतिपल खड़ी
है, गला दबोचे।
डरने वाला तो
जी नहीं पाता,
सिर्फ मरता
ही मरता है।
कहते हैं, वीर
की मृत्यु तो
एक बार होती
है, कायर
की हजार बार।
ठीक कहते हैं।
कहावत अर्थपूर्ण
है।
तू
कहती है, मैं
मृत्यु की तो
बात और, मृत्यु
शब्द से भी
डरती हूं।
तेरा ही ऐसा
नहीं है मामला,
अधिक लोगों
का मामला ऐसा
है। मृत्यु
शब्द से ही
लोग डरते हैं।
इसलिए मृत्यु
शब्द को बचाकर
बात करते हैं।
कोई मर जाता
है तो भी हम
सीधा—सीधा
नहीं कहते।
कहते हैं:
स्वर्गीय हो
गए। ऐसा नहीं
कहते कि मर
गए। सभी
स्वर्गीय हो
जाते हैं। तो
फिर नरक कौन
जाता है? जिनको
तुम भलीभांति
जानते हो कि
वे नारकीय ही हो
सकते हैं—शायद
नर्क में भी
जगह मिले कि न
मिले; शायद
नर्क के भी
योग्य न समझे
जाएं—उनको भी
तुम कहते हो:
स्वर्गीय हो
गए। स्वर्गीय
मीठा शब्द है।
मृत्यु के ऊपर
शक्कर पोत दी।
जहर की गोली
को मीठा कर
लिया।
अदभुत—अदभुत
शब्द लोगों ने
खोज निकाले
हैं। परम यात्रा
पर चले गए। मर
गए हैं, मगर
लोग कहते हैं:
परम यात्रा पर
चले गए। मर गए हैं,
लोग कहते
हैं: प्रभु के
प्यारे हो गए।
प्रभु का कभी
उन्होंने नाम
न लिया, प्रभु
को उन्होंने
कभी प्रेम न
किया, और
अब मर गए हैं
तो प्रभु के
प्यारे हो गए!
ये तरकीबें हैं
मृत्यु शब्द
से बचने की, कि कहीं उस
शब्द का उपयोग
न करना पड़े।
उस शब्द को हम
बचाते हैं।
जैसे ही कोई
मर जाता है, लोग आत्मा
की अमरता की
बातें करने
लगते हैं। कि
आत्मा अमर है।
अरे, कहीं
कोई मरता है!
शरीर तो बस
वस्त्र की
भांति है।
पुराने
वस्त्र जीर्ण—शीर्ण
हो जाते हैं, गिर जाते
हैं, नए
वस्त्र मिल
जाते हैं। और
जो ये बातें
कर रहे हैं, उनकी छाती धड़क रही है;
वे घबड़ा गए
हैं। क्योंकि
हर किसी की
मौत तुम्हारी
मौत की खबर
लाती है। किसी
की भी मौत हो, तुम्हारी
मौत की खबर
मिलती है।
हम
अच्छे—अच्छे
शब्द बनाकर जो
मर गया उसको
धोखा नहीं दे
रहे हैं—वह तो
मर ही गया—हम
अपने को धोखा
दे रहे हैं।
हम अपने को
समझा रहे हैं
कि मृत्यु
नहीं होती।
पश्चिम
में तो इसके
लिए पूरा धंधा
चल पड़ा है। जब
कोई मर जाता
है, तो जितनी
उसकी हैसियत
हो, उसके
घरवालों की
हैसियत हो, उतना खर्च
किया जाता है
उसके मरने के
बाद। उसके
शरीर को सजाया
जाता है। अगर
स्त्री हो तो लिपिस्टिक,
बाल, सुंदर—सुंदर
कपड़े, बड़ा
सुंदर ताबूत,
बहुमूल्य
ताबूत। कहते
हैं, पश्चिम
में कला इतनी
विकसित हो गई
है मुर्दों को
सजाने की, उसके
विशेषज्ञ हैं,
जो हजारों
रुपया फीस
पाते हैं। लाश
को सजाने की! फिर
लाश सज गई, फूल
चढ़ गए, फिर
लोग देखने आते
हैं। अंतिम
बिदाई दे रहे
हैं। तो उनके
लिए धोखा दिया
जा रहा है।
मुर्दे के गाल
पर लाली पोत
दी गई है, लिपिस्टिक लगा दिया
गया है, बाल
ढंग से सजा
दिए गए हैं—नहीं
थे तो नकली
बाल लगा दिए
हैं, सुंदर
कपड़े पहना दिए
गए हैं, फूलमालाएं,
ऐसा लगता है
जैसे व्यक्ति
मरा ही नहीं, जिंदा है।
जैसे किसी बड़ी
महायात्रा पर
जा रहा है, महा—प्रस्थान
के पथ पर।
ऐसी
मैंने एक घटना
सुनी है। एक
आदमी मरा।
उसको खूब
सजाया—बजाया
गया। बड़ा आदमी
था, धनपति
था। लोग देखने
आए, अंतिम
विदा होने आए।
एक दंपति आया।
पत्नी ने कहा,
देखते हो? कितना सुंदर
मालूम हो रहा
है यह
व्यक्ति! कितना
शालीन, कितना
शांत! कितना प्रसादपूर्ण!
पति ने कहा, हो भी क्यों
नहीं, अभी—अभी
छह महीने स्विटजरलैंड
होकर आया है!
छह
महीने स्विटजरलैंड
टी. वी. की
चिकित्सा
कराने गया था
बेचारा! वहीं
मर गया। वहां
से लाश लाई
गई। पति ने
कहा, हो भी
क्यों नहीं, अभी—अभी छह
महीने स्विटजरलैंड
का मजा लेकर
लौट रहा है। स्विटजरलैंड
की हवा और स्विटजरलैंड
की ताजगी और स्विटजरलैंड
के पहाड़ और
मौसम, हो
भी क्यों न!
मुर्दे
को हम इस तरह
छिपा सकते हैं
कि जिंदा आदमी
कोर्
ईष्या होने
लगे। यह पति
इस तरह बोल
रहा है जैसे गहरीर्
ईष्या से भर
गया हो।
लेकिन
मृत्यु में
डरने योग्य है
क्या? मृत्यु
तुमसे छीन
क्या लेगी? तुम्हारे
पास है क्या
जो छिन जाएगा?
कुसुम रानी,
कभी शांति
से बैठकर आंख
बंद करके यह सोचना
कि मृत्यु
आएगी तो
तुम्हारा छिन
क्या जाएगा? तुम्हारे
पास है भी
क्या? सांस
नहीं चलेगी।
तो चलने से भी
क्या हो रहा है?
भीतर गई, बाहर आई, नहीं
आएगी, नहीं
जाएगी, तो
क्या हो रहा
है? आने—जाने
ही से क्या
हुआ था? ये धुक—धुक—धुक—धुक
जो हृदय चल
रहा है, यह
नहीं चलेगा।
तो चलने ही से
कौन—सी बड़ी
महिमा हो रही
है? अभी
चलने से
तुम्हें कौन—सा
मजा आ रहा है? कौन—सा आनंद
बरस रहा है? इस जीवन में
तुम्हारे है
क्या जो तुम
खोने से डरते
हो? यह
प्रश्न सोचने
जैसा है और
इसलिए सोचने
जैसा है
क्योंकि तुम
डरते ही इसलिए
हो कि
तुम्हारे जीवन
में कुछ नहीं
है।
तुम्हें
बड़ी बात बेबूझ
लगेगी।
विरोधाभासी लगेगी।
लेकिन ठीक से
समझने की
कोशिश करना।
तुम्हारे
जीवन में कुछ
नहीं है, इसलिए
मृत्यु का डर
लगता है।
क्यों? क्योंकि
अभी कुछ भी तो
नहीं मिला और
मौत कहीं आकर
बीच में ही
समाप्त न कर
दे! अभी हाथ तो
खाली के खाली
हैं। अभी
प्राण तो
रिक्त के
रिक्त हैं। और
कहीं ऐसा न हो
कि परदा बीच
में ही गिर जाए!
