(अध्याय—चार)
दोपहर
दो बजे मैं उस
बंगले पर
पहुंचती हूं
जहां वे ठहरे
हुए हैं। वहां
बहुत से लोग पहले
ही उनसे मिलने
के लिए आए हुए है
और उनका इंतजार
खर रहे हैं।
उनके सचिव आते
हैं और लोग एक—एक
करके उनसे
मिलने के लिए
उनके कमरे में
जाने लगते हैं।
सभी लोग दो या
तीन मिनट में
उनसे मिलकर
बाहर आ रहे
हैं। अब मेरे
आगे खड़ी हुई स्त्री
भीतर जा रही
है,
उसके बाद
मेरी ही बारी
है। सिर्फ यह
देखने के लिए
कि वह ओशो से
कैसे मिलती है,
मैं खिड़की
से भीतर
झांकती हूं।
ओशो सोफे पर
बैठे हैं फर्श
पर कालीन बिछा
है। वह स्त्री
झुककर ओशो के
चरण स्पर्श
करती है
और
कालीन पर बैठ
जाती है। मैं
स्वयं से कहती
हूं यही उनसे
मिलने का उचित
ढंग लगता है। 'मेरा हृदय
उत्तेजना में
धड़क रहा है और
साथ ही 'किसी
अज्ञात भय से
कांप भी रहा
है। कुछ ही
मिनटों में वह
स्त्री बाहर
आती है और मैं
कमरे में
प्रवेश करती
हूं।
ओशो
बड़ी मोहक
मुस्कान से
मेरा स्वागत
करते हैं। मैं
बस सब कुछ
भूलकर उनकी ओर
खिंची चली
जाती हूं। और
उनके गले लग
जाती हूं और
वे मेरे
आलिंगन को
इतने प्रेम से
स्वीकार करते
हैं जैसे केवल
मैंने ही
उन्हें नहीं
खोजा है, उन्हें
भी कोई खोया
हुआ बालक मिल
गया है। वे
बड़े प्रसन्न
नजर आते हैं
और मुझे सोफे
पर ही अपनी
बाईं ओर बिठा
लेते हैं।
अपने बाएं हाथ
से वे मेरी
पीठ को सहला
रहे हैं और
अपना दायां
हाथ वे मेरे
हाथों में दे
देते हैं। मैं
उनकी आंखों
में झांकती
हूं—वे प्रेम
और प्रकाश से
परिपूर्ण हैं,
और मुझे ऐसा
महसूस हो रहा
है. कि इस
व्यक्ति को
मैं अनंतकाल
से जानती हूं।
अपने जादुई
स्पर्श से
जैसे वे कुछ
चमत्कार सा कर
रहे हैं तथा
पिछली रात
उनका प्रवचन
सुनने के बाद से
मृत्यु का जो
अनुभव मुझे
हुआ था उससे
निकलकर अब मैं
अपनी सामान्य
अवस्था में
लौट आती हूं।
वे
मुझसे पूछते
हैं कि मैं
क्या करती हूं, लेकिन
मैं कुछ भी
बोलने में
असमर्थ हूँ।
वे कहते हैं, चिंता मत
करो, सब
कुछ ठीक हो
जाऐगा। कुछ
क्षणों में जब
मैं बोल पाने
में समर्थ हो
जाती हू तो
मैं उन्हें
बताती हू कि
मैं बंबई की
एक
ट्रांसपोर्ट
कंपनी में काम
करती हूं।
वे
पूछते हैं, क्या
तुम मेरा काम
करोगी?'
यह
तो मुझे पता
नहीं था कि
उनका काम क्या
है,
लेकिन मैं
सहमति में सिर
हिला देती हूं।
वे
अपने सचिव को
भीतर बुलाकर
उससे मेरा
परिचय करवाते
हैं और मुझ से
कहते हैं, इससे
संपर्क बनाऐ
रखना। '
थोड़ी
देर बाद मैं
बाहर जाने के
लिए उठ खड़ी
होती हूं,
और दो या तीन
कदम चलने के
बाद ही पीछे
मुड़कर उनकी ओर
देखती हूं। वे
मुस्कुरा
देते हैं, और
मैं वापस
लौटकर उनके
चरणों में बैठ
जाती हूं।
वे
कहते हैं, 'अपनी
आंखें बंद करो',
और अपना
दायां पांव
मेरे हृदय
केंद्र पर रख
देते हैं।
उनके पांव से
कोई ऊर्जा
निकलकर मेरे
शरीर में
प्रवेश करती
हुई महसूस
होती है और
मेरा मन बिल्कुल
शून्य हो जाता
है, मैं
केवल अपनी
सांस की आवाज
सुन पाती हूं।
—ऐसा लगता है
जैसे समय रुक गया
हो। शायद कुछ
ही मिनट हुए
होंगे कि मुझे
उनकी आवाज
सुनाई देती है,
वापस आ जाओ...
धीरे—धीरे
अपनी आंखें
खोल लो। 'आहिस्ता
से वे अपना
पांव हटा लेते
हैं, और जब
मैं अपनी आंखें
खोलती हूं तो
देखती हूं कि
वे अपनी आंखें
बंद किए बैठे
हैं। धीमे से
उठकर मैं कमरे
से बूरा_हर
निकल आती हूँ।
मेरा हृदय
आनन्दातिरेक
से नाच रहा है।
ऐसा लग रहा है
जैसे मैंने
कोई खोया
खजाना पा लिया
है।
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