धर्म
को हमने सालों
से यूं लिया
हुआ है मानो
वह कोई ऐसी
बात हो कि जो
वृद्ध हो गये
हैं,
या जिनके
पास कुछ न करने
को रहा, वे
धर्म में रुचि
लेने लगते हैं।
ओशो के साथ
मौलिक रूप से
चीजें बदल गईं।
शायद ओशो पहले
ऐसे सद्गुरु
हैं
जिन्होंने प्रवचन
सुनने पर टिकिट
लगाया।
प्रवचन सुनने
के लिए पैसे
देने होंगे।
लोगों का बात
बड़ी अजीब लगी
लेकिन ओशो के
साथ बात का
अजीब लगना आम
बात है। पुणे
आश्रम में
शुरू में
प्रवचन पर दस
रुपये प्रति
व्यक्ति रखा
गया था। हां, इतना जरूर
है कि प्रवेश
शुल्क कभी भी
अनिवार्य
नहीं रहा। जो
मित्र नहीं दे
पाते या नहीं
देना चाहते उन्हें
निःशुल्क
प्रवेश मिल
जाता था।
ओशो
धर्म को
प्रतिभावान, युवा
ऊर्जस्वी
लोगों की बात
मानते हैं।
हालांकि पैसे
को कभी भी
इतनी महत्ता
भी नहीं दी गई
कि कोई प्यासा,
कोई प्यारा
व्यक्ति ओशो
तक सिर्फ इस
कारण पहुंच ही
न पाए कि उसके
पास पैसा नहीं
है। इस बात का
हमेशा खयाल
रखा गया था।
लेकिन
सामान्यतया
लोग यही मानते
कि ओशो के पास
सिर्फ अमीरों
का गुजारा हो
सकता है।
एक
बार तीन चार
पंजाबी जाट
आश्रम देखने
आए,
प्रवचन
सुनने आए। वे
आश्रम के बाहर
खडे होकर
आपस में बात
कर रहे थे 'क्या
यार हमें तो
प्रवेश
मिलेगा ही
नहीं, यह
तो अमीरों का
आश्रम है, पैसे
हैं तो सब है।’
मैं वहां
खड़ा सुन रहा
था। मैंने कहा,
'भाई प्रवचन
सुनना है तो
कुछ तो देना
होगा, पैसे
नहीं हैं तो
कुछ श्रम दान
ही दे दो।’ उन्होंने
कहा ठीक है।
मैं उन्हें
रसोई में ले
गया और कोई
छोटा—मोटा काम
दे दिया। थोडी
ही देर में एक—एक
करके सभी
पंजाबी वहां
से चले गए। अब
इतनी भी प्यास
नहीं कि पैसे
नहीं तो कम से
कम कुछ काम
में हाथ बंटा
लो, ऐसे
लोग रुक भी
जाएं तो वे
किसी काम के
नहीं होंगे।
यही कारण रहा
कि ओशो तक
पहुंचना इतना
आसान नहीं था।
हां, प्यासे
को पहुंचने
में कभी कोई
दिक्कत नहीं होती।
ओशो
के धर्म की
देशना में काहिलों, आलसियों,
मुफ्तखोरों के लिए कोई
जगह नहीं है। धर्म
के नाम पर
हमारे देश में
मुफ्तखोरी
की बड़ी आदत पड़
गई है लोगों
की और फिर ओशो
की देशना को
समझे बिना, गलत अर्थ
निकालने लगते
हैं।
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