अभी नाटक
पूर्णाहुति
पर नहीं
पहुंचा। अभी कुछ
भी तो जाना
नहीं, कुछ
भी तो जीया
नहीं। अभी ऐसी
कोई भी तो तृप्ती
नहीं है। कोई
तो ऐसा संतोष
नहीं मिला कि
कह सकें कि
जिंदा थे।
जीवन की अभी
कोई सौगात
नहीं मिली। और
मौत कहीं आकर
एकदम से
पटाक्षेप न कर
दे! नहीं तो खाली
रहे और खाली
गए।
मैं यह
कहना चाहता
हूं कि मौत से
कोई नहीं डरता, तुम्हारी
जिंदगी खाली
है, इसलिए
मौत का डर
लगता है। भरे
हुए आदमी को
मौत का डर
नहीं लगता।
बुद्ध मृत्यु
से नहीं डरते।
जीसस मृत्यु
से नहीं डरते।
मुहम्मद
मृत्यु से
नहीं डरते।
मृत्यु का
सवाल ही नहीं
है। जीवन इतना
भरा—पूरा है, इतना अहोभाव
से भरा है, इतनी
धन्यता से, इतना भरपूर
है कि अब मौत
आए तो आ जाए! कल
आती हो तो आज आ
जाए! आज आती हो
तो अभी आ जाए!
इतनी परितुष्टि
है कि जो पाने
योग्य था पा
लिया गया, अब
मौत क्या बिगाड़ेगी?
जो जानने
योग्य था जान
लिया गया, अब
मौत क्या छीन
लेगी?
और
जानने योग्य
क्या है? स्वयं
की सत्ता
जानने योग्य
है। स्वयं की
चैतन्य
अवस्था
पहचानने
योग्य है।
आत्मा का धन
पाने योग्य
है। क्योंकि
उसी धन को पाकर
परमात्मा
मिलता है।
जिसने अपने को
पहचाना, उसने
परमात्मा को
पहचाना।
कुसुम
रानी, मृत्यु
के साथ नाहक
भय के संबंध न जोड़ो।
जीवन से प्रेम
के संबंध जोड़ो,
मृत्यु के
साथ भय के
संबंध मत जोड़ो।
जीवन को जीओ
उसकी अखंडता
में, उसकी
समग्रता में
और उसी जीने
में, उसी
जीने के
उल्लास में
मृत्यु
तिरोहित हो
जाती है। शरीर
तो मरेगा ही
मरेगा, शरीर
तो मरा ही हुआ
है; जो मरा
ही हुआ है, वह
मरेगा। लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो
चैतन्य है, वह तो कभी
जन्मा नहीं, इसलिए मरेगा
भी नहीं। उससे
पहचान करो। यह
मत पूछो कि
मृत्यु से
कैसे छुटकारा
हो सकता है? तुम्हारे
भीतर जो असली
तत्व है, वह
तो मृत्यु के
पार है ही, छुटकारे
की जरूरत नहीं
है। और जो
मृत्यु के घेरे
में है, तुम्हारी
देह, उसका
छुटकारा हो
सकता नहीं।
तुम्हारे
भीतर दो हैं।
उपनिषद
कहते हैं:
जैसे एक वृक्ष
पर दो पक्षी बैठे
हैं। एक ऊंची
शाखा पर बैठा
है—सिर्फ बैठा
है, देख रहा
है, बस देख
रहा है। न
हिलता, न
डोलता, जैसे
पत्थर की
मूर्ति, बस
देख रहा है।
और एक नीचे की
शाखाओं पर
फुदक रहा है।
इस शाखा से उस
शाखा पर। इस
फल में चोंच मारता
है, उस फल
में चोंच
मारता है।
यह
सुंदर प्रतीक
है। यह
तुम्हारे
संबंध में कहानी
है। ये दो
पक्षी
तुम्हारे
भीतर बैठे
हैं। एक ऊपर
की शाखा पर, द्रष्टा, साक्षी; और
एक नीचे की
शाखा पर, भोगी।
इधर चोंच
मारता, उधर
चोंच मारता।
यह भोगी तो
मरेगा। यह
नीचे की शाखा
का पक्षी तो
आज नहीं कल
गिरेगा। मगर
वह जो ऊपर की
शाखा पर बैठा
है, वह
शाश्वत है।
तुम्हारे
भीतर एक
साक्षी है—सबका
द्रष्टा—जो
तुम्हारी देह
को भी देखता
है, तुम्हारे
मन को भी
देखता है; वह
देखने वाला
कभी दृश्य
नहीं बनता।
दृश्य मरेगा,
द्रष्टा
अमृत है।
दृश्य को
बचाया नहीं जा
सकता। बना है,
मिटेगा।
पानी का बबूला
है, अभी
गया, अभी
गया; अभी
है, अभी
नहीं है; लेकिन
इस पानी के
बबूलों को
देखने वाला एक
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। ऊपर की
शाखा पर बैठा
हुआ पक्षी, साक्षी
मात्र। उसे ही
ध्यान कहो, उसे भजन कहो—जो
तुम्हारी
मर्जी हो वह
नाम दे दो!
भक्त उसे भजन
कहता है, भगवान
की स्मृति
कहता है; ज्ञानी—ध्यानी
उसे साक्षी
कहता है।
लेकिन अर्थ एक
ही है। जिस
दिन तुम्हारी उससे
पहचान हो
जाएगी, उसी
दिन फिर कोई
मृत्यु नहीं
है।
आज
दीवाली की
वेला, घर—घर
दीपों की साल
गिरह है,
पर
तुम तो अपने
महलों में, चिर—अंधियार
किए बैठी हो।
ऐसी
ढेर उदासी
जैसे हंसी न
जीवन भर आई हो,
इतनी
बुझी बुझी
सी सांसें, जैसे कभी न
गरमाई हो,
बनवासी
सा वेश बनाए ओढ़े धूल
पड़ा दर्पण है,
बिखरा—बिखरा
सा सिंगार है, उतरा—उतरा
सा यौवन है,
आज
किसी रसिया के
हाथों काजल अंजवाने
की रितु है,
पर
तुम तो अपने
नयनों में मेघ—मल्हार
लिए बैठी हो।
आज
बहुत गुमगुम
हो, शायद
कल तक तो यह
बात नहीं थी,
इतनी
अंधी इतनी
सूनी, यह
पूनम की रात
नहीं थी,
शोक
सभा सी बोलो
आखिर कौन
खिलौना टूट
गया है,
इन
दीपों की
हरियाई को कौन
बवंडर लूट गया
है।
बगिया
में मधुमास
खिला है, कली—कली पर
तरुणाई है,
पर
तुम तो जैसे
कांटों को घाव
उधार दिए बैठी
हो।
तन
की मजबूरी तो
मन के समझाने
से हट जाएगी,
कुछ
आंसू में, कुछ आहों
में सारी पीड़ा
बंट जाएगी,
सपनों
को हल्दी चढ़वा
लो, फिर
सायत जाने कब
आए,
मौसम
का कुछ ठीक
नहीं है, किस क्षण
क्या से क्या
हो जाए,
घर—घर
वंदनवार टंगे
हैं, गीतों
के सावन की
संध्या—
पर
तुम तो अपने
होठों पर सौ
अंगार लिए
बैठी हो।
अब
तो शव उठने दो
आंगन से, दिन कब का
डूब चुका है,
कब
तक आंसू से खेलोगी, दर्द गले तक
आ पहुंचा है,
दो
दिन का रोना—धोना
है, फिर
यह चोट उमर ले
लगी,
घाव
न सबके आगे खोलो, दुनिया सौ—सौ
नाम धरेगी,
लौट
चुका है हर
संसारी तट पर
अपनी प्यास सिलाकर
पर
तुम तो अब भी
लहरों से कौल—करार
किए बैठी हो।
यहां
कौन रुक सकता
है? इस तट
पर कोई नहीं
रुक सकता।
लौट
चुका है हर
संसारी तट पर
अपनी प्यास सिलाकर
और
यहां प्यास भी
नहीं बुझती, ओंठ ही सी
लेने पड़ते
हैं।
कोई
यहां रुक सकता
नहीं। जाना ही
पड़ेगा उस तट पर।
लेकिन कुछ
तुम्हारे
भीतर है जो
अभी भी उस तट
पर है। देह इस
तट पर, तुम
उस तट पर। जिन
ने जाना, उन्होंने
ऐसा जाना है।
एक तो यहां है,
तुम्हारी
देह, तुम्हारा
दृश्य रूप; और एक वहां
है, तुम्हारा
अदेही, तुम्हारा
अदृश्य रूप।
तुम दो में से
किसी के भी
साथ
तादात्म्य कर
सकते हो। अगर
तुमने देह के
साथ
तादात्म्य
किया, तो
मृत्यु का भय
सताएगा।
मृत्यु शब्द
भी घबड़ाएगा।
मृत्यु शब्द
से भी मृत्यु
की याद आती है न!
शब्द—शब्द ही
तो नहीं रह
जाते, हमारे
भीतर भावों को
उमगाते
हैं। जैसे
अचानक कोई
यहां आ जाए और
चिल्लाने लगे:
आग, आग...तो
तुममें से
बहुत—से उठकर
खड़े हो जाएंगे,
भागने की
तैयारी करने
लगेंगे। किसी सिनेमागृह
में जब अंधेरा
हो गया हो और
फिल्म चल पड़ी
हो, कोई
चिल्ला दे: आग,
आग...बस, भगदड़ मच
जाएगी। फिर
कोई लाख समझाए
कि नहीं, मगर
कोई भीतर नहीं
रुकना
चाहेगा।
अनेकों को तो
धुआं दिखाई
पड़ने लगेगा, अनेकों को आग
की लपटें
दिखाई पड़ने
लगेंगी। भगदड़
मच जाएगी।
शायद भगदड़
में ही हो
सकता है दो—चार
के हाथ—पैर
टूट जाएं, या
कोई दबकर मर
जाए। न आग है न
कुछ है; सिर्फ
शब्द! लेकिन
शब्द भी तो
हमारे भीतर
अर्थ ले लेते
हैं।
मृत्यु
शब्द भी घबड़ाता
है। हम उसे
बातचीत के
बाहर रखते
हैं।
बर्ट्रेंड
रसल ने लिखा
है, कि मैं एक
महिला को
जानता था जो
बड़ी
आध्यात्मिक
थी। उसके पति
की मृत्यु हो
गई तो
बर्ट्रेंड रसल
शोक—संवेदना
प्रकट करने
गया।
बर्ट्रेंड
रसल तो आत्मा
इत्यादि में
मानता नहीं था,
नास्तिक था,
लेकिन वह
महिला तो
आध्यात्मिक
थी। तो उसने
बातचीत में
बातचीत छेड़ी
और कहा कि
आपका तो पक्का
भरोसा होगा, आपके पति भी
आध्यात्मिक
थे, आप भी
आध्यात्मिक
हैं, आपका
तो पक्का
भरोसा होगा कि
आपके पति
स्वर्ग पहुंच
गए हैं। उस
महिला ने दुख
और क्रोध से
बर्ट्रेंड
रसल की तरफ
देखा और कहा, हां, निश्चय
स्वर्ग पहुंच
गए हैं। लेकिन
इस तरह की
बेचैन करने
वाली बातें आप
न छेड़ें
तो अच्छा!
स्वर्ग
पहुंचने की
बात और बेचैन
करने वाली
बात! अगर पति
स्वर्ग पहुंच
गए हैं तो इससे
खुशी की और
क्या बात हो
सकती है? स्वर्ग
से और बड़ा
क्या आनंद है?
एक तरफ तो
कह रही है कि
हां, निश्चय,
पति मेरे
स्वर्ग गए। और
तत्क्षण
दूसरी तरफ कह
रही है कि ऐसी
बेचैन करने
वाली बातें छेड़ना
शोभा नहीं
देता।
मौत की
खबर ही छाती
को दहलाती है।
तथाकथित अध्यात्मवादी
भी मौत से डरे
होते हैं।
इस देश
में तो बहुत
अध्यात्मवाद
है! लेकिन जितने
लोग इस देश
में मौत से
डरते हैं, शायद दुनिया
में किसी देश
में नहीं
डरते। ये बड़ी
विचारणीय बात है।
नहीं तो एक
हजार साल तक
कोई तुम्हें
गुलाम रख सकता
था! अगर तुम
मौत से न डरते
होते!
कोई सचाइयां
कहता नहीं
तुमसे, कि
तुम क्यों एक
हजार साल
गुलाम रहे!
तुम्हारे
थोथे
अध्यात्म के
कारण तुम एक
हजार साल
गुलाम रहे।
तुम्हारे
अध्यात्म में
सचाई होती तो
तुम्हें कौन गुलाम
कर सकता था? तुम मरने को
राजी हो जाते
मगर गुलाम
होने को राजी
न होते। और
करोड़ों के इस
देश की कौन
हत्या कर सकता
था? जो आए
थे, थोड़ी—बहुत
संख्या लेकर
आए थे। छोटी—मोटी
सेनाएं थीं।
फिर चाहे मुगल
हों, चाहे
तुर्क हों, चाहे हूण
हों, चाहे
यूनानी हों, छोटी—छोटी फौजें
लेकर आए थे।
उनका पूरा देश
भी आ जाता तो
भी यह देश
इतना बड़ा है
कि अगर वे लोग
मारने में
लगते, तो
उनकी जिंदगी
काटते—काटते
कट जाती। तो
भी इस देश को
नहीं काट सकते
थे। लेकिन इस
विराट देश को
गुलाम बनाने
में किसी को भी
क्षण भर की
देरी न लगी।
कारण?
और फिर
सदियों तक यह
देश गुलाम बना
रहा! कारण एक
है: तुम्हारा
अध्यात्म
झूठा है।
तुम्हारा अध्यात्म
सिर्फ मौत के
डर के कारण
है। तुम मानते
हो कि आत्मा
अमर है
क्योंकि तुम
डरते हो मौत से, इसलिए मानते
हो। यह
तुम्हारी
प्रतीति नहीं,
यह
तुम्हारा
साक्षात्कार
नहीं, यह
तुम्हारा
अनुभव नहीं, यह केवल
शास्त्रीय
ज्ञान है—उधार,
बासा, दो
कौड़ी का।
इसका कोई
मूल्य नहीं
है। साक्षी को
अनुभव करो।
फिर तुम्हारे
लिए कोई
मृत्यु नहीं
है।
तो या
तो तादात्म्य
हो जाएगा देह
से, फिर
मृत्यु है और
फिर मृत्यु का
डर भी लगेगा।
और या
तादात्म्य
करो आत्मा से,
जो कि
तुम्हारी
सच्ची नियति
है, तुम्हारा
स्वभाव है; फिर कोई भय
नहीं है। फिर
देह कट जाए, जल जाए, तो
भी तुम जानते
रहोगे:
तुम्हें
अग्नि जला नहीं
सकती। नैनं दहति पावकः।
शस्त्र छेद
डालें
तुम्हारी देह
को, लेकिन
तुम जानते रहोगे:
नैनं छिंदंति
शस्त्राणि।
मुझे शस्त्र नहीं
छेद सकते। और
यह तुम गीता
के शब्द दोहरा
नहीं रहे
होओगे। अगर
गीता के शब्द
दोहरा रहे हो,
तो बेकार।
यह तुम्हारा
अनुभव होना
चाहिए! और यह
तुम्हारा
अनुभव हो सकता
है।
मुझसे
यह मत पूछो, कुसुम रानी,
कि मृत्यु
से कैसे छुटकारा
हो सकता है? छुटकारे में
तो भय का भाव
बैठा ही हुआ
है। हां, मृत्यु
से जागा जा
सकता है। देह
से तादात्म्य टूट
जाए, यह
मृत्यु से जाग
जाना है। फिर
कोई मृत्यु
नहीं। फिर
मृत्यु सबसे
बड़ा झूठ है।
इस
दुनिया में दो
सबसे बड़े झूठ
हैं। और वे दो
नहीं हैं, एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। एक का
नाम अहंकार है,
दूसरे का
नाम मृत्यु
है। अहंकार है
जब तक, तब
तक मृत्यु है।
जिस दिन
अहंकार नहीं,
उस दिन
मृत्यु नहीं।
अहंकार से जो
मुक्त है, वह
मृत्यु से भी
मुक्त है।
क्योंकि
अहंकार हमारा
बनाया हुआ है, मिटेगा। देह
संयोग है, बिखरेगा। लेकिन कुछ
हमारे भीतर
ऐसा है जो
हमारा बनाया
हुआ नहीं है, जिस पर
परमात्मा की
छाप है, जिस
पर उसकी सील
है, उसके
हस्ताक्षर
हैं; कुछ
है हमारे भीतर
जो पारलौकिक
है, जो दूर—दिगंत
से आता है, जो
इस पृथ्वी का
नहीं है, जो
देह में जीता
जरूर है लेकिन
सिर्फ मेहमान
है, अतिथि
है; उस
अतिथि को
पहचान लो, फिर
कोई मृत्यु
नहीं है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, आप इतने
प्रेम से
समझाते हैं, पर मुझ
अज्ञानी के
पल्ले कुछ भी
नहीं पड़ता। वैसे
वेद, पुराण,
गीता
इत्यादि सब
मेरी समझ में
आ जाते हैं।
फिर आप क्यों
समझ में नहीं
आते?
स्वरूपानंद, पहली तो बात,
अज्ञानी
तुम नहीं हो।
वेद, पुराण,
गीता
इत्यादि सब
तुम पढ़ चुके
हो। तुम और
अज्ञानी! विनम्रतावश
कह रहे हो कि
तुम अज्ञानी
हो!
हम विनम्रतावश
बहुत—सी बातें
कहते हैं।
उनको सच्चा मत
मान लेना।
लोग
आकर कहते हैं
कि हम आपके
चरणों की धूल।
सच्चा मत मान
लेना। नहीं तो
वे तुम्हें
कभी क्षमा
नहीं करेंगे।
कोई तुमसे कहे
कि मैं आपके
चरणों की धूल, ऐसा मत कहना
उससे कि
बिलकुल ठीक कह
रहे हो, मुझे
पहले से ही
मालूम कि आप
चरणों की धूल
हैं। आप
बिलकुल सत्य
कह रहे हैं।
सत्य वचन, महाराज!
ऐसा मत कहना, नहीं तो वह
आदमी जिंदगी
भर क्षमा नहीं
करेगा। वह
जिंदगी भर
कोशिश करेगा
कि तुमको दिखला
दे कि तुम
पैरों की धूल
हो। लोग कहते
हैं, मैं
तो कुछ भी
नहीं हूं, आपके
समाने मैं
क्या, लेकिन
उनका भाव कुछ
और है। वे यह
कह रहे हैं: प्रशंसा
करो मेरी
विनम्रता की,
सम्मान करो
मेरे
निरहंकार—भाव
का! देखो क्या
कह रहा हूं कि
मैं तो कुछ भी
नहीं!
एक
चौराहे पर तीन
ईसाई फकीर
मिले। तीन अलग—अलग
ईसाई
संप्रदायों
के अनुयायी थे
वे। एक था केथोलिक।
उसने कहा कि
जहां तक ज्ञान
का संबंध है, हमारे
आश्रमवासियों
का कोई
मुकाबला
नहीं। हमारे
आश्रम की सारी
साधना ही
ज्ञान—साधना
है। जैसे
शास्त्रज्ञ
हमारे आश्रम
ने पैदा किए
हैं और किसी
आश्रम ने पैदा
नहीं किए। इस
बात को तो
स्वीकार दुश्मनों
को भी करना
पड़ेगा। दूसरा
था प्रोटेस्टेंट।
उसने कहा, यह
बात ठीक है।
शास्त्रों
में हमारी
बहुत गति नहीं;
हमारी बहुत
रुचि भी नहीं।
शास्त्रों
में धरा क्या
है? हमारा
जोर तो त्याग
पर है। त्याग
ही असली धर्म
है। और जहां
तक त्यागत्तपश्चर्या,
व्रत—उपवास
का संबंध है, हमारा कोई
मुकाबला
नहीं। तीसरा,
ईसाइयों का
एक संप्रदाय
है ट्रेपिस्ट,
वह तीसरा
मुस्कुराया
और उसने कहा, हमारे पास
तो न ज्ञान है,
न त्याग है,
लेकिन
विनम्रता में
हम से ऊपर कोई
भी नहीं।
विनम्रता में
हमसे ऊपर कोई
भी नहीं।
विनम्रता में
हमारा कोई
मुकाबला नहीं।
विनम्रता
में हमसे कोई
ऊपर नहीं, ऐसी बात! तो तो फिर
विनम्रता भी
अहंकार की ही
घोषणा हो गई।
फिर तो
विनम्रता भी
अहंकार का ही
आभूषण हो गई। फिर
तो विनम्रता
अहंकार का नया
बचाव हो गई, नया छिपाव
हो गई। और
सबसे सुंदर
छिपाव। दिखाई ही
नहीं पड़ेगा, अहंकार ऐसा
छिपा; अब
तुम इसे पकड़
ही नहीं पाओगे,
ऐसा
सूक्ष्म हो
गया।
स्वरूपानंद, ऐसा तो कहो
ही मत कि मैं
अज्ञानी हूं।
अज्ञानी होना
आसान मामला
नहीं है।
अज्ञानी होना
बड़ी साधना है।
उनको मैं अज्ञानी
नहीं कहता
जिन्होंने
गीता, वेद,
कुरान नहीं पढ़े हैं।
वे अपढ़ हैं।
और उनको मैं
ज्ञानी नहीं
कहता, जिन्होंने
वेद, कुरान,
बाइबिल पढ़े
हैं। वे पठित
हैं। अज्ञानी
तो मैं कहता
हूं सुकरात
जैसे व्यक्ति
को, जिसने
अपने मरने के
पहले कहा कि
मैं सिर्फ एक ही
बात जानता हूं
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता।
यह है
अज्ञानी। मगर
ऐसा अज्ञान ही
तो ज्ञान का
पहला चरण है।
जो यह कह सके
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं और कह ही न
सके, ऐसी
उसकी प्रतीति
हो; यह भी
अहंकार का
दावा न हो, यह
अहंकार का
विसर्जन हो, तो फिर
ज्ञान अपने—आप
बरस जाता है।
अज्ञान
ज्ञान से
मुक्त होने से
मिलता है।
अज्ञान ज्ञान
से ऊपर की
अवस्था है।
उपनिषद ठीक
कहते हैं, उपनिषदों
में एक बहुत
अदभुत वचन है,
जैसा
दुनिया के
किसी भी
शास्त्र में
कहीं भी नहीं
है। उपनिषदों
में एक वचन है
कि अज्ञानी तो
भटकते ही हैं,
लेकिन
ज्ञानी और महा
अंधकार में
भटक जाते हैं।
अज्ञानी
भटकते हैं, यह तो समझ
में आने वाली
बात है। ये
सभी साधु, संत,
पंडित, पुरोहित
करते हैं:
ज्ञानी भटकते
हैं, लेकिन
उपनिषद कहता
है कि ज्ञानी
तो और महा अंधकार
में भटक जाते
हैं। कौन
ज्ञानियों की
बात हो रही है?
पांडित्य; थोथा, उधार,
बासा।
तुम पढ़
लेते होओगे
वेद, पुराण और
गीता और समझ
भी लेते होओगे,
लेकिन जब
तुम वेद पढ़ते
हो तो तुम वेद
के ऋषियों को
समझ सकते हो? वेद के
ऋषियों को
समझने के लिए
वेद के ऋषियों
की चेतना
चाहिए, उनके
साक्षी का
अनुभव चाहिए।
उनकी ऋचाएं
समझने के लिए
ऋषि हुए बिना
और कोई उपाय
नहीं। क्या
समझोगे तुम
वेद को? स्वरूपानंद,
तुम वही समझ
लोगे जो तुम
समझ सकते हो।
ऋषियों ने
क्या कहा है, उसकी तो
तुम्हें झलक
भी न मिलेगी, तुम अपने ही
अर्थ निकाल
लोगे। और कुछ
संभव भी नहीं
है। तुम सोचते
हो दस लोग वेद
को पढ़ेंगे
तो एक ही अर्थ
निकालेंगे? दस अर्थ
निकालेंगे।
गीता पर एक
हजार टीकाएं
हैं। या तो
कृष्ण का
मस्तिष्क
खराब था कि एक
हजार अर्थ! और
या फिर कृष्ण
का तो एक ही
अर्थ रहा था, लेकिन
निकालने
वालों ने हजार
निकाल लिए।
शब्द तो अवश
है। तुम उसे
उलटा करो, सीधा
करो, धक्का
मारो इधर से, उधर से, खींचत्तान करो, तुम
जो भी अर्थ
निकालना चाहो
निकाल लो।
एक
मनोवैज्ञानिक
ने छोटे
बच्चों को
शिक्षा देने
के लिए एक
स्कूल खोला।
उसका विचार था
कि बच्चों को
उनकी गलती पर
दंड नहीं
मिलना चाहिए; इससे उनकी
प्रतिभा नष्ट
होती है। उसने
अखबारों में
विज्ञापन निकलवाया
कि शिक्षक पद
हेतु ऐसे सज्जन
की आवश्यकता
है जो
शांतिप्रिय, वात्सल्यपूर्ण
और क्षमावान
हों।
इंटरव्यू के
लिए जो पहला
उम्मीदवार
आया, वह था
मुल्ला नसरुद्दीन—लाल
लंगोट लगाए, मूंछों पर ताव देता
हुआ।
मनोवैज्ञानिक
ने उसके
पहलवानी रंग—ढंग
देखकर कहा:
महाशय जी, क्या आपने
विज्ञापन को
ठीक से पढ़ा था?
मुल्ला
क्रोधपूर्ण
नजरों से उसे
घूरते हुआ बोला:
हां, पढ़ा था; तभी तो यहां
आया हूं। वरना
मुझे यह पता
भी न था कि
तुम्हारे
जैसे गीदड़
भी शहर के इस
कोने में रहते
हैं।
मनोवैज्ञानिक
तो घबड़ा गया।
डरते हुए उसने
पूछा: माफ
करिए, भाई
साहब! मैंने
शांतिप्रिय, वात्सल्यपूर्ण
और क्षमावान
सज्जन को
इंटरव्यू के
लिए बुलाया था;
क्या आपके
पास कोई
प्रमाण है कि
आप में ये गुण हैं?
एक
नहीं, सैकड़ों प्रमाण हैं—नसरुद्दीन
ने ताल ठोंककर
जवाब दिया—मेरी
पड़ोसिन
का नाम शांति
है, और
मुझे वह प्रिय
लगती है, अतः
मैं
शांतिप्रिय
हूं। पिछले
बीस वर्षों
में मैंने खुद
की बीबी से
बारह और अन्य
औरतों से करीब
डेढ़ सौ
बच्चे पैदा
किए हैं, अतः
आप सोच ही
सकते हैं कि
कैसा अति
मानवीय वात्सल्य
भाव मुझमें
है! विगत तीस
सालों में लगभग
तीन सौ जगह
नौकरी कर चुका
हूं; हमेशा
अधिकारियों
से दंगा—फसाद
और मारपीट
हुई। अंततः वे
बोले, भाई
साहब, हमें
क्षमा करो, कहीं और
जाकर काम करो।
और हर बार
मैंने उन्हें
क्षमा कर
दिया। अर्थात
मैं क्षमावान
सिद्ध हुआ। और
रही सज्जन
होने की बात।
तो सुन बे, मरियल
चूहे, यदि
मैं सज्जन न
होता, तो
प्रमाण पूछने
के दुस्साहस
पर अब तक तेरी
टांगें न तोड़
देता!
अर्थ
तुम क्या
लगाओगे? अर्थ
तुम कैसे
लगाओगे? अर्थ
तो तुम्हारे
होंगे। वेद तो
जरूर पढ़ोगे,
मगर वेद के
बहाने अपने को
ही पढ़ोगे।
किताबों तो
दर्पण हैं, तुम्हारे
चेहरे
तुम्हें दिखा
देंगी।
मैंने
सुना कि
मुल्ला नसरुद्दीन
को रास्ते पर
चलते हुए एक
आइना मिल गया।
उसे आइना पहली
दफा मिला।
उसने आइना
नहीं देखा था।
उठाकर आइना
देखा। अरे, उसने कहा, बड़े मियां, यह तो मेरे
पिताजी की
तसवीर है! यह
तो मैंने कभी
सोचा ही नहीं
था कि पिताजी
ऐसे शौकीन थे
कि तस्वीर भी उतरवाएं।
अच्छा हुआ मिल
गई, घर में
कोई तस्वीर भी
नहीं पिताजी
की, पिताजी
तो चल बसे, सम्हालकर
रख लूंगा।
सम्हालकर ले
आया, सोचा
पत्नी को
बताना ठीक
नहीं।
क्योंकि पत्नी
को मेरे
पिताजी से
बहुत चिढ़ थी।
फेंक—फांक
देगी, आग
लगा देगी।
तस्वीर को
बर्दाश्त न कर
सकेगी। जब
पिताजी मरे, उनकी मौत
हुई, तो
उसने लड्डू
बांटे थे
मुहल्ले में।
सो छिपाकर वह
ऊपर गया, एक
पिटारी में
उसने आइने
को छिपाने की
कोशिश की—लेकिन
पत्नियों से
कोई पति कभी
कुछ छिपा पाया
है? अब तक
तो यह नहीं
हुआ; सदियां
बीत गई, मगर
कोई पति पत्नी
से कुछ नहीं
छिपा पाया। हर
पति छिपाने की
कोशिश करता है,
हर पति पकड़ा
जाता है। वह
जितनी कोशिश
करता है, उसी
में पकड़ा जाता
है। कोशिश में
ही दिखाई पड़ जाता
है कुछ छिपा
रहे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का चोरी—चोरी
घर में घुसना, दबे पांव
भीतर आना, पत्नी
समझ गई कि कुछ
मामला है! बची
आंख देखती रही।
मुल्ला जब
खाना खा—पीकर
सो गया तो ऊपर
गई, खोली
पिटारी, निकाला
आइना, देखा
और बोली—अच्छा,
तो इस चुड़ैल
के पीछे पड़ा
है!
आइना
तो उसी चेहरे
को बता देगा
जो उसमें
झांकेगा।
मुल्ला समझा
पिताजी की
तस्वीर, पत्नी
समझी कि इस चुड़ैल
के पीछे पड़ा
है!
तुम
वेद पढ़ोगे, स्वरूपानंद,
तुम अपने को
ही पढ़ोगे।
तुम गीता पढ़ोगे,
अपने को ही पढ़ोगे। तुम
होश में कहां
हो? तुम
अभी बेहोश हो।
तुम्हारी
बेहोशी ही
वहां झलकेगी।
इसलिए कुरान—पुराण
पढ़ना
आसान है।
क्योंकि
कुरान रोक
नहीं सकती, पुराण रोक
नहीं सकता कि
ठहरो
स्वरूपानंद, तुम गलत पढ़
रहे हो; यह
प्रयोजन नहीं
है, यह
अर्थ नहीं है।
लेकिन जब तुम
मेरे जैसे
व्यक्ति के
पास आओगे तो
तुम मेरा वही
अर्थ नहीं कर
सकते जो तुम
करना चाहोगे।
मैं तुम्हें झकझोरूंगा।
मैं तुम्हें
बार—बार हिलाऊंगा।
मैं तुम्हें
रोज—रोज चोट
करूंगा। मैं
रोज—रोज
तुम्हें
समझाऊंगा कि
यह नहीं मेरा
अर्थ। जब तक
तुम मेरा अर्थ
नहीं समझ लोगे,
तब तक मैं
तुम्हें चैन
से न जीने
दूंगा।
एक
शास्त्रीय
संगीतज्ञ बड़ी
धुन में गा
रहे थे! और
जैसे ही उनका
गीत पूरा हो
कि जनता में
से आवाज आए:
फिर से, फिर
से! बड़े खुश हो
रहे थे। फिर
दुबारा गाएं।
लेकिन जैसे ही
गीत पूरा हो
कि फिर जनता
चिल्लाए: फिर
से, फिर से!
दुबारा भी गा
दिया, तीसरी
बार भी यही
हुआ, जब
चौथी बार जनता
फिर चिल्लाने
लगी: फिर से, फिर से, तो
उन्होंने कहा,
भाई, आगे
का गीत गाने
दोगे कि नहीं?
तो एक आदमी
जनता में से
खड़ा हुआ, उसने
कहा कि जब तक
पहला ठीक से न
गाओगे तब तक
हम फिर से फिर
से कहते ही
रहेंगे।
किताब
तो यह नहीं कर
सकती! लेकिन
जब तक मेरी
बात तुम्हारी
समझ में नहीं
आएगी, मैं
फिर से, मैं
फिर से; लगा
ही रहूंगा।
मैं तुम्हें
चैन से न जीने
दूंगा, न
चैन से बैठने
दूंगा, न
चैन से उठने
दूंगा। मैं
तुम्हारा
पीछा करूंगा।
दिन और रात।
जब तक बात ठीक
से समझ में न आ
जाएगी, जब
तक तुम ठीक से
गाना न गाओगे।
जरा भी भूल—चूक
होती रही तो
मेरी चोट जारी
रहेगी। इसलिए
तुम्हें अड़चन
होती है।
तुम
कहते, आप
इतने प्रेम से
समझाते हैं, पर मुझ
अज्ञानी के
पल्ले कुछ भी
नहीं पड़ता। घबड़ाओ मत।
मैं तुम्हारा
पल्ला जोर से पकड़े हूं, छोडूंगा
नहीं! जब तक
समझ में न आ
जाए तब तक मैं
हारने वाला
नहीं हूं। तुम
कहते हो, वैसे
वेद, पुराण,
गीता
इत्यादि सब
मेरी समझ में
आ जाते हैं।
उन्हें समझना
आसान है।
क्योंकि वे
तुम्हारा किसी
तरह का विरोध
नहीं कर सकते।
तुम जो भी उन
पर थोप दोगे, वही ठीक है।
तुम अपनी
बेहोशी उन पर थोपोगे।
और तुम खूब
बेहोश हो!
तुम्हारे पास
ध्यान नहीं है
तो होश कहां?
मेरे
पति इतने
भुलक्कड़ हैं
कि कल शाम को खिचड़ी
खाते समय बोले, गुलजान! कब से खिचड़ी
नहीं बनाई, एकाध दिन खिचड़ी
बनाओ न!—मुल्ला
नसरुद्दीन
की बीबी ने
अपनी पड़ोसिन
को बताया।
यह तो
कुछ भी नहीं, पड़ोसिन बोली, मेरे
दार्शनिक पति
प्रोफेसर भोंदूमल
तो और भी गजब
ढाते हैं! कल
रात की ही बात
कहूं। वे करीब
ग्यारह बजे
पुस्तकालय से
वापस आए। मेरी
नींद लग चुकी
थी। उन्होंने
आकर छाते को
मेरे बाजू में
पलंग पर लिटा
दिया और खुद
कमरे के कोने
में जाकर
टिककर खड़े हो
गए। अब बोलो, इससे ज्यादा
भुलक्कड़ और
बेहोश आदमी
कौन होगा? वह
तो अच्छा हुआ,
मेरी नींद
करीब एक बजे
खुल गई; और
तब मैंने
उन्हें
बिस्तर पर
लाकर सुलाया,
वरना वे
सारी रात खड़े
रहते! अजीब
बेहोश इंसान हैं!
ऐसे मदहोशों
से तो खुदा
बचाए! गुलजान
ने पूछा, बहन,
यह तो कहो, तुम्हारी
नींद कैसे खुल
गई? मैंने
तो सुना है कि
तुम्हें खूब
गहरी नींद आती
है।
हां, गहरी नींद
तो जरूर आती
है, पड़ोसिन बोली, मगर
कितनी भी गहरी
नींद हो, दो
घंटे में समझ
में आ ही जाता
है कि जिसके
साथ इतनी देर
से प्रेम—क्रीड़ा
चल रही है, वह
प्रोफेसर भोंदूमल
नहीं, भोंदूमल का छाता है।
सब तरफ
बेहोशी है। भोंदूमल
ही बेहोश नहीं
हैं, श्रीमती भोंदूमल
उनसे भी
ज्यादा बेहोश
हैं। दो घंटे
लग गए यह समझ
में आने में
कि छाते से
प्रेम—क्रीड़ा
चल रही है! तो भोंदूमल
ने ही ऐसा कौन—सा
कुसूर किया जो
कोने में खड़े
रहो!
और यह
कहानी एकदम
कहानी नहीं
है।
पश्चिम
का बहुत बड़ा विचारक
इमैनुअल
कांट नियमित
रूप से ऐसा कर
पाता था।
नियमित रूप
से। कहानी
नहीं, वस्तुतः।
उसके नौकर ने
उसे कई बार
पकड़ा—छाता
बिस्तर पर
लेटा है, वह
कोने में खड़ा
है...विवाह तो
उसने कभी किया
नहीं, नौकर
ही सब कुछ था।
नौकर को बहुत
जांच—पड़ताल
रखनी पड़ती थी।
क्योंकि इस
आदमी का क्या
भरोसा? भुलक्कड़पन की भी एक
सीमा होती है।
पश्चिम
का एक दूसरा
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
एडीसन तो एक
बार अपना खुद
का नाम भूल
गया। जरा मुश्किल
मामला है खुद
का नाम भूलना!
दूसरों का नाम
तो लोभ भूल
जाते हैं, भूले सुने
जाते हैं, मगर
कभी तुमने ऐसा
आदमी देखा जो
अपना नाम भूल
गया हो! एडीसन
भूल गया।
पहले
महायुद्ध में
क्यू में खड़ा
था। अनाज खरीदने
गया था। जब
उसके आगे का
आदमी भी हट
गया और उसका
नंबर आया और
अनाज देने
वाले ने आवाज
लगाई कि थामस
अल्वा एडीसन
कौन है? तो
उसने अपने
आसपास देखा कि
थामस
अल्वा एडीसन
कौन है? खड़ा
रहा अपनी जगह।
जब कोई थामस
अल्वा एडीसन
नहीं बोला, तो उस आदमी
ने फिर आवाज
दी कि भाई, ये
एडीसन कौन है?
कतार में एक
दसवें नंबर पर
खड़े आदमी ने
कहा कि जहां
तक मैं समझता
हूं, अखबारों
में मैंने
फोटो देखा है,
जो सज्जन
नंबर एक खड़े
हैं, ये थामस
अल्वा एडीसन
हैं।...बड़ा प्रसिद्ध
वैज्ञानिक
था। एक हजार
आविष्कार किए।
इतने
आविष्कार
किसी ने नहीं
किए।...तब एडीसन
को याद आया, कहा कि भाई, धन्यवाद!
खूब याद
दिलाई! नहीं
तो आज यहां हम
खड़े ही खड़े
रहते। और घर
पत्नी राह देख
रही होगी।
अपना
नाम भी लोग
भूल सकते हैं।
सच तो यह है, किसको अपना नाम
मालूम है? जो
नाम तुमने
समझा है
तुम्हारा है,
तुम्हारा
नहीं। वह तो
दिया हुआ नाम
है। लेबिल
लगा दिया मां—बाप
ने। कोई दूसरा
लगा देते तो
दूसरा हो
जाता। राम कहा
तो राम।
एक
सज्जन थे
रामदास, वे
मुसलमान हो
गए। बहुत दिन
बाद मुझे
मिले। मैंने
उनसे पूछा कि
रामदास, उन्होंने
कहा, मेरा
नाम रामदास
नहीं है...खुदाबख्श!
मैंने कहा जरा
सोचो भी तो
तुम, दोनों
का मतलब एक ही
होता है!
रामदास कहो कि
खुदाबख्श
कहो, क्या
फर्क हुआ?
नाम एक
हटाकर दूसरा
लगा दो कि
तीसरा लगा दो।
कोई भी नाम
काम दे देगा।
यह तुम्हारा
नाम नहीं है।
तुम अनाम आए, अनाम जाओगे।
इस नाम के
भीतर किसी दिन
खोजोगे
तो हरिनाम
पाओगे। उस दिन
पाओगे कि एक
ही नाम है
तुम्हारा: अहं
ब्रह्मास्मि।
अभी तो तुम
क्या समझोगे
वेद और क्या
समझोगे गीता
और क्या समझोगे
कुरान, क्या
समझोगे
बाइबिल?
स्वरूपानंद, किसी सदगुरु
के सत्संग को
पहले समझना
होता है।
क्योंकि वहीं
तुम जगाए जा
सकते हो, किताबें
नहीं जगा
सकतीं।
किताबें तो
खुद ही मुर्दा
हैं, तुम्हें
क्या खाक जगाएंगी!
तुम तो उन्हें
जहां रख दोगे
वहां पड़ी
रहेंगी! पूजा
के फूल चढ़ा
दोगे तो ठीक
और कमरे के
बाहर निकालकर
फेंक दोगे, तो ठीक!
पूना
में मुझे
प्रेम करने
वाली एक महिला
हैं...उनका नाम
नहीं बताऊंगा; क्योंकि
उनके प्रति
एकदम पागल हो
जाएंगे।...सुनने
तो आने ही
नहीं देते
पत्नी को यहां,
मेरी
किताबें भी
नहीं पढ़ने
देते। लेकिन
पत्नी कभी—कभी
चोरी—छिपे आकर
मुझसे मिल
जाती है। वर्ष—दो
वर्ष में एकाध
बार, किसी
तरह!
उसने
मुझे बताया कि
एक बड़ी मजे की
बात है, कि
मेरे पति आपकी
किताब देखकर
ही आगबबूला हो
जाते हैं। पढ़ती
तो मैं हूं ही,
छिपकर पढ़ना
पड़ता है, लेकिन
कभी—कभी वे
पकड़ लेते हैं।
जैसे अब वे बाथरूम
में स्नान
करने गए हैं
और मैं आपकी
किताब पढ़ रही
हूं, वे
एकदम बीच में
ही आ गए निकलकर—जब
उनको नहीं आना
चाहिए—बस तो
किताब लेकर वे
खिड़की के बाहर
फेंक देते हैं।
और उनसे मैं
ज्यादा झंझट
करना भी नहीं
चाहती। तो मैं
चुप ही रहती।
मगर एक बड़े
चमत्कार की
बात है कि जब
मैं नहीं होती,
तो वे किताब
उठाकर अपने
सिर से लगाते
हैं। फेंकते
भी हैं और
अपने सिर से
भी लगाते हैं।
तो उसने कहा, मेरी कुछ
राज समझ में
नहीं आता।
मैंने कहा, राज साफ है।
तेरे सामने
आकर दिखाने के
लिए फेंक देते
हैं, फिर
डरते होंगे कि
कहीं कोई पाप
न हो जाए! या कहीं
कोई गड़बड़ न हो
जाए! कहीं कोई
नुकसान न हो
जाए! कौन जाने
यह आदमी ठीक
ही हो!
अब इधर
मेरे पास तार—परत्तार आ
रहे हैं सारे
देश से, तारों
में खबर यह है: बधाइयां, मुझे!
क्योंकि
मोरारजी भाई
डूब गए। लोग
सोच रहे हैं
कि मैंने डुबा
दिया। दिल्ली
से भी तार आ
रहे हैं:
बधाई। मेरा इसमें
कुछ हाथ नहीं
है। मुझे क्या
लेना—देना
उनको डुबाने
से? उनकी
अपनी करतूतें
काफी डुबाने
के लिए, मुझे
क्या डुबाने
की पड़ी! लेकिन
लोग यह समझ
रहे हैं कि
मैं उनको डुबा
दिया। और हो
सकता है वे भी
भीतर—भीतर समझ
रहे हों कि
कहां की झंझट
में पड़े! क्योंकि
किताब तो वे
भी चोरी—छिपे
पढ़ते हैं।
तो
मैंने उनकी
पत्नी को कहा, लगा लेते
होंगे सिर से
किताब को कि
माफ करो, आपको
नहीं फेंक रहा
हूं, मैं
तो सिर्फ
पत्नी को
शिक्षा देने
के लिए फेंक
देता हूं।
नाराज आप न हो
जाएं। लोग
अपने मन में
हिसाब लगा
लेते हैं।
अजीब—अजीब
हिसाब लगा
लेते हैं।
मैं
अहमदाबाद से
बंबई आ रहा था, हवाई जहाज
पर। एक आदमी
मुझे मिले, उन्हें मैं
जानता भी नहीं
था। उन्होंने
एकदम मेरे पैर
पड़े और कहा कि
आपका जितना
धन्यवाद करूं
उतना कम।
मैंने कहा, हुआ क्या? मुझसे कोई
गलती हुई? उन्होंने
कहा, नहीं—नहीं,
आप भी कैसी
बात करते हैं!
मुकदमा जिता
दिया आपने।
कौन—सा मुकदमा,
मुझे कुछ
पता नहीं आपके
मुकदमे का!
उन्होंने कहा,
चार साल से
मुकदमा चल रहा
था, कोई
पंद्रह लाख
रुपए उलझे थे,
जीत गया।
आपकी कृपा से
जीता। मैंने
उनको कहा, लेकिन
मुझे कुछ पूरी
खबर तो दो, क्योंकि
मुझे पता ही
नहीं कौन—सा
मुकदमा, मैं
तुम्हें
जानता ही
नहीं।
उन्होंने कहा,
आप कितना ही
छिपाओ...वे
मेरी भी मानने
को राजी नहीं,
वे कह रहे
हैं, आप
कितना ही छिपाओ,
छिपा न
सकोगे। जाते
वक्त हवाई
जहाज में आपके
बगल में ही
बैठा था, तभी
मुझे पक्का हो
गया था कि ऐसा
सान्निध्य मिल
गया कि इस बार
मुकदमा जीत
जाना है।
पक्का ही हो
गया। और मैं
जीत भी गया।
तब से मैं पता
लगाकर बैठा
हूं कि किस
हवाई जहाज से
आप वापस लौटेंगे।
आपके साथ ही
वापस जाना है।
जब आने में
इतना फायदा
हुआ तो जाने
की कौन जाने? और लाटरी
खुल जाए! या
कुछ हो जाए!
मैंने उनको कहा,
भइया, मुझे
तुम क्षमा करो,
मुझे
तुम्हारे
मुकदमे का कुछ
पता नहीं है
और किसी को
भूलकर मत
कहना! लेकिन
वे मेरी मानने
को राजी नहीं।
जिंदा
आदमी की भी
मानने को लोग
राजी नहीं
होते, किताबों
की तो कहना
क्या? किताब
पर फूल चढ़ा दो
तो किताब कुछ
नहीं कर सकती,
किताब को आग
लगा दो तो
किताब कुछ
नहीं कर सकती।
लेकिन अगर तुम
मेरे सत्संग
में आकर बैठे
हो...और
स्वरूपानंद
संन्यासी हैं!
हिम्मत की है।
क्योंकि वेद,
पुराण, गीता
जिसको समझ में
आई हो, वह
संन्यासी हो
जाए, यह
हिम्मत का काम
है। हां, स्वरूपानंद
किसी पुराने
ढब के आश्रम
में संन्यासी
हो जाते, वह
ठीक था, मेरे
संन्यासी हो
गए हैं, हिम्मतवर
आदमी हैं।
साहसी हैं। जरूर
थोड़ा बल है, आत्मबल है।...
घबड़ाओ
न! शायद मेरी
बातें इसलिए
समझ में नहीं
आ रही हैं कि
वे वेद और
गीता और
उपनिषद खूब
तुम्हारे सिर
में भरे हुए
हैं। ठूंस—ठूंसकर
भरे हुए हैं।
पहले उन्हें
निकालना पड़ेगा।
निकाल लूंगा, घबड़ाओ मत, वही
मेरा काम है।
वही मेरी
कुशलता है।
उपनिषद पर ही
बोलता हूं और
उपनिषद ही
खोपड़ी से
निकालता हूं।
गीता पर बोलता
हूं और तुम
समझते हो कि
चलो गीता
सुनने चल रहे
हैं और तुम्हें
पता नहीं कि
यहां मामला
कुछ और है!
यहां जेब कट
जाएगी! सर्जरी
मेरा धंधा है।
लेकिन
थोड़ा समय तो
लगता है। थोड़े
टिके रहो, घबड़ाओ मत। आज नहीं
समझ में आता, कोई फिक्र न
करो। वह
पुराना है जो
समझ में आ गया
है, बाधा
डाल रहा है।
जरा पुराना कूड़ा—कचरा
मुझे निकाल
लेने दो, फिर
नया अपने—आप
समझ में आने
लगेगा। मैं तो
जो कह रहा हूं,
सीधा—साफ है,
स्फटिक
जैसा स्पष्ट
है। मेरी भाषा
में कोई उलझन
नहीं है। मैं
कोई बहुत
सैद्धांतिक, शास्त्रीय,
पारिभाषिक
भाषा नहीं बोल
रहा हूं, बोलचाल
की भाषा बोल
रहा हूं। यह
कोई प्रवचन नहीं
है, सीधी—सीधी
बातचीत है। यह
कोई
व्याख्यान
नहीं है, यहां
कोई उपदेश
नहीं दिया जा
रहा है, मैं
तो अपना हृदय
खोलकर
तुम्हारे
सामने रख रहा
हूं। जिस दिन
तुम भी अपना
हृदय खोलकर
मेरे सामने रख
दोगे, बस
घटना घट जाएगी,
क्रांति हो
जाएगी। अभी
तुम बंद हो।
तुम्हारी किताबों
ने तुम्हें
बंद किया है।
अभी तुम सुन तो
जरूर रहे हो
लेकिन ठीक—ठीक
नहीं सुन पा
रहे हो, क्योंकि
बीच—बीच में
तुम्हारे वेद
आ जाते होंगे।
इधर मैं कुछ
कहता हूं, तुम्हारा
वेद भीतर से
कहता होगा, हां, ठीक
है, यही तो
ऋग्वेद में
लिखा है। बस
चूक गए! या
तुम्हारे
भीतर से वेद
कहता होगा, नहीं—नहीं, यह ठीक नहीं
हो सकता, यह
तो ऋग्वेद के
विपरीत पड़ता
है। चूक गए!
मैं जो
कह रहा हूं, उसे सीधा—सीधा
जिस दिन सुन
पाओगे, बीच
में कुछ नहीं
आएगी अड़चन—कोई
व्याख्या, कोई
सिद्धांत, कोई
शास्त्र—उस
दिन तुम्हें
मेरी बातें
इतनी सरल
मालूम होंगी
कि इनसे सरल
और कोई बात
नहीं हो सकती।
अभी तुम
अज्ञानी नहीं
हो, ज्ञानी
हो।
स्वरूपानंद, अज्ञानी हो
जाओ तो धन्यभागी
हो! क्योंकि
जो अज्ञानी हैं
वे निर्दोष
हैं। और जो
राजी हैं
स्वेच्छा से
अज्ञानी होने
को, उनके
ऊपर ज्ञान की
वर्षा होगी।
जो खाली हो
जाते हैं, वे
भर दिए जाते
हैं।
शून्य
बनो, ज्ञान से
शून्य हो जाओ
और मैं तुमसे
कहता हूं: ज्ञान
से पूर्ण हो
जाओगे।
ज्ञान
और ज्ञान में
फर्क है। एक
ज्ञान है जो
शास्त्रों से
आता है और एक
ज्ञान है जो
आकाश से उतरता
है, इल्हाम
होता है। मैं
उसी ज्ञान की
तरफ तुम्हें
ले चलना चाहता
हूं।
आज
इतना ही।
(समाप्त)
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